शुक्रवार, 5 मार्च 2021

सफलता बनाम गुण

बचपन में अच्छी और प्रेरणादायक पुस्तकें बहुत पढ़ीं - पाठ्यपुस्तकों में भी सद्गुणों की बड़ी महिमा गाई जाती थी । ऐसा भी बहुत पढ़ा और अध्यापकों तथा अन्य आदरणीयों के मुखमंडलों से सुना कि सफलता का आधार हैं आपके गुण । लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया, धीरे-धीरे यह सच्चाई समझ में आती गई कि व्यावहारिक संसार में गुण और सफलता कम-से-कम प्रत्यक्षतः तो एक दूसरे से संबंधित नहीं ही होते हैं । भौतिक सफलता जिसे संसार मान्यता देता है और जिसके आगे शीश झुकाता है, उन सद्गुणों पर आधारित नहीं है, जिनकी महिमा पुस्तकों (और पुरानी फ़िल्मों) में गाई गई है और जिन्हें अपनाने का उपदेश निर्दोष बालकों को तथाकथित बड़ों से चाहे-अनचाहे सुनना पड़ता है । तो फिर वास्तविकता क्या है ?

१९९१ के फ़रवरी माह में जिन दिनों मैं अपनी सी.ए. की पढ़ाई कर रहा था, मुझे असम के कछार क्षेत्र में चाय बाग़ानों की लेखा-परीक्षा के लिए भेजा गया जहाँ ठहरने की व्यवस्था वहाँ के बाग़ान अधिकारियों के घरों में ही की जाती थी । उस दौरान मुझे अपने आतिथेय के घर पर वीडियो कैसेट के माध्यम से एक नई फ़िल्म देखने कों मिली जिसका शीर्षक था - 'कारनामा' । उसमें विनोद खन्ना नायक थे और किमी काटकर नायिका थीं । फ़िल्म घुड़दौड़ तथा उसके निमित्त घोड़ों के पालन के विषय पर आधारित थी । फ़िल्म के एक दृश्य में घोड़े पालने वाली नायिका से नायक एक प्रश्न करता है - 'आप जानती हैं कि घोड़े की कीमत उसकी नस्ल से होती है लेकिन क्या आप यह भी जानती हैं कि नस्ल की कीमत किससे होती है ?' नायिका को कोई उत्तर नहीं सूझता तो नायक उसे उत्तर बताता है - 'नस्ल की कीमत होती है घोड़े के कारनामों से ।' अर्थात् घोड़ा जितनी अधिक दौड़ें जीतता है, प्रतिस्पर्द्धात्मक स्तर पर जितनी अधिक सफलताएं और उपलब्धियां प्राप्त करता है, जितने अधिक फ़ायदेमंद कारनामे कर दिखाता है; उसकी नस्ल की कीमत उतनी ही ऊंची आँकी जाती है ।

फ़िल्म के नायक द्वारा नायिका से पूछे गए इसी प्रश्न की तर्ज़ पर मेरा भी पाखंड में आकंठ डूबे तथाकथित व्यावहारिक संसार से प्रश्न है - 'यदि मनुष्य का मूल्य उसके गुणों से आँका जाता है तो गुणों का मूल्य किससे आँका जाता है ?' और नायक द्वारा नायिका को दिए गए उक्त उत्तर की ही तर्ज़ पर इसका समुचित उत्तर है - 'मनुष्य की सफलताओं से ।' उन सफलताओं से जिन्हें संसार देखता है और महत्वपूर्ण मानता है । अन्य शब्दों में मनुष्य की भौतिक उपलब्धियां ही उसके गुणों की स्वीकृति तथा मूल्यांकन का आधार बनती हैं । व्यक्ति द्वारा अर्जित सफलता का स्तर ही उसके गुणों के आकलन की कसौटी है, उसकी क़ाबिलियत का पैमाना है । मनुष्य के गुण उसे सफलता की ओर चाहे ले जाएं, चाहे न ले जाएं; सफलता प्राप्त कर लेने के उपरांत संसार उसे गुणी अवश्य मानने लगता है । इसीलिए जब भी किसी व्यक्ति के गुणों की महिमा गाई जाती है, अप्रत्यक्ष रूप से वह उसकी सांसारिक एवं भौतिक सफलताओं का ही महिमा-मंडन होता है । असफल व्यक्ति के गुणों को मान्यता देना तो दूर, उन पर दृष्टिपात करने का कष्ट भी कोई नहीं करता जबकि सफल व्यक्ति के व्यक्तित्व में गुण बलपूर्वक ढूंढ लिए जाते हैं चाहे वास्तविकता में उनका अस्तित्व ही न हो । सफल हैं तो सब आपके हैं और असफल हैं तो कोई आपका नहीं । सफलता का श्रेय लेने सभी दौड़ते हैं, असफलता का दायित्व लेने कोई आगे नहीं आता । इसीलिए कहा जाता है कि सफलता के कई पिता होते हैं जबकि असफलता अनाथ होती है ।

वर्तमान पीढ़ी इस तथ्य को भलीभांति समझ गई है । उसे सूझ गया है कि गुणों को भी मान्यता तभी मिलती है जब वे भौतिक सफलता दिलाएं क्योंकि गुण अदृश्य होते हैं जबकि भौतिक सफलता सभी को दिखाई देती है । आज के युग में आप चाहे कितने ही योग्य, प्रतिभावान और कर्मशील हों, प्रशंसा के योग्य तो सफल होने के उपरांत ही माने जाएंगे । संसार तो चमत्कार को ही नमस्कार करता है । इसीलिए वर्तमान पीढ़ी का जीवन-मंत्र है - 'सफलता किसी भी मूल्य पर' । वह मानती है कि सफलता के लिए बहुत कुछ त्यागा जा सकता है लेकिन सफलता को किसी के भी लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता । वह सबसे अधिक मूल्यवान है और इसीलिए उसे येन-केन-प्रकारेण अर्जित करना आवश्यक है । और उस सफलता को पाने के लिए जब गुण पर्याप्त न हों तो झूठ, धोखे एवं विश्वासघात जैसे घोषित अवगुणों का अवलंब लेना भी इस तथाकथित व्यावहारिक युग में अस्वीकार्य नहीं लगता है । सफलता जब मिल जाती है तो उसकी ऊंची उठती लहरों में नैतिकता से संबद्ध सभी बातें विलीन हो जाती हैं । एक बार सफल हो जाइए, फिर कौन देखता है कि सफलता आपने कैसे प्राप्त की ? एक बार शिखर तक पहुँच जाइए, फिर किसे परवाह है कि आपने कौनसी सीढ़ी का प्रयोग किया और कितने कंधों पर पग रखकर ऊपर चढ़े ? इसीलिए अब सफलता के प्रत्येक प्रयास को युद्ध की ही भांति लिया जाता है जिसमें साम-दाम-दंड-भेद आदि सभी साधनों का प्रयोग उचित माना जाता है ।

आध्यात्मिकता से जुड़ी भावभीनी बातें भी सफल व्यक्तियों के मुँह से ही पसंद की जाती हैं जो आध्यात्मिकता की ओर तभी उन्मुख होते हैं जब वे अपने जीवन में भौतिक सफलता का वांछित लक्ष्य प्राप्त कर चुके होते हैं, धन एवं प्रतिष्ठा से ओतप्रोत हो चुके होते हैं, नाना प्रकार की सुख-सुविधाएं (जो धन से ही क्रय की जा सकती हैं) भोग चुके होते हैं तथा अपने जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत कर चुके होते हैं । भौतिक रूप से असफल व्यक्ति की तो आध्यात्मिकता भी प्रायः उपहास का विषय बन जाती है । सफल व्यक्ति अपने आपको उपदेशक बनने का अधिकारी समझने लगते हैं और उनके उपदेश ध्यानपूर्वक सुने और पढ़े जाते हैं (चाहे अंगीकार न किए जाएं) जबकि असफल व्यक्ति उपदेश लेने के ही योग्य माना जाता है और उसकी असफलता को आधार बनाकर कोई भी ऐरा-ग़ैरा उसे उपदेश झाड़ने लगता है, स्वयं को सर्वज्ञ मानकर उसे यह बताने लगता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ।

सफल व्यक्ति अपनी सफलता का शिखर छू चुकने के उपरांत पुस्तकें लिखते हैं और प्रसिद्ध व्यक्ति यानी कि सेलीब्रिटी के रूप में उनके द्वारा लिखी गई ऐसी पुस्तकें आनन-फ़ानन में ख़ूब बिकने वाली यानी कि बेस्टसेलर का दर्ज़ा हासिल कर लेती हैं । ज़ाहिर है कि उन्हें बेस्टसेलर की हैसियत उनकी गुणवत्ता के कारण नहीं बल्कि उनके लेखक की प्रसिद्धि (सेलीब्रिटी स्टेटस) और भौतिक सफलता के कारण मिलती हैं । ऐसे लेखक अपनी पुस्तकों में अपनी सफलता के जो कारण तथा जो पृष्ठभूमि बताते हैं, उनमें सत्य का अंश कम ही होता है पर उन्हें क्या अंतर पड़ता है, पुस्तक तो ख़ूब बिक जाती है न जो कि उनकी भौतिक समृद्धि में बढ़ोतरी ही करती है ! पढ़ने वाले तो उसकी सामग्री को सत्यापित करने वाले नहीं । सेलीब्रिटी लेखक ने जो लिख दिया, वे तो उसी पर विश्वास कर लेंगे । और बेस्टसेलर पुस्तकें वही होती हैं जो सफलता की कहानी कहती हैं या सफल होने के गुर बताती हैं । जो पुस्तक नैतिक या चरित्रवान या सद्गुणी बनने की सीख दे, उसे क्रेता नहीं मिलते । इसीलिए 'सफल कैसे बनें ?' के विषय वाली पुस्तकें ही बिकती हैं, 'सद्गुणी कैसे बनें ?' के विषय वाली नहीं । अंततः सभी को सफलता ही तो चाहिए, सफलता से विहीन सद्गुणी व्यक्तित्व किसे चाहिए ? कन्या के विवाह के लिए वर ढूंढने वाले माता-पिता भी सफल और समृद्ध जमाई ही चाहते हैं जो या तो ख़ूब सम्पन्न हो या किसी उच्च और प्रभावशाली पद पर हो; मेहनती, ईमानदारशरीफ़ और क़ाबिल जमाई नहीं ।

सफलता के गुर बताने वाली पुस्तकों में चाहे जो कहा गया हो और जीवन में सफलता प्राप्त कर चुकने के उपरांत पुस्तकें लिखने वाले या भाषण झाड़ने वाले अपनी सफलता के चाहे जो कारण पढ़ने वालों या सुनने वालों को बताएं, मैंने कथित सफल व्यक्तियों में कुछ ऐसी विशेषताएं पाईं जिन्हें उनके व्यक्तित्व में सरलता से देखा जा सकता है लेकिन जिनका कहीं उल्लेख नहीं किया जाता है । अकसर सफल कहलाने वाले लोकलुभावन बातें तो करते हैं किन्तु उनकी बातों में निजी प्रचार और विपणन ही अधिक होता है । अन्य व्यक्तियों की प्रशंसा करने या उनके गुणों को सबके सामने मान्यता देने में वे कृपण ही होते हैं विशेषतः तब जब वे उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हों । वस्तुतः अन्य व्यक्तियों के लिए उनकी प्रशंसा और आलोचना दोनों ही उनके निजी स्वार्थ पर ही आधारित होती हैं न कि निरपेक्ष तथ्यों पर । वे प्रत्येक सकारात्मक परिणाम का श्रेय लेने में सबसे आगे होते हैं चाहे वे उसके वास्तविक अधिकारी न हों जबकि प्रत्येक नकारात्मक परिणाम का दायित्व लेने के लिए या तो वे किसी अन्य को ढूंढते हैं या फिर उसके लिए दूसरों के गले उतर सकने वाला कोई ऐसा तर्क ढूंढते हैं जो उन्हे सुर्ख़रू साबित करता हो । अधिकांश सफल व्यक्ति खरी-खरी बात कहने वाले नहीं होते, वे अकसर लाग-लपेट का सहारा लेकर ही अपनी बात कहते हैं । वे कभी अपनी भूल स्वीकार नहीं करते और अपने हर अनुचित कृत्य को न्यायसंगत ठहराने का ही प्रयास करते हैं । सत्य और न्याय की वे जितनी बातें करते हैं, व्यवहारतः उनका पक्ष लेने से वे उतना ही परहे करते हैं । सत्य और न्याय के लिए उनकी पक्षधरता तभी अस्तित्व में आती है, जब उन्हें इसमें अपना कोई हित दिखाई दे । वे परोपकार भी तभी करते हैं जब तक उनकी भौतिक सफलता, संसाधनों और अधिकारों पर कोई आँच न आए ।  वे अपने हित-साधन के लिए दूसरों का इस्तेमाल करने में बड़े प्रवीण होते हैं । वे मीठी-मीठी लेकिन बनावटी बातें करने में निपुण होते हैं और अपनी इसी योग्यता के आधार पर वे अपने आपको व्यवहार-कुशल मानते और जताते हैं किन्तु उनकी यह कथित व्यवहार-कुशलता प्रायः हर बात को अपनी सुविधानुकूल तोड़ने-मरोड़ने तथा जब आवश्यक हो, बेझिझक झूठ बोलने में ही परिलक्षित होती है । मैंने ऐसे कथित सफल व्यक्तियों के शब्दों और कर्मों में बड़ा भारी अंतर देखा है । और इस अंतर को क्या कहा जा सकता है सिवाय पाखंड के । वे यह जानते हैं और मानते हैं  कि सफलता से अधिक सफल इस संसार में कुछ नहीं होता (नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस) । इसीलिए अपने भीतर वे गो-गैटर वाली यानी कि किसी भी मार्ग से अपना अभीष्ट पा लेने की तिकड़मी मानसिकता को विकसित करते हैं । उनका हर कृत्य, हर प्रतिक्रिया, र हाव-भाव और यहाँ तक कि भावुकता का प्रदर्शन भी उनके नफ़े-नुक़सान से ही प्रेरित होता है । वे ज़ाहिर चाहे जो करें, उनकी हर बात के पीछे औरों को छलने और स्वयं को बेचने की ही मंशा होती है । उनके लिए सपनों का मूल्य अपनों से अधिक होता है । वे किसी संबंध, किसी भावना, किसी नैतिकता या किसी जीवन-मूल्य को सफलता पर वरीयता नहीं देते हैं । सफल होना ही उनके जीवन का सर्वोच्च सिद्धान्त होता है जिसके आगे अन्य सभी सिद्धान्त गौण होकर रह जाते हैं ।

असफल व्यक्ति यदि सद्गुणी, निर्मल-हृदय, दयावान, परोपकारी, कर्तव्यनिष्ठ तथा आदर्शवादी भी है तो भी उसे अपना कोई क़द्रदान कठिनाई से ही मिलेगा । वह जीवन भर धूल में पड़ा ऐसा हीरा बनकर रहेगा जिसे कोई पारखी नहीं मिला । पारखी है तो ही तो रत्न का मूल्य है अन्यथा क्या ? आपके गुणों को पहचान तो संसार की प्रशंसा से ही मिलती है नहीं तो जंगल में मोर नाचा, किसने देखा ? और संसार प्रशंसा तभी करता है जब गुण भौतिक सफलता के रूप में दृश्यमान हो जाएं । यह बात केवल पुस्तकीय है कि गुण अपने आप में ही सार्थक हैं, उन्हें सांसारिक मान्यता या धन-पद-प्रतिष्ठा से युक्त भौतिक सफलता की आवश्यकता नहीं । हिमालय की कन्दराओं में रहकर निर्विकार भाव से ईश्वरोपासना करने वाले संन्यासियों के लिए उनके गुण ही पर्याप्त हैं, लेकिन समाज के मध्य में रहने वाले एवं पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने वाले व्यक्ति को यदि उसका न्यायोचित अधिकार न मिले तो वह अपने गुणों को स्वयं ही निरख-निरख कर कब तक अपने आपको बहलाए ?

संघर्षशील व्यक्ति के संघर्षों का मोल तभी है जब वे अंततोगत्वा उसे उसके अभीष्ट तक पहुँचा दें । असफल व्यक्ति के तो संघर्ष भी अपनी पहचान गंवा देते हैं । दुनिया को इस बात से क्या मतलब कि आपकी कश्ती ने कितने तूफ़ान झेले, दुनिया को तो इस बात से मतलब है कि वह कश्ती आख़िर साहिल पर पहुँची या नहीं । कश्ती को साहिल मिल गया तो ही उसके द्वारा झेले गए तूफ़ानों की दास्तां मानीखेज़ है । डूबी हुई कश्ती द्वारा सहे गए तूफ़ानों की दास्तां भी उसी की तरह बेमानी है और उसी की तरह फ़ना हो जाती है । सफल व्यक्ति ही आदर्श (यानी कि रोल मॉडल) समझे जाते हैं, असफल व्यक्ति नहीं चाहे वे कितने ही योग्य एवं गुणी हों । असफल व्यक्ति के संघर्ष के विवरण से कोई प्रेरणा नहीं लेता क्योंकि उसके संघर्ष के सफ़र को उसकी मंज़िल नहीं मिली । हाँ, परपीड़क लोग (जिनकी कि इस संसार में कोई कमी नहीं) उसकी नाकामी की बात को ऐसा खुला ज़ख़्म ज़रूर समझ लेते हैं जिस पर तानाकशी का नमक बुरका जा सकता है । ऐसे गुणी लेकिन असफल व्यक्ति को जब गुणहीन लेकिन सफल व्यक्तियों की छींटाकशी और व्यंग्य सुनने पड़ते हैं तो उसके मन पर क्या बीतती है, वही जानता है क्योंकि जो तन लागे सो तन जाने ।

कुछ वर्ष पूर्व आई अत्यंत लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्म - 'थ्री इडियट्स' में नायक द्वारा कहलवाया गया था - 'बेटा, कामयाब नहीं क़ाबिल बनो, कामयाबी तो झक मारकर पीछे आएगी' । कितना बड़ा झूठ है यह ! बार-बार ठगे जाने के बाद, बहुत कुछ खो चुकने के बाद दुनियादारी को समझ पाने वाले किसी ऐसे मासूम बच्चे के दिल से पूछिए यह बात जिसने ऊंचे जीवन मूल्यों, नैतिकता, सिद्धांतप्रियता तथा वास्तविक योग्यता को ही अपने जीवन का आधार बनाकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया था और निरंतर असफलता की गहन पीड़ा को सहकर एवं अपने जीवन के स्वर्णकाल के व्यतीत हो जाने के पश्चात ही जो यह समझ पाया कि गुणों और सफलता में वैसा कोई सहसंबंध नहीं होता जैसा उसे बाल्यकाल में बताया गया था । मैंने अपने जीवन में सदा इस बात को माना है कि एक कामयाब इंसान होने से बेहतर है एक अच्छा इंसान होना लेकिन अच्छे मगर नाकामयाब इंसान की अच्छाई भी किसे चाहिए, नाकाम इंसान की नेकी का तलबगार कौन है ?

अस्तु, आदर्शों का पाठ पढ़ाने वाली पुस्तकों में चाहे जो लिखा हो और निर्दोष तथा स्लेट की तरह साफ मन वाले विश्वासी बालकों को उनका इस्तेमाल करने के इच्छुक स्वार्थी लोग चाहे जो बताएं, इस निर्मम संसार का कटु यथार्थ एक ही है - 'जो जीता वही सिकंदर'

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11 टिप्‍पणियां:

  1. हमेशा की तरह बहुत बढ़िया आलेख पढ़ने को मिला। आपको बहुत-बहुत बधाई सर।

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  2. असफल व्यक्ति यदि सद्गुणी, निर्मल-हृदय, दयावान, परोपकारी, कर्तव्यनिष्ठ तथा आदर्शवादी भी है तो भी उसे अपना कोई कद्रदान कठिनाई से ही मिलेगा । वह जीवन भर धूल में पड़ा ऐसा हीरा बनकर रहेगा जिसे कोई पारखी नहीं मिला । पारखी है तो ही तो रत्न का मूल्य है अन्यथा क्या ? आपके गुणों को पहचान तो संसार की प्रशंसा से मिलती है नहीं तो जंगल में मोर नाचा, किसने देखा ?.. सच कहा है आपने जितेन्द्र जी सौ प्रतिशत सच..आपके गुणों को कोई नहीं देखता..दुनिया में आपके कर्म और कर्म से मिली सफलता ही आपको समाज में सम्मान दिलाती है ..सुंदर लेखन ..

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  3. हृदय से आपका आभार आदरणीया जिज्ञासा जी ।

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  4. आदरणीय सर, आपने जो लिखा है वो बात शत् प्रतिशत सही है, अगर एक असफल व्यक्ति कितनी ही अच्छी बात कह रहा हो पर कोई उसे नहीं सुनेगा, लेकिन सफल व्यक्ति चाहे छींक ही रहा हो तो लोग बहुत ध्यान से सुनेगें! मैंने कुछ काबिल लोगों को ऊंचा मुकाम पाने के लिए हद से नीचे गिरते हुए देखा है,और दुनिया की नज़र में आने के लिए अपनों को परेशान टड़पता हुआ नज़र अंदाज़ करके छोड़ कर जाते हुए देखा है! सफल ना हो तो अपने ही महत्व नहीं दूते फिर चाहे हम उनकी कितनी परवाह करते हो! काश की लोग सफलता के साथ ज्ञान, व्यवहार और व्यक्ति के गुणों को भी महत्व देते फिर वो सफल व्यक्ति हो या असफल व्यक्ति! बहुत अच्छे मुद्दे पर आपने लेख लिखा है! सच में सर बहुत ही अच्छा लेख हैं!

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    1. मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा मनीषा जी कि आपने इस लेख के मर्म को समझा और मेरे विचारों से सहमत हुईं । ऐसे विचारों को स्वीकार करने वाले भी उसी तरह दुर्लभ होते हैं जिस तरह असफल व्यक्ति के गुणों की कद्र करने वाले । इसलिए आपकी यह प्रतिक्रिया मेरे लिए कितने मायने रखती है, मैं ठीक से बयान भी नहीं कर पा रहा । बस दिल की गहराई से शुक्रिया अदा करता हूं आपका ।

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  5. मूल प्रकाशित लेख (दो जनवरी, दो हज़ार सोलह को) पर मूर्धन्य हिन्दी कवयित्री माननीया निर्मला सिंह गौर जी की टिप्पणी :

    Nirmala Singh GaurJanuary 14, 2016 at 8:44 PM
    असफल व्यक्ति के संघर्ष भी अपनी पहचान गंवा देते हैं ।बहुत बड़ा सच है यह, मेरे मन में प्रवाहित विचार धारा को शाब्दिक अनुभूति दे कर बूंद दर बूंद कागज़ पर उतारा है आपने। ऐसी मनस्वी एवम् सत्यपरक आपकी लेखनी को नमन। उत्कृष्ट आलेख।

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 15, 2016 at 7:50 AM
    हार्दिक आभार निर्मला जी जो आपने इस लेख को समय निकालकर इतने धैर्य के साथ पढ़ा और गुना ।

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