शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मानवता का कलंक - सैडिज़्म अथवा परपीड़ानन्द

कल गोरैया दिवस है । गोरैया को याद करके मेरा मन भावुक हो गया है । पहले बच्चे अपने घरों में गोरैया को देखते थे, उसको दाना चुगाते थे, पानी पिलाते थे तो उनके दिलोदिमाग़ में दया-करुणा जाग्रत होती थी पर आज बच्चों के अंदर वो सब संस्कार नहीं आ पा रहे । आज छोटे-छोटे-से बच्चे क्रोध में आपे से बाहर होते घरों में देखे जाते हैं ।  इसका एक कारण यह है कि वे प्रकृति से दूर घरों में अधिक बंद रहते हैं । अब वो कम उम्र में ही बड़े हो जाने लगे हैं जिसकी वजह यह है कि वे अब खुली हवा और वातावरण में न विचरकर घरों के अंदर ही बंद रहते हुए टी.वी. में प्रोग्राम देखते रहते हैं जिनमें से कई प्रोग्राम तो उनकी उम्र से बहुत आगे के होते हैं । इसके अतिरिक्त वे कम्प्यूटर, मोबाइल आदि में गेम खेलते हैं । अधिकांश ऐसे गेम हिंसा से भरे होते हैं । ये तथा ऐसी ही अनेक बातें जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने की प्रवृत्ति को दर्शाती हैं, बालकों में एक नकारात्मक गुण को विकसित करती हैं । उस नकारात्मक गुण का अंग्रेज़ी नाम है - सैडिज़्म अर्थात दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर आनंदित होने की प्रवृत्ति ।

मैंने अपने साढ़े चार दशक के जीवनकाल में परपीड़ा से आनंदित होते हुए और उस वीभत्स आनंद को प्राप्त करने के लिए दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हुए प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों को, प्रत्येक सामाजिक वर्ग के लोगों को, प्रत्येक संस्कृति और प्रदेश के लोगों को तथा स्त्रियों और पुरुषों दोनों को देखा । और इससे भी अधिक दुखद तथ्य मैंने यह देखा कि ऐसे परपीड़क प्रवृत्ति के लोगों को अपने इस अवगुण की अनुभूति तक नहीं होती है । जब अनुभूति ही न हो तो अवगुण को दूर करने का प्रयास भी कैसे हो ? मैंने स्वयं अत्यंत कठिन एवं तनावपूर्ण बाल्यकाल तथा किशोरावस्था को भुगता । लेकिन मेरे जीवन की कठिनाइयों ने मेरे भीतर जन्म से ही उपस्थित संवेदनशीलता को ही विकसित किया, परपीड़क प्रवृत्ति मेरे व्यक्तित्व का अंग कभी नहीं बन सकी । बल्कि मैंने तो अपना जीवन-सिद्धान्त यही बनाया कि कभी किसी का दिल न दुखाओ । मैंने अपना मूल व्यक्तित्व अपने स्वर्गीय पिता से विरासत में पाया है जो अधिक शिक्षित तो नहीं थे लेकिन स्वभाव ऐसा कोमल पाया था कि किसी की भी दुख-तक़लीफ से पिघल जाया करते थे और अपने सीमित साधनों से जो कुछ भी बन पड़ता था, उसके लिए करते थे । और मेरा मानना है कि चाहे ऐसे लोग अब बहुत कम रह गए हैं, फिर भी कुछ हैं अन्यथा यह धरती रसातल में चली गई होती ।

लेकिन मुझे अपने को किसी के द्वारा पहुँचाई गई पीड़ा से भी अधिक पीड़ा इस तथ्य से होती है कि आज परपीड़ानन्द के आकांक्षी अर्थात सैडिस्ट लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है । दूसरों को कष्ट पहुँचाने में अपना आनंद पाने वाले लोग अब हर स्थान, हर संगठन और हर क्षेत्र में टिड्डी-दल की तरह मिलने लगे हैं । संवेदनशीलता घटती जा रही है, परपीड़क आनंद लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । ऐसा वीभत्स आनंद प्राप्त करने के लिए दूसरों को पीड़ा केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं वरन मानसिक स्तर पर भी पहुँचाई जाती है । अपने पद और अधिकार का दुरुपयोग करके अन्य व्यक्तियों को भौतिक अथवा आर्थिक हानि पहुँचाकर या उन्हें उनके उचित अधिकार से वंचित करके या उनका मानसिक उत्पीड़न करके भी परपीड़ानन्द प्राप्त किया जाता है । ऐसा नकारात्मक और अवांछनीय आनंद प्राप्त करने की मानसिकता  रखने वाले व्यक्ति भी विभिन्न संगठनों और संस्थानों में बहुतायत में पाए जाते है । मैं कभी नहीं समझ पाया कि किसी को उसके ऐसे लाभ से वंचित करके जिसकी वह सम्पूर्ण पात्रता रखता है या अनावश्यक असुविधा और मानसिक तनाव पहुँचाकर किसी विशिष्ट प्रस्थिति अथवा पद पर बैठे लोगों को आनंद कैसे प्राप्त होता है । लेकिन ऐसा होता तो है । बहुत-से लोग दूसरों को अपमानित करके भी ऐसा आनंद प्राप्त करते हैं । विचित्र बात यह है कि दूसरों को अपमानित करने में आनंद का अनुभव करने वाले स्वयं सदा दूसरों से सम्मान की ही अपेक्षा रखते हैं । अपने कार्यशील जीवन में कई अवसरों पर यह देखकर मैं दंग रह गया कि ऐसे लोग उनसे भी सम्मान चाहते हैं जिनका वे स्वयं ही अपमान करते हैं । ईसा मसीह और महात्मा गांधी जैसे लोगों ने कहा था कि दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम दूसरों से अपने लिए चाहते हो । लेकिन परपीड़ानन्द की विकृति से ग्रसित लोग इसका ठीक विपरीत करते हैं । उन्हें अपने लिए तो सद्व्यवहार चाहिए, आदर-मान चाहिए और अपने सारे अधिकार, लाभ व सुविधाएं चाहिए लेकिन दूसरों को वे इनमें से कुछ नहीं देना चाहते । दूसरों का दिल दुखाते समय उन्हें तनिक भी भान नहीं होता कि यदि कोई उनका दिल दुखाए तो उन्हें कैसा लगेगा । ऐसे लोग यदि औरों को उनका जायज़ हक़ या सहूलियत देते भी हैं तो कई-कई चक्कर कटवाकर और उन्हें बारंबार नीचा दिखाकर अपनी ऊंची हैसियत का अहसास करवाते हुए । कैसे गवारा करता है उनका ज़मीर ऐसा करने के लिए ? कैसे वे मनुष्य-देह लेकर भी यूँ मनुष्यता से पतित हो जाते हैं ? मेरे जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए इस बात को समझ पाना लगभग असंभव ही है ।

कहते हैं तलवार का घाव भर जाता है लेकिन बात का घाव नहीं भरता है । लेकिन अपनी बातों से दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर आनंदित होने वाले सैडिस्ट लगभग प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक परिवेश में मिल जाते हैं ।  पहले से ही दुखी या तनावग्रस्त व्यक्ति को सांत्वना देने वाली कोई बात कहने के बजाय उसके दुख या तनाव को और बढ़ाने वाली जले पर नमक छिड़कने जैसी बातें कहकर भी परपीड़क लोग प्रसन्न होते हैं । मैं स्वयं ऐसे अनेक लोगों के संपर्क में आया हूँ जिनको अपनी जली-कटी बातों से दूसरों के दुख और हृदय के बोझ को और बढ़ाने में एक विचित्र-सा, विद्रूप-सा आनंद आता है । न जाने किस प्रकार समाजीकरण हुआ होता है उनका, न जाने कैसे संस्कार मिले होते हैं उन्हें अपने परिवारों से ? ऐसे लोगों के लिए तो मैं हमेशा एक ही बात कहता हूँ – अरे अच्छे काम नहीं कर सकते तो अच्छी बात तो कहो ! और वो भी तुमसे न बन पड़े तो किसी के दर्द को बढ़ाने वाली बातें कहने से तो परहेज़ करो ! किसी के ज़ख़्म पर मरहम न लगा सको तो कम-से-कम नमक तो न छिड़को !

मैं निर्दोष पशुओं को असीम कष्ट पहुँचाकर अथवा उनका प्राणान्त करके उनके माँस अथवा अन्य अंगों के उपभोग को भी सैडिज़्म की ही श्रेणी में रखता हूँ । जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन । संभवतः तामसी आहार भी मनुष्य की संवेदनशीलता को घटाता है और उसके स्वभाव को परपीड़ा की ओर उन्मुख करता है । जब भी मैं किसी बालक अथवा वयस्क को किसी भी पशु अथवा पक्षी अथवा लघु प्राणी को को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुँचाते देखता हूँ तो मेरे मन में हूक-सी उठती है और मुझे यही अनुभूति होती है कि इस बालक अथवा वयस्क को उचित संस्कार नहीं मिले । मनुष्यों में परपीड़ानन्द की नकारात्मक प्रवृत्ति के उभार का ही यह परिणाम है कि चाहे गोरैया विलुप्त हो जाए या बाघ, मनुष्यों को कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उनकी मानसिकता यही हो गई है कि बस हमारी स्वार्थ-सिद्धि होती रहे, बाकी चाहे सभी प्राणी समाप्त हो जाएं ।

परपीड़ानन्द वस्तुतः मानवी नहीं दानवी प्रवृत्ति है । औरों को दारूण दुख पहुँचाकर कोई राक्षस ही आनंदित हो सकता है । लेकिन सांप्रदायिक दंगों और बड़े आंदोलनों के दौरान ऐसे राक्षस छुट्टे घूमते हैं और असहायों विशेषकर स्त्रियों पर ऐसे-ऐसे अत्याचार करते हैं कि जिन्हें देख-सुनकर परमपिता परमात्मा का हृदय भी कंपित हो जाए । भारतीय उपमहाद्वीप में तो निर्बलों और असहायों के रक्षक कहलाने वाले वर्दीधारी ही या तो स्वयं ही आततायी बन जाते हैं या फिर निर्दोषों पर अवर्णनीय अत्याचार कर रहे आततायियों के कृत्यों की ओर से नेत्र मूंदकर उन्हें अपना मौन समर्थन और अप्रत्यक्ष सहयोग देते हैं । ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि उनके भी परिवार हैं, बालक हैं, माताएं-बहनें-पुत्रियां हैं । क्या उन्हें नहीं सूझता कि यदि उनके अपनों पर ऐसे अमानुषिक अत्याचार हों तो वे उसे कैसे सहन कर पाएंगे ?

बात घूम-फिरकर वहीं आ जाती है कि परपीड़ानन्द की ऐसी प्रवृत्ति विकसित कैसे होती है ? कुछ लोगों में ऐसी प्रवृत्ति के विकास के लिए उनका कठिनाइयों, अन्यायों और अत्याचारों का शिकार बाल्यकाल उत्तरदायी होता है । लेकिन मेरे विचार में अधिसंख्य सैडिस्ट अथवा परपीड़क लोग अपने नकारात्मक संस्कारों के कारण ऐसे बन जाते  हैं जिसके लिए उनका दोषपूर्ण लालन-पालन या समाजीकरण उत्तरदायी होता है । जब बालक का सम्यक चरित्र-निर्माण नहीं होगा तो वह मनुष्यों को मनुष्यों की तरह कैसे देखेगा ? वास्तविक अर्थों में संवेदनशील व्यक्ति तो मनुष्यों के ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति इस प्रकार करुणा से भरा होता है कि वह किसी पशु को भी कष्ट नहीं पहुँचा सकता, किसी चींटी की भी मृत्यु का कारण बनना उसे स्वीकार्य नहीं हो सकता । क्या अब हम इस योग्य नहीं रहे कि समाज के लिए ऐसे संवेदनशील सदस्यों तथा राष्ट्र के लिए ऐसे संवेदनशील नागरिकों का निर्माण कर सकें ?

सैडिज़्म अथवा परपीड़ानन्द मानवता का कलंक है जिसे मिटना ही चाहिए । इसे मिटाने के लिए आइए, अपने बालगोपालों को चरित्रवान बनाएं, उनके व्यक्तित्व में संवेदना को भरें, उनके मन में परहिताभिलाषा के बीज बोएं, उन्हें ऐसे उत्तम संस्कार दें कि परपीड़ा से आनंदित होना तो दूर, वे किसी को भी हानि या दुख पहुँचाने का विचार तक न करें और वे दूसरों की पीड़ा को हरने में अपना आनंद पाएं, किसी को पीड़ा देने में नहीं । मुझे संतोष है कि मैं अपनी संतानों को ऐसे ही संस्कार दे सका हूँ । आज वे न केवल पशु-पक्षियों पर करुणा दर्शाते हैं वरन अन्य व्यक्तियों को भी अकारण कष्ट पहुँचाने से बचते ही हैं ।

मुझे गहन दुख होता है यह देखकर कि धार्मिकता का पाखंड करने वाले भी अनेक लोग सैडिस्ट अथवा परपीड़क स्वभाव के होते हैं जो लोकदिखावे के लिए रामायण (या अन्य धार्मिक ग्रंथ) का पाठ तो करते हैं लेकिन परोपकार के स्थान पर परपीड़ा में रुचि अधिक लेते हैं । ऐसे लोगों को मैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का प्रिय भजन स्मरण कराना चाहता हूँ - 'वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाने रे' । पराई पीर को जान लेने, अनुभूत कर लेने में ही सच्ची धार्मिकता निहित है, ईश्वर के प्रति सच्ची आस्था और श्रद्धा निहित है । मैं सम्पूर्ण रामचरितमानस चाहे न पढ़ पाऊं लेकिन गोस्वामी तुलसीदास के इस सनातन और कालजयी संदेश को मैंने जीवनभर के लिए हृदयंगम कर लिया है -

                            परहित सरिस धर्म नहीं भाई                                                

                            परपीड़ा सम नहीं अधमाई

© Copyrights reserved

16 टिप्‍पणियां:

  1. दूसरों को पीड़ा पहुंचाना बहुत आसान है और पीड़ा को खुद में महसूस करना बहुत ही कठिन। और यह भी सच है कि जो लोग दूसरों की पीड़ा महसूस करने का जीवट रखते हैं, उनका खुद का जीवन भी दुख और पीड़ा से ही भरा होता है।
    रही बात धार्मिक पाखंड की तो हम जिसे धर्म समझते हैं वह धर्म है ही नहीं क्योंकि अगर वह धर्म होता तो उससे किसी को पीड़ा ही नहीं होती।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी बातें सच है यशवंत जी । वैसे मैंने अपने जीवन में आज तक किसी परपीड़क को दुख और पीड़ा उठाते हुए देखा नहीं है ।

      हटाएं
  2. बहुत ही सारगर्भित विषय पर लिखा आपका ये लेख चिंतनीय है,
    जितेन्द्र जी,परंतु हर धार्मिक व्यक्ति पाखंड नही करता, मेरी दादी नानी, मां बाबा,पापा,यहां तक कि बहुत से जानने वाले लोग धार्मिक भी हैं और समाज में समाजसेवा नही करते, परंतु किसी का दिल भी नहीं दुखाते, बड़ा अफसोस होता है जब हमारे धर्म को पाखंड से जोड़ दिया जाता है,सुंदर लेख,सादर शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०५-०८-२०२१) को
    'बेटियों के लिए..'(चर्चा अंक- ४१४७)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. जितेंद्र भाई,परपीड़ानन्द वस्तुतः मानवी नहीं दानवी प्रवृत्ति ही है औरों को दारूण दुख पहुँचाकर कोई राक्षस ही आनंदित हो सकता है। सैडिज़्म अथवा परपीड़ानन्द मानवता का कलंक है जिसे मिटना ही चाहिए। इसके लिए हैम सभी को मिल कर अपने अपने बच्चों को सुसंस्कृत करना जरूरी है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ठीक कहा आपने। यह दायित्व हमीं पर है। हार्दिक आभार आपका।

      हटाएं
  5. आदरणीय जितेंद्र जी इतना सारगर्भित वही लिख सकता है जो जिंदगी की दोपहर में खूब तपा हो। आपकी लेखनी में अनुभव और गहनता है और वह गहनता हर बार समझाती है कि समाज का चेहरा बेहतर होना चाहिए और वह बेहतर कैसे होगा इसे लेकर समाज को अपने मूल्य तय करने होंगे और आचार संहिता पर दोबारा मंथन करना होगा...। पुरातन दौर इसलिए बेहतर था क्योंकि एक आचार संहिता था और उसे कोई नहीं भेदता था अब वह तार तार है...। अच्छे और गहरे आलेख और गहरे चिंतन के लिए खूब बधाईयां।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने सत्य कहा शर्मा जी। पुरातन दौर इसलिए बेहतर था क्योंकि एक आचार संहिता थी जिसका मान सभी को रखना होता था। अब कोई आचार संहिता नहीं, कोई सर्वस्वीकार्य जीवन-मूल्य नहीं, कोई आदर्श नहीं। इसीलिए अमानुषिक प्रवृत्तियां दिनोंदिन अपना विस्तार करती जा रही हैं। बहुत-बहुत आभार आपका।

      हटाएं
  6. जितेन्द्र जी,आज फिर आपका आलेख पढ़ा, सारगर्भित चिंतन। बहुत शुभाकामनाएं आपको।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस लेख को मूल रूप से जब लिखा एवं प्रकाशित किया गया था तब तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं आई थी। विगत वर्ष दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से मेरी अनेक पोस्टों के मिट जाने के उपरांत मैंने पुनः इसे मार्च २०२१ में ब्लॉग पर डाला तो (यशवंत जी के अतिरिक्त) बस आप ही थीं जिसने इसे पढ़ने का श्रम किया और टिप्पणी की। मैं पहले भी आपका आभारी था जिज्ञासा जी। अब आप फिर से आईं हैं तो एक बार पुनः हृदयतल से आपका आभार व्यक्त करता हूं।

      हटाएं
  7. मानव स्वयं को चाहे कितना भी सभ्येतर कह ले किंतु आदि मानव का संस्कार नहीं छोड़ पाता है । इसलिए परपीड़न में भी आनंद लेता है । आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता आलेख के लिए हार्दिक आभार ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आप ठीक कह रही हैं अमृता जी। वैसे आदि मानव भी हिंसा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही करते थे, परपीड़ा एवं उससे आनंदित होना तो कथित सभ्य समाज की ही विशेषता प्रतीत होती है। बहुतबहुत धन्यवाद आपका।

      हटाएं