मैंने प्रसिद्ध हिन्दी रहस्यकथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के लगभग सभी उपन्यास पढ़े हैं और उनमें से अधिकतर को एक से अधिक बार पढ़ा है । लेकिन उनके द्वारा लिखी गई कई लघु कथाओं तक मेरी पहुँच नहीं हो पाई है । ऐसी एक लघु कथा को मैंने ई-पुस्तक के रूप में पढ़ा । इस लघु कथा का नाम है – ‘ताश के पत्ते’ । पढ़ते–पढ़ते जब मैं क्लाइमेक्स वाले दृश्य में पहुँचा जो कि अंबाला रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में लगाई गई एक जुए की बाज़ी का वर्णन करता है तो मुझे लगा कि बस अब पाठक साहब या तो किसी का क़त्ल करवाएंगे या फिर कोई और ज़बरदस्त रहस्य खुलने वाला है । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जब वह क्लाइमेक्स ही विस्तार लेकर दिल्ली शहर में कहानी के समापन तक पहुँचा तो मैंने पाया कि यह वस्तुतः एक रहस्यकथा न होकर एक मर्मस्पर्शी सामाजिक कहानी है । आँखें नम हो गईं मेरी इस छोटी-सी कहानी का अंत पढ़कर ।
अगले ही दिन मैंने पाठक साहब को फ़ोन किया और उनसे इस कहानी की बाबत चर्चा की जो कि मुझे काफ़ी पुरानी जान पड़ रही थी । पाठक साहब ने स्पष्ट किया कि उन्होंने यह कहानी पचास साल से भी अधिक पहले (संभवतः १९६४ में) एक प्रकाशक के लिए फ़िलर के तौर पर लिखी थी । पाठक साहब ने यह भी बताया कि उस ज़माने में ऐसे फ़िलर कितने पन्नों के हों, यह नादिरशाही फ़रमान भी प्रकाशक महोदय की ओर से ही आयद हुआ करता था जिस पर उन्हें खरा उतरना होता था । बहरहाल पाठक साहब ने चाहे किसी भी वजह से यह कहानी लिखी मगर उनकी यह भूली-बिसरी रचना एक अत्यंत भावपूर्ण रचना है । यह छोटी-सी रचना मानवीय सोच, मानवीय स्वभाव, मानवीय सम्बन्धों और मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम है ।
मैं
आज तक ठीक-ठीक नहीं समझ पाया कि पाठक साहब जुए को ग़लत मानते हैं या नहीं । संभवतः
वे तब तक उसे बुरा नहीं मानते जब तक कि वह किसी को ठगने या अपना ही सर्वनाश करने
के लिए न खेला जाए । कुछ ऐसा ही नज़रिया उनकी इस रचना में भी झलकता है जो ताश के
माध्यम से खेले जाने वाले जुए (फ़्लैश के खेल) को आधार बनाकर लिखी गई है । रचना का
मुख्य पात्र सूत्रधार बनकर सारी कहानी पाठकों को अपनी आपबीती के रूप में सुनाता है
अर्थात कहानी प्रथम पुरुष में प्रस्तुत की गई है । कहानी का यह प्रमुख पात्र एक
मध्यम वर्ग का व्यक्ति है जो वर्षों पूर्व के अपने मकान-मालिक, उसकी धर्मपत्नी और
उसके पुत्र से आज भी भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अनुभव करता है । कहानी का प्रमुख
प्रसंग तो क्लाइमेक्स में ही आता है जो कि अंबाला रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में
वाक़या होता है । उससे पूर्व के हिस्से को उस प्रमुख प्रसंग का बिल्ड-अप माना जा
सकता है । जुए में इस्तेमाल होने वाले ताश के पत्ते बेजान वस्तु होते हुए भी
मानवीय आदतों और सम्बन्धों के जीवंत प्रतीक बन जाते हैं और फिर आख़िर के दो पृष्ठों
में कथानक में एक-के-बाद-एक कई दिलचस्प मोड़ बहुत तेज़ी से आते हैं जो उसके चौंकाऊ
अंत तक ले जाते हैं ।
पाठक साहब इस बात को बड़ी शिद्दत से स्थापित करते हैं कि सच्चाई मनुष्य की सोचों और दिमागी तर्कों से परे होती है । आप अपनी सोचों के आधार पर किसी के बारे में जो भी धारणा बना लें, ज़रूरी नहीं कि वह सही हो । हक़ीक़त ऐसी भी हो सकती है जिसका ख़ुलासा आपके मुक़म्मल वजूद को हिलाकर रख दे । इस कहानी में पाठक साहब ने बुरे पात्रों के स्थान पर अच्छे पात्रों को लिया है और बताया है कि अगर आप ख़ुद को अच्छा इंसान मानते हैं तो दूसरों को बुरा या अख़लाक़ी तौर पर अपने से कमतर मानना आपकी भूल है जब तक कि आप तथ्यों से पूरी तरह से परिचित न हों । संभव है कि दूसरा व्यक्ति जिसके बारे में आप अपने आप ही कोई ग़लत धारणा बना रहे हैं, आपसे भी बेहतर इंसान निकले ।
मैंने
यह बात पहले भी कही है कि पाठक साहब द्वारा सृजित अनेक पात्र संवेदनशील इसलिए होते
हैं क्योंकि पाठक साहब स्वयं एक बहुत संवेदनशील मनुष्य हैं । उनकी आधी सदी से भी
अधिक पुरानी रचना ‘ताश के पत्ते’ इसका प्रमाण है । इस
कहानी के अंत ने मेरे मन को कहीं गहराई तक छू लिया और पूरी पढ़ चुकने के बाद भीतर
कहीं एक हूक-सी उठी । मुझे झकझोर कर रख दिया उनकी इस रचना ने । आँखें भर आईं मेरी
। पाठक साहब के व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरी हुई संवेदनशीलता और उनकी लौह-लेखनी को एक
बार फिर से मेरा सलाम ।
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आप वास्तव मैं बहुत सरस और प्रभावशाली रूप मैं हर बात लिखते हैं । बहुत सुंदर लेख ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय आलोक जी ।
हटाएंसारगर्भित समीक्षा, किसी भी पाठक के लिए पढ़ने की उत्सुकता पैदा करती है सादर शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया जिज्ञासा जी ।
हटाएंशानदार लेख.... सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों की मैं भी फैन हूं। मेरी बहन डॉ. शरद सिंह दिल्ली जाती हैं तो उनकी उनसे मुलाकात होती रहती है।
जवाब देंहटाएंकृपया इस लेख को ज़रूर पढ़े....
हिन्दी का लोकप्रिय उपेक्षित साहित्य उर्फ लुगदी साहित्य
सादर,
डॉ वर्षा सिंह
हार्दिक आभार माननीया वर्षा जी । इस लेख को मैं अविलम्ब पढ़ता हूँ ।
हटाएंकृपया इसे भी देखने का कष्ट करें....
जवाब देंहटाएंFacebook Account Of Dr Miss Sharad Singh
अवश्य ।
हटाएंआप के इस सारगर्भित लेख ने पूरी किताब पढ़ने को प्रेरित किया है, आदरणीय शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंयह तो एक लघु कथा है मधूलिका जी । पढ़िए । अच्छी लगेगी आपको ।
हटाएंबहुत ही भाव- प्रणव समीक्षा लिखी है आपने जितेंद्र जी। काश कि लुगदी युग लौट आये। आजकल पढ़ना दुश्वार होता जा रहा है और लुगदी साहित्य बहुधा सम्मान के योग्य नहीं समझा जाता है फिर भी पाठक जी हर वर्ग के चहेते रचनाकार हैं। अच्छा लगा आप उनसे बातचीत भी कर आये हैं।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार रेणु जी । मैं सत्य ही सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे पाठक साहब से भेंट करने का अवसर मिला है ।
हटाएंबहुत सुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी ।
जवाब देंहटाएंआप तो उपन्यास की समीक्षा करते करते सारे पत्ते भी खोले दे रहे ...
जवाब देंहटाएंवैसे ये सब मैंने अपने कॉलेज टाइम में खूब पड़ा है ..
यह उपन्यास नहीं, एक लघु कथा है संगीता जी । हार्दिक आभार आपका ।
हटाएंउपन्यास की समीक्षा किसी भी पाठक के लिए पढ़ने की उत्सुकता पैदा करती है
जवाब देंहटाएंयह उपन्यास नहीं, एक लघु कथा है संजय जी । हार्दिक आभार आपका ।
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