बुधवार, 30 दिसंबर 2020

प्रणब दा की यादें या अपनी सियासी ग़लतियों की लीपापोती ?

(यह लेख मूल रूप से १५ फ़रवरी, २०१६ को प्रकाशित हुआ था । दिवंगत राष्ट्रपति महोदय के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए इसे पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है ।)

प्रणब मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'मेमोअर्स' (संस्मरण) को कई खंडों में लिखा है जिसकी विषय-वस्तु को वे अपने राजनीतिक जीवन की स्मृतियां बता रहे हैं । अब भारतीय गणतन्त्र का प्रमुख कोई पुस्तक लिखेगा तो उसमें उद्धृत प्रत्येक बात को वेदवाक्य ही समझा जाएगा । स्वाभाविक है कि ऐसी पुस्तक हाथोंहाथ ली जाएगी, ख़ूब बिकेगी, ख़ूब पढ़ी जाएगी, ख़ूब चर्चित होगी और महामहिम की ख़ूब वाहवाही होगी । लेकिन अपनी स्मृतियों के नाम से ऐसी पुस्तकें लिखते समय भारतीय राजनेता (और नौकरशाह भी) यह विस्मृत कर जाते हैं कि जनता-जनार्दन की स्मृति इतनी दुर्बल भी नहीं होती जितनी कि वे समझ लेते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते और उसका पकड़ा जाना सुनिश्चित होता है विशेष रूप से तब जब उसका साक्षात्कार किसी ऐसे व्यक्ति से हो जिसने भारतीय राजनीति के किसी कालखंड के विभिन्न उतार-चढ़ावों को निकटता से देखा हो । प्रणब दा यदि यह समझते हैं कि अपने कथित संस्मरणों में उन्होंने असत्य की जो चतुराईपूर्ण मिलावट की है, वह पकड़ी नहीं जाएगी तो यह उनका भ्रम ही है ।

प्रणब मुखर्जी ने अपनी तथाकथित स्मृतियों में जो दावा किया है कि उनकी महत्वाकांक्षा कभी भारत का प्रधानमंत्री बनने की नहीं थी, उससे बड़ा असत्य और कुछ नहीं । दादा धरती और जनसामान्य से जुड़े हुए नेता चाहे कभी नहीं रहे लेकिन अपनी प्रशासनिक दक्षता, कार्यकुशलता और मृदु व्यवहार के चलते वे शीघ्र ही श्रीमती इन्दिरा गांधी के विश्वासपात्र बन बैठे थे जिससे अल्पायु में ही न केवल उनको वित्त और रक्षा जैसे अतिमहत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रमुख बनने का अवसर मिल गया था  बल्कि संजय गांधी के असामयिक देहावसान के उपरांत उनका राजनीतिक कद इतनी शीघ्रता से बढ़ा था कि वे केंद्रीय मंत्रिपरिषद में दूसरे नंबर पर समझे जाने लगे थे । इस आनन-फानन तरक्की ने ही दादा की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पर लगा दिए और ३१ अक्तूबर, १९८४ को इन्दिरा जी के स्तब्धकारी निधन के साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री का पद अपनी ओर आता दिखाई देने लगा । अपनी इस अधीरता में दादा भूल बैठे कि चाय की प्याली और पीने वाले के होठों के मध्य का अंतर लगता छोटा है लेकिन होता बहुत बड़ा है ।

तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष ज्ञानी ज़ैलसिंह ने दिवंगत इन्दिरा जी के लिए अपनी निष्ठा को सर्वोपरि रखते हुए उनके पुत्र राजीव गांधी को उसी दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी । दादा को बुरा तो बहुत लगा लेकिन चूंकि अनुभवहीन और शोकमग्न राजीव गांधी ने इन्दिरा जी की मंत्रिपरिषद को ज्यों-का-त्यों रखा, अतः दादा वित्त मंत्री के पद पर बने रहे । शायद इसीलिए उस समय उन्होंने अपना विरोध दबे-छुपे रूप में ही ज़ाहिर किया और आम चुनावों के होने की प्रतीक्षा करने लगे जिनकी घोषणा बहुत जल्दी कर दी गई थी । अगर चुनावों में कांग्रेस दल को मामूली बहुमत ही मिलता तो दादा की गोट शायद चल जाती लेकिन इन्दिरा जी के निधन से उमड़ी सहानुभूति लहर पर सवार होकर कांग्रेस दल ने चार सौ से अधिक सीटें जीतकर ऐतिहासिक रूप से प्रचंड बहुमत प्राप्त कर लिया तो सरकार और दल में राजीव गांधी का नेतृत्व निर्विवाद हो गया । यहीं दादा ने वह भूल कर डाली जो उन्हें नहीं करनी चाहिए थी ।

उन्होंने राजीव गांधी के कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने और तदनुरूप प्रधानमंत्री बनने में अड़चन डालने की कोशिश की और इस तरह उनकी महत्वाकांक्षा जो छुपी ही रहती तो बेहतर होता, राजीव गांधी और उनके समर्थकों पर अच्छी तरह उजागर हो गई । दादा यह भूल गए कि कांग्रेसी उसी नेता का नेतृत्व स्वीकार करते हैं जिस पर उन्हें चुनाव जिता सकने का विश्वास हो । दादा का हाल तो यह था कि वे किसी और को तो क्या जिताते, स्वयं अपना चुनाव जीतने की कूव्वत नहीं रखते थे । इसीलिए वे सदा राज्य सभा के माध्यम से संसद में पहुँचते थे । ऐसे में तीन चौथाई बहुमत के साथ कांग्रेस को लोक सभा चुनाव जिताकर लाने  वाले और इन्दिरा जी के पुत्र का दर्ज़ा रखने वाले राजीव गांधी के सामने उनकी कौन सुनता ? उनका विरोध नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ ही साबित हुआ लेकिन इस विरोध ने उन पर राजीव विरोधी होने की मोहर लगा दी जो उनके लिए घातक साबित हुई ।

राजीव गांधी पहले से ही बंगाल से आने वाले और एक दूसरे के कट्टर विरोधी दो दिग्गज नेताओं - प्रणब मुखर्जी और ए.बी.ए. गनी खां चौधरी को पसंद नहीं करते थे । अतः चुनाव के उपरांत नई सरकार का गठन करते समय उन्होंने इन दोनों को ही मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया । प्रणब दा की तुलना में गनी खां चौधरी की स्थिति बेहतर रही क्योंकि न केवल वे एक धरातल से जुड़े हुए नेता थे, बल्कि वे प्रणब दा से अधिक परिपक्व भी सिद्ध हुए और चुप्पी साधकर अपने समय के परिवर्तित होने की प्रतीक्षा करने लगे जो अपनी अधीरता में दादा नहीं कर सके । वैसे भी इस चुनाव में मार्क्सवादियों के गढ़ बन चुके बंगाल में भावी राजनीतिक परिवर्तन का एक छोटा-सा अंकुर फूट चुका था जो समय आने पर एक ऊंचा और शक्तिशाली वृक्ष बना । वह अंकुर था एक विद्रोही तेवरों वाली उनतीस वर्षीया युवती ममता बनर्जी जिसने सोमनाथ चटर्जी जैसे मार्क्सवादी दिग्गज को पटखनी देकर अपने राजनीतिक करियर का वैभवशाली आरंभ किया था और इस तरह पूत के पाँव पालने में ही दिखा दिए थे । लेकिन अपनी निजी महत्वाकांक्षा के आगे कुछ भी देख पाने में असमर्थ दादा परिवर्तन की बयारों को पहचान नहीं सके । गनी खां चौधरी तो कुछ समय बाद राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में आ भी गए लेकिन प्रणब मुखर्जी ने सावधानी बरतना तो दूर, राजीव गांधी का सीधे-सीधे विरोध करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली । अपनी तथाकथित यादों में वे यह सरासर झूठ कहते हैं कि राजीव गांधी ने उन्हें ग़लत समझा । सच तो यही है कि उनके मुखर राजीव विरोध के चलते उस समय उन्हें कोई भी ग़लत नहीं समझ रहा था । शायद वे ख़ुद ही अपने आप को ठीक से नहीं समझ पा रहे थे । उनकी तब की कारगुज़ारियों का कच्चा चिट्ठा आर.के. करंजिया ने 'ब्लिट्ज़' समाचार-पत्र में छापा था और बाद में लोकप्रिय राजनीतिक पत्रिका 'माया' ने भी इस बाबत बहुत कुछ जनता के सामने रखा था ।

जब प्रणब मुखर्जी का खुला विरोध राजीव गांधी के लिए असहनीय हो गया तो मई १९८६ में उन्होंने अपनी ताक़त दिखाते हुए एक झटके से दादा को पार्टी से निष्कासित कर दिया । अपनी स्मृतियों में न जाने किसे मूर्ख समझते हुए दादा फ़रमा रहे हैं कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें अपमानित करके निकाल बाहर किया गया था । उनके निष्कासन के साथ ही अन्य राजीव विरोधियों के लिए चेतावनी स्वरूप तीन अन्य वरिष्ठ नेताओं की सदस्यता भी निलंबित कर दी गई थी । ये नेता थे - श्रीपति मिश्र (उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री), अनंत प्रसाद शर्मा और प्रकाश मेहरोत्रा । कुछ समय पहले ही गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री आर. गुंडूराव की भी इसी तरह पार्टी से छुट्टी कर दी गई थे लेकिन मुखर्जी न जाने कैसे स्वयं को निरापद माने हुए थे और अपने वक्तव्यों से राजीव गांधी को कड़ी कार्रवाई के लिए उकसा रहे थे । श्रीपति मिश्र और अनंत प्रसाद शर्मा ने माफ़ीनामा देकर कुछ वक़्त बीतने के बाद अपने निलंबन रद्द करवा लिए । लेकिन प्रणब दा ख़याली पुलाव पकाते हुए अपने आपको धोखा देने में लगे रहे । उन्हें यह भी नज़र नहीं आया कि उनके निष्कासन से पार्टी की चाय के प्याले में कोई तूफ़ान नहीं आया था और सब कुछ वैसे ही चलता रहा था, जैसे कुछ भी न हुआ हो ।

अपनी ज़मीनी हक़ीक़त से बेख़बर प्रणब मुखर्जी ने शीघ्र ही 'राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' नामक एक तथाकथित राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल की घोषणा कर दी जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बन बैठे, उपाध्यक्ष गूंडूराव को बना दिया और कुछ अन्य पिटे-पिटाए भूतपूर्व कांग्रेसियों को लेकर उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी भी बना डाली । कार्यकारिणी की पहली बैठक में उन्होंने दावा किया कि उनकी पार्टी को सौ सांसदों का समर्थन प्राप्त था लेकिन उस खोखले दावे की सच्चाई किसी से भी छुपी नहीं थी । बहुत जल्द ही दादा अर्श से फ़र्श पर आ गए जब उनकी आँखें खुलीं और उन्हें दिखाई दिया कि कांग्रेस पार्टी से बाहर उनकी सियासी हस्ती सिफ़र थी । उनके हवाई राजनीतिक दल के पास न कोई कार्यक्रम था, न जनाधार और न उसे चलाने के लिए आवश्यक संसाधन । तब तक की अपनी ज़िंदगी में एक भी लोक सभा या विधान सभा चुनाव न जीतने वाले दादा को अब आटे-दाल का भाव पता चल गया और उन्हें सूझ गया कि राजनीतिक दल को बनाना और चलाना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है । अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल देर से ही सही, उनकी समझ में आई और उन्होंने आईना देखकर अपनी असलियत को पहचाना ।

अब थूककर चाटने की नौबत आ गई क्योंकि राजनीति करनी थी और अपना अस्तित्व बचाकर रखना था तो वापस कांग्रेस में घुसने के अलावा कोई चारा नहीं था । अपने काग़ज़ी राजनीतिक दल को औपचारिक रूप से भंग करने की घोषणा करके दादा आख़िर जैसे-तैसे (संभवतः कांग्रेस आलाकमान उर्फ़ राजीव गांधी से अनुनय-विनय करके) 'लौट के बुद्धू घर को आए' के अंदाज़ में कांग्रेस में वापस आ ही गए । जब दादा को निकाला गया था, तब कांग्रेस दल और केंद्रीय सरकार दोनों में ही माखनलाल फ़ोतेदार, कैप्टन सतीश शर्मा, अरुण सिंह, अरुण नेहरू, बघेल ठाकुर यानी अर्जुन सिंह और राजा मांडा यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसों का बोलबाला था लेकिन उनके लौटने तक दिल्ली की यमुना में बहुत पानी बह चुका था । विश्वनाथ प्रताप सिंह और अरुण नेहरू जैसे लोग बाहर हो चुके थे और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार बदनाम हो रही थी । लेकिन दादा कांग्रेस दल में वापस ही आ सके, उन्हें सरकार या संगठन में कोई स्थान नहीं दिया गया क्योंकि राजीव गांधी अब सरलता से उन पर विश्वास नहीं कर सकते थे । आने वाले वक़्त में दादा को बहुत जल्दी पता चल गया कि उनकी अधीरता उन्हें कितनी महंगी पड़ी थी जब १९९१ में लोक सभा चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी का आकस्मिक निधन हो गया और कांग्रेस पार्टी के चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री की ख़ाली कुर्सी के कई दावेदार सामने आ गए । इस कुर्सी के तगड़े दावेदार नारायण दत्त तिवारी को करारा झटका अपनी लोक सभा सीट हारने से लग गया था और ऐसे में दादा का नंबर लग सकता था अगरचे उन्होंने कुछ साल धैर्य रखा होता । लेकिन चूंकि उनका पार्टी विरोधी इतिहास अधिक पुराना नहीं था, इसीलिए वे उस सुनहरे मौके को चूक गए और राजनीति से लगभग संन्यास ले चुके पी.वी. नरसिंह राव के भाग्य से जैसे छींका टूटा ।

लेकिन अब प्रणब दा ने ज़िंदगी का वो बेशकीमती सबक मानो रट-रटकर अपने ज़हन में बैठाया जिसे वे गुज़रे हुए कल में बिसरा बैठे थे । आलोक श्रीवास्तव जी की एक ग़ज़ल के बोल हैं - 'ज़रा पाने की चाहत में बहुत कुछ छूट जाता है, न जाने सब्र का धागा कहाँ पर टूट जाता है' । प्रणब मुखर्जी ने अतीत में अपने सब्र के धागे के टूट जाने से बहुत कुछ खो दिया था लेकिन अब उन्होंने अपने सब्र के धागे को टूटने नहीं दिया । जो भी ज़िम्मेदारी मिली, उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी और ख़ामोशी से बिना कुछ पाने की आस किए निभाया और जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझकर राज़ी रहे । वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने और फिर मंत्री । नरसिंह राव के विरोध में होने वाली किसी भी गतिविधि का वे अंग नहीं बने और दल के नेतृत्व के प्रति अपनी अटूट निष्ठा का सतत प्रदर्शन करते रहे । १९९६ में लोक सभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी आठ साल तक सत्ता से बाहर रही जो दादा के लिए भी फिर से राजनीतिक बनवास ही था । लेकिन जब कांग्रेस दल को २००४ में पुनः सरकार बनाने का अवसर मिला और सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकराने का निश्चय किया तो उन्होंने दादा के अतीत को ध्यान में रखते हुए उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त नहीं माना । पुराने पाप सरलता से पीछा नहीं छोड़ते ।

इस तरह प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब मुखर्जी की बस एक बार फिर छूट गई और समय का फेर देखिए कि उन्हें उन्हीं मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में मंत्री बनकर रहना पड़ा जिन्हें उन्होने ही १९८२ में भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था और जिनके कि वे भारत के वित्त मंत्री के रूप में बॉस हुआ करते थे । यानी बॉस अब मातहत बन गया था और मातहत बॉस । प्रणब मुखर्जी ने यह कड़वा घूंट भी ख़ामोशी से पिया क्योंकि अब वे धैर्य धारण करना सीख चुके थे । वैसे अपने जीवन में पहले कभी नगरपालिका तक का चुनाव न जीतने वाले दादा के लिए २००४ में लोक सभा का चुनाव जीतना ही एक बहुत बड़ी सांत्वना थी ।

बहरहाल दादा पूरी निष्ठा, लगन और सबसे बढ़कर धैर्य के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे और अंततः उनका धैर्य रंग लाया जब वे भारत के राष्ट्राध्यक्ष पद के लिए चुन लिए गए और इस तरह एक बार पुनः वे प्रोटोकॉल में मनमोहन सिंह से आगे निकल गए । प्रधानमंत्री का शक्तिशाली पद तो उनके भाग्य में नहीं था लेकिन वे राष्ट्र के प्रथम नागरिक, संवैधानिक प्रमुख और सर्वोच्च सेनापति तो बने । उनकी यह उपलब्धि प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि से किसी भी तरह कम नहीं आँकी जा सकती लेकिन इसके लिए उन्हें दो दशक से भी अधिक दीर्घावधि तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा करनी पड़ी । मैं तो  राष्ट्राध्यक्ष बनने से भी बड़ी उनकी उपलब्धि उनके द्वारा इस गुण को अपने भीतर विकसित कर लिए जाने को ही मानता हूँ । गोस्वामी तुलसीदास तो सैकड़ों वर्ष पूर्व ही रामचरितमानस में कह गए हैं - 'धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परखिअहिं चारी' । ज्ञातव्य है कि तुलसीदास जी ने जिन चार बातों को विपत्ति के समय परखने के लिए कहा है, उन चारों में सर्वप्रथम स्थान धीरज का ही आता है । अतः धीरज ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसे किसी भी स्थिति में साथ नहीं छोड़ने देना चाहिए । प्रणब मुखर्जी की राजनीतिक यात्रा रूपी कथा से यही सीख मिलती है ।

अब अपनी किताब में यादों के बहाने प्रणब मुखर्जी अपनी सियासी ग़लतियों की लीपापोती कर रहे हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि अपनी भूलों को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना सहज नहीं है । अपने गरेबान में झाँकने से हर किसी को परहेज होता है फिर चाहे वह कोई भी हो । आज राष्ट्र प्रमुख के रूप में लिखी गई उनकी किताब निश्चय ही बेस्टसेलर हो जाएगी जिसे कि पंद्रह साल पहले आने पर शायद कोई हाथ भी नहीं लगाता । राष्ट्र के प्रथम नागरिक द्वारा कही गई किसी भी बात पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर विवाद उत्पन्न करने का जोखिम भी फ़िलहाल कोई नहीं लेगा । लेकिन इतना दीर्घ और विविधतापूर्ण अनुभव मिल जाने के उपरांत अपने (राजनीतिक और वास्तविक) जीवन की साँझ में प्रणब दा को इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से और ख़ुशबू आ नहीं सकती कभी काग़ज़ के फूलों से ।

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शनिवार, 19 दिसंबर 2020

साधना और उनका प्रभामंडल

साधना नहीं रहीं लेकिन उनका प्रभामंडल सदा रहेगा । कभी कम न होगी आभा उनके नाम, काम और व्यक्तित्व की जिसने जितेन्द्र माथुर सहित करोड़ों सिनेमा-प्रेमियों के हृदय सदा के लिए जीत लिए । एक पुरुष के रूप में मेरे मन को यदि रूपहले परदे की किसी अभिनेत्री ने लुभाया तो केवल साधना ने । किशोरावस्था में फ़िल्म जगत में पदार्पण करने वाली वह सीधी-सादी सिंधी युवती साठ के दशक में स्टाइल और फ़ैशन की प्रतिरूप बन बैठी जिसकी एक झलक मात्र से लाखों दिल धड़क उठते थे । साधना का दौर श्वेत-श्याम सिनेमा से रंगीन सिनेमा में संक्रमण का दौर था । इसलिए उनकी यादगार फ़िल्मों में जहाँ 'परख' (१९६०), 'हम दोनों' (१९६१), 'प्रेम-पत्र' (१९६२), 'असली-नक़ली (१९६२), 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' (१९६२) और 'वह कौन थी' (१९६४) जैसी श्वेत-श्याम फ़िल्में सम्मिलित हैं वहीं 'मेरे महबूब' (१९६३), 'आरज़ू' (१९६५), 'वक़्त' (१९६५), 'मेरा साया' (१९६६), 'अनीता' (१९६७) और 'एक फूल दो माली' (१९६९) जैसी रंगीन फ़िल्में भी हैं । वे चौड़े माथे वाली एक सादगी-युक्त नायिका से विलक्षण केशसज्जा, रहस्यमयी मुस्कान और सम्पूर्ण देश को मंत्र-मुग्ध कर देने वाले नए चलन के परिधानों में सजी-धजी रमणी में कैसे और कब परिवर्तित हो गईं, संभवतः वे स्वयं भी नहीं जान पाईं । उनके चूड़ीदार पायजामे, सिल्क के कुरते, कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ और साधना कट के नाम से सदा-सदा के लिए मशहूर हो जाने वाले केशविन्यास ने सारे देश में धूम मचा दी थी । लेकिन वह दौर आने से पहले भी साधना ने बिमल राय की 'परख' और 'प्रेम-पत्र' जैसी फ़िल्मों में अपने सादगी से ओतप्रोत व्यक्तित्व से भारतीय दर्शकों पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी । देव आनंद की क्लासिक फ़िल्म 'हम दोनों' की साधना को भी कौन भुला सकता है ?
 
साधना के व्यक्तित्व में एक अनजाना-सा रहस्य का तत्व था जिसको आधार बनाकर निष्णात फ़िल्म दिग्दर्शक राज खोसला ने 'वह कौन थी' , 'मेरा साया' और 'अनीता' नामक रहस्यकथाओं की त्रयी रची । जहाँ 'वह कौन थी' का पहला ही दृश्य जिसमें भीषण बरसात की रात को कार चला रहे मनोज कुमार को सड़क पर बारिश में भीगतीं, अकेली खड़ीं साधना दिखाई देती हैं और फिर वे उन्हें रहस्य में डूबे वार्तालाप के उपरांत अपनी कार में एक कब्रिस्तान तक लिफ़्ट देते हैं, बॉलीवुड में बनने वाली रहस्यपूर्ण फ़िल्मों का सर्वश्रेष्ठ प्रारम्भिक दृश्य माना जा सकता है, वहीं 'वह कौन थी' की तर्ज़ पर ही बनी 'अनीता' में नायक के समक्ष कभी प्रेमिका तो कभी संसार-त्याग चुकी साध्वी के रूप में प्रकट होने वाली और फिर लुप्त हो जाने वाली रमणी भी अविस्मरणीय ही है । लेकिन साधना के रहस्यमय रूप का सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण फ़िल्म 'मेरा साया' में हुआ जिसमें कहीं वे 'झुमका गिरा रे' वाले अवतार में दर्शकों को लुभा गईं तो कहीं 'नैनों में बदरा छाए' वाले रूप में हृदयों पर राज कर गईं । उस दौर में ऐसे धूसर रंगों से युक्त भूमिकाओं को स्वीकार करना ही किसी भी नायिका के लिए एक बड़ी चुनौती था क्योंकि पारंपरिक भारतीय दर्शक नायिका के ऐसे रूप को देखने के अभ्यस्त नहीं थे । लेकिन साधना ने इस चुनौती को पूरे आत्मविश्वास के साथ स्वीकार किया और साधा ।
 
स्वयं सिंधी होकर भी साधना ने एक मुस्लिम युवती की भूमिका में लखनऊ की तहज़ीब को जिस बेमिसाल अंदाज़ से 'मेरे महबूब' में परदे पर प्रस्तुत किया है,उस पर देखने वालों के दिलों से 'वाह' के अतिरिक्त कुछ निकल ही नहीं सकता । हिजाब में छुपा उनका दिलकश हुस्न ही था जिसके लिए फ़िल्म के नायक (राजेन्द्रकुमार) उन्हें अपनी मुहब्बत की कसम देते हुए ख़ुद को अपना दीदार कराने के लिए पुकारते रहे । राजेन्द्रकुमार के साथ साधना ने कश्मीर की पृष्ठभूमि में बनी यादगार प्रेमकथा 'आरज़ू' में भी अत्यंत सुंदर अभिनय किया । चिनारों से गिरते पत्तों को देखते हुए उन्होंने लता मंगेशकर की आवाज़ में अपने बेदर्दी बालमा को कुछ ऐसी तड़प के साथ याद किया कि देखने वालों के दिल लरज़ गए । कुछ वर्षों बाद उन्होंने 'एक फूल दो माली' (१९६९) में दो पुरुषों के बीच बंटी एक विवाहिता एवं एक माँ की और 'आप आये बहार आई' (१९७१) में दुराचार की शिकार होने के उपरांत अपने प्रेमी से विवाह करने और दुराचारी की संतान को जन्म देने वाली स्त्री की अत्यंत कठिन भूमिकाएं भी कुशलतापूर्वक कीं । उन्होंने 'गबन' (१९६६) जैसी लीक से हटकर बनी फ़िल्म में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी और 'वक़्त' जैसी भव्य और बहुसितारा फ़िल्म में भी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और पहचान पर आँच नहीं आने दी । 'इंतकाम' (१९६९) में प्रतिशोध की अग्नि में झुलसती युवती की भूमिका में उन्होंने अभिनय के नए आयाम छुए ।
 
प्रेम-दृश्य करने में साधना अत्यंत निपुण थीं । परदे पर अपने नायक के साथ उनका व्यवहार किसी भी कोण से फ़िल्मी या बनावटी नहीं लगता था । चाहे कोई भी फ़िल्म रही हो और उनके समक्ष कोई भी नायक रहा हो, साधना एक सम्पूर्ण समर्पिता प्रेयसी के रूप में ही हँसतीं-बोलतीं-नाचतीं-गातीं दिखाई दीं । यद्यपि सुनील दत्त के साथ परदे पर उनका रसायन सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है लेकिन अन्य नायकों के साथ काम करते हुए भी उन्होंने सदा ऐसी स्त्री को परदे पर जीवंत किया जिसे प्रत्येक भारतीय पुरुष अपनी प्रेयसी और पत्नी के रूप में पाना चाहता है । उनकी तुलना हॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री ऑद्रे हेपबर्न से की जाती है किन्तु वे अपने सर्वांग रूप में भारतीय ही थीं । 
 
नायिका के रूप में अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म 'लव इन शिमला' (१९६०) के निर्देशक आर.के. नैयर से उन्होंने हृदय की गहराई से प्रेम किया और इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि नैयर के साथ अपने वैवाहिक जीवन में उन्हें संतान-सुख नहीं मिला । दैहिक समस्याओं के कारण उनका करियर वस्तुतः 'गीता मेरा नाम' (१९७४) के साथ ही समाप्त हो गया था जिसका निर्देशन भी उन्होंने ही किया था लेकिन उनकी कुछ विलंबित फ़िल्में बाद के वर्षों में भी प्रदर्शित हुईं । भारतीय दर्शकों के दिलों में बनी हुई अपनी छवि को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उन्होंने एक बार अवकाश लेने के बाद कभी भी फ़िल्मों में काम नहीं किया और सार्वजनिक जीवन से भी अपने आपको दूर कर लिया । इसीलिए साठ के दशक में उद्भूत उनका प्रभामंडल तथा उनके व्यक्तित्व पर पड़ा रहस्य का आवरण सदा जस-का-तस ही रहा । १९९५ में आर.के. नैयर के निधन के उपरांत वैधव्य के दो दशक उन्होंने बड़ी आर्थिक और व्यावहारिक कठिनाइयों के साथ बिताए । अपने कोई पास थे नहीं और बेगाने उन्हें कष्ट देने और प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे । ग्लैमर की चमक-दमक समाप्त हो जाने के पश्चात् किसी कलाकार का जीवन कैसा एकाकी और कठिन हो सकता है,यह कोई जानना चाहे तो साधना को उनके जीवन के अंतिम वर्षों में हुए कटु अनुभवों से जान सकता है ।
 
साधना अपनी नश्वर देह को छोड़कर जा चुकी हैं लेकिन अपनी फ़िल्मों के माध्यम से वे सदा जीवित रहेंगी । साधना को उनकी कला-साधना ने अमरत्व प्रदान कर दिया है । अब वे स्मृति-शेष हैं लेकिन उनका प्रभामंडल कभी धूमिल नहीं पड़ेगा । भारतीय रजतपट के इतिहास में वे अद्वितीय हैं और सदा रहेंगी । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे । इस असाधारण कलाकार को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।

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(यह लेख मूल रूप से २५ दिसंबर, २०१५ को साधना के दिवंगत होने के एक दिन पश्चात् २६ दिसंबर, २०१५ को प्रकाशित हुआ था) 


बुधवार, 16 दिसंबर 2020

आँखों वाला न्याय चाहिए, अंधा प्रतिशोध नहीं

(निर्भया मामले की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह लेख मूल रूप से २५ जनवरी, २०१६ को प्रकाशित हुआ था । कृपया इसे उसी संदर्भ में पढ़ा जाए ।) 

दिसंबर २०१ में सम्पूर्ण राष्ट्र की चेतना को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के एक अभियुक्त को अपनी आयु के आधार पर विधि-व्यवस्था के अंतर्गत अवयस्क की श्रेणी प्राप्त होने के कारण कारागृह से छोड़ क्या दिया गया कि देश में चहुँओर कोहराम मच गया । भावुकता में डूबे निर्भया के माता-पिता को साथ लेकर उन्मादी भीड़ सड़कों पर उतर आई और दंडनीय अपराधों हेतु वयस्कता की वैधानिक आयु घटाने वाला विधेयक तथाकथित लोकतन्त्र के मंदिर अर्थात संसद में बिना किसी विचार-विमर्श के पारित कर दिया गया । तो क्या निर्भया के साथ न्याय हो गया ? या इससे देश में अन्याय की पीड़ा झेलती असंख्य निर्भयाओं को न्याय मिल गया ? या उस एक अभियुक्त का छूट जाना ही ऐसे समस्त अन्यायों का प्रतीक है ? विभिन्न मंचों पर मैंने इस संदर्भ में अनेक विचार पढ़े और यह पाया कि उनमें से अधिकांश और कुछ नहीं वरन भीड़ की उन्मादी मानसिकता के ही उत्पाद थे । लेकिन जो प्रश्न मैंने ऊपर उठाए हैं, वे सर्वत्र अनुत्तरित हैं ।  संभवतः इसलिए कि उनके उत्तरों का आकांक्षी कोई है ही नहीं । निर्भया जैसी पीड़िताएं भी नहीं ।

निर्भया किसी की पुत्री थी । प्रत्येक पीड़िता किसी न किसी की पुत्री होती है । प्रत्येक पुत्री की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि सभी माता-पिता प्रत्येक पीड़िता को अपनी पुत्री की भांति समझें, उसकी व्यथा को अनुभूत करें और किसी भी अन्य पुत्री के पीड़िता बनने की संभावना को रोकने के लिए प्राणपण से प्रयासरत रहें । निर्भया का मामला बहुचर्चित बन गया जिसके शोर में न केवल देश के विभिन्न भागों में आए दिन ऐसी पीड़ा को भोगने के लिए अभिशप्त असंख्य निर्भयाओं की आहें गुम हो गईं वरन अनेक ऐसे ज्वलंत प्रश्न भी अनदेखे कर दिए गए जिनके उत्तर उतने ही प्रासंगिक हैं जितनी कि निर्भया की पीड़ा । निर्भया के साथ दुराचार के अवयस्क आरोपी को जीवन भर के लिए कारागृह में बंद कर देने या मृत्युदंड दे देने से उन सहस्रों पीड़िताओं को न्याय नहीं मिल सकता जिनकी पीड़ा को सुनने, देखने और अनुभूत करने वाला कोई नहीं । 

क्या अपने बहुमूल्य जीवन का अधिकांश भाग मरणासन्न अवस्था (कोमा) में रहकर बिताने वाली अरुणा शानबाग की पीड़ा (जिसका अपराधी सस्ते में इसलिए छूट गया क्योंकि उस पर वास्तविक अपराध के आरोप लगाए ही नहीं गए और हलके आरोपों को लगाकर हलकी सज़ा सुना दी गई) या हरियाणा में डीजीपी कार्यालय के सामने अपनी जान दे देने वाली सरिता की पीड़ा (जिसके अपराधी पुलिस वाले ही थे) किसी भी रूप में निर्भया की पीड़ा से कम थी ? उन्हें तो मरने के बाद भी न्याय नहीं मिला । बिहार के जसीडीह थाना-क्षेत्र के पड़रिया गाँव की पीड़ा तो तीन दशक से अधिक पुरानी हो चुकी है लेकिन मरहम से वंचित घाव आज भी हरे हैं । पुलिस वालों ने उस  गाँव की बहू-बेटियों को सामूहिक रूप से पाशविकता का शिकार बनाया था और उनके परिवार के पुरुषों पर वहशियाना अत्याचार किए थे । उसका दूरगामी परिणाम यह निकला कि पड़रिया के लड़कों के विवाह-संबंध होने में ही रुकावट आ गई क्योंकि लोगों ने उस गाँव में बेटी देना ही बंद कर दिया । जिस आदिवासी किशोरी मथुरा के दुराचार का मामला सत्तर के दशक में देश भर में चर्चा का विषय बन गया था और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय ने देश भर में संबंधित विधान में सुधार के लिए एक लहर उत्पन्न कर दी थी, उसके अपराधी भी पुलिस वाले ही थे । क्या दुराचारियों को गोली मारने की बात करने वाले दिल्ली पुलिस के बड़बोले महानिदेशक भीम सेन बस्सी अपने ही विभाग के ऐसे दरिंदों को गोली मारने का नैतिक साहस रखते हैं ? निर्भया कांड के समय दिल्ली पुलिस के महानिदेशक के पद पर चौकड़ी जमाकर बैठे नीरज कुमार ने दिल्ली में महिलाओं को सुरक्षा देने में अपनी विफलता पर परदा डालने के लिए शीघ्र ही क्रिकेट मैच फ़िक्सिंग के नाम पर कुछ बलि के बकरे पकड़ लिए और अब सेवानिवृत्ति के उपरांत वे निर्भया कांड की चर्चा से बहुत दूर रहते हुए भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड के सलाहकार बनकर उससे मोटा पारिश्रमिक झटक रहे हैं ।

बाल विवाह के विरुद्ध समाज को जागरूक बनाने में लगी साथिन भंवरी देवी की पीड़ा को क्या निर्भया के नाम पर सुर्खियाँ बटोरने वाले अनुभूत कर पा रहे हैं जिसे अपने सत्कर्म का पुरस्कार अपनी देह के साथ जघन्य दुष्कर्म के रूप में मिला ? पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले में पंचायत के आदेश पर सार्वजनिक रूप से सामूहिक दुराचार की शिकार आदिवासी युवती की पीड़ा क्या निर्भया की पीड़ा से हलकी है ऐसे आदेश हमारे देश की विवेकहीन और संवेदनहीन पंचायतें आए दिन देती ही रहती हैं जिनकी भुक्तभोगी बनती हैं निर्दोष बालाएं । निर्भया के बलिदान की आँच पर अपने निहित स्वार्थ की रोटियाँ सेकने और बढ़-चढ़कर बोलने वालों के कानों तक क्या ऐसी अभागियों की सिसकियाँ पहुँच पाती हैं ? क्या हमारे वोटों के भिक्षुक राजनेता ऐसी मध्ययुगीन परपीड़क मानसिकता वाली पंचायतों को समाप्त करना तो दूर उन पर कठोर कार्रवाई करने का विचार भी कर सकते हैं ?

भारतीय दंड विधान और दंड संबंधी अवधारणाओं की विडम्बना यह है कि वे प्रतिशोध की भावना पर आधारित हैं - अपराधी व्यक्ति से समाज का सामूहिक प्रतिशोध । लेकिन प्रतिशोध प्रायः अंधा होता है । देश में एक सदी से हो रहे क़ौमी दंगे इस बात का ठोस सबूत हैं जिनमें दोनों ही तरफ़ के लोग अपनी तरफ़ के बेगुनाह शिकारों का बदला दूसरी तरफ़ के बेगुनाहों से लेते हैं और असली मुजरिम साफ़ बच निकलते हैं । और अत्यंत कटु तथा पीड़ादायी सत्य यह भी है कि ऐसी कार्रवाइयों में दोनों ही पक्षों की पूर्णतया निर्दोष अबलाओं को  निर्भया के साथ हुए अनाचार की ही भांति आततायी पुरुषों के हाथों घृणित अत्याचार झेलने पड़ते हैं । क्या ऐसा अंधा प्रतिशोध एक अन्याय की प्रतिक्रिया में किया गया दूसरा अन्याय नहीं होता है ? एक अन्याय की क्षतिपूर्ति दूसरा अन्याय कैसे कर सकता है ? इसीलिए क़ौमी नफ़रतों की आग कभी बुझती नहीं, और भड़कती ही है । अतः न्याय के मूल में प्रतिशोध नहीं होना चाहिए क्योंकि प्रतिशोध की आँखें या तो होती नहीं या होती भी हैं तो वास्तविकता को देखने के लिए खुलती नहीं ।

भारत में कारागृहों तथा बाल (एवं नारी) सुधार-गृहों की हालत अत्यंत दयनीय है जिनमें अपराधियों का सुधारना असंभव के तुल्य कठिन होता है । उनमें कानून के रक्षकों द्वारा कथित अपराधियों के साथ ऐसे-ऐसे अन्याय एवं घृणित अत्याचार किए जाते हैं कि उनके व्यक्तित्व में अगर थोड़ा-बहुत सत्व का तत्व रह गया हो तो वह भी समाप्त हो जाए । ज़मीं पर दोज़ख का दर्ज़ा रखने वाली ऐसी जगहों में कुर्सियों पर बैठे कानून के रखवाले इन मुजरिमों से भी बड़े मुजरिम होते हैं लेकिन किसी भी सज़ा के मुश्तहक़ नहीं समझे जाते क्योंकि उनके ज़ुल्म-ओ-सितम और जरायम की कहानियाँ कभी बाहर ही नहीं आतीं । ऐसी जगहों के बाशिंदे किस्मत से कभी बाहर निकल भी पाते हैं तो तब तक उनमें अच्छाई का नाम-ओ-निशान तक बाकी नहीं रहता और वे पहले नहीं भी रहे हों तो अब समाज के कट्टर दुश्मन बन चुके होते हैं । निर्भया कांड के अवयस्क अपराधी की उस कांड में भूमिका कितनी थी, यह तो स्वर्गीया निर्भया को ही सही-सही मालूम था लेकिन उसके छूट जाने से कोई क़यामत नहीं आने वाली । सच तो यह है कि उसके छूट जाने के बाद समाज को उससे कोई खतरा हो न हो, उसे समाज में घूम रही अंधी, अविवेकी, उन्मादी भीड़ से पूरा-पूरा खतरा है । तिहाड़ जेल में निर्भया कांड के सज़ायाफ़्ता मुजरिम राम सिंह ने ख़ुदकुशी कर ली तो क्या निर्भया की रूह को चैन मिल गया, इंसाफ़ हो गया निर्भया का ? राम सिंह को जेल के भीतर ही अप्राकृतिक दुष्कर्म का शिकार बनाया गया था । क्या वह इसलिए न्याय पाने का अधिकारी नहीं क्योंकि वह निर्भया का दोषी था  

दंड के निमित्त वयस्कता की आयु कम करना देश के विधि-विधान में उपस्थित ऐसी विसंगतियों को बढ़ाने का ही काम करेगा, घटाने का नहीं । हमारे यहाँ पुलिस से अधिक भ्रष्ट और विकृत विभाग कोई नहीं जिनमें उन्हीं अपराधों को करने का वर्दीरूपी अनुज्ञापत्र लिए घूमते लोग भरे पड़े हैं जिन अपराधों की रोकथाम का नैतिक और विधिक दायित्व उन पर डाला गया है । इसीलिए भारतीय जनमानस में पुलिसियों की छवि वर्दी वाले गुंडों सरीखी ही है जिनके लिए प्रत्येक नया कानून अपनी जेबें भरने और अपनी पाशविक प्रवृतियों को तुष्ट करने के लिए बलि के बकरे पकड़ने के साधन से इतर कुछ नहीं होता । किसी किशोर ने जाने-अनजाने या कुसंगति के परिणामस्वरूप एक अपराध कर दिया तो क्या उसे सुधरने का एक भी मौका दिए बिना इन भेड़ियों के हवाले कर दिया जाए ? क्या यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के अनुकूल होगा ? क्या ऐसा करके भावी पीढ़ियों के लिए एक बेहतर समाज का निर्माण किया जा सकता है ? क्या एक निर्भया को तथाकथित न्याय दिलाने के नाम पर बनाए गए  इस कानून के माध्यम से हज़ारों निर्दोष किशोरों के लिए संकट खड़ा नहीं किया गया है ? साधन-सम्पन्न और दबंग परिवारों के किशोरों के लिए तो कानून के हत्थे चढ़ने के बाद भी बच पाने की गुंजाइश रहती है क्योंकि उनके माता-पिता वकीलों की कतार खड़ी कर देते हैं न्यायालयों में लेकिन दुर्बल पृष्ठभूमियों से आने वाले अभागे किशोरों को कौन बचा सकता है पुलिस की हिरासत, जेल और कथित सुधार-गृहों में किए जाने वाले रोंगटे खड़े कर देने वाले भयानक अत्याचारों से जिन्हें करने वाले सरकार के ही कर्मचारी होते हैं जिनके वेतन-भत्तों और सुविधाओं का भार जनता वहन करती है ? हमारी जेलों में हज़ारों विचाराधीन अपराधी दोष-सिद्धि तो दूर, सुनवाई तक के बिना सालों से सड़ रहे हैं । उनकी बेबसी का फ़ायदा उठाने के लिए कानून के नुमाइंदे तो खम ठोककर खड़े हैं लेकिन कानून के पास उनके लिए इंसाफ़ तो दूर दो बूंद आँसू भी नहीं हैं । क्या देश के भावी कर्णधारों पर अत्याचार करने के लिए हमारी हृदयहीन पुलिस को एक और शक्तिशाली अस्त्र नहीं दे दिया गया है ? पुलिस तो जिसे पकड़ ले, वही अपराधी । पकड़ा गया निर्दोष किशोर यदि साधनहीन है तो उसे कौन बचाएगा  

अपराध दंड की कठोरता से नहीं रुकते, वरन उसकी सुनिश्चितता से रुकते हैं । हमारे दंड-विधान की मूल दुर्बलता यही है कि साधन-सम्पन्न और चतुर अपराधी दंड से बच निकलने में स्वयं को सक्षम पाते हैं और किसी मामले में पीड़ित के साथ न्याय हो भी पाता है तो इतने विलंब से कि वह न्याय अपना अर्थ ही खो चुका होता है । साधन-सम्पन्न वादी अपने वकीलों के माध्यम से मुकदमे को इसीलिए लंबा खिंचवाते हैं ताकि इंसाफ़ हो भी तो बेमानी बनकर हो क्योंकि देर ही अंधेर है । न्याय में विलंब तो न्याय से वंचित करने की सबसे सुगम रीति है । भारतीय व्यवस्थाओं में अन्याय करना सरल इसीलिए होता है क्योंकि अन्याय को तुरंत कार्यान्वित किया जा सकता है जबकि न्याय पाने में पीड़ित का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो सकता है और उसके उपरांत भी न्याय मिलने का कोई ठोस आश्वासन नहीं होता । न्याय पाने की यह कठिनाई ही अन्यायियों को अन्याय करने की सुविधा प्रदान करती है । अतः शीघ्र, अल्पमूल्य तथा शुद्ध-सच्चा न्याय ही भावी अन्यायों को रोक सकता है, नए विधि-विधान या वर्तमान विधि-विधानों में बिना सोचे-विचारे किए गए तर्कहीन संशोधन नहीं । 

भारतीय संसद ने बाल न्याय (बाल संरक्षण एवं सुरक्षा) अधिनियम में दंड हेतु आयु घटाने वाला संशोधन बिना किसी चर्चा के ही पारित कर दिया, इसमें आश्चर्य क्या ? हमारे निकम्मे एवं अनुत्तरदायी सांसद बिना चर्चा के एकमत होकर या तो अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के विधेयक पारित करते हैं या फिर ऐसे विधेयक जिनके पीछे वोट डालने वाली भीड़ का दबाव हो क्योंकि वे तो देश के नागरिकों को वोट बैंकों के रूप में ही देखते हैं । वो समय तो कभी का जा चुका जब संसद में जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रबुद्ध लोग विभिन्न विधेयकों पर गहन अध्ययन करके उनके गुण-दोषों पर सार्थक विचार-विमर्श किया करते थे । अब तो संसद में या तो निरर्थक होहल्ला होता है या फिर विधेयकों का बिना सोचे-विचारे पारण । उन्हें ठीक से पढ़ने का श्रम क्यों किया जाए और उनके विभिन्न पक्षों तथा दूरगामी परिणामों को सूक्ष्मता से समझने के लिए मस्तिष्क पर ज़ोर क्यों डाला जाए जब उद्देश्य केवल सड़कों पर उतरी भीड़ को संतुष्ट करके वापस भेजना हो  ? अपना वक़्ती सरदर्द टलना चाहिए, देश और समाज आगे चलकर भुगते तो भुगते, हमें क्या  

क्या अपराध के दंड की आयुसीमा को घटाने जैसा महत्वपूर्ण निर्णय किसी एक मामले की बिना पर लिया जाना चाहिए ? यदि ऐसा कोई और मामला फिर हो गया जिसमें किसी अपराधी की आयु इस नई आयुसीमा से भी कम हुई तो क्या इस विधान में पुनः संशोधन करके इस आयु को और भी घटाया जाएगा ? राष्ट्र की न्याय-व्यवस्था प्राकृतिक न्याय के सनातन सिद्धांतों के आधार पर चलनी चाहिए, भीड़ की इच्छाओं के अनुरूप नहीं । हमारे देश में वातावरण उत्तरोत्तर ऐसा होता जाता रहा है कि न्यायालय भी अब भीड़ की इच्छाओं के अनुरूप लोकलुभावन निर्णय देने (और संदर्भहीन किन्तु लोकरुचि को भाने वाली टिप्पणियाँ करने) में ही अधिक रुचि लेने लगे हैं । देश के भविष्य के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं ।  

यदि अल्प आयु के बालक अपराध कर रहे हैं तो इसका कारण है उनके चरित्र-निर्माण का अभाव । आजकल बालकों को कमाऊ बनने की सीख सभी देते हैं, चरित्रवान बनने की कोई नहीं देता । अब चरित्र-निर्माण के संस्कार न उन्हें घर से मिल रहे हैं, न शिक्षण-संस्थानों से । नशे के साधन और चरित्र को पतित करने वाली अश्लील सामग्रियां सर्वत्र धड़ल्ले से उपलब्ध हैं । ऐसे में अपराध कैसे रुकेंगे जब बालकों की मानसिकता ही भ्रष्ट हो गई हो ? हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि धन गया तो समझो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो समझो कुछ गया और चरित्र गया तो समझो सब कुछ चला गया । इसलिए मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत की विभिन्न समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान बालकों और बालिकाओं का चरित्र-निर्माण ही है । क्या निर्भया के नाम पर होहल्ला मचाकर और बाह्य दबाव बनाकर संसद को उतावली में विधेयक पारित करने पर विवश करने वाले कथित जागरूक नागरिक इस बात को समझते हैं ? क्या वे अपने परिवार के बालकों को अच्छे संस्कार देने में रुचि लेते हैं ताकि वे किसी बाला के निर्भया बनने का कारण न बनें ? निर्भया और उस जैसी हज़ारोंलाखों पीड़िताओं का अभीष्ट वस्तुतः तर्क एवं विवेक सम्मत आँखों वाला न्याय है, न कि अंधा प्रतिशोध जिसकी उपलब्धि शून्य हो ।  

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मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

सेल्यूलॉइड पर लिखी दर्दभरी कविता

‘अक्टूबर’ फ़िल्म के बारे में विभिन्न समीक्षकों के विचार पढ़ चुकने के उपरांत मैं इस फ़िल्म को सिनेमा हॉल में देखने गया । और जब फ़िल्म के पूरी हो चुकने पर निकास द्वार की ओर बढ़ा तो मेरा दिलोदिमाग़ मेरे साथ नहीं था । वह इस फ़िल्म के किरदारों के साथ था, उनके जज़्बात को महसूस करता हुआ, सच पूछिए तो उन्हें ख़ुद जीता हुआ । ‘अक्टूबर’ को एक फ़िल्म या एक कहानी कहना ग़लत होगा । कहानी तो यह है ही नहीं । यह तो एक कविता है – सेल्यूलॉइड पर लिखी एक दर्दभरी कविता । एक ऐसी कविता जिसे रचने के लिए ही नहीं, समझने और महसूस करने के लिए भी एक कवि का दिल चाहिए, संवेदनाओं से ओतप्रोत अंतस चाहिए ।

दशकों पूर्व स्वर्गीय सुनील दत्त ने एक फ़िल्म बनाई थी – ‘दर्द का रिश्ता’ जिसमें एक पिता के अपनी पुत्री के मरणासन्न होते जा रहे जीवन से जुड़े रिश्ते का दर्द प्रस्तुत किया गया था । फ़िल्म अत्यंत वास्तविक थी क्योंकि उसका कथानक एक दर्दभरे दिल से ही उभरा था । सुनील दत्त ने अपनी दिवंगत जीवन-संगिनी नरगिस के कैंसर के कारण हुए निधन से जागे अपने दिल के दर्द को ही फ़िल्म में उतार दिया था । इसीलिए इस फ़िल्म में वे अभिनय करते हुए दिखाई नहीं देते, पात्र को जीते हुए दिखाई देते हैं ।

और इसके भी दशकों पूर्व अमर हिन्दी कथाकार पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने एक कालजयी हिन्दी कथा का सृजन किया था – ‘उसने कहा था’ । इस कहानी में नायिका से (लगभग) एकपक्षीय प्रेम करने वाला नायक नायिका द्वारा कहे गए केवल एक वाक्य को हृदयंगम करके उसके पति की जीवन-रक्षा के निमित्त अपना प्राणोत्सर्ग कर देता है । ‘अक्टूबर’ में मुझे साढ़े तीन दशक पुरानी ‘दर्द का रिश्ता’ और एक सदी पुरानी ‘उसने कहा था’ का अद्भुत संगम देखने को मिला ।


फ़िल्म का नायक एक अपरिपक्व-सा, अव्यावहारिक-सा युवक है जो अपने ही जैसे युवा सहकर्मियों के साथ होटल प्रबंधन के पाठ्यक्रम के अंतर्गत एक होटल में प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहा है । प्रत्येक जगह नुक्स निकालने वाला और ऐसे प्रत्येक नुक्स को अपने ही ढंग से ठीक करने में रुचि रखने वाला यह पात्र व्यावहारिक संसार के लिए अनुपयुक्त-सा (अनफ़िट) ही प्रतीत होता है । उसके पात्र से मैं स्वयं को जोड़ पाया क्योंकि मैं स्वयं भी वैसा ही हूँ । लेकिन ऐसे अनफ़िट लोग ही तो पराये दर्द को अपने दर्द की भाँति अंगीकार कर पाते हैं, अनुभव कर पाते हैं और इसीलिए उसे बाँट पाते हैं ।

नायक की महिला सहकर्मी जिससे न उसकी मित्रता थी, न ही कोई उल्लेखनीय मेलजोल (प्रेम-संबंध की तो बात ही छोड़िए), जब दुर्घटनाग्रस्त होकर कोमा में चली जाती है तो नायक का जीवन ही बदल जाता है जब उसे पता चलता है कि दुर्घटनाग्रस्त होने से पूर्व नायिका ने उसके विषय में पूछा था । नायिका ने जो बात संभवतः सहजभाव से उसे अपना एक सामान्य सहकर्मी समझकर पूछी थी, वह उसके अन्तर्मन में एक ऐसा प्रश्न बनकर पैठ जाती है जिसका उत्तर उसे लगता है कि उसे मालूम है लेकिन वह चाहता है कि नायिका अपनी कोमा की अवस्था से उठकर बैठे और उस संभावित उत्तर की पुष्टि करे । और इसके लिए वह अपने जीवन को केवल नायिका के कोमाग्रस्त जीवन, उसकी चिकित्सा एवं सेवा-सुश्रूषा तथा उसके परिजनों (उसकी माता,भाई एवं बहन) तक सीमित कर देता है । उसके अन्य सहकर्मी (जो नायिका के भी सहकर्मी थे) जीवन में आगे बढ़ जाते हैं लेकिन उसका जीवन उसी एक बिंदु पर ठहर जाता है । क्यों ? शायद वह जानता है । शायद हम भी जानते हैं । नायिका के मन में क्या था, विश्वासपूर्वक कोई नहीं कह सकता लेकिन नायक तो वही समझता है, जो वह समझना चाहता है । क्या हम सभी कहीं-न-कहीं ऐसे ही नहीं ?

और अपने जीवन के इस दौर में; जब नायिका और उसके परिजनों के साथ वह दैनिक आधार पर जुड़ गया है और उसकी अपनी प्राथमिकताएं समाप्त होकर नायिका के जीवन पर आधारित हो चुकी उनकी दिनचर्या में समा गई हैं, ग़ालिब के शब्दों में वह काम का आदमी न रहकर इश्क़ में निकम्मा बन चुका है; तब वह देखता है कि कथित प्रैक्टीकल जीवन में भावनाओं की नहीं, धन और संसाधनों की महत्ता ही अधिक है । नायिका कभी सामान्य जीवन जी सकेगी या नहीं, यह पूर्णतः अनिश्चित है जिसके कारण उसका चाचा उसे दया-मृत्यु दे दिए जाने के पक्ष में है (ताकि उसकी चिकित्सा पर हो रहे व्यय के कारण होने वाली आर्थिक हानि को न्यूनतम किया जा सके) लेकिन चिकित्सा कर रहे विशेषज्ञ नायिका के परिवार को झूठी आशा बंधा रहे हैं (क्योंकि उनका व्यावसायिक हित नर्सिंग होम में नायिका की लंबी उपस्थिति और चिकित्सा के लंबे समय तक चलने में ही निहित है) । नायिका की माता एक सिंगल मदर है जो कि अपनी शिक्षिका की नौकरी की आय से ही दोनों बच्चों का पालन-पोषण कर रही है । नायिका के इलाज पर हो रहा भारी-भरकम ख़र्च उसकी आमदनी पर बहुत बड़ा बोझ है जिसे सहने के अलावा कोई चारा नहीं है । जननी है, परिस्थितियों के आगे नत होकर अपनी बच्ची को मृत्यु के हवाले कैसे कर दे ? नायक सब कुछ देखता, सुनता, समझता है और बिना किसी के बनाए स्वतः ही इस असहनीय पीड़ा को सह रहे परिवार का अंग बन जाता है । वह इस परिवार के सदस्यों के साथ उदास होता है तो मुसकराता भी है । लेकिन . . .

लेकिन मृत्यु से तो विरले ही जीत पाए हैं । सच्ची-झूठी आशा-निराशा-दुराशा के बीच झूलते इस परिवार को आख़िर अपने प्रिय की मृत्यु के सत्य से साक्षात् करना ही पड़ता है । और जीवन तो फिर भी चलता है जब तक आप स्वयं ही दिगंत में लीन न हो जाएं । अब नायक को भी जीवन में आगे बढ़ना होगा । लेकिन क्या वह बढ़ पाएगा ? क्या वह नायिका की स्मृतियों से स्वयं को विलग करके जीवन जी सकता है ? नहीं ! कदापि नहीं ! विशेष रूप से तब जबकि वह हरसिंगार (पारिजात) का वह वृक्ष अपने साथ ले आया है जिसके अक्टूबर मास में झरने वाले फूल नायिका को बहुत पसंद थे जिसका नामकरण ही उनके नाम पर ‘शिवली’ किया गया था । जीवन चलेगा । लेकिन यादें भी चलेंगी । जीवन-मृत्यु के बीच डूबती-उतराती नायिका की वह अवस्था नायक को बहुत कुछ सिखा गई है । अब वह अपरिपक्व युवक नहीं रहा । अचानक ही बड़ा हो गया है । 

फ़िल्म का शीर्षक अपने आप में ही बहुत कुछ समेटे हुए है । बहुत कुछ ऐसा जो अनकहा है जिसे बिना सुने ही समझना होता है । हरसिंगार के फूलों को शेफ़ाली भी कहा जाता है (शिवली के सदृश) । फ़िल्म देखते-ही-देखते वर्षों पूर्व कहीं पढ़ी गई एक सुकोमल भावों से भरी कविता की पंक्तियां मेरी स्मृतियों के आकाश में कौंध गईं – ‘सजने और सँवरने के दिन, इकदूजे पर मरने के दिन, बहती नदिया मन के भीतर, शेफ़ाली के झरने के दिन’ । हाँ, अक्टूबर ऐसा ही होता है – न शीतल, न उष्ण, कुछ-कुछ सुहाना-सा जिसमें भावनाएँ उमड़ती हैं । कुछ फूल-पत्ते झरते हैं और संसार में अपनी सुगंध बिखेरकर नए फूल-पत्तों के आगमन के लिए स्थान रिक्त कर  देते हैं ।

निर्देशक शुजीत सरकार और लेखिका जूही चतुर्वेदी ने वरुण धवन, बनिता संधू और गीतांजलि राव जैसे कलाकारों के साथ मिलकर इस अनूठी, अलबेली कविता को सिरजा है । शांतनु मोइत्रा द्वारा संगीतबद्ध गीतों को मैंने फ़िल्म में सुना या नहीं, याद नहीं पड़ता । मेरे लिए तो छायाकार अविक मुखोपाध्याय द्वारा किसी सुंदर चित्र की भाँति परदे पर उतारी गई इस फ़िल्म का प्रत्येक दृश्य, प्रत्येक पल ही एक दर्दीले लेकिन सुरीले संगीत में डूबा हुआ गुज़रा । ऐसा संगीत जिसे मैंने कानों से नहीं, आँखों से सुना । यह दर्दभरी कविता अधूरी होकर भी पूरी है, ठीक वैसे ही जैसे जीवन अधूरा होकर भी पूरा होता है । 


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शनिवार, 12 दिसंबर 2020

इंसानी रिश्तों और इंसानी फ़ितरत के रंगों से सजा वसीह कैनवास

१९६३ में हिन्दी उपन्यास जगत के आकाश पर एक नया सितारा उभरा । इस तेईस वर्षीय युवा लेखक का नाम था सुरेन्द्र मोहन पाठक जिसका पहला उपन्यास – ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’ हिन्दी के पाठक समुदाय के सामने आया । चूंकि इस लेखक ने जासूसी उपन्यास लेखन की विधा को अपनायाइसलिए उसने उस समय की परंपरा को निभाते हुए अपना एक सीरियल नायक सृजित किया जो कि लेखक द्वारा रचित रहस्य-कथाओं के रहस्यों को सुलझाता था । उन दिनों ऐसे जासूस नायक या तो पुलिस इंस्पेक्टर दिखाए जाते थे या कोई सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी जो कि सेवानिवृत्ति के बाद अपनी निजी जासूसी संस्था खोलकर बैठे हों । सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपना एक नया मुकाम बनाने की कोशिश में अपने जासूस नायक को एक खोजी पत्रकार के रूप में चित्रित किया जो कि एक दैनिक समाचार-पत्र में नौकरी करता है और अपने समाचार-पत्र के लिए सनसनीखेज़ ख़बरें जुटाने के लिए विभिन्न अपराधों की अपने स्तर पर जांच-पड़ताल करता है । लेखक ने इस नायक को एक बंगाली युवक दिखाया और घटनाओं के स्थल के रूप में राजनगर नाम के एक काल्पनिक महानगर को उसकी पूरी भौगोलिक स्थिति के साथ चित्रित किया । सुनील कुमार चक्रवर्ती नाम का यह खोजी पत्रकार आज हिन्दी के जासूसी उपन्यास जगत का बेहद लोकप्रिय नायक है जिसका पहला कारनामा – ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’ १९६३ में छपा जबकि एक सौ बाईसवां नवीनतम कारनामा – ‘कॉनमैन’ २०१८ में प्रकाशित हुआ । पिछली आधी सदी से लगातार सक्रिय यह चिरयुवा नायक राजनगर से निकलने वाले राष्ट्रीय स्तर के दैनिक समाचार-पत्र – ‘ब्लास्ट’ के लिए काम करता है । इसकी खोजी गतिविधियां आम-तौर पर राजनगर और उसके निकट के काल्पनिक शहरों – विशालगढ़विश्वनगरतारकपुरख़ैरगढ़इक़बालपुर आदि एवं साथ ही निकटस्थ पर्यटन-स्थलों – झेरीसुंदरबनपंचधारा आदि में चलती हैं यद्यपि कुछ उपन्यास लेखक ने ऐसे भी लिखे हैं जिनमें सुनील को एक पत्रकार से इतर एक वास्तविक जासूस भी बताया गया है जो कि छुपे रूप में स्पेशल इंटेलीजेंस नाम के खुफ़िया सरकारी विभाग के लिए काम करता है जिसके प्रमुख कर्नल मुखर्जी नाम के उच्चाधिकारी हैं । ऐसे उपन्यासों में सुनील को विदेशों में भी भारतीय हितों के लिए जासूसी के काम करते हुए दिखाया गया है लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक ने कुछ वर्षों बाद ऐसे उपन्यास लिखने बंद कर दिए और सुनील को स्थाई रूप से एक पत्रकार की भूमिका तक ही सीमित कर दिया ।  

१९६३ में हिन्दी जासूसी साहित्य जगत में अवतरित इस नायक का सौवां कारनामा तीस वर्ष बाद १९९३ में आया जिसका शीर्षक है – ‘गोली और ज़हर’ । चूंकि यह इस असाधारण नायक का सौवां उपन्यास थाइसलिए लेखक ने उपन्यास का फ़लक बहुत विस्तृत रखते हुए एक वृहत् कथानक रचा । आम तौर पर सुनील के उपन्यासों की कहानियाँ सुनील के साथ-साथ ही चलती हैं यानी कि पाठक वही जानता है जो कि सुनील जानता है और उपन्यास में ऐसे दृश्य नहीं होते जिनमें सुनील न होलेकिन एक विशिष्ट आयोजन के रूप में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक को अपनी इस लीक से हटकर कई ऐसे दृश्य भी डालने पड़े जिनमें सुनील अनुपस्थित था । बहरहाल यह रहस्य-कथा बेहद दिलचस्प है जिसका आधार एक ऐसी हत्या है जो कि वस्तुतः गोली से हुई मगर जो ज़हर से भी होनी संभावित थी । किसी ने मक़तूल को ज़हर देकर मारने का इंतज़ाम किया मगर उसकी नौबत आने से पहले ही किसी और ने गोली मारकर उसी बात को अंजाम दे दिया । यही कारण है कि इस उपन्यास का नामकरण ‘गोली और ज़हर’ किया गया ।  

मक़तूल का नाम नरोत्तम ठाकुर था जो कि ऐसी दौलत पर क़ाबिज़ था जिसकी वास्तविक मालकिन उसकी बहन – चंद्रिका ठाकुर थी । नरोत्तम ठाकुर प्रह्लाद राय ठाकुर नाम के एक अमीर आदमी का गोद लिया हुआ बेटा था जिनकी पत्नी – लज्जारानी ठाकुर के विवाह के सोलह बरस बाद तक कोई संतान नहीं हो सकी । पर कुदरत का करिश्मा यह हुआ कि नरोत्तम को गोद लेते ही लज्जारानी ठाकुर गर्भवती हो गईं और उन्होंने चंद्रिका को जन्म दिया । जब वसीयत करने का सवाल आया तो प्रह्लाद राय ठाकुर गोद ली हुई औलाद को अपने ख़ून के बराबर का दर्ज़ा नहीं दे सके । उन्होंने चंद्रिका के नाम सारी संपत्ति लिख दी और नरोत्तम को महज़ गुज़ारे-भत्ते का हक़दार माना । माता-पिता के देहावसान के बाद जहाँ नरोत्तम व्यापार को संभालने लगावहीं चंद्रिका ऐशपरस्ती पर उतर आई और देश-विदेश घूमने लगी । एक बार वह सिंगापुर गई तो लौटी ही नहीं और नरोत्तम ने यह ज़ाहिर किया कि वह मर चुकी है और सारी जायदाद पर कब्ज़ा जमाकर ठाठ से रहने लगा । उसकी पहली पत्नी एक पुत्री – पंकज को जन्म देकर चल बसी और अपनी जन्मदात्री माता – चंद्रावती के निधन के बाद नरोत्तम ने अपनी पक्की उम्र में जबकि पंकज भी जवान हो चुकी थीअपनी लंबी बीमारी के दौरान अपनी सेवा करने वाली युवा नर्स – नम्रता से विवाह कर लिया । उसकी हत्या के वक़्त उस घर के बाशिंदों में नम्रता और पंकज के अलावा चार नौकर और मोती नाम का एक बेहद ख़तरनाक कुत्ता शामिल थे । नौकरों में एक राममिलन नाम का बेहद स्वामीभक्त बूढ़ा नौकर जो कि मुख्यतः नरोत्तम की ही सेवा करता थापुष्पा नाम की उम्रदराज हाउसकीपर और दो युवा नौकरानियां – कृष्णा और बॉबी थीं । घर से निकट से जुड़े लोगों में प्रदीप सक्सेना नाम का वकीलउसका ड्राइवर – सुभाष जो कि कृष्णा और बॉबी दोनों का ही प्रेमी रह चुका थानम्रता का एक पुराना परिचित – श्याम भैया जो कि नरोत्तम की मौत की ख़बर पाते ही तुरंत दुबई से चला आयापंकज के दो पुरुष-मित्र जो कि उससे विवाह करने के इच्छुक थे – कुँवर युद्धवीर सिंह और अंकुर सेठअंकुर सेठ के माता-पिता – दरबारी सेठ और दीपा सेठनरोत्तम का साझेदार – भूषण कंसल और उसकी युवा उच्छृंखल पत्नी – कल्पना थे । ज़ाहिर है कि ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जिन पे क़त्ल का शुबहा किया जा सके ।  

लेकिन क़त्ल के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार किया गया ज्योत्स्ना जोशी नाम की एक युवती को जिसके पिता – विश्वनाथ जोशी नरोत्तम की फ़र्म में हैड-कैशियर की नौकरी करते थे और जिन्हें फ़र्म से पच्चीस लाख रुपये के गबन के आरोप में जेल की सज़ा काटनी पड़ रही थी । क़त्ल के कुछ समय पहले ही ज्योत्स्ना को पता चला था कि नरोत्तम ने वह पच्चीस लाख रुपया अपने पल्ले से फ़र्म में जमा कराया था जबकि  नरोत्तम को यह पता चला था कि वह गबन वास्तव में फ़र्म के दूसरे साझेदार भूषण कंसल ने किया था । इस बाबत नरोत्तम को दीनानाथ चौहान नाम के फ़र्म के उस साझेदार का एक पत्र मिला था जो कि पहले फ़र्म में महज़ एक कैशियर था मगर इस घटना के बाद आनन-फ़ानन में फ़र्म का साझेदार बन बैठा था । उसने अपनी मृत्यु से पूर्व नरोत्तम को इस बाबत पत्र लिखकर सच्चाई बताई । इधर ज्योत्स्ना को  एकाएक चंद्रिका एक मानसिक चिकित्सालय में नज़र आई तो उसे सूझा कि वह इस तथ्य को नरोत्तम पर दबाव बनाने का ज़रिया बना सकती थी और उसे विवश कर सकती थी कि वह उसके निर्दोष पिता को जेल से रिहा करवाए । लेकिन जब वह इस सिलसिले में नरोत्तम से मिली थी तो इत्तफ़ाक़न उसका ड्राइविंग लाइसेन्स नरोत्तम के हाथ लग गया था और उसने ज्योत्स्ना को चोरी के झूठे इल्ज़ाम में गिरफ़्तार करवा दिया था । उपन्यास के नायक सुनील की मदद से वह पुलिस की हिरासत से छूटी थी क्योंकि कुछ समय तक ‘ब्लास्ट’ में नौकरी करने के कारण वह सुनील से पूर्व-परिचित थी । लेकिन ख़ास बात यह थी कि दीनानाथ चौहान के मृत्यु-पूर्व लिखे गए जिस पत्र की बिना पर ज्योत्स्ना अपने पिता के रिहा होने की आशा कर रही थीवह पहले ही नरोत्तम के घर से चोरी हो चुका था । एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी था कि नरोत्तम को अपनी पुत्री –कज का कुँवर युद्धवीर सिंह से मिलना-जुलना बिलकुल पसंद नहीं था और इस बाबत उसकी न केवल पंकज से ज़ोरदार बहस हुई थी बल्कि वह स्वयं भी पंकज और युद्धवीर के ताल्लुकात की छान-बीन कर रहा था ।  

जब सुनील को नरोत्तम की हत्या का पता चला तो उसने अपने पास मौजूद सारे तथ्यों कोजमा इस तथ्य को कि घर का कुत्ता – मोती अचानक घर से भाग निकला थाइकट्ठा करके मामले की जांच-पड़ताल शुरू कर दी । उसके मददगार बने उसका कनिष्ठ पत्रकार – अर्जुन और उसका अभिन्न मित्र – रमाकांत मल्होत्रा । रमाकांत सुनील का हमउम्र एक पंजाबी नौजवान है जो कि यूथ क्लब के नाम से एक नाइट-क्लब चलाता है लेकिन वह सुनील की विभिन्न प्रकार की जानकारियां जुटाने में हमेशा मदद करता है । एकदम ख़ुशमिजाज़ रमाकांत हालांकि थोड़ा लालची है लेकिन सुनील की मदद वह केवल दोस्ती के नाते करता है । इस मामले में पुलिस का जाँच-अधिकारी इंस्पेक्टर प्रभुदयाल है जिससे सुनील का ‘कभी प्यार तो कभी तकरार’ का बड़ा पुराना रिश्ता है । सुनील प्रभुदयाल की उसकी कार्यकुशलताकर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए बड़ी इज़्ज़त करता है और प्रभुदयाल भी मूलतः सुनील को पसंद ही करता है लेकिन उसकी पुलिस से हमेशा दो हाथ आगे चलने की कोशिश उन दोनों को बार-बार आमने-सामने लाकर खड़ा कर देती है ।  

सुनील की खोजबीन आगे बढ़ती है तो उसे एक ओर तो यह पता चलता है कि ज्योत्स्ना को दिखाई देने की रात को ही चंद्रिका उस मानसिक चिकित्सालय से भाग निकली थी और दूसरी ओर उसे यह बात बड़ी दिलचस्प लगती है कि हालांकि नरोत्तम के क़त्ल के लिए सभी संबन्धित लोग शक़ के दायरे में आते हैं मगर कोई भी मक़तूल की बेवा – नम्रता पर शक़ करने को तैयार नहीं है । नम्रता की छवि हर एक की दृष्टि में ऐसी पवित्र है कि उस पर शक़ करना भी पाप लगता है । चाहे घर के नौकर हों या मक़तूल का वकील या फिर कोई औरसभी नम्रता को एक पूरी तरह से निष्ठावान पत्नी मानते हैं जिसने बूढ़े और बीमार नरोत्तम के लिए अपनी जवानी होम कर दी । नरोत्तम की मौत के दो दिन बाद जब घर की युवा नौकरानी कृष्णा को नौकरी से निकाल दिया जाता है तो वह सुनील के पास आकर उसे यह बताती है कि नरोत्तम रात को सोने से पहले गरम दूध में ओवल्टीन मिलाकर पीता था और जिस रात उसकी मौत हुईउस ओवल्टीन के डिब्बे में किसी ने ज़हर मिला दिया था । यानी अगर नरोत्तम की मौत गोली से न होती तो ज़हर से तो उसका मरना वैसे भी तय ही था । वह इसका इल्ज़ाम नम्रता पर धरती है जिसने उसे अपने कंगन की चोरी के इल्ज़ाम में नौकरी से निकाला था । सुनील को घर की सबसे नई और कमउम्र नौकरानी – बॉबी बड़े चंचल स्वभाव की लगती है जिसका फ़ायदा उठाकर वह उससे दोस्ती गाँठता है ताकि उसके माध्यम से कुछ काम की जानकारी हाथ लग सके । इससे पहले कि नरोत्तम के हत्यारे का पता चलेदो क़त्ल और होते हैं । आख़िरकार हमारा नायक इस बेहद उलझे हुए मामले के सभी रहस्यों पर से परदा उठाने में कामयाब हो ही जाता है ।  

इस आलेख के पाठकगण कृपया यह न समझें कि मैंने उपन्यास का सारा कथानक यहाँ लिख दिया है तो उपन्यास पढ़ने की क्या ज़रूरत है । जैसे किसी अच्छी फ़िल्म का कथासार जान लेने के बाद भी उसका वास्तविक आनंद उसे देखकर ही लिया जा सकता हैउसी तरह से इस बेहतरीन उपन्यास का भी वास्तविक आनंद इसे पूरा पढ़कर ही आएगा । मैंने हत्याओं का रहस्य उजागर नहीं किया है और वह आपको इसे आद्योपांत पढ़कर ही पता चलेगा । 

इस उपन्यास का मूल्यांकन मैं दो दृष्टियों से करूंगा – पहले तो जिस तरह से एक मनोरंजक मसालेदार हिन्दी फ़िल्म में मूल कथानक में हास्यभावनाओं और स्त्री-पुरुष प्रेम को जोड़ा जाता है ताकि दर्शक को सम्पूर्ण मनोरंजन मिल सकेउसी तरह से सुरेन्द्र मोहन पाठक ने इस उपन्यास में मूल रहस्य-कथा के साथ-साथ हास्यमानवीय भावनाएं और प्रेम की भी भरपूर ख़ुराक पाठकों के लिए मुहैया की है । अपने प्रथम दृश्य से ही उपन्यास पाठक को अपने सम्मोहन में जकड़ लेता है और यह सम्मोहन उस पर अगले तीन सौ से भी अधिक पृष्ठों तक छाया रहता है । चाहे उपन्यास हो या फ़िल्मउसका प्रथम उद्देश्य तो मनोरंजन ही होता है और इस उद्देश्य को पूरा करने में ‘गोली और ज़हर’ पूरी तरह से सफल है । अगर कोई सक्षम निर्देशक इस कथानक पर निष्ठापूर्वक फ़िल्म बनाए तो निस्संदेह वह एक व्यावसायिक दृष्टि से अत्यंत सफल फ़िल्म होगी जिसे भारतीय दर्शक हाथोंहाथ लेंगे ।  

अब दूसरी बात । चूंकि ‘गोली और ज़हर’ ऐसे वक़्त में आया था जब सस्ते लुगदी कागज़ पर छापे जाने और साज-सज्जा के मामले में इनकी गुणवत्ता कम होने के कारण ऐसे उपन्यासों कोचाहे वे सामाजिक हों या जासूसीदोयम दरज़े का समझा जाता था । लेकिन केवल जासूसी कथानक या हलके स्तर के कागज़ और साज-सज्जा के आधार पर किसी कृति का मूल्यांकन करना उसके प्रति और उसके सृजन में लगे समय और श्रम के प्रति अन्याय ही है । अच्छा साहित्य वह है जो समाज का दर्पण होजो मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत होजिसके चरित्रों के साथ पाठक सामंजस्य स्थापित कर सके । सुरेन्द्र मोहन पाठक के अधिकतर उपन्यास इस कसौटी पर खरे उतरते हैं और ‘गोली और ज़हर’ उनमें से एक है । यह वह उपन्यास है जिसमें साहित्य के सभी नौ रस उपस्थित हैं । यह पाठक को हँसाता भी हैरुलाता भी है । दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं और ‘गोली और ज़हर’ में पात्रों की विविधता इस तथ्य को मजबूती से स्थापित करती है । मैं पात्रों के चरित्र-चित्रण के माध्यम से इस बात को बेहतर तरीके से कह पाऊंगा :

             १. नरोत्तम ठाकुर :

नरोत्तम ठाकुर एक ऐसा व्यक्ति है जिसके साथ उसके पालक पिता ने वसीयत करते समय अन्याय किया जिसे वह अपने मन में स्वीकार नहीं कर सका । इसलिए जब उसे अपनी बहन को मुर्दा साबित करके जायदाद कब्ज़ाने का अवसर मिला तो वह उसे छोड़ नहीं सका । जब ज्योत्स्ना ने चंद्रिका के जीवित होने की बात को उजागर करने की धमकी दी तो अनायास ही हाथ लग गए उसके ड्राइविंग लाइसेन्स के आधार पर उसे झूठे आरोप में हवालात में पहुँचा देने का प्रलोभन भी वह संवरण नहीं कर सका जबकि वास्तव में उसे ज्योत्स्ना से सहानुभूति थी और वह उसके निरपराध पिता को सचमुच ही जेल से बाहर निकालने के लिए उचित कदम उठाना चाहता था । इससे पता चलता है कि मनुष्य का व्यक्तित्व कितना जटिल है । लेखक ने नरोत्तम को कहीं पर भी एक बुरे व्यक्ति के रूप में चित्रित नहीं किया है । वह अपनी बिना माँ की बेटी पंकज को बहुत प्यार करता है और उसके भले-बुरे के लिए एक अच्छे पिता की तरह फ़िक्रमंद रहता है । उसका व्यवहार अपने घर के नौकरोंवकील आदि के लिए भी मानवीय है । वह ज्योत्स्ना के पिता के साथ हुए अन्याय का प्रायश्चित्त करना चाहता है लेकिन साथ ही वह अपने साझेदार भूषण कंसल को भी उसके ग़लत काम की सफ़ाई का एक मौका न्यायोचित रूप से देना चाहता है । उसे अपनी बेटी के युद्धवीर सिंह से अवैध संबंध होने की बात पता चलती है तो वह बिना सोचे-समझे यूँ ही उस पर विश्वास कर लेने को तैयार नहीं होता और एक समझदार और परिपक्व व्यक्ति की तरह सच्चाई जानने की कोशिश करता है । उसने अपने से बहुत छोटी नम्रता से विवाह ज़रूर किया मगर वासना के वशीभूत होकर नहीं । पर एक साधारण मानव की तरह वह भी अपने ऊपर कोई विपदा नहीं देखना चाहता और उसे टालने के लिए कोई ग़लत काम भी करना पड़े तो करना उसे स्वीकार है । वह भीतर से कायर भी है और जब सुनील उससे थाने में जवाबतलबी करता है तो वह घबराकर ज्योत्स्ना के विरुद्ध अपनी शिकायत वापस ले लेता है । और यही मनुष्य का असली रूप है । कोई पूरी तरह से काला नहीं होताकोई पूरी तरह से उजला नहीं होता । लगभग सभी का वास्तविक रंग सलेटी है । 

             २. नम्रता ठाकुर

कुछ साल पहले जब मैं न्यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड में नौकरी करता था तो मेरे बॉस – श्री अलगुवेल ने मुझे एक दिन मेरे हित में ही समझाते हुए कहा था – ‘माथुरइमेज इज़ वैरी इम्पॉर्टेन्ट । यू नो दैट यू आर गुड एंड डिज़र्व गुड थिंग्स बट फॉर द वर्ल्डयू डोंट मैटरयुअर इमेज मैटर्स । हैन्स टेक प्रॉपर केअर ऑफ युअर इमेज । इन द प्रैक्टिकल वर्ल्डइट इज़ ईवन मोर इम्पॉर्टेन्ट दैन व्हाट यू एक्चुअली डू ।’ और सच भी यही है दोस्तों । दुनिया के लिए छवि ज़्यादा मायने रखती है बजाय आपकी वास्तविकता के । इस बात को सुरेन्द्र मोहन पाठक ने नम्रता के किरदार के माध्यम से बहुत अच्छी तरह से स्थापित किया है । उसने अपनी छवि को दूसरों के सामने इतने उम्दा ढंग से विकसित किया है कि कोई भूले से भी संभावित क़ातिल के रूप में उसके नाम पर विचार करने को तैयार नहीं । हमारे मुल्क की तो रीत ही यही है कि जो पकड़ा गया वो चोर हैजो बच गया वो सयाना है । चूंकि इस आलेख को पढ़ने वाले बहुत से लोग कार्यालयों में या कारख़ानों में नौकरी करते होंगे और वो जानते भी होंगे कि बॉस के सामने इमेज बनाना काम करने से भी ज़्यादा महत्व रखता है । ‘गोली और ज़हर’ में नम्रता को जानने वाला हर शख़्स उसकी तारीफ़ के पुल बांधने के अलावा उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता । और यही वो तथ्य है जो सुनील को खटकता है । ऐसी छवि अपने आप नहीं बनतीसप्रयास गढ़ी जाती है । नम्रता की तरह जो इस बात को जानता हैवो व्यावहारिक दुनिया में अपने से कहीं ज़्यादा काबिल लोगों से ज़्यादा कामयाब रहता हैअपने हक़ से ज़्यादा वसूल करता है । 

             ३. पंकज ठाकुर

आजकल के ज़माने में औलाद के लिए अपने माता-पिता को ग़लत समझना आसान हैसही समझना मुश्किल । पंकज आधुनिकता की हवा में और कल्पना कंसल जैसियों की संगत में ऐसी बही कि उसने अपने पिता के अपने लिए सच्चे प्यार को नहीं पहचाना और उनकी मृत्यु तक उन्हें ग़लत ही समझती रही । अपने पिता की सच्ची भावनाओं का भान उसे तब हुआ जब उसे उनकी वसीयत के प्रावधान पता चले । और तब उसने पछतावे के आँसू भी बहाए । लेकिन उसके पिता ने उसकी माँ के निधन के बाद माँ और बाप दोनों का प्यार देकर उसे ऐसे संस्कार दिए हैं कि बुरी संगत में पड़कर भी वह अपनी सीमाओं को पार नहीं करती । उसे बीवी के पैसे पर ऐश करने वाला एक निखट्टू अपने पति के रूप में कबूल नहीं । उसमें इतना साहस है कि कल्पना कंसल और युद्धवीर सिंह के मुँह पर उन्हें खरी-खरी सुना सके । इसीलिए संस्कारों का महत्व है जो कि बच्चे को इतना आत्मबल देते हैं कि वह अगर ग़लत रास्ते पर चला भी जाए तो बीच में ही वापस भी लौट सके । 

             ४. कुँवर युद्धवीर सिंह

आपमें से बहुत से लोगों ने ऐसे अक्खड़ लोग देखे होंगे जो अपने आगे किसी और को कुछ नहीं समझते । दूसरा जो भी कहे उसकी कोई कीमत नहींख़ुद ने जो कह दिया वो पत्थर की लकीर समझा जाना चाहिए । अपनी हक़ीक़त खोखली होने के बावजूद दूसरों पर वक़्त-बेवक़्त रौब ग़ालिब करने वाले और दूसरों का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में लगे रहने वाले ऐसे परजीवी लोगों से बचकर ही रहा जाना चाहिए और अगर संपर्क में आने के बाद उनकी सच्चाई पता लगे तो उनसे तत्काल कन्नी काटी जानी चाहिए । युद्धवीर सिंह एक ऐसा ही किरदार है जिसका चित्रण यह साबित करता है कि अनुभवी लेखक ने ज़िंदगी को बेहद करीब से देखा है और विभिन्न प्रकार के लोगों को अच्छी तरह से पहचाना है । 

             ५. अंकुर सेठ 

अगर आप किसी को चाहते हैं और आपको अपने किसी रक़ीब का पता चलता है तो आपके मन में यही आएगा कि या तो आपका जानेमन उस रक़ीब की नकारात्मक सच्चाई को पहचान कर उससे दूर हो जाए और आपके करीब आ जाए या फिर वह रक़ीब इस फ़ानी दुनिया से ही रुख़सत हो जाए । लेकिन अगर आप बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे और सफ़ेदपोश आदमी हैं तो आप उसकी मौत की दुआ जितनी आसानी से कर सकते हैंउतनी आसानी से उसकी मौत का सामान नहीं कर सकते । अंकुर सेठ एक ऐसा ही किरदार है जो पंकज से मुहब्बत करता है और अपने रक़ीब के रूप में कुँवर युद्धवीर सिंह से नफ़रत करता है । लेकिन (मेरी तरह) एक चार्टर्ड एकाउंटेंट और संभ्रांत परिवार का होने के कारण वह युद्धवीर सिंह को कोस ही सकता है और कोशिश कर सकता है कि पंकज उसकी असलियत को पहचान कर उससे नाता तोड़ ले । उसमें ख़ुद युद्धवीर को रास्ते से हटा देने की हिम्मत नज़र नहीं आती । लेकिन ख़ूब पढ़ा-लिखादुनियादार और समझदार आदमी होने के नाते वह मामले की बारीकियों को समझकर उन पर तबसरा कर सकता है और क़त्ल की कई परिकल्पनाएं गढ़ सकता है । उसका और सुनील का विस्तृत वार्तालाप उसके व्यक्तित्व की इन विशेषताओं को भली-भाँति स्थापित करता है ।  

६. सुभाष

सुभाष नरोत्तम ठाकुर के वकील प्रदीप सक्सेना का ड्राइवर है और ऐसी तबीयत का युवक है जिसे अपना पेशा दोयम दरज़े का लगता है । उसे सूट-बूट डाटकर की जाने वाली नौकरी अगर आधी तनख़्वाह पर भी मिल जाए तो वह करने को तैयार है । फ़िल्मी तर्ज़ पर सपनों की दुनिया में खोए रहने वाले बहुत सारे युवकों की तरह वह भी ख़याली पुलाव पकाता है कि उसे एक ऑफ़िस में नौकरी मिल जाती है और वहाँ बॉस की सेक्रेट्री उस पर फ़िदा हो जाती है । ऐसे युवक मैंने अपनी ज़िंदगी में भी देखे हैं और जिन दिनों मैं कलकत्ता में चार्टर्ड एकाउंटेंसी का कोर्स कर रहा थाउन दिनों मैं ख़ुद भी ऐसा ही था । अपनी इसी अपरिपक्वता के चलते सुभाष कृष्णा के सच्चे प्यार को नहीं पहचान पाता और ज़्यादा चमक-दमक वाली बॉबी उसे अपनी ओर खींच लेती है । मगर एक सच्चे आशिक़ की तरह आख़िर वह अपनी भूल को पहचान कर कृष्णा के पास लौट जाता है ।  

७. बॉबी

सुरेन्द्र मोहन पाठक कहा करते हैं कि लड़की ख़ूबसूरत हो और अनजान होयह तो हो सकता है मगर वो अपनी ख़ूबसूरती से अनजान होयह नहीं हो सकता । बॉबी उन ढेरों आधुनिक लड़कियों में से है जो न केवल जानती हैं कि वे ख़ूबसूरत हैं बल्कि अपनी खूबसूरती का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करना भी बख़ूबी जानती हैं । बॉबी न केवल अपनी बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई ख़ूबसूरती के दम पर सुभाष को कृष्णा से अलग कर देती है बल्कि वह घर के अंदर और बाहर भी अपने आकर्षण और मीठी-मीठी बातों को कैश करते हुए कृष्णा के मुक़ाबले फ़ायदे में ही रहती है । नौकरानी होकर भी उसका दिमाग ऐसा तेज़ है कि वह ख़ुद तो अपनी ख़ूबसूरती और बातों से दूसरों को बेवकूफ़ बना सकती हैकोई उसे बेवकूफ़ नहीं बना सकता । उस घुटी हुई लड़की की इस ख़ासियत का पता सुनील को तब चलता है जब वह उसे महंगे रेस्तरां में ड्रिंक-डिनर करवा के उससे कंगन की चोरी का राज़ उगलवाने की कोशिश करता है और नाकाम होता है ।  

            ८. राममिलन

आपने बुज़ुर्गों के ज़माने के वफ़ादार नौकर तो देखे होंगे । ऐसे नौकर जो नमक का हक़ अदा करने के लिए मालिक के वास्ते अपनी जान तक निसार कर दें । अब चाहे ऐसे नौकर न होते होंसामंतवादी युग की यादगार ऐसे नौकर पहले निश्चय ही हुआ करते थे जिन्हें अपने से ज़्यादा अपने मालिक का ख़याल रहता था । राममिलन एक ऐसा ही नमकख़्वार नौकर है जिसकी नरोत्तम ठाकुर के लिए स्वामिभक्ति केवल उसके कार्यकलापों में ही नहींबल्कि उसकी बातचीत में भी झलकती है । इस बात की उसके चेहरे पर ऐसी स्पष्ट छाप है कि सुनील उसके मुँह से एक शब्द भी सुने बग़ैर उससे प्रभावित हो जाता है ।  

            ९. प्रदीप सक्सेना

प्रदीप सक्सेना नरोत्तम ठाकुर का वकील है और नरोत्तम की मृत्यु के बाद न केवल वह उसकी बदली जाने वाली वसीयत के प्रावधानों की बाबत पुलिस से सहयोग नहीं करता बल्कि नम्रता की लल्लो-चप्पो करता है और उसे यह जताने की कोशिश करता है कि वह उसकी तरफ़ है । कोई जवान औरत अगर विधवा हो जाए और तुर्रा यह कि वह एक अमीर आदमी की विधवा हो तो तथाकथित समझदार लोगों का नज़रिया क्या हो जाता हैयह प्रदीप सक्सेना के व्यक्तित्व से भाँपा जा सकता है । पहले वह सुनील के सामने ग़लती से कह बैठता है कि नरोत्तम ठाकुर की मौत के तुरंत बाद श्याम भैया के दुबई से आ जाने के पीछे शायद नम्रता का ही हाथ है मगर बाद में दोबारा बातचीत के दौरान वह इससे मुकर जाता है । ईमानदार और कर्तव्यपरायण पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर प्रभुदयाल को वह अंततः सहयोग देता भी है तो हेकड़ी जमाकर । ऐसे वकीलों की कोई कमी नहीं है हिंदुस्तान में । यहाँ फिर वही बात आती है कि वास्तविक जीवन के चरित्र पूर्णतः काले या उजले नहीं होतेसलेटी होते हैं ।  

            १०. इंस्पेक्टर प्रभुदयाल

इंस्पेक्टर प्रभुदयाल सुनील सीरीज़ के उपन्यासों का स्थाई पात्र है लेकिन इस उपन्यास के संदर्भ में मैं उसका ज़िक्र विशेष रूप से इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उसकी और सुनील की मुलाक़ातें ज़िंदगी के व्यावहारिक स्वरूप को प्रस्तुत करती हैं । उपन्यास के पहले ही दृश्य में वह सुनील की चाय-कॉफ़ी आदि से ख़ातिर करने से साफ़ मना कर देता है और उसे दो टूक कहता है कि थाना न तो उसका घर है और न ही सुनील उसका मेहमान है । लेकिन बाद में जब ‘ब्लास्ट’ में छपी ख़बर पढ़कर उसे सुनील से कुछ बातें उगलवानी होती हैं तो वह उसे कॉफ़ी पिलाता है क्योंकि उस वक़्त व्यावहारिकता का तक़ाज़ा यही होता है । प्रभुदयाल एक कर्तव्यनिष्ठ और योग्य पुलिस अधिकारी है और सत्य यही है कि ऐसे पुलिस अधिकारी भारत में चाहे बहुत कम ही क्यों न रह गए होंउनकी नस्ल अभी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हो गई है । अपने फ़र्ज़ को अंजाम देने के लिए वह साम-दाम-दंड-भेद सभी तरह के तरीके अपनाने को तैयार रहता है । लेकिन किसी बेगुनाह को सताना या अपनी वर्दी की ताक़त का बेजा इस्तेमाल करना उसे गवारा नहीं । जब वकील प्रदीप सक्सेना से वह नरोत्तम ठाकुर की वसीयत की बाबत वांछित जानकारी नहीं निकलवा पाता तो उसकी लाचारी ज़ाहिर हो जाती है और हम जान जाते हैं कि हिंदुस्तान के मौजूदा निज़ाम में एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी के हाथ कितने तरीकों से बंधे होते हैं ।  

गोली और ज़हर’ में किरदार इतने ज़्यादा हैं कि सभी के बारे में ठीक तरह से बताने से यह आलेख ज़रूरत से ज़्यादा विस्तृत होकर अपने आप में ही एक लघु उपन्यास की सूरत अख़्तियार कर लेगा । यह उपन्यास एक बड़ा कैनवास है जिस पर अनुभवी लेखक ने एक कुशल चित्रकार की तरह जीवन के सारे रंगों को सही मिक़दार में सही तरतीब से उकेरा है और जो चित्र बना हैवह बेहद ख़ूबसूरत है । माँ-बाप का गोद लिए बच्चे और अपने ख़ून में फर्क करनाईर्ष्यालालचडरभावनाएंस्वामिभक्तिप्रेमवासनाफ़रेबपारिवारिक संबंध और हास्यक्या नहीं है इसमें ?  यह रहस्य-कथा किसी साहित्यिक कृति से किसी भी तरह कम नहीं है । पढ़कर देखिए और उसके बाद फ़ैसला कीजिए कि मैंने सही कहा या ग़लत ।  

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