१९६३ में हिन्दी उपन्यास जगत के आकाश पर
एक नया सितारा उभरा । इस तेईस वर्षीय युवा लेखक का नाम था सुरेन्द्र मोहन पाठक
जिसका पहला उपन्यास – ‘पुराने गुनाह नए गुनाहगार’ हिन्दी के पाठक समुदाय के सामने आया । चूंकि इस लेखक ने जासूसी उपन्यास
लेखन की विधा को अपनाया, इसलिए उसने उस समय की परंपरा
को निभाते हुए अपना एक सीरियल नायक सृजित किया जो कि लेखक द्वारा रचित रहस्य-कथाओं
के रहस्यों को सुलझाता था । उन दिनों ऐसे जासूस नायक या तो पुलिस इंस्पेक्टर दिखाए
जाते थे या कोई सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी जो कि सेवानिवृत्ति के बाद अपनी निजी
जासूसी संस्था खोलकर बैठे हों । सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपना एक नया मुकाम बनाने
की कोशिश में अपने जासूस नायक को एक खोजी पत्रकार के रूप में चित्रित किया जो कि
एक दैनिक समाचार-पत्र में नौकरी करता है और अपने समाचार-पत्र के लिए सनसनीखेज़
ख़बरें जुटाने के लिए विभिन्न अपराधों की अपने स्तर पर जांच-पड़ताल करता है । लेखक
ने इस नायक को एक बंगाली युवक दिखाया और घटनाओं के स्थल के रूप में राजनगर नाम के
एक काल्पनिक महानगर को उसकी पूरी भौगोलिक स्थिति के साथ चित्रित किया । सुनील
कुमार चक्रवर्ती नाम का यह खोजी पत्रकार आज हिन्दी के जासूसी उपन्यास जगत का बेहद
लोकप्रिय नायक है जिसका पहला कारनामा – ‘पुराने
गुनाह नए गुनाहगार’ १९६३ में छपा जबकि एक सौ बाईसवां
नवीनतम कारनामा – ‘कॉनमैन’ २०१८
में प्रकाशित हुआ । पिछली आधी सदी से लगातार सक्रिय यह चिरयुवा नायक राजनगर से
निकलने वाले राष्ट्रीय स्तर के दैनिक समाचार-पत्र – ‘ब्लास्ट’ के लिए काम करता है । इसकी खोजी
गतिविधियां आम-तौर पर राजनगर और उसके निकट के काल्पनिक शहरों – विशालगढ़, विश्वनगर, तारकपुर, ख़ैरगढ़, इक़बालपुर आदि एवं साथ ही निकटस्थ
पर्यटन-स्थलों – झेरी, सुंदरबन, पंचधारा आदि में चलती हैं यद्यपि कुछ उपन्यास लेखक ने ऐसे भी लिखे हैं
जिनमें सुनील को एक पत्रकार से इतर एक वास्तविक जासूस भी बताया गया है जो कि छुपे
रूप में स्पेशल इंटेलीजेंस नाम के खुफ़िया सरकारी विभाग के लिए काम करता है जिसके
प्रमुख कर्नल मुखर्जी नाम के उच्चाधिकारी हैं । ऐसे उपन्यासों में सुनील को
विदेशों में भी भारतीय हितों के लिए जासूसी के काम करते हुए दिखाया गया है लेकिन
सुरेन्द्र मोहन पाठक ने कुछ वर्षों बाद ऐसे उपन्यास लिखने बंद कर दिए और सुनील को
स्थाई रूप से एक पत्रकार की भूमिका तक ही सीमित कर दिया ।
१९६३ में हिन्दी जासूसी साहित्य जगत में
अवतरित इस नायक का सौवां कारनामा तीस वर्ष बाद १९९३ में आया जिसका शीर्षक है – ‘गोली और ज़हर’ । चूंकि यह इस असाधारण नायक का
सौवां उपन्यास था, इसलिए लेखक ने उपन्यास का फ़लक बहुत
विस्तृत रखते हुए एक वृहत् कथानक रचा । आम तौर पर सुनील के उपन्यासों की कहानियाँ
सुनील के साथ-साथ ही चलती हैं यानी कि पाठक वही जानता है जो कि सुनील जानता है और
उपन्यास में ऐसे दृश्य नहीं होते जिनमें सुनील न हो; लेकिन
एक विशिष्ट आयोजन के रूप में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक को अपनी इस लीक से हटकर
कई ऐसे दृश्य भी डालने पड़े जिनमें सुनील अनुपस्थित था । बहरहाल यह रहस्य-कथा बेहद
दिलचस्प है जिसका आधार एक ऐसी हत्या है जो कि वस्तुतः गोली से हुई मगर जो ज़हर से
भी होनी संभावित थी । किसी ने मक़तूल को ज़हर देकर मारने का इंतज़ाम किया मगर उसकी
नौबत आने से पहले ही किसी और ने गोली मारकर उसी बात को अंजाम दे दिया । यही कारण
है कि इस उपन्यास का नामकरण ‘गोली और ज़हर’ किया गया ।
मक़तूल का नाम नरोत्तम ठाकुर था जो कि ऐसी
दौलत पर क़ाबिज़ था जिसकी वास्तविक मालकिन उसकी बहन – चंद्रिका
ठाकुर थी । नरोत्तम ठाकुर प्रह्लाद राय ठाकुर नाम के एक अमीर आदमी का गोद लिया हुआ
बेटा था जिनकी पत्नी – लज्जारानी ठाकुर के विवाह
के सोलह बरस बाद तक कोई संतान नहीं हो सकी । पर कुदरत का करिश्मा यह हुआ कि
नरोत्तम को गोद लेते ही लज्जारानी ठाकुर गर्भवती हो गईं और उन्होंने चंद्रिका को
जन्म दिया । जब वसीयत करने का सवाल आया तो प्रह्लाद राय ठाकुर गोद ली हुई औलाद को
अपने ख़ून के बराबर का दर्ज़ा नहीं दे सके । उन्होंने चंद्रिका के नाम सारी संपत्ति
लिख दी और नरोत्तम को महज़ गुज़ारे-भत्ते का हक़दार माना । माता-पिता के देहावसान के
बाद जहाँ नरोत्तम व्यापार को संभालने लगा, वहीं
चंद्रिका ऐशपरस्ती पर उतर आई और देश-विदेश घूमने लगी । एक बार वह सिंगापुर गई तो
लौटी ही नहीं और नरोत्तम ने यह ज़ाहिर किया कि वह मर चुकी है और सारी जायदाद पर
कब्ज़ा जमाकर ठाठ से रहने लगा । उसकी पहली पत्नी एक पुत्री – पंकज को जन्म देकर चल बसी और अपनी जन्मदात्री माता – चंद्रावती के निधन के बाद नरोत्तम ने अपनी पक्की उम्र में जबकि पंकज भी
जवान हो चुकी थी, अपनी लंबी बीमारी के दौरान अपनी सेवा
करने वाली युवा नर्स – नम्रता से विवाह कर लिया ।
उसकी हत्या के वक़्त उस घर के बाशिंदों में नम्रता और पंकज के अलावा चार नौकर और
मोती नाम का एक बेहद ख़तरनाक कुत्ता शामिल थे । नौकरों में एक राममिलन नाम का बेहद
स्वामीभक्त बूढ़ा नौकर जो कि मुख्यतः नरोत्तम की ही सेवा करता था, पुष्पा नाम की उम्रदराज हाउसकीपर और दो युवा नौकरानियां – कृष्णा और बॉबी थीं । घर से निकट से जुड़े लोगों में प्रदीप सक्सेना नाम का
वकील, उसका ड्राइवर – सुभाष
जो कि कृष्णा और बॉबी दोनों का ही प्रेमी रह चुका था, नम्रता
का एक पुराना परिचित – श्याम भैया जो कि नरोत्तम
की मौत की ख़बर पाते ही तुरंत दुबई से चला आया, पंकज के
दो पुरुष-मित्र जो कि उससे विवाह करने के इच्छुक थे – कुँवर युद्धवीर सिंह और अंकुर सेठ, अंकुर सेठ
के माता-पिता – दरबारी सेठ और दीपा सेठ, नरोत्तम का साझेदार – भूषण कंसल और उसकी
युवा उच्छृंखल पत्नी – कल्पना थे । ज़ाहिर है कि
ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जिन पे क़त्ल का शुबहा किया जा सके ।
लेकिन क़त्ल के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार किया
गया ज्योत्स्ना जोशी नाम की एक युवती को जिसके पिता – विश्वनाथ
जोशी नरोत्तम की फ़र्म में हैड-कैशियर की नौकरी करते थे और जिन्हें फ़र्म से पच्चीस
लाख रुपये के गबन के आरोप में जेल की सज़ा काटनी पड़ रही थी । क़त्ल के कुछ समय पहले
ही ज्योत्स्ना को पता चला था कि नरोत्तम ने वह पच्चीस लाख रुपया अपने पल्ले से
फ़र्म में जमा कराया था जबकि नरोत्तम को यह पता
चला था कि वह गबन वास्तव में फ़र्म के दूसरे साझेदार भूषण कंसल ने किया था । इस
बाबत नरोत्तम को दीनानाथ चौहान नाम के फ़र्म के उस साझेदार का एक पत्र मिला था जो
कि पहले फ़र्म में महज़ एक कैशियर था मगर इस घटना के बाद आनन-फ़ानन में फ़र्म का
साझेदार बन बैठा था । उसने अपनी मृत्यु से पूर्व नरोत्तम को इस बाबत पत्र लिखकर
सच्चाई बताई । इधर ज्योत्स्ना को एकाएक चंद्रिका
एक मानसिक चिकित्सालय में नज़र आई तो उसे सूझा कि वह इस तथ्य को नरोत्तम पर दबाव
बनाने का ज़रिया बना सकती थी और उसे विवश कर सकती थी कि वह उसके निर्दोष पिता को
जेल से रिहा करवाए । लेकिन जब वह इस सिलसिले में नरोत्तम से मिली थी तो इत्तफ़ाक़न
उसका ड्राइविंग लाइसेन्स नरोत्तम के हाथ लग गया था और उसने ज्योत्स्ना को चोरी के
झूठे इल्ज़ाम में गिरफ़्तार करवा दिया था । उपन्यास के नायक सुनील की मदद से वह
पुलिस की हिरासत से छूटी थी क्योंकि कुछ समय तक ‘ब्लास्ट’ में नौकरी करने के कारण वह सुनील से पूर्व-परिचित थी । लेकिन ख़ास बात यह
थी कि दीनानाथ चौहान के मृत्यु-पूर्व लिखे गए जिस पत्र की बिना पर ज्योत्स्ना अपने
पिता के रिहा होने की आशा कर रही थी, वह पहले ही
नरोत्तम के घर से चोरी हो चुका था । एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी था कि नरोत्तम
को अपनी पुत्री –कज का कुँवर युद्धवीर सिंह से
मिलना-जुलना बिलकुल पसंद नहीं था और इस बाबत उसकी न केवल पंकज से ज़ोरदार बहस हुई
थी बल्कि वह स्वयं भी पंकज और युद्धवीर के ताल्लुकात की छान-बीन कर रहा था ।
जब सुनील को नरोत्तम की हत्या का पता चला
तो उसने अपने पास मौजूद सारे तथ्यों को, जमा इस तथ्य को कि
घर का कुत्ता – मोती अचानक घर से भाग निकला था, इकट्ठा करके मामले की जांच-पड़ताल शुरू कर दी । उसके मददगार बने उसका
कनिष्ठ पत्रकार – अर्जुन और उसका अभिन्न मित्र – रमाकांत मल्होत्रा । रमाकांत सुनील का हमउम्र एक पंजाबी नौजवान है जो कि
यूथ क्लब के नाम से एक नाइट-क्लब चलाता है लेकिन वह सुनील की विभिन्न प्रकार की
जानकारियां जुटाने में हमेशा मदद करता है । एकदम ख़ुशमिजाज़ रमाकांत हालांकि थोड़ा
लालची है लेकिन सुनील की मदद वह केवल दोस्ती के नाते करता है । इस मामले में पुलिस
का जाँच-अधिकारी इंस्पेक्टर प्रभुदयाल है जिससे सुनील का ‘कभी प्यार तो कभी तकरार’ का बड़ा पुराना रिश्ता
है । सुनील प्रभुदयाल की उसकी कार्यकुशलता, कर्तव्यनिष्ठा
और ईमानदारी के लिए बड़ी इज़्ज़त करता है और प्रभुदयाल भी मूलतः सुनील को पसंद ही
करता है लेकिन उसकी पुलिस से हमेशा दो हाथ आगे चलने की कोशिश उन दोनों को बार-बार
आमने-सामने लाकर खड़ा कर देती है ।
सुनील की खोजबीन आगे बढ़ती है तो उसे एक
ओर तो यह पता चलता है कि ज्योत्स्ना को दिखाई देने की रात को ही चंद्रिका उस
मानसिक चिकित्सालय से भाग निकली थी और दूसरी ओर उसे यह बात बड़ी दिलचस्प लगती है कि
हालांकि नरोत्तम के क़त्ल के लिए सभी संबन्धित लोग शक़ के दायरे में आते हैं मगर कोई
भी मक़तूल की बेवा – नम्रता पर शक़ करने को तैयार नहीं है । नम्रता
की छवि हर एक की दृष्टि में ऐसी पवित्र है कि उस पर शक़ करना भी पाप लगता है । चाहे
घर के नौकर हों या मक़तूल का वकील या फिर कोई और, सभी
नम्रता को एक पूरी तरह से निष्ठावान पत्नी मानते हैं जिसने बूढ़े और बीमार नरोत्तम
के लिए अपनी जवानी होम कर दी । नरोत्तम की मौत के दो दिन बाद जब घर की युवा
नौकरानी कृष्णा को नौकरी से निकाल दिया जाता है तो वह सुनील के पास आकर उसे यह
बताती है कि नरोत्तम रात को सोने से पहले गरम दूध में ओवल्टीन मिलाकर पीता था और
जिस रात उसकी मौत हुई, उस ओवल्टीन के डिब्बे में किसी
ने ज़हर मिला दिया था । यानी अगर नरोत्तम की मौत गोली से न होती तो ज़हर से तो उसका
मरना वैसे भी तय ही था । वह इसका इल्ज़ाम नम्रता पर धरती है जिसने उसे अपने कंगन की
चोरी के इल्ज़ाम में नौकरी से निकाला था । सुनील को घर की सबसे नई और कमउम्र
नौकरानी – बॉबी बड़े चंचल स्वभाव की लगती है जिसका
फ़ायदा उठाकर वह उससे दोस्ती गाँठता है ताकि उसके माध्यम से कुछ काम की जानकारी हाथ
लग सके । इससे पहले कि नरोत्तम के हत्यारे का पता चले, दो
क़त्ल और होते हैं । आख़िरकार हमारा नायक इस बेहद उलझे हुए मामले के सभी रहस्यों पर
से परदा उठाने में कामयाब हो ही जाता है ।
इस आलेख के पाठकगण कृपया यह न समझें कि मैंने उपन्यास का सारा कथानक यहाँ लिख दिया है तो उपन्यास पढ़ने की क्या ज़रूरत है । जैसे किसी अच्छी फ़िल्म का कथासार जान लेने के बाद भी उसका वास्तविक आनंद उसे देखकर ही लिया जा सकता है, उसी तरह से इस बेहतरीन उपन्यास का भी वास्तविक आनंद इसे पूरा पढ़कर ही आएगा । मैंने हत्याओं का रहस्य उजागर नहीं किया है और वह आपको इसे आद्योपांत पढ़कर ही पता चलेगा ।
इस उपन्यास का मूल्यांकन मैं दो
दृष्टियों से करूंगा – पहले तो जिस तरह से एक मनोरंजक मसालेदार हिन्दी
फ़िल्म में मूल कथानक में हास्य, भावनाओं और
स्त्री-पुरुष प्रेम को जोड़ा जाता है ताकि दर्शक को सम्पूर्ण मनोरंजन मिल सके, उसी तरह से सुरेन्द्र मोहन पाठक ने इस उपन्यास में मूल रहस्य-कथा के
साथ-साथ हास्य, मानवीय भावनाएं और प्रेम की भी भरपूर
ख़ुराक पाठकों के लिए मुहैया की है । अपने प्रथम दृश्य से ही उपन्यास पाठक को अपने
सम्मोहन में जकड़ लेता है और यह सम्मोहन उस पर अगले तीन सौ से भी अधिक पृष्ठों तक
छाया रहता है । चाहे उपन्यास हो या फ़िल्म, उसका प्रथम
उद्देश्य तो मनोरंजन ही होता है और इस उद्देश्य को पूरा करने में ‘गोली और ज़हर’ पूरी तरह से सफल है । अगर कोई
सक्षम निर्देशक इस कथानक पर निष्ठापूर्वक फ़िल्म बनाए तो निस्संदेह वह एक
व्यावसायिक दृष्टि से अत्यंत सफल फ़िल्म होगी जिसे भारतीय दर्शक हाथोंहाथ लेंगे ।
अब दूसरी बात । चूंकि ‘गोली
और ज़हर’ ऐसे वक़्त में आया था जब सस्ते लुगदी कागज़ पर छापे
जाने और साज-सज्जा के मामले में इनकी गुणवत्ता कम होने के कारण ऐसे उपन्यासों को, चाहे वे सामाजिक हों या जासूसी, दोयम दरज़े का
समझा जाता था । लेकिन केवल जासूसी कथानक या हलके स्तर के कागज़ और साज-सज्जा के
आधार पर किसी कृति का मूल्यांकन करना उसके प्रति और उसके सृजन में लगे समय और श्रम
के प्रति अन्याय ही है । अच्छा साहित्य वह है जो समाज का दर्पण हो, जो मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत हो, जिसके
चरित्रों के साथ पाठक सामंजस्य स्थापित कर सके । सुरेन्द्र मोहन पाठक के अधिकतर
उपन्यास इस कसौटी पर खरे उतरते हैं और ‘गोली और ज़हर’ उनमें से एक है । यह वह उपन्यास है जिसमें साहित्य के सभी नौ रस उपस्थित
हैं । यह पाठक को हँसाता भी है, रुलाता भी है । दुनिया
में हर तरह के लोग होते हैं और ‘गोली और ज़हर’ में पात्रों की विविधता इस तथ्य को मजबूती से स्थापित करती है । मैं
पात्रों के चरित्र-चित्रण के माध्यम से इस बात को बेहतर तरीके से कह पाऊंगा :
१. नरोत्तम ठाकुर :
नरोत्तम ठाकुर एक ऐसा व्यक्ति है जिसके
साथ उसके पालक पिता ने वसीयत करते समय अन्याय किया जिसे वह अपने मन में स्वीकार
नहीं कर सका । इसलिए जब उसे अपनी बहन को मुर्दा साबित करके जायदाद कब्ज़ाने का अवसर
मिला तो वह उसे छोड़ नहीं सका । जब ज्योत्स्ना ने चंद्रिका के जीवित होने की बात को
उजागर करने की धमकी दी तो अनायास ही हाथ लग गए उसके ड्राइविंग लाइसेन्स के आधार पर
उसे झूठे आरोप में हवालात में पहुँचा देने का प्रलोभन भी वह संवरण नहीं कर सका
जबकि वास्तव में उसे ज्योत्स्ना से सहानुभूति थी और वह उसके निरपराध पिता को सचमुच
ही जेल से बाहर निकालने के लिए उचित कदम उठाना चाहता था । इससे पता चलता है कि
मनुष्य का व्यक्तित्व कितना जटिल है । लेखक ने नरोत्तम को कहीं पर भी एक बुरे
व्यक्ति के रूप में चित्रित नहीं किया है । वह अपनी बिना माँ की बेटी पंकज को बहुत
प्यार करता है और उसके भले-बुरे के लिए एक अच्छे पिता की तरह फ़िक्रमंद रहता है ।
उसका व्यवहार अपने घर के नौकरों, वकील आदि के लिए भी मानवीय है ।
वह ज्योत्स्ना के पिता के साथ हुए अन्याय का प्रायश्चित्त करना चाहता है लेकिन साथ
ही वह अपने साझेदार भूषण कंसल को भी उसके ग़लत काम की सफ़ाई का एक मौका न्यायोचित
रूप से देना चाहता है । उसे अपनी बेटी के युद्धवीर सिंह से अवैध संबंध होने की बात
पता चलती है तो वह बिना सोचे-समझे यूँ ही उस पर विश्वास कर लेने को तैयार नहीं
होता और एक समझदार और परिपक्व व्यक्ति की तरह सच्चाई जानने की कोशिश करता है ।
उसने अपने से बहुत छोटी नम्रता से विवाह ज़रूर किया मगर वासना के वशीभूत होकर नहीं
। पर एक साधारण मानव की तरह वह भी अपने ऊपर कोई विपदा नहीं देखना चाहता और उसे
टालने के लिए कोई ग़लत काम भी करना पड़े तो करना उसे स्वीकार है । वह भीतर से कायर
भी है और जब सुनील उससे थाने में जवाबतलबी करता है तो वह घबराकर ज्योत्स्ना के
विरुद्ध अपनी शिकायत वापस ले लेता है । और यही मनुष्य का असली रूप है । कोई पूरी
तरह से काला नहीं होता, कोई पूरी तरह से उजला नहीं होता
। लगभग सभी का वास्तविक रंग सलेटी है ।
२. नम्रता ठाकुर
कुछ साल पहले जब मैं न्यूक्लियर पॉवर
कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड में नौकरी करता था तो मेरे बॉस – श्री अलगुवेल ने मुझे एक दिन मेरे हित में ही समझाते हुए कहा था – ‘माथुर, इमेज इज़ वैरी इम्पॉर्टेन्ट । यू नो दैट
यू आर गुड एंड डिज़र्व गुड थिंग्स बट फॉर द वर्ल्ड, यू
डोंट मैटर, युअर इमेज मैटर्स । हैन्स टेक प्रॉपर केअर
ऑफ युअर इमेज । इन द प्रैक्टिकल वर्ल्ड, इट इज़ ईवन मोर
इम्पॉर्टेन्ट दैन व्हाट यू एक्चुअली डू ।’ और सच भी यही
है दोस्तों । दुनिया के लिए छवि ज़्यादा मायने रखती है बजाय आपकी वास्तविकता के ।
इस बात को सुरेन्द्र मोहन पाठक ने नम्रता के किरदार के माध्यम से बहुत अच्छी तरह
से स्थापित किया है । उसने अपनी छवि को दूसरों के सामने इतने उम्दा ढंग से विकसित
किया है कि कोई भूले से भी संभावित क़ातिल के रूप में उसके नाम पर विचार करने को
तैयार नहीं । हमारे मुल्क की तो रीत ही यही है कि जो पकड़ा गया वो चोर है, जो बच गया वो सयाना है । चूंकि इस आलेख को पढ़ने वाले बहुत से लोग
कार्यालयों में या कारख़ानों में नौकरी करते होंगे और वो जानते भी होंगे कि बॉस के
सामने इमेज बनाना काम करने से भी ज़्यादा महत्व रखता है । ‘गोली और ज़हर’ में नम्रता को जानने वाला हर शख़्स
उसकी तारीफ़ के पुल बांधने के अलावा उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता । और
यही वो तथ्य है जो सुनील को खटकता है । ऐसी छवि अपने आप नहीं बनती, सप्रयास गढ़ी जाती है । नम्रता की तरह जो इस बात को जानता है, वो व्यावहारिक दुनिया में अपने से कहीं ज़्यादा काबिल लोगों से ज़्यादा
कामयाब रहता है, अपने हक़ से ज़्यादा वसूल करता है ।
३. पंकज ठाकुर
आजकल के ज़माने में औलाद के लिए अपने
माता-पिता को ग़लत समझना आसान है, सही समझना मुश्किल । पंकज
आधुनिकता की हवा में और कल्पना कंसल जैसियों की संगत में ऐसी बही कि उसने अपने
पिता के अपने लिए सच्चे प्यार को नहीं पहचाना और उनकी मृत्यु तक उन्हें ग़लत ही
समझती रही । अपने पिता की सच्ची भावनाओं का भान उसे तब हुआ जब उसे उनकी वसीयत के
प्रावधान पता चले । और तब उसने पछतावे के आँसू भी बहाए । लेकिन उसके पिता ने उसकी
माँ के निधन के बाद माँ और बाप दोनों का प्यार देकर उसे ऐसे संस्कार दिए हैं कि
बुरी संगत में पड़कर भी वह अपनी सीमाओं को पार नहीं करती । उसे बीवी के पैसे पर ऐश
करने वाला एक निखट्टू अपने पति के रूप में कबूल नहीं । उसमें इतना साहस है कि
कल्पना कंसल और युद्धवीर सिंह के मुँह पर उन्हें खरी-खरी सुना सके । इसीलिए
संस्कारों का महत्व है जो कि बच्चे को इतना आत्मबल देते हैं कि वह अगर ग़लत रास्ते
पर चला भी जाए तो बीच में ही वापस भी लौट सके ।
४. कुँवर युद्धवीर सिंह
आपमें से बहुत से लोगों ने ऐसे अक्खड़ लोग
देखे होंगे जो अपने आगे किसी और को कुछ नहीं समझते । दूसरा जो भी कहे उसकी कोई
कीमत नहीं, ख़ुद ने जो कह दिया वो पत्थर की लकीर समझा जाना चाहिए
। अपनी हक़ीक़त खोखली होने के बावजूद दूसरों पर वक़्त-बेवक़्त रौब ग़ालिब करने वाले और
दूसरों का फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में लगे रहने वाले ऐसे परजीवी लोगों से बचकर ही
रहा जाना चाहिए और अगर संपर्क में आने के बाद उनकी सच्चाई पता लगे तो उनसे तत्काल
कन्नी काटी जानी चाहिए । युद्धवीर सिंह एक ऐसा ही किरदार है जिसका चित्रण यह साबित
करता है कि अनुभवी लेखक ने ज़िंदगी को बेहद करीब से देखा है और विभिन्न प्रकार के
लोगों को अच्छी तरह से पहचाना है ।
५. अंकुर सेठ
अगर आप किसी को चाहते हैं और आपको अपने
किसी रक़ीब का पता चलता है तो आपके मन में यही आएगा कि या तो आपका जानेमन उस रक़ीब
की नकारात्मक सच्चाई को पहचान कर उससे दूर हो जाए और आपके करीब आ जाए या फिर वह रक़ीब
इस फ़ानी दुनिया से ही रुख़सत हो जाए । लेकिन अगर आप बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे और
सफ़ेदपोश आदमी हैं तो आप उसकी मौत की दुआ जितनी आसानी से कर सकते हैं, उतनी
आसानी से उसकी मौत का सामान नहीं कर सकते । अंकुर सेठ एक ऐसा ही किरदार है जो पंकज
से मुहब्बत करता है और अपने रक़ीब के रूप में कुँवर युद्धवीर सिंह से नफ़रत करता है
। लेकिन (मेरी तरह) एक चार्टर्ड एकाउंटेंट और संभ्रांत
परिवार का होने के कारण वह युद्धवीर सिंह को कोस ही सकता है और कोशिश कर सकता है
कि पंकज उसकी असलियत को पहचान कर उससे नाता तोड़ ले । उसमें ख़ुद युद्धवीर को रास्ते
से हटा देने की हिम्मत नज़र नहीं आती । लेकिन ख़ूब पढ़ा-लिखा, दुनियादार और समझदार आदमी होने के नाते वह मामले की बारीकियों को समझकर उन
पर तबसरा कर सकता है और क़त्ल की कई परिकल्पनाएं गढ़ सकता है । उसका और सुनील का
विस्तृत वार्तालाप उसके व्यक्तित्व की इन विशेषताओं को भली-भाँति स्थापित करता है
।
६. सुभाष
सुभाष नरोत्तम ठाकुर के वकील प्रदीप
सक्सेना का ड्राइवर है और ऐसी तबीयत का युवक है जिसे अपना पेशा दोयम दरज़े का लगता
है । उसे सूट-बूट डाटकर की जाने वाली नौकरी अगर आधी तनख़्वाह पर भी मिल जाए तो वह
करने को तैयार है । फ़िल्मी तर्ज़ पर सपनों की दुनिया में खोए रहने वाले बहुत सारे
युवकों की तरह वह भी ख़याली पुलाव पकाता है कि उसे एक ऑफ़िस में नौकरी मिल जाती है
और वहाँ बॉस की सेक्रेट्री उस पर फ़िदा हो जाती है । ऐसे युवक मैंने अपनी ज़िंदगी
में भी देखे हैं और जिन दिनों मैं कलकत्ता में चार्टर्ड एकाउंटेंसी का कोर्स कर
रहा था, उन दिनों मैं ख़ुद भी ऐसा ही था । अपनी इसी अपरिपक्वता
के चलते सुभाष कृष्णा के सच्चे प्यार को नहीं पहचान पाता और ज़्यादा चमक-दमक वाली
बॉबी उसे अपनी ओर खींच लेती है । मगर एक सच्चे आशिक़ की तरह आख़िर वह अपनी भूल को
पहचान कर कृष्णा के पास लौट जाता है ।
७. बॉबी
सुरेन्द्र मोहन पाठक कहा करते हैं कि
लड़की ख़ूबसूरत हो और अनजान हो, यह तो हो
सकता है मगर वो अपनी ख़ूबसूरती से अनजान हो, यह नहीं हो
सकता । बॉबी उन ढेरों आधुनिक लड़कियों में से है जो न केवल जानती हैं कि वे
ख़ूबसूरत हैं बल्कि अपनी खूबसूरती का अपने फ़ायदे के लिए
इस्तेमाल करना भी बख़ूबी जानती हैं । बॉबी न केवल अपनी बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई
ख़ूबसूरती के दम पर सुभाष को कृष्णा से अलग कर देती है
बल्कि वह घर के अंदर और बाहर भी अपने आकर्षण और मीठी-मीठी बातों को कैश करते हुए
कृष्णा के मुक़ाबले फ़ायदे में ही रहती है । नौकरानी होकर भी उसका दिमाग ऐसा तेज़ है
कि वह ख़ुद तो अपनी ख़ूबसूरती और बातों से दूसरों को
बेवकूफ़ बना सकती है, कोई उसे बेवकूफ़ नहीं बना सकता । उस
घुटी हुई लड़की की इस ख़ासियत का पता सुनील को तब चलता है जब वह उसे महंगे रेस्तरां
में ड्रिंक-डिनर करवा के उससे कंगन की चोरी का राज़ उगलवाने की कोशिश करता है और
नाकाम होता है ।
८. राममिलन
आपने बुज़ुर्गों के ज़माने के वफ़ादार नौकर
तो देखे होंगे । ऐसे नौकर जो नमक का हक़ अदा करने के लिए मालिक के वास्ते अपनी जान
तक निसार कर दें । अब चाहे ऐसे नौकर न होते हों, सामंतवादी युग की
यादगार ऐसे नौकर पहले निश्चय ही हुआ करते थे जिन्हें अपने से ज़्यादा अपने मालिक का
ख़याल रहता था । राममिलन एक ऐसा ही नमकख़्वार नौकर है जिसकी नरोत्तम ठाकुर के लिए
स्वामिभक्ति केवल उसके कार्यकलापों में ही नहीं, बल्कि
उसकी बातचीत में भी झलकती है । इस बात की उसके चेहरे पर ऐसी स्पष्ट छाप है कि
सुनील उसके मुँह से एक शब्द भी सुने बग़ैर उससे प्रभावित हो जाता है ।
९. प्रदीप सक्सेना
प्रदीप सक्सेना नरोत्तम ठाकुर का वकील है
और नरोत्तम की मृत्यु के बाद न केवल वह उसकी बदली जाने वाली वसीयत के प्रावधानों
की बाबत पुलिस से सहयोग नहीं करता बल्कि नम्रता की लल्लो-चप्पो करता है और उसे यह
जताने की कोशिश करता है कि वह उसकी तरफ़ है । कोई जवान औरत अगर विधवा हो जाए और
तुर्रा यह कि वह एक अमीर आदमी की विधवा हो तो तथाकथित समझदार लोगों का नज़रिया क्या
हो जाता है, यह प्रदीप सक्सेना के व्यक्तित्व से भाँपा जा सकता है
। पहले वह सुनील के सामने ग़लती से कह बैठता है कि नरोत्तम ठाकुर की मौत के तुरंत
बाद श्याम भैया के दुबई से आ जाने के पीछे शायद नम्रता का ही हाथ है मगर बाद में
दोबारा बातचीत के दौरान वह इससे मुकर जाता है । ईमानदार और कर्तव्यपरायण पुलिस
अधिकारी इंस्पेक्टर प्रभुदयाल को वह अंततः सहयोग देता भी है तो हेकड़ी जमाकर । ऐसे
वकीलों की कोई कमी नहीं है हिंदुस्तान में । यहाँ फिर वही बात आती है कि वास्तविक
जीवन के चरित्र पूर्णतः काले या उजले नहीं होते, सलेटी
होते हैं ।
१०. इंस्पेक्टर प्रभुदयाल
इंस्पेक्टर प्रभुदयाल सुनील सीरीज़ के
उपन्यासों का स्थाई पात्र है लेकिन इस उपन्यास के संदर्भ में मैं उसका ज़िक्र विशेष
रूप से इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उसकी और सुनील की मुलाक़ातें ज़िंदगी के व्यावहारिक
स्वरूप को प्रस्तुत करती हैं । उपन्यास के पहले ही दृश्य में वह सुनील की चाय-कॉफ़ी
आदि से ख़ातिर करने से साफ़ मना कर देता है और उसे दो टूक कहता है कि थाना न तो उसका
घर है और न ही सुनील उसका मेहमान है । लेकिन बाद में जब ‘ब्लास्ट’ में छपी ख़बर पढ़कर उसे सुनील से कुछ बातें उगलवानी होती हैं तो वह उसे कॉफ़ी
पिलाता है क्योंकि उस वक़्त व्यावहारिकता का तक़ाज़ा यही होता है । प्रभुदयाल एक
कर्तव्यनिष्ठ और योग्य पुलिस अधिकारी है और सत्य यही है कि ऐसे पुलिस अधिकारी भारत
में चाहे बहुत कम ही क्यों न रह गए हों, उनकी नस्ल अभी
पूरी तरह से ख़त्म नहीं हो गई है । अपने फ़र्ज़ को अंजाम देने के लिए वह
साम-दाम-दंड-भेद सभी तरह के तरीके अपनाने को तैयार रहता है । लेकिन किसी बेगुनाह
को सताना या अपनी वर्दी की ताक़त का बेजा इस्तेमाल करना उसे गवारा नहीं । जब वकील
प्रदीप सक्सेना से वह नरोत्तम ठाकुर की वसीयत की बाबत वांछित जानकारी नहीं निकलवा
पाता तो उसकी लाचारी ज़ाहिर हो जाती है और हम जान जाते हैं कि हिंदुस्तान के मौजूदा
निज़ाम में एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी के हाथ कितने तरीकों से बंधे होते हैं ।
‘गोली और ज़हर’ में किरदार इतने ज़्यादा हैं कि सभी के बारे में ठीक तरह से बताने से यह
आलेख ज़रूरत से ज़्यादा विस्तृत होकर अपने आप में ही एक लघु उपन्यास की सूरत
अख़्तियार कर लेगा । यह उपन्यास एक बड़ा कैनवास है जिस पर अनुभवी लेखक ने एक कुशल
चित्रकार की तरह जीवन के सारे रंगों को सही मिक़दार में सही तरतीब से उकेरा है और
जो चित्र बना है, वह बेहद ख़ूबसूरत है । माँ-बाप का गोद
लिए बच्चे और अपने ख़ून में फर्क करना, ईर्ष्या, लालच, डर, भावनाएं,
स्वामिभक्ति, प्रेम, वासना, फ़रेब, पारिवारिक
संबंध और हास्य; क्या नहीं है इसमें ? यह रहस्य-कथा किसी साहित्यिक कृति से किसी भी तरह कम नहीं है । पढ़कर देखिए
और उसके बाद फ़ैसला कीजिए कि मैंने सही कहा या ग़लत ।
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रोचक समीक्षा।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय यशवंत जी ।
हटाएंशानदार समीक्षा...प्रमुख किरदारों के विस्तृत परिचय के साथ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार सुधा जी ।
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