बुधवार, 26 अप्रैल 2023

वतन का नाम रौशन करने वाली बेटियों का मुश्किल दंगल

लिखना-पढ़ना दोनों ही तक़रीबन छोड़ चुका हूँ। मगर आज रहा नहीं जा रहा। दिल में जो घुमड़ रहा है, उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में न उतारा तो यह उस क़लम के साथ बेईमानी होगी जिसने मुझे हमेशा ही सुकून बख़्शा है। मुझे क़लम उठाने पर मजबूर कर दिया है हिन्दुस्तान की उन बेटियों ने जो दुनिया में अपने वतन का नाम रौशन करने के बावजूद उसी वतन में इंसाफ़ की गुहार लगाती हुईं देहली की ज़मीन पर बैठी हैं, बेतहाशा गर्मी में भी खुले आसमान के नीचे सो रही हैं और मुल्क के निज़ाम से बार-बार कह रही हैं - हमने तो हमेशा मुल्क का नाम रौशन ही करना चाहा है, हमारी आवाज़ भी तो सुनो। 

यह है मेरा देश जहाँ नेता 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो दे सकते हैं लेकिन उन्हीं बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की ज़िन्दगी देने में उन्हें मौत आने लगती है। यह देखना पड़ने लग जाता है कि बेटियों की इज़्ज़त पर नज़र गड़ाए बैठा शख़्स कोई वोटों का सौदागर तो नहीं जिसके बरख़िलाफ़ जाने पर वोटों का नुक़सान हो सकता हो। दूसरी पार्टी का होता तो अब तक सींखचों के पीछे होता पर अपनी पार्टी का है तो क्या करें ? चुनावी जीत और सत्ता से बढ़कर क्या है ? कुछ नहीं ! वतन की बेटियों की इज़्ज़त भी नहीं। अब हिन्दुस्तान की ये बेयारोमददगार बेटियां करें तो क्या करें ? कौन है इनका मुहाफ़िज़ ? किससे उम्मीद की जा सकती है इस बाबत ? मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री के देश में इन बेटियों के मन की पीड़ा का स्वर मानो नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गया है। 

कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी फ़िल्म 'दंगल' की समीक्षा में मैंने कहा था कि महावीर सिंह फोगाट की दो बेटियों गीता और बबीता की सफलता की यह कहानी केवल एक फ़िल्म नहींएक सामाजिक अभिलेख है, एक महागाथा है भारतीय ललनाओं की अथाह प्रतिभा की और सभी बाधाओं को पार करके गंतव्य तक पहुँचने के उनके अदम्य साहस और स्पृहणीय जीवट की । आज गीता और बबीता की चचेरी बहन विनेश संघर्ष कर रही है अपनी अन्य पहलवान बहनों के साथ उस जंगल में जिसे हम 'भारतीय व्यवस्था' कह सकते हैं - एक क्रूर व्यवस्था, एक हृदयहीन व्यवस्था जिसमें न्याय तो न्याय, संवेदना के निमित्त भी कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता। 

छह अगस्त दो हज़ार सोलह को सभी भारतीय उस समय प्रसन्नता से झूम उठे थे जब साक्षी मलिक ने रियो ओलम्पिक में महिला कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया था। रियो ओलंपिक में कुल मिलाकर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था एवं केवल दो ही पदक प्राप्त हो सके थे जो महिला खिलाड़ियों ने ही जीते थे (दूसरा पदक पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में जीता था)। ऐसे में साक्षी की सफलता सम्पूर्ण देश की कन्याओं हेतु प्रेरणा बन गई थी। आज वही साक्षी कड़ी धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठी है ताकि उसे तथा उस जैसी अन्य उत्पीड़ित महिला पहलवानों को न्याय मिले। क्या मिलेगा

बहुत दुख होता है यह देखकर कि देश की इन प्रतिभाशाली किन्तु पीड़ित बेटियों का साथ देने वाले बहुत कम हैं। सत्ता से तो आशा ही क्या होती, निराशा तो समाज से हो रही है। विनेश की चचेरी बहन बबीता तो अब सत्ताधारी दल का ही अंग हैं। क्या वे सत्ता को (अथवा सत्ताधारी दल को) इस दिशा में जागृत कर सकेंगी ? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहेंगी क्योंकि राजनीति सब कुछ लील जाती है - कला, साहित्य, पत्रकारिता, खेल, समाज-सेवा और यहाँ तक कि मानवता को भी। यह काजल की वो कोठरी है जिसमें जाकर कोई कलाकार नहीं रहता, साहित्यकार नहीं रहता, पत्रकार नहीं रहता, खिलाड़ी नहीं रहतासमाज-सेवी नहीं रहता; प्रत्येक प्रतिभा कलंकित हो जाती है (एक लीक काजर की लागि है पै लागि है) और बचती है केवल घात-प्रतिघात की राजनीति। और मीडिया ? वह तो कभी का सत्ता के हाथों बिक चुका है। 

मैं नमन करता हूँ बजरंग पूनिया तथा रवि दहिया जैसे पहलवानों को जो अपनी बहनों को न्याय दिलाने के लिए (अपना फलता-फूलता खेल-जीवन दांव पर लगाकर भी) उनके साथ हैं तथा इस संघर्ष में उन्हें एकाकी नहीं पड़ने दे रहे। नारी-मुक्ति का शोर मचाने वालियों को यदि इन पुरुषों का नैतिक साहस देखकर भी लज्जा नहीं आ रही है तथा वे जंतर-मंतर पर बैठी उत्पीड़ित प्रतिभाओं के समर्थन में आगे नहीं आ रही हैं तो धिक्कार है उन पर !

देश की अनमोल धरोहर ये बेटियां कोई पहली बार न्याय हेतु धरने पर नहीं बैठी हैं। असह्य गर्मी से पूर्व वे असह्य सर्दी में भी ऐसा कर चुकी हैं। तब इन भोली-भाली बच्चियों को एक समिति बनाकर भरमाया गया था यह कहकर कि समिति की जाँच के अनुरूप उन्हें न्याय प्रदान करने के निमित्त उचित क़दम उठाए जाएंगे। धोखा हुआ इनके साथ। समिति ने क्या जाँच की और क्या रिपोर्ट दी, यह प्रकाश में ही नहीं आने दिया गया। हालत यह है कि सत्ता के इशारों पर नाचती पुलिस इन बच्चियों के द्वारा की जा रही अपने उत्पीड़न की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ़.आई.आर.) दर्ज़ करने जैसा मामूली काम भी नहीं कर रही है। अगर देश की चैम्पियन बेटियों को अपने साथ हुए अत्याचार की एफ़.आई.आर. लिखवाने के लिए भी धरना देना पड़े तो कैसे कहें - मेरा भारत महान ? क्या 'दंगल' फ़िल्म में 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के ?' पूछने वाले आमिर ख़ान (तथा उनके साथ मिलकर 'दंगल' का निर्माण करने वाला पूरा दल) इस संदर्भ में कोई टिप्पणी करना चाहेंगे ? हिम्मत बची है उनमें ? या सत्ता के ख़ौफ़ ने उनके भीतर की आग को बुझा दिया है। 

अब कौन माता-पिता अपनी बेटियों को जीवन में आगे बढ़ने हेतु खेल प्रशिक्षण केन्द्रों में निस्संकोच जाने देंगे ? कौन माता-पिता खेल के मैदान में प्रगति करने हेतु घर से दूर जाने वाली अपनी बच्चियों की सुरक्षा के निमित्त चिंतित नहीं होंगे ? क्या अब माता-पिता अपनी बेटियों को यह कहकर रोकेंगे नहीं कि बेटा, ठहर जाओ, आगे ख़तरा है ? और जब ओलंपिक, विश्व चैम्पियनशिप, एशियाई खेल तथा राष्ट्रमंडल खेल जैसी प्रतियोगिताओं में देश के लिए पदक जीतने वालों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो सामान्य उत्पीड़ितों (तथा उत्पीड़िताओं) के लिए क्या उम्मीद रहती है, सहज ही समझा जा सकता है। 

श्रेष्ठ कवि-कवयित्रियों से सुसंपन्न ब्लॉग जगत के इस संदर्भ में चुप्पी साधे रहने के विषय में मेरा कुछ न कहना ही सब कुछ कह देने हेतु पर्याप्त रहेगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे भी इस परिप्रेक्ष्य में अपनी पीड़ा मैं अपनी विगत पोस्ट में ही अभिव्यक्त कर चुका हूँ। 

बहुत मुश्किल है यह दंगल विनेश, साक्षी और उनकी साथी बहनों (तथा उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े उनके पहलवान भाइयों) के लिए क्योंकि यहाँ उनके सामने उनके जैसे प्रतिस्पर्द्धी नहीं हैं, व्यवस्था है जो बहुत शक्तिशाली है। क्या उनका जीवट उस ताक़त से लोहा ले सकेगा जो कुर्सियों में होती है (और है) ?

भारत के प्रधानमंत्री तक जिनसे हँस-हँसकर बातें कर चुके हैं, जिन्हें सम्मानित कर चुके हैं, जिन्हें राष्ट्र के युवाओं हेतु प्रेरणा-स्रोत बता चुके हैं; संसार में देश का मान बढ़ाने वाली उन युवा प्रतिभाओं का दर्दभरा स्वर क्या रायसीना की पहाड़ियों में कहीं किसी को सुनाई दे रहा है

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