मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

देश-प्रेम : तब और अब

मैंने १९८८ में अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण करके उच्च शिक्षा हेतु कोलकाता (तब वह नगर कलकत्ता कहलाता था) प्रस्थान किया एवं चार्टर्ड लेखापालन के पाठ्यक्रम की आवश्यकता के अनुरूप चार्टर्ड लेखापालों की एक संस्था में प्रवेश प्राप्त किया। राजस्थान के सांभर झील नामक एक छोटे-से कस्बे से आया मैं महानगरीय युवकों (जिनका सान्निध्य मुझे उस संस्था से संबद्ध होने के उपरांत प्राप्त हुआ) हेतु एक परिहास का विषय बन गया। इसका एक कारण तो मेरा शुद्ध हिन्दी बोलना था, साथ ही कुछ अन्य कारण भी थे (अनेक महानगरीय युवक छोटे स्थानों से आने वाले छात्रों को हीनता की दृष्टि से भी देखते थे)। किंतु जिस कारण ने मुझे आज साढ़े तीन दशकों के उपरांत इस लेख के सृजन हेतु प्रेरित किया है, वह है उनके द्वारा किया जाने वाला देश-प्रेम जैसे आदर्श जीवन मूल्यों का उपहास एवं तिरस्कार।

मैं (न जाने कैसे) बालपन से ही आदर्शवादी बन गया था एवं महात्मा गांधी की भांति सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप मानने लगा था। इसके अतिरिक्त मैंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले एवं प्राणाहुति तक देने वाले अनेक देशभक्तों की जीवनियां पढ़ी थीं। चंद्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, बाघा जतीन, सूर्य सेन, कित्तूर की रानी चेन्नम्मा  आदि मातृभूमि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले देशभक्तों की जीवनियां पढ़कर न जाने कब मेरे मन में भी देश-प्रेम के बीज अंकुरित हो गए तथा मैं भी देश-प्रेम को एक बहुत उच्च आदर्श के रूप में अपने व्यक्तित्व में स्थापित कर बैठा। एकांत में जब भी मैं इन अमर देश-प्रेमियों की जीवन-कथाओं को (पुनः-पुनः) पढ़ता था तो कई बार मेरे नयन सजल हो उठते थे (ऐसा अब भी हो जाता है)। अपने विद्यालय तथा महाविद्यालय के जीवन में भी मैं अपने साथियों से इस संदर्भ में वार्ता किया करता था तो पाता था कि वे मेरी बातों को काटते तो नहीं थी किन्तु उनमें गंभीर रुचि भी नहीं लेते थे। इसका कारण मैंने यही समझा कि वे मेरी तुलना में कहीं शीघ्र ही परिपक्व एवं व्यावहारिक हो गए थे।

पर आगे के वर्षों में अपने कोलकाता प्रवास तथा (विभिन्न लेखा-परीक्षण संबंधी कार्यों हेतु) बाह्य स्थलों के लंबे-लंबे दौरों के मध्य जब मैंने ऐसी ही वार्ताएं अपने उन साथियों से कीं जो महानगरीय एवं साधन-संपन्न परिवेश में पले थे एवं अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा-प्राप्त थे तो मुझे अधिकांश साथी-विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं ने पीड़ा-मिश्रित आश्चर्य से भर दिया। मेरे अधिकांश साथी-छात्र देश-प्रेम ही नहीं वरन अन्य आदर्शों एवं जीवन मूल्यों को भी उपहास की वस्तु ही समझते थे तथा (मेरे जैसा) आदर्शवादी एवं देश-प्रेमी युवक उनकी दृष्टि में मूर्ख के अतिरिक्त कुछ नहीं था। देश और समाज के विषय में सोचना भी उन युवाओं के बहुमत की दृष्टि में मूर्खता ही थी। और सत्य, न्याय, परोपकार एवं अन्य सद्गुण पुस्तकीय शब्द मात्र थे। उनके लिए जीवन का अर्थ मौज-मस्ती तथा अधिकाधिक धनार्जन ही था, और कुछ नहीं।  उस साढ़े तीन वर्षों की अवधि में तथा तदोपरांत अपने तीन दशक से अधिक लम्बे करियर में मैंने प्रायः यही जाना कि इस संसार का सबसे बड़ा सत्य है निहित स्वार्थ जिसके समक्ष समस्त जीवन मूल्य एवं सतोगुण गौण प्रतीत होते हैं। निज हित से हटकर कुछ और सोचने-देखने-चाहने वाला व्यक्ति सांसारिकता में रचे-बसे लोगों की राय में एक भावुक-मूर्ख (इमोशनल फ़ूल) ही होता है। रही बात देश-प्रेम की तो जिन्हें स्वतंत्रता बिना उसका मूल्य चुकाए तथा बिना उसके लिए कोई त्याग किए मिल गई, वे देश-प्रेम (और वीर बलिदानियों) का मोल क्या जानें ? 

सन २००६ में भारत के गणतंत्र दिवस के दिन एक हिन्दी फ़िल्म प्रदर्शित हुई - रंग दे बसंती। इसके कथानक में भी फ़िल्मकार (राकेश ओमप्रकाश मेहरा) ने कुछ ऐसे ही युवा दिखाए हैं जो मौज-मस्ती के अतिरिक्त जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य नहीं समझते। देश-प्रेम जैसी बातें और देश की स्वाधीनतार्थ अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले अमर शहीदों की कथाएं तो उनके लिए मानो किसी अपरिचित भाषा की उक्तियां हैं। ऐसे में एक विदेशी युवती अपने स्वर्गीय पिता की दैनंदिनी (डायरी) के आधार पर मातृभूमि के हित अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले कतिपय क्रांतिकारियों पर एक वृत्तचित्र बनाने हेतु आती है। उसके पिता एक अंग्रेज़ अधिकारी थे जो माँ भारती की दासता की बेड़ियां काटने के लिए हँसते-हँसते फाँसी पर झूल जाने वाले क्रांतिकारियों के निकट सम्पर्क में रहकर उनसे बहुत प्रभावित हुए थे तथा उनकी गाथा ही उन्होंने लेखबद्ध की थी (ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी वास्तव में थे जो देशभक्तों के अदम्य साहस, मातृभूमि पर मर-मिटने की उनकी भावना तथा उनके उदात्त विचारों से अत्यन्त प्रभावित हुए थे)। 
यह अंग्रेज़ युवती अपनी एक भारतीय सखी की सहायता से अपना वृत्तचित्र बनाने हेतु क्रांतिकारियों - चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ां तथा राज गुरु की भूमिकाओं हेतु इन्हीं खिलंदड़े युवकों को चुनती है जो पहले तो उसकी हँसी ही उडाते हैं किन्तु एक बार इन भूमिकाओं को निभाना स्वीकार कर लेने के उपरांत जब वे उन महान देशभक्तों के चरित्रों को समझते हैं तो उनके अपने विचारों में भी परिवर्तन आता है। दुर्गा भाभी की भूमिका हेतु वह अंग्रेज़ युवती अपनी भारतीय सखी को ही चुनती है जबकि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की भूमिका हेतु एक ऐसे युवक को चुना जाता है जो इन युवकों के दल का नहीं है तथा जिसका इनसे सदा ही मतभेद बना रहता है। सब कुछ ठीकठाक हो रहा होता है कि एक दुखद घटना इन्हें बताती है कि स्वाधीन भारत में भी स्थितियां पराधीन भारत से मिलती-जुलती-सी ही हैं। और तब जिन क्रांतिकारियों का वे केवल अभिनय ही कर रहे थे, उन्हीं के जैसे भाव उनके मनोमस्तिष्क में उमड़ने लगते हैं। फ़िल्म का दुखद अंत होता है। दुखद ही हो सकता था। पर दर्शकों को तथा विशेषतः उन युवाओं को जिनके लिए खाना-पीना-मौज उड़ाना ही सब कुछ है, यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने के लिए दे जाती है।

कुछ कमियों के बावजूद 'रंग दे बसंती' में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे साधारण फ़िल्मों से अलग करता है। फ़िल्म में अभिनय, गीत-संगीत तथा तकनीकी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। पर जो सबसे बड़ी बात इसमें है, वह यह है कि फ़िल्मकार यह मानता है कि वतन पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले देशभक्तों में जो वतनपरस्ती का जज़्बा मौजूद था, वह आज की पीढ़ी में भी हो सकता है। किसी की भी आँखें कभी भी खुल सकती हैं। इस फ़िल्म में उस युग के क्रांतिकारियों तथा इस युग के (देशभक्त बन चुके) युवकों के मध्य जो समानांतर रेखाएं खींची गई हैं, वे अद्भुत हैं। साथ ही बिस्मिल और अशफ़ाक़ का भावनात्मक जुड़ाव यह बताता है कि वे देश-प्रेमी आपस में भी उतना ही प्रेम करते थे एवं धार्मिक विभाजन से ऊपर उठ चुके थे। यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि मानवता का भाव देश-प्रेम से भी उच्च होता है, तथापि यदि केवल देश-प्रेम की ही बात की जाए तो सत्य यही है कि अपने देश को सुधारने तथा उच्चताओं पर ले जाने का दायित्व किसी अन्य का नहीं हमारा ही है। क्यों ? इसलिए कि यह देश हमारा है। अमर बलिदानी तो तूफ़ान से कश्ती निकाल कर ले आए, अब इस देश को सम्भाल कर रखना हमारी ही ज़िम्मेदारी है। देश तथा व्यवस्था में बहुत-सी कमियां हैं, माना। पर जैसा कि 'रंग दे बसंती' के ही एक पात्र का संवाद है - 'कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता, उसे परफ़ेक्ट बनाना पड़ता है।' 

तो आइए, आज़ादी का और इसके लिए मर-मिटने वाले अमर शहीदों की शहादत का मोल समझें और अपनी आने वाली नस्ल को भी समझाएं।

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मंगलवार, 5 सितंबर 2023

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के . . .

प्रति वर्ष पाँच सितम्बर को भारत के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। हम शिक्षक तथा गुरू शब्दों का प्रयोग प्रायः पर्यायवाची के रूप में करते हैं। वस्तुतः इनमें भिन्नता है। प्रत्येक गुरू निस्संदेह शिक्षक होता है क्योंकि उससे शिष्य को निश्चय ही शिक्षा प्राप्त होती है। किन्तु प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता, हो भी नहीं सकता क्योंकि गुरू शब्द की परिधि शिक्षण-कार्य से कहीं अधिक है। संस्कृत शब्द 'गुरू' का अर्थ है वह जो आपके भीतर के अंधकार को तिरोहित कर दे। अतः गुरू वही जो अपने शिष्य (अथवा शिष्या) को अंधकार से प्रकाश की दिशा में ले जाए, उसके मन एवं जीवन में सद्गुणों का आलोक विकीर्ण कर दे। यह कार्य प्रत्येक शिक्षक नहीं कर सकता - विशेषतः वर्तमान युग के वेतनभोगी (अथवा शुल्क लेकर सेवाएं देने वाले) शिक्षक तो नहीं ही कर सकते। शिष्य के मन को वही शिक्षक प्रकाशित कर सकता है जिसका अपना अंतस प्रकाशित हो तथा जो अपने शिक्षण-कृत्य के प्रति उच्चतम स्तर तक निष्ठावान हो। 

ऐसे एक शिक्षक मुझे भी मेरे विद्यार्थी जीवन में मिले। नाम था - सुरेन्द्र कुमार मिश्र। महान कवि हरिवंशराय बच्चन जी की ही भांति वे अध्यापक अंग्रेज़ी के थे किन्तु हिन्दी का भी सम्यक ज्ञान रखते थे (एवं हिन्दी में कविता भी करते थे)। हिन्दी से उनकी आत्मीयता ऐसी थी कि अंग्रेज़ी के अध्यापक होते हुए भी हस्ताक्षर सदैव हिन्दी में ही करते थे एवं अपना पूरा नाम सुरेन्द्र कुमार 'मिश्र' ही लिखते थे (मिश्रा नहीं)। वैसे सभी लोग बोलचाल में उन्हें 'मिश्रा जी' कहकर ही सम्बोधित किया करते थे।

मैंने छठी कक्षा से अंग्रेज़ी भाषा को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत एक विषय के रूप में पढ़ना आरम्भ किया। भाषा के प्रति मेरा लगाव कुछ ऐसा था कि मैंने सातवीं कक्षा में २०० में से १६९ तथा आठवीं कक्षा में २०० में से १८९ अंक प्राप्त किए थे। किन्तु मेरा भाषा ज्ञान अशुद्ध भी था एवं अपूर्ण भी। कारण ? पढ़ाने वाले अध्यापकों को स्वयं ही अंग्रेज़ी भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं था। और विद्यार्थी तो वही पढ़ते एवं समझते जो पढ़ाया जाता (राजस्थान के सरकारी विद्यालयों मे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का अंग्रेज़ी ज्ञान दुर्बल होने का यही कारण था)। इतना अवश्य है कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तो सुदर्शनसिंह जी नामक एक अध्यापक महोदय ने अंग्रेज़ी के अक्षरों को सीधा, गोल एवं समान बनाने की सीख देकर मेरी लिखावट को सुन्दर बना दिया था। 

नौवीं कक्षा में मेरा भाग्योदय हुआ जब मिश्रा जी मुझे अपने अंग्रेज़ी शिक्षक के रूप में मिले। तृतीय श्रेणी के अध्यापक होकर भी वे नौवीं एवं दसवीं कक्षाओं को पढ़ाया करते थे (जबकि उनसे उच्च श्रेणी वाले अध्यापक अंग्रेज़ी पढ़ाने में सक्षम नहीं समझे जाते थे)। हमारे अंग्रेज़ी विषय के पाठ्यक्रम में दो पुस्तकें होती थीं - कोर्स रीडर एवं रैपिड रीडर। प्रायः जिन अध्यापकों को अंग्रेज़ी विषय पढ़ाने के निमित्त दिया जाता था, वे रैपिड रीडर को पढ़ाने में ही रुचि लेते थे क्योंकि वह सरल होती थी, अतः उसे सुगमतापूर्वक पढ़ाते हुए उसका पाठ्यक्रम शीघ्रता से पूर्ण कराया जा सकता था। किन्तु मिश्रा जी एक अपवाद थे जो कि अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान एवं परीक्षा में अंक प्राप्त करने दोनों ही दृष्टियों से कोर्स रीडर की महत्ता को समझते थे। इसीलिए वे कोर्स रीडर को पढ़ाने में विशेष रुचि लिया करते थे। पाठ को पढ़ाने के उपरांत वे उसके साथ दिए गए अभ्यास प्रश्नों (exercises) को भी भलीभांति समझाया करते थे एवं उन प्रश्नों का बारम्बार इस प्रकार अभ्यास करवाया करते थे जिस प्रकार कि सेना में रंगरूटों का व्यायाम (drill) होता है। अंग्रेज़ी भाषा के व्याकरण संबंधी वे प्रश्न भाषा-संरचना (structures) शीर्षक के अंतर्गत दिए जाते थे। इस प्रकार मिश्रा जी व्याकरण (grammar) के ज्ञान को शब्द-भंडार (vocabulary) के ज्ञान के समतुल्य ही महत्व दिया करते थे। मैंने उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को कुछ इस प्रकार समझा कि यदि अंग्रेज़ी भाषा को मानव देह की उपमा दी जाए तो उसे स्थूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. Structures जो कि मानव कंकाल की भांति होता है और जिस पर शेष शरीर को अवस्थित रखने का दायित्व होता है, 2. Vocabulary जो कि देह का अन्य भाग - मांस, रक्त, मज्जा, त्वचा आदि - होता है जो कि कंकाल पर मढ़ा होता है। Vocabulary का ज्ञान अथाह सागर की भांति होता है जिसे किसी भी सीमा तक विस्तार दिया जा सकता है किन्तु उसकी उपयोगिता तभी है जबकि उसे धारण करने हेतु Structures रूपी कंकाल दृढ़ता से उपस्थित हो। अनेक वर्षों के उपरांत जब मैंने नौकरी की और मेरे उच्चाधिकारी ने अपने पुत्र को अंग्रेज़ी पढ़ाने हेतु मुझसे कहा तो मैंने यही उपमा देते हुए उसे पढ़ाया। यदि मैंने Structures के महत्व को उचित रूप में पहचाना तो इसका श्रेय पूर्णरूपेण मिश्रा जी को ही है। 

यह मिश्रा जी के शिक्षण का ही परिणाम था कि मैंने स्नातक तक की शिक्षा हिन्दी माध्यम से पूर्ण करने के उपरान्त आगे के वर्षों में जब विभिन्न परीक्षाएं (चार्टर्ड लेखापालन तथा सिविल सेवा संबंधी परीक्षाएं)  अंग्रेज़ी माध्यम से दीं तो मुझे कोई भी असुविधा नहीं हुई। मैं तो तब इस बात में अपने सहपाठियों के समक्ष गौरवान्वित अनुभव करता था कि वे अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा लेने के उपरान्त भी अंग्रेज़ी लिखने में अशुद्धियां करते थे जबकि मैं (चाहे धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोल नहीं सकता था) हिन्दी माध्यम से पढ़ाई की होने पर भी अंग्रेज़ी भाषा का उनसे बेहतर ज्ञान रखता था एवं मेरे अंग्रेज़ी लेखन में पूर्ण परिशुद्धता होती थी। और इसके लिए मैंने प्रतिपल स्वयं को मिश्रा जी के प्रति आभारी पाया।

मिश्रा जी के व्यक्तित्व में जो सबसे महत्वपूर्ण गुण मुझे दृष्टिगोचर हुआ, वह यह था कि वे एक बहुत अच्छे विद्यार्थी थे। वे ज्ञानार्जन का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे एवं सदैव अपने ज्ञान को परिष्कृत करने में एवं अपनी त्रुटियों को सुधारने में रत रहते थे। उनके इस गुण ने मुझे बहुत प्रभावित किया तथा इससे उनके एक आदर्श शिक्षक होने का रहस्य भी मैं जान गया। एक आदर्श शिक्षक वही बन सकता है जो पहले एक आदर्श विद्यार्थी हो। और एक आदर्श विद्यार्थी वही होता है जो आजीवन एक विद्यार्थी बना रहे तथा अपने ज्ञान में निरंतर सुधार ही जिसका अभीष्ट रहे। मिश्रा जी ऐसे ही थे, इसीलिए वे एक आदर्श शिक्षक बने। जब भी मैंने कभी उनकी किसी त्रुटि की ओर उनका ध्यानाकर्षण किया, उन्होंने मेरे द्वारा इंगित उस तथ्य का परीक्षण किया एवं त्रुटि की पुष्टि हो जाने पर उसे बिना किसी अवरोध (तथा अहंभाव) के सुधारा। अपनी त्रुटि को सहज भाव से स्वीकारना तथा उसे अविलम्ब सुधारना उनके व्यक्तित्व में समाहित एक दुर्लभ गुण था। उनके इस गुण को मैंने भी अपने व्यक्तित्व में यथावत उतारा है। निरंतर सुधार का मंत्र मैंने उनसे ही सीखा है।

मिश्रा जी की कर्तव्यनिष्ठा इतनी थी कि वे अनेक विद्यार्थियों को नि:शुल्क पढ़ाया करते थे एवं ऐसे विद्यार्थियों को वे केवल अंग्रेज़ी ही नहीं, हिन्दी एवं संस्कृत भी पढ़ाते थे तथा उन विषयों की परीक्षाओं की तैयारी भी सम्पूर्ण समर्पण के साथ करवाया करते थे। लक्ष्य यही रहता था कि कोई भी परीक्षार्थी किसी भी विषय की परीक्षा में अनुत्तीर्ण न हो। और इस कार्य को वे परीक्षाओं के समय में सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ किया करते थे। ऐसा विरला शिक्षक मैंने दूसरा नहीं देखा।

अपनी जन्मजात मेधा का ज्ञान मुझे बिना किसी के कराए स्वतः ही अपनी बाल्यावस्था में ही हो गया था। तथापि मेरी वास्तविक क्षमताओं का सम्पूर्ण ज्ञान मुझे मिश्रा जी ने ही करवाया। उन्होंने कुछ ही दिनों में मेरी प्रतिभा को भलीभांति पहचान लिया था। तदोपरांत स्थिति यह रही कि मुझे स्वयं अपनी क्षमताओं पर इतना विश्वास नहीं था जितना मिश्रा जी को हो गया था। उनके इसी विश्वास के आसरे मैं आगे बढ़ता गया। परीक्षक उत्तर-पुस्तिकाओं में केवल अंक ही देते हैं, कुछ लिखते नहीं किन्तु मिश्रा जी ने नौवीं कक्षा की अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरी अंग्रेज़ी की उत्तर-पुस्तिका में मेरे द्वारा दिए गए अंतिम उत्तर के नीचे लिखा, ‘I am very glad to see your efforts’ (मैं आपके प्रयासों को देखकर बहुत प्रसन्न हूँ)। उनके ये शब्द मेरे लिए किसी भी अन्य पुरस्कार से अधिक उन्नत पुरस्कार थे। वे इसी प्रकार उत्तरोत्तर मेरा मनोबल एवं आत्मविश्वास बढ़ाते रहे। जब मैंने दसवीं कक्षा की परीक्षा में सम्पूर्ण बोर्ड में द्वितीय स्थान प्राप्त किया तो (मुझ सहित) सभी आश्चर्यचकित थे किन्तु मिश्रा जी को केवल प्रसन्नता थी, आश्चर्य नहीं मानो वे पहले से ही जानते थे कि उनका शिष्य ऐसी कोई उपलब्धि अवश्य प्राप्त करेगा। हायर सैकेंडरी की परीक्षा में मैंने सम्पूर्ण बोर्ड में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया एवं अंग्रेज़ी विषय में पचास में से उनचास अंक प्राप्त किये तो सभी के मुंह खुले-के-खुले रह गए। कोई कुछ भी कहता, मैं जानता था कि तब भी श्रेय के अधिकारी मिश्रा जी ही थे, कोई अन्य नहीं।

मिश्रा जी के स्थानांतरण के कारण उनसे मेरा सम्पर्क कम हो गया किन्तु छुट्टियों में जब वे आया करते थे (उन्होंने अपना घर तथा परिवार स्थानांतरित नहीं किया था) तो मैं विभिन्न विषयों पर उनसे बातचीत करने उनके घर पर पहुंच जाया करता था। वैसे भी उनके पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा पुत्र (अखिलेश) मेरा बचपन का मित्र था जिसके कारण सामान्यतः भी मेरा उनके यहाँ बहुत आना-जाना था। उन्हें क्रिकेट से बहुत लगाव था जिसके कारण मैं उनसे क्रिकेट पर भी बहुत बातचीत किया करता था। मेरी उनसे बातचीत शेक्सपियर के नाटकों पर भी हुआ करती थी जिससे मेरे ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे एवं मैं विश्व-साहित्य की उस विभूति के जीवन-दर्शन को समुचित रूप में आत्मसात कर पाता था।

मेरे उच्च शिक्षा के निमित्त कलकत्ता चले जाने पर मेरा मिश्रा जी से सम्पर्क तभी हो पाता था जब मैं अपने मूल स्थान (साम्भर झील) पर कुछ दिनों के लिए आता था। बाद में नौकरी लग जाने पर यह और भी कम हो गया। फ़रवरी २०१२ में उनका निधन हुआ जिसके उपरांत वे मेरे लिए केवल स्मृति-शेष ही रह गए। अपने गुरू को मैं आदर के अतिरिक्त कोई गुरू-दक्षिणा नहीं दे सका। केवल महाकवि निराला के कृतित्व पर आधारित एक पुस्तक राग-विरागही मेरे द्वारा उनको दी गई एकमात्र वस्तु रही। शेष तो मैंने उनसे केवल पाया ही।  

जब भी गुरू-शिष्य संबंधों का संदर्भ आता है, मुझे अपनी प्रिय हिन्दी फ़िल्म इम्तिहान’ (१९७४) स्मरण हो आती है जिसमें सदैव विद्यार्थियों के हित में सोचने वाले तथा उन्हें दुर्गुणों से बचाकर उचित मार्ग दिखलाने वाले एक आदर्श शिक्षक की कथा है। सफल हो जाने के उपरांत तो चिपकने वाले बहुतेरे आ जाते हैं लेकिन सच्चा गुरू वह है जो शिष्य के सफल होने से पूर्व ही उसकी प्रतिभा को पहचानकर उसके भीतर के आत्मविश्वास को जागृत करे एवं उसे सफलता के पथ पर अग्रसर करे। मिश्रा जी ने मेरे भीतर के अंधकार को मिटाकर मेरे आत्मविश्वास को जगाया एवं प्रत्येक शिक्षक दिवस पर जब उनकी स्मृतियां मेरे मन में कौंध जाती हैं तो मुझे इम्तिहानफ़िल्म का यह कालजयी गीत भी स्मरण हो आता है – रुक जाना नहीं तू कहीं हार के; कांटों पे चल के मिलेंगे साये बहार के; ओ राही, ओ राही। मिश्रा जी की शिक्षा मेरे लिए यही जीवन-दर्शन बनकर सदैव मेरे साथ रही। आज भी है।

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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

एक भले आदमी की त्रासदी

मेरे पिता श्री सूरज नारायण माथुर को दिवंगत हुए दो दशक हो चुके हैं। उनका देहावसान उनके जन्मदिन (पंद्रह जुलाई) के ठीक एक दिवस पूर्व (चौदह जुलाई) को हुआ था। उस सदमे ने मेरे दिलोदिमाग़ पर जो असर डाला था, उसका नतीजा था एक लेख जो मैंने कुछ दिन बाद अपने कार्यालय में बैठे हुए ही लिखा था। शीर्षक था - एक भले आदमी की त्रासदी। उन दिनों ब्लॉग जगत तो था नहीं, सो ख़ुद ही वक़्त-वक़्त पर उसे पढ़ लेता था और अपने पिता की यादों को फिर से महसूस कर लेता था। बाद में नौकरी और जगह बदलने पर उस लेख की न तो कोई छपी हुई प्रति साथ रही, न ही कम्प्यूटर में उसकी कोई सॉफ़्ट प्रति। अब नये सिरे से लिख रहा हूँ वही शीर्षक लेकर। लिख क्या रहा हूँ, अपने पिता की यादों और उनसे जुड़े अपने अहसासों को अल्फ़ाज़ की शक्ल दे रहा हूँ बस।

राजस्थान के एक कस्बे साम्भर झील में जन्मे मेरे पिता चार भाइयों में तीसरे नम्बर के थे। बाक़ी तीन भाई जितने चालाक और तिकड़मबाज़ थे, मेरे पिता उतने ही सीधे। अपने सीधेपन के कारण ही वे अपने मन की बात को मन में नहीं रख पाते थे और सामने वाले के मुँह पर कह देते थे। अपने ग़ुस्से को दबाना भी उन्हें नहीं आता था। इसीलिए ग़ुस्सा आने पर वे उसे सीधे ही बाहर निकाल देते थे। इसीलिए उनका जीवन में भौतिक रूप से सफल हो पाना कठिन ही रहा। जैसा कि हरिवंशराय बच्चन जी की पंक्तियां भी हैं - मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा। बच्चन जी के ये अमर उद्गार मेरे पिता पर पूर्णतः चरितार्थ हुए (एवं कालांतर में मुझ पर भी‌)। 

मेरे पिता ने मूल रूप से आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की एवं अनेक वर्षों के अंतराल के उपरांत मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। किशोरावस्था में ही वे भारत के स्वतंत्र होने के भी तीन वर्ष पूर्व (१९४४ में) एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो गए तथा सैंतीस वर्षों की अनवरत सरकारी सेवा के उपरांत १९८१ में तृतीय श्रेणी के शिक्षक के रूप में ही सेवानिवृत्त हुए। उस समय वे साम्भर झील के राजकीय विद्यालय नम्बर चार में प्रधानाध्यापक के पद पर थे किन्तु उनकी वेतन शृंखला तृतीय श्रेणी के शिक्षक की ही थी। यह वह समय था जब सेवानिवृत्ति की आयु बहुत कम (पचपन वर्ष) हुआ करती थी तथा मेरे पिता तो सम्भवतः अभिलेखों में आयु अधिक लिखवा दी गई होने के कारण उससे भी कम आयु में सेवानिवृत्त हो गए थे। सभी उत्तरदायित्व लम्बित थे और पेंशन के रूप में आय आधी हो गई थी। ख़ैर, ख़ास बात यह थी कि सम्पूर्ण कस्बे में मोटे मास्टर साहब के नाम से जाने जाने वाले मेरे पिता के सेवा से विदा होने के अवसर पर शिक्षक समुदाय का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था। उन्हें फूलमालाओं से लादकर तथा गुलाल लगाकर साम्भर की विभिन्न गलियों एवं मार्गों पर स्थानीय शिक्षक समुदाय ने उनकी मानो शोभायात्रा निकाली थी जिसके अंत में जब सब लोग उनके साथ हमारे निवास स्थान (सरस्वती मार्ग, छोटा बाज़ार) पर आए थे तो क्या घर में और क्या घर की छत पर - पैर रखने की जगह नहीं थी। अपनी सेवानिवृत्ति पर ऐसा सम्मान विरले ही सरकारी कर्मचारियों के भाग्य में होता होगा।

सेवानिवृत्त होने से परिवार के उत्तरदायित्व तो कम हो नहीं गए थे। अतः वे अतिरिक्त श्रम कर-करके अतिरिक्त आय का प्रबंध करने लगे ताकि घर चल सके। इसके लिए उन्हें अपनी बढ़ती आयु के साथ समायोजन करते हुए बहुत दौड़-धूप करनी पड़ती थी। कई बार तो रात को जयपुर से रेल द्वारा लौटने में देर हो जाने पर जब उन्हें फुलेरा नामक स्थान से बस नहीं मिल पाती थी तो वे कई किलोमीटर पैदल चलकर घर आते थे। उनकी इस श्रमशीलता तथा धैर्य को मैने बहुत बाद में अनुभव किया और तब ही मैंने उनकी उस उदारता को भी पहचाना जिसके अंतर्गत केवल मेरे पठन के निमित्त घर में कई बाल-पत्रिकाएं आया करती थीं यद्यपि परिवार की सीमित आय इस सत्य पर बल देती थी कि व्यय यथासंभव कम किए जाने चाहिए थे। 

मेरे माता-पिता का विवाह एक अनमेल संयोग था। मेरी माता श्रीमती शकुन्तला माथुर दिल्ली की थीं, अपने विवाह-पूर्व जीवन का एक बड़ा  भाग उन्होंने आगरा तथा हाथरस जैसे नगरों में बिताया था, सोलन स्थित पंजाब विश्वविद्यालय से भी उन्होंने शिक्षा ली थी तथा अंततः हिन्दी विषय में 'प्रभाकर' की उपाधि प्राप्त की थी। उन्हें न केवल हिन्दी एवं अंग्रेज़ी भाषाओं का विशद ज्ञान था वरन वे संगीत का भी सम्यक् ज्ञान रखती थीं। अपने दहेज में आया हुआ 'बल्लूराम एंड संस' निर्मित पुराने ज़माने का हारमोनियम वे कभी-कभी बजाया करती थीं। आयु अधिक हो जाने पर उनकी आवाज़ का सुरीलापन जाता रहा था अन्यथा वे गाया भी करती थीं (उनके द्वारा संकलित स्वरलिपियों की पुस्तिका जो उनके ही हस्तलेख में है, मैंने उस हारमोनियम के साथ ही संभालकर रखी है)। मैं संगीत तो नहीं सीख सका लेकिन हिन्दी भाषा का ज्ञान वस्तुतः मैंने अपनी माता से ही प्राप्त किया (अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान मैंने नौवीं कक्षा में पहुँचने के उपरान्त अपने असाधारण शिक्षक श्री सुरेन्द्र कुमार मिश्र से प्राप्त किया)। मेरी माता को संगीत के साथ-साथ पुस्तकें पढ़ने का भी बहुत शौक़ था और सिनेमा देखने का भी। ये अभिरुचियां मुझे मेरी माता से ही मिलीं। जब टीवी का दौर आया तो प्रत्येक सप्ताह दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली हिन्दी फ़िल्म देखने का चस्का मुझे अपने माता के कारण ही लगा। साम्भर साल्ट्स लिमिटेड कम्पनी द्वारा (साम्भर नमक उद्योग का एक प्रसिद्ध केन्द्र है तथा साम्भर झील भारत की सबसे बड़ी अंतर्देशीय नमक की झील है) अपने कर्मचारियों हेतु किंग्स स्क्वेयर नामक स्थान पर खुले में प्रसारित की जाने वाली अनेक हिन्दी फ़िल्में भी मैंने अपनी माता के साथ ही देखीं। अपनी माता के प्रभाव में ही मैंने पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना आरम्भ किया तथा धीरे-धीरे घर में मेरे इस शौक़ के लिए ही कई बाल-पत्रिकाएं आने लगीं। 

बचपन में मैं अपनी माता के ही अधिक निकट रहा जिसके कारण मेरे बाह्य व्यक्तित्व तथा अभिरुचियों का विकास अपनी माता की ही भांति हुआ। मेरे पिता तो प्रायः राजस्थानी भाषा में ही बातचीत किया करते थे। उन्हें तो लोगों से हँसने-बोलने का शौक़ था तथा अपने जीवन के तनावों और दुखों को लोगों से हँसी-मज़ाक़ करते-करते बाहर निकाल देना (या भीतर-ही-भीतर सह जाना) उनके स्वभाव का एक अंग बन गया था। कहते हैं - पिता पर पूत, जात पर घोड़ा; बहुत नहीं पर थोड़ा-थोड़ा। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भीतरी (एवं वास्तविक) व्यक्तित्व मेरे पिता के व्यक्तित्व का ही प्रतिरूप है चाहे मेरे पिता न उच्च-शिक्षित थे, न ही साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि में कोई रुचि रखते थे। सदा चलते-फिरते रहने के आदी तथा पैदल भ्रमण में ही आनंद प्राप्त करने वाले मेरे पिता मधुमेह (जो उन्हें बहुत जल्दी हो गया था) के बढ़ जाने (एवं अत्यन्त दुर्बल हो जाने) के कारण अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में चलने-फिरने से पूरी तरह लाचार हो गए थे। यह भी उनके जीवन की कुछ त्रासदियों में से एक त्रासदी थी।

मेरे पिता को जीवन कुछ ऐसा मिला कि वे न तो कभी धन जोड़ सके और न ही कभी अपने घर को आराम देने वाली वस्तुओं से सम्पन्न कर सके। उनकी सारी कमाई बस यूं ही व्यय हो जाया करती थी। अपनी ओर से वे स्वयं कष्ट में रहकर भी अपने परिवार को जितना हो सके, सुख देने का ही प्रयास करते थे किन्तु धन की देवी लक्ष्मी की कृपा उन पर कभी रही नहीं। लेकिन उनका स्वभाव ऐसा था कि उन्होंने कभी इस बात की परवाह की भी नहीं। वे जो मिला, उसी में मस्त रहा करते थे। 

मुझे अपनी संवेदनशीलता (और सम्भवतः अपना भाग्य भी) विरासत में अपने पिता से ही मिला। वे हर किसी के दुख-तक़लीफ़ से पिघल जाया करते थे और अपनी कमज़ोर माली हालत के बावजूद जिसकी जो मदद उनसे बन पड़ती थी, किया करते थे। वे पूरी तरह से सर्वधर्मसमभाव में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे एवं जातिधर्म के आधार पर मनुष्यों में भेद करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनके स्वभाव की ये विशेषता भी ज्यों-की-त्यों मेरे व्यक्तित्व में आ गई। वैसे मेरी माता भी ऐसी ही थीं (उन्हें उर्दू ज़ुबान भी बाख़ूबी आती थी और वे शायरी को भी समझती थीं)। 

मुझे अपने लिए अगर सचमुच कोई अफ़सोस है तो यह कि मैं अत्यन्त गम्भीर स्वभाव का हूँ, अपने पिता की तरह हँसमुख स्वभाव का एवं ज़िन्दादिल नहीं जो हँसते-मुसकराते ज़माने के ग़म भुला दे। मेरे पिता का स्वभाव तो भगवान शिव की तरह का था - जितनी जल्दी क्रोधित होते थे, उतनी ही जल्दी क्रोध को बिसरा कर प्रसन्न भी हो जाते थे (ऐसे स्वभाव के कारण ही भगवान शिव को 'आशुतोष' कहा जाता है)। 

एक बार मेरे एक मित्र ने बातों-बातों में मुझसे कहा था, 'जो सब की परवाह करता है, उसकी परवाह कोई नहीं करता है'। अपने पिता की ज़िन्दगी को देखकर मुझे यह बात बिलकुल सच लगी। वे ताज़िन्दगी सब की परवाह करते रहे जबकि उनकी परवाह करने वाला शायद ही कोई रहा हालांकि उनकी ज़रूरतें बेहद कम और मामूली थीं। वे केवल ठीक से भोजन करके कुछ समय शांति से आराम करने या सोने के अलावा कुछ नहीं चाहते थे (वे तो अपने कपड़े भी कभी-कभार बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी होने पर सिलवाया करते थे, अन्यथा पुराने कपड़ों से ही काम चला लेते थे) लेकिन उन्हें वह भी बड़ी मुश्किल से नसीब होता था। पर वे उसके लिए भी शिकायत नहीं करते थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने कहा था, 'जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में कह नहीं सकता, उसी को क्रोध अधिक आता है'। मेरे पिता को क्रोध अधिक आने का सम्भवतः यही कारण था। मैं भी क्रोधी हूँ। मुझे क्रोध अधिक आने का भी (सम्भवतः नहीं, निस्संदेह) यही कारण है।

उनके देहान्त पर हमारे यहाँ रिश्तेदारों का जमावड़ा हुआ जो तरह-तरह के कर्मकांडों के बहाने से बस इसी ताक में लगे हुए थे कि मेरी जेब कितनी और कैसे काटी जा सकती है। बरसों बाद मैंने हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा के प्रथम खंड 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में पढ़ा कि उनके दादा के देहावसान पर भी ऐसा ही कुछ हो रहा था। लेकिन मेरे (या कहा जाए कि मेरे पिता के) रिश्तेदारों को उनकी मौत का कोई अफ़सोस नहीं था। रिश्तेदारों से इतर लोग भी दिखावटी बातें ही कर रहे थे (उनके निधन से पूर्व जब वे जयपुर में सवाई मानसिंह हस्पताल में भर्ती थे, तब भी लगभग यही हाल था), उनके चले जाने का वास्तविक दुख कहीं किसी को था, कम-से-कम मुझे तो ऐसा नहीं लगा। मैं ज़रूर दुखी था पर अपना दुख किसे दिखाता, किससे कहता ?

एक भला आदमी इस दुनिया से उठ गया। जब ज़िन्दा था तो किसी को उसकी परवाह नहीं थी, मर गया तो किसी को अफ़सोस नहीं था। संभवतः यही भले आदमी की त्रासदी होती है। यह दुनिया ऐसी ही है जिसमें भले ही ख़ता खाते हैं, लुच्चों का कुछ नहीं बिगड़ता। भलामानस होना अपने आप में ही घाटे का सौदा है शायद। मेरी माता उसके उपरांत मेरे साथ ही रहीं जहाँ कहीं भी मेरी नौकरी रही (उनका निधन साढ़े चौदह वर्षों के अंतराल के उपरांत जनवरी दो हज़ार अट्ठारह में हुआ)। 

रोमन कवि होरेस ने कहा था, 'Deep in the cavern of the infant's breast; the father's nature lurks, and lives anew'(शिशु के हृदय की गुहा के भीतर गहराई में कहीं पिता का स्वभाव अंतर्निहित रहता है एवं पुनः जीवन प्राप्त करता है)। मेरे अपने पिता के साथ संबंध को इसी उक्ति से समझा जा सकता है। मेरे पिता के निधन के साढ़े तीन मास के उपरांत मेरी पत्नी ने हमारे पुत्र को जन्म दिया। यह भी एक विडम्बना रही कि मेरे पिता पौत्र का मुख देखने की आस लगाए ही संसार से चले गए एवं उनका पौत्र कभी अपने दादा को नहीं देख सका। 

मैंने अपने लेख 'संवेदनशील रचनाएं ! किसके लिए ?' में यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि संवेदनशीलता तथा संवेदनशील रचनाएं सृजित करने की प्रतिभा के मध्य कोई संबंध नहीं। अनेक कलावंतों एवं साहित्यकारों की संवेदनशीलता केवल प्रदर्शनी होती है जबकि मेरे पिता जैसे संवेदनशील व्यक्ति भी हो सकते हैं जिनकी कला एवं साहित्य में कोई रुचि ही न हो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक संवेदनशील व्यक्ति तो संवेदनशील रचनाओं के पात्र बन जाते हैं जिनकी कथाओं को मनोरंजन-सामग्री बनाकर संसार के बाज़ार में वे बेचते हैं जो स्वयं संवेदनशील नहीं होते।

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मंगलवार, 23 मई 2023

हमारा छोटा-सा लेकिन मनभावन और अनुशासित पड़ोसी देश

जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाने पर भी इस मास से पूर्व मैंने कभी भारत की भूमि से बाहर क़दम नहीं रखा था। सन २०२० में जब मेरे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ आने वाली थी तो मेरी पुत्री ने वर्षारंभ में ही अपने माता-पिता (एवं छोटे भाई) को उस अवसर पर कहीं विदेश ले जाने की योजना बना ली थी। किन्तु भाग्य का खेल ! कोरोना महामारी के प्रसार के चलते कहीं आना-जाना संभव ही नहीं रहा। तथापि मेरी पुत्री की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण मैं एवं मेरा परिवार हरिहरेश्वर नामक एक सुरम्य स्थान पर उस अवसर का उत्सव मना सके। 

विगत मास मेरी पुत्री ने भारतीय प्रबंधन संस्थान कोझीकोड से एम.बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। मैं तथा उसकी माता कोझीकोड जाकर दीक्षांत समारोह में सम्मिलित भी हुए। तदोपरांत मेरी पुत्री ने सम्पूर्ण परिवार को कहीं विदेश ले जाने का निर्णय एक बार पुनः लिया। मैं एक राजकीय संस्थान के आंतरिक लेखा परीक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ एवं अप्रैल का मास वार्षिक लेखों को अंतिम रूप देने का मास होता है। अतः मई के प्रथम सप्ताह तक तो कहीं भ्रमण हेतु अवकाश लेना संभव नहीं हो सका। मई के द्वितीय सप्ताह में मेरी पुत्री द्वारा निर्धारित (एवं प्रबंधित) कार्यक्रम के अनुसार हम हमारे पड़ोसी देश भूटान की यात्रा पर गए। लगभग पाँच दिवस का यह पारिवारिक पर्यटन अत्यन्त सुखद रहा। भूटान हेतु पासपोर्ट-वीज़ा आदि प्रपत्रों की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन अंततः मेरी (एवं मेरी जीवन-संगिनी की भी) विदेश-यात्रा हुई तो सही। 

हम पश्चिम बंगाल के हवाई अड्‍डे बागडोगरा पहुँचे और वहाँ से सड़क-मार्ग द्वारा भारत एवं भूटान की सीमा पर स्थित कस्बे जयगाँव जहाँ हमने होटल 'व्हाइट हाउस' में रात्रि-विश्राम किया। अगले दिन संबंधित पर्यटन एजेंसी द्वारा नियुक्त गाइड हमें ठीक सीमा पर स्थित भूटान पासपोर्ट कार्यालय की औपचारिकताएं पूरी करवाने के उपरांत कार द्वारा आगे ले गया। भूटान का पहला नगर जो हमने देखा, वह है फुंशोलिंग।

फुंशोलिंग में हम पहले दिन घूमे-फिरे और वहाँ से भूटान की राजधानी थिम्फू गए जहाँ हमारा रात्रि-विश्राम निर्धारित कार्यक्रमानुसार एक होटल मंत्र होममें हुआ। मंत्र होममें कार्यरत कर्मी-दल का नेतृत्व एवं समन्वय पसांग नामक एक महिला कर रही थी जो न केवल अत्यन्त सेवाभावी सिद्ध हुई वरन वह हिन्दी तो इतनी साफ़सुथरी बोल रही थी कि यदि उसकी मुखाकृति से उसके भूटानी होने का ज्ञान न हो जाता तो वह भारतीय ही प्रतीत होती। वस्तुतः हमारे लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य ही था कि हमें होटल-रेस्तरां सहित अधिकांश स्थलों पर कार्यभार महिलाओं के ही हाथ में देखने को मिला। 

थिम्फू में दो दिन बिताने के उपरांत आगे के दो दिन हमने पारो नामक कस्बे में गुज़ारे। वहाँ हम पेमा यांगसेल नामक होटल में रुके जो कि मुख्य बाज़ार के अत्यन्त निकट स्थित है। वहीं पर हम टाइगर नेस्टनामक पर्यटन-स्थल गए जो कि इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि मैंने तथा मेरी धर्मपत्नी ने तो जहाँ तक घोड़े जा सकते थे, वहाँ तक की यात्रा घोड़ों पर ही की जबकि हमारे दोनों बच्चे गाइड (जो कि हमारी ही आयु-वर्ग का व्यक्ति लगता था लेकिन हृष्ट-पुष्ट एवं ऐसे मार्गों पर चलने का अभ्यस्त था) के साथ पैदल ही आए। घोड़े प्रस्थान-स्थल से टाइगर नेस्टके मध्य का लगभग आधा मार्ग ही तय करवा सकते हैं जहाँ एक कैफ़ेटेरिया स्थित है। उससे आगे तो सभी को पैदल ही जाना होता है। सो हम भी गए। वापसी में भी हमने कैफ़ेटेरिया से तीन घोड़े किराये पर लिए ताकि जैसे हम ऊपर चढ़े थे, वैसे ही नीचे भी उतरते। हमारी बेटी भी इस बार घोड़े पर ही बैठकर नीचे तक आई। मेरा जी तो पूरे मार्ग में ही धुक-धुक करता रहा। लगा कि घोड़ा (और साथ में उस पर सवार मैं भी) अब गिरा, तब गिरा। पर ऐसा हुआ नहीं। किन्तु जब मेरी धर्मपत्नी अपने घोड़े पर लगाई गई ज़ीन के फिसल जाने से नीचे गिर गईं तो उनका मूड उखड़ गया और बाक़ी का रास्ता उन्होंने (हमारे बेटे की ही तरह) पैदल तय किया। हमने तो बस इस बात का शुक्र मनाया कि गिरने पर भी उन्हें कोई चोट नहीं आई। सम्भवतः एक बड़ा कोट जो उन्होंने पहन रखा था, उसने उनकी रक्षा की।


पारो की विशेषता यह है कि वहाँ से हिमालय की चोटियों पर जमी चाँदी-सी चमकती सफ़ेद बर्फ़ स्पष्ट दिखाई देती है और यह दृश्य आँखों को बड़ी शीतलता प्रदान करता है। जिस दिन हम टाइगर नेस्ट गए थे, उससे एक दिन पूर्व ही हमने पुनाखा की घाटी में बहने वाली मो छू नदी में राफ़्टिंग (हवा भरकर बनाई गई रबर की नाव को चप्पुओं द्वारा बहते पानी की ऊंची-नीची लहरों पर खेना) की थी। यह अनुभव भी हमारे लिए अत्यन्त रोमांचक एवं आनंददायक रहा था। वहाँ ऐसी दो नदियाँ हैं - फो छू तथा मो छू। भूटानी लोग एक नदी को पुरुष तथा दूसरी को स्त्री मानते हैं। इसीलिए ऐसे नाम हैं। भूटानी भाषा में 'छू' का अर्थ होता है 'नदी', 'फो' का अर्थ होता है 'पुरुष' तथा 'मो' का अर्थ होता है 'स्त्री'। इनके संगम-स्थल पर स्थित 'ज़ोंग' नामक क़िले पर भी हम गए जहाँ भीतर जाना कुछ नवनिर्माण कार्य चलने के कारण संभव नहीं हो सका। 

भूटान बौद्ध धर्म को मानने वाला देश है। अतः वहाँ के अधिकांश पर्यटन-स्थल वस्तुतः बौद्ध विहार अथवा मठ ही हैं जहाँ भगवान बुद्ध अथवा बोधिसत्व की विशालकाय प्रतिमाएं स्थित हैं। अपनी इस पाँच दिवसीय भूटान-यात्रा में हमने नयनाभिराम दृश्यावलियों के अतिरिक्त अधिकांशतः उन्हीं को (अथवा उनके भिन्न-भिन्न स्वरूपों को) ही देखा। गाइड के माध्यम से हम वहाँ के कुछ रीति-रिवाजों से भी परिचित हुए तथा कुछ प्रार्थनाओं से भी। 


भूटान के लोग अपने राजा (जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक) तथा रानी (जेत्सुन पेमा वांग्चुक) को बहुत स्नेह एवं सम्मान देते हैं (यद्यपि शासन-प्रशासन का दायित्व प्रमुखतः प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यपालिका पर ही होता है एवं विधि-विधान वहाँ की संसद ही बनाती है)। राजा-रानी के आकर्षक चित्र एवं होर्डिंग भूटान के कोने-कोने में दृष्टिगोचर होते हैं। भूटान की मुद्रा नोंग्त्रुम है जिसके प्रत्येक नोट पर राजा का चित्र छपा होता है। वैसे यह भारतीय रुपये से कुछ कम मूल्य रखती है किन्तु भूटान के दुकानदार तथा सेवादाता इसे भारतीय रुपये के समतुल्य ही रखते हैं तथा कई बार तो बड़े भूटानी नोट का छुट्‍टा भारतीय रुपये में दे देते हैं। यद्यपि मेरी पुत्री ने हमारे भूटान में प्रवेश करने से पूर्व ही पर्याप्त राशि की भूटानी मुद्रा (भारतीय रुपये देकर) प्राप्त कर ली थी, तथापि बहुत-से स्थानों पर हमने पाया कि लेने वालों को उसके स्थान पर भारतीय रुपये के नोट भी स्वीकार थे। 

भूटान को थंडर ड्रैगन की भूमि कहा जाता है तथा यहाँ के विभिन्न स्थलों, स्मारकों एवं प्रतिमाओं पर ड्रैगन (मुख से आग फेंकने वाला अजगर) की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। ड्रैगन भूटान के राष्ट्रीय प्रतीक-चिह्न का भी अंग है तथा स्वभावतः भूटान के राष्ट्रीय ध्वज पर भी अंकित रहता है। मेरे परिवार ने (पारो के बाज़ार में स्थित दुकानों से) विभिन्न मित्रों एवं संबंधियों के निमित्त तो पृथक्-पृथक् स्मृति-चिह्न क्रय किये ही, अपने गृह के निमित्त भी ड्रैगन की एक प्रतिमा क्रय की। 

लेकिन भूटान की जो बात मैं हमेशा याद रखूंगा, वह है वहाँ के लोगों का (सच्चा, न कि दिखावटी) देश-प्रेम और अनुशासन। कई दशक पहले मैंने बाल-पत्रिका 'चम्पक' में प्रकाशित होने वाली कॉमिक 'चीकू' के माध्यम से 'ज़ेब्रा क्रॉसिंग' के बारे में जाना था और यह सीख अपने मन में बैठाई थी कि पैदल चलते समय सड़क हमेशा ज़ेब्रा क्रॉसिंग (ड़क पर काली-सफ़ेद पट्टियों से बनाया गया निशान) से ही पार की जानी चाहिए। पारो में एक बार जब मैंने ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर क़दम रखा तो दूसरी तरफ़ से आ रही गाड़ियाँ तुरन्त रुक गईं और तभी फिर से स्टार्ट हुईं जब मैं ड़क पार कर गया। इसके ठीक विपरीत भारत में मैंने प्रायः देखा है कि न तो पैदल चलने वालों को तथा न ही वाहन-चालकों को ज़ेब्रा क्रॉसिंग का कोई ज्ञान होता है (होता है तो भी वे उसे महत्व नहीं देते)। विगत कुछ वर्षों से विशाखापट्टणम में निवास करते हुए तो मैं यह दिन-प्रतिदिन देखता हूँ कि प्रथम तो ज़ेब्रा क्रॉसिंग यदि धुंधली हो गई हो अथवा मिट गई हो तो उसे ठीक से पुनः बनाया ही नहीं जाता, द्वितीय यह कि यदि वह ठीक से दिखाई दे रही हो एवं कोई पैदल यात्री उस पर से ड़क पार कर रहा हो तो भी वाहन-चालकों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा वे उसी भांति तीव्र गति से वाहन चलाते हुए आते हैं कि वह पैदल चलने वाला अभागा यदि स्वयं सावधान न रहे तो वे उसे कुचल कर ही मानें। यह है विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश (जी हाँ, इस मामले में अब हम चीन को भी पीछे छोड़ रहे हैं) तथा उसके एक राज्य से भी छोटे एवं मात्र सात-आठ लाख की जनसंख्या वाले देश का अंतर। वहाँ जुर्माने होते हैं (जिसकी नौबत बहुत ही कम आती है) जबकि हमारे यहाँ रिश्वतख़ोरों की जेबें भरती हैं (या बेगुनाहों को पकड़कर 'टारगेट' पूरे किए जाते हैं)। वहाँ स्वच्छता है, यहाँ गंदगी (अभिजात्य वर्ग के आवासीय क्षेत्रों को अनदेखा कर दें तो)। वहाँ के नागरिक कर्तव्यपरायण हैं, यहाँ के (तथाकथित रूप से सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों सहित) अधिसंख्य नागरिकों को अपने कर्तव्यों की सुध ही नहीं। हाँ, अपनी वतनपरस्ती का ढोल हम (वक़्त-बेवक़्त) बराबर बजाते रहते हैं। आप भारत-भूटान सीमा पर एक ही दृष्टि में इस अंतर को देख सकते हैं। सीमा-रेखा के उस ओर न भिक्षुक हैं (यद्यपि भगवान बुद्ध की सभी प्रतिमाओं में उनके हस्त में भिक्षापात्र बनाया जाता है), न कोई अस्वच्छ्ता, न यातायात की कोई अनुशासनहीनता जबकि सीमा-रेखा के इस ओर अपने देश में आते ही आपके पास मंगते आ जाते हैं; आप अस्वच्छता, कानफोड़ू कोलाहल एवं अनियंत्रित यातायात के मध्य में स्वयं को पाते हैं तथा तीन दिशाओं से यह अनुभूति आपके निकट चली आती है कि संभल जाइए, अब आप भारत में हैं। 

और हाँ, भूटान में हमने ढेर सारी गोरैया देखीं जिनके संबंध में भारत में 'गोरैया दिवस' पर बस कविताएं ही लिखी जाती हैं, उनके दर्शन अब दुर्लभ ही हैं। 

आभार मेरी पुत्री का जिसने अपने माता-पिता एवं लघुभ्राता हेतु इस मनभावन एवं अविस्मरणीय यात्रा का प्रबंध किया। 

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

वतन का नाम रौशन करने वाली बेटियों का मुश्किल दंगल

लिखना-पढ़ना दोनों ही तक़रीबन छोड़ चुका हूँ। मगर आज रहा नहीं जा रहा। दिल में जो घुमड़ रहा है, उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में न उतारा तो यह उस क़लम के साथ बेईमानी होगी जिसने मुझे हमेशा ही सुकून बख़्शा है। मुझे क़लम उठाने पर मजबूर कर दिया है हिन्दुस्तान की उन बेटियों ने जो दुनिया में अपने वतन का नाम रौशन करने के बावजूद उसी वतन में इंसाफ़ की गुहार लगाती हुईं देहली की ज़मीन पर बैठी हैं, बेतहाशा गर्मी में भी खुले आसमान के नीचे सो रही हैं और मुल्क के निज़ाम से बार-बार कह रही हैं - हमने तो हमेशा मुल्क का नाम रौशन ही करना चाहा है, हमारी आवाज़ भी तो सुनो। 

यह है मेरा देश जहाँ नेता 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो दे सकते हैं लेकिन उन्हीं बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की ज़िन्दगी देने में उन्हें मौत आने लगती है। यह देखना पड़ने लग जाता है कि बेटियों की इज़्ज़त पर नज़र गड़ाए बैठा शख़्स कोई वोटों का सौदागर तो नहीं जिसके बरख़िलाफ़ जाने पर वोटों का नुक़सान हो सकता हो। दूसरी पार्टी का होता तो अब तक सींखचों के पीछे होता पर अपनी पार्टी का है तो क्या करें ? चुनावी जीत और सत्ता से बढ़कर क्या है ? कुछ नहीं ! वतन की बेटियों की इज़्ज़त भी नहीं। अब हिन्दुस्तान की ये बेयारोमददगार बेटियां करें तो क्या करें ? कौन है इनका मुहाफ़िज़ ? किससे उम्मीद की जा सकती है इस बाबत ? मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री के देश में इन बेटियों के मन की पीड़ा का स्वर मानो नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गया है। 

कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी फ़िल्म 'दंगल' की समीक्षा में मैंने कहा था कि महावीर सिंह फोगाट की दो बेटियों गीता और बबीता की सफलता की यह कहानी केवल एक फ़िल्म नहींएक सामाजिक अभिलेख है, एक महागाथा है भारतीय ललनाओं की अथाह प्रतिभा की और सभी बाधाओं को पार करके गंतव्य तक पहुँचने के उनके अदम्य साहस और स्पृहणीय जीवट की । आज गीता और बबीता की चचेरी बहन विनेश संघर्ष कर रही है अपनी अन्य पहलवान बहनों के साथ उस जंगल में जिसे हम 'भारतीय व्यवस्था' कह सकते हैं - एक क्रूर व्यवस्था, एक हृदयहीन व्यवस्था जिसमें न्याय तो न्याय, संवेदना के निमित्त भी कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता। 

छह अगस्त दो हज़ार सोलह को सभी भारतीय उस समय प्रसन्नता से झूम उठे थे जब साक्षी मलिक ने रियो ओलम्पिक में महिला कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया था। रियो ओलंपिक में कुल मिलाकर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था एवं केवल दो ही पदक प्राप्त हो सके थे जो महिला खिलाड़ियों ने ही जीते थे (दूसरा पदक पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में जीता था)। ऐसे में साक्षी की सफलता सम्पूर्ण देश की कन्याओं हेतु प्रेरणा बन गई थी। आज वही साक्षी कड़ी धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठी है ताकि उसे तथा उस जैसी अन्य उत्पीड़ित महिला पहलवानों को न्याय मिले। क्या मिलेगा

बहुत दुख होता है यह देखकर कि देश की इन प्रतिभाशाली किन्तु पीड़ित बेटियों का साथ देने वाले बहुत कम हैं। सत्ता से तो आशा ही क्या होती, निराशा तो समाज से हो रही है। विनेश की चचेरी बहन बबीता तो अब सत्ताधारी दल का ही अंग हैं। क्या वे सत्ता को (अथवा सत्ताधारी दल को) इस दिशा में जागृत कर सकेंगी ? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहेंगी क्योंकि राजनीति सब कुछ लील जाती है - कला, साहित्य, पत्रकारिता, खेल, समाज-सेवा और यहाँ तक कि मानवता को भी। यह काजल की वो कोठरी है जिसमें जाकर कोई कलाकार नहीं रहता, साहित्यकार नहीं रहता, पत्रकार नहीं रहता, खिलाड़ी नहीं रहतासमाज-सेवी नहीं रहता; प्रत्येक प्रतिभा कलंकित हो जाती है (एक लीक काजर की लागि है पै लागि है) और बचती है केवल घात-प्रतिघात की राजनीति। और मीडिया ? वह तो कभी का सत्ता के हाथों बिक चुका है। 

मैं नमन करता हूँ बजरंग पूनिया तथा रवि दहिया जैसे पहलवानों को जो अपनी बहनों को न्याय दिलाने के लिए (अपना फलता-फूलता खेल-जीवन दांव पर लगाकर भी) उनके साथ हैं तथा इस संघर्ष में उन्हें एकाकी नहीं पड़ने दे रहे। नारी-मुक्ति का शोर मचाने वालियों को यदि इन पुरुषों का नैतिक साहस देखकर भी लज्जा नहीं आ रही है तथा वे जंतर-मंतर पर बैठी उत्पीड़ित प्रतिभाओं के समर्थन में आगे नहीं आ रही हैं तो धिक्कार है उन पर !

देश की अनमोल धरोहर ये बेटियां कोई पहली बार न्याय हेतु धरने पर नहीं बैठी हैं। असह्य गर्मी से पूर्व वे असह्य सर्दी में भी ऐसा कर चुकी हैं। तब इन भोली-भाली बच्चियों को एक समिति बनाकर भरमाया गया था यह कहकर कि समिति की जाँच के अनुरूप उन्हें न्याय प्रदान करने के निमित्त उचित क़दम उठाए जाएंगे। धोखा हुआ इनके साथ। समिति ने क्या जाँच की और क्या रिपोर्ट दी, यह प्रकाश में ही नहीं आने दिया गया। हालत यह है कि सत्ता के इशारों पर नाचती पुलिस इन बच्चियों के द्वारा की जा रही अपने उत्पीड़न की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ़.आई.आर.) दर्ज़ करने जैसा मामूली काम भी नहीं कर रही है। अगर देश की चैम्पियन बेटियों को अपने साथ हुए अत्याचार की एफ़.आई.आर. लिखवाने के लिए भी धरना देना पड़े तो कैसे कहें - मेरा भारत महान ? क्या 'दंगल' फ़िल्म में 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के ?' पूछने वाले आमिर ख़ान (तथा उनके साथ मिलकर 'दंगल' का निर्माण करने वाला पूरा दल) इस संदर्भ में कोई टिप्पणी करना चाहेंगे ? हिम्मत बची है उनमें ? या सत्ता के ख़ौफ़ ने उनके भीतर की आग को बुझा दिया है। 

अब कौन माता-पिता अपनी बेटियों को जीवन में आगे बढ़ने हेतु खेल प्रशिक्षण केन्द्रों में निस्संकोच जाने देंगे ? कौन माता-पिता खेल के मैदान में प्रगति करने हेतु घर से दूर जाने वाली अपनी बच्चियों की सुरक्षा के निमित्त चिंतित नहीं होंगे ? क्या अब माता-पिता अपनी बेटियों को यह कहकर रोकेंगे नहीं कि बेटा, ठहर जाओ, आगे ख़तरा है ? और जब ओलंपिक, विश्व चैम्पियनशिप, एशियाई खेल तथा राष्ट्रमंडल खेल जैसी प्रतियोगिताओं में देश के लिए पदक जीतने वालों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो सामान्य उत्पीड़ितों (तथा उत्पीड़िताओं) के लिए क्या उम्मीद रहती है, सहज ही समझा जा सकता है। 

श्रेष्ठ कवि-कवयित्रियों से सुसंपन्न ब्लॉग जगत के इस संदर्भ में चुप्पी साधे रहने के विषय में मेरा कुछ न कहना ही सब कुछ कह देने हेतु पर्याप्त रहेगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे भी इस परिप्रेक्ष्य में अपनी पीड़ा मैं अपनी विगत पोस्ट में ही अभिव्यक्त कर चुका हूँ। 

बहुत मुश्किल है यह दंगल विनेश, साक्षी और उनकी साथी बहनों (तथा उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े उनके पहलवान भाइयों) के लिए क्योंकि यहाँ उनके सामने उनके जैसे प्रतिस्पर्द्धी नहीं हैं, व्यवस्था है जो बहुत शक्तिशाली है। क्या उनका जीवट उस ताक़त से लोहा ले सकेगा जो कुर्सियों में होती है (और है) ?

भारत के प्रधानमंत्री तक जिनसे हँस-हँसकर बातें कर चुके हैं, जिन्हें सम्मानित कर चुके हैं, जिन्हें राष्ट्र के युवाओं हेतु प्रेरणा-स्रोत बता चुके हैं; संसार में देश का मान बढ़ाने वाली उन युवा प्रतिभाओं का दर्दभरा स्वर क्या रायसीना की पहाड़ियों में कहीं किसी को सुनाई दे रहा है

कौन जाने ?

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सोमवार, 21 नवंबर 2022

संवेदनशील रचनाएं ! किसके लिए ?

चार दशक से अधिक पुरानी पुस्तकें पढ़ने की आदत एकाएक ही छूट गई। मन में कहीं कुछ ऐसा आघात लगा कि पढ़ना निस्सार प्रतीत होने लगा। समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में अथवा ब्लॉग जगत पर भी कुछ पढ़ने को अब जी नहीं करता। लिखना भी अब न के बराबर ही है। फिर भी लिखना शायद इसलिए जारी रहेगा कि यह मेरे लिए अपने मन की घुटन को अल्फ़ाज़ के ज़रिये बाहर निकाल देने का काम करता है। मैंने औरों के पढ़ने के लिए बहुत कम लिखा है। प्रायः आत्मसंतोष के निमित्त ही लिखता हूँ। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि लिखकर इंटरनेट पर डाला ही नहीं, बस लिखा और ख़ुद ही पढ़कर रख दिया - आगे कभी फिर से पढ़ने के लिए। जो कुछ भी लिखकर सार्वजनिक किया; उसे किसी ने पढ़ा तो भी ठीक, न पढ़ा तो भी ठीक। जितनी भी ज़िन्दगी अब बची है, उसमें कुछ  लिखने के लिए तो नज़रिया आगे भी शायद यही रहेगा। 

बचपन में ही समाचार-पत्रों तथा बाल-पत्रिकाओं को पढ़ने का ऐसा व्यसन मनोमस्तिष्क पर चढ़ा कि किशोरावस्था रही हो अथवा युवावस्था अथवा प्रौढ़ावस्था, पढ़ना कभी छूटा ही नहीं। आज अनुभव होता है कि मेरे स्वर्गवासी पिता कितने उदार थे जो परिवार की दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद केवल मेरे पठन के निमित्त प्रत्येक मास छः-सात बाल-पत्रिकाएं घर में आया करती थीं। अख़बार बांटने वाले स्वर्गीय गोपीलाल मालाकार जी के आगमन की मैं प्रतिदिन उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करता था यह देखने हेतु कि किसी बाल-पत्रिका का नवीन अंक आया है अथवा नहीं। पिता के विद्यालय के पुस्तकालय की भी अधिकांश (संभवतः सभी) पुस्तकें मैंने घर पर ला-लाकर पढ़ डाली थीं (मेरी बाल्यावस्था में मेरे पिता एक राजकीय प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे, यह पाठशाला ग्रामीण क्षेत्र में स्थित एक छोटी-सी पाठशाला थी जिसमें दो ही अध्यापक होते थे तथा मेरे पिता प्रधानाध्यापक होते हुए भी तृतीय श्रेणी की वेतन-शृंखला के अंतर्गत ही थे)। कुछ वर्षों के उपरांत महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की तो महाविद्यालय के पुस्तकालय से भी हिन्दी साहित्य की पुस्तकें निर्गमित करवा-करवाकर पढ़ता रहा। किराये पर भी बहुत सारे बाल उपन्यास तथा कॉमिक पुस्तकें ले-लेकर पढ़ीं (उन दिनों बहुत कम दैनिक किराये पर पुस्तकें देने वाली दुकानें चला करती थीं)। इसी  समयावधि में (अर्थात् अपने विद्यार्थी जीवन में) अपने कस्बे में स्थित सार्वजनिक पुस्तकालय (वाचनालय) में नियमित रूप से जाता रहा तथा पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहा। कोलकाता (कलकत्ता) में रहकर उच्च-शिक्षा प्राप्त करने की अवधि में भी अपने निवास (चित्तरंजन एवेन्यू) के निकटस्थ 'बड़ा बाज़ार' में संध्या को फ़ुटपाथ पर उपन्यासों के ढेर लगाकर बैठने वालों से ले-लेकर दर्ज़नों उपन्यास पढ़े। दो अंग्रेज़ी के तथा एक हिन्दी का समाचार-पत्र तो उन दिनों नियमित रूप से पढ़ता ही था। कहते हैं, शक्करख़ोरे को शक्कर और मूज़ी को टक्कर मिल ही जाती है। जब पहली नौकरी लगी (राजस्थान में सिरोही ज़िले में स्थित लक्ष्मी सीमेंट में) तो वहाँ भी अधिकारियों के क्लब तथा कार्मिकों के मनोरंजन केन्द्र में समृद्ध पुस्तकालय मिले जिनमें हिन्दी की ढेरों पुस्तकें थीं तो पढ़ने का शौक़ पूरा होता ही रहा, कोई कसर नहीं रही। फिर जीवन में चाहे जहाँ रहा, गद्य एवं पद्य दोनों ही की तथा हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं की पुस्तकें जमकर पढ़ीं। लुगदी साहित्य से लेकर उत्कृष्ट साहित्य एवं ज्ञानवर्धक पुस्तकें सभी पढ़ीं। हिन्दी तथा अंग्रेज़ी की पाक्षिक पत्रिकाएं पढ़ना भी दशकों तक जारी रहा। भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देने हेतु मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र को अपने वैकल्पिक विषयों के रूप में चुना तो अध्यवसाय और अधिक बढ़ा तथा पठित सामग्री में और भी विविधता आई। जब सूझा कि कुछ लिखने का भी प्रयास किया जाए तो शीघ्र ही समझ में आ गया कि कविता हो अथवा शायरी, मेरे वश की नहीं थी। अतः गद्य में लिखने पर ही ध्यान लगाया। पर यह पढ़ने-लिखने का चस्का सन दो हज़ार बाईस में आकर मेरे मन से हटने क्यूं लगा ? 

संसार एवं समाज की अधिकतर समस्याओं व दुखों का कारण जो मैंने समझा है, वह है मानव में संवेदना का अभाव अथवा उसकी अल्पता। यह संवेदनहीनता ही है जो मनुष्य को अत्याचारी एवं अन्यायी बनाती है तथा यह संवेदनहीनता ही है जो प्रायः तथाकथित तटस्थ व्यक्तियों में दृष्टिगोचर होती है। सत्य से नेत्र मूंदकर स्वयं को तटस्थ मान लेने से वस्तुस्थिति परिवर्तित नहीं होती है। भले लोगों की तटस्थता ही बुरे लोगों को (या यूँ कहिये कि बुराई को) विजयी बनाती है। यह संवेदनहीनता का ही एक रूप है। बालकों में एक स्वाभाविक संवेदनशीलता होती है जो बड़े होने के साथ-साथ घटती चली जाती है क्योंकि यह समाज ही है जो सफलता को संवेदना पर वरीयता देता है तथा बालगोपालों से उनकी निर्दोषिता छीन लेता है (और इसी को समाजीकरण बताकर आप ही अपनी पीठ भी थपथपाता है)। राजेश रेड्डी साहब की एक मशहूर ग़ज़ल का एक शेर है - 

मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है

जब जयजयकार सफलता की हो, संवेदनशीलता की नहीं तो संवेदना स्वतः ही पार्श्व में चली जाती है जबकि सफलता का जादू सर चढ़कर बोलता है। तथापि संवेदना का उदात्त भाव जितना असहाय आज है, उतना पूर्व में नहीं था (जब तथाकथित उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण ने अपने पग नहीं पसारे थे तथा उपभोक्तावाद को सर्वोपरि नहीं बनाया था)। तब संवेदनशील व्यक्ति अधिक थे, संवेदनाएं अपने मूर्त रूप में अधिक स्थलों पर दृष्टिगोचर होती थीं तथा प्राणिमात्र के प्रति संवेदना एक सर्वस्वीकार्य जीवन मूल्य था। यह वह समय था जब प्यासों को (नि:शुल्क) जल पिलाने हेतु प्याऊ स्थापित किए जाते थे, मिनरल वाटर की बोतलें एवं पाउच नहीं बेचे जाते थे। 

मैं पहले यह समझा करता था कि साहित्यकार (कवि एवं लेखक) तथा कलावंत संवेदनशील होते हैं। अंग्रेज़ी में मोपासां, ओ हेनरी, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, रस्किन बांड, गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की रचनाएं पढ़ीं; हिन्दी में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, यशपाल, उषा प्रियंवदा आदि की कृतियां पढ़ीं; मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह दिनकर. हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगलसिंह सुमन, जयशंकर प्रसाद आदि की कविताएं भी पढ़ीं एवं काव्य भी पढ़े। बच्चन जी की सुदीर्घ आत्मकथा (चार खंडों में) भी पढ़ी। बांग्ला के मूर्धन्य लेखकों एवं लेखिकाओं (बिमल मित्र, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, आशापूर्णा देवी आदि) की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी पढ़े। उर्दू साहित्य की भी कई कृतियों के देवनागरी संस्करण पढ़े। और लुगदी अथवा लोकप्रिय साहित्य में अगाथा क्रिस्टी, आर्थर कॉनन डॉयल, सिडनी शेल्डन, जॉन ग्रिशम, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, कर्नल रंजीत, टाइगर आदि की रहस्यकथाओं एवं थ्रिलरों के साथ-साथ गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त, रानू, प्रेम बाजपेयी, राजहंस आदि की सामाजिक रचनाओं को भी पढ़ने में कोई कोरकसर बाक़ी नहीं रखी। हिन्दी के लुगदी साहित्य में तो इतने नामों के (वास्तविक एवं छद्म, दोनों नाम वाले) लेखकों को पढ़ा कि सभी के नाम स्मरण रखना ही व्यवहारतः संभव नहीं। गोपालदास नीरज के गीत भी पढ़े तो ग़ालिब, फ़िराक़, दुष्यन्त कुमार, कुँअर बेचैन, परवीन शाकिर आदि की शायरी से भी नाता जोड़ा। संगीत में भी मन रमाया (चाहे सीख न सका) और सिनेमा-प्रेमी भी बना। लगा कि संवेदनशील कृतियों का सृजन करने वाले सृजनधर्मी स्वयं तो संवेदनशील होंगे ही। 

किसी सीमा तक यह बात मुझे आज भी सत्य के निकट लगती है जब ज़िक्र उस वक़्त का हो जो बीत चुका है। ज़िन्दगी को नज़दीक से देखे बिना प्रेमचंद, यशपाल, बिमल मित्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, उषा प्रियंवदा, महादेवी वर्मा आदि अपनी कालजयी रचनाओं का सृजन नहीं कर सकते थे। न ही गुरु दत्त 'प्यासा' और 'काग़ज़ के फूल' जैसी अमर कृतियां रजतपट पर प्रस्तुत कर सकते थे यदि उन्होंने जीवन एवं संसार को निकट से न जाना होता। लेकिन अब ...

अब धीरे-धीरे ज़िन्दगी के तजुर्बात से गुज़रते-गुज़रते मुझे समझ में आ गया है कि अन्य विधाओं की भांति ही कला एवं साहित्य से सम्बद्ध विधाएं भी कुछ नैसर्गिक प्रतिभा एवं कुछ अभ्यास के आधार पर ही अवस्थित होती हैं जिसका संवेदनशीलता से नाता होना आवश्यक नहीं। चाहे कलाकार (गायक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि) हों अथवा साहित्यकार (लेखक, कवि, नाटककार आदि); मानवीय राग-द्वेष-ईर्ष्या तथा अन्य विकारों से उसी भांति ग्रसित होते हैं जिस भांति अन्य प्रकार के सामान्य मानवगण। वे बातें चाहे जितनी परहित की करें, प्रधान उनके लिए भी निज हित ही होता है (अपवादों को छोड़कर)। कला तथा साहित्य से संबंधित संस्थाओं एवं मंचों में क्षुद्र राजनीति होने का और क्या कारण हो सकता है ? एक बार मैंने बांग्ला एवं अंग्रेज़ी की मूर्धन्य कवयित्री, लेखिका एवं समीक्षिका (वे उच्च कोटि की गायिका भी हैं) गीताश्री चटर्जी से अपना यह विचार साझा किया था तो उन्होंने इससे सहमति ही जताई थी। अंततः कला एवं साहित्य से आबद्ध मनुष्यों के बहुमत को भी सांसारिक सफलता (जिसमें भौतिक सुख-सुविधाएं तथा लोकप्रियता दोनों ही समाहित होती हैं) ही चाहिए। इसीलिए ऐसे व्यक्ति केवल विशुद्ध प्रतिभा के अवलम्ब पर नहीं चलते, भौतिक जगत में वांछित परिणाम देने वाले उपायों का भी अनुसरण करते हैं चाहे वे उनके घोषित आदर्शों के अनुरूप न हों। अन्यथा कविवर निराला एवं कवि प्रदीप की भांति घोर ग़रीबी का सामना करना पड़ सकता है। बानवे वर्ष से अधिक की आयु पाने वाली लता मंगेशकर के निधन पर श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ जाती है जबकि मात्र बयालीस वर्ष की अवस्था में आर्थिक तंगी के मध्य प्राण त्याग देने वाली गीता दत्त को स्मरण करके पता नहीं किसी के मन में हूक भी उठती है या नहीं। जो सफल है, वही अभिनंदनीय है, वही पूज्य है। संवेदनाएं भी उसी की (चाहे वास्तविक हों या प्रदर्शनी) देखी और सराही जाती हैं।

मैंने हमेशा अच्छा इंसान होने को कामयाब इंसान होने पर तरजीह दी लेकिन ज़िन्दगी का ज़्यादातर हिस्सा बीत जाने पर (बहुत देर से) इस हक़ीक़त को समझ पाया कि दुनिया का चलन ऐसा है जिसमें अच्छे की अच्छाई और सच्चे की सच्चाई ही उसकी दुश्मन बन जाती है। संसार सफलता को पूजता है, सद्गुणों को नहीं (यद्यपि सैद्धांतिक रूप से ढोल सद्गुणों का ही बजाया जाता है)। मैं स्वयं को संवेदनशील मानता हूँ। क्या मैंने जीवन भर जो संवेदनशील रचनाएं पढ़ीं या सुनीं या देखीं, उन्होंने मुझे संवेदनशील बनाया ? नहीं ! उन्होंने मेरी उस संवेदनशीलता से संवाद स्थापित किया जो सदा से मेरे भीतर थी। इसीलिए अनेक संवेदनशील रचनाओं को पढ़कर मेरा मन आर्द्र हो उठा - बालपन में भी एवं वयस्क होने पर भी। तलत महमूद साहब के गाए हुए कई गीत और आशा भोंसले जी की गाई हुई कई ग़ज़लें सुनकर मेरी आँखों से जल की धाराएं बह निकलीं। वहीदा रहमान और राजेश खन्ना अभिनीत फ़िल्म 'ख़ामोशी' (१९६९) को मैं कभी बिना रोये पूरा देख ही नहीं सका तो लुगदी साहित्य के नाम से प्रचलित (सुरेन्द्र मोहन पाठक रचित) 'काग़ज़ की नाव' तथा (वेद प्रकाश शर्मा रचित) 'एक कब्र सरहद पर' जैसे उपन्यासों के पठन ने भी मेरे नयनों को अश्रुओं से भर दिया। साहित्य में तो सर्वाधिक प्रेमकथाएं ही रची गई हैं। जब पंडित चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की 'उसने कहा था', जयशंकर प्रसाद जी की 'मदन-मृणालिनी' व 'पुरस्कार',  प्रेमचंद की 'प्रेम की होली' और शरत बाबू की 'मंदिर' जैसी कहानियां पढ़ीं; उषा प्रियंवदा जी कृत 'पचपन खंभे लाल दीवारें', गुलशन नंदा कृत 'जलती चट्टान', 'देव-छाया', 'सिसकते साज़' व 'सूखे पेड़ सब्ज़ पत्ते'; सुरेन्द्र मोहन पाठक कृत 'तीन दिन' और वेद प्रकाश शर्मा कृत 'सुहाग से बड़ा' जैसे उपन्यास पढ़े; 'राजस्थान पत्रिका' में धारावाही रूप से प्रकाशित अनंत कुशवाहा कृत 'जंतर बजता रहा', 'धोरों में दफ़न अमरप्रीत' और 'क्यूं ना जोही बाट' जैसी दुखांत प्रेम की गाथा कहने वाली चित्रकथाओं का अवलोकन किया तथा 'गूंज उठी शहनाई' (१९५९), 'सेहरा' (१९६३), 'दो बदन' (१९६६), 'मिलन' (१९६७), 'टाइटैनिक' (१९९७) और 'गैंगस्टर' (२००६)  जैसी फ़िल्में देखीं तो मन में यही ख़याल आया कि सच्चे मन से प्रेम करने वालों के भाग्य में वियोग नहीं होना चाहिए (केवल प्रेमी-प्रेमिका ही नहीं, अन्य रूपों में प्रेम करने वालों के संदर्भ में भी)। जूते-चप्पल, मोज़े या दस्तानों के किसी जोड़े में से भी एक खो जाता है तो मेरे मन में कसक-सी उठती है। लेकिन ...

लेकिन संवेदनशील रचनाओं के तो मुझ जैसे लाखोंकरोड़ों उपभोक्ता (पढ़ने, सुनने या देखने वाले) होते हैं। संवेदनशील रचनाएं उन पर कितना प्रभाव डालती हैं ? आज अपने अब तक के जीवन के सम्पूर्ण अनुभव को निचोड़ कर मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि वे उन्हीं को प्रभावित करती हैं, उन्हीं को पसंद आती हैं, उन्हीं की स्मृति का अंग बनती हैं जो पहले से ही संवेदनशील होते हैं। संवेदनहीन व्यक्ति या तो कला एवं साहित्य में अभिरुचि ही नहीं रखते या उतनी ही रखते हैं जितनी क्षणिक मनोरंजन हेतु आवश्यक हो। संवेदनशील कृतियों का प्रभाव उन पर उतना ही रहता है जितना चिकने घड़े पर पानी ठहरता है। संवेदना से ओतप्रोत सृजन को देखने या सुनने या पढ़ने से यदि किसी का मन भर आता है, हृदय विगलित हो उठता है तथा उस संप्रेषित संवेदना को वह अपने भीतर अनुभव करता है (या करती है) तो इसका अर्थ यही है कि वह दर्शक या श्रोता या पाठक मूल रूप से ही एक संवेदनशील मनुष्य है। संवेदनशील व्यक्ति का मन ही किसी रचना की संवेदना को अनुभूत कर सकता है, इसके निमित्त उस व्यक्ति का स्वयं कोई कलाकार अथवा लेखक अथवा कवि होना आवश्यक नहीं। 

मैंने अपना संवेदनशील स्वभाव अपने पिता से पाया जो किसी के भी दुख-दर्द से पिघल जाया करते थे एवं अपनी दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद जितनी सहायता जिस रूप में भी ऐसे किसी व्यक्ति की कर सकते थे, किया करते थे। लेकिन उनकी तो न साहित्य में रुचि थी, न संगीत में, न सिनेमा में और न ही अन्य ललित कलाओं में। और मैंने आयु के व्यतीत होने के साथ-साथ ऐसे कितने ही उच्च कोटि के कवि, श्रेष्ठ लेखक, मधुर गायक एवं अन्य विविध श्रेणियों के कलावंत देखे जिन्हें अपने निहित स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में रुचि नहीं थी। उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में अपने प्रतिद्वंद्वी फूटी आँख नहीं सुहाते थे। और वे भौतिक सफलता प्राप्त करने हेतु अपने स्वाभिमान सहित किसी भी वस्तु एवं संबंध का परित्याग कर सकते थे। दूसरे की सफलता पर उनकी बधाई तथा दूसरे व्यक्ति की किसी भी बात हेतु उनकी प्रशंसा (स्पष्टतः) प्रदर्शन हेतु ही होती थी; मन से न वे बधाई देते थे, न प्रशंसा करते थे (वे आज भी वैसे ही हैं)। तो साहित्यकार अथवा कलावंत के रूप में जो संवेदनाएं उनमें अपेक्षित थीं, वे कहाँ गईं ? थीं भी या नहीं ? 

महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी की अमर पंक्तियां हैं - वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान; निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। पंत जी ने अपने समय के काव्य-सृजन की प्रवृत्ति के अनुरूप सत्यवदन ही किया था। हरिवंशराय बच्चन की अनेक भावुक कविताएं पहले उनकी प्रेयसी (जिसे आज की पीढ़ी soulmate कहती है) चम्पा एवं तदोपरान्त उनकी प्राणप्यारी अर्द्धांगिनी श्यामा के वियोग (अकाल मृत्यु) से ही उपजी थीं एवं यदि यह कहा जाए कि उन दोनों स्त्रियों के दुखांत ने ही उन्हें एक असाधारण कवि बनाया तो असत्य नहीं होगा। 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत' एवं 'आकुल अंतर' में संग्रहीत कविताएं उनकी सच्ची संवेदना की ही अभिव्यक्ति थीं। किन्तु आज अपवादों को छोड़कर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि (हिन्दी भाषा) के कवि-कवयित्रियां जो थोक के भाव में कविताएं रचते हैं, मंचों पर सम्मान पाते हैं एवं समय-समय पर अपने काव्य-संग्रह प्रकाशित करवाते हैं, उनकी रचनाएं संवेदनोद्भूत होती हैं। 

स्वर्गीया डॉ. वर्षा सिंह ने अपने देहावसान से कुछ ही समय पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख (कवि बनने का फ़ैशन बनाम पैशन) में इस तथ्य को रेखांकित किया है - काव्य-सृजन को लोग बहुत हलके ढंग से लेते हैं, शायद वे गंभीर होकर सृजन करना ही नहीं चाहते जबकि काव्य-सृजन एक गंभीर कार्य है; कोई भी सर्जक तब तक सृजन नहीं कर सकता है जब तक कि उसमें भावनाओं का विपुल उद्वेग न हो; जीवन की समस्त चेष्टाएं दो भागों में बंटी होती हैं - स्वहित और परहित जिनके बीच मनुष्यत्व की एक बारीक-सी रेखा होती है और जब यह रेखा मिट जाती है तो स्वहित और परहित एकाकार हो जाता है और यहीं मिलता है साहित्य का प्रस्थान बिन्दु जहाँ व्यक्ति की भावनाएं सकल संसार के हित में विचरण करने लगती हैं जिसमें धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, रंग के भेद मिट जाते हैं।

मैं वर्षा जी के उपर्युक्त उद्गारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मेरा भी यही मानना है कि संवेदना निष्पक्ष होती है। संवेदनशील व्यक्ति वही है जो बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के पराये दर्द को अपना ले। संवेदनशीलता हृदय में होती है - कला अथवा प्रतिभा में नहीं। प्रतिभा से बहुत कुछ रचा जा सकता है किन्तु संवेदनशीलता से बिना कुछ रचे भी किसी के दुख-दर्द को बाँटा जा सकता है। अनुभूति कला पर निर्भर नहीं। और जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'कविता क्या है' में प्रतिपादित किया था - जीवन की अनुभूति ही कविता है (यह तथ्य संवेदना से ओतप्रोत कथा पर भी लागू होता है)। लेकिन जब सृजन करने वाले ही निष्पक्ष न हों तथा उनकी अभिव्यक्तियां धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, वर्ण, प्रांत अथवा उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से प्रभावित होती हों तो उनकी अनुभूति का भी शुद्ध होना संभव नहीं। क्या लाभ ऐसे सृजन का समाज के निमित्त, समष्टि के निमित्त, सृष्टि के निमित्त ? कोरी प्रतिभा (और अभ्यास) से बहुत कुछ रचा तो जा सकता है लेकिन जैसा कि एक शायर ने कहा है - 

लाख जौहर हों आदमी में मगर
आदमीयत नहीं तो कुछ भी नहीं

अस्तु संवेदनशील रचनाएं उन्हीं के लिए होती हैं जो उन्हें पढ़े (या सुने या देखे) बिना भी संवेदनशील होते हैं क्योंकि वे ही उनसे प्रभावित हो सकते हैं, संवेदना से शून्य व्यक्ति नहीं। वास्तविक अर्थों में संवेदनशील व्यक्ति वही होता (या होती) है जो न केवल अपनी संवेदनाओं के संदर्भ में निष्पक्ष हो वरन अपने शत्रुओं से भी घृणा न करे। इसीलिए सलीब पर चढ़ा दिये जाने वाले ईसा मसीह और प्रार्थना सभा में गोलियों से भून दिए जाने वाले महात्मा गांधी का सिद्धांत यही था - पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। संवेदनशील व्यक्ति न्याय का समर्थक होता है, प्रतिशोध का नहीं। वह स्वयं दुख सह सकता है, किसी को दुख दे नहीं सकता। इसीलिए ऐसे व्यक्ति का जीना सरल नहीं होता। बहुत सुना था मैंने कि दुनिया है दिलवालों की लेकिन सच्चाई यही है कि यह दुनिया दिमाग़ वालों की ही है जहाँ या तो कामयाबी को पूजा जाता है या फिर दिखावे और पाखंड को। यहाँ प्यार पर पहरे लगाए जाते हैं लेकिन नफ़रत करने की ख़ुली छूट दी जाती है। दिलवाले ही संवेदनशील होते हैं जो ताज़िन्दगी दूसरों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाते रहते हैं, किसी को ज़ख़्म देते नहीं; जो सारे जहाँ का दर्द अपने जिगर में रखते हैं चाहे उनका अपना हमदर्द कोई न हो। और जहाँ तक उनके अपने मुक़द्दर का सवाल है, उसे बयां करने के लिए एक शायर के ये अशआर ही काफ़ी हैं -

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल, तुझको कौन संभालेगा ?
ऐ मेरे बचपन के साथी, मेरे साथ ही मर जाना  

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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

सत्य और न्याय ! कितने असहाय !

मुण्डकोपनिषद के एक श्लोक की सर्वज्ञात पंक्ति है - सत्यमेव जयते नानृतम। इसका अर्थ है कि सदा सत्य ही विजयी होता है, न कि असत्य। भारत के संविधान-निर्माताओं ने इसके एक भाग 'सत्यमेव जयते' को हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न का एक अंग बनाया तथा इसे हमारे न्यायालयों में भी न्यायासन के पश्च भाग पर (प्रायः) उल्लिखित देखा जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजीवन सत्य के पथ पर चलने का निर्णय लिया तथा सत्य को ही ईश्वर का रूप माना। आज से कुछ दशक पूर्व जब मुझ जैसे व्यक्ति बाल्यावस्था में थे तो हमारी (हिन्दी माध्यम की) पाठ्यपुस्तकों में सद्गुणों पर बल देने वाले पाठ पढ़ाए जाते थे। इन सद्गुणों में सत्य बोलना (एवं उसके पथ पर चलना) भी सम्मिलित होता था। मैंने उसी काल में इस बात को अपने मन में भीतर तक स्थापित कर लिया। किन्तु जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया और अपने चारों ओर उपस्थित संसार को देखता-समझता गया, मुझे धीरे-धीरे ही सही, यह वास्तविकता अनुभूत होती गई कि सत्य की विजय होती तो है परंतु सदा नहीं। मुझे यह भी सूझा कि सत्य का पथ पुष्पाच्छादित नहीं होता, कंटकाकीर्ण होता है जिस पर चलना बड़े साहस का कार्य है। असत्यवादियों एवं अन्याय के समर्थकों से घिरे रहकर सत्य का अनुसरण अत्यधिक कठिन होता है, यह बात देरसवेर सत्य का पथिक (मेरी तरह) समझ ही लेता है। चाणक्य शतकम् के एक श्लोक में उक्त है - चौराणाम् अनृतम बलम् अर्थात् चोरों का बल झूठ है। इसी बल से वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य प्रमाणित कर देते हैं तथा सच्चे व्यक्ति के मनोबल को तोड़ देते हैं। सम्भवतः इसीलिए यह चोरों का ही युग है। यह अपने आप में ही एक कटु सत्य है कि - 

यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है 
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है 

सत्य के सच्चे पथिक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होंने मूलतः तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इन पंक्तियों को आत्मसात् करके चलना आरंभ किया था - यदि आपकी पुकार सुनकर कोई साथ न आए तो अकेले ही चलो - भी अंततः टूट गए थे। पूर्व में दीर्घायु होने के आकांक्षी बापू का अपने अंतिम वर्षों में जीवन से मोहभंग हो गया था। वे देख चुके थे कि लोग उनकी पूजा तो करते थे, उनके बताए हुए पथ पर नहीं चलना चाहते थे। किसी पर स्वार्थ हावी हो गया था तो किसी पर निजी दुख से भरी भावनाएं तो किसी पर उसकी कोई विवशता। यहाँ तक कि किसी-किसी का उनके विचारों से विश्वास ही उठ गया था (चाहे उसने कहा न हो)। बापू सब देख-सुन-समझ रहे थे पर अब वे जो हो रहा था, उसे रोकने हेतु कर कुछ नहीं सकते थे। सत्य सहित उनके सभी सिद्धांत घायल होकर कराह रहे थे जिनकी पीड़ा का स्वर भी अब बधिर कानों पर ही पड़ रहा था। वे तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को नहीं मरे, भीतर से वे बहुत पहले ही मर चुके थे। मेरी दिवंगत माताजी अपने पिता (मेरे नाना) के साथ उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुई थीं। सम्भवतः इस तथ्य का भी कुछ प्रभाव मेरे अपने व्यक्तित्व पर पड़ा हो। पर जब हृदय के सत्य का साक्षात् संसार के सत्य से हुआ तो जो मैंने पाया उससे मैं हतप्रभ रह गया। अपने विद्यार्थी जीवन से लेकर अपने कार्यशील जीवन (करियर) तक विगत अनेक दशकों में मैंने सत्य को (लगभग) प्रत्येक चरण पर एवं प्रत्येक स्थिति में पराजित होते हुए देखा और ... और आज भी देखता हूँ। ऐसे में 'सत्यमेव जयते' की उक्ति पर मैं कैसे विश्वास करूं ?

न्याय सत्य का ही एक पक्ष है क्योंकि अन्याय होने का अर्थ ही है सत्य पर प्रहार होना। अतः सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा ही न्याय है। यदि सचमुच कभी सतयुग रहा होगा तो उसमें अन्याय अनुपस्थित ही रहा होगा। न्यायालय की दीवार पर 'सत्यमेव जयते' लिखे जाने का अभिप्राय ही यही है कि न्याय सत्य में ही समाहित है। सत्य की जय होगी तो न्याय की जय स्वतः ही हो जाएगी। सत्य की पराजय ही अन्याय की विजय है तथा आदर्श स्थिति यही है कि ऐसा न होने पाए। आज तो सतयुग नहीं है, आज तो कलयुग है। अन्याय दिन-प्रतिदिन होते हैं तथा अन्याय-पीड़ित न्याय की गुहार लगाते रहते हैं। जिसकी गुहार सही स्थान पर सुन ली जाए, उसके लिए कोई आशा रहती है (कभी-न-कभी) न्याय मिलने की और जिसकी गुहार किसी सही स्थान पर न पहुँच सके, उसके लिए घुट-घुटकर मर जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता। बहुत-से अन्याय-पीड़ित (इसमें पीड़िताएं भी सम्मिलित हैं) सम्भवतः इसीलिए आत्मघात कर लेते हैं क्योंकि उन्हें न्याय मिलने की (झूठी ही सही) कोई आशा नहीं रहती। न्याय प्रदान करने की अति-विलम्बित प्रक्रिया भी वस्तुतः अन्यायियों के पक्ष में ही कार्य करती है। आततायी इसीलिए निर्भय होकर अत्याचार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका दुष्कार्य तो तुरंत पूर्ण हो जाएगा किन्तु पीड़ित (या पीड़िता) को न्याय पाने में (अत्यन्त कठिन प्रयास करने पर) वर्षों लगेंगे, हो सकता है कि सम्पूर्ण जीवन ही लग जाए और उस पर भी आवश्यक नहीं कि न्याय मिल ही जाए। अतः यह प्रक्रिया ही निर्दोष के साथ एक प्रकार का प्रच्छन्न अन्याय है जो आततायी को अनुचित बल प्रदान करता है, उसे और अधिक अन्याय एवं अत्याचार करने हेतु दुस्साहसी बनाता है। अति-विलम्ब से हुआ न्याय वस्तुतः न्याय होता भी नहीं क्योंकि दुर्बल हेतु तो देर ही अंधेर है। 

आज का युग बहुमत का युग है तथा जब बहुमत स्वार्थियों का हो तो सत्य एवं न्याय की परवाह कौन करे ? स्वार्थी प्रायः एकत्र होकर असत्य एवं अन्याय का प्रसार करते रहते हैं क्योंकि उनके निहित स्वार्थ उन्हें जोड़े रखते हैं जबकि सत्य के पथिक एवं न्याय की स्थापना हेतु प्रयासरत व्यक्ति प्रायः अकेले पड़ जाते हैं। व्यवस्थाएं क्रूर एवं संवेदनहीन होती हैं जिनमें हाड़-मांस के बने व्यक्तियों के दुख-दर्द से अधिक महत्वपूर्ण निर्जीव नियम एवं तर्कहीन प्रक्रियाएं होती हैं। अतः व्यवस्थाएं प्रायः अपने घोषित उद्देश्यों के विरूद्ध ही कार्य करती हैं। हमारे देश में न्याय बिकाऊ है और इसीलिए वह सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर होता हैं। नामी वकील बड़े महंगे होते हैं जिनकी सेवाएं साधन-सम्पन्न लोग ही क्रय कर सकते हैं। इसीलिए निर्धन व्यक्ति अन्यायियों के लिए सुलभ शिकार होते हैं जो न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में मर ही सकते हैं, न्याय प्राप्त नहीं कर सकते। 

ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि सृष्टि का व्यापार शक्ति-संतुलन पर आधारित होता है। किसी भी द्वंद्व में विजय उसी की होती है जिसका निर्णायक क्षण में पलड़ा भारी होता है। यही कारण है कि आदर्श भले ही 'सत्यमेव जयते' हो, यथार्थ तो 'शक्तिमेव जयते' ही है। सौ में से निन्यानवे अवसरों पर असत्य एवं अन्याय का ही पलड़ा भारी होता है, वे सत्य एवं न्याय से अधिक शक्तिशाली होते हैं; और इसीलिए जीतते हैं। अपवादस्वरूप किसी एक अवसर पर सत्य एवं न्याय का पलड़ा (अनुकूल परिस्थितियों के कारण) भारी हो जाता है तो उनकी विजय हो जाती है तथा हम उसी से अति-प्रसन्न होकर उत्सव मनाने लगते हैं। वस्तुस्थिति तो यही है कि सत्य की स्थापना तथा न्याय की प्राप्ति के निमित्त भी सामर्थ्य चाहिए। और अन्यायी प्रायः समर्थ ही होते हैं। तभी तो वे अन्याय कर पाते हैं। तथाकथित न्याय-व्यवस्था उन्हीं की पक्षधर होती है। गोस्वामी तुलसीदास तो शताब्दियों पूर्व ही कह गए हैं - समरथ को नहिं दोष गुसाईं। 

आज भारत में धनबल एवं सत्ताबल के अहंकार में चूर आततायी इस सीमा तक निर्मम (एवं परपीड़क) हो चुके हैं कि वे उत्पीड़ित से यह भी अपेक्षा करते हैं कि वह अपने साथ हुए अन्याय एवं अत्याचार को मौन रहकर सह जाए तथा न्याय प्राप्ति हेतु प्रयास ही न करे। अगर वह किसी से अपने साथ हुए ज़ुल्म की फ़रियाद भी लगा दे तो इसे भी उसकी एक और ग़लती मानकर उस पर और अधिक ज़ुल्म ढाया जाता है। यानी कि जबरा मारे और रोने भी न दे। और यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति (या संस्था) ऐसे असहाय पीड़ित (या पीड़िता) को व्यवस्था द्वारा न्याय दिलाने का प्रयास करे तो उसे भी आततायी अपने शत्रु के रूप में ही देखते हैं तथा उसे भी ठिकाने लगा देने की जुगत करने लगते हैं (प्रायः इसमें सफल भी होते हैं) ताकि फिर से कोई किसी बेबस को इंसाफ़ दिलाने की जुर्रत करने के लिए न उठ खड़ा हो। तो ऐसे में अकेले पड़ चुके आहत का हाथ कौन थामे ? बेसहारा का सहारा बनने की हिम्मत कौन करे ?

भारत में एक अरसे से लोग कानून को अपने हाथ में लेते आ रहे हैं क्योंकि वे न तो इंसाफ़ को ख़रीद सकते हैं और न ही उन्हें कानून और उसके नुमाइन्दे यह यकीन दिला पाते हैं कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा। एक शताब्दी से भी अधिक समय पूर्व प्रेमचंद ने अपनी अमर कथा 'पंच परमेश्वर' में एक पात्र के मुख से यह कालजयी संवाद कहलवाया था - 'क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?' लेकिन एक सदी गुज़र जाने के बाद भी हमारे सामने हालात यही हैं कि लोग बिगाड़ के डर (या किसी ख़ुदगर्ज़ी) से ईमान की बात नहीं कहते। जब कहने तक में गुरेज़ है तो इंसाफ़ करने के लिए क़दम कौन आगे बढ़ाएगा ? आज तो हमारे यहाँ हाल यह हो गया है कि उच्च-स्तरीय न्यायालय भी न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को ताक पे रखकर लोकरुचि (एवं सत्ता) के अनुकूल निर्णय दे रहे हैं। ऐसे में विशुद्ध सत्य के लिए स्थान ही कहाँ ? विशुद्ध न्याय को कहाँ शरण मिले ? यहाँ तक कि इंसाफ़ के लिए बरसों तलक दर-दर की ठोकरें खाने वाली और अब एक बार फिर से ख़ौफ़ में जी रही बिलक़ीस बानो के लिए हमारे विद्वानों एवं विदुषियों के पास और कुछ तो छोड़िए, हमदर्दी के दो बोल भी नहीं हैं। हमारे देश में उत्पीड़ितों से भी कहीं अधिक असहाय हैं सत्य और न्याय। कुछ लोग मज़लूमों को तसल्ली देने की कोशिश ज़रूर करते हैं लेकिन जो लुट गया हो, बरबाद हो गया हो; उसका काम खोखली तसल्लियों से नहीं चलता। तसल्ली देने के मामले में भी मैं यही सच बयां करना चाहूंगा - 

तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं 
मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है

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