मंगलवार, 23 मई 2023

हमारा छोटा-सा लेकिन मनभावन और अनुशासित पड़ोसी देश

जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाने पर भी इस मास से पूर्व मैंने कभी भारत की भूमि से बाहर क़दम नहीं रखा था। सन २०२० में जब मेरे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ आने वाली थी तो मेरी पुत्री ने वर्षारंभ में ही अपने माता-पिता (एवं छोटे भाई) को उस अवसर पर कहीं विदेश ले जाने की योजना बना ली थी। किन्तु भाग्य का खेल ! कोरोना महामारी के प्रसार के चलते कहीं आना-जाना संभव ही नहीं रहा। तथापि मेरी पुत्री की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण मैं एवं मेरा परिवार हरिहरेश्वर नामक एक सुरम्य स्थान पर उस अवसर का उत्सव मना सके। 

विगत मास मेरी पुत्री ने भारतीय प्रबंधन संस्थान कोझीकोड से एम.बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। मैं तथा उसकी माता कोझीकोड जाकर दीक्षांत समारोह में सम्मिलित भी हुए। तदोपरांत मेरी पुत्री ने सम्पूर्ण परिवार को कहीं विदेश ले जाने का निर्णय एक बार पुनः लिया। मैं एक राजकीय संस्थान के आंतरिक लेखा परीक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ एवं अप्रैल का मास वार्षिक लेखों को अंतिम रूप देने का मास होता है। अतः मई के प्रथम सप्ताह तक तो कहीं भ्रमण हेतु अवकाश लेना संभव नहीं हो सका। मई के द्वितीय सप्ताह में मेरी पुत्री द्वारा निर्धारित (एवं प्रबंधित) कार्यक्रम के अनुसार हम हमारे पड़ोसी देश भूटान की यात्रा पर गए। लगभग पाँच दिवस का यह पारिवारिक पर्यटन अत्यन्त सुखद रहा। भूटान हेतु पासपोर्ट-वीज़ा आदि प्रपत्रों की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन अंततः मेरी (एवं मेरी जीवन-संगिनी की भी) विदेश-यात्रा हुई तो सही। 

हम पश्चिम बंगाल के हवाई अड्‍डे बागडोगरा पहुँचे और वहाँ से सड़क-मार्ग द्वारा भारत एवं भूटान की सीमा पर स्थित कस्बे जयगाँव जहाँ हमने होटल 'व्हाइट हाउस' में रात्रि-विश्राम किया। अगले दिन संबंधित पर्यटन एजेंसी द्वारा नियुक्त गाइड हमें ठीक सीमा पर स्थित भूटान पासपोर्ट कार्यालय की औपचारिकताएं पूरी करवाने के उपरांत कार द्वारा आगे ले गया। भूटान का पहला नगर जो हमने देखा, वह है फुंशोलिंग।

फुंशोलिंग में हम पहले दिन घूमे-फिरे और वहाँ से भूटान की राजधानी थिम्फू गए जहाँ हमारा रात्रि-विश्राम निर्धारित कार्यक्रमानुसार एक होटल मंत्र होममें हुआ। मंत्र होममें कार्यरत कर्मी-दल का नेतृत्व एवं समन्वय पसांग नामक एक महिला कर रही थी जो न केवल अत्यन्त सेवाभावी सिद्ध हुई वरन वह हिन्दी तो इतनी साफ़सुथरी बोल रही थी कि यदि उसकी मुखाकृति से उसके भूटानी होने का ज्ञान न हो जाता तो वह भारतीय ही प्रतीत होती। वस्तुतः हमारे लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य ही था कि हमें होटल-रेस्तरां सहित अधिकांश स्थलों पर कार्यभार महिलाओं के ही हाथ में देखने को मिला। 

थिम्फू में दो दिन बिताने के उपरांत आगे के दो दिन हमने पारो नामक कस्बे में गुज़ारे। वहाँ हम पेमा यांगसेल नामक होटल में रुके जो कि मुख्य बाज़ार के अत्यन्त निकट स्थित है। वहीं पर हम टाइगर नेस्टनामक पर्यटन-स्थल गए जो कि इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि मैंने तथा मेरी धर्मपत्नी ने तो जहाँ तक घोड़े जा सकते थे, वहाँ तक की यात्रा घोड़ों पर ही की जबकि हमारे दोनों बच्चे गाइड (जो कि हमारी ही आयु-वर्ग का व्यक्ति लगता था लेकिन हृष्ट-पुष्ट एवं ऐसे मार्गों पर चलने का अभ्यस्त था) के साथ पैदल ही आए। घोड़े प्रस्थान-स्थल से टाइगर नेस्टके मध्य का लगभग आधा मार्ग ही तय करवा सकते हैं जहाँ एक कैफ़ेटेरिया स्थित है। उससे आगे तो सभी को पैदल ही जाना होता है। सो हम भी गए। वापसी में भी हमने कैफ़ेटेरिया से तीन घोड़े किराये पर लिए ताकि जैसे हम ऊपर चढ़े थे, वैसे ही नीचे भी उतरते। हमारी बेटी भी इस बार घोड़े पर ही बैठकर नीचे तक आई। मेरा जी तो पूरे मार्ग में ही धुक-धुक करता रहा। लगा कि घोड़ा (और साथ में उस पर सवार मैं भी) अब गिरा, तब गिरा। पर ऐसा हुआ नहीं। किन्तु जब मेरी धर्मपत्नी अपने घोड़े पर लगाई गई ज़ीन के फिसल जाने से नीचे गिर गईं तो उनका मूड उखड़ गया और बाक़ी का रास्ता उन्होंने (हमारे बेटे की ही तरह) पैदल तय किया। हमने तो बस इस बात का शुक्र मनाया कि गिरने पर भी उन्हें कोई चोट नहीं आई। सम्भवतः एक बड़ा कोट जो उन्होंने पहन रखा था, उसने उनकी रक्षा की।


पारो की विशेषता यह है कि वहाँ से हिमालय की चोटियों पर जमी चाँदी-सी चमकती सफ़ेद बर्फ़ स्पष्ट दिखाई देती है और यह दृश्य आँखों को बड़ी शीतलता प्रदान करता है। जिस दिन हम टाइगर नेस्ट गए थे, उससे एक दिन पूर्व ही हमने पुनाखा की घाटी में बहने वाली मो छू नदी में राफ़्टिंग (हवा भरकर बनाई गई रबर की नाव को चप्पुओं द्वारा बहते पानी की ऊंची-नीची लहरों पर खेना) की थी। यह अनुभव भी हमारे लिए अत्यन्त रोमांचक एवं आनंददायक रहा था। वहाँ ऐसी दो नदियाँ हैं - फो छू तथा मो छू। भूटानी लोग एक नदी को पुरुष तथा दूसरी को स्त्री मानते हैं। इसीलिए ऐसे नाम हैं। भूटानी भाषा में 'छू' का अर्थ होता है 'नदी', 'फो' का अर्थ होता है 'पुरुष' तथा 'मो' का अर्थ होता है 'स्त्री'। इनके संगम-स्थल पर स्थित 'ज़ोंग' नामक क़िले पर भी हम गए जहाँ भीतर जाना कुछ नवनिर्माण कार्य चलने के कारण संभव नहीं हो सका। 

भूटान बौद्ध धर्म को मानने वाला देश है। अतः वहाँ के अधिकांश पर्यटन-स्थल वस्तुतः बौद्ध विहार अथवा मठ ही हैं जहाँ भगवान बुद्ध अथवा बोधिसत्व की विशालकाय प्रतिमाएं स्थित हैं। अपनी इस पाँच दिवसीय भूटान-यात्रा में हमने नयनाभिराम दृश्यावलियों के अतिरिक्त अधिकांशतः उन्हीं को (अथवा उनके भिन्न-भिन्न स्वरूपों को) ही देखा। गाइड के माध्यम से हम वहाँ के कुछ रीति-रिवाजों से भी परिचित हुए तथा कुछ प्रार्थनाओं से भी। 


भूटान के लोग अपने राजा (जिग्मे खेसर नामग्याल वांग्चुक) तथा रानी (जेत्सुन पेमा वांग्चुक) को बहुत स्नेह एवं सम्मान देते हैं (यद्यपि शासन-प्रशासन का दायित्व प्रमुखतः प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यपालिका पर ही होता है एवं विधि-विधान वहाँ की संसद ही बनाती है)। राजा-रानी के आकर्षक चित्र एवं होर्डिंग भूटान के कोने-कोने में दृष्टिगोचर होते हैं। भूटान की मुद्रा नोंग्त्रुम है जिसके प्रत्येक नोट पर राजा का चित्र छपा होता है। वैसे यह भारतीय रुपये से कुछ कम मूल्य रखती है किन्तु भूटान के दुकानदार तथा सेवादाता इसे भारतीय रुपये के समतुल्य ही रखते हैं तथा कई बार तो बड़े भूटानी नोट का छुट्‍टा भारतीय रुपये में दे देते हैं। यद्यपि मेरी पुत्री ने हमारे भूटान में प्रवेश करने से पूर्व ही पर्याप्त राशि की भूटानी मुद्रा (भारतीय रुपये देकर) प्राप्त कर ली थी, तथापि बहुत-से स्थानों पर हमने पाया कि लेने वालों को उसके स्थान पर भारतीय रुपये के नोट भी स्वीकार थे। 

भूटान को थंडर ड्रैगन की भूमि कहा जाता है तथा यहाँ के विभिन्न स्थलों, स्मारकों एवं प्रतिमाओं पर ड्रैगन (मुख से आग फेंकने वाला अजगर) की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। ड्रैगन भूटान के राष्ट्रीय प्रतीक-चिह्न का भी अंग है तथा स्वभावतः भूटान के राष्ट्रीय ध्वज पर भी अंकित रहता है। मेरे परिवार ने (पारो के बाज़ार में स्थित दुकानों से) विभिन्न मित्रों एवं संबंधियों के निमित्त तो पृथक्-पृथक् स्मृति-चिह्न क्रय किये ही, अपने गृह के निमित्त भी ड्रैगन की एक प्रतिमा क्रय की। 

लेकिन भूटान की जो बात मैं हमेशा याद रखूंगा, वह है वहाँ के लोगों का (सच्चा, न कि दिखावटी) देश-प्रेम और अनुशासन। कई दशक पहले मैंने बाल-पत्रिका 'चम्पक' में प्रकाशित होने वाली कॉमिक 'चीकू' के माध्यम से 'ज़ेब्रा क्रॉसिंग' के बारे में जाना था और यह सीख अपने मन में बैठाई थी कि पैदल चलते समय सड़क हमेशा ज़ेब्रा क्रॉसिंग (ड़क पर काली-सफ़ेद पट्टियों से बनाया गया निशान) से ही पार की जानी चाहिए। पारो में एक बार जब मैंने ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर क़दम रखा तो दूसरी तरफ़ से आ रही गाड़ियाँ तुरन्त रुक गईं और तभी फिर से स्टार्ट हुईं जब मैं ड़क पार कर गया। इसके ठीक विपरीत भारत में मैंने प्रायः देखा है कि न तो पैदल चलने वालों को तथा न ही वाहन-चालकों को ज़ेब्रा क्रॉसिंग का कोई ज्ञान होता है (होता है तो भी वे उसे महत्व नहीं देते)। विगत कुछ वर्षों से विशाखापट्टणम में निवास करते हुए तो मैं यह दिन-प्रतिदिन देखता हूँ कि प्रथम तो ज़ेब्रा क्रॉसिंग यदि धुंधली हो गई हो अथवा मिट गई हो तो उसे ठीक से पुनः बनाया ही नहीं जाता, द्वितीय यह कि यदि वह ठीक से दिखाई दे रही हो एवं कोई पैदल यात्री उस पर से ड़क पार कर रहा हो तो भी वाहन-चालकों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा वे उसी भांति तीव्र गति से वाहन चलाते हुए आते हैं कि वह पैदल चलने वाला अभागा यदि स्वयं सावधान न रहे तो वे उसे कुचल कर ही मानें। यह है विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश (जी हाँ, इस मामले में अब हम चीन को भी पीछे छोड़ रहे हैं) तथा उसके एक राज्य से भी छोटे एवं मात्र सात-आठ लाख की जनसंख्या वाले देश का अंतर। वहाँ जुर्माने होते हैं (जिसकी नौबत बहुत ही कम आती है) जबकि हमारे यहाँ रिश्वतख़ोरों की जेबें भरती हैं (या बेगुनाहों को पकड़कर 'टारगेट' पूरे किए जाते हैं)। वहाँ स्वच्छता है, यहाँ गंदगी (अभिजात्य वर्ग के आवासीय क्षेत्रों को अनदेखा कर दें तो)। वहाँ के नागरिक कर्तव्यपरायण हैं, यहाँ के (तथाकथित रूप से सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों सहित) अधिसंख्य नागरिकों को अपने कर्तव्यों की सुध ही नहीं। हाँ, अपनी वतनपरस्ती का ढोल हम (वक़्त-बेवक़्त) बराबर बजाते रहते हैं। आप भारत-भूटान सीमा पर एक ही दृष्टि में इस अंतर को देख सकते हैं। सीमा-रेखा के उस ओर न भिक्षुक हैं (यद्यपि भगवान बुद्ध की सभी प्रतिमाओं में उनके हस्त में भिक्षापात्र बनाया जाता है), न कोई अस्वच्छ्ता, न यातायात की कोई अनुशासनहीनता जबकि सीमा-रेखा के इस ओर अपने देश में आते ही आपके पास मंगते आ जाते हैं; आप अस्वच्छता, कानफोड़ू कोलाहल एवं अनियंत्रित यातायात के मध्य में स्वयं को पाते हैं तथा तीन दिशाओं से यह अनुभूति आपके निकट चली आती है कि संभल जाइए, अब आप भारत में हैं। 

और हाँ, भूटान में हमने ढेर सारी गोरैया देखीं जिनके संबंध में भारत में 'गोरैया दिवस' पर बस कविताएं ही लिखी जाती हैं, उनके दर्शन अब दुर्लभ ही हैं। 

आभार मेरी पुत्री का जिसने अपने माता-पिता एवं लघुभ्राता हेतु इस मनभावन एवं अविस्मरणीय यात्रा का प्रबंध किया। 

बुधवार, 26 अप्रैल 2023

वतन का नाम रौशन करने वाली बेटियों का मुश्किल दंगल

लिखना-पढ़ना दोनों ही तक़रीबन छोड़ चुका हूँ। मगर आज रहा नहीं जा रहा। दिल में जो घुमड़ रहा है, उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में न उतारा तो यह उस क़लम के साथ बेईमानी होगी जिसने मुझे हमेशा ही सुकून बख़्शा है। मुझे क़लम उठाने पर मजबूर कर दिया है हिन्दुस्तान की उन बेटियों ने जो दुनिया में अपने वतन का नाम रौशन करने के बावजूद उसी वतन में इंसाफ़ की गुहार लगाती हुईं देहली की ज़मीन पर बैठी हैं, बेतहाशा गर्मी में भी खुले आसमान के नीचे सो रही हैं और मुल्क के निज़ाम से बार-बार कह रही हैं - हमने तो हमेशा मुल्क का नाम रौशन ही करना चाहा है, हमारी आवाज़ भी तो सुनो। 

यह है मेरा देश जहाँ नेता 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो दे सकते हैं लेकिन उन्हीं बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की ज़िन्दगी देने में उन्हें मौत आने लगती है। यह देखना पड़ने लग जाता है कि बेटियों की इज़्ज़त पर नज़र गड़ाए बैठा शख़्स कोई वोटों का सौदागर तो नहीं जिसके बरख़िलाफ़ जाने पर वोटों का नुक़सान हो सकता हो। दूसरी पार्टी का होता तो अब तक सींखचों के पीछे होता पर अपनी पार्टी का है तो क्या करें ? चुनावी जीत और सत्ता से बढ़कर क्या है ? कुछ नहीं ! वतन की बेटियों की इज़्ज़त भी नहीं। अब हिन्दुस्तान की ये बेयारोमददगार बेटियां करें तो क्या करें ? कौन है इनका मुहाफ़िज़ ? किससे उम्मीद की जा सकती है इस बाबत ? मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री के देश में इन बेटियों के मन की पीड़ा का स्वर मानो नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गया है। 

कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी फ़िल्म 'दंगल' की समीक्षा में मैंने कहा था कि महावीर सिंह फोगाट की दो बेटियों गीता और बबीता की सफलता की यह कहानी केवल एक फ़िल्म नहींएक सामाजिक अभिलेख है, एक महागाथा है भारतीय ललनाओं की अथाह प्रतिभा की और सभी बाधाओं को पार करके गंतव्य तक पहुँचने के उनके अदम्य साहस और स्पृहणीय जीवट की । आज गीता और बबीता की चचेरी बहन विनेश संघर्ष कर रही है अपनी अन्य पहलवान बहनों के साथ उस जंगल में जिसे हम 'भारतीय व्यवस्था' कह सकते हैं - एक क्रूर व्यवस्था, एक हृदयहीन व्यवस्था जिसमें न्याय तो न्याय, संवेदना के निमित्त भी कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता। 

छह अगस्त दो हज़ार सोलह को सभी भारतीय उस समय प्रसन्नता से झूम उठे थे जब साक्षी मलिक ने रियो ओलम्पिक में महिला कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया था। रियो ओलंपिक में कुल मिलाकर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था एवं केवल दो ही पदक प्राप्त हो सके थे जो महिला खिलाड़ियों ने ही जीते थे (दूसरा पदक पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में जीता था)। ऐसे में साक्षी की सफलता सम्पूर्ण देश की कन्याओं हेतु प्रेरणा बन गई थी। आज वही साक्षी कड़ी धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठी है ताकि उसे तथा उस जैसी अन्य उत्पीड़ित महिला पहलवानों को न्याय मिले। क्या मिलेगा

बहुत दुख होता है यह देखकर कि देश की इन प्रतिभाशाली किन्तु पीड़ित बेटियों का साथ देने वाले बहुत कम हैं। सत्ता से तो आशा ही क्या होती, निराशा तो समाज से हो रही है। विनेश की चचेरी बहन बबीता तो अब सत्ताधारी दल का ही अंग हैं। क्या वे सत्ता को (अथवा सत्ताधारी दल को) इस दिशा में जागृत कर सकेंगी ? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहेंगी क्योंकि राजनीति सब कुछ लील जाती है - कला, साहित्य, पत्रकारिता, खेल, समाज-सेवा और यहाँ तक कि मानवता को भी। यह काजल की वो कोठरी है जिसमें जाकर कोई कलाकार नहीं रहता, साहित्यकार नहीं रहता, पत्रकार नहीं रहता, खिलाड़ी नहीं रहतासमाज-सेवी नहीं रहता; प्रत्येक प्रतिभा कलंकित हो जाती है (एक लीक काजर की लागि है पै लागि है) और बचती है केवल घात-प्रतिघात की राजनीति। और मीडिया ? वह तो कभी का सत्ता के हाथों बिक चुका है। 

मैं नमन करता हूँ बजरंग पूनिया तथा रवि दहिया जैसे पहलवानों को जो अपनी बहनों को न्याय दिलाने के लिए (अपना फलता-फूलता खेल-जीवन दांव पर लगाकर भी) उनके साथ हैं तथा इस संघर्ष में उन्हें एकाकी नहीं पड़ने दे रहे। नारी-मुक्ति का शोर मचाने वालियों को यदि इन पुरुषों का नैतिक साहस देखकर भी लज्जा नहीं आ रही है तथा वे जंतर-मंतर पर बैठी उत्पीड़ित प्रतिभाओं के समर्थन में आगे नहीं आ रही हैं तो धिक्कार है उन पर !

देश की अनमोल धरोहर ये बेटियां कोई पहली बार न्याय हेतु धरने पर नहीं बैठी हैं। असह्य गर्मी से पूर्व वे असह्य सर्दी में भी ऐसा कर चुकी हैं। तब इन भोली-भाली बच्चियों को एक समिति बनाकर भरमाया गया था यह कहकर कि समिति की जाँच के अनुरूप उन्हें न्याय प्रदान करने के निमित्त उचित क़दम उठाए जाएंगे। धोखा हुआ इनके साथ। समिति ने क्या जाँच की और क्या रिपोर्ट दी, यह प्रकाश में ही नहीं आने दिया गया। हालत यह है कि सत्ता के इशारों पर नाचती पुलिस इन बच्चियों के द्वारा की जा रही अपने उत्पीड़न की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ़.आई.आर.) दर्ज़ करने जैसा मामूली काम भी नहीं कर रही है। अगर देश की चैम्पियन बेटियों को अपने साथ हुए अत्याचार की एफ़.आई.आर. लिखवाने के लिए भी धरना देना पड़े तो कैसे कहें - मेरा भारत महान ? क्या 'दंगल' फ़िल्म में 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के ?' पूछने वाले आमिर ख़ान (तथा उनके साथ मिलकर 'दंगल' का निर्माण करने वाला पूरा दल) इस संदर्भ में कोई टिप्पणी करना चाहेंगे ? हिम्मत बची है उनमें ? या सत्ता के ख़ौफ़ ने उनके भीतर की आग को बुझा दिया है। 

अब कौन माता-पिता अपनी बेटियों को जीवन में आगे बढ़ने हेतु खेल प्रशिक्षण केन्द्रों में निस्संकोच जाने देंगे ? कौन माता-पिता खेल के मैदान में प्रगति करने हेतु घर से दूर जाने वाली अपनी बच्चियों की सुरक्षा के निमित्त चिंतित नहीं होंगे ? क्या अब माता-पिता अपनी बेटियों को यह कहकर रोकेंगे नहीं कि बेटा, ठहर जाओ, आगे ख़तरा है ? और जब ओलंपिक, विश्व चैम्पियनशिप, एशियाई खेल तथा राष्ट्रमंडल खेल जैसी प्रतियोगिताओं में देश के लिए पदक जीतने वालों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो सामान्य उत्पीड़ितों (तथा उत्पीड़िताओं) के लिए क्या उम्मीद रहती है, सहज ही समझा जा सकता है। 

श्रेष्ठ कवि-कवयित्रियों से सुसंपन्न ब्लॉग जगत के इस संदर्भ में चुप्पी साधे रहने के विषय में मेरा कुछ न कहना ही सब कुछ कह देने हेतु पर्याप्त रहेगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे भी इस परिप्रेक्ष्य में अपनी पीड़ा मैं अपनी विगत पोस्ट में ही अभिव्यक्त कर चुका हूँ। 

बहुत मुश्किल है यह दंगल विनेश, साक्षी और उनकी साथी बहनों (तथा उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े उनके पहलवान भाइयों) के लिए क्योंकि यहाँ उनके सामने उनके जैसे प्रतिस्पर्द्धी नहीं हैं, व्यवस्था है जो बहुत शक्तिशाली है। क्या उनका जीवट उस ताक़त से लोहा ले सकेगा जो कुर्सियों में होती है (और है) ?

भारत के प्रधानमंत्री तक जिनसे हँस-हँसकर बातें कर चुके हैं, जिन्हें सम्मानित कर चुके हैं, जिन्हें राष्ट्र के युवाओं हेतु प्रेरणा-स्रोत बता चुके हैं; संसार में देश का मान बढ़ाने वाली उन युवा प्रतिभाओं का दर्दभरा स्वर क्या रायसीना की पहाड़ियों में कहीं किसी को सुनाई दे रहा है

कौन जाने ?

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सोमवार, 21 नवंबर 2022

संवेदनशील रचनाएं ! किसके लिए ?

चार दशक से अधिक पुरानी पुस्तकें पढ़ने की आदत एकाएक ही छूट गई। मन में कहीं कुछ ऐसा आघात लगा कि पढ़ना निस्सार प्रतीत होने लगा। समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में अथवा ब्लॉग जगत पर भी कुछ पढ़ने को अब जी नहीं करता। लिखना भी अब न के बराबर ही है। फिर भी लिखना शायद इसलिए जारी रहेगा कि यह मेरे लिए अपने मन की घुटन को अल्फ़ाज़ के ज़रिये बाहर निकाल देने का काम करता है। मैंने औरों के पढ़ने के लिए बहुत कम लिखा है। प्रायः आत्मसंतोष के निमित्त ही लिखता हूँ। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि लिखकर इंटरनेट पर डाला ही नहीं, बस लिखा और ख़ुद ही पढ़कर रख दिया - आगे कभी फिर से पढ़ने के लिए। जो कुछ भी लिखकर सार्वजनिक किया; उसे किसी ने पढ़ा तो भी ठीक, न पढ़ा तो भी ठीक। जितनी भी ज़िन्दगी अब बची है, उसमें कुछ  लिखने के लिए तो नज़रिया आगे भी शायद यही रहेगा। 

बचपन में ही समाचार-पत्रों तथा बाल-पत्रिकाओं को पढ़ने का ऐसा व्यसन मनोमस्तिष्क पर चढ़ा कि किशोरावस्था रही हो अथवा युवावस्था अथवा प्रौढ़ावस्था, पढ़ना कभी छूटा ही नहीं। आज अनुभव होता है कि मेरे स्वर्गवासी पिता कितने उदार थे जो परिवार की दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद केवल मेरे पठन के निमित्त प्रत्येक मास छः-सात बाल-पत्रिकाएं घर में आया करती थीं। अख़बार बांटने वाले स्वर्गीय गोपीलाल मालाकार जी के आगमन की मैं प्रतिदिन उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करता था यह देखने हेतु कि किसी बाल-पत्रिका का नवीन अंक आया है अथवा नहीं। पिता के विद्यालय के पुस्तकालय की भी अधिकांश (संभवतः सभी) पुस्तकें मैंने घर पर ला-लाकर पढ़ डाली थीं (मेरी बाल्यावस्था में मेरे पिता एक राजकीय प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे, यह पाठशाला ग्रामीण क्षेत्र में स्थित एक छोटी-सी पाठशाला थी जिसमें दो ही अध्यापक होते थे तथा मेरे पिता प्रधानाध्यापक होते हुए भी तृतीय श्रेणी की वेतन-शृंखला के अंतर्गत ही थे)। कुछ वर्षों के उपरांत महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की तो महाविद्यालय के पुस्तकालय से भी हिन्दी साहित्य की पुस्तकें निर्गमित करवा-करवाकर पढ़ता रहा। किराये पर भी बहुत सारे बाल उपन्यास तथा कॉमिक पुस्तकें ले-लेकर पढ़ीं (उन दिनों बहुत कम दैनिक किराये पर पुस्तकें देने वाली दुकानें चला करती थीं)। इसी  समयावधि में (अर्थात् अपने विद्यार्थी जीवन में) अपने कस्बे में स्थित सार्वजनिक पुस्तकालय (वाचनालय) में नियमित रूप से जाता रहा तथा पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहा। कोलकाता (कलकत्ता) में रहकर उच्च-शिक्षा प्राप्त करने की अवधि में भी अपने निवास (चित्तरंजन एवेन्यू) के निकटस्थ 'बड़ा बाज़ार' में संध्या को फ़ुटपाथ पर उपन्यासों के ढेर लगाकर बैठने वालों से ले-लेकर दर्ज़नों उपन्यास पढ़े। दो अंग्रेज़ी के तथा एक हिन्दी का समाचार-पत्र तो उन दिनों नियमित रूप से पढ़ता ही था। कहते हैं, शक्करख़ोरे को शक्कर और मूज़ी को टक्कर मिल ही जाती है। जब पहली नौकरी लगी (राजस्थान में सिरोही ज़िले में स्थित लक्ष्मी सीमेंट में) तो वहाँ भी अधिकारियों के क्लब तथा कार्मिकों के मनोरंजन केन्द्र में समृद्ध पुस्तकालय मिले जिनमें हिन्दी की ढेरों पुस्तकें थीं तो पढ़ने का शौक़ पूरा होता ही रहा, कोई कसर नहीं रही। फिर जीवन में चाहे जहाँ रहा, गद्य एवं पद्य दोनों ही की तथा हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं की पुस्तकें जमकर पढ़ीं। लुगदी साहित्य से लेकर उत्कृष्ट साहित्य एवं ज्ञानवर्धक पुस्तकें सभी पढ़ीं। हिन्दी तथा अंग्रेज़ी की पाक्षिक पत्रिकाएं पढ़ना भी दशकों तक जारी रहा। भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देने हेतु मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र को अपने वैकल्पिक विषयों के रूप में चुना तो अध्यवसाय और अधिक बढ़ा तथा पठित सामग्री में और भी विविधता आई। जब सूझा कि कुछ लिखने का भी प्रयास किया जाए तो शीघ्र ही समझ में आ गया कि कविता हो अथवा शायरी, मेरे वश की नहीं थी। अतः गद्य में लिखने पर ही ध्यान लगाया। पर यह पढ़ने-लिखने का चस्का सन दो हज़ार बाईस में आकर मेरे मन से हटने क्यूं लगा ? 

संसार एवं समाज की अधिकतर समस्याओं व दुखों का कारण जो मैंने समझा है, वह है मानव में संवेदना का अभाव अथवा उसकी अल्पता। यह संवेदनहीनता ही है जो मनुष्य को अत्याचारी एवं अन्यायी बनाती है तथा यह संवेदनहीनता ही है जो प्रायः तथाकथित तटस्थ व्यक्तियों में दृष्टिगोचर होती है। सत्य से नेत्र मूंदकर स्वयं को तटस्थ मान लेने से वस्तुस्थिति परिवर्तित नहीं होती है। भले लोगों की तटस्थता ही बुरे लोगों को (या यूँ कहिये कि बुराई को) विजयी बनाती है। यह संवेदनहीनता का ही एक रूप है। बालकों में एक स्वाभाविक संवेदनशीलता होती है जो बड़े होने के साथ-साथ घटती चली जाती है क्योंकि यह समाज ही है जो सफलता को संवेदना पर वरीयता देता है तथा बालगोपालों से उनकी निर्दोषिता छीन लेता है (और इसी को समाजीकरण बताकर आप ही अपनी पीठ भी थपथपाता है)। राजेश रेड्डी साहब की एक मशहूर ग़ज़ल का एक शेर है - 

मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है

जब जयजयकार सफलता की हो, संवेदनशीलता की नहीं तो संवेदना स्वतः ही पार्श्व में चली जाती है जबकि सफलता का जादू सर चढ़कर बोलता है। तथापि संवेदना का उदात्त भाव जितना असहाय आज है, उतना पूर्व में नहीं था (जब तथाकथित उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण ने अपने पग नहीं पसारे थे तथा उपभोक्तावाद को सर्वोपरि नहीं बनाया था)। तब संवेदनशील व्यक्ति अधिक थे, संवेदनाएं अपने मूर्त रूप में अधिक स्थलों पर दृष्टिगोचर होती थीं तथा प्राणिमात्र के प्रति संवेदना एक सर्वस्वीकार्य जीवन मूल्य था। यह वह समय था जब प्यासों को (नि:शुल्क) जल पिलाने हेतु प्याऊ स्थापित किए जाते थे, मिनरल वाटर की बोतलें एवं पाउच नहीं बेचे जाते थे। 

मैं पहले यह समझा करता था कि साहित्यकार (कवि एवं लेखक) तथा कलावंत संवेदनशील होते हैं। अंग्रेज़ी में मोपासां, ओ हेनरी, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, रस्किन बांड, गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की रचनाएं पढ़ीं; हिन्दी में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, यशपाल, उषा प्रियंवदा आदि की कृतियां पढ़ीं; मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह दिनकर. हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगलसिंह सुमन, जयशंकर प्रसाद आदि की कविताएं भी पढ़ीं एवं काव्य भी पढ़े। बच्चन जी की सुदीर्घ आत्मकथा (चार खंडों में) भी पढ़ी। बांग्ला के मूर्धन्य लेखकों एवं लेखिकाओं (बिमल मित्र, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, आशापूर्णा देवी आदि) की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी पढ़े। उर्दू साहित्य की भी कई कृतियों के देवनागरी संस्करण पढ़े। और लुगदी अथवा लोकप्रिय साहित्य में अगाथा क्रिस्टी, आर्थर कॉनन डॉयल, सिडनी शेल्डन, जॉन ग्रिशम, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, कर्नल रंजीत, टाइगर आदि की रहस्यकथाओं एवं थ्रिलरों के साथ-साथ गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त, रानू, प्रेम बाजपेयी, राजहंस आदि की सामाजिक रचनाओं को भी पढ़ने में कोई कोरकसर बाक़ी नहीं रखी। हिन्दी के लुगदी साहित्य में तो इतने नामों के (वास्तविक एवं छद्म, दोनों नाम वाले) लेखकों को पढ़ा कि सभी के नाम स्मरण रखना ही व्यवहारतः संभव नहीं। गोपालदास नीरज के गीत भी पढ़े तो ग़ालिब, फ़िराक़, दुष्यन्त कुमार, कुँअर बेचैन, परवीन शाकिर आदि की शायरी से भी नाता जोड़ा। संगीत में भी मन रमाया (चाहे सीख न सका) और सिनेमा-प्रेमी भी बना। लगा कि संवेदनशील कृतियों का सृजन करने वाले सृजनधर्मी स्वयं तो संवेदनशील होंगे ही। 

किसी सीमा तक यह बात मुझे आज भी सत्य के निकट लगती है जब ज़िक्र उस वक़्त का हो जो बीत चुका है। ज़िन्दगी को नज़दीक से देखे बिना प्रेमचंद, यशपाल, बिमल मित्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, उषा प्रियंवदा, महादेवी वर्मा आदि अपनी कालजयी रचनाओं का सृजन नहीं कर सकते थे। न ही गुरु दत्त 'प्यासा' और 'काग़ज़ के फूल' जैसी अमर कृतियां रजतपट पर प्रस्तुत कर सकते थे यदि उन्होंने जीवन एवं संसार को निकट से न जाना होता। लेकिन अब ...

अब धीरे-धीरे ज़िन्दगी के तजुर्बात से गुज़रते-गुज़रते मुझे समझ में आ गया है कि अन्य विधाओं की भांति ही कला एवं साहित्य से सम्बद्ध विधाएं भी कुछ नैसर्गिक प्रतिभा एवं कुछ अभ्यास के आधार पर ही अवस्थित होती हैं जिसका संवेदनशीलता से नाता होना आवश्यक नहीं। चाहे कलाकार (गायक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि) हों अथवा साहित्यकार (लेखक, कवि, नाटककार आदि); मानवीय राग-द्वेष-ईर्ष्या तथा अन्य विकारों से उसी भांति ग्रसित होते हैं जिस भांति अन्य प्रकार के सामान्य मानवगण। वे बातें चाहे जितनी परहित की करें, प्रधान उनके लिए भी निज हित ही होता है (अपवादों को छोड़कर)। कला तथा साहित्य से संबंधित संस्थाओं एवं मंचों में क्षुद्र राजनीति होने का और क्या कारण हो सकता है ? एक बार मैंने बांग्ला एवं अंग्रेज़ी की मूर्धन्य कवयित्री, लेखिका एवं समीक्षिका (वे उच्च कोटि की गायिका भी हैं) गीताश्री चटर्जी से अपना यह विचार साझा किया था तो उन्होंने इससे सहमति ही जताई थी। अंततः कला एवं साहित्य से आबद्ध मनुष्यों के बहुमत को भी सांसारिक सफलता (जिसमें भौतिक सुख-सुविधाएं तथा लोकप्रियता दोनों ही समाहित होती हैं) ही चाहिए। इसीलिए ऐसे व्यक्ति केवल विशुद्ध प्रतिभा के अवलम्ब पर नहीं चलते, भौतिक जगत में वांछित परिणाम देने वाले उपायों का भी अनुसरण करते हैं चाहे वे उनके घोषित आदर्शों के अनुरूप न हों। अन्यथा कविवर निराला एवं कवि प्रदीप की भांति घोर ग़रीबी का सामना करना पड़ सकता है। बानवे वर्ष से अधिक की आयु पाने वाली लता मंगेशकर के निधन पर श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ जाती है जबकि मात्र बयालीस वर्ष की अवस्था में आर्थिक तंगी के मध्य प्राण त्याग देने वाली गीता दत्त को स्मरण करके पता नहीं किसी के मन में हूक भी उठती है या नहीं। जो सफल है, वही अभिनंदनीय है, वही पूज्य है। संवेदनाएं भी उसी की (चाहे वास्तविक हों या प्रदर्शनी) देखी और सराही जाती हैं।

मैंने हमेशा अच्छा इंसान होने को कामयाब इंसान होने पर तरजीह दी लेकिन ज़िन्दगी का ज़्यादातर हिस्सा बीत जाने पर (बहुत देर से) इस हक़ीक़त को समझ पाया कि दुनिया का चलन ऐसा है जिसमें अच्छे की अच्छाई और सच्चे की सच्चाई ही उसकी दुश्मन बन जाती है। संसार सफलता को पूजता है, सद्गुणों को नहीं (यद्यपि सैद्धांतिक रूप से ढोल सद्गुणों का ही बजाया जाता है)। मैं स्वयं को संवेदनशील मानता हूँ। क्या मैंने जीवन भर जो संवेदनशील रचनाएं पढ़ीं या सुनीं या देखीं, उन्होंने मुझे संवेदनशील बनाया ? नहीं ! उन्होंने मेरी उस संवेदनशीलता से संवाद स्थापित किया जो सदा से मेरे भीतर थी। इसीलिए अनेक संवेदनशील रचनाओं को पढ़कर मेरा मन आर्द्र हो उठा - बालपन में भी एवं वयस्क होने पर भी। तलत महमूद साहब के गाए हुए कई गीत और आशा भोंसले जी की गाई हुई कई ग़ज़लें सुनकर मेरी आँखों से जल की धाराएं बह निकलीं। वहीदा रहमान और राजेश खन्ना अभिनीत फ़िल्म 'ख़ामोशी' (१९६९) को मैं कभी बिना रोये पूरा देख ही नहीं सका तो लुगदी साहित्य के नाम से प्रचलित (सुरेन्द्र मोहन पाठक रचित) 'काग़ज़ की नाव' तथा (वेद प्रकाश शर्मा रचित) 'एक कब्र सरहद पर' जैसे उपन्यासों के पठन ने भी मेरे नयनों को अश्रुओं से भर दिया। साहित्य में तो सर्वाधिक प्रेमकथाएं ही रची गई हैं। जब पंडित चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की 'उसने कहा था', जयशंकर प्रसाद जी की 'मदन-मृणालिनी' व 'पुरस्कार',  प्रेमचंद की 'प्रेम की होली' और शरत बाबू की 'मंदिर' जैसी कहानियां पढ़ीं; उषा प्रियंवदा जी कृत 'पचपन खंभे लाल दीवारें', गुलशन नंदा कृत 'जलती चट्टान', 'देव-छाया', 'सिसकते साज़' व 'सूखे पेड़ सब्ज़ पत्ते'; सुरेन्द्र मोहन पाठक कृत 'तीन दिन' और वेद प्रकाश शर्मा कृत 'सुहाग से बड़ा' जैसे उपन्यास पढ़े; 'राजस्थान पत्रिका' में धारावाही रूप से प्रकाशित अनंत कुशवाहा कृत 'जंतर बजता रहा', 'धोरों में दफ़न अमरप्रीत' और 'क्यूं ना जोही बाट' जैसी दुखांत प्रेम की गाथा कहने वाली चित्रकथाओं का अवलोकन किया तथा 'गूंज उठी शहनाई' (१९५९), 'सेहरा' (१९६३), 'दो बदन' (१९६६), 'मिलन' (१९६७), 'टाइटैनिक' (१९९७) और 'गैंगस्टर' (२००६)  जैसी फ़िल्में देखीं तो मन में यही ख़याल आया कि सच्चे मन से प्रेम करने वालों के भाग्य में वियोग नहीं होना चाहिए (केवल प्रेमी-प्रेमिका ही नहीं, अन्य रूपों में प्रेम करने वालों के संदर्भ में भी)। जूते-चप्पल, मोज़े या दस्तानों के किसी जोड़े में से भी एक खो जाता है तो मेरे मन में कसक-सी उठती है। लेकिन ...

लेकिन संवेदनशील रचनाओं के तो मुझ जैसे लाखोंकरोड़ों उपभोक्ता (पढ़ने, सुनने या देखने वाले) होते हैं। संवेदनशील रचनाएं उन पर कितना प्रभाव डालती हैं ? आज अपने अब तक के जीवन के सम्पूर्ण अनुभव को निचोड़ कर मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि वे उन्हीं को प्रभावित करती हैं, उन्हीं को पसंद आती हैं, उन्हीं की स्मृति का अंग बनती हैं जो पहले से ही संवेदनशील होते हैं। संवेदनहीन व्यक्ति या तो कला एवं साहित्य में अभिरुचि ही नहीं रखते या उतनी ही रखते हैं जितनी क्षणिक मनोरंजन हेतु आवश्यक हो। संवेदनशील कृतियों का प्रभाव उन पर उतना ही रहता है जितना चिकने घड़े पर पानी ठहरता है। संवेदना से ओतप्रोत सृजन को देखने या सुनने या पढ़ने से यदि किसी का मन भर आता है, हृदय विगलित हो उठता है तथा उस संप्रेषित संवेदना को वह अपने भीतर अनुभव करता है (या करती है) तो इसका अर्थ यही है कि वह दर्शक या श्रोता या पाठक मूल रूप से ही एक संवेदनशील मनुष्य है। संवेदनशील व्यक्ति का मन ही किसी रचना की संवेदना को अनुभूत कर सकता है, इसके निमित्त उस व्यक्ति का स्वयं कोई कलाकार अथवा लेखक अथवा कवि होना आवश्यक नहीं। 

मैंने अपना संवेदनशील स्वभाव अपने पिता से पाया जो किसी के भी दुख-दर्द से पिघल जाया करते थे एवं अपनी दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद जितनी सहायता जिस रूप में भी ऐसे किसी व्यक्ति की कर सकते थे, किया करते थे। लेकिन उनकी तो न साहित्य में रुचि थी, न संगीत में, न सिनेमा में और न ही अन्य ललित कलाओं में। और मैंने आयु के व्यतीत होने के साथ-साथ ऐसे कितने ही उच्च कोटि के कवि, श्रेष्ठ लेखक, मधुर गायक एवं अन्य विविध श्रेणियों के कलावंत देखे जिन्हें अपने निहित स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में रुचि नहीं थी। उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में अपने प्रतिद्वंद्वी फूटी आँख नहीं सुहाते थे। और वे भौतिक सफलता प्राप्त करने हेतु अपने स्वाभिमान सहित किसी भी वस्तु एवं संबंध का परित्याग कर सकते थे। दूसरे की सफलता पर उनकी बधाई तथा दूसरे व्यक्ति की किसी भी बात हेतु उनकी प्रशंसा (स्पष्टतः) प्रदर्शन हेतु ही होती थी; मन से न वे बधाई देते थे, न प्रशंसा करते थे (वे आज भी वैसे ही हैं)। तो साहित्यकार अथवा कलावंत के रूप में जो संवेदनाएं उनमें अपेक्षित थीं, वे कहाँ गईं ? थीं भी या नहीं ? 

महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी की अमर पंक्तियां हैं - वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान; निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। पंत जी ने अपने समय के काव्य-सृजन की प्रवृत्ति के अनुरूप सत्यवदन ही किया था। हरिवंशराय बच्चन की अनेक भावुक कविताएं पहले उनकी प्रेयसी (जिसे आज की पीढ़ी soulmate कहती है) चम्पा एवं तदोपरान्त उनकी प्राणप्यारी अर्द्धांगिनी श्यामा के वियोग (अकाल मृत्यु) से ही उपजी थीं एवं यदि यह कहा जाए कि उन दोनों स्त्रियों के दुखांत ने ही उन्हें एक असाधारण कवि बनाया तो असत्य नहीं होगा। 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत' एवं 'आकुल अंतर' में संग्रहीत कविताएं उनकी सच्ची संवेदना की ही अभिव्यक्ति थीं। किन्तु आज अपवादों को छोड़कर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि (हिन्दी भाषा) के कवि-कवयित्रियां जो थोक के भाव में कविताएं रचते हैं, मंचों पर सम्मान पाते हैं एवं समय-समय पर अपने काव्य-संग्रह प्रकाशित करवाते हैं, उनकी रचनाएं संवेदनोद्भूत होती हैं। 

स्वर्गीया डॉ. वर्षा सिंह ने अपने देहावसान से कुछ ही समय पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख (कवि बनने का फ़ैशन बनाम पैशन) में इस तथ्य को रेखांकित किया है - काव्य-सृजन को लोग बहुत हलके ढंग से लेते हैं, शायद वे गंभीर होकर सृजन करना ही नहीं चाहते जबकि काव्य-सृजन एक गंभीर कार्य है; कोई भी सर्जक तब तक सृजन नहीं कर सकता है जब तक कि उसमें भावनाओं का विपुल उद्वेग न हो; जीवन की समस्त चेष्टाएं दो भागों में बंटी होती हैं - स्वहित और परहित जिनके बीच मनुष्यत्व की एक बारीक-सी रेखा होती है और जब यह रेखा मिट जाती है तो स्वहित और परहित एकाकार हो जाता है और यहीं मिलता है साहित्य का प्रस्थान बिन्दु जहाँ व्यक्ति की भावनाएं सकल संसार के हित में विचरण करने लगती हैं जिसमें धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, रंग के भेद मिट जाते हैं।

मैं वर्षा जी के उपर्युक्त उद्गारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मेरा भी यही मानना है कि संवेदना निष्पक्ष होती है। संवेदनशील व्यक्ति वही है जो बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के पराये दर्द को अपना ले। संवेदनशीलता हृदय में होती है - कला अथवा प्रतिभा में नहीं। प्रतिभा से बहुत कुछ रचा जा सकता है किन्तु संवेदनशीलता से बिना कुछ रचे भी किसी के दुख-दर्द को बाँटा जा सकता है। अनुभूति कला पर निर्भर नहीं। और जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'कविता क्या है' में प्रतिपादित किया था - जीवन की अनुभूति ही कविता है (यह तथ्य संवेदना से ओतप्रोत कथा पर भी लागू होता है)। लेकिन जब सृजन करने वाले ही निष्पक्ष न हों तथा उनकी अभिव्यक्तियां धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, वर्ण, प्रांत अथवा उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से प्रभावित होती हों तो उनकी अनुभूति का भी शुद्ध होना संभव नहीं। क्या लाभ ऐसे सृजन का समाज के निमित्त, समष्टि के निमित्त, सृष्टि के निमित्त ? कोरी प्रतिभा (और अभ्यास) से बहुत कुछ रचा तो जा सकता है लेकिन जैसा कि एक शायर ने कहा है - 

लाख जौहर हों आदमी में मगर
आदमीयत नहीं तो कुछ भी नहीं

अस्तु संवेदनशील रचनाएं उन्हीं के लिए होती हैं जो उन्हें पढ़े (या सुने या देखे) बिना भी संवेदनशील होते हैं क्योंकि वे ही उनसे प्रभावित हो सकते हैं, संवेदना से शून्य व्यक्ति नहीं। वास्तविक अर्थों में संवेदनशील व्यक्ति वही होता (या होती) है जो न केवल अपनी संवेदनाओं के संदर्भ में निष्पक्ष हो वरन अपने शत्रुओं से भी घृणा न करे। इसीलिए सलीब पर चढ़ा दिये जाने वाले ईसा मसीह और प्रार्थना सभा में गोलियों से भून दिए जाने वाले महात्मा गांधी का सिद्धांत यही था - पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। संवेदनशील व्यक्ति न्याय का समर्थक होता है, प्रतिशोध का नहीं। वह स्वयं दुख सह सकता है, किसी को दुख दे नहीं सकता। इसीलिए ऐसे व्यक्ति का जीना सरल नहीं होता। बहुत सुना था मैंने कि दुनिया है दिलवालों की लेकिन सच्चाई यही है कि यह दुनिया दिमाग़ वालों की ही है जहाँ या तो कामयाबी को पूजा जाता है या फिर दिखावे और पाखंड को। यहाँ प्यार पर पहरे लगाए जाते हैं लेकिन नफ़रत करने की ख़ुली छूट दी जाती है। दिलवाले ही संवेदनशील होते हैं जो ताज़िन्दगी दूसरों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाते रहते हैं, किसी को ज़ख़्म देते नहीं; जो सारे जहाँ का दर्द अपने जिगर में रखते हैं चाहे उनका अपना हमदर्द कोई न हो। और जहाँ तक उनके अपने मुक़द्दर का सवाल है, उसे बयां करने के लिए एक शायर के ये अशआर ही काफ़ी हैं -

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल, तुझको कौन संभालेगा
ऐ मेरे बचपन के साथी, मेरे साथ ही मर जाना  

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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

सत्य और न्याय ! कितने असहाय !

मुण्डकोपनिषद के एक श्लोक की सर्वज्ञात पंक्ति है - सत्यमेव जयते नानृतम। इसका अर्थ है कि सदा सत्य ही विजयी होता है, न कि असत्य। भारत के संविधान-निर्माताओं ने इसके एक भाग 'सत्यमेव जयते' को हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न का एक अंग बनाया तथा इसे हमारे न्यायालयों में भी न्यायासन के पश्च भाग पर (प्रायः) उल्लिखित देखा जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजीवन सत्य के पथ पर चलने का निर्णय लिया तथा सत्य को ही ईश्वर का रूप माना। आज से कुछ दशक पूर्व जब मुझ जैसे व्यक्ति बाल्यावस्था में थे तो हमारी (हिन्दी माध्यम) की पाठ्यपुस्तकों में सद्गुणों पर बल देने वाले पाठ पढ़ाए जाते थे। इन सद्गुणों में सत्य बोलना (एवं उसके पथ पर चलना) भी सम्मिलित होता था। मैंने उसी काल में इस बात को अपने मन में भीतर तक स्थापित कर लिया। किन्तु जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया और अपने चारों ओर उपस्थित संसार को देखता-समझता गया, मुझे धीरे-धीरे ही सही, यह वास्तविकता अनुभूत होती गई कि सत्य की विजय होती तो है परंतु सदा नहीं। मुझे यह भी सूझा कि सत्य का पथ पुष्पाच्छादित नहीं होता, कंटकाकीर्ण होता है जिस पर चलना बड़े साहस का कार्य है। असत्यवादियों एवं अन्याय के समर्थकों से घिरे रहकर सत्य का अनुसरण अत्यधिक कठिन होता है, यह बात देरसवेर सत्य का पथिक (मेरी तरह) समझ ही लेता है। चाणक्य शतकम् के एक श्लोक में उक्त है - चौराणाम् अनृतम बलम् अर्थात् चोरों का बल झूठ है। इसी बल से वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य प्रमाणित कर देते हैं तथा सच्चे व्यक्ति के मनोबल को तोड़ देते हैं। सम्भवतः इसीलिए यह चोरों का ही युग है। यह अपने आप में ही एक कटु सत्य है कि - 

यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है 
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है 

सत्य के सच्चे पथिक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होंने मूलतः तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इन पंक्तियों को आत्मसात् करके चलना आरंभ किया था - यदि आपकी पुकार सुनकर कोई साथ न आए तो अकेले ही चलो - भी अंततः टूट गए थे। पूर्व में दीर्घायु होने के आकांक्षी बापू का अपने अंतिम वर्षों में जीवन से मोहभंग हो गया था। वे देख चुके थे कि लोग उनकी पूजा तो करते थे, उनके बताए हुए पथ पर नहीं चलना चाहते थे। किसी पर स्वार्थ हावी हो गया था तो किसी पर निजी दुख से भरी भावनाएं तो किसी पर उसकी कोई विवशता। यहाँ तक कि किसी-किसी का उनके विचारों से विश्वास ही उठ गया था (चाहे उसने कहा न हो)। बापू सब देख-सुन-समझ रहे थे पर अब वे जो हो रहा था, उसे रोकने हेतु कर कुछ नहीं सकते थे। सत्य सहित उनके सभी सिद्धांत घायल होकर कराह रहे थे जिनकी पीड़ा का स्वर भी अब बधिर कानों पर ही पड़ रहा था। वे तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को नहीं मरे, भीतर से वे बहुत पहले ही मर चुके थे। मेरी दिवंगत माताजी अपने पिता (मेरे नाना) के साथ उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुई थीं। सम्भवतः इस तथ्य का भी कुछ प्रभाव मेरे अपने व्यक्तित्व पर पड़ा हो। पर जब हृदय के सत्य का साक्षात् संसार के सत्य से हुआ तो जो मैंने पाया उससे मैं हतप्रभ रह गया। अपने विद्यार्थी जीवन से लेकर अपने कार्यशील जीवन (करियर) तक विगत अनेक दशकों में मैंने सत्य को (लगभग) प्रत्येक चरण पर एवं प्रत्येक स्थिति में पराजित होते हुए देखा और ... और आज भी देखता हूँ। ऐसे में 'सत्यमेव जयते' की उक्ति पर मैं कैसे विश्वास करूं ?

न्याय सत्य का ही एक पक्ष है क्योंकि अन्याय होने का अर्थ ही है सत्य पर प्रहार होना। अतः सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा ही न्याय है। यदि सचमुच कभी सतयुग रहा होगा तो उसमें अन्याय अनुपस्थित ही रहा होगा। न्यायालय की दीवार पर 'सत्यमेव जयते' लिखे जाने का अभिप्राय ही यही है कि न्याय सत्य में ही समाहित है। सत्य की जय होगी तो न्याय की जय स्वतः ही हो जाएगी। सत्य की पराजय ही अन्याय की विजय है तथा आदर्श स्थिति यही है कि ऐसा न होने पाए। आज तो सतयुग नहीं है, आज तो कलयुग है। अन्याय दिन-प्रतिदिन होते हैं तथा अन्याय-पीड़ित न्याय की गुहार लगाते रहते हैं। जिसकी गुहार सही स्थान पर सुन ली जाए, उसके लिए कोई आशा रहती है (कभी-न-कभी) न्याय मिलने की और जिसकी गुहार किसी सही स्थान पर न पहुँच सके, उसके लिए घुट-घुटकर मर जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता। बहुत-से अन्याय-पीड़ित (इसमें पीड़िताएं भी सम्मिलित हैं) सम्भवतः इसीलिए आत्मघात कर लेते हैं क्योंकि उन्हें न्याय मिलने की (झूठी ही सही) कोई आशा नहीं रहती। न्याय प्रदान करने की अति-विलम्बित प्रक्रिया भी वस्तुतः अन्यायियों के पक्ष में ही कार्य करती है। आततायी इसीलिए निर्भय होकर अत्याचार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका दुष्कार्य तो तुरंत पूर्ण हो जाएगा किन्तु पीड़ित (या पीड़िता) को न्याय पाने में (अत्यन्त कठिन प्रयास करने पर) वर्षों लगेंगे, हो सकता है कि सम्पूर्ण जीवन ही लग जाए और उस पर भी आवश्यक नहीं कि न्याय मिल ही जाए। अतः यह प्रक्रिया ही निर्दोष के साथ एक प्रकार का प्रच्छन्न अन्याय है जो आततायी को अनुचित बल प्रदान करता है, उसे और अधिक अन्याय एवं अत्याचार करने हेतु दुस्साहसी बनाता है। अति-विलम्ब से हुआ न्याय वस्तुतः न्याय होता भी नहीं क्योंकि दुर्बल हेतु तो देर ही अंधेर है। 

आज का युग बहुमत का युग है तथा जब बहुमत स्वार्थियों का हो तो सत्य एवं न्याय की परवाह कौन करे ? स्वार्थी प्रायः एकत्र होकर असत्य एवं अन्याय का प्रसार करते रहते हैं क्योंकि उनके निहित स्वार्थ उन्हें जोड़े रखते हैं जबकि सत्य के पथिक एवं न्याय की स्थापना हेतु प्रयासरत व्यक्ति प्रायः अकेले पड़ जाते हैं। व्यवस्थाएं क्रूर एवं संवेदनहीन होती हैं जिनमें हाड़-मांस के बने व्यक्तियों के दुख-दर्द से अधिक महत्वपूर्ण निर्जीव नियम एवं तर्कहीन प्रक्रियाएं होती हैं। अतः व्यवस्थाएं प्रायः अपने घोषित उद्देश्यों के विरूद्ध ही कार्य करती हैं। हमारे देश में न्याय बिकाऊ है और इसीलिए वह सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर होता हैं। नामी वकील बड़े महंगे होते हैं जिनकी सेवाएं साधन-सम्पन्न लोग ही क्रय कर सकते हैं। इसीलिए निर्धन व्यक्ति अन्यायियों के लिए सुलभ शिकार होते हैं जो न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में मर ही सकते हैं, न्याय प्राप्त नहीं कर सकते। 

ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि सृष्टि का व्यापार शक्ति-संतुलन पर आधारित होता है। किसी भी द्वंद्व में विजय उसी की होती है जिसका निर्णायक क्षण में पलड़ा भारी होता है। यही कारण है कि आदर्श भले ही 'सत्यमेव जयते' हो, यथार्थ तो 'शक्तिमेव जयते' ही है। सौ में से निन्यानवे अवसरों पर असत्य एवं अन्याय का ही पलड़ा भारी होता है, वे सत्य एवं न्याय से अधिक शक्तिशाली होते हैं; और इसीलिए जीतते हैं। अपवादस्वरूप किसी एक अवसर पर सत्य एवं न्याय का पलड़ा (अनुकूल परिस्थितियों के कारण) भारी हो जाता है तो उनकी विजय हो जाती है तथा हम उसी से अति-प्रसन्न होकर उत्सव मनाने लगते हैं। वस्तुस्थिति तो यही है कि सत्य की स्थापना तथा न्याय की प्राप्ति के निमित्त भी सामर्थ्य चाहिए। और अन्यायी प्रायः समर्थ ही होते हैं। तभी तो वे अन्याय कर पाते हैं। तथाकथित न्याय-व्यवस्था उन्हीं की पक्षधर होती है। गोस्वामी तुलसीदास तो शताब्दियों पूर्व ही कह गए हैं - समरथ को नहिं दोष गुसाईं। 

आज भारत में धनबल एवं सत्ताबल के अहंकार में चूर आततायी इस सीमा तक निर्मम (एवं परपीड़क) हो चुके हैं कि वे उत्पीड़ित से यह भी अपेक्षा करते हैं कि वह अपने साथ हुए अन्याय एवं अत्याचार को मौन रहकर सह जाए तथा न्याय प्राप्ति हेतु प्रयास ही न करे। अगर वह किसी से अपने साथ हुए ज़ुल्म की फ़रियाद भी लगा दे तो इसे भी उसकी एक और ग़लती मानकर उस पर और अधिक ज़ुल्म ढाया जाता है। यानी कि जबरा मारे और रोने भी न दे। और यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति (या संस्था) ऐसे असहाय पीड़ित (या पीड़िता) को व्यवस्था द्वारा न्याय दिलाने का प्रयास करे तो उसे भी आततायी अपने शत्रु के रूप में ही देखते हैं तथा उसे भी ठिकाने लगा देने की जुगत करने लगते हैं (प्रायः इसमें सफल भी होते हैं) ताकि फिर से कोई किसी बेबस को इंसाफ़ दिलाने की जुर्रत करने के लिए न उठ खड़ा हो। तो ऐसे में अकेले पड़ चुके आहत का हाथ कौन थामे ? बेसहारा का सहारा बनने की हिम्मत कौन करे ?

भारत में एक अरसे से लोग कानून को अपने हाथ में लेते आ रहे हैं क्योंकि वे न तो इंसाफ़ को ख़रीद सकते हैं और न ही उन्हें कानून और उसके नुमाइन्दे यह यकीन दिला पाते हैं कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा। एक शताब्दी से भी अधिक समय पूर्व प्रेमचंद ने अपनी अमर कथा 'पंच परमेश्वर' में एक पात्र के मुख से यह कालजयी संवाद कहलवाया था - 'क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?' लेकिन एक सदी गुज़र जाने के बाद भी हमारे सामने हालात यही हैं कि लोग बिगाड़ के डर (या किसी ख़ुदगर्ज़ी) से ईमान की बात नहीं कहते। जब कहने तक में गुरेज़ है तो इंसाफ़ करने के लिए क़दम कौन आगे बढ़ाएगा ? आज तो हमारे यहाँ हाल यह हो गया है कि उच्च-स्तरीय न्यायालय भी न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को ताक पे रखकर लोकरुचि (एवं सत्ता) के अनुकूल निर्णय दे रहे हैं। ऐसे में विशुद्ध सत्य के लिए स्थान ही कहाँ ? विशुद्ध न्याय को कहाँ शरण मिले ? यहाँ तक कि इंसाफ़ के लिए बरसों तलक दर-दर की ठोकरें खाने वाली और अब एक बार फिर से ख़ौफ़ में जी रही बिलक़ीस बानो के लिए हमारे विद्वानों एवं विदुषियों के पास और कुछ तो छोड़िए, हमदर्दी के दो बोल भी नहीं हैं। हमारे देश में उत्पीड़ितों से भी कहीं अधिक असहाय हैं सत्य और न्याय। कुछ लोग मज़लूमों को तसल्ली देने की कोशिश ज़रूर करते हैं लेकिन जो लुट गया हो, बरबाद हो गया हो; उसका काम खोखली तसल्लियों से नहीं चलता। तसल्ली देने के मामले में भी मैं यही सच बयां करना चाहूंगा - 

तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं 
मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है

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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

राजू श्रीवास्तव और इन्द्रधनुष क़ातिल

राजू श्रीवास्तव नहीं रहे। एक गंभीर लेख लिखने की योजना थी मेरी लेकिन इस कार्य को स्थगित करके उस असाधारण कलाकार को श्रद्धांजलि देना मुझे उचित लगा जिसने हास्य के संसार में अपनी एक पृथक् पहचान बनाई। हंसी और मुस्कान बिखेरकर गजोधर भैया लाखों-करोड़ों के दिलों में बस गए। कानपुर से मुम्बई आए इस साधारण चेहरे-मोहरे के कलाकार में नक़ल उतारने (मिमिक्री करने) का नायाब हुनर था। शायद ही किसी को याद हो कि उन्होंने 'मैंने प्यार किया' (१९८९) फ़िल्म में एक छोटी-सी भूमिका निभाई थी। आगे चलकर उन्होंने कुछ फ़िल्मों में भी काम किया एवं 'बिग बॉस' सहित कई टीवी शो में भी आए; राजनीति में भी रुचि ली एवं उत्तर प्रदेश फ़िल्म विकास परिषद के अध्यक्ष भी बने लेकिन शोहरत तो उन्हें रंगमंच से ही मिली जहाँ उन्होंने दर्शकों को ख़ूब हंसाया, बरसोंबरस हंसाया। इसीलिए उनके आकस्मिक निधन ने उनके प्रशंसकों की आँखों में आँसू उमड़ा दिए।

मैंने रोनित रॉय तथा उनकी प्रमुख भूमिका वाले सोनी टीवी के धारावाहिक 'अदालत' पर पहले भी एक लेख लिखा है। आज राजू को श्रद्धांजलि देने के लिए मैं इसी धारावाहिक के एक (दो कड़ियों में प्रस्तुत) कथानक का वर्णन कर रहा हूँ जिसमें राजू की महत्वपूर्ण भूमिका है। 'अदालत' की १४६ वीं तथा १४७ वीं  कड़ियों में प्रस्तुत इस कथा का नाम है - 'इंद्रधनुष क़ातिल'। वस्तुतः यह नाम राजू के लिए ही है जिनका इस कथा में भी नाम 'राजू' ही रखा गया है। 

'इंद्रधनुष क़ातिल' स्वभावतः एक रहस्यकथा है जिसमें 'इन्द्रधनुष' नामक एक नाटक के प्रमुख पात्र राजू चौरसिया (राजू श्रीवास्तव) पर एक दूसरे कलाकार की हत्या का आरोप लगता है। इन्द्रधनुष में सात रंग होते हैं और राजू एक ऐसे पात्र की भूमिका निभा रहे हैं जिसमें सात पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व समाहित हैं। कभी वह कोई बन जाता है तो कभी कोई और। भूमिका को पूर्ण समर्पण के साथ निभाते-निभाते यह कलाकार अपने पात्र का ही दूसरा संस्करण बन जाता है तथा जब वह किसी (नाटक वाले) एक व्यक्तित्व के रूप में होता है तो कुछ अंतराल के उपरांत जब वह किसी और रूप में (या अपने वास्तविक जीवन के रूप में) परिवर्तित होता है तो उसे पहले की अपनी कोई बात स्मरण नहीं रहती। चिकित्सकीय भाषा में इसे बहु व्यक्तित्व विकार (multiple personality disorder) कहते हैं। अब इस निर्दोष व्यक्ति की रक्षा का दायित्व कौन वहन कर सकता है सिवाय सत्य के पथिक वकील के.डी. पाठक (रोनित रॉय) के जिनके जीवन का ध्येय ही सत्य का साथ देते हुए निर्दोषों को दंड से बचाना है (संयोगवश राजू श्रीवास्तव का वास्तविक नाम भी सत्य प्रकाश श्रीवास्तव ही था)।

के.डी. पाठक अपने सहायक वरुण (रोमित राज) के साथ मामले की छानबीन में लग जाते हैं। वरुण पुलिस इंस्पेक्टर श्रीकांत दवे (अजय कुमार नैन) का भी अपने काम में सहयोग लेता है। अदालत में  के.डी. के सामने हैं उनके चितपरिचित प्रतिद्वंद्वी सरकारी वकील इंदर मोहन जायसवाल (आनंद गोराडिया) जबकि मामले की सुनवाई कर रहे हैं अनुभवी न्यायाधीश महोदय ऋषि धींगड़ा (प्रदीप शुक्ला)। संदेह के घेरे में कई व्यक्ति हैं। नाट्य संस्था के स्वामी हैं एक और राजू अर्थात् राजू श्रेष्ठ (जो कई दशक पूर्व हिन्दी फ़िल्मों में बाल कलाकार मास्टर राजू के रूप में अत्यंत लोकप्रिय हुआ करते थे)। उनके साथ-साथ नाटक की नायिका से लेकर सह-कलाकार, दिग्दर्शक, तकनीशियन, अन्य कर्मचारी आदि सभी इस हत्या हेतु संदिग्ध हैं। परंतु के.डी. पाठक के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है राजू को यह स्मरण करवाना कि वस्तुतः क्या हुआ था क्योंकि वे तो कभी किसी व्यक्तित्व में घुस जाते हैं तो कभी किसी में। अंततः अपेक्षानुसार सत्य की विजय होती है तथा राजू की निर्दोषिता प्रमाणित होती है। 

'इन्द्रधनुष क़ातिल' दोहरा मनोरंजन प्रदान करता है। यह न केवल रहस्यकथाओं एवं न्यायालय की कार्रवाइयों को देखने में रुचि रखने वालों को आरम्भ से अंत तक बाँधे रखता है वरन हास्य देखने में रुचि रखने वालों को भी वह देता है जो उन्हें चाहिए अर्थात् भरपूर हंसी जो कि राजू श्रीवास्तव की कला के माध्यम से जागृत होती है। राजू ने दर्शकों को हंसा-हंसाकर लोटपोट कर देने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। कथानक के अंत में राजू को न्यायालय द्वारा मुक्त कर दिए जाने के उपरांत के.डी. पाठक एवं राजू के मध्य हुआ वार्तालाप तथा उन दोनों के द्वारा बोले गए संवाद दर्शक के हृदय को स्पर्श कर लेते हैं। राजू के अतिरिक्त अन्य सभी कलाकारों ने भी अपने-अपने चरित्रों के साथ न्याय किया है। स्वस्थ एवं शालीन मनोरंजन प्रदान करने हेतु इस कथानक की पटकथा रचने वाले लेखक तथा इसके निर्देशक भी साधुवाद के पात्र हैं। मुश्किल से डेढ़ घंटे की अवधि (दोनों कड़ियाँ मिलाकर) वाली इस कथा को यूट्यूब पर देखा जा सकता है तथा सम्पूर्ण मनोरंजन प्राप्त किया जा सकता है। 

राजू श्रीवास्तव ने तेरह अगस्त, २०२२ को दिल का दौरा पड़ने के बाद इक्कीस सितम्बर, २०२२ को दुनिया छोड़ने से पहले चालीस दिन तक मौत से जंग लड़ी। सादगी से युक्त किन्तु इन्द्रधनुष की भांति उत्साहित करने वाले व्यक्तित्व के धनी इस असाधारण कलाकार में ऐसा जीवट होना अपेक्षित ही था। मुझे याद आता है कि स्वर्गीय राज कपूर भी जिन फ़िल्मों में एक सीधे-सादे मगर सोने जैसा दिल रखने वाले इंसान की भूमिका निभाते थे, उनमें अपने किरदार का नाम 'राजू' ही रखते थे। 

राजू श्रीवास्तव को मेरी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। 

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'इन्द्रधनुष क़ातिल' के यूट्यूब लिंक:

https://www.youtube.com/watch?v=UqoVVo04ip0&vl=en

https://www.youtube.com/watch?v=_eU1L3N3udQ&vl=en

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

हर मज़हब से ऊँची है क़ीमत इन्सानी जान की

दूरदर्शन पर प्रति वर्ष 'बाल दिवस' के अवसर पर 'चित्रहार' नामक लोकप्रिय कार्यक्रम में पुरानी फ़िल्म 'दो कलियाँ' (१९६८) का एक गीत प्रसारित हुआ करता था (सम्भव है, अब भी होता हो) - 'बच्चे, मन के सच्चे'। इस गीत में बाल कलाकार बेबी सोनिया (अपने बालपन में नीतू सिंह जो बड़ी होकर हिन्दी फ़िल्मों की लोकप्रिय नायिका बनीं) स्वर्गीया लता मंगेशकर के स्वर में गाती हुई बताती हैं: 'इंसां जब तक बच्चा है, तब तक समझो सच्चा है; ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े; क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे; लालच की आदत घेरे, बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे'। और इसी गीत के एक अंतरे में वे बताती हैं - 'इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पांत नहीं; भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं; इनकी नज़रों में एक हैं मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे।' अपने बचपन में जब मैंने साहिर द्वारा रचित एवं रवि द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को सुना था, तब मुझे इसका मर्म इस प्रकार समझ में नहीं आया था जिस प्रकार अब आ गया है। काश हम सब बच्चे ही होते ! साफ़ दिल के और इंसान को सिर्फ़ इंसान की तरह देखने वाले !

पंजाब सहित कई राज्यों में चुनाव हो गए, आज़ादी का अमृत महोत्सव भी मन ही गया। अब किसे याद है कि पिछले साल अट्ठारह दिसम्बर को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में एक युवक की वहाँ उपस्थित सेवादारों एवं अन्य व्यक्तियों ने पीट-पीटकर (सीसीटीवी कैमरों के सामने, बेधड़क) हत्या कर दी थी ? इल्ज़ाम था कि उसने सिख समुदाय की पवित्र पुस्तक - गुरू ग्रंथ साहिब का अपमान करने एवं धार्मिक सेवाओं को बाधित करने का प्रयास किया था। पुलिस ने (भारत की फ़िल्मी पुलिस की तरह) बाद में वहाँ अपनी आमद दर्ज़ कराई और हत्या करने वालों (जिनके चेहरे टीवी फ़ुटेज में साफ़ नज़र आ रहे थे) के ख़िलाफ़ नहीं, उस बेचारे मार दिए गए शख़्स के ख़िलाफ़ ही हत्या की कोशिश का मामला दर्ज़ कर लिया। कितनी महान है मेरे देश की पुलिस ! धार्मिक ग्रंथ की बेअदबी की साज़िश की बात का जमकर शोर मचाया गया क्योंकि ढाई-तीन महीने में ही पंजाब में चुनाव होने थे और सभी राजनीतिक दलों को सिख समुदाय के थोक में वोट चाहिए थे (चुनाव जीतकर सत्ता पाने के लिए)। किसी ने उस अभागे अजनबी की जान की कोई क़ीमत नहीं समझी जो पता नहीं, उस वक़्त अपने आपे में भी था या नहीं। आज तक पता नहीं चला है कि वह कौन था, कहाँ से आया था, उसका धर्म क्या था और उसके आगे-पीछे कोई है या नहीं। अब किसे क्या करना है जानकर ? चुनाव तो हो गए।

उस वक़्त भी पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने ही इस भीड़ द्वारा पीटकर की गई हत्या (मॉब लिंचिंग) की निंदा की थीबाक़ी किसी भारतीय राजनेता ने नहीं। क्रिकेटर से टीवी के विदूषक और उससे नेता बने एक महानुभाव (जो अब ख़ुद जेल में बैठे हैं) ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ऐसे अपराध करने वालों को सार्वजनिक रूप से फाँसी दी जानी चाहिए। तथाकथित बेअदबी या ईशनिंदा (blasphemy) के ऐसे प्रकरण कट्टरपंथी एवं धर्मांध देशों में होते रहते हैं क्योंकि वहाँ की बहुसंख्यक  जनता के धर्म के आधार पर शासन करने वाले राजनेता ऐसे विधि-विधान बनाते हैं जिनका उपयोग प्रायः वहाँ के धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के निमित्त ही होता है। पाकिस्तान ऐसे देशों (तथा उनमें लागू ऐसे कानूनों) का एक ज्वलंत उदाहरण है जहाँ इस दिशा में सुधार का प्रयास करने के कारण पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की एक धर्मांध व्यक्ति ने हत्या कर दी थी। कुछ समय पूर्व बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के पंडाल में क़ुरान शरीफ़ की प्रति रखने का आरोप लगाकर कट्टरपंथियों ने वहाँ के धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा आरंभ की थी जिस पर शीघ्र ही नियंत्रण पा लिया गया क्योंकि सौभाग्यवश वहाँ शासन एक मानवतावादी एवं उदार विचारों वाली महिला (बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीब-उर-रहमान की पुत्री) शेख़ हसीना वाजेद के हाथ में है। ऐसे झूठ एवं निहित स्वार्थ पर आधारित काम धर्म के नाम पर हमारे सनातन मानवीय मूल्यों पर आधारित राष्ट्र में भी हों तो हममें एवं धर्मांधता पर चलने वाले देशों में क्या अंतर रह जाएगा ?

अपने होश-ओ-हवास में कौन ऐसा है जो बहुसंख्यक भीड़ के हाथों मरना या उत्पीड़ित होना चाहेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-मुस्लिम व्यक्ति होगा जो किसी मुस्लिम बहुल देश में क़ुरान या पैग़म्बर का अपमान करेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-हिंदू व्यक्ति होगा जो कि भारत में किसी भीड़ भरे मंदिर या हिंदू धार्मिक आयोजन के मध्य में जाकर हिंदू देवताओं या आस्थाओं को अपमानित करने का दुस्साहस करेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-सिख व्यक्ति होगा जो कि सिख श्रद्धालुओं की भीड़ से भरे हरमंदिर साहब में जाकर वाहेगुरू या ग्रंथ साहब का अपमान करने की गंभीर भूल करेगा ? मरना या देश के कानून के तहत गिरफ़्तार होकर लम्बी क़ैद की सज़ा पाना कौन चाहता है ? कोई समझदार और दुनियादार बालिग़ शख़्स ऐसा नहीं कर सकता। और करे भी तो उस पर कार्रवाई करने के लिए कानून-व्यवस्था है। ऐसे व्यक्ति की मानसिक स्थिति की जाँच भी होनी चाहिए जिससे यह पता लगे कि कहीं वह अर्द्ध-विक्षिप्त अथवा अल्पविकसित मानस वाला व्यक्ति तो नहीं है। क्या देश में भीड़ को अपनी मनमानी का इंसाफ़ करने की इजाज़त दे दी जाए और जंगल का कानून लागू कर दिया जाए ? जिस घटना को आधार बनाकर मैं यह लेख लिख रहा हूँ, वैसी ही घटना चौबीस घंटे के अंतराल के भीतर ही कपूरथला में भी हुई थी जिसमें गुरूद्वारे में एक युवक पर पवित्र 'निशान साहिब' के अपमान का आरोप लगाकर भीड़ ने उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। बाद में पुलिस ने यह वक्तव्य दिया कि वह 'निशान साहिब' का अपमान नहीं कर रहा था बल्कि चोरी करने का प्रयास कर रहा था। यदि पुलिस के इस आधिकारिक वक्तव्य को मान भी लिया जाए तो भी क्या भीड़ को उसे जान से मार डालने का अनुज्ञापत्र प्राप्त हो गया था ? 

घटनाएं हुईं, भुला दी गईं। बस इतनी ही क़ीमत है अब हमारे मुल्क में इंसानी जान की। हत्यारे आज़ाद घूम रहे हैं। मरने वाले गुमनाम लोगों के ख़िलाफ़ बेमक़सद मामले दर्ज़ होकर पुलिस की फ़ाइलों में बंद हो गए हैं। मारने वाले बेख़ौफ़ हैं। साफ़ तौर पर टीवी कैमरों के सामने हत्या करने के बाद भी न उन्हें पकड़ा गया, न उनके विरूद्ध पुलिस ने कोई मामला दर्ज़ किया, न हमारे वोटों के भूखे नेताओं और उनके दलों ने इस बाबत कुछ कहा। अब यदि अवसर मिलने पर वे अपने इस कुकृत्य की पुनरावृत्ति कर दें तो क्या आश्चर्य क्योंकि यह बात तो उनके मन में स्थान बना चुकी है कि यदि अपराध धर्म के नाम पर करें तो उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। एक ज़माने में महज़ अख़बार में छपी ऐसी ख़बरों को जनहित याचिका मानकर हमारे उच्च न्यायालयों के जज उनका संज्ञान लेते थे एवं समुचित जाँच और कार्रवाई का आदेश दे देते थे। अब तो ...। क्या कहूँ ? 

लेकिन क्या जनमानस भी तथा सुशिक्षित एवं संतुलित मस्तिष्क से विचार करने वाले जागरूक नागरिक भी धर्मांधता के साँचे में ऐसे ढल गए हैं कि किसी को ऐसी बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता ? सम्भवतः (और दुर्भाग्यवश) ऐसा ही है। मरने वाले मर गए। उनके होते-सोते उनकी मौत के बारे में जानकर भी शायद इसलिए सामने नहीं आए कि कहीं उन्मादी भीड़ और अंधा कानून उन्हें भी अपना शिकार न बना ले। मैंने इस लेख को लिखने की प्रक्रिया अनेक दिवस पूर्व आरंभ की थी। देख रहा हूँ कि तब से अब तक ही दरिया में बहुत पानी बह गया है और ऐसे ही कुछ अलग मगर दिल को चीर देने वाले वाक़ये और हो गए हैं। 

महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य 'कुमारसम्भव' में एक श्लोक की एक पंक्ति है - 'शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर निश्चय ही धर्म के पालन का प्रथम साधन है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान का ध्येय वाक्य भी यही है। यह आदर्श-वाक्य शरीर को निरोग एवं स्वस्थ रखने पर बल देने हेतु उद्धृत किया जाता है किन्तु इसे एक अन्य कोण से देखने पर यही आदर्श-वाक्य हमारे समक्ष यह भी स्पष्ट करता है कि हमारी यह देह धर्म के पालन हेतु ही है (अधर्म के पालन हेतु नहीं)। अब धर्म किसे कहें ? मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं - धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह: धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। किसी निर्दोष के प्राण ले लेना अथवा उस पर अत्याचार करना इन दस लक्षणों में कहाँ स्थित है ? कहीं नहीं। इनमें तो क्रोध के परित्याग को भी सम्मिलित किया गया है। 

अतः धर्म के नाम पर अधर्म ही करते हैं वे लोग जो या तो स्वयं अपनी विवेक-बुद्धि खो चुके हैं अथवा अपने किसी निहित स्वार्थ की सिद्धि करने में लगे हैं। भारत महान इसीलिए बना तथा सम्पूर्ण विश्व में उसने प्रतिष्ठा इसीलिए अर्जित की क्योंकि इसके अधिसंख्य नागरिक धर्मांध देशों के नागरिकों की भांति न बनकर उदार एवं विवेकशील बने। हमने धर्म को सदाचरण का ही पर्याय माना। अब जो हो रहा है, वह इस देश का दुर्भाग्य ही है। मेरे विचारों के निकट तो फ़िल्म 'राम तेरे कितने नाम' (१९८५) का यह गीत ही है - 'इंसानियत ही सबसे पहला धर्म है इंसान का'। कम-से-कम मेरा धर्म तो यही है। 

पुरानी श्वेत-श्याम फ़िल्म 'दीदी' (१९५) का गीत है - 'बच्चों तुम तक़दीर हो कल के हिन्दुस्तान की'। अपनी इस लम्बी हो चुकी बात को मैं इसी गीत की इन पंक्तियों के साथ विराम देता हूँ - 

दीन-धरम के नाम पे कोई बीज फूट का बोए ना 
जो सदियों के बाद मिली है, वो आज़ादी खोएं ना 
हर मज़हब से ऊँची है क़ीमत इन्सानी जान की 

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शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन

संसार का सबसे बड़ा एवं सबसे प्राचीन रहस्य (जब से मानव-प्रजाति अस्तित्व में आई है) है - स्त्रीपुरुष का पारस्परिक प्रेम। यह रहस्य सनातन है कि किसी को किसी से प्रेम क्यों होता है। मेरा मानना है कि इस मुक़म्मल कायनात में बिना वजह कोई बात नहीं होती। इसलिए किसी को किसी से प्यार होने के पीछे भी कोई वजह होनी ही चाहिए। मगर उस वजह को ढूंढा नहीं जा सकता। राज़-ए-मुहब्बत एक ऐसा राज़ है जिसका ख़ुलासा शायद रहती दुनिया तक न हो सके। किसी औरत को किसी मर्द से या किसी मर्द को किसी औरत से प्यार क्यों होता है, यह सवाल शायद हमेशा सवाल ही रहे - एक ऐसा सवाल जिसके जवाब तक किसी इंसान की पहुँच मुमकिन नहीं। चाहे इसे इश्क़ कहें या मुहब्बत या फिर कुछ और; प्यार एक ऐसी शय है जिसके मुताल्लिक जितना कहा जाए, कम ही लगता है। आज मुझे यह देखकर आश्चर्य हो रहा है कि मैंने अपने कितने ही लेखों में इस विषय को छुआ है, इस पर बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है, यथा  'प्रेम की जटिल गुत्थी', 'फ़लसफ़ा प्यार का', 'प्यार ही नहीं काम भी पूजा है', 'गोपिकाओं का निश्छल प्रेम', 'सेल्यूलॉइड पर लिखी दर्दभरी कविता', 'शर्तों पर प्रेम?', 'काग़ज़ की नाव', 'प्रमोद' आदि। फिर भी लगता है कि अभी और भी लिखा जा सकता है, बहुत कुछ और कहा जा सकता है। आज भी कहना है - एक हिन्दी फ़िल्म की समीक्षा करने के बहाने। 

मुम्बई के बांद्रा (पश्चिम) उपनगर में एक स्थान है - जॉगर्स पार्क। यह एक रमणीक उपवन है जिसमें एक भ्रमण-पथ (जॉगिंग ट्रैक) भी है। यह न केवल एक पर्यटन स्थल है वरन यहाँ स्थानीय नागरिक भी प्रातः काल घूमने अथवा धीमे-धीमे दौड़ने (जॉगिंग करने) के निमित्त आते हैं। इसी स्थान को कथानक के प्रारम्भ का आधार बनाकर एवं इसी को शीर्षक के रूप में लेकर एक हिन्दी फ़िल्म बनाई गई थी - 'जॉगर्स पार्क' (२००३)। फ़िल्म के निर्माता सुभाष घई द्वारा लिखी गई इस कथा के दो प्रमुख पात्र जॉगर्स पार्क में ही एकदूसरे से परिचित होते हैं जिसके उपरांत आरम्भ होता है उनके मध्य एक आत्मीय संबंध जो कि कथानक का केन्द्र-बिन्दु है। 

जॉगर्स पार्क में अकस्मात् एकदूसरे के सम्पर्क में आने वाले ये दो व्यक्ति हैं - पैंसठ वर्षीय सेवानिवृत्त न्यायाधीश ज्योतिन प्रसाद चटर्जी (विक्टर बनर्जी) जिनका भरापूरा परिवार है एवं बत्तीस वर्षीया कामकाजी अविवाहित युवती जेनी सूरतवाला (पेरिज़ाद ज़ोराबियन)। जज साहब को इस बात का अभिमान है कि उन्होंने जीवन भर सम्पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए न्याय का संरक्षण एवं पोषण किया तथा कभी अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। लेकिन एक हक़ीक़त यह भी है कि वे ज़िन्दगी भर कानून की किताबों एवं मुक़दमों से बाहर निकले ही नहीं। घरवालों ने शादी कर दी तो बीवी (आभा धुलिया) के साथ निबाह लिया, बेटे-बेटी हुए तो एक आम बाप की तरह उनकी परवरिश कर दी, बेटे की भी शादी कर दी और एक मासूम पोती के दादा बन गए। ज़िन्दगी में कुछ ऐसा हुआ ही नहीं जिसकी कोई कहानी बन सकती हो। 

दूसरी ओर जेनी ने उनसे आधी उम्र की होने के बावजूद उनसे ज़्यादा दुनिया देख ली है, ज़माने भर की ठोकरें खा ली हैं और ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त से वह उनसे कहीं बेहतर वाक़िफ़ है। उसने ज़िन्दगी को भी और ज़िन्दगी में टकराने वाले लोगों को भी इतने रंग बदलते हुए देखा है कि अब वह किसी पर भी ऐतबार नहीं कर पाती। उसने कई नौकरियां बदली हैं, रोज़ीरोटी की ख़ातिर कई काम किए हैं और हालफ़िलहाल वह एक होटल से जुड़ी रहकर ईवेंट मैनेजमेंट करती है। वह जज साहब के एक भाषण को सुनकर उनसे बहुत प्रभावित हुई है तथा जॉगर्स पार्क में उनसे परिचय होने पर उसे लगने लगता है कि वे उसके सच्चे मित्र सिद्ध हो सकते हैं - ऐसे मित्र जिन पर वह नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकती है। 

और दोस्ती हो जाती है उनकी। जज साहब जेनी की एक सम्पत्ति से सम्बंधित कानूनी विवाद में सहायता करते हैं। मित्रता प्रगाढ़ होती जाती है। जेनी के माध्यम से जज साहब युवा पीढ़ी के उस संसार को देखते हैं जिससे वे अब तक अपरिचित थे। एक ग़ज़ल गाने वाला युवक (ख़ालिद सिद्दीक़ी) जेनी को चाहता है लेकिन जेनी ने उसके प्रेम को स्वीकार नहीं किया है। वह तो उम्र के फ़ासले के बावजूद जज साहब की ओर खिंची चली जा रही है। उसे लग रहा है कि उनके रूप में उसे एक ऐसा इंसान मिल गया है जो उसे समझता है। उधर जज साहब को महसूस होने लगता है कि जिस प्यार के मुद्दे पर वे कभी नई पीढ़ी का मज़ाक़ उड़ाया करते थे, वह प्यार ख़ुद उन्हें हो गया है - जेनी से। वे एक मनोचिकित्सक से परामर्श करते हैं कि ढलती आयु में इस प्रकार का प्रेम हो जाना क्या अस्वाभाविक नहीं तो उन्हें वह विशेषज्ञ यही बताता है कि इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। 

कहते हैं इश्क़ और मुश्क़ छुपाए नहीं छुपते। देरसवेर दुनिया को ख़बर लग ही जाती है। अब इस रिश्ते का क्या अंजाम हो सकता है ? कहते हैं; वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। लेकिन क्या छोड़ देने से ऐसे अफ़साने दफ़न हो जाते हैं ? नहीं होते। नहीं हो सकते। समंदर की लहरें रेत पर बनाए गए घरों को बहाकर ले जाती हैं लेकिन उनके निशानात नहीं मिटा पातीं। सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी वो लम्हे ज़िन्दा रहते हैं जो एक साथ जी लिए गए हैं। यादें बाक़ी रह जाती हैं जिनके दरिया में प्यार करने वाले और प्यार पाने वाले ताज़िन्दगी डूबते-उतराते हैं। यादों के खंडहर हमेशा मौजूद रहते हैं जिनमें मन बरबस ही घूमने लगता है। यादों से बचकर कोई कहाँ जा सकता है ? अगर ज़िन्दगी से यादों को निकाल दिया जाए तो उसमें रहेगा ही क्या ? 

बहरहाल जज साहब के अहसानमंद एक पत्रकार (मनोज जोशी) के कारण जज साहब और जेनी का रिश्ता स्कैंडल की सूरत में तो लोगों के सामने नहीं आ पाता मगर उनकी बेटी (दिव्या दत्ता) पर यह भेद खुल जाता है। अब बेटी अपने बाप से साफ़ कहती है कि वे चाहें तो अपने इस रिश्ते को क़ायम रखें; जब इतनी ज़िन्दगी उनकी वजह से सर उठाकर जी है तो बाक़ी की ज़िन्दगी उनकी ख़्वाहिशों की ख़ातिर सर झुकाकर भी जी ली जाएगी। लेकिन क्या जज साहब ऐसा कर सकते हैं ? वे अपने बेटे को उसके एक अफ़ेयर के लिए बुरी तरह फटकार कर साफ़ कह चुके हैं कि परिवार की इज़्ज़त सबसे ऊपर होती है। अब जब वे जान गए हैं कि पचास साल में कमाई गई इज़्ज़त पचास सैकंड में धूल में मिल सकती है तो क्या वे मुहब्बत की इस बाज़ी को खेलने और इस इज़्ज़त को दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं ?

नतीजा वही निकलता है जो दुनियादारी के हिसाब से निकलना लाज़िमी होता है। जज साहब को जेनी से बिछुड़ना पड़ता है। और यही ठीक भी है क्योंकि लड़की चाहे ख़ुदमुख़्तार हो और प्यार किसी से भी कर ले, उसे शादी और अपना परिवार तो हर हाल में चाहिए। प्रेम अनमोल होता है पर समाज में जीने वाली नारी को सामाजिक सुरक्षा व सम्मान भी चाहिए, मातृत्व का सुख भी चाहिए। यह हर औरत का जायज़ हक़ है और जो उसे यह न दे सके, उसे उसकी ज़िन्दगी से निकल ही जाना चाहिए। 

कुछ साल बाद ! अचानक एक हवाई अड्डे पर जज साहब जेनी के रूबरू हो जाते हैं। लेकिन वह अकेली नहीं है। साथ में उसका पति है। उसका नन्हा बालक है। चंद पलों की यह मुलाक़ात बता देती है कि जेनी मोड़ काटकर ज़िन्दगी की राह में आगे बढ़ गई है। पर क्या जज साहब भी बढ़ पाए हैं ? या फिर प्यार का काँटा आज भी उनके दिल में धंसा है ? 

स्वर्गीय अनंत बालानी ने फ़िल्म का निर्देशन प्रशंसनीय ढंग से किया है (उनका फ़िल्म के प्रदर्शन से कुछ दिवस पूर्व ही निधन हो गया था)। कथा तो प्रत्यक्षतः छोटी-सी ही है लेकिन पटकथा इस ढंग से लिखी गई है कि एक के बाद एक घटनाएं घटती चली जाती हैं, भावनाओं से ओतप्रोत कथा में मोड़ और घुमाव आते चले जाते हैं और दर्शक आख़िर तक बंधे रहते हैं। किसी भी स्थान पर फ़िल्म ऊबने नहीं देती। एक छोटी-सी कहानी को इस क़दर दिलचस्प तरीक़े से पेश करना बहुत बड़ी बात है। 

फ़िल्म के पात्र फ़िल्मी नहीं लगते, हाड़-मांस के बने जीते-जागते इंसान लगते हैं। प्यार में बड़ी से बड़ी उम्र का इंसान बच्चे जैसा व्यवहार करने लगता है और जिसे वह चाहता है, उस पर हक़ जताने लगता है (पज़ेसिव होने लगता है)। यह तथ्य फ़िल्म में अत्यंत रोचक ढंग से रेखांकित किया गया है। फिर बात यह भी तो है कि वो इश्क़ ही क्या जिसमें जुनून न हो ?

फ़िल्म के लेखक एवं दिग्दर्शक ने दोनों प्रमुख पात्रों को पूरी गरिमा एवं आदर के साथ प्रस्तुत किया है एवं उनके व्यक्तित्व में कहीं पर भी हल्कापन नहीं दर्शाया है। केवल अल्हड़ व्यक्ति ही तो प्रेम नहीं करते, परिपक्व व्यक्ति भी तो कर सकते हैं और करते हैं। मुझे इस तथ्य ने बहुत प्रभावित किया कि एक अनजाने-से रिश्ते में बंध गए दोनों ही व्यक्ति (पुरुष भी, स्त्री भी) एकदूसरे का बहुत सम्मान करते हैं। मेरे अपने विचार में भी पारस्परिक सम्मान का स्थान प्रेम से पूर्व आता है। आप उसी को प्रेम कर सकते हैं जिसका सम्मान भी करते हों। 

संगीत पक्ष में क़ाबिल-ए-तारीफ़ सिर्फ़ स्वर्गीय जगजीत सिंह जी की गाई हुई ग़ज़ल है - 'बड़ी नाज़ुक है ये मंज़िल,  मोहब्बत का सफ़र है; धड़क आहिस्ता से ऐ दिल, मोहब्बत का सफ़र है'। इस ग़ज़ल का यह शेर फ़िल्म की कहानी पर एकदम सटीक बैठता है‌ - 'कोई सुन ले न ये किस्सा, बहुत डर लगता है; मगर डरने से क्या हासिल, मोहब्बत का सफ़र है'। तकनीकी रूप से भी फ़िल्म ठीक ही है। शोर कुछ कम होता तो बेहतर रहता। अभिनय पक्ष अत्यंत सबल है। जज साहब की पोती के रूप में (बाल कलाकार) भावना रूपारेल ने शानदार काम किया है। अन्य सहायक पात्रों में विशेष उल्लेख जज साहब की पुत्री की भूमिका में दिव्या दत्ता का किया जा सकता है। वैसे सभी कलाकारों ने अपने चरित्रों के साथ न्याय किया है। परंतु यह फ़िल्म वस्तुतः इसके दोनों मुख्य पात्रों के कंधों पर ही टिकी है तथा दोनों ने ही अपनी-अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक दिए हैं। आयु का बहुत अंतर होने पर भी विक्टर बनर्जी तथा पेरिज़ाद ज़ोराबियन ने रजतपट पर प्रशंसनीय संगति प्रस्तुत की है। दोनों ने ही अपने-अपने किरदारों के जज़्बात को बाख़ूबी उभारा है। कुल मिलाकर यह एक साफ़-सुथरी और देखने लायक़ फ़िल्म है। 

फ़िल्म की बात तो हो गई। दुनियावी सवाल यह है कि क्या ऐसे रिश्ते जो शादी या हमेशा के साथ में न बदल सकें, बनाए जाने चाहिए। जवाब यह है कि जज़्बाती रिश्ते बनाए नहीं जाते, अपने आप बन जाते हैं। जब कोई अच्छा लगने लगता (या लगती) है तो उससे कन्नी नहीं काटी जा सकती। वीरेन्द्र मिश्र जी द्वारा रचित एक गीत की एक पंक्ति है - कैसे ठुकरा दूं कि किसी ने जब अपना माना है मुझको ? प्यार सोच-समझकर नहीं किया जा सकता और बार-बार दोहराया गया यह सच वाक़ई एक सच ही है कि प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। स्वर्गीय जगजीत सिंह जी का गाया हुआ तथा उन्हीं के द्वारा संगीतबद्ध एक गीत है - 'होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो'। इंदीवर जी के लिखे हुए इस अति सुंदर एवं मर्मस्पर्शी गीत की दो पंक्तियां इस प्रकार हैं - न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन। जॉगर्स पार्क के ये प्रेमी (यदि इनके अपरिभाषित संबंध को हम 'प्रेम' का नाम दे दें) भी बस इकदूजे का मन ही देखते हैं, और कुछ नहीं। मैंने ऊपर ही लिखा है कि यह फ़िल्म साफ़सुथरी है। पुरुष और स्त्री में संबंध मन का है, तन की ओर तो कोई संकेत तक नहीं है। संभवतः आत्मिक संबंध (जिन्हें प्लेटोनिक संबंध कहा जाता है) ऐसे ही होते हैं। आजकल 'सोलमेट' शब्द भी बहुत सुनने में आता है जिसका अर्थ ही है - रूह का साथी (जिस्म का नहीं)। 

मगर न तो समाज प्रेमियों के हिसाब से चलता है, न ही दुनिया। अगर दोनों ही अकेले हैं तो वे अपने प्यार के दम पर यकीनन निबाह लेंगे और दुनिया का भी सामना कर लेंगे लेकिन अगर दोनों में से किसी एक का या फिर दोनों ही का पहले से परिवार है तो फिर बिछोह ही उनका मुक़द्दर है। क़ुरबानी देनी ही होगी - अपने प्यार की न सही (क्योंकि वह तो दिलों में हमेशा रहेगा) तो अपने साथ की। और प्यार का दूसरा नाम क़ुरबानी ही तो है। जब तक समाज है, तब तक मर्यादा है और मर्यादा की ख़ातिर प्यार को सदा बलिवेदी पर झुकना ही पड़ा है - चाहे सोलहवीं सदी रही हो या इक्कीसवीं। 

भावनाओं का सागर है यह फ़िल्म जो भावुक व्यक्तियों के लिए ही बनी है पर जिसे वे भी पसंद करेंगे जो भावुक कम हैं, व्यावहारिक अधिक। आदम और हव्वा के ज़माने से ही हम जानते हैं कि विपरीत लिंगी के आकर्षण के मामले में औरत का दिल किसी और तरीक़े से काम करता है, मर्द का किसी और तरीक़े से। मैं तो पुरुष हूँ, स्त्री के मन की थाह लेना मेरे वश की बात नहीं। पर हाँ, पुरुष को स्त्री से क्या चाहिए; इसे मैं 'होठों से छू लो तुम' गीत के ही इस अंतरे के माध्यम से स्पष्ट कर सकता हूँ:

जग ने छीना मुझसे, मुझे जो भी लगा प्यारा
सब जीता किए मुझसे, मैं हरदम ही हारा 
तुम हार के दिल अपना मेरी जीत अमर कर दो

youtube video link:
https://www.youtube.com/watch?v=v5gIjY_G2-s

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