शनिवार, 16 दिसंबर 2023

आंतरिक लेखा-परीक्षा की व्यावहारिक चुनौतियां

मनुष्य की भूलने की आदत ने लेखांकन (accounting) के कार्य को जन्म दिया तथा लेखांकन में अनजाने में होने वाली त्रुटियों एवं जान-बूझकर की जाने वाली गड़बड़ियों (बेईमानियों) के कारण प्रादुर्भाव हुआ लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण (audit) की अवधारणा का। अन्य शब्दों में कहा जाए तो लेखांकन इसलिए आरम्भ हुआ क्योंकि जैसा कि महाजनी व्यावसायिक परम्परा में कहा जाता है – पहले लिख और पीछे दे, भूल पडे कागद से लेजबकि लेखा-परीक्षा का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि व्यवसायियों एवं लेखापालों दोनों ने इस उक्ति को हृदयंगम किया – भूल करना मानव का स्वभाव है’ (to err is human)। और जब हम किसी भी कार्य में भूलों की सम्भावना को देखते हैं तो ऐसी (सम्भावित) भूलों का पता लगाना एवं उनका सुधार करना भी हमारे लिए आवश्यक होता है। यही आवश्यकता जननी बनी लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण के आविष्कार की।

मूलतः लेखा-परीक्षा इसलिए आरम्भ हुई ताकि व्यवसाय की एक वर्ष (अथवा उससे कम की) अवधि पूर्ण होने पर बनाए जाने वाले अंतिम लेखों की विश्वसनीयता बनी रहे जो उस अवधि के हानि-लाभ तथा व्यवसाय की दायित्व एवं सम्पत्ति संबंधी स्थिति को दर्शाते हैं। लेखा-परीक्षक द्वारा किया गया प्रमाणीकरण इस विश्वसनीयता का आधार माना गया। किन्तु धीरे-धीरे यह अनुभव किया गया कि बड़े पैमाने के व्यवसायों में ऐसी आंतरिक नियंत्रण व्यवस्था होनी चाहिए जिससे त्रुटियां कम-से-कम हों तथा वे वर्षांत से पूर्व ही पकड़ी एवं सुधारी जा सकें,  साथ ही बेईमानी एवं ग़बन की सम्भावनाएं भी न्यूनतम हो जाएं। इस निमित्त व्यावसायिक संगठन की व्यवस्था में आंतरिक जाँच (internal check) के साथ-साथ प्रवेश हुआ आंतरिक लेखा-परीक्षा (internal audit) का जो सामान्य लेखा-परीक्षा की भांति किसी बाह्य अभिकरण (external agency) द्वारा भी की जा सकती है या फिर संगठन अपना निजी आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग (in-house internal audit department) भी स्थापित कर सकता है। और जो संगठन इस दूसरे विकल्प को चुनते हैं, उनमें आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य को करने वाले अपने कार्य की सैद्धांतिक चुनौतियों से इतर कुछ व्यावहारिक चुनौतियों का भी सामना करते हैं।

मुख्यतः ये चुनौतियां दो होती हैं – पहली स्वयं उनसे सम्बन्धित होती है तो दूसरी संगठन की संबंधित इकाई में कार्यरत अन्य लोगों से (जिनके कार्य का लेखा-परीक्षण किया जाता है)। पहली चुनौती इसलिए आती है क्योंकि लेखा-परीक्षक संगठन के ही कर्मचारी होते हैं तथा अन्य कर्मचारियों की भांति पदोन्नति, अन्य परिलाभों एवं सुविधाओं के आकांक्षी होते हैं। साथ ही वे बहुत-सी छोटी-बड़ी चीज़ों हेतु अन्य कर्मचारियों एवं वरिष्ठ अधिकारियों पर निर्भर होते हैं। इसके लिए सभी स्तरों पर विभिन्न लोगों से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना आवश्यक होता है। संबंध बिगाड़ने का ख़तरा मोल लेकर नौकरी नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में एक लेखा-परीक्षक को जो स्वतंत्रता (independence) एवं स्वायत्तता (autonomy) उपलब्ध होनी चाहिए, वह नहीं होती। बाह्य संस्था के लोग स्वतंत्र भी होते हैं एवं स्वायत्त भी जब वे आंतरिक लेखा-परीक्षा का कार्य करते हैं। संगठन के एक अंग के रूप में ही स्थित आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग के सदस्यों हेतु तो यह दुर्लभ ही होता है। ऐसे में अपने कार्य का निष्पादन करना उनके लिए सीधी रस्सी पर चलने (tightrope-walk) के समकक्ष ही होता है क्योंकि नौकरी भी करनी है और किसी को (जहाँ तक हो सके) नाराज़ भी नहीं करना है।

दूसरी चुनौती होती है लेखा-परीक्षा कार्य तथा लेखा-परीक्षकों के प्रति अन्य लोगों का नकारात्मक दृष्टिकोण। यद्यपि बहुचर्चित किंग्सटन कॉटन मिल्स केस (the Kingston Cotton Mills case) में विद्वान न्यायाधीशों ने स्पष्ट कर दिया था कि लेखा-परीक्षक एक रखवाली करने वाला कुत्ता (watchdog) है न कि शिकारी कुत्ता (bloodhound), तथापि जिन विभागों की लेखा-परीक्षा की जाती है, वे भी एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीगण भी लेखा-परीक्षकों को संदेह की दृष्टि से ही देखते हैं एवं उन्हें अपना सहयोगी न समझकर केवल भूलें पकड़ने वाले लोग (fault-finders) समझते हैं। इसके कारण वे उनसे दूरी बनाए रखने एवं उन्हें सहयोग न देने में ही अपनी भलाई मानते हैं। नतीजा यह होता है कि आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग में कार्यरत कर्मचारियों को उनकी उत्तर न देने वाली प्रवृत्ति (non-responsiveness) से जूझना पड़ता है। संबधित विभागों से उत्तर न मिलने पर वे वरिष्ठ अधिकारियों के पास पहुँचते हैं तो प्रायः उनकी ओर से भी सहयोग प्राप्त नहीं हो पाता क्योंकि वे भी लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति नकारात्मक सोच से ही ग्रस्त होते हैं। ऐसे में आंतरिक लेखा-परीक्षकों हेतु अपने उत्तरदायित्वों को निभाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह चुनौती तब और भी गंभीर हो जाती है जब आंतरिक लेखा-परीक्षक पदोन्नतियां न मिलने के कारण संगठन के पदानुक्रम (hierarchy) में निचले स्तर पर ही रह जाएं क्योंकि जो व्यक्ति पदोन्नतियां न मिलने के कारण औरों से कनिष्ठ रह जाए, उसकी बात को महत्व नहीं दिया जाता।   

इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने हेतु संगठन के सभी स्तरों पर (विशेषतः उच्च पदाधिकारियों के स्तर पर) आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति भ्रांतियों को दूर करना आवश्यक है। सभी उत्तरदायी अधिकारियों को विविध कार्यक्रमों, व्याख्यानों, गोष्ठियों आदि के माध्यम से यह समझाया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षा केवल अनुपालन (compliance) सुनिश्चित करने हेतु ही नहीं होती वरन जोखिम प्रबंधन (risk management), प्रचालन प्रक्रियाओं को अधिक कुशल बनाने (प्रच्छन्न अकुशलताओं की ओर ध्यानाकर्षण करके), आंतरिक वित्तीय नियंत्रण (internal financial control) सुनिश्चित करने तथा शीर्ष प्रबंधन के निर्णय लेने में सहयोग हेतु भी होती है। उनके मन में इस सत्य को स्थापित किया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षक अपने अन्य विभागीय सहयोगियों का मित्र है, विरोधी अथवा शत्रु नहीं। उसका कार्य प्रक्रियागत त्रुटियों का पता लगाकर उनके यथासमय सुधार हेतु सम्बन्धित व्यक्तियों को जागरूक करना है, किसी को संदिग्ध मानकर उसके पीछे पड़ना (witch-hunt) नहीं। आंतरिक लेखा-परीक्षकों को भी उच्च-प्रबंधन को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करना चाहिए कि उनका कार्य कोई आवश्यक बुराई (necessary evil) तथा संसाधनों का अपव्यय नहीं है वरन एक ऐसा कार्य है जिसके जाँच-परिणामों (findings) पर ध्यान देकर संगठन के मूल्यवान संसाधनों एवं लागत को बचाया जा सकता है।

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8 टिप्‍पणियां:

  1. बड़े संस्थानों में आंतरिक लेख परीक्षा के बिना लेखांकन का कार्य अपूर्ण ही माना जाता है।

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    1. जी हाँ यशवन्त जी। ठीक कहा आपने। बहुत-बहुत शुक्रिया आपका।

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  2. लेखांकन के विषय में बहुत अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी देती बहुत सुन्दर पोस्ट ।

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