शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

स्वप्नद्रष्टा को नमन

आज राजीव गाँधी का ७ वां जन्मदिवस है । वे इक्कीसवीं शताब्दी में अवतरित होने जा रहे उन्नत प्रौद्योगिकी सम्पन्न आधुनिक भारत के स्वप्नद्रष्टा थे । इस अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं उनके जीवन एवं व्यक्तित्व का आकलन अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

गाँधीवादी सांसद फ़िरोज़ तथा लौह-महिला इन्दिरा के इस ज्येष्ठ पुत्र ने माता और पिता दोनों ही के सद्गुण अपने व्यक्तित्व में पाए किन्तु राजनीति में कभी रुचि नहीं ली और विमान-चालक बनकर ही प्रसन्न रहे । राजनीति का क्षेत्र अपने अनुज संजय के लिए छोड़कर वे प्रेमिका से अर्द्धांगिनी बन चुकीं सोनिया तथा दोनों के उत्कट और पवित्र प्रेम के प्रतीक दो नौनिहालों के साथ एक शांत और सुखी गृहस्थ जीवन बिताते रहे । लेकिन जैसा कि कहते हैं - मेरे मन कछु और है, विधना के कछु और; विधि के विधान ने उनके जीवन को एक अप्रत्याशित मोड़ दे दिया जब संजय की अकाल-मृत्यु हो गई एवं तदोपरांत राष्ट्रीय राजनीति में एकाकी अनुभव कर रहीं अपनी माता का संबल बनने के लिए उन्हें अनिच्छा से राजनीति में प्रवेश करना पड़ा । अपने भ्राता संजय के संसदीय क्षेत्र अमेठी को ही उन्होंने भी अपनी राजनीतिक कर्मभूमि चुना पर तीन वर्ष से अधिक समय तक वे सुर्खियों से दूर ही रहते हुए भारतीय राजनीति की बारीकियाँ समझते रहे । लेकिन ३१ अक्टूबर, १९८४ को  उनके राजनीतिक जीवन का निर्णायक क्षण आ पहुँचा, फ़ैसले की घड़ी आ गई । उनकी माता और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या ने उनकी नियति को सुनिश्चित कर दिया । तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की आपत्तियों एवं चालों को अनदेखा करते हुए उनके परिवार के प्रति निष्ठावान ज्ञानी ज़ैल सिंह ने भारत के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अपने आपातकालीन संवैधानिक अधिकार का उपयोग करते हुए उन्हें उसी दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी । इस तरह चालीस वर्ष की आयु में वे भारत के ही नहीं वरन विश्व के सर्वाधिक युवा शासन-प्रमुख बने ।

अनुभवहीन एवं राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व राजीव गाँधी ने पूर्ववर्ती मंत्रिपरिषद् को ही यथावत् रखा एवं इन्दिरा गाँधी की मृत्यु से उत्पन्न समुदाय-विशेष को लक्ष्य करती हुई हिंसा की लहर से निपटने का दायित्व तत्कालीन गृह मंत्री पी॰वी॰ नरसिंह राव पर डाल दिया जिसके निर्वहन में वे सर्वथा असफल रहे क्योंकि हिंसक दंगे सहस्रों निर्दोष जीवनों को लील गए । ऐसे में उनकी अपरिपक्व प्रतिक्रिया -'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है' मैंने दूरदर्शन पर उनके मुख से सुनी और आज सैंतीस वर्षों के अंतराल के उपरांत भी मैं पाता हूँ कि अंजाने में मुखर हुई उनकी उस अपरिपक्व वाणी को अब भी उनके राजनीतिक विरोधी उनके विरुद्ध उद्धृत करते हैं । उन्हें और उनके राजनीतिक दल को देश का एक प्रमुख समुदाय कभी क्षमा नहीं कर सका किन्तु उनकी माता की लोकप्रियता से उद्भूत सहानुभूति लहर ने उन्हें अभूतपूर्व चुनावी सफलता दिलाई । तीन चौथाई से अधिक बहुमत पाकर वे पुनः भारत के प्रधानमंत्री बने एवं नव-संकल्प, नव-उत्साह, नव-दृष्टिकोण के साथ देश की बागडोर संभाली । इस अवसर पर हिन्दी के मूर्धन्य कवि डॉ॰ हरिराम आचार्य जी ने उनका मार्गदर्शन करने वाली एक प्रेरक कविता लिखी जिसकी कतिपय पंक्तियाँ थीं :

ये हार इसलिए तुझको पिन्हाये हैं हमने

कि तुझे ध्यान रहे रास्ते के शूलों का

नये सिरे से तेरा इसलिए है अभिनंदन

तुझे ख़याल रहे अब तलक की भूलों का

राजीव गाँधी ने अपनी भूलों से कुछ सबक सीखे, कुछ नहीं सीखे लेकिन उनके हृदय में राष्ट्र को प्रगति-पथ पर ले जाने की जो उदात्त एवं निश्छल भावना थी, वही उनकी पथ-प्रदर्शक बनी । दंगों के दौरान अपने कर्तव्य-निर्वहन में विफल रहे पी॰वी॰ नरसिंह राव के स्थान पर शंकरराव चव्हाण को गृह मंत्री बनाकर उन्होंने नरसिंह राव को मानव-संसाधन विभाग में भेज दिया जबकि अति-महत्वाकांक्षी प्रणब मुखर्जी को सीधे मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाकर स्वच्छ छवि वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को वित्त मंत्री बनाया । अब राजीव गाँधी जनता और नौकरशाही दोनों के समक्ष एक स्वप्नद्रष्टा के रूप में आए एवं यह सिद्ध करने में लग गए कि युवा नेता के व्यक्तित्व ही नहीं, विचारों एवं कार्यशैली में भी यौवन का उत्साह और सुगंध थी ।

स्त्री-पुरुष समानता एवं साथ ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण एवं स्थानीय प्रशासन में जनसहभागिता में अटूट विश्वास करने वाले राजीव गाँधी ने पंचायती राज की अवधारणा को प्रस्तुत किया जिसके आधार पर कुछ वर्षों के उपरांत (उनके देहावसान के उपरांत) संविधान का ७३ वां संशोधन पारित हुआ एवं पंचायती राज की अवधारणा को प्रसृत किए जाने के साथ-साथ उसमें आधी जनसंख्या के यथेष्ट प्रतिनिधित्व के निमित्त महिला प्रतिनिधियों हेतु ३३ प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया । उनके अपने ही दल द्वारा पोषित दलबदल के नासूर को मिटाने हेतु उन्होंने दलबदल विरोधी विधान पारित करवाकर उसे संविधान की १०वीं अनुसूची में सम्मिलित करवाया । वे स्वच्छ राजनीति में विश्वास रखते थे एवं सत्ता के कारण अपने दल में आई विकृतियों को दूर करना चाहते थे । इसलिए दिसंबर १९८५ में बंबई में आयोजित कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने दल एवं सरकार को सत्ता के दलालों से मुक्त करने का आह्वान किया तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार को साहसिक रूप से स्वीकार करते हुए कहा कि सरकार द्वारा जनकल्याण हेतु भेजे गए एक रुपये में से केवल पंद्रह पैसे ही वास्तविक लाभार्थियों तक पहुँच पाते हैं (बाकी पिच्चासी पैसे भ्रष्टाचारियों की जेबों में चले जाते हैं) । उन्होंने उद्योगपतियों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रष्टाचार तथा निर्भय होकर कर-वंचन करने वालों पर अंकुश लगाने के लिए अपने वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को किसी भी प्रकार की कार्रवाई करने की खुली छूट दी जिसका लाभ उठाकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न केवल व्यवसाय एवं उद्योग जगत की बड़ी मछलियों पर जाल फेंका वरन अपनी निजी छवि को भी चमकाया और अंततः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के प्रबल पक्षधर राजीव गाँधी को ही भ्रष्टाचार के आरोप में लपेटकर जनता-जनार्दन की दृष्टि से पतित कर दिया । यह राजीव गाँधी की सरलता तथा विश्वासी स्वभाव (जो कि उन्हें अपनी माता से मिला था) का ही परिणाम था जो विश्वनाथ प्रताप सिंह इस भाँति उनकी पीठ में छुरा भोंक सके ।

राजीव गाँधी जब प्रधानमंत्री बने तो पंजाब, असम एवं मिज़ोरम जैसे राज्य हिंसक आंदोलन की अग्नि में झुलस रहे थे । राजीव गाँधी ने इन राज्यों में शांति-स्थापना को सत्ता पर प्राथमिकता देते हुए आंदोलनकारी समूहों के साथ समझौते किए एवं उन्हें चुनाव लड़कर मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया । मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की वार्ता करने की प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर राजीव गाँधी ने भारतीय राजनीति के सभी विशेषज्ञों को चौंका दिया । अर्जुन सिंह ने स्वयं को सौंपे गए अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील दायित्व का भलीभाँति निर्वहन करते हुए अकाली दल के वरिष्ठ नेता सरदार हरचरण सिंह लोंगोवाल के साथ केंद्रीय सरकार का समझौता करवाया जिसमें पंजाब में दीर्घकाल से चल रहे आंदोलन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण विवादों का समाधान निकालने का प्रयास किया गया । इसी ढंग से असम के आंदोलनकारी छात्र-नेताओं के साथ असम समझौता एवं मिज़ोरम में हिंसक आंदोलन कर रहे मिज़ो नेशनल फ्रंट के साथ मिज़ो समझौता किया गया । ये समझौते राजीव गाँधी द्वारा जनहित में उठाया गया ऐसा कदम था जिसमें उनके दल के सत्ता गंवा देने का पूरा-पूरा जोखिम था । लेकिन राजीव गाँधी ने जानते-बूझते राष्ट्र और इन राज्यों के जनसमुदाय के हित में यह राजनीतिक जोखिम लिया और सिद्ध किया कि वे सत्तालोभी नहीं थे वरन जनहित को सर्वोपरि मानने वाले राष्ट्र के सच्चे सेवक थे । समझौतों के उपरांत हुए विधानसभा चुनावों में तीनों ही राज्यों में कांग्रेस सत्ताच्युत हो गई । पंजाब में अकाली दल ने सरकार बनाई तथा सुरजीत सिंह बरनाला मुख्यमंत्री बने । असम में असम गण परिषद ने सरकार बनाई एवं बत्तीस वर्षीय प्रफुल्ल कुमार महंत देश के सर्वाधिक युवा मुख्यमंत्री बने । मिज़ोरम में मिज़ो नेशनल फ्रंट ने सरकार बनाई एवं उसके नेता लालदेंगा मुख्यमंत्री बने । लेकिन सत्ता गंवाकर भी राजीव गाँधी को अशांत राज्यों में शांति-स्थापना करने एवं सामान्य स्थिति को लौटाने का सार्थक प्रयास करने का आत्मिक संतोष प्राप्त हुआ । आज लोकप्रिय-से लोकप्रिय-राजनेता से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सत्ता गंवाने का जोखिम लेकर जनहित में कोई कार्य करेगा । ऐसा साहस एवं नैतिक बल अब किसी भारतीय राजनेता में नहीं है । लेकिन राजीव गाँधी ने ऐसा किया और इसीलिए वे असाधारण थे । उनके मन में राजनीतिक दावपेंचों के स्थान पर मूलभूत ईमानदारी और निश्छलता थी जो कि भारतीय राजनीति में एक दुर्लभ वस्तु ही है ।

लेकिन देश के साथ-साथ पड़ोसी देश की भी शांति-स्थापना में सहायता करने के चक्कर में अपनी अनुभवहीनता और अति-सरलता के चलते राजीव गाँधी से गंभीर राजनीतिक भूल हुई । वे श्रीलंका के प्रजातीय समीकरणों को बिसरा कर वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के कूटनीतिक जाल में फंस गए तथा अपने सम्मान के लिए संघर्षरत तमिल विद्रोहियों के संगठन लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑव तमिल ईलम) से लड़ने के लिए भारतीय शांति सेना को वहाँ भेज बैठे । उनकी इस भूल के कारण न केवल राष्ट्र को भारी धनराशि तथा अनेक सैनिकों की आहुति उस व्यर्थ के हवन में देनी पड़ी वरन वे स्वयं भी लिट्टे की दृष्टि में खलनायक बन गए जिसके कारण लिट्टे द्वारा रचे गए एक वृहत् षड्यंत्र का शिकार होकर उन्हें अपनी इस भूल का मूल्य २१ मई, १९९१ को श्रीपेरुम्बुदूर में अपने प्राणों के रूप में चुकाना पड़ा ।

अपने मन में सत्तामोह से रहित तथा निस्वार्थ होते हुए भी संभवतः अपने इर्द-गिर्द उपस्थित गुट की ग़लत सलाहों के असर में राजीव गाँधी ने और भी कई ग़लतियां कीं जिसने आगे चलकर उनके दल को सत्ता की सियासत में भारी नुक़सान पहुँचाया । ऐसा कहा जाता है कि माखनलाल फ़ोतेदार, कैप्टन सतीश शर्मा, गोपी अरोड़ा, अर्जुन सिंह आदि उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता तथा अनुभवहीनता का लाभ उठाकर उन्हें अनुचित परामर्श देते थे । बहरहाल चाहे जिस कारण से भी सही, राजीव गाँधी ने कई ग़लत कदम उठाए । उन्होंने एक ओर तो रामजन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवा दिया और दूसरी ओर चर्चित शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उलटने वाला मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियमपारित करवा दिया । इससे न केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही समुदाय कांग्रेस दल से दूर हो गए वरन आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे प्रगतिशील विचारों वाले युवा मुस्लिम नेता का साथ भी उनसे छूट गया । दलित समुदाय को तो पहले ही कांशीराम बरगला कर अपने साथ ले जा चुके थे जिसका राजीव गाँधी को समय रहते भान तक नहीं हुआ था । परिणाम यह हुआ कि देश के दो सबसे बड़े एवं राष्ट्रीय राजनीति के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में उनका दल अपनी राजनीतिक भूमि खो बैठा ।

राजीव गाँधी ने एक ओर तो मुफ़्ती मोहम्मद सईद जैसे ज़मीन से जुड़े काश्मीरी नेता को अपने मंत्रिमंडल में लेकर काश्मीर से दूर कर दिया, दूसरी ओर फ़ारूक अब्दुल्ला जैसे मौकापरस्त और ग़ैर-जिम्मेदार नेता के नेतृत्व में कांग्रेस को काश्मीर की सत्ता में साझीदार बना दिया । इससे मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने रुष्ट होकर पहले मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया और अंततः कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी जिससे कांग्रेस के अपने बलबूते पर जम्मू-काश्मीर की सत्ता में आने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो गईं । दूसरी ओर फ़ारूक अब्दुल्ला की नाकामियों का ठीकरा कांग्रेस के सर पर भी फूटा ।

राजीव गाँधी ने देश के संवैधानिक प्रमुख ज्ञानी ज़ैल सिंह के साथ मधुर संबंध बनाकर नहीं रखे और कमलकान्त तिवारी जैसे विवेकहीन मंत्री को उनके विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने की खुली छूट दे दी जबकि उनके प्रधानमंत्री बनने का मुख्य श्रेय ज्ञानी जी को ही जाता था । आख़िर ज्ञानी जी ने अपनी ताक़त दिखाते हुए सेवानिवृत्त होने से केवल एक दिन पहले राष्ट्राध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने की धमकी देकर राजीव गाँधी को कमलकांत तिवारी को मंत्रिपरिषद से बाहर करने पर मजबूर कर दिया । इससे राजीव गाँधी की सार्वजनिक छवि पर विपरीत प्रभाव ही पड़ा ।

लेकिन भूलें अपनी जगह हैं तथा योगदान अपनी जगह । सर्वगुणसंपन्न तो कोई भी नहीं होता । राजीव गाँधी भी मानव ही थे और मानव से भूलें होती ही हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि राष्ट्र के उन्नयन में उनके योगदान को अनदेखा कर दिया जाए । उनका सबसे बड़ा योगदान राष्ट्र के विकास में आधुनिक प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के रूप में रहा । वे सैम पित्रोदा के रूप में एक विशेषज्ञ को आगे लेकर आए और देश में दूरसंचार तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्रान्ति का सूत्रपात किया । यह उनका स्वप्न था कि इक्कीसवीं शताब्दी का भारत कंप्यूटर से काम करने वाले, दूरसंचार के अत्याधुनिक साधनों से युक्त तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व का मार्गदर्शन करने वाले नागरिकों का भारत हो । उनके इस स्वप्न का उनके राजनीतिक विरोधी उपहास करते थे लेकिन आज हम देख सकते हैं कि उस स्वप्नद्रष्टा का स्वप्न साकार हो चुका है । हर हाथ में मोबाइल है, कंप्यूटर पर काम करना रोज़मर्रा की बात हो चुकी है, इंटरनेट के माध्यम से हम सारे संसार से जुड़ चुके हैं एवं सभी महत्वपूर्ण घटनाओं की अद्यतन जानकारी अविलंब हम तक पहुँचती हैं ।

अपनी स्वच्छ छवि तथा राजनीतिक ईमानदारी के चलते १९८५ में राजीव गाँधी को 'मिस्टर क्लीन' के नाम से पुकारा जाने लगा था । लेकिन इस 'मिस्टर क्लीन' पर बोफ़ोर्स तोप सौदे में दी गई कथित ६४ करोड़ रुपयों की दलाली की कालिख पोतने का काम उन्हीं विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया जिन्हें राजीव गाँधी ने बड़े विश्वास एवं आशाओं के साथ वित्त एवं रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे थे । आज जब हजारों करोड़ के घोटाले सामने आ चुके हैं और उनके आरोपी न्यायालय से दंड पा चुकने के उपरांत भी सीना तानकर चलते हैं तो ६४ करोड़ रुपये की मामूली राशि के लिए राजीव गाँधी के नाम को निराधार कलंकित किया जाना उनके प्रति घोर अन्याय ही है । विश्वनाथ प्रताप सिंह तो उन पर यह झूठा आरोप लगाकर एवं उन्हें बदनाम करके प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने में सफल रहे (कुर्सी को पाने के लिए राजीव गाँधी की पीठ में छुरा भोंकने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कुर्सी मिल जाने के उपरांत अपने पर अंधा विश्वास करने वाले देश के करोड़ों युवाओं के साथ भी विश्वासघात ही किया) लेकिन अपने देहावसान के तीन दशक बाद भी राजीव गाँधी के माथे पर बिना किसी प्रमाण के यह झूठा कलंक आज तक लगाया जाता है । यह बात भी ग़ौरतलब है कि जिन बोफ़ोर्स तोपों की ख़रीद को मुद्दा बनाकर यह सारा नाटक किया गया, उन्हीं बोफ़ोर्स तोपों ने १९९९ में कारगिल के युद्ध में गरज-गरज कर दुश्मनों को मुँहतोड़ जवाब दिया ।

राजीव गाँधी के आकस्मिक निधन से उनके राजनीतिक दल को ही नहीं, भारतीय राजनीति तथा राष्ट्र को भी अपूरणीय क्षति पहुँची । उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार पाने में कभी सफलता नहीं मिली क्योंकि उसके पुनरुत्थान के लिए कोई मार्गदर्शक एवं प्रेरक नेता ही नहीं रहा । इन दोनों ही राज्यों की राजनीति सम्पूर्ण जनता के स्थान पर जाति विशेष एवं वर्ग विशेष पर केन्द्रित होकर रह गई क्योंकि विभाजक दृष्टिकोण वाले नेताओं की बन आई । दलित राजनीति का झण्डा कांशीराम-मायावती तथा रामविलास पासवान ने उठा लिया तो मण्डल आयोग के प्रतिवेदन पर आधारित पिछड़े वर्गों की राजनीति पर यादवी कब्ज़ा हो गया । जात-पांत तथा वर्ग-भेद के टुकड़ों में बंट चुकी इन दो वृहत् राज्यों की राजनीति से राष्ट्रीय दृष्टिकोण तथा समष्टि के हित-साधन की भावना तिरोहित हो गई । यह हानि केवल दल-विशेष की न होकर, सम्पूर्ण समाज एवं राष्ट्र की रही ।

आज जब हम स्मार्ट फ़ोन और इंटरनेट के माध्यम से संसार से प्रतिपल जुड़े रहते हैं, ज्ञानार्जन करते हैं तथा व्यवसाय के माध्यम से धनार्जन भी करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी इस प्रगति का स्वप्न साढ़े तीन दशक पूर्व हमारे युवा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने देखा था जो देश को कर्म और विचार दोनों ही से आधुनिक बनाना चाहते थे एवं बिना किसी भेदभाव के सभी वर्गों व समुदायों के भारतीय नागरिकों के जीवन में गुणात्मक सुधार लाना चाहते थे । उस कर्मशील स्वप्नद्रष्टा के योगदान को विस्मृत करना कृतघ्नता ही होगी । और हम भारतीयों के संस्कार तथा हमारे शास्त्र हमें कृतज्ञता ही सिखाते हैं, कृतघ्नता नहीं ।

आज सद्भावना दिवस पर सर्वत्र सद्भावना के प्रसार में विश्वास रखने वाले उस विशाल हृदयी स्वप्नदृष्टा को मेरा नमन ।

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मंगलवार, 17 अगस्त 2021

तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो

हाल ही में आदरणीय संदीप शर्मा जी ने मेरे समक्ष 'फ़िल्मों में प्रकृति' विषय पर लिखने का विचार प्रस्तुत किया। चूंकि मैं (कुछ अपवादों को छोड़कर) हिंदी फ़िल्मों पर ही लिखता हूँ, इसलिए मेरे लिए इस विषय को 'हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति' कहा जा सकता है। मैंने शर्मा जी को वचन नहीं दिया क्योंकि विगत कुछ मास से मेरा ब्लॉग जगत से मन उचाट-सा हो गया है और यह विषय तो गहन शोध एवं श्रम की मांग करता है, अतः झूठा वचन देना अनुचित ही होता (वैसे भी मेरी नज़र में झूठा वादा करना एक गुनाह है)। लेकिन . . .

लेकिन श्रावण मास चल रहा है जिसमें जब मेघ बरस रहे हों तो प्रकृति की छटा देखते ही बनती है। और मेघमय आकाश तथा वर्षा की बूंदों के साथ ही भावुक मन में उमड़ती हैं कोमल भावनाएं - किसी विशिष्ट के लिए। बारिश के साथ, ठंडी हवाओं और काली घटाओं के साथ, चहुँओर फैल रही हरियाली के साथ दिल पुकारता है उसे जिस पर वो निसार हो चुका है। श्रावण मास को हम लोग बोलचाल की भाषा में सावन कहते हैं जो भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं में मधुर पारिवारिक संबंधों से भी जुड़ा हुआ है एवं नर-नारी के सनातन प्रेम से भी।

हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति से संबंधित हज़ारों गीत हैं जिनमें से बहुत-से सावन पर ही हैं। ऐसी बहुत-सी हिंदी फ़िल्में भी बनीं हैं जिनमें सावन माह उनके कथानक का अंग है और अधिक न हो तो शीर्षक में ही सम्मिलित है, यथा - सावन आया रे (१९४९), सावन भादों (१९४९), सावन (१९५९), सावन की घटा (१९६६), आया सावन झूम के (१९६९), सावन भादों (१९७०), प्यासा सावन (१९८१), प्यार का सावन (१९९१), सावन (२००६) आदि। लेकिन जिस फ़िल्म ने मेरे मन को गहराई से छुआ और जो मेरी नज़र में प्रेम और संगीत का रूपहले परदे पर चलता-फिरता दस्तावेज़ है, उसका नाम है - सावन को आने दो। 
सावन को आने दो (१९७९) स्वर्गीय ताराचंद बड़जात्या की संस्था राजश्री की प्रस्तुति है जिसने अपने प्रदर्शन के समय सम्पूर्ण भारत में धूम मचा दी थी। इसके गीतों ने सुगम संगीत तथा शास्त्रीय संगीत दोनों ही के चाहने वालों के मन जीत लिए थे और आज भी इसके गीतों को सुनकर किसी भी संगीत-प्रेमी का हृदय आह्लादित हो उठता है। यह अत्यंत लोकप्रिय एवं व्यावसायिक दृष्टि से सफल फ़िल्म केवल मनोरंजन ही प्रदान नहीं करती, मानवीय मूल्यों तथा सात्विक प्रेम में आस्था को भी दृढ़ करती है। कथा के प्रमुख पात्रों के साथ-साथ दर्शक भी भावनाओं में डूबते-उतराते हैं एवं अंतिम दृश्य तो नयनों को भिगो देता है, मन में एक ऐसा भाव जगाता है जिसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

'सावन को आने दो' ग्रामीण परिवेश में पनपी प्रेमकथा है चंद्रमुखी (ज़रीना वहाब) तथा बिरजू (अरूण गोविल) की। बिरजू निर्धन है जबकि चंद्रमुखी ज़मींदार की पुत्री है अर्थात् धनी परिवार से है। समाज में वर्ग-भेद एवं ऊंच-नीच की दीवारें भी उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि स्त्री-पुरुष का प्रेम। किन्तु प्रेम तो यह सब नहीं देखता, वह तो किसी बाधा के रोके नहीं रूकता और जब हो जाता है तो न मिट सकता है, न भुलाया जा सकता है। चंद्रमुखी के पिता ज़मींदार साहब (अमरीश पुरी) बिरजू के गायन से प्रभावित तो होते हैं, उनका आशीर्वाद भी बिरजू के साथ है लेकिन बिरजू जानता है कि चंद्रमुखी को जीवन-संगिनी बनाने हेतु उसे अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाना होगा। इसके लिए वह क्या करे? उसे एक ही काम तो आता है - अपनी सुरीली आवाज़ में गाना। 

धन कमाने के निमित्त बिरजू महानगर जा पहुँचता है तथा जीवन-यापन हेतु श्रमिक बन जाता है। एक दिन श्रम करते हुए सड़क पर चलते-चलते जब वह अपनी मस्ती में गा भी रहा है, तब गीतांजलि (रीटा भादुड़ी) नामक युवती उसका गीत सुनती है तथा उस मधुर स्वर पर मुग्ध होकर तय करती है कि इस प्रतिभाशाली युवक की गायन-प्रतिभा संसार के समक्ष आनी चाहिए। संयोगवश वह चंद्रमुखी की सहेली भी है। गीतांजलि के सौजन्य से बिरजू को अवसर मिलता है - अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का, नाम और दाम कमाने का। और फिर वह लौटता है अपने गाँव - ज़मींदार साहब से अपने मनमंदिर की देवी चंद्रमुखी का हाथ मांगने। लेकिन . . .

लेकिन बिरजू भूल जाता है कि केवल धन कमाने से ऊंच-नीच की दीवारें (जो दिखावटी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी होती हैं) नहीं गिराई जा सकतीं। क्रोधित ज़मींदार साहब उससे प्रश्न करते हैं - इतना बड़ा सपना तेरी आँखों में समाया कैसे? बिरजू क्या उत्तर दे? चंद्रमुखी मातृहीन है। अपने मन का दर्द केवल अपनी सहेली से बांट सकती है। उसकी सहेली गीतांजलि भी मन-ही-मन बिरजू को चाहने लगी है लेकिन उसे पता है कि बिरजू केवल चंद्रमुखी का है, किसी और का नहीं। इधर ठुकराए गए बिरजू के मन में तूफ़ान उठता है। वह अपने दर्द को केवल अपनी आवाज़ में ही ढाल सकता है। अब वह बिरजू नहीं, पंडित बृजमोहन कहलाता है, एक-एक गीत गाने के हज़ारों रूपये लेता है लेकिन उसकी सबसे बड़ी पूंजी वह एक रूपया ही है जो कभी उसका गाना सुनकर चंद्रमुखी के पिता ने उसे दिया था। उस एक रूपये को उसने बड़े जतन से अपने पास संभालकर रखा है। लेकिन अपनी प्रेयसी को कैसे पाए? विरह की अग्नि में दोनों जल रहे हैं, भाग्य के आगे विवश हैं, दुखी हैं लेकिन भाग्य के अतिरिक्त किसी से उन्हें शिकायत नहीं है (ज़मींदार साहब से भी नहीं)। 

यह भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक ताराचंद बड़जात्या जी की फ़िल्म है जिसके विरहाग्नि में जल रहे नायक-नायिका रो तो सकते हैं किन्तु अपने प्रेम को पाने के निमित्त अपने बुज़ुर्गों को अपमानित करने अथवा उनकी अवहेलना करने वाला कोई काम नहीं कर सकते। घर से भागकर विवाह करने जैसे किसी कृत्य के विषय में तो वे सोच तक नहीं सकते। ऐसे ही संस्कार मिले हैं उन्हें। वे बस प्रतीक्षा करते हैं कि उनके विवाह हेतु सहमत न हो रहे उनके वृद्ध अभिभावक की मानसिकता उनके पक्ष में परिवर्तित हो और उनका शुभ-विवाह उनके आशीष से ही सम्पन्न हो। 

समय का चक्र चलता भी है और वक़्त बदलता भी है। ज़मींदार साहब की ज़मींदारी चली गई है, अब वे धनी नहीं हैं; चंद्रमुखी का विवाह करना तो दूर, अब स्थिति यहाँ तक आ गई है कि चंद्रमुखी को घर चलाने हेतु ग्राम के विद्यालय में नौकरी करनी पड़ रही है। विद्यालय की आर्थिक स्थिति भी शोचनीय है। सब जान गए हैं कि इसी ग्राम से निकला बिरजू आज महानगर में पंडित बृजमोहन बनकर बहुत धन कमा रहा है तथा यदि वह विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रम में अतिथि बनकर आ जाए तो विद्यालय को बहुत बड़ा सहारा मिल जाएगा। पर उसे आमंत्रण देने कौन जाए कि वह आने से मना न कर सके? चंद्रमुखी? क्या वह आएगा? और आएगा तो क्या होगा? इस कथा का सुखद अंत कैसे हो सकता है? 
राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित इस मनभावन एवं हृदयस्पर्शी कथा को कनक मिश्रा के सुघड़ निर्देशन तथा राजकमल के कालजयी संगीत ने ऐसा रूप प्रदान किया है कि इसे चाहे जितनी बार देखा जाए, जी नहीं भरता। यह वह फ़िल्म है जिसने अरूण गोविल नामक युवक को हिंदी फ़िल्म संसार के आकाश में सितारा बनाया। नायक-नायिका के रूप में अरूण गोविल तथा ज़रीना वहाब का चयन सर्वोपयुक्त था क्योंकि ये दोनों ही इस फ़िल्म में पारम्परिक सौंदर्य की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते लेकिन अपने-से लगते हैं मानो गाँव या कस्बे में अपने पासपड़ोस या गलीमोहल्ले के कोई लड़के-लड़की हों। इनकी जोड़ी ऐसी लगती है जैसे ये एकदूसरे के लिए ही बने हों। दोनों ने ही अपनी स्वाभाविक अभिनय प्रतिभा का प्रमाण दिया है। हिंदी फ़िल्मों के कुछ रूमानी दृश्य ऐसे हैं जो भुलाए नहीं भूलते तथा जिन्हें बार-बार देखने का मन करता है। इस फ़िल्म में भी शीर्षक गीत (तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो) से ठीक पूर्व बिरजू तथा चंद्रमुखी का एकदूसरे को निहारना एवं ख़यालों में खो जाना ऐसा ही एक दृश्य है।

जिन लोगों ने भारतीय फ़िल्मों के इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में से एक 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' (१९९५) देखी है, वे उस फ़िल्म में नायिका के पिता के रूप में अमरीश पुरी के चरित्र की तुलना 'सावन को आने दो' में अमरीश पुरी द्वारा निभाए गए नायिका के पिता के चरित्र से कर सकते हैं। अमरीश ने जैसा उत्कृष्ट अभिनय 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' में किया, वैसा ही उत्कृष्ट अभिनय वे उसके सोलह वर्ष पूर्व आई फ़िल्म 'सावन को आने दो' में कर चुके थे। न केवल इन दोनों फ़िल्मों में उनकी भूमिकाओं में समानता है वरन इन दोनों ही फ़िल्मों की भावनात्मक अंतर्धारा में भी समानता है (यद्यपि कथाएं भिन्न हैं)। दोनों ही फ़िल्मों के अंतिम दृश्य में नायिका के पिता जो पूर्व में उसके नायक को अपना जीवन साथी बनाने के विरूद्ध थे, उसके नायक के साथ संबंध को स्वीकार कर लेते हैं किन्तु जो नयनों में अश्रु ला देने वाली बात 'सावन को आने दो' के अन्तिम दृश्य में है, वह 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' के क्लाईमेक्स में नहीं है। 'सावन को आने दो' के अंतिम दृश्य में इस फ़िल्म का अंतिम गीत भी है - तेरी तसवीर को सीने से लगा रक्खा है, हमने दुनिया से अलग गाँव बसा रक्खा है। इस गीत के चलते-चलते ही फ़िल्म समाप्त होती है, किसी भी पात्र का कोई संवाद नहीं है, बिना कुछ कहे ही नायक, नायिका तथा नायिका के पिता के मध्य सब कुछ कह दिया जाता है।
फ़िल्म के अधिकांश दृश्य राजश्री की परम्परा के अनुरूप सादगी से परिपूर्ण हैं तथा ग्रामीण परिवेश को छायाकार रामचंद्र ने अत्यंत सुंदरता से पटल पर उतारा है। प्रकृति का सौंदर्य फ़िल्म के कई दृश्यों में बिखरा हुआ है विशेषतः शीर्षक गीत वाले दृश्य में जिसमें एक मोर को भी नृत्य करते हुए दिखाया गया है। एच वी महारूद्र शेट्टी का कला-निर्देशन तथा अन्य तकनीकी पक्ष भी उत्कृष्ट हैं। गीतांजलि के रूप में रीटा भादुड़ी तथा छोटी-छोटी भूमिकाओं में विभिन्न सहायक कलाकारों ने भी अपने-अपने चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय किया है।

फ़िल्म के प्राण इसके गीतसंगीत में बसे हैं। जैसे सुंदर गीत गौहर कानपुरी, फ़ौक जामी, माया गोविंद, इंदीवर, पूर्ण कुमार होश, मदन भारती, अभिलाष तथा पुरुषोत्तम पंकज ने रचे हैं, वैसे गीत तो अब हिंदी फ़िल्मों में मिलना दुर्लभ ही हो गया है। ये गीत वस्तुतः फ़िल्मी गीत न होकर उत्कृष्ट काव्य के उदाहरण हैं। संगीत-निर्देशक राजकमल ने बहुत कम फ़िल्मों में संगीत दिया लेकिन वे कितने प्रतिभाशाली थे, 'सावन को आने दो' की सुमधुर धुनें इसका प्रमाण हैं। येसुदास, हेमलता, आनंद कुमार, जसपाल सिंह, कल्याणी मित्र तथा सुलक्षणा पंडित के स्वरों में गूंजते गीत ऐसे हैं जो किसी भी सच्चे संगीत-प्रेमी के हृदय में जीवन भर के लिए बस जाएं। कुल दस गीतों के अवलम्ब से फ़िल्म की कथा आगे बढ़ती है तथा ये दस-के-दस गीत भारतीय फ़िल्म संगीत के कोष के अनमोल रत्न हैं। मैं पूर्ण सूची दे रहा हूँ:

१. चाँद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा
२. जानम, तेरा मेरा प्यार नया है, गीत पुराना साज़ नया है
३. तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो
४. तुझे देखकर जग वाले पर यकीं नहीं क्यूं कर होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर वो कितना सुंदर होगा
५. गगन ये समझे चाँद सुखी है, चंदा कहे सितारे
६. तेरे बिन सूना मेरे मन का मंदिर, आ रे आ रे आ
७. बोले तो बाँसुरी कहीं बजती सुनाई दे, ऐसा बदन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे 
८. कजरे की बाती अँसुअन के तेल में,आली मैं हार गई अँखियन के खेल में
९. पत्थर से शीशा टकरा के वो कहते हैं दिल टूटे न
१०. तेरी तसवीर को सीने से लगा रक्खा है, हमने दुनिया से अलग गाँव बसा रक्खा है
      
फ़िल्म के कण-कण में भारतीयता व्याप्त है। एक साफ़-सुथरी पारिवारिक फ़िल्म कैसी होती है, जो जानना चाहे, इस फ़िल्म को देख ले। फ़िल्म में धन-वैभव का व्यर्थ प्रदर्शन नहीं है तथा भारतीय जीवन मूल्यों एवं आदर्शों को स्थान-स्थान पर दर्शाया गया है। नायक-नायिका का प्रेम कोई फ़िल्मी रोमांस नहीं, वह सच्चा प्रेम है जो एक बार किसी को किसी से हो जाए तो फिर किसी और से नहीं हो सकता। यह प्रेम केवल विरह में ही नहीं; मिलन में भी सात्विक है, पावन है। सावन मास की प्रेम-वर्षा में भिगो देने वाली फ़िल्म है यह। यदि आपने जीवन में किसी से सचमुच प्रेम किया है तो फ़िल्म के समापन दृश्य में आपके अश्रु न उमड़ आएं, यह संभव नहीं। 
कुछ वर्ष पूर्व आई एक फ़िल्म में कहा गया था - कुछ कहानियां सच्ची लगती हैं मगर अच्छी नहीं लगतीं जबकि कुछ कहानियां सच्ची तो नहीं लगतीं मगर बड़ी अच्छी लगती हैं। हम जानते हैं कि न तो ऐसे गाँव आज भारत में देखने को मिलते हैं तथा न ही ऐसी प्रेमकथाएं वास्तविक जीवन में घटित होती हैं। लेकिन क्या हमारा मन नहीं चाहता कि ऐसे स्थान, ऐसे लोग, ऐसी कथाएं वास्तविक जीवन में भी हों? यदि वास्तव में ऐसा हो तो यह संसार कितना सुंदर बन जाए !

है न ?

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मंगलवार, 3 अगस्त 2021

उन्हें भी जीने का हक़ है

अपने लेख 'मैं शाकाहारी क्यों हूँ' में मैंने कहा है कि जीवन का जितना अधिकार मनुष्यों को है, अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार उससे कम नहीं है। और क्यों हो कम ? जिस प्रकृति, जिस सबसे बड़ी शक्ति ने संपूर्ण सृष्टि को बनाया है, मानवों को बनाया है; उसी ने अन्य प्राणियों को भी बनाया है। जीवन लेने का अधिकार उसी को है जो जीवन दे सकता है। जब हम किसी को ज़िन्दगी दे नहीं सकते तो अपने स्वार्थ के लिए किसी की ज़िन्दगी लेने का भी हमें कोई हक़ नहीं है। क्या इंसान को दिमाग़ इसलिए मिला है कि वह निरीह जानवरों को ग़ुलाम बनाकर उन पर ज़ुल्म करता रहे और जब अपनी सहूलियत नज़र आए, उनकी जान ले ले ? हरगिज़ नहीं ! लेकिन इंसान की इसी ख़ुदगर्ज़ी ने आज समूची क़ायनात के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है, इसी ख़ुदगर्ज़ी ने कुदरत को वक़्त-वक़्त पर अपना क़हर ढाने पर मजबूर कर दिया है, यह याद दिलाने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया आख़िरकार फ़ानी ही है। न जाने कब इंसान की आँखें खुलेंगी, कब वह अपनी ख़ुदगर्ज़ी से निजात पाएगा, कब वह समझेगा कि कुदरत के तवाज़न को बिगाड़कर और मासूम जानवरों का क़त्ल करके वह अपनी ही कब्र खोद रहा है ? कम-से-कम हमारे मुल्क के बेहिस और बेईमान निज़ाम में तो ज़्यादातर लोग आँखों वाले अंधे ही साबित हो रहे हैं। वन-सम्पदा, वन्य-जीवन तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण की बातें ही होती हैं, वास्तविक धरातल पर तो इसके विपरीत ही होता है। 

बॉलीवुड में इस विषय पर 'माँ' (१९७६), 'सफ़ेद हाथी' (१९७) 'हबारी' (१९७) तथा 'सफ़ारी' (१९) जैसी कई अच्छी एवं सार्थक फ़िल्में बनीं हैं। दक्षिण भारत के निर्माता-निर्देशक एम.एम.ए. चिन्नप्पा देवर तो ऐसे पशु-प्रेमी थे कि प्रायः पशुओं से संबंधित कथाओं पर ही फ़िल्में बनाया करते थे (राजेश खन्ना अभिनीत सुपर हिट फ़िल्म 'हाथी मेरे साथी' उन्हीं का सृजन थी)। लेकिन आज सरकारी पाखंड का हाल यह है कि क़त्लख़ाने तो बेरोकटोक चल रहे हैं लेकिन मदारियों और सर्कस चलाने वालों की रोज़ी-रोटी बंद हो गई है, असली जानवरों को लेकर फ़िल्में नहीं बनाई जा सकतीं (यह काम कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स से करना पड़ता है) और फ़िल्म में किसी जानवर को दिखाया जाए तो शुरु में बताना पड़ता है कि फ़िल्म बनाते समय किसी जानवर को नुकसान नहीं पहुँचाया गया था (वैसे चाहे अनगिनत जानवर रोज़ मार डाले जाते हैं पर उसकी छूट है)। बाघ संरक्षण की सरकारी परियोजना पर अब तक करोड़ों फूंके जा चुके हैं लेकिन देश में बाघों की संख्या घटती ही जा रही है। कैसे न घटे जब भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से पेशेवर शिकारी कानून से डरे बिना उन्हें मारते जा रहे हों ? इस विषय पर एक सार्थक फ़िल्म की प्रतीक्षा दीर्घकाल से थी। अमेज़न प्राइम प्लेटफ़ॉर्म पर प्रदर्शित हिन्दी फ़िल्म 'शेरनी' ने इस आवश्यकता को पूरा किया है। इसके निर्देशक हैं अमित मसुरकर तथा इसमें प्रमुख भूमिका निभाई है विद्या बालन ने।

'शेरनी' वस्तुतः एक शेरनी अथवा मादा बाघ की ही फ़िल्म है जिसके लिए कहा जा रहा है कि वह नरभक्षी (आदमख़ोर) बन गई है। वन विभाग के अभिलेखों में इस बाघिन का नाम है - 'टी-12'  सरकारी वन विभाग अपने ढर्रे से कार्य कर रहा है जबकि निकट के ग्रामवासी आये दिन हो रही मृत्युओं से त्रस्त हैं। सरकारी महकमा ग़रीब गाँव वालों को गाहे-ब-गाहे अपने जानवरों को चराने के लिए उस इलाके में आने से मना कर देता है जो उनके लिए एक दूसरी ही दुश्वारी है क्योंकि वे उन्हें चराने के लिए और कहाँ जाएं ? यह सब दो स्थानीय प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं के लिए चुनाव में भुनाने का भी विषय बन गया है। ऐसे में एक संवेदनशील स्त्री मंडलीय वन अधिकारी (DFO) के पद पर वहाँ पहुँचती है तथा सभी परिस्थितियों को निष्ठापूर्वक समझती है। वह स्वयं अपने विभाग द्वारा प्रताड़ित है एवं प्रेम-विवाह करने पर भी पारिवारिक सुख से वंचित है क्योंकि नौकरी करने के निमित्त वह अपने पति से दूर रहती है। नौकरी छोड़ना चाहती है पर पति ही नहीं छोड़ने देता क्योंकि उसका वेतन ही परिवार की आय का मुख्य स्रोत है (पति ठीक से नहीं कमा रहा)। अपने कार्यशील एवं निजी जीवन में नितांत एकाकी यह महिला भी उस शेरनी की ही भांति है जिसे स्वार्थी राजनेताओं से लेकर चापलूस एवं भ्रष्ट सरकारी अधिकारी तथा एक संवेदनहीन शिकारी तक सभी मार डालना चाहते हैं। एक स्थानीय ग्राम पंचायत समिति की सदस्या तथा उस क्षेत्र के वन संबंधी मामलों का विशेषज्ञ एक जीव-विज्ञान का प्राध्यापक वस्तुस्थिति को भलीभांति समझते हैं एवं इस नई वन अधिकारी की सहायता करते हैं। सब कुछ समझ-बूझकर यह संवेदना से ओतप्रोत कर्तव्यनिष्ठ महिला न केवल ग्रामवासियों की समस्याओं को सुलझाने का वरन उस शेरनी एवं उसके दो नन्हे शावकों की प्राण-रक्षा का भी संकल्प लेती है। क्या वह सफल हो पाती है ? इस प्रश्न का उत्तर फ़िल्म के अंत में ही मिलता है।
'शेरनी' फ़िल्म में वास्तविक शेरनी अथवा बाघिन को केवल एक ही दृश्य में दिखाया गया है। पर इस फ़िल्म की नायिका भी वस्तुतः एक शेरनी ही है। लेकिन व्यवस्था में जब चहुँओर सभी स्तरों पर स्वार्थी लोग बैठे हों जो अपनी-अपनी रोटियां सेकने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हों तो चाहे कोई सद्गुणी एवं कर्तव्यपरायण मनुष्य हो अथवा कोई निर्दोष पशु; कहाँ तक संघर्ष करे, कहाँ तक लड़े ? हमारे देश में अधिकतर स्थानों पर व्यवस्था का हाल यही है कि उच्च पदों पर स्वार्थी एवं संवेदनहीन व्यक्ति ही बैठे होते हैं। उचित मानसिकता वाले, योग्य, परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ एवं संवेदनशील व्यक्ति (यदि वे चापलूसी एवं सेटिंग करने में निपुण न हों तो) उच्च पदों पर पहुँच ही नहीं पाते। उनकी पदोन्नतियां पहले ही रोक दी जाती हैं तथा वे अपने से कम योग्य (कभी-कभी तो सर्वथा अयोग्य) व्यक्तियों के अधीन कार्य करने पर विवश कर दिए जाते हैं। चूंकि उनके अधिकार सीमित होते हैं, अनेक बार वे चाहकर भी उचित कार्य नहीं कर पाते। व्यवस्था उनके हाथ बाँध देती है, उन्हें बेड़ियों में जकड़ देती है। चापलूसों एवं स्वार्थियों की भीड़ में उनकी बात नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ ही साबित होती है। फिर सरकारी नौकरी हो तो उन्हें रास्ते से हटाने का बहुत ही आसान तरीका हमेशा मौजूद होता है - तबादला। 
लेखिका आस्था टिक्कू की यथार्थपरक एवं संवेदनशील कथा को दिग्दर्शक अमित मसुरकर ने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। फ़िल्म वन्य-जीवन के संरक्षण के संदर्भ में दोनों आयाम प्रस्तुत करती है - यथार्थ अर्थात् जो विद्यमान है एवं आदर्श अर्थात् जो होना चाहिए। प्रमुख भूमिका के लिए विद्या बालन का चयन फ़िल्म के निर्माताओं का सर्वोत्तम निर्णय था क्योंकि विद्या ने प्रमुख पात्र को पटल पर जीवंत कर दिया है। स्वर्गीय संजीव कुमार के देहावसान के उपरांत विद्या ही मुझे एक ऐसी कलाकार लगती हैं जो प्रत्येक भूमिका हेतु उपयुक्त हैं। वे कच्ची मिट्टी के लौंदे की तरह हैं जो हर साँचे में ढल जाता है। अन्य सभी कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा-पूरा न्याय किया है। मैंने विजय राज़ को प्रथम बार एक गंभीर भूमिका में (एक संवेदनशील प्राध्यापक एवं वन-विज्ञानी के रूप में) देखा। उनके साथ-साथ स्थानीय पंचायत समिति की सदस्या (जो कि एक आदिवासी महिला है) के रूप में सम्पा मंडल का कार्य भी उल्लेखनीय है। संगीत भी अच्छा है एवं फ़िल्म में रखे गए गीत उसकी कथा के अनुरूप ही हैं। सभी तकनीकी पक्ष अत्यंत उच्च कोटि की गुणवत्ता वाले हैं एवं संबंधित लोग भूरि-भूरि प्रशंसा के अधिकारी हैं। इस फ़िल्म को बनाने हेतु इसके निर्माता (टी सीरीज़) भी साधुवाद के पात्र हैं क्योंकि यह फ़िल्म मनोरंजन के निमित्त है ही नहीं। इसका एक-एक दृश्य सच्चाई और सिर्फ़ सच्चाई को उजागर करता है। 

पर्यावरण तथा वन्य-जीवन का संरक्षण भाषणों एवं पाखंड से सम्भव ही नहीं है। यह केवल तभी सम्भव है जब इस कार्य से जुड़े व्यक्तियों, विभागों एवं संस्थाओं की नीयत में सत्य उपस्थित हो। कहा कुछ और जाए, किया कुछ और जाए; ऐसे पाखंड के चलते पर्यावरण, पारिस्थितिकीय संतुलन, वन-सम्पदा, वन्य-जीवन, पशु-पक्षी आदि सभी उसी प्रकार विनाश की दिशा में अग्रसर होते जाएंगे जिस प्रकार विगत अनेक दशकों से हो रहे हैं। जहाँ तक जीव-जंतुओं का सवाल है, मैं एक बार फिर दोहराता हूँ, उन्हें सिर्फ़ तभी मारा जाना चाहिए जब ऐसा करना अपनी जान बचाने के लिए ज़रूरी हो जाए। अपनी ख़ुदगर्ज़ी के लिए उनकी जान लेना एक ऐसा गुनाह है जिसके लिए कोई माफ़ी नहीं हो सकती। उन्हें भी जीने का हक़ है, सिर्फ़ हमें नहीं। 

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