मंगलवार, 3 अगस्त 2021

उन्हें भी जीने का हक़ है

अपने लेख 'मैं शाकाहारी क्यों हूँ' में मैंने कहा है कि जीवन का जितना अधिकार मनुष्यों को है, अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार उससे कम नहीं है। और क्यों हो कम ? जिस प्रकृति, जिस सबसे बड़ी शक्ति ने संपूर्ण सृष्टि को बनाया है, मानवों को बनाया है; उसी ने अन्य प्राणियों को भी बनाया है। जीवन लेने का अधिकार उसी को है जो जीवन दे सकता है। जब हम किसी को ज़िन्दगी दे नहीं सकते तो अपने स्वार्थ के लिए किसी की ज़िन्दगी लेने का भी हमें कोई हक़ नहीं है। क्या इंसान को दिमाग़ इसलिए मिला है कि वह निरीह जानवरों को ग़ुलाम बनाकर उन पर ज़ुल्म करता रहे और जब अपनी सहूलियत नज़र आए, उनकी जान ले ले ? हरगिज़ नहीं ! लेकिन इंसान की इसी ख़ुदगर्ज़ी ने आज समूची क़ायनात के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है, इसी ख़ुदगर्ज़ी ने कुदरत को वक़्त-वक़्त पर अपना क़हर ढाने पर मजबूर कर दिया है, यह याद दिलाने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया आख़िरकार फ़ानी ही है। न जाने कब इंसान की आँखें खुलेंगी, कब वह अपनी ख़ुदगर्ज़ी से निजात पाएगा, कब वह समझेगा कि कुदरत के तवाज़न को बिगाड़कर और मासूम जानवरों का क़त्ल करके वह अपनी ही कब्र खोद रहा है ? कम-से-कम हमारे मुल्क के बेहिस और बेईमान निज़ाम में तो ज़्यादातर लोग आँखों वाले अंधे ही साबित हो रहे हैं। वन-सम्पदा, वन्य-जीवन तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण की बातें ही होती हैं, वास्तविक धरातल पर तो इसके विपरीत ही होता है। 

बॉलीवुड में इस विषय पर 'माँ' (१९७६), 'सफ़ेद हाथी' (१९७) 'हबारी' (१९७) तथा 'सफ़ारी' (१९) जैसी कई अच्छी एवं सार्थक फ़िल्में बनीं हैं। दक्षिण भारत के निर्माता-निर्देशक एम.एम.ए. चिन्नप्पा देवर तो ऐसे पशु-प्रेमी थे कि प्रायः पशुओं से संबंधित कथाओं पर ही फ़िल्में बनाया करते थे (राजेश खन्ना अभिनीत सुपर हिट फ़िल्म 'हाथी मेरे साथी' उन्हीं का सृजन थी)। लेकिन आज सरकारी पाखंड का हाल यह है कि क़त्लख़ाने तो बेरोकटोक चल रहे हैं लेकिन मदारियों और सर्कस चलाने वालों की रोज़ी-रोटी बंद हो गई है, असली जानवरों को लेकर फ़िल्में नहीं बनाई जा सकतीं (यह काम कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स से करना पड़ता है) और फ़िल्म में किसी जानवर को दिखाया जाए तो शुरु में बताना पड़ता है कि फ़िल्म बनाते समय किसी जानवर को नुकसान नहीं पहुँचाया गया था (वैसे चाहे अनगिनत जानवर रोज़ मार डाले जाते हैं पर उसकी छूट है)। बाघ संरक्षण की सरकारी परियोजना पर अब तक करोड़ों फूंके जा चुके हैं लेकिन देश में बाघों की संख्या घटती ही जा रही है। कैसे न घटे जब भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से पेशेवर शिकारी कानून से डरे बिना उन्हें मारते जा रहे हों ? इस विषय पर एक सार्थक फ़िल्म की प्रतीक्षा दीर्घकाल से थी। अमेज़न प्राइम प्लेटफ़ॉर्म पर प्रदर्शित हिन्दी फ़िल्म 'शेरनी' ने इस आवश्यकता को पूरा किया है। इसके निर्देशक हैं अमित मसुरकर तथा इसमें प्रमुख भूमिका निभाई है विद्या बालन ने।

'शेरनी' वस्तुतः एक शेरनी अथवा मादा बाघ की ही फ़िल्म है जिसके लिए कहा जा रहा है कि वह नरभक्षी (आदमख़ोर) बन गई है। वन विभाग के अभिलेखों में इस बाघिन का नाम है - 'टी-12'  सरकारी वन विभाग अपने ढर्रे से कार्य कर रहा है जबकि निकट के ग्रामवासी आये दिन हो रही मृत्युओं से त्रस्त हैं। सरकारी महकमा ग़रीब गाँव वालों को गाहे-ब-गाहे अपने जानवरों को चराने के लिए उस इलाके में आने से मना कर देता है जो उनके लिए एक दूसरी ही दुश्वारी है क्योंकि वे उन्हें चराने के लिए और कहाँ जाएं ? यह सब दो स्थानीय प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं के लिए चुनाव में भुनाने का भी विषय बन गया है। ऐसे में एक संवेदनशील स्त्री मंडलीय वन अधिकारी (DFO) के पद पर वहाँ पहुँचती है तथा सभी परिस्थितियों को निष्ठापूर्वक समझती है। वह स्वयं अपने विभाग द्वारा प्रताड़ित है एवं प्रेम-विवाह करने पर भी पारिवारिक सुख से वंचित है क्योंकि नौकरी करने के निमित्त वह अपने पति से दूर रहती है। नौकरी छोड़ना चाहती है पर पति ही नहीं छोड़ने देता क्योंकि उसका वेतन ही परिवार की आय का मुख्य स्रोत है (पति ठीक से नहीं कमा रहा)। अपने कार्यशील एवं निजी जीवन में नितांत एकाकी यह महिला भी उस शेरनी की ही भांति है जिसे स्वार्थी राजनेताओं से लेकर चापलूस एवं भ्रष्ट सरकारी अधिकारी तथा एक संवेदनहीन शिकारी तक सभी मार डालना चाहते हैं। एक स्थानीय ग्राम पंचायत समिति की सदस्या तथा उस क्षेत्र के वन संबंधी मामलों का विशेषज्ञ एक जीव-विज्ञान का प्राध्यापक वस्तुस्थिति को भलीभांति समझते हैं एवं इस नई वन अधिकारी की सहायता करते हैं। सब कुछ समझ-बूझकर यह संवेदना से ओतप्रोत कर्तव्यनिष्ठ महिला न केवल ग्रामवासियों की समस्याओं को सुलझाने का वरन उस शेरनी एवं उसके दो नन्हे शावकों की प्राण-रक्षा का भी संकल्प लेती है। क्या वह सफल हो पाती है ? इस प्रश्न का उत्तर फ़िल्म के अंत में ही मिलता है।
'शेरनी' फ़िल्म में वास्तविक शेरनी अथवा बाघिन को केवल एक ही दृश्य में दिखाया गया है। पर इस फ़िल्म की नायिका भी वस्तुतः एक शेरनी ही है। लेकिन व्यवस्था में जब चहुँओर सभी स्तरों पर स्वार्थी लोग बैठे हों जो अपनी-अपनी रोटियां सेकने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हों तो चाहे कोई सद्गुणी एवं कर्तव्यपरायण मनुष्य हो अथवा कोई निर्दोष पशु; कहाँ तक संघर्ष करे, कहाँ तक लड़े ? हमारे देश में अधिकतर स्थानों पर व्यवस्था का हाल यही है कि उच्च पदों पर स्वार्थी एवं संवेदनहीन व्यक्ति ही बैठे होते हैं। उचित मानसिकता वाले, योग्य, परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ एवं संवेदनशील व्यक्ति (यदि वे चापलूसी एवं सेटिंग करने में निपुण न हों तो) उच्च पदों पर पहुँच ही नहीं पाते। उनकी पदोन्नतियां पहले ही रोक दी जाती हैं तथा वे अपने से कम योग्य (कभी-कभी तो सर्वथा अयोग्य) व्यक्तियों के अधीन कार्य करने पर विवश कर दिए जाते हैं। चूंकि उनके अधिकार सीमित होते हैं, अनेक बार वे चाहकर भी उचित कार्य नहीं कर पाते। व्यवस्था उनके हाथ बाँध देती है, उन्हें बेड़ियों में जकड़ देती है। चापलूसों एवं स्वार्थियों की भीड़ में उनकी बात नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ ही साबित होती है। फिर सरकारी नौकरी हो तो उन्हें रास्ते से हटाने का बहुत ही आसान तरीका हमेशा मौजूद होता है - तबादला। 
लेखिका आस्था टिक्कू की यथार्थपरक एवं संवेदनशील कथा को दिग्दर्शक अमित मसुरकर ने बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। फ़िल्म वन्य-जीवन के संरक्षण के संदर्भ में दोनों आयाम प्रस्तुत करती है - यथार्थ अर्थात् जो विद्यमान है एवं आदर्श अर्थात् जो होना चाहिए। प्रमुख भूमिका के लिए विद्या बालन का चयन फ़िल्म के निर्माताओं का सर्वोत्तम निर्णय था क्योंकि विद्या ने प्रमुख पात्र को पटल पर जीवंत कर दिया है। स्वर्गीय संजीव कुमार के देहावसान के उपरांत विद्या ही मुझे एक ऐसी कलाकार लगती हैं जो प्रत्येक भूमिका हेतु उपयुक्त हैं। वे कच्ची मिट्टी के लौंदे की तरह हैं जो हर साँचे में ढल जाता है। अन्य सभी कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा-पूरा न्याय किया है। मैंने विजय राज़ को प्रथम बार एक गंभीर भूमिका में (एक संवेदनशील प्राध्यापक एवं वन-विज्ञानी के रूप में) देखा। उनके साथ-साथ स्थानीय पंचायत समिति की सदस्या (जो कि एक आदिवासी महिला है) के रूप में सम्पा मंडल का कार्य भी उल्लेखनीय है। संगीत भी अच्छा है एवं फ़िल्म में रखे गए गीत उसकी कथा के अनुरूप ही हैं। सभी तकनीकी पक्ष अत्यंत उच्च कोटि की गुणवत्ता वाले हैं एवं संबंधित लोग भूरि-भूरि प्रशंसा के अधिकारी हैं। इस फ़िल्म को बनाने हेतु इसके निर्माता (टी सीरीज़) भी साधुवाद के पात्र हैं क्योंकि यह फ़िल्म मनोरंजन के निमित्त है ही नहीं। इसका एक-एक दृश्य सच्चाई और सिर्फ़ सच्चाई को उजागर करता है। 

पर्यावरण तथा वन्य-जीवन का संरक्षण भाषणों एवं पाखंड से सम्भव ही नहीं है। यह केवल तभी सम्भव है जब इस कार्य से जुड़े व्यक्तियों, विभागों एवं संस्थाओं की नीयत में सत्य उपस्थित हो। कहा कुछ और जाए, किया कुछ और जाए; ऐसे पाखंड के चलते पर्यावरण, पारिस्थितिकीय संतुलन, वन-सम्पदा, वन्य-जीवन, पशु-पक्षी आदि सभी उसी प्रकार विनाश की दिशा में अग्रसर होते जाएंगे जिस प्रकार विगत अनेक दशकों से हो रहे हैं। जहाँ तक जीव-जंतुओं का सवाल है, मैं एक बार फिर दोहराता हूँ, उन्हें सिर्फ़ तभी मारा जाना चाहिए जब ऐसा करना अपनी जान बचाने के लिए ज़रूरी हो जाए। अपनी ख़ुदगर्ज़ी के लिए उनकी जान लेना एक ऐसा गुनाह है जिसके लिए कोई माफ़ी नहीं हो सकती। उन्हें भी जीने का हक़ है, सिर्फ़ हमें नहीं। 

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38 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(०४-०८-२०२१) को
    'कैसे बचे यहाँ गौरय्या!'(चर्चा अंक-४१४६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. इतनी सधी हुई समीक्षा पढ़ कर तो अब ये फ़िल्म देखनी ही पड़ेगी । आभार

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    1. धन्यवाद संगीता जी। अवश्य देखिए, मनोरंजन हेतु नहीं वरन उस यथार्थ को देखनेसमझने हेतु जिससे मुंह नहीं फेरा जा सकता।


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  3. फिल्म की समीक्षा के जरिए वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालता बहुत ही बेहतरीन और उम्दा लेख और समीक्षा!
    मुझे लगता है
    फिल्म की समीक्षा तो बहाना है,वास्तव में लोगों को प्रकृति के प्रति जागरूक करना है!और भर्ष्ट कानून व्यवस्था पर अपने आक्रोश दिखाना है!
    सच में आक्रोश से भरा बहुत ही बेहतरीन लेख👍👍👍

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    1. आपको जो लगता है, वह सही है मनीषा जी। मेरी फ़िल्म समीक्षाएं प्रायः मेरे विचारों एवं भावों के प्रकटीकरण का बहाना ही होती हैं। बहुतबहुत शुक्रिया आपका।

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  4. बहुत ही सारगर्भित विषय पर आपका आलेख सराहनीय है, शेरनी फिल्म की समीक्षा के उदाहरण द्वारा वन्यजीवों के प्रति आपकी संवेदनशील धारणा का बिम्ब भी इस लेख को अच्छा और पठनीय बना गया। अब फिल्म तो देखनी पड़ेगी,सही जानकारी देने के लिए आपका आभार।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया जिज्ञासा जी। सम्भव हो तो फ़िल्म अवश्य देखिए।

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  5. वाकई बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है और ठीक उसी गहराई से लिखी गई आपकी प्रतिक्रिया। प्रकृति को हम बहुत उथला होकर सोचते हैं और हालिया फिल्मों की बात करें तो हिंदी में प्रकृति और वन्य जीवों के संरक्षण पर गिनती की ही फिल्में आ रही हैं, शेरनी में विद्या बालन की भूमिका सराहनीय है लेकिन यह साहस और फिल्म डायरेक्टर को भी दिखाना होगा। फिल्में समाज में वह सब बो देती हैं जो उसे पसंद आने लगता है तब मुझे लगता है कि प्रकृति की परेशानी और उसके दर्द भी इस माध्यम से आम जन तक पहुंच सकते हैं। शेरनी पर एक आलेख मैंने अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया है...। बहुत सुंदर समीक्षा के लिए आपको भी साधुवाद।

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    1. मैं आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ शर्मा जी। मुझे यह जानकर भी प्रसन्नता हुई कि इस उत्कृष्ट फ़िल्म पर आपने भी अपनी पत्रिका में आलेख प्रकाशित किया है। हृदयतल से आभार आपका।

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  6. अनयत्र भी समीक्षा पढ़ा और शेरनी देखा भी पर यहाँ एक अलग ही दृष्टिकोण से देखना सुखद लगा । हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ सुन्दर दृष्टि के लिए ।

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  7. शेरनी पर सूक्ष्म दृष्टि से समीक्षा, चित्र को देखने को प्रेरित कर रहे हैं ।
    प्राणी मात्र से सहानुभूति एक संवेदनशील इंसान की ऊंची सोच
    सच में अपने प्राण षभीज्ञको प्यारे हैं चाहे पशु पक्षी हो या मानव। काश ये सिर्फ स्वाद के लिए स्वाहा नहीं होते ।
    बहुत प्रभावशाली लेख।

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    1. जी हां कुसुम जी। आपने एकदम सच कहा। मेरा भी यही कहना, यही मानना है। बहुतबहुत आभार आपका।

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  8. "शेरनी" की सुन्दर समीक्षा। साथ में सरकार, सरकार के पाखंड और सरकारी कर्मचारियों की खाल भी उतार ली। सभी को जीने का हक है इसलिए मैं शाकाहारी हूं सर। और मुझे फ़क्र है कि मैं शाकाहारी हूं। कई साल पहले शाकाहार के लिए"आपके तर्क, कुतर्क हैं" नाम से पोस्ट लिखी थी। एक ब्लॉगर "उस्ताद जी" नाम से लोगों की पोस्ट का मूल्यांकन करते थे। मुझे कभी 10 में से 3 तो कभी 4 नंबर देते। लेकिन "आपके तर्क. कुतर्क हैं" को 10 में 7 नंबर दिए। वैसे अगर कोई जानवर आदमखोर हो जाये और उससे बचने का कोई तरीका नहीं हो तो मैं उसे मारने का समर्थन कर सकता हूँ। सादर।

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    1. आपकी बात सही है वीरेन्द्र जी। आप फ़िल्म (अगर अब तक नहीं देखी है तो) अवश्य देखिए। उसमें बताया गया है कि कोई पशु आदमख़ोर क्यों और कैसे बनता है। मारा तभी जाना चाहिए, जब दूसरा कोई उपाय न हो (इस बात को भी फ़िल्म प्रतिपादित करती है)। आपकी पोस्ट 'आपके तर्क. कुतर्क हैं' को मैं शीघ्र ही पढूंगा। बहुत-बहुत आभार आपका।

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  9. जितेन्द्र जी, वन्य जीवन के सरंक्षण पर फ़िल्म शेरनी भी बनी है , ये आपके लेख से ही जाना। आपकी समीक्षा फ़िल्म देखने के लिए प्रेरित करती है। पर खेद है कि मुझे फ़िल्म देखने के लिए समय ही नहीं। पर फ़िल्मों के विमर्श में मेरी पूरी रूचि है। फ़िल्म को सभी पक्षों से परखने के बाद ही लिखा है आपने। फ़िल्मों का जीवन में बहुत प्रभाव है। वे बहुत कुछ सीखा देती हैं। अबोले पशु पक्षी सृष्टि का श्रृंगार हैं। उन्हें भी जीने का पूरा हक है। फिल्मकार भी आम इंसान होते हैं । उनमें भी संवेदनाएं होती है। और उनके द्वारा दिखाये गये प्रयास चेतना तो जरुर लाते हैं।'हाथी मेरे साथी ' बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति थी। सच यही है कि शाकाहार जीवन का पावन प्रण है जिसमें इन्सान का खुद बहुत बडा हित है।सुन्दर फिल्म समीक्षा के बहाने से संवेदनशील लेख के लिए बधाई और आभार आपका।🙂

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    1. हार्दिक आभार माननीया रेणु जी। मैं आपके सभी विचारों से सहमत हूँ।

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  10. "शेरनी "की बेहतरीन समीक्षा के साथ-साथ यथार्थ पर भी जोरदार प्रहार किया है आपने। फिल्म समीक्षा का आपका दृष्टिकोण ही अलग होता है जितेंद्र जी ,बहुत कुछ संदेश दे जाते हैं आप। शानदार लेख,सादर नमन

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  11. मुझे तो ये फिल्म बहुत अच्छी लगी ...
    लीक से अल हट कर एक सही विषय पर ... समस्या समाधान दोनों हैं ...

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    1. इस फ़िल्म के संदर्भ में आप और मैं एक ही धरातल एवं एक ही तरंग-दैर्ध्य पर हैं दिगम्बर जी। आगमन एवं विचार-प्राकट्य हेतु हार्दिक आभार आपका।

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  12. जितेंद्र जी आपने फिल्मों पर काफी कुछ लिखा है या यूं कहा जाए कि गहन लिखा है। मेरे विचार में एक विषय आ रहा था जिसे आपको बताना चाहता हूं यदि अन्यथा न लें...क्योंकि मेरा मानना है जो जिसे बेहतर लिख सकता है वही उसे लिखे तो बेहतर है...विषय जिस पर आप लिख सकते है
    ैं- फिल्मों में प्रकृति...

    जैसा कि आप भी जानते हैं कि पुरानी फिल्मों में गीत हों या फिल्में प्रकृति के इर्दगिर्द होती थीं, लेकिन अब फिल्मों से प्रकृति नदारद है...शेरनी की बात न करें तो...देखियेगा सुझाव बेहतर लगे तो लिखियेगा...एक अच्छा आलेख आपके माध्यम से सामने आ सकता है। मेरी शुभकामनाएं।

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  13. झूठा वादा तो नहीं कर सकता शर्मा जी। किंतु प्रयास करूंगा। इसके लिए समय निकालना होगा। मेरे कुछ लेख अभी लम्बित हैं, उसके उपरांत इस दिशा में कुछ सार्थक करने का प्रयास करूंगा। मुझे समय दीजिए।

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  14. बहुत ही श्रम भरा कार्य , अच्छा आलेख ज्ञान वर्धक और शाकाहार को प्रेरित करने वाला , चलचित्र का उदाहरण देकर आप ने बखूबी समझाया। राधे राधे।

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    1. आपका आगमन ही मेरे लिए अत्यन्त सम्मान की बात है आदरणीय भ्रमर जी। हृदयतल से आभार आपका।

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  15. शेरनी फ़िल्म की समीक्षा के माध्यम से वन्य जीवों के प्रति बहुत ही संवेदनशील रचना, जितेंद्र भाई।

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  16. क्या इंसान को दिमाग़ इसलिए मिला है कि वह निरीह जानवरों को ग़ुलाम बनाकर उन पर ज़ुल्म करता रहे और जब अपनी सहूलियत नज़र आए, उनकी जान ले ले ? हरगिज़ नहीं ! लेकिन इंसान की इसी ख़ुदगर्ज़ी ने आज समूची क़ायनात के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है, इसी ख़ुदगर्ज़ी ने कुदरत को वक़्त-वक़्त पर अपना क़हर ढाने पर मजबूर कर दिया है,
    वन्य जीवों के प्रति संवेदना एवं उनके संरक्षण के बावत आपके भाव अत्यंत सराहनीय हैं जितेंद्र जी
    शेरनी फिल्म की लाजवाब समीक्षा फिल्म देखने को प्रेरित कर रही है।

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    1. हृदय से आपका आभार आदरणीया सुधा जी। शेरनी फ़िल्म अवश्य देखिए। ऐसी फ़िल्में कभीकभार ही बनती हैं।

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  17. समीक्षा ऐसी लिखी है जो फ़िल्म देखने के लिए प्रेरित करती है प्रभावशाली लेख

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    1. हार्दिक आभार संजय जी। यह फ़िल्म अवश्य देखिए। ऐसी फ़िल्में मुश्किल से ही बनती हैं।

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