शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

मानवीय मनःस्थितियों, संबंधों एवं भावनाओं से ओतप्रोत हृदयस्पर्शी कथा

आज आठ दिसम्बर है। आज भारतीय रजतपट के दो अत्यन्त चमकीले सितारों का जन्मदिन है। एक हैं धर्मेन्द्र और दूसरी हैं शर्मिला टैगोर (या ठाकुर)। धर्मेन्द्र आज अट्ठासी वर्ष के हो गए हैं जबकि शर्मिला टैगोर ने आज अपनी आयु के उनयासी वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। इन दोनों ही सदाबहार सितारों को जन्मदिवस की बधाई देते हुए मैं एक ऐसी फ़िल्म के विषय में बात करने जा रहा हूँ जिसमें इन दोनों ने प्रमुख भूमिकाएं निबाही थीं। एक साहित्यिक कृति पर आधारित यह सुंदर फ़िल्म है - 'देवर' जो सन उन्नीस सौ छियासठ में प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म का कथानक सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कृति 'ना' पर आधारित है। फ़िल्म का नाम 'देवर' इसलिए रखा गया है क्योंकि फ़िल्म में शर्मिला टैगोर धर्मेन्द्र की भाभी बनती हैं और धर्मेंन्द्र शर्मिला के देवर। 

फ़िल्म दो बच्चों के निर्दोष प्रेम से आरम्भ होती है ‌‌- एक बालक है तथा दूसरी बालिका। बालक का बालपन का नाम 'भोला' है जबकि बालिका का 'भंवरिया'। परिस्थितियां ऐसी करवट लेती हैं कि भोला और भंवरिया को बिछुड़ना पड़ता है। दोनों पृथक्-पृथक् परिवेश में बड़े होते हैं। 'भंवरिया' (शर्मिला टैगोर) अब 'मधुमति' के नाम से जानी जाती है जबकि 'भोला' (धर्मेन्द्र) अब अपने वास्तविक नाम 'शंकर' के नाम से पुकारा जाता है। वयस्क हो चुके शंकर का अब सबसे अधिक लगाव है तो अपने चचेरे भाई सुरेश (देवेन वर्मा) से। दोनों भाई से कहीं अधिक मित्र हैं तथा अपने मन की बात एकदूसरे से बांटते हैं। यह एक पारम्परिक ज़मींदार परिवार है और धन-सम्पदा से परिपूर्ण है। सुरेश सुशिक्षित है तथा साहित्य में रुचि रखता है जबकि शंकर ने अधिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है एवं पढ़ने-लिखने से अधिक रुचि शिकार में ली है। सुरेश के हाथ में पुस्तक शोभा पाती है तो शंकर के हाथ में बंदूक। 

लड़के बड़े हो गए हैं तो उनके विवाह की भी बात चलने लगती है। दोनों के लिए अलग-अलग जगह से रिश्ते आते हैं। अब नये ज़माने के लड़के हैं तो उनके मन में विवाह-संबंध पक्के होने से पहले कन्याओं को देखने की भी इच्छा होती है। पर उनके ख़ानदान में न ऐसा रिवाज है और न ही इसकी इजाज़त है। लेकिन शंकर के पिता दीवान साहब (सप्रू) उन्हें एकदूसरे की होने वाली वधू को देखने जाने की अनुमति दे देते हैं। परिणामतः शंकर 'शांता' (शशिकला) को देखने उसके घर जाता है जिसका रिश्ता सुरेश के लिए आया है जबकि सुरेश मधुमति को देखने जाता है जिसका रिश्ता शंकर के लिए आया है। कम शिक्षित होने पर भी शंकर सुशिक्षिता शांता से इस ढंग से बात करता है कि वह उसे शिक्षित एवं साहित्य-प्रेमी समझ लेती है। सुन्दर, सुशील और साहित्यिक अभिरुचि से सुसंपन्न शांता के लिए अपने मन में बड़ी अच्छी धारणा बनाकर शंकर लौटता है एवं अपने सखा जैसे भाई सुरेश को शुभ समाचार देता है कि शांता प्रत्येक दृष्टि से उसके योग्य है जिसके साथ उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुख से बीतेगा। लेकिन . . .

लेकिन दूसरी ओर सुरेश जब शंकर की ओर से मधुमति को देखने उसके घर जाता है एवं उससे मिलता है तो उसका मन बहक जाता है। मधुमति का रूप-सौंदर्य उसे मोहित कर लेता है। नतीजा यह होता है कि वह आया तो था अपने चचेरे भाई के लिए उसे पसंद करने और पसंद उसे अपने लिए कर बैठता है। पर अपने मन की यह बात वह किसी को बता नहीं सकता। शंकर से वह यही कहता है कि उसे मधुमति कोई विशेष पसंद नहीं आई। सरल स्वभाव का शंकर इस बात की परवाह नहीं करता एवं यही तय करता है कि यदि उसके माता-पिता इस संबंध हेतु स्वीकृति दे देते हैं तो वह विवाह कर लेगा। कन्या (सुरेश के अनुसार) कोई विशेष अच्छी नहीं तो वह भी तो अल्प-शिक्षित है। निभा लेगा आजीवन उसके साथ। पर यह तो शंकर की सोच है। सुरेश के मन में तो तूफ़ान उठा हुआ है। क्या करे वह ? कैसे मधुमति को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करे ?

सुरेश का बहका हुआ मन षड्यंत्र रचने लगता है। उसे न केवल मधुमति का विवाह-संबंध शंकर के साथ होने से रोकना है बल्कि उस संबंध को अपने लिए तय करवाना है। काम बहुत मुश्किल है। इसलिए साज़िश भी उसे बड़ी पेचीदा करनी है। वह दो विषबुझी चिट्ठियां (poison pen letters) संबंधित कन्याओं के परिवारों को लिखता है। इन चिट्ठियों में वह अपना तथा शंकर का ऐसा चरित्रहनन करता है कि जो विवाह-संबंध होने जा रहे थे, वे नहीं हो पाते। किन्तु शांता तथा उसका परिवार शंकर से ऐसे प्रभावित हैं कि वे शांता का विवाह शंकर से करने पर सहमत हो जाते हैं। दूसरी ओर जब शंकर के पिता मधुमति के परिवार की प्रतिष्ठा के प्रति चिंतित रहते हैं तो सुरेश अपने आप को किसी बलिदानी की भांति प्रस्तुत करते हुए मधुमति से विवाह करने हेतु सहमति दे देता है। इस तरह दोनों विवाह-संबंध उलट जाते हैं और शंकर का विवाह शांता से जबकि मधुमति का विवाह सुरेश से हो जाता है। और यही तो सुरेश चाहता था।

विवाह की प्रथम रात्रि को ही शांता को अपने पति शंकर की सच्चाई पता चलती है कि वह अल्प-शिक्षित है तो उसे ऐसा लगता है कि उसे तथा उसके परिवार को बहुत बड़ा धोखा दिया गया है। इसका परिणाम यह होता है कि  वैवाहिक जीवन आरंभ होने से पूर्व ही पति-पत्नी के संबंधों में दरार आ जाती है जो विभिन्न घटनाओं के साथ विस्तृत ही होती चली जाती है। विषबुझी चिट्ठियों की बात भी सभी को पता लगती है तो जहाँ शांता के परिवार को लिखी गई चिट्ठी को तो सुरेश नष्ट करने में सफल हो जाता है, वहीं दूसरी चिट्ठी को मधुमति के बड़े भाई (तरुण बोस) अपने पास संभालकर रख लेते हैं तथा सत्य का पता लगाने में जुट जाते हैं क्योंकि वे एक हस्तलिपि विशेषज्ञ (handwriting expert) हैं। पर शांता, उसके पीहर वाले तथा शंकर के परिवार वाले शंकर को ही दोषी समझते हैं जिसने शांता से विवाह करने की ख़ातिर वे झूठी चिट्ठियां लिखी थीं। शंकर का जीना दुश्वार हो जाता है। अब अपने घर में अगर उसे हमदर्दी मिलती है तो सिर्फ़ अपनी भाभी मधुमति से। एक दिन जब वह अचानक जान जाता है कि मधुमति ही उसके बचपन का प्रेम भंवरिया है तो उसका रोम-रोम पीड़ा से भर जाता है पर अपने नाम को चरितार्थ करते हुए वह इस गरल को चुपचाप पी जाता है और इस रहस्य को जीवन भर अपने मन में छुपाए रखने का निर्णय ले लेता है। 

दूसरी ओर सुरेश मधुमति के साथ वैसा ही सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहा है जैसे की उसे अभिलाषा थी। पर जब मधुमति के भाई यह सच्चाई जान जाते हैं कि विषबुझी झूठी चिट्ठियां वास्तव में सुरेश ने लिखी थीं, शंकर ने नहीं तो वे अनजाने में ही यह बात शंकर को बता बैठते हैं। अब शंकर इस बाबत सुरेश से जवाबतलबी करता है। सुरेश उससे वह चिट्ठी छीनने की कोशिश करता है। दोनों भाइयों में रार होती है और अनजाने में ही सुरेश मारा जाता है। शंकर उसकी हत्या के आरोप में गिरफ़्तार हो जाता है। अनजाने में हुई उस हत्या की चश्मदीद गवाह और कोई नहीं, शंकर की भाभी मधुमति ही है जो अपने देवर को अपने सुहाग को मिटाने वाले अपराधी के रूप में देखती है तथा अदालत में उसके ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए तैयार हो जाती है। अब जबकि सभी लोग उन चिट्ठियों की सच्चाई तथा सुरेश के षड्यंत्र को जान चुके हैं तो वे मधुमति को गवाही देने से रोकने का प्रयास करते हैं पर मधुमति किसी की नहीं सुनती। फ़िल्म अत्यन्त भावुक ढंग से समाप्त होती है।

न केवल ताराशंकर बंद्योपाध्याय जी की लिखी हुई कथा (ना) बहुत अच्छी है, बल्कि निर्देशक मोहन सेगल ने इसे बहुत ही रोचक ढंग से रूपहले परदे पर उतारा है। आरंभ से अंत तक फ़िल्म एकदम चुस्त है तथा दर्शकों को घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देती। दर्शक श्वास रोके विभिन्न घटनाओं को देखता चला जाता है एवं अंत में फ़िल्म उसके हृदय को गहनता से स्पर्श कर लेती है। धर्मेन्द्र तथा शर्मिला टैगोर ने तो बेहतरीन अभिनय किया ही है; शशिकला, देवेन वर्मा एवं (बाल कलाकारों सहित) अन्य सहायक कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक दिये हैं। फ़िल्म का छायांकन एवं अन्य तकनीकी पक्ष भी सराहनीय हैं। सत्तावन वर्ष पुरानी यह श्वेत-श्याम फ़िल्म आज भी देखी जाए तो किसी नवीन फ़िल्म की भांति ही प्रतीत होती है। 

संगीतकार रोशन (फ़िल्म स्टार हृतिक रोशन के दादा) ने 'देवर' में बेहतरीन संगीत दिया है जबकि हृदयस्पर्शी गीत लिखे हैं आनंद बक्शी ने। तीन गीत तो कालजयी हैं - लता मंगेशकर का गाया हुआ 'दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है' तथा मुकेश के गाए हुए दो गीत - 'आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का' व 'बहारों ने मेरा चमन लूटकर खिज़ां को ये इल्ज़ाम क्यूं दे दिया है'। ये ऐसे अमर गीत हैं जो दशकों से सुने जा रहे हैं तथा आने वाले समय में भी सुने जाते रहेंगे।

'देवर' हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की एक अनमोल धरोहर है। सौभाग्य से यह अवलोकनार्थ सुगमता से उपलब्ध भी  है। सभी हिंदी सिनेमा के प्रेमी इस श्रेष्ठ फ़िल्म को देखकर अपने मन में सदा के लिए संजो सकते हैं। 

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2 टिप्‍पणियां:

  1. धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर के जन्मदिन पर उनकी फ़िल्म “देवर” की ख़ूबसूरत समीक्षा ।
    लाजवाब समीक्षा ने फ़िल्म देखने के लिए उत्सुकता जगा दी । आभार समीक्षा के साथ एक सुंदर फ़िल्म की जानकारी हेतु 🙏

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    1. हार्दिक आभार आपका माननीया मीना जी. फ़िल्म अवश्य देखिए. आपको बहुत पसंद आएगी.

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