मंगलवार, 25 मार्च 2025

हिप हिप हुर्रे, चक दे इंडिया और 83

बॉलीवुड में खेलों पर आधारित फ़िल्में पहले नहीं बनती थीं। 'हिप हिप हुर्रे' नामक फ़िल्म एक अपवाद के रूप में १९८४ में दर्शकों के समक्ष आई थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी में ऐसी ढेरों फ़िल्में बनकर आ चुकी हैं। कुछ सच्ची खेल घटनाओं तथा खेलों से जुड़े वास्तविक व्यक्तियों पर आधारित हैं तो शेष काल्पनिक। बहुत-सी फ़िल्में साधारण रही हैं तो कुछ उत्कृष्ट। इस आलेख में ऐसी सभी फ़िल्मों को समाविष्ट करने के स्थान पर मैं केवल तीन अच्छी फ़िल्मों पर बात करूंगा। ये तीन फ़िल्में इस प्रकार हैं:

हिप हिप हुर्रे (१९८४): 'हिप हिप हुर्रे' एक निर्देशक के रूप में प्रकाश झा की प्रथम फ़िल्म थी। इसे एक खेल-आधारित फ़िल्म के रूप में भी देखा जा सकता है एवं शिक्षक तथा विद्यार्थियों के संबंधों पर आधारित फ़िल्म के रूप में भी। एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाने वाले नायक द्वारा फ़ुटबॉल के खेल में दूसरे विद्यालय के दल से सदा हारने वाले अपने छात्रों को जीतना सिखाने के विषय को दर्शाने वाली फ़िल्म है यह। कथ्य का निर्वाह प्रशंसनीय ढंग से किया गया है तथा नायक की भूमिका में राज किरण के साथ-साथ अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। फ़िल्म आदि से अंत तक रोचक है एवं प्रेरणास्पद भी। वास्तविक अर्थों में यह हिंदी फ़िल्मों में खेलों पर आधारित फ़िल्मों का आरम्भ थी। जब यह प्रदर्शित हुई थी तो बहुत-से लोगों ने इसे व्यावसायिक सिनेमा के अंतर्गत नहीं माना था एवं समानांतर सिनेमा की जो धारा सत्तर के दशक में प्रवाहित हुई थी, का ही अंग माना था। लेकिन यह फ़िल्म गीत-संगीत सहित व्यावसायिक सिनेमा के सभी मानदंडों पर खरी उतरती है। खेल से अधिक शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर ध्यान देने वाली यह फ़िल्म आज भी देखी जाए तो ताज़गी भरी लगती है। 

चक दे इंडिया (२००७): 'चक दे इंडिया' निश्चित रूप से भारत में बनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ खेल-फ़िल्म है। इसे भारतीय हॉकी दल के पूर्व गोलकीपर मीर रंजन नेगी के जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरित बताया जाता है किंतु इसके कुछ प्रसंग मुझे 'हिप हिप हुर्रे' से भी प्रेरित लगे। जिस तरह १९८२ के एशियाई खेलों की हॉकी प्रतियोगिता के फ़ाइनल में पाकिस्तान से हुई अपमानजनक पराजय के उपरांत नेगी को लांछित किया गया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म के नायक (शाह रूख़ ख़ान) को किया जाता है तथा जिस प्रकार नेगी ने वर्षों के अंतराल के उपरांत भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करके उसे २००२ के राष्ट्रकुल खेलों में विजेता बनाया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म का नायक भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करने का दायित्व लेकर उसे महिला हॉकी के विश्व कप में विजेता बनवाता है। नेगी ने इस फ़िल्म के निर्माण में सहयोग दिया तथा अनेक कलाकारों को हॉकी खेलना सिखाया ताकि वे फ़िल्म में अपनी भूमिकाएं सही ढंग से निभा सकें। इससे फ़िल्म के हॉकी खेलने से संबंधित दृश्य अत्यंत विश्वसनीय बन पड़े हैं। 

लेकिन 'चक दे इंडिया' की कथा खेल से ऊपर उठकर भावनाओं से भी जुड़ी है। फ़िल्म में नायक के साथ-साथ उसके द्वारा प्रशिक्षित लड़कियों की भावनाओं को भी उत्कृष्ट तरीके से उभारा गया है। चूंकि फ़िल्म में ऐसी सोलह लड़कियां हैं, अतः सीमित अवधि में सभी की उपकथाओं को सम्मिलित करना एवं सभी के साथ न्याय करना व्यावहारिक नहीं था। किंतु लेखक जयदीप साहनी तथा निर्देशक शिमित अमीन ने कई खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का उचित अवसर दिया है। खेल के मैदान में भी तथा मैदान के बाहर भी विभिन्न दृश्यों एवं प्रसंगों को विश्वसनीय एवं प्रभावशाली बनाया गया है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि फ़िल्म में त्रुटियां नहीं हैं, किंतु फ़िल्म में ख़ूबियां इतनी अधिक हैं कि वे ख़ामियों पर भारी पड़ती हैं। फ़िल्म में जो बात प्रमुखतः रेखांकित की गई है, वह है कि किस प्रकार प्रशिक्षक पृथक्-पृथक् प्रदेशों से आई महिला खिलाड़ियों को स्वयं को एक दल के रूप में देखना, समझना एवं एक-दूसरी के साथ समन्वय करना सिखाता है। फ़िल्म में महिला खिलाड़ियों का पुरुष खिलाड़ियों के विरूद्ध मैच खेलने का दृश्य अनूठा एवं अत्यन्त प्रभावी है।

'चक दे इंडिया' न केवल खिलाड़ियों द्वारा अपने को भारतीय समझकर भारत के लिए खेलने की सोच को मन में उतारने पर बल देती है बल्कि महिलाओं द्वारा अपनी अस्मिता को महत्व दिये जाने एवं आत्म-सम्मान के साथ जीने की भावना को भी पुरज़ोर ढंग से दर्शाती है। इस फ़िल्म की महिला खिलाड़ी पुरुष खिलाड़ियों तथा अन्य पुरुषों द्वारा भी अपने को (तथा अपने खेल को) कमतर समझे जाने को सिरे से नकारती हैं तथा अपने खेल एवं व्यवहार दोनों ही से सिद्ध करती हैं कि वे पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं। फ़िल्म में महिलाओं से जुड़ी पुरुष-प्रधान मानसिकता को बताया भी गया है एवं उसका खंडन भी किया गया है। ऐसी मानसिकता खेल-संघों के पदाधिकारियों (जिनमें महिलाएं भी हो सकती हैं) में तो होती ही है, पुरुष खिलाड़ियों में भी हो सकती है। और फ़िल्म इसका एक ही हल बताती है - मैदान पर जाकर अपने को साबित करना। फ़िल्म के अनेक दृश्य प्रेरणा से भरे हैं - महिलाओं के लिए भी तथा ज़िन्दगी से चोट खाए हुए व्यक्तियों के लिए भी। गीत-संगीत, फ़िल्मांकन, अभिनय तथा तकनीकी पक्ष, सभी उत्तम हैं। इस फ़िल्म को चाहे जितनी बार देखा जा सकता है। यह फ़िल्म सभी को पसंद आने वाली है चाहे वे हॉकी में रूचि रखते हों या नहीं।

83 (२०): 83 (तिरासी) भारतीय पुरुष क्रिकेट दल द्वारा १९८३ में इंग्लैंड में आयोजित विश्व कप को अप्रत्याशित ही नहीं, अविश्वसनीय ढंग से जीतने की गाथा है। चूंकि यह एक सच्ची बात है, फ़िल्म में कलाकारों द्वारा अभिनीत दृश्यों के साथ-साथ वास्तविक फ़ुटेज भी दिखाए गए हैं। केवल कप्तान कपिल देव द्वारा ज़िम्बाब्वे के विरूद्ध खेली गई अविजित १७५ रनों की पारी वाले मैच के मामले में यह संभव नहीं हो सका है क्योंकि बीबीसी की हड़ताल के कारण उस मैच की रिकॉर्डिंग नहीं हो सकी थी। जिन लोगों ने उस विश्व कप को रेडियो पर सुना तथा दूरदर्शन पर देखा था, वे इस फ़िल्म के साथ स्वयं को अधिक अच्छी तरह से जोड़ सकते हैं। साथ ही दूसरा सच यह भी है कि ऐसे (क्रिकेट-प्रेमी) दर्शक ही फ़िल्म की अनेक ख़ामियों को भी पकड़ सकते हैं। इसकी तुलना 'चक दे इंडिया' से होनी स्वाभाविक है परंतु इसमें वो प्रेरणादायी तत्व नहीं है जो 'चक दे इंडिया' में है। लेकिन फ़िल्म अत्यधिक रोचक है तथा क्रिकेट-प्रेमियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं। उस समय भारतीय क्रिकेट दल का नेतृत्व करने वाले कपिल देव भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय खिलाड़ियों में से एक हैं, अतः उनके प्रशंसकों को तो यह फ़िल्म पसंद आनी ही आनी है।

इस फ़िल्म का कथानक केवल विश्व कप के लिए भारतीय दल के इंग्लैंड रवाना होने से लेकर उसके विश्व कप फ़ाइनल जीतने तक सीमित है। कुछ कल्पित (और वास्तविक भी) प्रसंग अवश्य पिरोए गए हैं पर मूलतः फ़िल्म बस यही है। इसीलिए सारा ध्यान केवल भारत द्वारा खेले गए मैचों तथा उनके पूर्व एवं पश्चात् के घटनाक्रम पर लगाया गया है। भारत में क्रिकेट एक धर्म की भांति है, इसीलिए क्रिकेट की यह जीत भारतीयों के लिए गर्व एवं प्रसन्नता का एक अजस्र स्रोत है। हॉकी में जीते गए ओलंपिक पदकों को छोड़कर दल-आधारित खेलों में इसे भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इस जीत ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को अपने देश का गौरव-गान करने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया था। अतः इस फ़िल्म का महत्व बहुत अधिक है। यह दर्शकों को उस काल में ले जाती है तथा प्रसन्नताओं एवं (कुछ मैचों में हुई हारों के कारण लगे) आघातों से पुनः साक्षात् करवाती है। ख़ामियां बहुत हैं; यथा कुछ मैचों एवं प्रदर्शनों को अधिक महत्व दिया जाना जबकि कुछ पर यथेष्ट ध्यान न दिया जाना, देशप्रेम का नगाड़ा बार-बार कुछ ज़्यादा ही बजाया जाना, कुछ खिलाड़ियों के निजी जीवन को अनावश्यक रूप से दर्शाया जाना आदि। पर अपनी समग्रता में यह फ़िल्म दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है। हाँ, जिन लोगों को क्रिकेट में रूचि नहीं है, उन्हें यह पसंद नहीं आ सकती। 

फ़िल्म में उस भारतीय दल के लगभग सभी खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का कम-से-कम एक अवसर तो दिया ही गया है जो अच्छी बात है। किंतु कपिल देव की असाधारण शतकीय पारी को छोड़कर ऐसे पल कम ही हैं जो देखने वालों को प्रेरणा दें। खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे दे पाए तथा विभिन्न मैचों में विजय कैसे मिल सकी, इसका स्पष्टीकरण नहीं है। भारतीय दल एक अत्यन्त कमज़ोर प्रतिभागी के रूप में गया था, इसीलिए पहले मैच में मिली विजय से लेकर अंत में फ़ाइनल मुक़ाबले में मिली विजय तक सभी जीतें अप्रत्याशित एवं अचंभित करने वाली थीं; यह बात तो निर्देशक कबीर ख़ान ने बता दी पर उन जीतों एवं भारतीय दल के शानदार प्रदर्शन के कारण को वे ठीक से समझा नहीं सके। फ़िल्म में बेकार का हास्य न डाला जाता तो अच्छा रहता। साम्प्रदायिक वैमनस्य को दूर  करने हेतु क्रिकेट का उपयोग भी अनावश्यक ही लगता है। 83 का सबसे उज्ज्वल पक्ष है क्रिकेट संबंधी दृश्यों का अत्यन्त प्रभावी फ़िल्मांकन। दर्शक की रूचि एवं रोमांच को ये दृश्य ही बनाए रखते हैं। गीत-संगीत ठीक है एवं विभिन्न खिलाड़ियों की भूमिकाएं करने वाले कलाकारों का अभिनय उच्चस्तरीय है - विशेष रूप से कपिल देव की भूमिका में रणवीर सिंह एवं दल के प्रबंधक पी.आर. मानसिंह की भूमिका में पंकज त्रिपाठी का। कलाकारों को वास्तविक खिलाड़ियों जैसा रंगरूप (गेटअप) देने में भी परिश्रम किया गया है। कुल मिलाकर फ़िल्म अच्छी ही है।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा, अब खेलों एवं खिलाड़ियों पर आधारित अनेक फ़िल्में आ चुकी हैं - अच्छी भी, बुरी भी। पर ये तीन फ़िल्में हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती हैं। खेल-प्रेमियों को इन्हें अवश्य देखना चाहिए।


2 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर समीक्षा
    चक दे की लिंक मिल सकता है क्या
    कृपया दें
    सादर

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    1. हार्दिक आभार माननीया यशोदा जी. चक दे इंडिया फ़िल्म अमेजन प्राइम पर उपलब्ध है.

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