जब से भारतीय गणतन्त्र का संविधान लागू हुआ है, हमारे संवैधानिक प्रमुख को हिन्दी भाषा में 'राष्ट्रपति' के नाम से ही संबोधित किया जाता रहा है । समाचार-पत्र हों या साप्ताहिक अथवा पाक्षिक अथवा मासिक पत्रिकाएं, सभी में 'राष्ट्रपति' शब्द ही छपा हुआ मिलता है । समाचार-वादक चाहे आकाशवाणी के हों या दूरदर्शन अथवा अन्य चैनलों के, वे भारत के संवैधानिक-प्रमुख का उल्लेख 'राष्ट्रपति' कहकर ही करते हैं (क्योंकि उन्हें जो सामग्री पढ़ने के लिए दी जाती है, उसमें 'राष्ट्रपति' शब्द ही लिखा होता है) । २६ जनवरी, १९५० से लेकर जब डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने भारत के पहले संवैधानिक-प्रमुख के रूप में शपथ ली थी, आज तक 'राष्ट्रपति' शब्द ही प्रयुक्त होता आ रहा है । संभवतः इतने वर्षों में किसी ने भी कभी यह विचार करने का कष्ट नहीं उठाया है कि इस शब्द का प्रयोग उचित एवं सार्थक है भी या नहीं ।
राष्ट्रपति शब्द 'राष्ट्र'
शब्द
में 'पति'
प्रत्यय
लगाकर सृजित किया गया है । जिस अतिज्ञानी ने मूल रूप से यह किया था,
ईश्वर
उसकी आत्मा को शांति दे । 'पति'
संस्कृत
का शब्द है जिसका अर्थ होता है स्वामी । सैकड़ों वर्षों से यह शब्द विवाहिता के
संदर्भ में उसके जीवन-साथी पुरुष को इंगित करते हुए प्रयोग में इसलिए लाया जाता रहा
है क्योंकि जिस युग में ऐसा प्रयोग आरंभ किया गया था, उस
युग में स्त्री को अपने साथ विवाह करने वाले पुरुष की संपत्ति ही माना जाता था । जैसे
घर के स्वामी को गृहपति, भूमि के स्वामी को
भूपति तथा धन के स्वामी को धनपति कहा जाता है, वैसे
ही स्त्री के संदर्भ में भी उससे विवाह द्वारा जुड़ने वाले पुरुष को उसका पति कहा
जाता था । 'पत्नी'
शब्द
का सृजन 'पति'
शब्द
का स्त्रीलिंग बनाने के लिए आरंभ किया गया अन्यथा 'पत्नी'
नाम
का कोई शब्द नहीं हुआ करता था और 'पति'
शब्द
पुल्लिंग होते हुए भी लिंग-निरपेक्ष भाव इसलिए रखता था क्योंकि उस युग में
स्त्रियों के पास किसी भी संपत्ति का स्वामित्व रहता ही नहीं था,
वे
तो स्वयं ही संबंधित पुरुषों की संपत्तियां मानी जाती थीं जो अन्य भौतिक सम्पत्तियों
की भाँति ही उनके भी 'पति' कहलाते थे । संभवतः
नारीवादी संगठनों का ध्यान अभी तक इस ओर नहीं गया है अन्यथा वे विवाहिता के
जीवन-साथी के लिए 'पति' शब्द के प्रयोग पर
अवश्य आपत्ति उठातीं क्योंकि वर्तमान सामाजिक और वैधानिक व्यवस्था में अब विवाह के
उपरांत पुरुष एवं स्त्री दोनों को ही समान स्तर प्रदान किया जाता है और पुरुष अपनी
जीवन-संगिनी का साथी होता है, स्वामी नहीं ।
तो फिर ऐसे में 'राष्ट्रपति'
शब्द
का प्रयोग अनुचित ही नहीं, हास्यास्पद भी है जिसकी
ओर अब तक भारत सरकार के सफेद हाथी जैसे
भारीभरकम राजभाषा विभाग का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है । जब 'पति'
का
शाब्दिक अर्थ स्वामी है तो सहज बुद्धि में आने वाला प्रश्न यही है कि कोई भी
व्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र का स्वामी कैसे हो सकता है ? स्पष्ट
उत्तर है कि नहीं हो सकता । इसीलिए 'राष्ट्रपति'
शब्द
अशुद्ध और अप्रासंगिक है जिसका प्रयोग बंद किया जाना चाहिए । चूंकि भारतीय
गणतन्त्र का संवैधानिक प्रमुख वस्तुतः व्यवस्था का अध्यक्ष होता है,
अतः
उसके लिए ‘राष्ट्राध्यक्ष’
शब्द का प्रयोग होना चाहिए । वैसे भी अंग्रेज़ी भाषा में उसे 'प्रेसीडेंट'
कहकर
ही संबोधित किया जाता है जिसका निर्विवाद अर्थ है - 'अध्यक्ष'
।
अतः भारतीय गणतन्त्र का संवैधानिक प्रमुख 'भारत
का राष्ट्राध्यक्ष' कहलाया जाना चाहिए, न कि 'भारत
का राष्ट्रपति'
।
संवैधानिक प्रमुख को 'राष्ट्रपति'
कहने
से स्थिति तब अत्यंत हास्यास्पद लगने लगती है जब इस पद पर कोई महिला आसीन हो जाए ।
जब २००७ में
श्रीमती प्रतिभा पाटिल शेखावत हमारे देश की संवैधानिक प्रमुख चुनी गई थीं,
तब
मुझसे मेरे मित्रों ने पूछा था कि पुरुष को तो राष्ट्रपति कहते हैं तो महिला को
क्या राष्ट्रपत्नी कहें ? सुनकर मेरा हँसते-हँसते
बुरा हाल हो गया था और तब मैंने उन्हें समझाया था कि भई यह पद लिंग-भेद से
निरपेक्ष है अतः किसी महिला के इस पद पर आसीन हो जाने पर 'पति'
शब्द
को स्त्रीलिंग में परिवर्तित करना अनावश्यक और निरर्थक है । इसीलिए 'राष्ट्राध्यक्ष'
शब्द
का प्रयोग ही उचित है क्योंकि किसी महिला के इस पद को ग्रहण करने पर उसे
'राष्ट्राध्यक्षा'
कहा
जा सकता है और यही तर्कसम्मत भी है क्योंकि अंग्रेज़ी में तो 'प्रेसीडेंट'
शब्द
ज्यों-का-त्यों ही उपयोग में लाया जाता है चाहे उस पद पर पुरुष बैठे या महिला ।
लेकिन हमारे यहाँ हाल यह है कि किसी दूसरे देश के संवैधानिक प्रमुख का भी उल्लेख
किया जाता है तो उसे उस देश का (या की) 'राष्ट्रपति'
कहकर
ही संबोधित किया जाता है जो कि परोक्ष रूप से उस व्यक्ति तथा उस देश का अपमान ही
होता है ।
अतएव अपनी महान भाषा के उपहास को रोकने के लिए भारत सरकार के राजभाषा
विभाग द्वारा सभी राजकीय एवं अ-राजकीय कार्यकलापों में 'राष्ट्रपति'
शब्द
के प्रयोग को तुरंत प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए तथा उसे
'राष्ट्राध्यक्ष'
शब्द
से प्रतिस्थापित कर दिया जाना चाहिए ।
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सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (2-3-21) को "बहुत कठिन है राह" (चर्चा अंक-3993) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार माननीया कामिनी जी ।
हटाएंतार्किक और विचारणीय लेख आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
हार्दिक आभार माननीया श्वेता जी ।
हटाएंवाह जितेन्द्र जी ,यह भी एक सोचने वाली बात है..जरूर विचार करना चाहिए..सारगर्भित लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंआपने मेरी बात को समझा जिज्ञासा जी । हार्दिक आभार आपका ।
हटाएंबिल्कुल सही सुझाव।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी । आपके आगमन से सम्मानित अनुभव कर रहा हूँ ।
हटाएंगहन चिंतन का आह्वान करता महत्वपूर्ण लेख...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया शरद जी ।
हटाएंविचारपूर्ण और सारगर्भित सृजन ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार माननीया मीना जी ।
हटाएंविचारोत्तेजक लेख ।
जवाब देंहटाएंसचमुच विचार किया जाना चाहिए।
सार्थक आलेख।
हार्दिक आभार आदरणीया कुसुम जी ।
हटाएंआपका लेख तार्किक है। आपसे सहमत।
जवाब देंहटाएंआभार वीरेन्द्र जी ।
हटाएंगहन चिंतन सारगर्भित लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय संजय जी ।
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