शुक्रवार, 26 मार्च 2021

पिंक बनाम अनारकली आरावाली

वर्ष २०१६ तथा वर्ष २०१७ भारतीय सिनेमा में अत्यंत विलम्ब से आरम्भ हुए नारी-मुक्ति आंदोलन के लिए अति महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं क्योंकि इन दोनों ही वर्षों में एक-एक ऐसी असाधारण हिंदी फ़िल्म प्रदर्शित हुई जिसे नारी-मुक्ति की लम्बी राह में मील का पत्थर कहा जा सकता है । भारतीय सिनेमा की असाधारण उपलब्धि के रूप में आए ये दो मील के पत्थर हैं – ‘पिंक’ (२०१६) तथा ‘अनारकली ऑव आरा’ (२०१७)  


मैंने दोनों ही फ़िल्में देखीं और देखने के उपरांत मैं उनकी तुलना किए बिना नहीं रह सका । गुणवत्ता की दृष्टि से दोनों ही फ़िल्में उच्च-स्तरीय हैं और भारतीय समाज की नारी को केवल एक उपभोग्य देह मानने वाली पुरुष-प्रधान सोच पर कड़ा प्रहार करती हैं । एक मनुष्य केे रूप में नारी के सम्मान और उसकी देह पर केवल उसी के अधिकार के विचार को स्वर देने वाली इन अति-सराहनीय फ़िल्मों में कुछ सूक्ष्म भिन्नताएं हैं जिन पर मैं आगे प्रकाश डालूंगा 

सामंतवादी युग से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच जिसमें स्त्री को पुरुष की सम्पत्ति माना जाता था (विशेषतः विवाहिता की गणना अपने पति की सम्पत्तियों में की जाती थी) और उससे अपने जीवन-संबंधी कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के स्थान पर सदा पुरुष के अधीन रहने तथा उसके आदेशों एवं वांछाओं के अनुरूप ही चलने की अपेक्षा की जाती थी (ये बातें बालिकाओं को संस्कार रूपी घुट्टी में इस प्रकार पिलाई जाती थीं कि वे आजीवन उससे पृथक् कुछ सोच ही न सकें) के कारण नारी-मुक्ति आंदोलन भारत में अति-विलम्ब से आरम्भ हुआ तथा उसने एक तर्कसंगत तथा व्यावहारिक रूप लेने में और भी अधिक समय लिया । कथा-साहित्य की भांति फ़िल्में भी समाज की तत्कालीन सोच का ही प्रतिबिम्ब होती हैं क्योंकि धारा के विपरीत जाने का साहस करने का अर्थ होता है व्यावसायिक हानि के साथ-साथ मुखर (एवं हिंसक भी) विरोध का लक्ष्य बनने का जोखिम लेना  स्वभावतः फ़िल्में भी इसी पारम्परिक विचारधारा को बल देने एवं आगे ले जाने में लगी रहीं  लेकिन कभी-कभी अपवाद भी दर्शक-वर्ग के समक्ष आए 


वी. शांताराम द्वारा निर्मित-दिग्दर्शित 'दुनिया ना माने' (१९३७) इस दिशा में पहला प्रयास था जिसमें केंद्रीय भूमिका शांता आप्टे ने निभाई थी  नूतन को शीर्षक भूमिका में प्रस्तुत करती 'सीमा' (१९५५) जिसकेे दिग्दर्शक अमिय चक्रवर्ती थे, भी कुछ भिन्न रूप में इसी दिशा में अगला चरण था  आगे के समय में भी नारी-प्रधान फ़िल्में तो बनती रहीं लेकिन वे समाज की पितृसत्तात्मक सोच की पुष्टि ही करती थीं, उसका खंडन नहीं  शिवेंद्र सिन्हा की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फ़िल्म 'फिर भी' (१९७१) को यदि छोड़ दिया जाए (क्योंकि वह मुख्यधारा की फ़िल्म नहीं थी) तो नारी द्वारा अपनी देह को महत्व दिया जाने और उस पर अपना अधिकार समझने का विमर्श करने वाली फ़िल्में नहीं ही बनीं क्योंकि यह विषय ही वर्जित समझा जाता था । राखी अभिनीत 'हमकदम' (१९८०) नारी के घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर पुरुष-प्रधान समाज में आत्मविश्वास के साथ काम करने के महत्व को रेखांकित करते हुए इस संदर्भ में पुरुष की पक्षपाती तथा गर्हित सोच का तो विरोध करती थी लेकिन नारी के अपने परिवार से इतर केवल अपने बारे में सोचने की बात से परहेज़ ही करती थी (क्योंकि वह स्थापित पारम्परिक पारिवारिक संरचना की परिधि में रहने वाले राजश्री बैनर की फ़िल्म थी) । नारी-मुक्ति को वास्तविक स्वर दिया विनोद पांडे की फ़िल्म 'एक बार फिर' (१९८०) ने जिसमें प्रमुख भूमिका दीप्ति नवल ने निभाई थी । यह सिनेमा के परदे पर वैवाहिक संस्था में घुट-घुटकर जीने वाली भारतीय नारी का पहला विद्रोह था । भारतीय विवाहिताओं ने पति के विवाहेतर संबंधों को स्पष्टतः नकारने और ऐसे पति को छोड़ देने का ग़ैर-पारम्परिक कार्य विनोद पांडे की 'ये नज़दीकियां' (१९८२) तथा महेश भट्ट की 'अर्थ' (१९८२) में किया (इन दोनों ही फ़िल्मों में पत्नी की भूमिका में शबाना आज़मी थीं) लेकिन स्वयं विवाह से इतर संबंध बनाने के अपने अधिकार को स्वर अरुणा राजे की 'रिहाई' (१९८८) में दिया जिसमें पुरुषों द्वारा इस बाबत दोहरे मानदंड अपनाए जाने पर करारा प्रहार किया गया था । यह साहसी भूमिका हेमा मालिनी ने निभाई थी । इसी विषय पर महेश मांजरेकर की तब्बू अभिनीत फ़िल्म 'अस्तित्व' (२०००) में भी सार्थक चर्चा की गई थी 


लेकिन विवाह के बिना ही देह-संबंध बनाने के नारी के अधिकार और स्वतंत्र जीवन जीने वाली कामकाजी महिला को दुर्बल चरित्र की (चालू) मानकर उस पर घात लगाने की पुरुषों की दूषित मानसिकता की सही ढंग से चर्चा अब जाकर आरम्भ हुई है जब लिव-इन रिलेशन जैसी बात भारतीय शहरों में आम होने लगी है (भारतीय गाँवों में तो नाता-प्रथा के नाम से यह न जाने कब से प्रचलन में है) । अपने चरित्र से आँखें मूंदे रहकर कुछ भी अनैतिक और ग़ैरकानूनी करने को अपना अधिकार मानने वाले धनाढ्य और शक्तिसंपन्न वर्ग के पुरुषों द्वारा नारी के चरित्र पर नुक़्ताचीनी करने और उसके आचरण के आधार पर उसे अपने लिए 'उपलब्ध' मानने की मानसिकता जो नारियों के साथ अब आम होते जा रहे दुर्व्यवहार, छेड़छाड़ तथा दुराचार की जननी है, पर प्रहार करने वाली दो फ़िल्में इक्कीसवीं सदी का डेढ़ दशक बीत जाने के उपरांत आई हैं यानी 'पिंक' एवं 'अनारकली ऑव आरा' जो दो भिन्न-भिन्न परिवेशों में लेकिन एक ही ज्वलंत मुद्दे पर निर्भीक तथा सार्थक विमर्श करते हुए उत्पीड़ित नारियों को भी और पाखंडी भारतीय समाज को भी सही राह दिखाती हैं 


शूजीत सरकार द्वारा लिखित एवं अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा दिग्दर्शित 'पिंक' (२०१६) दिल्ली महानगर में रहने वाली भारत के तीन पृथक्-पृथक् भागों से आईं तीन कामकाजी युवतियों के उत्पीड़न की मार्मिक कथा कहती है जिन्हें केवल स्वतंत्र (और स्वच्छंद) जीवन जीने के कारण धनी परिवारों के लेकिन शोहदे युवक 'चालू' समझकर न केवल उनका शारीरिक शोषण करने का प्रयास करते हैं वरन उनके विरोध (जिसमें अपनी देह-रक्षा हेतु काँच की बोतल से एक युवक के सर पर किया गया प्रहार सम्मिलित था) एवं पुलिस में शिकायत करने को अपने अहं पर चोट के रूप में लेते हुए उनका और भी अधिक उत्पीड़न स्वयं करते हैं तथा शक्तिशाली लोगों की दास बनी व्यवस्था से भी करवाते हैं । जब इन निर्दोष युवतियों को अपना वर्तमान तथा भविष्य पूर्णतः अंधकारमय लगने लगते हैं तो एक सहृदय वकील उनकी सहायता के लिए आगे आता है और उनका मुक़द्दमा लड़कर उन्हें इस सांसत से बाहर निकालता है और दोषी युवकों को दंडित करवाता है । इस प्रक्रिया में मुख्य बात इस वकील (अमिताभ बच्चन) का इस तथ्य को स्थापित करना है कि अपनी देह के संदर्भ में प्रत्येक स्त्री को किसी भी पुरुष को 'ना' कहने का सम्पूर्ण अधिकार है जिसका सम्मान उसके निकट जाने वाले प्रत्येक पुरुष को करना ही चाहिए । स्त्री की 'ना' का अर्थ 'ना' ही होता है, न कि अपनी सुविधा के अनुरूप निकाला गया कोई मनमाना अर्थ । स्त्री का निजी जीवन चाहे जैसा हो, उसका चरित्र चाहे जैसा हो तथा उसका व्यवसाय चाहे जो भी हो, उसकी स्वीकृति के बिना उसे स्पर्श करने का अधिकार किसी को भी नहीं है  प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थिति में अपनी देह की स्वामिनी वह स्वयं ही है, कोई और नहीं  

 

अविनाश दास कृत 'अनारकली ऑव आरा' (२०१७) जिसे किसी-किसी पोस्टर में हिंदी अनुवाद करते हुए 'अनारकली आरावाली' भी लिखा गया है, बिहार के एक छोटे शहर 'आरा' में लोकगीत गाकर और उन पर नृत्य करके अपना पेट पालने वाली एक कम पढ़ी-लिखी लेकिन स्वाभिमानी युवती की कथा कहती है जिसे नीची निगाहों से इसलिए देखा जाता है क्योंकि वह द्विअर्थी लोकगीत गाकर लोगों का मनोरंजन करती है लेकिन उसकी अपनी निगाह में इसमें कोई बुराई नहीं क्योंकि यह उसका व्यवसाय है जिसे वह ईमानदारी से करती है और बिना किसी का अहसान लिए अपनी मेहनत की कमाई से जीवन-यापन करती है । यह स्वाभिमानी युवती अपनी देह पर अपने अधिकार के प्रति सजग है और जब राज्य के मुख्यमंत्री के साथ अपनी निकटता से उपजी अपनी कथित शक्ति से भरमाया हुआ विश्वविद्यालय का उप-कुलपति (वीसी) नशे में उसके साथ सार्वजनिक रूप से दुर्व्यवहार करता है तो वह न केवल सबके सामने उसे तमाचा मारती है बल्कि उसके विरुद्ध पुलिस में भी शिकायत करने पहुँच जाती है  ताक़तवर वीसी साहब की ग़ुलाम बनी पुलिस उसी को देह-व्यापार के झूठे आरोप में फँसा देती है । जैसे-तैसे छूटकर वह दिल्ली जा पहुँचती है तो भी मुसीबतें उसका पीछा नहीं छोड़तीं । लेकिन उसका स्वाभिमान दुश्वारियों के आगे न झुकता है, न टूटता है  आख़िर वह आरा लौटती है और अपने बुद्धिबल से अपनी सियासी ताक़त के मद में चूर वीसी साहब को करारा सबक सिखाती है । वह उन्हें कभी न भूलने वाला यह पाठ पढ़ाती है - 'औरत चाहे रंडी हो, रंडी से कम हो या फिर तुम्हारी बीबी हो;  हाथ पूछकर लगाना 


यह भारत देश की विडंबना है कि यहाँ व्यवस्था सदा निर्दोष को ही प्रताड़ित करती है तथा शक्तिशाली दोषियों की चेरी बनी रहती है । इसलिए किसी भी सामान्य पीड़ित के लिए सामर्थ्यवान अन्यायी के विरुद्ध लड़कर न्याय पाना गूलर के फूल के समान अलभ्य ही रहता है । व्यवस्था व्यक्ति से कहीं अधिक अन्यायी तथा क्रूर होती है जिसके चंगुल में फँस जाने के उपरांत न्याय पाना तो दूर, एक सामान्य जीवन जीना भी असम्भव-सा हो जाता है  यह कटु सत्य इन दोनों ही फ़िल्मों में यथार्थपरक ढंग से दिखाया गया है  लेकिन 'पिंक' की कामकाजी युवतियां सुशिक्षित होकर भी न तो भले-बुरे युवकों में अंतर करने का विवेक रखती हैं और अपने स्वच्छंद जीवन का आनंद लेते हुए लापरवाह बनी रहती हैं (अपनी ऐसी लापरवाही से ही वे अनचाहे संकट में पड़ती हैं), और न ही उनमें संकट में पड़ जाने के उपरांत अपने आपको संभालने तथा विषम परिस्थिति से स्वयं को उबारने का कोई यत्न करने की बुद्धि दिखाई देती है । आत्मविश्वास से कोरी ये युवतियां संकट आते ही टूटकर बिखर जाती हैं और अपनी समस्या के हल की कोई जुगत करने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं । वे इसलिए अपनी दुश्वारी से बाहर आ पाती हैं क्योंकि एक सत्य का साथ देने वाला प्रभावशाली वकील उनका मुक़द्दमा सफलतापूर्वक लड़ता है और न्यायाधीश भी सत्य का ही पक्ष लेकर सही निर्णय देता है (अन्यथा यह सर्वज्ञात है कि बिकाऊ लोगों से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है) । इसके विपरीत आरावाली अनारकली अल्पशिक्षित होकर भी  किसी भी सूरत में किसी अन्य पर निर्भर नहीं है एवं अपने मनोबल को सदा सशक्त बनाए रखती है  वह अपनी माता की त्रासद हत्या की दुखद स्मृति को मन में रखते हुए भी जीवन-यापन हेतु उसी का व्यवसाय अपनाती है और निर्विकार भाव से परिश्रमपूर्वक अपना काम करती है । वह बहुत स्वाभिमानी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण रहती हुई अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीती है  वह आत्मनिर्भर तो है ही, उसमें आत्मबल भी भरपूर है  मुसीबत के टूटने से पहले भी और उसके बाद भी उसका सर कभी झुकता नहीं  वह हर हाल में सर उठाकर जीती है और अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ती है (हालांकि हमदर्द उसे भी मिलते हैं पर उसका संघर्ष दूसरों के भरोसे पर नहीं है, अपने दम पर है। जहाँ 'पिंक' की युवतियां फ़िल्म के अंत में भी  (न्यायालय से बरी हो जाने पर) उत्साहविहीन दिखाई देती हैं, वहीं आरा की अनारकली (स्वरा भास्कर) वीसी साहब को सबक सिखाने के बाद जिस गर्वोन्न्त भाव से मस्ती भरी चाल चलती हुई अपने घर की ओर प्रस्थान करती है, वह दृश्य अविस्मरणीय है  

 

मैं नारी-मुक्ति का वास्तविक और व्यावहारिक जयघोष करने वाली इन दोनों ही फ़िल्मों को देखने की अपील क्वालिटी सिनेमा के सभी शैदाइयों से करता हूँ चाहे वे स्त्रियां हों या पुरुष । बस मुझे यह लगता है कि 'पिंक' की कमियों पर और 'अनारकली ऑव आरा' की ख़ूबियों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया । मेरी नज़र में 'पिंक' कुछ ओवर‌‌‌‌‌‌‌-रेटेड है जबकि 'अनारकली ऑव आराकुछ अंडर‌‌‌‌‌‌‌-रेटेड है 

 

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26 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (14 जून, 2019 को) पर ब्लॉगर मित्रों की प्रतिक्रियाएं :

    indu chhibberJune 15, 2019 at 8:55 AM
    A very nice roundup of women oriented films. Sadly I have seen very few of these.

    Reply
    जितेन्द्र माथुरJune 15, 2019 at 6:39 PM
    Hearty thanks Indu Ji. Most of these movies must be available on internet.

    Rekha'sJune 24, 2019 at 1:00 AM
    हमेशा की तरह बेहद सशक्त रिव्यु लिखा है आपने। दोनों मूवी मैंनें देखी है। आपकी यह बात पूरी तरह सही है - "ये बातें बालिकाओं को संस्कार रूपी घुट्टी में इस प्रकार पिलाई जाती थीं कि वे आजीवन उससे पृथक् कुछ सोच ही न सकें।"

    शायद हिदीं में पहली बार यहाँ आपने लिखा है, वह भी गूलर के फूल जैसे मुहावरों के साथ बेहद अच्छा लगा। नाता-प्रथा की जानकारी मेरे लिये नई है।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरJune 24, 2019 at 2:43 AM
    बहुत-बहुत आभार रेखा जी । नाता-प्रथा राजस्थान के गाँवों में एक लम्बे समय से प्रचलित है जिसमें कोई स्त्री (चाहे वह विवाहिता हो या विधवा या परित्यक्ता) किसी दूसरे पुरुष के पास बिना उससे विवाह किए ही उसके साथ रहने के लिए चली जाती है । पारस्परिक सहमति से स्थापित ऐसे 'नाते' को संबंधित समुदाय तथा स्थानीय समाज की पूर्ण स्वीकृति प्राप्त होती है ।

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  2. आपके इस ज्ञान पर अचम्भा ही होता है ... इनमें से कई मूवी देखी हैं ... आपने सटीक मुद्दे उठाये हैं .. अनारकली ऑफ आरा नहीं देखी ... अस्तित्व , अर्थ बहुत पसंद हैं ...
    इतनी सारी जानकारी के लिए आभार .

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया संगीता जी । 'अनारकली ऑव आरा' अवश्य देखिए । नारी-सशक्तिकरण पर ऐसी असाधारण फ़िल्म भारत में पहले नहीं बनी है ।

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  3. एक बार फिर से शानदार प्रस्तुति। दोनों फिल्मों के बारे में सुना बहुत था। लेकिन देख नहीं पाया था। अब देखनी पड़ेगी। शुभकामनाएँ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय वीरेन्द्र जी । अवश्य देखिए । दोनों ही फिल्में बड़ी अच्छी हैं ।

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  4. बहुत अच्छी समीक्षा सर!
    'पिंक' तो डाउनलोड कर रखी है, जल्द ही देखेंगे!

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    1. ज़रूर देखिए यशवंत जी । बहुत अच्छी फ़िल्म है । और उसके बाद (समझिए कि मेरी सिफ़ारिश पर) 'अनारकली ऑव आरा' भी देखिए ।

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  5. आदरणीय माथुर जी,
    मैंने दोनों फ़िल्में देखी हैं। पिंक भी और स्वरा भास्कर की अनारकली ऑफ आरा भी....
    आपने बिलकुल सही विश्लेषण किया है। मैं पूरी तरह सहमत हूँ आपसे।

    कभी 'एंग्री इंडियन गॉडेस' पर भी कुछ लिखिएगा। संध्या मृदुल, सारा जेन डियाज, अनुष्का मनचंदा, अमृत मघेरा, तनिष्ठा चटर्जी, राजश्री देशपांडे, पवलीन गुजराल।
    सात महिलाओं की कहानी है। आपने ज़रूर यह फ़िल्म देखी होगी।
    हार्दिक शुभकामनाएं.🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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    1. Angry Indian Goddeses के बारे में मैंने सुना और पढ़ा तो है वर्षा जी लेकिन देखना अभी बाक़ी है । देखने के बाद लिख पाऊंगा । हार्दिक आभार आपका ।

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    2. बहुत धन्यवाद कि आपने मेरे सुझाव को स्वीकार किया आदरणीय 🙏

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  6. कृपया "ग़ज़लयात्रा" की इस लिंक पर भी पधार कर मेरा उत्साहवर्धन करने का कष्ट करें....

    फाग गाता है ईसुरी जंगल

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  7. इतनी सुंदर समीक्षा कि फिल्मों की तरफ खिंचाव हो ही जाय,पिंक देखी है,पर अनारकली ऑव आरा' देखनी पड़ेगी,और जरूर देखूंगी । आपके इस ज्ञान और रुचि को प्रणाम ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया जिज्ञासा जी । अनारकली ऑव आरा' अवश्य देखिए । बहुत पसंद आएगी आपको ।

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  8. गहरी सोच,परख रखने वाले...
    बरबस अवाक् होती आपको नमन करती हूँ।

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  9. रंगों का त्योहार,🏵
    लाए जीवन में बहार।🏵🏵🏵
    सफलता👑 चूमें आपके द्वार
    जगत में फैले कीर्ति अपार।।

    स्वस्थता, प्रसन्नता,सौहार्दता लिए यह सौभाग्यशाली,पावन पर्व आपके एवं आपके परिवार में नित प्रेम का रंग फैलाए।
    आपको सपरिवार रंग-बिरंगी होली की ढेरों शुभकामनाएँ।
    💐💐💐

    सधु चन्द्र

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  10. आपको तथा आपके आत्मीयों को भी हृदय के कण-कण से होली की शुभकामनाएं अर्पित करता हूं आदरणीया सधु जी ।

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  11. दो लाजवाब फिल्मों की लाजवाब समीक्षा...

    होली की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🙏🌹

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    1. होली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित बहुत-बहुत आभार आपका आदरणीया शरद जी ।

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  12. माथे पर टीका लगे, गालों लाल गुलाल।
    होंठों पर मुस्कान हो,मन का मिटे मलाल।।

    ‘‘वर्षा’’ हो सद्भाव की, बहे ख़ुशी की धार।
    तभी सार्थक हो सके, होली का त्यौहार।।

    आदरणीय माथुर जी,
    मेरे इन दोहों के साथ सपरिवार होली की शुभकामनाएं स्वीकार करें। 🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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    1. बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी आपकी वर्षा जी । बहुत सुंदर दोहे हैं ये । आपको भी आपके आत्मीयाें सहित होली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  13. बहुत अच्छी जानकारी
    आपके आलेख तथ्यपरक होते हैं
    बधाई

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