नीरज पांडे द्वारा लिखित एवं दिग्दर्शित फ़िल्म 'अय्यारी' फ़रवरी २०१८ में प्रदर्शित हुई थी लेकिन उसकी विभिन्न समीक्षाएं पढ़ने के कारण मैंने उसे नहीं देखा था क्योंकि लगभग सभी समीक्षाओं में फ़िल्म की कटु आलोचना की गई थी तथा अपनी पहली फ़िल्म 'ए वेन्ज़डे' (२००८) के उपरान्त नीरज पांडे द्वारा प्रस्तुत फ़िल्में मेरी कसौटी पर खरी नहीं उतरी थीं । बहरहाल मैंने हाल ही में उसे इंटरनेट पर देखा और यही पाया कि वस्तुतः फ़िल्म ठीक से नहीं बनाई गई थी, अतः उसकी आलोचना उचित ही थी किंतु नीरज ने जिस विषय का चयन फ़िल्म के लिए किया, वह उनके साहस को ही दर्शाता है जिसके लिए उनकी निश्चय ही सराहना की जानी चाहिए । और वह विषय है - (भारतीय) सेना में भ्रष्टाचार ।
'अय्यारी' के वेश बदलने में निपुण अय्यार हैं - भारतीय सेना के कर्नल अभय सिंह (मनोज बाजपेयी) तथा उनमें अटूट श्रद्धा रखने वाले उनके प्रिय शिष्य मेजर जय बक्शी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) जो सेनाध्यक्ष (विक्रम गोखले) के आदेश पर देश की सुरक्षा हेतु एक पूर्णरूपेण गुप्त दल का गठन एवं संचालन करते हैं । कर्नल साहब अनुभवी हैं, मेजर साहब युवा । अतः दोनों के आदर्श एक होने के बावजूद उनकी सोचें पीढ़ियों के अंतर के कारण कुछ अलग हैं । इसीलिए जब मेजर साहब को सेना में फैली भ्रष्टाचार की दलदल का पता चलता है तो उन्हें अपना कर्तव्य-निर्वहन निरर्थक लगने लगता है और वे अपना पृथक् मार्ग चुन लेते हैं । अब कर्नल साहब के सामने दोहरी चुनौती है - मेजर साहब को पकड़ना तथा अपने गुप्त दल व उसके गुप्त कार्यकलापों की गोपनीयता को बनाए रखना ।
सेना में भ्रष्टाचार के मुद्दे को छूने वाली संभवतः पहली फ़िल्म थी – सोल्जर (१९९८) जिसके दिग्दर्शक थे अब्बास-मस्तान । लेकिन अब्बास-मस्तान ने अपनी कार्यशैली के अनुरूप केवल एक तेज़ रफ़्तार सस्पेंस-थ्रिलर बनाने पर ज़ोर दिया था और वे ऐसा करने में पूरी तरह से कामयाब भी रहे । फ़िल्म अत्यंत मनोरंजक बनी एवं इसीलिए व्यावसायिक रूप से सफल भी रही । किंतु सेना में भ्रष्टाचार की बात से कहानी शुरु करने के बावजूद फ़िल्म इस बात की गहराई में नहीं गई । इस महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील तथ्य की गहराई में जाने का कार्य 'अय्यारी' करती है लेकिन लेखक-निर्देशक नीरज पांडे इस कार्य को ढंग से निष्पादित नहीं कर सके । उनकी पहली विफलता एक लेखक के रूप में ही रही क्योंकि फ़िल्म के विषयानुरूप एक सशक्त पटकथा वे नहीं लिख सके (काश वे इसके लिए मेरे से सलाह ले लेते) । करेला और नीम चढ़ा यह कि उन्होंने जो लिखा, दिग्दर्शक के रूप में वे उसका उचित निर्वहन भी नहीं कर सके । फ़िल्म बनाते समय नीरज स्वयं भ्रमित रहे, इसीलिए उनकी फ़िल्म देखते समय जनता भी भ्रमित हो गई जिससे उसे मनोरंजन के स्थान पर सिरदर्द ही प्राप्त हुआ ।
भारतीय संविधान में
लोकतंत्र के तीन स्तंभ निर्धारित किए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका तथा
न्यायपालिका । इनके अतिरिक्त चौथा स्तंभ है - प्रेस (समाचार-पत्र) । इनकी सहायता तथा देश एवं
नागरिकों की सुरक्षार्थ गठित की गई हैं - पुलिस एवं सेना । होना तो यही चाहिए कि
ये सभी तंत्र एवं संस्थाएं अपना-अपना निर्धारित कर्तव्य-पालन पूर्ण सत्यनिष्ठा से
करें तथा 'नियंत्रण
एवं संतुलन' (चैक्स
एंड बैलेंसेज़) के सिद्धांत के आधार पर एक-दूसरे को पथभ्रष्ट होने से रोकें भी । यह
सिद्धांत इसीलिए किसी भी विराट समाज, संगठन अथवा राष्ट्र के लिए आवश्यक होता है क्योंकि इस कलियुग में दूध
का धुला न तो कोई होता है और न ही किसी से ऐसा होने की अपेक्षा की जाती है ।
अपवादस्वरूप कोई व्यक्ति तो दूध का धुला हो भी सकता है लेकिन कोई व्यवस्था नहीं
क्योंकि व्यवस्था सदैव व्यक्तियों के समूह से बनती एवं परिचालित होती है ।
लेकिन हमारे भारत महान में
हाल यह है कि लोकतंत्र के चारों स्तंभ अपने आप को दूध का धुला बताते हुए दूसरों पर
भ्रष्ट एवं पक्षपाती होने का दोषारोपण करते रहते हैं । पुलिस तो शासन-तंत्र के हाथ
की कठपुतली बनी रहती ही है, हमारी
भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने सेना को भी निष्कलंक नहीं रहने दिया है । अनेक बार
सैन्य-प्रमुखों की नियुक्ति में वरिष्ठता के सर्वसम्मत सिद्धांत की बलि चढ़ाई गई है
ताकि सरकार के आगे नतमस्तक रहने वाले चहेतों को पुरस्कृत किया जा सके एवं रीढ़ की
हड्डी तानकर ग़लत बात का विरोध करने वालों को बाहर का मार्ग दिखाया जा सके । इसका
सबसे कुरूप उदाहरण १९९८ में नौसेनाध्यक्ष एडमिरल विष्णु भागवत की बर्ख़ास्तगी था । शीर्ष
सैन्य पदों पर की जाने वाली नियुक्तियों में बाहरी घटकों के हस्तक्षेप को (ताकि
अपने चहेते को उस शक्तिशाली एवं अधिकार-संपन्न पद पर बैठाया जा सके) 'अय्यारी' में भी दर्शाया गया है ।
आज विधायिका एवं
कार्यपालिका अपने आप को सुर्ख़रू समझते और बताते हुए न्यायपालिका तथा प्रेस को
उपदेश झाड़ती रहती हैं कि वे उनके काम में हस्तक्षेप न करें तथा उनकी आलोचना से
बचें जबकि न्यायपालिका एवं प्रेस अपने आप को आईना समझती हैं जो लोकतंत्र के दूसरे
स्तम्भों को उनका असली चेहरा दिखाने के लिए है लेकिन किसी भी आईने में अपना चेहरा
देखने की फ़ुरसत इनमें से किसी के पास नहीं । विधायिका एवं कार्यपालिका अपने
कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करतीं और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी रहती हैं लेकिन उनके
भ्रष्टाचार पर उंगली उठाने वाली न्यायपालिका तथा प्रेस में भी भ्रष्टाचार कुछ कम
तो नहीं जिसे रोकने में इनकी कोई रुचि कभी दिखाई नहीं देती । विगत कुछ वर्षों से
तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तथा सर्वोच्च न्यायाधीश के कार्यकलाप भी
विवादास्पद रहे हैं और उनकी छवि बेदाग़ नहीं रही । पर 'हम अच्छे हैं, वो बुरे हैं' वाली मानसिकता से ग्रस्त
भारतीय लोकतंत्र के इन सभी स्तम्भों का दृष्टिकोण यही है कि आलोचना करो तो 'उनकी' करो, हमारी नहीं; उंगली उठाओ तो 'उन' पर उठाओ, हम पर नहीं ।
जहाँ तक सेना का सवाल है, सीमा पर (और सीमाओं के भीतर
भी) शहीद होने वाले सैनिकों की शहादत की आँच पर अपनी सत्ता की रोटियां सेकने वाले
राजनेता उनके लिए तो केवल मगरमच्छ के आँसू ही बहाते हैं लेकिन देश पर मंडराते कथित ख़तरों का हौवा खड़ा करके
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सैन्य उपकरणों तथा अस्त्र-शस्त्रों के बड़े-बड़े सौदे
(अरबों-खरबों की राशि के) करते हैं जिनमें चाँदी काटी जाती है । शहीद सैनिकों की
विधवाओं एवं परिजनों के लिए आवास तथा जीवन-यापन की व्यवस्था के नाम पर रीयल एस्टेट क्षेत्र से अपने लिए
बहुमूल्य संपत्तियांँ जमा कर ली जाती हैं । 'अय्यारी' फ़िल्म
सत्ताधारी राजनेताओं के साथ-साथ शीर्ष पदों पर रहने वाले तथा रह चुके (सेवारत एवं
सेवानिवृत्त) सैन्य अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण तथा शस्त्र-विक्रेताओं के साथ उनकी
साठगाँठ को रेखांकित करती है तथा टीआरपी के भूखे टी.वी. चैनलों को भी कटघरे में
खड़ा करती है । सैनिकों के प्रति इनका एक ही नज़रिया रहता है कि वे मरने के लिए हैं
और हम अपनी जेबें भरने के लिए ।
तो फिर सेना को आलोचना से
परे कैसे माना जाए ? विभिन्न
व्यवस्थाओं की भाँति
सेना भी एक व्यवस्था है जिसका वित्तपोषण विभिन्न प्रकार के कर चुकाने वाली जनता के
धन से होता है । देश के विभिन्न भागों में तैनात सैनिकों द्वारा उन क्षेत्रों की
सामान्य जनता पर किए जाने वाले अत्याचारों के आरोपों की वस्तुपरक एवं निष्पक्ष
छानबीन क्यों न की जाए ? सैन्य
सौदे कैसे किए जा रहे हैं तथा सैन्य उपकरण उचित मूल्य पर ही क्रय किए जा रहे हैं
या नहीं, ये बातें
सार्वजनिक संवीक्षा (पब्लिक स्क्रूटिनी) से बाहर क्यों रहें ? सूचना की संवेदनशीलता तथा
गोपनीयता के नाम पर क्या जनता को सदा अंधेरे में ही रखा जाए तथा उसके धन की लूट
बेरोकटोक चलती रहे ? अस्सी के
दशक में रक्षा सौदों में दलाली का शोर मचाकर एक प्रधानमंत्री को सत्ताच्युत कर
दिया गया लेकिन शोर मचाकर वह पद स्वयं हथिया लेने वाले महाशय ने क्या उसके उपरांत
वास्तविक तथ्यों को जनता के समक्ष लाने के लिए कुछ किया ? नहीं ! क्योंकि उनका
(सत्ताप्राप्ति का) निहित स्वार्थ तो शोर मचाकर चुनाव जीत लेने से ही सिद्ध हो गया
था । आज स्थिति यह है कि सत्ताधारी कहते हैं कि किसी भी रक्षा सौदे पर उंगली मत
उठाओ, लोक लेखा समिति द्वारा सौदे
की जाँच की निर्धारित प्रक्रिया का पालन न किया जाए तो भी कुछ मत बोलो, सौदे की राशि न्यायोचित न
लगे तो भी चुप रहो, कोई
संबंधित सूचना न माँगो । ऐसा करोगे तो हमारे वीर सैनिकों का मनोबल गिर जाएगा और
राष्ट्रीय सुरक्षा संकट में पड़ जाएगी । जबकि सत्य वही है जो 'अय्यारी' के मेजर जय बक्शी कहते हैं
- 'हमाम में सभी नंगे हैं' ।
©
Copyrights reserved
मूल प्रकाशित लेख (सोलह दिसम्बर, 2019 को) पर ब्लॉगर मित्र की प्रतिक्रिया :
जवाब देंहटाएंJyoti DehliwalDecember 18, 2019 at 7:44 AM
सही कहा जितेंद्र भाई की हमाम में सभी नंगे हैं।
Reply
जितेन्द्र माथुरDecember 18, 2019 at 7:08 PM
हार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी ।
अय्यार शब्द देवकीनंदन जी की देन नही है। वह उनसे भी पुराना एक फ़ारसी-अरबी शब्द है, जो एक योद्धाओ के एक खास वर्ग के लिए उपयोग किया जाता था। शायद देवकीनंदन जी ने उसे अपना ही एक ट्विस्ट दे दिया।
जवाब देंहटाएंआपने नई जानकारी दी अमन जी । ज्ञानवर्धन हेतु आभार ।
हटाएंसमीक्षा पढ़करर एक नया दृष्टिकोण जानने को मिला। आपकी समीक्षा बहुत पसंद आई। मेरी समझ में "हमाम में सब नंगे हैं" वाक्य बेहद निष्ठुर है। कुछ लोग ऐसे जरूर होते होंगे जो वाकई ईमानदार होते हैं। यह एक वाक्य ऐसे लोगों को चुभता होगा! इस इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। आप ज़बरदस्त लिखते हैं। आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार वीरेंद्र जी । मैं आपसे सहमत हूँ । मैं स्वयं राजकीय क्षेत्र में सेवारत हूँ (एवं भूतकाल में भी रह चुका हूँ), अत: यदि मैं स्वयं ईमानदार हूँ तो मेरे जैसे और भी होंगे और होते ही हैं । 'हमाम में सब नंगे हैं' केवल एक उक्ति (फ़िगर ऑव स्पीच) है, इसे पूर्ण सत्य नहीं समझा जा सकता ।
हटाएंप्रभावी समीक्षा सर! हमें उम्मीद है कि इस विषय पर और भी फिल्में भविष्य में बनेंगी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार यशवन्त जी । ऐसे संवेदनशील विषय तथा राष्ट्रीय महत्व के विषय पर अच्छी फ़िल्में बननी ही चाहिए ।
हटाएंबहुत ही सटीक समीक्षा!
जवाब देंहटाएंमैंने यह मूवी सिर्फ इसलिए देखी थी क्योंकि इसमें मेरे फेवरेट एक्टर थे लेकिन सच में आदि से अंत तक बिखरी-बिखरी-सी है तथा कतिपय अपवादस्वरूप दृश्यों को छोड़कर कहीं प्रभावित नहीं करती ।
आप ठीक कह रही हैं मनीषा जी। हार्दिक आभार आपका।
हटाएं