गुरुवार, 11 मार्च 2021

दहेज समस्या का अनछुआ पहलू

भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी और बहुत पुरानी कुरीति है - कन्याओं के विवाह में वर-पक्ष द्वारा की जाने वाली दहेज की माँग और उसे पूरा करने का कन्या-पक्ष पर अत्याचार-सरीखा दबाव । इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ तक विवाह के संदर्भ में कन्या की इच्छा और पसंद को जानना तो बहुत दूर की बात, उसके विवाह के लिए दहेज जुटाना ही एक बहुत बड़ा मुद्दा हुआ करता था और इस नवीन सदी में भी स्थिति में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है । लड़के वाले निर्लज्ज होकर (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से) दहेज की माँग करते हैं या लड़की वालों पर अपने रीति-रिवाज़ों की दुहाई देकर अनावश्यक आर्थिक भार डालते हैं । लड़की वालों की विवशता होती है कि उन्हें अपनी कन्या को विदा करना है, उसका घर बसाना है और इस प्रकार अपना (अपरिहार्य) सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण करना है; इसलिए वे चुपचाप ऐसी सही-ग़लत माँगें मानते रहते हैं और इस प्रक्रिया में बहुत कुछ मन-ही-मन घुट-घुटकर सहते रहते हैं । 

 

महान फ़िल्मकार स्वर्गीय वी. शांताराम ने इस कुप्रथा पर बड़ी मार्मिक फ़िल्म - दहेज (१९५०) बनाई थी । एक लम्बे अंतराल के बाद अस्सी-नब्बे के दशक में इस सामाजिक कुरीति पर - दूल्हा बिकता है (१९८२), एक बार चले आओ (१९८३), शुभकामना (१९८३), बहू की आवाज़ (१९८५), सस्ती दुल्हन महंगा दूल्हा (१९८६), ये आग कब बुझेगी (१९९१)  आदि कई फ़िल्में बनीं । प्रायः ऐसी फ़िल्मों ने चित्रपट पर समस्या को सतही ढंग से ही प्रस्तुत किया ।

 

सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में पॉकेट बुक व्यवसाय के अंतर्गत हिंदी में ढेरों उपन्यास लिखे जाते थे जिनमें सामाजिक तथा जासूसी दोनों ही प्रकार के उपन्यास होते थे । आम तौर पर बॉलीवुडिया फ़िल्मी अंदाज़ में लिखे जाने वाले ऐसे अनेक सामाजिक उपन्यासों में भी दहेज की समस्या को विषय-वस्तु बनाया जाता था किन्तु परिणाम वही रहता था - समस्या का सतही विश्लेषण एवं प्रस्तुतीकरण ।

 

इसी समयावधि में वेद प्रकाश शर्मा नामक एक युवा लेखक ने हिंदी के पाठक-वर्ग में अपनी एक पृथक् पहचान बनाई । वे रहस्यकथाओं को भी सामाजिक परिवेश में ढालकर इस प्रकार रोचक एवं प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते थे कि उनके उपन्यासों को जासूसी उपन्यास पढ़ने वालों के साथ-साथ वे भी पढ़ते थे जो जासूसी उपन्यासों के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ते थे । यही कारण था कि उनके पाठकों में असंख्य महिलाएं भी थीं । दहेज की दावानल जैसी सामाजिक कुरीति पर अपनी लेखनी द्वारा सबसे सशक्त प्रहार उन्होंने ही किया ।

 

दहेज के लोभ में अपनी बहू की बलि चढ़ा देने वाले एक लालची एवं क्रूर ससुराली परिवार की कहानी वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यास 'बहू माँगे इंसाफ़' में लिखी । इस उपन्यास को असाधारण लोकप्रियता प्राप्त हुई तथा बहू की आवाज़ (१९८५) फ़िल्म इसी उपन्यास को आधार बनाकर निर्मित की गई थी । लेकिन जिन दिनों यह समस्या अपने चरम पर थी, उन्हीं दिनों कई निर्दोष ससुराल वालों को दहेज के लिए बहू की हत्या के झूठे आरोप में फँसा देने के भी मामले सामने आया करते थे । वेद प्रकाश शर्मा ने समस्या के इस विपरीत पक्ष को भी समझा तथा इसके आधार पर 'दुल्हन माँगे दहेज' नामक उपन्यास लिखा ।

 

लेकिन अपने इस आलेख में मैं न 'बहू माँगे इंसाफ़' की चर्चा कर रहा हूँ, न ही 'दुल्हन माँगे दहेज' की । मैं चर्चा कर रहा हूँ वेद जी द्वारा उपर्युक्त दोनों उपन्यासों के प्रकाशन के कई वर्षों के उपरान्त लिखे गए एक अनूठे कथानक की जिसका आधार दहेज की कुरीति ही थी लेकिन इसे एक पूर्णरूपेण नवीन तथा सर्वथा अछूते कोण से देखा गया था । दो भागों में विभाजित इस कथानक के उपन्यासों के नाम हैं 'दहेज में रिवॉल्वर' तथा 'जादू भरा जाल'

वेद जी ने इस कथानक में अब तक सदा उपेक्षित रहे इस तथ्य पर ध्यान दिया है कि जब किसी आर्थिक रूप से दुर्बल अथवा साधारण स्थिति के परिवार की कन्या के विवाह के लिए अपने आप को मानो जीते-जी मारकर उसके माता-पिता, भाई आदि धन जुटाते हैं एवं उसके दहेज-लोलुप ससुराल-पक्ष के आगे बार-बार झुकते तथा अपमानित होते हैं तो उसके कोमल मन पर क्या बीतती है । क्या वह निर्दोष कन्या अपने ससुराल में जाकर स्नेह, सम्मान एवं सेवा की गंगा बहा सकती है ? क्या वह अपने बाबुल, माता, भाई आदि को दहेज के लिए ख़ून के आँसू रूलाने वालों को क्षमा करके उनके साथ सहज भाव से रह सकती है क्या वह दहेज-लोभी सास-ससुर को माता-पिता की तरह सम्मान दे सकती है ? ननद-देवर की स्नेहमयी भाभी बन सकती है ? पति को अपनी देह सौंपकर उसके अंश को अपनी कोख में धारण कर सकती है ? क्या वह एक सामान्य मानवी नहीं है जो उस घर के लोगों के दुख से दुखी न हो जिसमें उसका बचपन एवं कैशोर्य बीता है, जहाँ खेलकर एवं ढेर सारा दुलार पाकर एक लाड़ली बेटी के रूप में वह बड़ी हुई है ? वेद जी की इस कहानी की नायिका सुधा का स्पष्ट उत्तर है - नहीं !

 

'दहेज में रिवॉल्वर' से आरम्भ हुए इस कथानक के दहेज-लोलुप परिवार के मुखिया हैं - गिरधारीलाल जो कि एक व्यापारी हैं । उनके परिवार में हैं उनकी धर्मपत्नी कमला देवी, उनके दो पुत्र - पंकज और बादल तथा उनकी अविवाहित पुत्री बिंदु । वे अपने बड़े पुत्र पंकज की नवविवाहिता पत्नी सुनयना की दहेज न लाने के कारण एक गुंडे कुंदा के द्वारा इस प्रकार हत्या करवा देते हैं कि वह सुनियोजित हत्या नहीं लगती । उन्होंने सुनयना के परिवार वालों से कोई दहेज नहीं माँगा था क्योंकि उन्हें बिना माँगे ही अच्छा-ख़ासा दहेज मिल जाने की आशा थी जो कि पूरी नहीं हुई थी । अब वे विधुर पंकज का रिश्ता एक सेवानिवृत्त अध्यापक शारदा प्रसाद की पुत्री सुधा से तय करते हैं और विवाह (यहाँ तक कि सगाई) होने से भी पहले दहेज की लम्बी-चौड़ी माँगें उनके सामने रख देते हैं । बेचारे निर्धन शारदा प्रसाद और उनकी धर्मपत्नी दुर्गा देवी जैसे-तैसे घर का सामान और पुश्तैनी आभूषण तक बेचकर और कर्ज़ का बोझ सर पर लादकर उनका सुरसा जैसा फैला हुआ लोभी मुँह भरते रहते हैं लेकिन वे यह नहीं जान पाते कि उनकी यह हालत देखकर सुधा के मन पर क्या बीत रही है, अपने माँ-बाप का यह हाल देखकर वह किस कदर तड़प रही है और अंदर-ही-अंदर घुट रही है ।

 

शारदा प्रसाद ने अपने पुत्र (और सुधा के बड़े भाई) बलदेव को उसकी गुंडागर्दी के कारण घर से निकाल दिया हुआ है लेकिन यह बात केवल सुधा जानती है कि उसका भाई केवल उसके सम्मान की रक्षा के लिए ही अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर अपराध के मार्ग पर उतरा है क्योंकि कुंदा की सुधा पर बुरी नज़र है । बलदेव अब बल्लम नाम के गुंडे के रूप में जाना जाता है और उसका परछाईं जैसा साथी है पोपट जो सुधा को अपनी सगी बहन जैसी ही मानता है । इधर दिवंगत सुनयना का भाई विनय पुलिस इंस्पेक्टर बन चुका है और वह बरसों पहले शारदा प्रसाद का शिष्य रह चुका है । उसे शारदा प्रसाद द्वारा सगाई की रस्म तक होने से पहले गिरधारीलाल के परिवार को भारी-भरकम दहेज दे दिया जाने से संदेह होता है कि कहीं उसकी बहन सुनयना की असमय मृत्यु उसके विवाह में दहेज न दिए जाने के कारण तो नहीं हुई थी । अब वह चुपके-चुपके इस बाबत अपनी जाँच-पड़ताल शुरु कर देता है ।

 

लेकिन सगाई तक होने से पहले दे दिए गए कीमती दहेज को पाकर ख़ुशी से नाच रहे गिरधारीलाल और उनके बीवी-बच्चों के तब छक्के छूट जाते हैं जब दहेज के सामान में से एक रिवॉल्वर निकलता है । यह वही रिवॉल्वर है जिसे कुंदा को देकर उन्होंने उससे सुनयना की हत्या करवाई थी । इधर यह सस्पेंस उनका हाल बुरा कर रहा है कि वह रिवॉल्वर दहेज के सामान में कहाँ से आ गया, उधर कुंदा जेल में रहते हुए भी उन्हें ब्लैकमेल करना शुरु कर देता है जो कि उनके लिए एक दूसरा सरदर्द बन जाता है । 

 

सगाई भी होती है, विवाह भी । लेकिन सुधा का नया-नवेला पति पंकज और ससुराल वाले उसके व्यवहार को देखकर भौंचक्के रह जाते हैं । वह न केवल अपने ससुराल वालों को आस-पड़ोस वालों के सामने अपमानित करती है बल्कि अपने ससुराल वालों की ऐसी तस्वीरें (पेंटिंगें) बनाने लगती है जिनमें उन्हें मरते हुए दिखाया जाता है । अचानक इस परिवार के सदस्यों की उसी ढंग से हत्याएं होने लगती हैं जिस ढंग से सुधा द्वारा रचित पेंटिंगों में दर्शाया जाता है । हत्याओं का यह सिलसिला इस कथानक के दूसरे भाग 'जादू भरा जाल' में तब तक चलता है जब तक इस परिवार के सभी सदस्य काल के गाल में नहीं समा जाते । इसी सिलसिले के दौरान कुंदा भी मारा जाता है । 

 

जहाँ तक इस कथानक के रहस्य का प्रश्न है, यह अगाथा क्रिस्टी के क्लासिक उपन्यास 'एंड दैन देयर वर नन' से प्रेरित लगता है । लेकिन वस्तुतः यह कथानक रहस्य-प्रधान न होकर भावना-प्रधान है । मुख्यतः यह सुधा की भावनाओं पर आधारित है जो कि विवाह करके किसी की पत्नी और किसी दूसरे परिवार की बहू बनने से पहले अपने माता-पिता की पुत्री है, अपने भाई की बहन है । अपने विवाह के लिए चादर से बाहर पैर फैलाकर जैसे-तैसे दहेज जुटा रहे अपने साधनहीन माता-पिता की दुर्दशा उसके मन में आग भर देती है । परिणामतः वह एक पारम्परिक पुत्रवधू न बनकर एक विद्रोही बहू के रूप में अपने ससुराल में कदम रखती है और फिर अपने पति और ससुरालियों से अपने माता-पिता को सताने के गिन-गिनकर बदले लेती है ।

 

उपन्यास में माता-पिता की अपनी बेटी-बेटे के प्रति भावनाओं तथा भाई-बहन के बीच के प्रेम को भी दर्शाया गया है । सुधा को केवल अपने सगे भाई बलदेव का ही प्रेम नहीं मिलता, बलदेव का मित्र पोपट और साथ ही शारदा प्रसाद को अपने पिता समान समझने वाला उनका शिष्य तथा दिवंगत सुनयना का भाई विनय भी उसे अपनी बहन की ही भाँति स्नेह करते हैं । घर से निकाल दिए गए बलदेव की अपनी बहन की शादी में शामिल न हो पाने की कसक मन को झकझोर देती है । भावनाओं के कुशल चितेरे वेद प्रकाश शर्मा ने इन सभी भावनाओं को बड़ी कुशलता से दोनों उपन्यासों के पृष्ठों पर उकेरा है । 

 

लेकिन भावनाओं का चरम इस उपन्यास के अंतिम दृश्य में आता है जब कथानक समाप्त हो चुका है, हत्याओं का रहस्य खुल चुका है, सभी दहेज-लोभी मर चुके हैं और सुधा अपने ससुराल की कोठी में अकेली रह गई है । तब जो कुछ भी उसकी (अब की) भावनाओं के बारे में लेखक ने लिखा है, वह मेरे जैसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के हृदय को आलोड़ित कर देने के लिए पर्याप्त है । उपन्यास का अंतिम अनुच्छेद और उसकी अंतिम पंक्ति पढ़ चुकने के बाद मन में हूक-सी उठती है और कथानक का यह अंत लम्बे समय तक पाठक के साथ बना रहता है ।  

 

पारंपरिक भारतीय परिवारों में कन्या को पराया धन समझा जाता है और यही बात कन्याओं के मन में भी बाल्यकाल से ही भरी जाती है । इसलिए कन्या का विवाह उसके परिजनों को ही नहीं, स्वयं उसे भी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य लगता है जिसके पूरा हो जाने पर मानो कोई बड़ा भार कंधों (और मन) से उतर जाता है, कोई गंतव्य मिल जाता है, कोई लक्ष्य प्राप्त हो जाता है । लेकिन वेद प्रकाश शर्मा के ये उपन्यास इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि पराया धन समझी जाने वाली कन्या भी अपने जन्म के परिवार से उसी तरह जुड़ी होती है जिस तरह माँस से नाखून जुड़ा होता है । दहेज के लिए अपने परिवार को सताने वालों के लिए वह अपने मन में ज़बरदस्ती सद्भावनाएं नहीं पाल सकती । वह भी इंसान है, पत्थर नहीं ।

 

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27 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (8 जनवरी, 2020 को) पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :

    Ravi Prakash SharmaJanuary 8, 2020 at 8:27 PM
    अच्छा लेख है थोड़ा लंबा ज्यादा हो गया क्योंकि आपने अधिकांश समय वेद प्रकाश जी की व्याख्या में निकाल दिए। खैर, दहेज़ नामक बीमारी भारत में अभी बनी है इसका जिम्मेदार है लड़कियों का आत्मनिर्भर न होना।

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 8, 2020 at 8:32 PM
    आभार रवि जी ।

    pranita deshpandeJanuary 9, 2020 at 12:43 AM
    SO IMPORTANT & NICE TOPIC YOU HAVE CHOSEN.

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 9, 2020 at 2:07 AM
    Hearty thanks Pranita Ji.

    Jyoti DehliwalJanuary 15, 2020 at 1:20 AM
    जितेंद्र भाई,बिल्कुल सही कहा आपने कि दहेज के लिए अपने परिवार को सताने वालों के लिए कोई भी बहू अपने मन में ज़बरदस्ती सद्भावनाएं नहीं पाल सकती । वह भी इंसान है, पत्थर नहीं ।

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 15, 2020 at 6:17 AM
    हार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी ।

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  2. दहेज़ बहुत बड़ी समस्या है..बिल्कुल सत्य है कि विवाह के समय दिखाया गया लालच परिवार विच्छेद का कारण बन जाता है..लड़कियां ससुराल आते ही अपना पराया करने लगती हैं..क्यूंकि विवाह के समय वो भावनात्मक रूप से कमजोर हो चुकी होती है..उपन्यास इस आधार को बहुत ऊंचाई तक ले जाता है..हमेशा की तरह अनुपम लेख..

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  3. दहेज जैसी कुरीति के विरुद्ध संघर्ष का प्रभावी स्वर !

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  4. बहुत ही भाव भरा समीक्षात्मक चित्रण किया है आपने जितेन्द्र जी, जिसमें दहेज जैसी बुराई को आधार बनाकर गहरा संदेश भी परिलक्षित हो रहा है..आपकी गहरी समीक्षा उपन्यास पढ़ने की प्रेरणा देती है..

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    1. अगर आपको उपन्यास पढ़ना पसंद हो तो इसे पढ़ लीजिएगा जिज्ञासा जी । बहुत अच्छा लगेगा आपको । हार्दिक आभार आपका ।

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  5. विकट समस्या को उपन्यास कि समीक्षा के माध्यम से रखना भी गज़ब ही है .

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  6. आपकी समीक्षा के अनुसार दहेज में रिवाल्वर और जादू भरा जाल वाकई दहेज लोलपों को करारा जबाब है जहाँ बाकी उपन्यासों में दहेजलोभियों की बर्बरता का ब्याख्यान होता है वही इसमें दूसरी बहू के द्वारा उन्हें दी गयी सजा का ब्याख्यान हैं।वह भी रहस्यमयी ढग से....।वाकई बहुत ही शानदार समीक्षा की है आपने जो पाठकों को पुस्तक पढने को लालायित करती है।

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    1. पुस्तक (दोनों भाग मिलाकर) वाक़ई बहुत अच्छी है । कभी संभव हो तो अवलोकन कीजिएगा सुधा जी । और मैं आपका हृदय से आभारी हूँ आपके आगमन एवं विचाराभिव्यक्ति के लिए ।

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  7. दहेज की समस्या का निदान उपन्यास के माध्यम से एक सार्थक पहल

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  8. "दहेज में रिवॉल्वर" मै भी पढ़ चुका हूँ। मुझे यह उपन्यास बहुत पसंद आया था। एक और उपन्यास "जिगर का टुकड़ा"
    भी पढ़ा था । आप ग़ज़ब की समीक्षा लिखते हैँ। आपको बधाई।

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  9. दहेज़ जैसे कुरीति के ख़िलाफ़ लिखी गई समीक्षात्मक आलेख बहुत कुछ सोचने के लिए प्रेरित करती है विशेषतः वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए - - साधुवाद सह।

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  10. पारंपरिक भारतीय परिवारों में कन्या को पराया धन समझा जाता है और यही बात कन्याओं के मन में भी बाल्यकाल से ही भरी जाती है । इसलिए कन्या का विवाह उसके परिजनों को ही नहीं, स्वयं उसे भी अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य लगता है
    ....समीक्षात्मक आलेख शानदार लेख प्रशंसनीय प्रस्तुति !!

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  11. जितेंद्र जी, निशब्द हूँ ये भावों से भरी समीक्षा पढ़कर। वेद प्रकाश शर्मा जी के अनन्य पाठक के रूप में आपने उनके सृजन को खूबसूरती से परिभाषित किया है। समाज के कलंक दहेज ने मध्यम वर्ग को सबसे ज्यादा पीड़ित किया है। लुगदी साहित्य ने ऐसी समस्याओं को पारदर्शीता के साथ लिखा गया है। वेद जी के लेखन की तो बात ही और थी। आपने लाजवाब लिखा है।

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    1. बहुत-बहुत आभार रेणु जी । ये उपन्यास वेद जी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में सम्मिलित किए जा सकते हैं ।

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  12. बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग रीडिंग लिस्ट् में नज़र आया। लगता है आपकी समस्या सुलझ गई। बधाई स्वीकार करें जितेंद्र जी🙏🙏

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    1. इसका सम्पूर्ण श्रेय विकास नैनवाल जी को है जिन्होंने अपने अथक परिश्रम से इस समस्या को सुलझाया एवं मेरा सच्चा मित्र बनकर दिखाया ।

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  13. जितेंद्र जी, बहुत अच्छा लगा जान कर कि ब्लॉग जगत में विकास जी जैसे निस्वार्थी लोग भी हैं। उनका सहयोग अत्यंत सराहनीय है। मेरे blog क्षितिज की टिप्पणी की सूचना मेरे मेल में नहीं आती। मैंने बहुत प्रयास कर लिया है पर टिप्पणी का ब्लॉग के अंदर से ही पता चलता है।

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    1. हाँ रेणु जी । सचमुच ही विकास जी तथा यशवंत जी जैसे नि:स्वार्थी लोग भी हैं जिनका संपर्क जीवन के प्रति आशा एवं सकारात्मकता से भर देता है । जहाँ तक आपकी समस्या है, यदि यह टिप्पणी वाले स्थान के दाईं ओर स्थित 'मुझे सूचित करें' वाले स्थान पर चिह्नित करने (टिक लगाने) से हल नहीं होती तो कोई विशेषज्ञ ही समाधान निकाल पाएगा इसका ।

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