एक आदर्श शिक्षक तथा विद्यार्थियों के साथ उसके संबंध को केंद्र में रखकर अनेक हिन्दी फ़िल्में बनाई गई हैं । १९५४ में प्रदर्शित ‘जागृति’ ऐसी ही एक महान फिल्म थी । उसके उपरांत भी विगत छह दशकों में इसी विषय को आधार बनाकर नर्तकी (१९६३), बूंद जो बन गई मोती (१९६७), परिचय (१९७२), अंजान राहें (१९७४), इम्तिहान (१९७४), बुलंदी (१९८१), हिप हिप हुर्रे (१९८४), सर (१९९३), आरक्षण (२०११) आदि अनेक फ़िल्में बनाई गईं जिनमें शिक्षक तथा छात्रों के सम्बन्धों को विभिन्न बिन्दुओं से देखा-परखा गया । जहाँ एक शारीरिक न्यूनता से पीड़ित बालक की व्यथा तथा उसे समझने वाले उदार शिक्षक की कथा को प्रस्तुत करती हुई एक असाधारण फ़िल्म ‘तारे ज़मीन पर’ (२००७) के रूप में आई वहीं ‘आँसू बन गए फूल’ (१९६९) नामक एक ऐसी फ़िल्म भी आई जिसमें भ्रमित विद्यार्थी को उचित मार्ग दिखलाने वाले शिक्षक को विपरीत परिस्थितियों के वशीभूत होकर स्वयं ही मार्ग से भटकते हुए दर्शाया गया ।
लेकिन मैंने एक ऐसी फ़िल्म भी देखी जो प्राचीन भारत की महान गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित है । प्राचीन भारत में शिष्य गुरु के आश्रम में जाकर गुरु (तथा उसके परिवार) के साथ ही रहते हुए शिक्षा भी ग्रहण करता था एवं गुरु की सेवा भी करता था । इससे उसमें ज्ञान के साथ-साथ संस्कार भी विकसित होते थे । गुरु के साथ वर्षों तक रहकर वह सेवा, विनम्रता एवं सहनशीलता जैसे गुणों का मूल्य समझता था एवं उन्हें अपने व्यक्तित्व में आत्मसात् करके न केवल अपने एवं अपने आश्रितों के लिए वरन सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी बनता था । गुरु अपने शिष्य का असत् से सत् की ओर, तम से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर पथ-प्रदर्शन करते हुए उसे एक आदर्श एवं कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के रूप में ही नहीं, मानवता से ओतप्रोत मनुष्य के रूप में विकसित करता था । अब न वे गुरु रहे, न वे शिष्य, न ही वैसी महान परम्पराएं । लेकिन जिस फ़िल्म की मैं बात कर रहा हूँ, उसमें इसी परंपरा को प्रस्तुत किया गया है । इस सरलता से परिपूर्ण किन्तु हृदय-विजयी फ़िल्म का निर्माण आजीवन भारतीय जीवन मूल्यों में आस्था दर्शाने वाले युगपुरुष स्वर्गीय ताराचंद बड़जात्या ने किया था । १९८० में निर्मित इस फ़िल्म का नाम है ‘पायल की झंकार’ । शाश्वत भारतीय जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने वाली इस फ़िल्म की गुणवत्ता इतनी उच्च है तथा मुझे यह इतनी प्रेरक लगती है कि जब-जब मैं अपने मन में नैराश्य अथवा नकारात्मक भावों को आच्छादित होते पाता हूँ, तो इस फ़िल्म को देख लेता हूँ जो मेरे अंधकार में डूबते मन में पुनः प्रकाश भर देती है ।
‘जागृति’
तथा ‘आँसू
बन गए फूल’
जैसी फ़िल्मों के निर्देशक सत्येन बोस द्वारा ही निर्देशित इस फ़िल्म का शीर्षक ‘पायल
की झंकार’
इसलिए रखा गया है क्योंकि इसकी प्रमुख पात्र एक बालिका है जिसमें नृत्य की
स्वाभाविक प्रतिभा है एवं जो एक सुयोग्य गुरु से नृत्य की शिक्षा प्राप्त करके
अपनी प्रतिभा को निखारना चाहती है । श्यामा नामक वह अभागी बालिका न केवल एक आर्थिक
दृष्टि से दुर्बल पृष्ठभूमि से आती है वरन वह अनाथ भी है एवं अपने मामा-मामी के
साथ रहते हुए नौकरानी की भाँति दिन-रात घर के काम करने के उपरांत भी अपनी मामी की
प्रताड़नाएं सहती है । ऐसे परिवेश में रहती हुई किसी सुयोग्य गुरु से नृत्य-शिक्षा
प्राप्त करने एवं अपनी प्रतिभा को नवीन उच्चताओं पर ले जाने का स्वप्न वह देखे भी तो
कैसे ?
मामा सहित कोई भी उसका अपना नहीं है जो उसकी प्रतिभा को पहचाने तथा उसके जीवन को
संवारने की सोचे । लेकिन उसके दुर्भाग्य की काली घटाओं में एक क्षीण प्रकाश-किरण
भी है – गोपाल,
उसका बाल-सखा ।
ताराचंद बड़जात्या की फ़िल्म-निर्माण संस्था राजश्री की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप ही बनाई गई इस फ़िल्म को १९८१ में ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भारतीय प्रविष्टि के रूप में भेजा गया था । यह फ़िल्म न केवल सादगी से परिपूर्ण एवं भारतीय ग्राम्य जीवन को हृदयस्पर्शी रूप से दर्शाने वाली है वरन अपने कण-कण में भारतीयता एवं भारतीय जीवन-मूल्यों को समेटे हुए है । जहाँ श्यामा के उदात्त चरित्र के माध्यम से कृतज्ञता, सेवाभाव एवं क्षमा जैसे गुणों को उकेरा गया है, वहीं गोपाल के चरित्र के माध्यम से परहिताभिलाषा एवं निस्वार्थ भाव से किए जाने वाले उपकार जैसे भावों को रेखांकित किया गया है । एक दृश्य में गोपाल को अपने पिता के चरण दबाते हुए दिखाया गया है जो पारंपरिक भारतीय परिवारों में बालकों को दिए जाने वाले उन उत्तम संस्कारों का प्रतीक है जो उनके व्यक्तित्व में चिरस्थायी हो जाते हैं । ऐसे ही सद्गुण किशन महाराज की विधवा पुत्री के माध्यम से भी दर्शाए गए हैं जो श्यामा की कठिन स्थिति को समझकर उसे घर में आश्रय देती है एवं तदोपरांत उसे अपनी सगी पुत्री की भाँति ही स्नेह देती है । जब किशन महाराज श्यामा द्वारा किए जा रहे दोहरे श्रम के संदर्भ में उससे बात करते हैं तो वह उसकी देह की मालिश तक करने को तत्पर हो जाती है । किशन महाराज के चरित्र के माध्यम से लेखक गोविंद मुनीस तथा निर्देशक सत्येन बोस ने एक सच्चे कला-मर्मज्ञ तथा एक सच्चे गुरु की महानता को दर्शक-समुदाय के समक्ष रखा है । उच्च-स्तरीय कलावंत होकर भी वे अत्यंत विनम्र हैं । अहंकार का अंश-मात्र भी उनमें नहीं है । उनका जीवन कला-साधना को समर्पित है, भौतिक सफलता एवं सांसारिक यश के पीछे वे नहीं भागते । उनके एक संवाद में घरेलू कामकाज की महत्ता को जिस प्रकार स्थापित किया गया है, वह इस तथ्य का जीवंत प्रमाण है कि फ़िल्म को निरूपित करने वालों ने भारतीय संस्कृति को कितने निकट से देखा और जाना है ।
‘पायल
की झंकार’
का आरंभ ही श्रावण मास में लगने वाले एक मेले से होता है जो भारतीय सांस्कृतिक
परंपरा का ही एक अंग है । तदोपरांत फ़िल्म का एक-एक दृश्य इस प्रकार रचा गया है कि
देखने वाले का अपना मन कलुषित हो तो भी उसमें उदात्त भाव उदित हुए बिना नहीं रह
सकते । अनेक स्थलों पर फ़िल्म दर्शक के मानस को कुछ ऐसे भिगो जाती है कि नयनों में
तरलता उमड़ पड़ती है एवं मनोमस्तिष्क का प्रत्येक कोण आलोकित हो उठता है । फ़िल्म का
कण-कण इस सत्य को निरूपित करता है कि प्रत्येक मानव यदि सद्गुणों को आत्मसात् कर
ले एवं सदाचार के पथ पर अग्रसर हो तो यह सम्पूर्ण सृष्टि ही सतोगुणी हो सकती है ।
फ़िल्म कला की
भलीभाँति साधना करने एवं उसमें निष्णात होने से पूर्ण ही उसका प्रदर्शन करने लगने
का निषेध करती है तथा कला-साधक के अपनी कला में दक्षता प्राप्त करने तक इस संदर्भ
में धैर्य धारण करने पर बल देती है । और वांछनीय भी यही है । अपूर्ण ज्ञान तो
अज्ञान से भी अधिक अवांछित होता है जिसका प्रदर्शन किसी भी समय प्रदर्शक को कठिनाई
में डाल सकता है, उसे दर्शक-समुदाय के समक्ष उपहास का पात्र बना सकता है । फ़िल्म
इस शाश्वत सत्य को भी रेखांकित करती है कि जहाँ चाह वहाँ राह । जिस पथिक के मन में
अपने गंतव्य तक पहुँचने की सच्ची लगन लग जाए,
उसे तो मार्ग स्वयं ही ढूंढ लेता है ।
फ़िल्म के अंतिम
दृश्य में किशन महाराज द्वारा गोपाल को नृत्य-स्पर्द्धा में विजयी होने वाली
श्यामा के प्रथम गुरु के रूप में चिह्नित करते हुए श्यामा को पुरस्कार उसी के करकमलों
से दिलवाया जाना तथा दर्शक-समुदाय से उन बालकों को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए
आशीष देने हेतु कहना हृदय की गहनता में जाकर उसे स्पर्श कर जाता है । काश ऐसे
दृश्य हमें वास्तविक जीवन में देखने को मिल सकें !
नर-नारी
का प्रेम भारतीय कथा-साहित्य तथा फ़िल्म-जगत दोनों ही का अभिन्न अंग रहा है क्योंकि
यही प्रेम सृष्टि का आधार है । यद्यपि यह प्रेम जीवन की सभी अवस्थाओं में हो सकता
है, तथापि मेरा यह मानना है कि युवावस्था का प्रेम
पूर्णतः निर्विकार नहीं हो सकता क्योंकि यह वह अवस्था होती है जिसमें देहाकर्षण का
प्राबल्य होता है । इसके विपरीत बाल्यावस्था का प्रेम प्रायः निर्मल एवं पावन होता
है । इसके अतिरिक्त वास्तविक प्रेम को अभिव्यक्ति के निमित्त शब्दों की भी कोई
आवश्यकता नहीं होती । वह स्वतः ही हृदय से हृदय तक जा पहुँचता है । ‘पायल की झंकार’ में स्पष्ट है कि बालक गोपाल को बालिका श्यामा से प्रेम है । और
फ़िल्म के एक दृश्य में जब गुरुपुत्री की पुत्री (गुरु की दौहित्री) को नदी में
डूबने से बचाने के उपरांत श्यामा का गोपाल से संवाद होता है तो श्यामा भी उस प्रेम
को भाँप जाती है । स्वयं श्यामा गोपाल के प्रति अपने हृदय में प्रच्छन्न उस प्रेम
से अनभिज्ञ है जो उस समय प्रकट होता है जब गोपाल के आगमन एवं ढोल-वादन से उसके
विरक्त भाव से किए जा रहे रसहीन नृत्य में ऐसी पुलक भर जाती है जैसी कभी कृष्ण की
वंशी से राधा के नृत्य में भर जाती होगी । किन्तु इन दोनों का यह प्रेम निर्दोष है, निश्छल है और इसीलिए हृदय-विजयी है ।
माया गोविंद द्वारा
रचित फ़िल्म के सभी गीत हिन्दी साहित्य की धरोहर-सदृश हैं जिन्हें शास्त्रीय रागों
पर आधारित मधुर धुनों में राजकमल द्वारा ढाला गया है । सुलक्षणा पंडित,
येसुदास,
चंद्राणी मुखर्जी, आरती मुखर्जी, अलका याग्निक,
आनंद कुमार तथा पुरुषोत्तम दास जलोटा के स्वरों में गूंजते हुए – देखो कान्हा नहीं
मानत बतियां,
सुर बिन तान नहीं, जिन खोजा तिन पाइयां,
झिरमिर-झिरमिर सावन आयो, कर सिंगार ऐसे चलत
सुंदरी,
सारी डाल दई मोपे रंग, थिरकत अंग लचकी झुकी झूमत,
रामा पानी भरने जाऊं सा, कौन गली गए श्याम,
जय माँ गंगा आदि गीत किसी भी सच्चे संगीत प्रेमी को सम्मोहित करने में सक्षम हैं ।
इनमें से मेरा अत्यंत प्रिय गीत ‘जिन खोजा तिन पाइयां’
है जिसे मैं कितनी भी बार सुन लूं, मेरा जी नहीं भरता
।
फ़िल्म में श्यामा की
केंद्रीय भूमिका कोमल महुवाकर ने निभाई है जिन्होंने अपने वास्तविक जीवन में नृत्य
की शिक्षा स्वर्गीय लच्छू महाराज से प्राप्त की थी । इस फ़िल्म में उनके सम्पूर्ण
नृत्यों का निर्देशन बद्री प्रसाद ने किया है । शास्त्रीय नृत्यों में उनकी
निपुणता तो फ़िल्म के प्रत्येक नृत्य-आधारित दृश्य में परिलक्षित होती ही है,
उनकी अभिनय प्रतिभा भी अपने सम्पूर्ण रूप में निखर कर आई है । इससे पहले वे कतिपय
फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम कर चुकी थीं । मुख्य भूमिका में इस अपनी
पहली ही फ़िल्म में उन्होंने अत्यंत प्रभावशाली अभिनय किया है । और उनका भरपूर साथ
निभाया है अलंकार जोशी ने । अलंकार भी इस फ़िल्म से पूर्व बाल कलाकार के रूप में
स्थापित हो चुके थे । मूलतः कोमल की फ़िल्म होने के उपरांत भी अलंकार ने गोपाल की
भूमिका में अपनी अमिट छाप छोड़ी है । अन्य कलाकारों में जहाँ किशन महाराज की भूमिका
में अनुभवी चरित्र-अभिनेता अरूण कुमार ने प्राण फूंक दिए हैं,
वहीं उनसे ईर्ष्या करने वाले नृत्य-गुरु दीनानाथ की भूमिका में हिन्दी के सुपरिचित
हास्य-कवि शैल चतुर्वेदी कुछ अतिरेकपूर्ण रहे । अन्य सभी सहायक कलाकारों ने
अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है जिनमें नृत्यांगना वीणा देवी की भूमिका
करने वाली नवोदित अभिनेत्री सुरिंदर कौर भी सम्मिलित हैं ।
फ़िल्म के कण-कण में
सादगी व्याप्त है एवं कहीं पर भी धन एवं विलासिता का निर्लज्ज प्रदर्शन नहीं है ।
अभद्रता से सर्वथा मुक्त यह फ़िल्म सम्पूर्ण परिवार के साथ देखने योग्य है । दो
घंटे से भी कम अवधि की इस छोटी-सी फ़िल्म को देखकर मेरे मन में जो विचार उठा,
वह
यह था कि यह फ़िल्म इतनी छोटी क्यों बनाई गई ?
इसे तो लंबी होना चाहिए था । दूसरा विचार जो मेरे मन में एक हूक,
एक कसक के साथ उभरा; वह यह था कि क्या ऐसे लोग,
ऐसी गतिविधियां और ऐसा जीवन वास्तविक संसार में होना संभव नहीं ?
वास्तविकता में क्यों हम इतने तमोगुणी एवं अधोमुखी हैं ? क्यों
हम सच्चरित्र नहीं बन सकते ? क्यों आदर्श को
यथार्थ में रूपायित नहीं किया जा सकता ?
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आपके प्रश्नों की असाध्य पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि ये प्रश्न हर भावुक एवं कोमल हृदय की पीड़ा है । कोमल कल्पनाओं के रहते हुए यथार्थ इतना कठोर क्यों है ?
जवाब देंहटाएंजी हाँ अमृता जी। हृदयतल से आपका आभारी हूँ आपके आगमन एवं प्रतिक्रिया हेतु ।
हटाएंआपके प्रश्न स्वाभाविक हैं ।मैं समझता हूं कि अगर इसी दिशा में साहित्य का सृजन हो तो अवश्य समाज pr कुछ असर अवश्य पड़ेगा । पर हलके साहित्य को कौन रोकेगा । जो समाज को दूसरी दिशा में ले जा रहा है ।
जवाब देंहटाएं।
जी आलोक जी । वैसे मेरा मत यह है कि समाज के अनुरूप साहित्य होता है, साहित्य के अनुरूप समाज नहीं ।।
हटाएंकितनी गहनता से सभी पिक्चर्स की बात कही है .... सार्थक प्रश्न उठाये हैं ...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया संगीता जी ।
हटाएंबहुत दिलचस्प लेख.... विचारोत्तेजक और मर्मस्पर्शी भी...
जवाब देंहटाएंहृदय की गहनता से आपका कृतज्ञता-ज्ञापन करता हूँ माननीया वर्षा जी ।
हटाएंसुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंआभार शास्त्री जी ।
हटाएंपायल की झंकार की समीक्षा पढ़कर इस फिल्म के कुछ अंशों को यूट्यूब पर देखकर कॉमेंट कर रहा हूँ। फिल्म वाकई अच्छी है। सुंदर समीक्षा के लिए आपका आभार। आपके सवाल भी सही है। बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय वीरेंद्र जी। पहले तो पूरी फ़िल्म ही यूट्यूब पर उपलब्ध थी। आपको कभी पूरी फ़िल्म किसी भी तरह देखने का अवसर मिले तो अवश्य देखिएगा। यह सचमुच ही एक ऐसी फ़िल्म है जो आपके मन को शांति और आनंद से भर देगी।
हटाएंबहुत परिश्रम भरा और सुन्दर आलेख, अच्छी समीक्षा, गुरु शिष्य पर आधारित , पायल की झंकार मै भी अब देखूंगा , जय श्री राधे
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र जी । मेरा आपको आश्वासन है कि पायल की झंकार आपको बहुत प्रेरक एवं मनभावन लगेगी ।
हटाएंबहुत गहरा आलेख है, बहुत गहन तौर पर लिखा गया, मन से लिखा गया...गहरे उतर गया। बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय संदीप जी।
हटाएंहमेशा की तरह आपकी यह समीक्षा भी बहुत ही गहन और प्रभावी है,आपकी बताई फिल्में देखने की लालसा बढ़ जाती है,और जरूर देखूंगी । सुंदर समीक्षा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंअवश्य देखिए जिज्ञासा जी । बहुत अच्छी फ़िल्म है यह । हृदय से आभार आपका ।
हटाएंआदरणीय माथुर जी,
जवाब देंहटाएं1980 की यह मूवी मैंने 1982 में देखी थी। बहुत सही प्रश्न उठाए हैं आपने। आपकी शानदार लेखन शैली के कारण यह पूरा लेख आद्योपांत बहुत रोचक है। आदरणीय,
विषय चयन में आपका जवाब नहीं।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
आपका आभार किन शब्दों में व्यक्त करूं वर्षा जी? आपकी प्रशंसा ने मुझे मूक कर दिया है।
हटाएंआपकी प्रभावशाली लेखनी ने ऐसा प्रवाह बांधा कि मैंने कब प्रारंभ किया और कब अंत तक पहुंच गई, एक सांस में पूरा लेख पढ़ गई और बाध्य हो गई हूं इस फिल्म को देखने के लिए।
जवाब देंहटाएंहृदय की गहराई से आभार प्रकट करता हूँ इंदु जी आपके प्रति। इस फ़िल्म को अवश्य देखिए। अभिभूत हो जाएंगी आप।
हटाएंगुरू शिष्य के संबंधों को फ़िल्म “पायल की झंकार” की गहन समीक्षा के साथ बहुत बारीकी से प्रस्तुत किया है जितेन्द्र जी । लेख के समापन के साथ मन में कसक के साथ वहीं प्रश्न उभरे जो आप के मन में आए । उत्कृष्ट सृजन और चिन्तन के लिए बहुत बहुत बधाई । लिखते रहिए जितेन्द्र जी आपकी लेखनी से निःसृत लेख और समीक्षाएँ सराहनीय हैं ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आपके प्रति आभार प्रकट करता हूँ माननीया मीना जी.
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