बचपन से जिस शौक़ ने मुझे जकड़ लिया था, वह था विभिन्न प्रकार की
पुस्तकें पढ़ना । मैं शब्दों से भरी पुस्तकें तो पढ़ता ही था, साथ
ही चित्रकथाओं का आकर्षण भी कुछ कम नहीं था । हम अपने घर पर विभिन्न बाल पत्रिकाएँ
लिया करते थे जिनमें से 'पराग' एक थी । मुझे याद है कि किसी एक वर्ष में 'पराग' ने
अपना एक अंक कॉमिक विशेषांक के रूप में निकाला था । उस अंक में कॉमिक्स के बारे
में उपयोगी और मनोरंजक जानकारियों के साथ-साथ ढेरों कॉमिक्स भी दिए गए थे । भारतीय
कॉमिक्स के सरताज जनाब प्राण साहब और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा प्राण के लेख थे
उसमें । ऑपरेशन 27 के नाम से एक सैन्य अभियान की चित्रकथा भी थी ।
चीकू नाम के एक बुद्धिमान खरगोश का सृजन किया प्राण साहब ने
जिसके कारनामे बच्चों की पत्रिका - 'चम्पक' में
बरसों तक छपे । किन्हीं कारोबारी वजूहात के चलते १९८० में
जब प्राण साहब 'चम्पक' से अलग हो गए तो इस प्यारे-से खरगोश का चेहरा
और कारनामे बदल गए । उसके बाद कोई 'दास' साहब चीकू के कारनामे पेश करने लगे । 'चम्पक' में
चीकू के अलावा एक चूहे 'चुंचू' के कारनामे भी आते थे और कभी-कभी किन्हीं
बोरगाओंकर साहब द्वारा रचित 'पिंटू और मोती' भी
आया करते थे जिनमें पिंटू नाम का एक लड़का और मोती नाम का एक कुत्ता होता था ।
प्राण दिल्ली प्रैस की अन्य पत्रिकाओं से भी लंबे समय तक जुड़े रहे । उनके
द्वारा रचित एक भारतीय गृहिणी (नाम - शीला) के किस्से - 'श्रीमतीजी' के
नाम से 'सरिता' में
बरसों छपे । मगर यहाँ भी वही हुआ जो ‘चीकू’ के मामले में हुआ था । अचानक 'श्रीमतीजी' का
चेहरा बदल गया और प्राण साहब की जगह आलोक जी इस
चित्रकथा का सृजन करने लगे । बाद में प्राण की यह चित्रकथा
एक अन्य पत्रिका ‘मनोरमा’ में भी कुछ समय तक छपी । प्राण ने यूं तो ढेरों
लोकप्रिय कॉमिक्स का सृजन किया मगर उनमें से यादगार रहे 'रमन', 'बिल्लू', 'पिंकी' और 'चाचा
चौधरी' । हास्य
पत्रिका ‘लोटपोट’ चाचा
चौधरी के बिना पूरी हो ही नहीं
हो सकती थी । 'चाचा
चौधरी' और जूपिटर
से आया उनका भीमकाय साथी 'साबू' दिलों में कुछ ऐसे समाए कि बाद में इन
पात्रों को लेकर 'सहारा टीवी' पर धारावाहिक बनाया गया ।
प्राण का मानस-पुत्र ‘बिल्लू’ और मानस-पुत्री ‘पिंकी’ बेहद लोकप्रिय रहे । इनके साथ इनके विभिन्न साथी – तोषी, गब्दू, बजरंगी पहलवान,
छक्कन, जोज़ी,
ताऊजी, गोबर गणेश, चंपू, भीखू, शांतू आदि भी पाठकों के
दिलों में घर कर गए थे । बिल्लू की लोकप्रियता का आलम यह था कि महान हास्य कवि
काका हाथरसी जी ने बिल्लू और उसके साथियों को लेकर एक कविता रची जो कि पराग में
प्राण के चित्रों के साथ छपी । काकाजी ने उस कविता में बिल्लू के रचयिता
प्राण से लेकर ‘पराग’ के संपादक कन्हैयालाल नन्दन जी तक को लपेट लिया था । कविता
की शुरुआती पंक्तियाँ इस प्रकार थीं –
बिल्लू बोला प्राण से – पापाजी श्रीमान
बजरंगी की जंग से संकट में हैं प्राण
संकट में हैं प्राण, हमारी साथी तोषी
है निर्दोष किन्तु बतलाते
उसको दोषी
गब्दू भैया को भी रोज़ तंग
करते हैं
परेशान हैं सब बालक, आहें भरते हैं
अख़बारों तथा पत्रिकाओं के माध्यम से ब्लौंडी, ब्रिंगिंग अप फादर, मट
और जेफ़, बॉर्न लूज़र,
गारफ़ील्ड, द विज़ार्ड ऑव इड,
बिटवीन फ़्रेंड्स, एनिमल क्रैकर्स, आर्ची, डेनिस द मेनिस आदि विदेशी
चरित्रों ने बरसों तक पाठकों का दिल लुभाया और इनमें से कई आज भी नज़र आते हैं ।
मगर भारतवासी होने के नाते हमें तो भारतीय चरित्रों से ही ज़्यादा लगाव था । इसीलिए
जगजीतसिंह राणा के छोटे-छोटे व्यंग्यचित्र आज भी भुलाए नहीं भूलते जिनमें कोई
स्थाई पात्र नहीं होता था । 'टाइम्स ऑव इंडिया' में दशकों तक छपने वाला आर॰के॰ लक्ष्मण साहब का
युग-प्रवर्तक ‘कॉमन मैन’, राजस्थान पत्रिका में त्रिशंकु के दैनिक व्यंग्यचित्र और 'पराग' में नियमित रूप से आने वाले
शेहाब के ‘छोटू और लंबू’ आज
भी दिलों पर छाए हुए हैं । ‘सरिता’ में बरसों से अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा एक शरारती बच्चा ‘ननमुन’ आज भी लोकप्रिय है ।
‘बाल-भारती’ पत्रिका में बरसों तक नज़र
आया जादुई पूँछ वाला बंदर ‘कपीश’ और उसके साथी जानवर पिंटू हिरण, मोटू
खरगोश, पीलू बाघ, केशा
शेर, सिगाल सियार,
बाबूचा भालू और एक शिकारी इंसान – ‘दोपाया’ अनंत पै॰ और मोहनदास नाम की कार्टूनिस्ट जोड़ी के दिमाग़ का
कमाल थे । इसी जोड़ी ने दो जुड़वां बच्चों – रामू
और शामू के कारनामे भी बरसों तक प्रस्तुत किए जो कि राजस्थान पत्रिका में
साप्ताहिक रूप से छपते थे । लेकिन अंकल
पाई के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गीय अनंत पै॰ का सबसे बड़ा योगदान अमर चित्रकथाओं के
रूप में रहा जिन्होंने भारतीय पौराणिक कथाओं की धरोहर को भारतीय बालकों तक
पहुँचाया ।
हास्य पत्रिकाओं - ‘लोटपोट’, ‘दीवाना’ और ‘मधु-मुस्कान’ की चर्चा के बिना चित्रकथाओं का यह सफ़रनामा पूरा हो ही
नहीं सकता । ‘लोटपोट’ में चाचा चौधरी के अलावा मोटू-पतलू और उनके विभिन्न साथी -
डॉक्टर झटका, मास्टर घसीटाराम, पपीताराम, चेलाराम आदि मिल-जुलकर
हँसाने का काम किया करते थे । ये ही पात्र ‘दीवाना’ में भी आते थे मगर ‘दीवाना’ केवल हास्य प्रस्तुत करने का ही नहीं बल्कि भारत की
राजनीतिक स्थिति पर जोरदार व्यंग्य कसने का काम भी इन्हीं पात्रों के माध्यम से करती
थी । मोटू-पतलू की कॉमिक मूलतः कृपा शंकर भारद्वाज साहब के दिमाग़ की उपज थी । ‘दीवाना’ फ़ॉर्मूलाबद्ध भारतीय
फ़िल्मों पर भी जमकर प्रहार किया करती थी और हर अंक में किसी-ना-किसी फ़िल्म की
पैरोडी प्रस्तुत की जाती थी । फ़िल्मी रिपोर्टर ‘कलमदास’ हर बार किसी-ना-किसी सितारे का साक्षात्कार प्रस्तुत करते
थे और ख़ूब हँसाते थे । ‘दीवाना’ में सिलबिल-पिलपिल (उनके साथ गरीबचन्द नाम का एक चूहा भी
होता था) भी जमकर हँसाया करते थे । क्रिकेट के लिए दीवानगी हमारे देश में उस ज़माने
में भी कम नहीं थी और ये चित्रकथाएं क्रिकेट की उस दीवानगी पर भी व्यंग्य कसा करती
थीं । ‘लोटपोट’ में
पी॰डी॰ चोपड़ा द्वारा सृजित एक शरारती बालक ‘नटखट
नीटू’ भी आया करता था । चोपड़ा साहब ने ‘नटखट नीटू’ के अलावा एक शरारती भाई-बहन की जोड़ी ‘चीटू-नीटू’ (जिसके कारनामे ‘नन्दन’ पत्रिका में छपते थे), ‘फ़िल्म हीरोइन छाया’, ‘टिन्नी बिटिया’, ‘चीनी’ आदि मनोरंजक चरित्रों का भी
सृजन किया जो समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं दोनों में ही नज़र आ जाते थे । चित्रकथाओं
को लोकप्रिय बनाने में 'टिंकल' पत्रिका का योगदान भी कम नहीं रहा ।
इन पत्रिकाओं में सबसे लंबे समय तक टिकने वाली पत्रिका रही ‘मधु-मुस्कान’ जो
अभी कुछ वर्षों पूर्व तक अस्तित्व में थी (वैसे 'लोटपोट' भी अभी छप रही है पर उसमें वो पहले वाली बात नहीं है)। ‘मधु-मुस्कान’ के ‘सुस्तराम-चुस्तराम’, ‘पोपट-चौपट’, ‘भूतनाथ और जादुई तूलिका’, ‘चक्रम-चिरकुट’, ‘डैडी जी’ आदि हँसाने में किसी से कम नहीं थे । एक और चित्रकथा आती थी
‘मधु-मुस्कान’ में – ‘बबलू’ लेकिन उसका उल्लेख मैं आगे अलग से करूंगा । यह पत्रिका
मुख्यतः एच॰आई॰ पाशा तथा हरीश एम॰ सूदन के संयुक्त प्रयास का फल थी । जगदीश जी, माणिक जी आदि भी इसमें नियमित योगदान दिया करते थे ।
'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में हर सप्ताह नज़र आती थी एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार के
दैनिक जीवन की कथा - 'मुसीबत है' जबकि 'धर्मयुग' की तो आबिद सुरती के 'ढब्बूजी' के बिना कल्पना करना ही संभव नहीं था । मैं जब प्राथमिक
कक्षाओं में था तो विद्यालय में हर शनिवार को होने वाली 'बाल
सभा' में सुनाने के लिए 'ढब्बूजी' का नवीनतम कारनामा याद कर के जाया करता था ।
जहाँ तक लंबी चित्रकथाओं का सवाल है, सबसे पहले तो मैं राजस्थान पत्रिका नाम के समाचार-पत्र में
बरसों तक छपने वाली चित्रकथाओं को याद करता हूँ जिन्हें सृजित करते हुए अनंत
कुशवाहा की तूलिका दशकों तक थकी नहीं । इनमें से ज़्यादातर राजस्थान की मिट्टी से
जुड़ी भावभीनी लोक-कथाएँ होती थीं - आँसू निकाल देने वालीं, दिल
की गहराइयों में समा जाने वालीं गाथाएं । कुशवाहा जी ने ही पर्वत-कन्या - शैलबाला' के साहसिक कारनामे भी प्रस्तुत किए । 'पराग' में बरसों तक 'छोटू और लंबू' तथा 'बिल्लू' के साथ-साथ 'शुजा' नाम के एक वीर की सिलसिलेवार
कहानी भी नज़र आई । 'धर्मयुग' में जिस पृष्ठ पर 'ढब्बूजी' को स्थान मिलता था, उसी
पृष्ठ पर एक चित्रकथा भी धारावाहिक रूप से छपती थी । 'कित्तूर
की रानी चेन्नम्मा', 'पोरस
और सिकंदर', 'लाचित
बरफुकन' तथा 'अमर
सिंह राठौर' जैसी कथाएँ मैंने 'धर्मयुग' में ही पढ़ीं ।
विभिन्न समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में ही मैंने अनेक
भारतीय पौराणिक कथाएँ तथा भारतीय महाकाव्य - रामायण एवं महाभारत भी धारावाहिक रूप
में पढ़े । 'नटखट नीटू', 'टिन्नी बिटिया' और 'चीनी' जैसे हँसाने वाले पात्रों को रचने वाले पी॰डी॰ चोपड़ा ने
सूर्यपुत्र कर्ण की सम्पूर्ण कथा को चित्रों के माध्यम से राजस्थान पत्रिका में
धारावाहिक रूप में प्रस्तुत किया था जिसका अंत उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से
लिखा था । 'धर्मयुग' ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नायकों - 'बाघा जतीन', 'सूर्य
सेन', 'चन्द्र
शेखर आज़ाद', 'रास
बिहारी बोस', 'लाल
बहादुर शास्त्री', 'भीमराव
अंबेडकर' आदि की जीवन-गाथाएँ भी चित्रकथा के रूप में
धारावाहिक रूप से छापीं । यहाँ तक कि 'लोकनायक
जयप्रकाश नारायण' की भी सम्पूर्ण जीवन-कथा
(श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार से उनके टकराव, देश
में आपातकाल की घोषणा और १९७७ के चुनाव में जनता पार्टी की विजय आदि को सम्मिलित
करते हुए) चित्रकथा के रूप में धर्मयुग में प्रस्तुत की गई ।
मुझे जासूसी कहानियों के सम्मोहन ने शुरू से ही जकड़ लिया था
। इसीलिए 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में
छपने वाले 'इंस्पेक्टर गरूड़' (पहले वे 'इंस्पेक्टर
ईगल' के नाम से आते थे) के
दिलचस्प जासूसी कारनामे मुझे आज तक याद हैं जिनमें उनका साथ बलबीर नाम का एक
कॉमेडियन जैसा सिपाही देता था और कहानी का स्तर बहुत उच्च होता था - शरलॉक होम्स
के कारनामों से तुलनीय । 'राजस्थान पत्रिका' में जगजीत उप्पल और प्रदीप साठे ने मिलकर बरसों तक 'गुप्तचर विक्रम' के
कारनामे धारावाहिक रूप से प्रस्तुत किए जिन्हें पढ़ने के लिए मैं 'राजस्थान पत्रिका' के
रविवारीय संस्करण की पूरे सप्ताह प्रतीक्षा करता था । 'राजस्थान
पत्रिका' में ही मैंने एक कारनामा 'इंस्पेक्टर विक्रम' का
भी पढ़ा और शायद दो कारनामे 'सीक्रेट एजेंट सूर्य किरण' के भी पढ़े जिनमें सूर्य नाम के पुरुष और किरण नाम की
स्त्री की जोड़ी देश के हित में जासूसी करती थी । दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका - 'बाल भास्कर' में 'गोपीचन्द जासूस' नाम
के पात्र के लघु जासूसी कारनामे भी बरसों आते रहे ।
मगर जो जासूस पात्र मेरे दिल में सदा के लिए जगह बना पाया
उसका नाम था 'बबलू' जिसके कारनामे 'मधु
मुस्कान' का नियमित आकर्षण थे । पहले वो एक छोटा बालक
था, इसलिए चित्रकथा का नाम 'नन्हा जासूस बबलू' हुआ
करता था । बाद में उसे कुछ बड़ा बताया गया तो 'नन्हा
जासूस' शब्दों को हटाकर चित्रकथा को केवल 'बबलू' के नाम से दिया जाने लगा । 'बबलू' के जन्मदाता थे एच॰आई॰
पाशा और इस चित्रकथा में भी लिए जाने वाले जासूसी कथानकों का स्तर बहुत अच्छा था ।
बहुत सी कॉमिक या कहिए कि चित्रकथाएँ पुस्तकाकार रूप में भी
उपलब्ध होती थीं और पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप से भी नज़र आती थीं । इसमें
सबसे पहला नाम है चलते-फिरते प्रेत के नाम से मशहूर 'फैन्टम' या 'वेताल' का । ली फ़ॉक द्वारा रचित इस अमर चरित्र की कभी न ख़त्म होने
वाली कथा – 'जंगल
शहर' के नाम से ‘दीवाना’ में बरसों-बरस छपती रही । 'फैन्टम' के साथ-साथ 'फ़्लैश गॉर्डन', ‘मैंड्रेक जादूगर’ (साथ में 'लोथार' होता था), ‘बज़
सायर’, ‘रिप किर्बी’ आदि भी सम्पूर्ण पुस्तक के
रूप में भी और पत्र-पत्रिकाओं में स्ट्रिप के रूप में भी नियमित आया करते थे ।
इन्हीं का समकालीन था भारतीय नायक - 'बहादुर' ।
भारतीय नायकों की परंपरा में एक नाम और आया - 'महाबली शेरा'
जिसके इसी नाम के पहले कारनामे का दूसरा भाग जब छपा तो उसमें एक नया पात्र भी आया
- 'काला प्रेत' और
दूसरे भाग का नाम था - 'महाबली शेरा और काला प्रेत' । बाद में 'काला
प्रेत' नाम के रहस्यमय पात्र की अपनी जीवन-गाथा को
अलग से तीन भागों में प्रस्तुत किया गया - १. काला प्रेत और देश के दुश्मन, २. देशभक्त काला प्रेत, ३.
काला प्रेत और ब्लैक क्रॉस । महाबली शेरा के भी कई कारनामे आए जिनमें से एक मुझे
भुलाए नहीं भूलता जिसके पहले भाग का नाम था - 'महाबली
शेरा और खूनी हीरों का हार' जबकि दूसरे भाग का नाम था -
'कंगालू देवता का खज़ाना' ।
इसी तरह काला प्रेत के भी कई और कारनामे स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत किए गए ।
ये विभिन्न पुस्तकें 'इंद्रजाल
कॉमिक्स' तथा 'अमर
चित्र कथा' नाम के प्रकाशनों से निकला करती थीं जबकि 'राज कॉमिक्स' से 'नागराज', 'शक्तिमान' तथा उसके जैसे अन्य
नायकों के एक्शन और तिलिस्म से भरपूर कारनामे निकल कर आया करते थे । इस संदर्भ में 'डायमंड
कॉमिक्स' ने भी अपना भरपूर योगदान देते हुए कई भारतीय
नायकों को चित्र-रूप में प्रस्तुत किया । 'लंबू-मोटू', 'राजन-इक़बाल', 'चाचा-भतीजा', 'मामा-भांजा', 'कैप्टन व्योम' और 'फौलादी
सिंह' जैसे नायकों के कारनामों ने अस्सी के दशक में
चित्रकथाओं के भारतीय बाज़ार को पाट दिया । सुपरमैन,
बैटमैन, स्पाइडरमैन आदि भी साथ लगे हुए थे ।
वो कॉमिक्स तथा पॉकेट बुक्स का स्वर्णकाल था जिसमें केवल
हिन्दी और अंग्रेज़ी ही नहीं, प्रांतीय भाषाओं में भी कॉमिक्स
खूब छपे और उन्होने बालकों के बचपन में अपनी जगह बनाई । जब तक मेरी पुत्री
पढ़ने-लिखने लगी, वह दौर चला गया था मगर
प्राण की मानस-पुत्री 'पिंकी' की पुस्तकाकार में उपलब्ध कथाओं ने उसका मन भी जीता जबकि 'चाचा चौधरी'
सहारा चैनल के धारावाहिक के माध्यम से रघुवीर यादव के रूप में नई पीढ़ी तक पहुँचे ।
आज केबल टीवी और इंटरनेट की दुनिया ने बाल-मन को स्क्रीन पर
चलती-फिरती तसवीरों की ओर भटका दिया है लेकिन पुरानी पीढ़ी के दिल से पूछिये तो
जानेंगे कि हाथ में पुस्तक या अख़बार लेकर चित्रकथा को पढ़ने और बताई जा रही घटनाओं
की स्वयं कल्पना करने में जो आनंद है, वह
स्क्रीन पर देखने में नहीं । ये वो चित्रकथाएँ थीं जिन्हें कई-कई बार पढ़ने के बाद
भी मन नहीं भरता था । ये लुभाती तो थी हीं पर इनमें से बहुत-सी (सारी तो नहीं)
ज्ञानवर्धन भी करती थीं । मुझ जैसे लोगों के बचपन के बेहतरीन साथियों में ये
पुस्तकें शुमार रही हैं । वो ज़माना तो गुज़र गया पर उसकी यादें आज भी अख़बारों और
पत्रिकाओं में निरंतर चलती रहने वाली चित्रकथाओं के माध्यम से ताज़ा हो जाती हैं ।
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बचपन की तो बात ही अलग है।
जवाब देंहटाएंसार्थक और रोचक।
हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी ।
हटाएंबहुत सुंदर और विस्तृत चर्चा कामिक्स पर जितेंद्र जी , नेट की दुनिया से दूर था बचपन तो पुस्तकें विभिन्न कामिक्स पत्र पत्रिकाएं बहुत रोचक ज्ञान वर्धन करती थी अब बदलाव आया देखा ज्यादा जा रहा , बीते लम्हे सुहाने यादगार अब भी, बहुत मेहनत भरा आप का काम , सब जीवंत हो उठा
जवाब देंहटाएंबिलकुल ठीक कहा सुरेन्द्र जी आपने। आगमन एवं टिप्पणी हेतु बहुत-बहुत आभार आपका।
हटाएंमैं तो आज भी गाहे बगाहे चित्रकथाएं पढ़ लेता हूँ। इस लेख ने काफी सारे ऐसे पात्रों से रूबरू कराया जिनसे पहले मैं वाकिफ नहीं था। आभार।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय विकास जी।
हटाएंजितेन्द्र जी , शायद हमारी वय के हरेक व्यक्ति , जो साहित्य प्रेमी था , ने इन इस दौर की इन सभी चीजों का खूब आनंद लिया होगा | मुझे लगता है जो मैं शायद ना लिख पाती आपने उन यादों के इंद्रधनुषी पलों को शब्दों में हूबहू जीवंत कर दिया | कितना अनोखा था वो समय -- स्कूल की किताबों में छुपाकर कॉमिक पत्रिकाएँ और कथा कहानियों की किताबें पढना | दोस्तों से क़िताबों का आदान प्रदान और राशन के लिफाफों तक को जिज्ञासा से तुरत फुरत पढने की ललक -- मानों सब दिन जाने कहाँ गुम हो गये और ये भी सच है कि वे भुलाये नहीं भूलते |आपने सराहना से परे लिखा है | यादों को समेटने की आपकी ये कोशिश बहुत ही शानदार है | शुभकामनाएं और बधाई इस भावों से भरे लेख के लिए |
जवाब देंहटाएंवो वक़्त मुझे भी इसी तरह याद है रेणु जी मानो कल की सी बात हो। आपकी विस्तृत भावाभिव्यक्ति के लिए हृदय से आभार आपका।
हटाएंआदरणीय माथुर जी,
जवाब देंहटाएंचंदामामा, पराग, नंदन, बालभारती, चंपक और इंद्रजाल कॉमिक्स ... यह सभी पत्रिकाएं प्रतिमाह, प्रतिपक्ष हमारे घर पर आती थीं। पाठ्यक्रम की पढ़ाई के अलावा इन पत्रिकाओं को हमने खूब पड़ा है । इंद्रजाल कॉमिक्स तो तब तक पढ़ी है, जब तक कि उसका प्रकाशन टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने बंद नहीं कर दिया।
जी हां, इंद्रजाल कॉमिक्स हमने अपने बचपन में बहुत पढ़ी हैं। मैं और मेरी अनुजा शरद का बचपन फैंटम, मैण्ड्रेक, फ्लैश गॉर्डन की अद्भुत कथाओं को पढ़ते हुए व्यतीत हुआ। जिन कॉमिक स्ट्रिप्स और बाल कथाओं, पत्रिकाओं का आपने जिक्र किया है लगभग वे सभी हमने भी पढ़ी हैं अपने बचपन में। आज आपने बचपन की यादों को ताज़ा कर दिया है। फैंटम को मृत्युंजय और वनभैरव के नाम से भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया था। याद आ रहे है फैंटम की मित्र डायना पॉमर, मैंड्रेक की मित्र नारडा फ्लैश गॉर्डन की मित्र डेल ऑर्डेन, इन सभी पात्रों से ऐसी इंटीमेसी लगती थी मानों वे सजीव हों। ये अद्भुत कहानियां, अद्भुत पृष्ठभूमि की भिन्न कथाएं।अफ्रीका के जंगलों में रहता था फैंटम जबकि जनाडू मैण्ड्रेक का निवास था, एशिया की किसी स्थान में उसने जादू की पढ़ाई की थी और मैण्ड्रेक तथा डेरेक दोनों भाई वहां पढ़ कर आए थे। कर्मा और लोथार उनके मित्र थे। इसी प्रकार फ्लैश गॉर्डन और डेल ऑर्डेन के मित्र जार्कोव सोवियत संघ के थे। वे दुष्ट मिंग की दुनिया को नष्ट करने के लिए अंतरिक्ष यात्रा करते थे। जहां राजकुमार बैरन से उनकी मुलाकात हुई थी । यह सारी कथाएं ऐसी लगती थीं, सारे पात्र ऐसे लगते थे जैसे सजीव हों और हमारे अपने सखा हों । आज आपने इन सारी यादों को एकदम ताज़ा कर दिया ।
यहां मेरी माता जी आईसीयू में एडमिट हैं, वजह हार्ट प्रॉब्लम ... मैं उनके साथ अटेंडेंट के रूप में अस्पताल में ही बैठी हूं । ऐसे समय में आपके इस लेख ने कुछ समय के लिए मुझे मेरे बचपन की पुरानी दुनिया में मुझे लौटा दिया है, जिससे मेरे मन का अवसाद कुछ कम हो गया है। बहुत धन्यवाद, बहुत शुक्रिया 🙏
आपके लेख जीवनदायी होते हैं। जीवंतता, रोचकता और दिलचस्पी से भरपूर....
आप हमेशा ऐसे ही लेख लिखें और आपके लेख कठिन समय में साथी बनकर प्रस्तुत हों। यही ईश्वर से कामना है।
पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद , इस बेहतरीन लेख को साझा करने के लिए।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
मैं आपकी माता जी के शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना करता हूँ आदरणीया वर्षा जी। आपने अपनी विस्तृत टिप्पणी के द्वारा मेरा बहुत ज्ञानवर्धन किया। आपके द्वारा बताई गई बहुत-सी बातें तो आज मुझे ही याद नहीं। धन्यवाद देने का दायित्व तो वस्तुतः मेरा है।
हटाएंबचपन की यादें ताजा कर दी आपके इस लेख ने । ये सब कॉमिक्स कब हाथों से छूटी याद ही नहीं आता बस..भाग-दौड़ और आपाधापी वाली व्यस्त दिनचर्या मे हाथों से निकलती चली गई ं। आभार इस संग्रहणीय लेख के लिए ।
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आपका कृतज्ञता-ज्ञापन करता हूँ माननीया मीना जी ।
हटाएंWONDERFUL THROWBACK SIR CHACHA JI PINKI IN SAB KI COMICS TO AJ KAL KE LOG BHUL HI GAYE HAI AGAR AJ KI GENRATION BHI IN SAB KO PADHE TO UNME B MASUMIYAT BARKAR RAHE PAR AJ KAL KI GENERATION TO SOCIAL MEDIA K DEKHAVE ME HI KHOYI HAI SCHOOL HO YA PARENTS AGAR BACHO KO IN SB KI OR PRARIT KIA JAYE TO AJ K BACHE MASOOM LAGE NA KI KOI CELEBRITY CONTEST ME GHUMNE VALE ADULT
जवाब देंहटाएंYou're absolutely correct Shruti Ji.
हटाएंLoss of innocence of the little ones is the biggest loss suffered not only by them but also the society at large. And it's really a pity that this appears to be nobody's botheration.
पुनर्प्राप्त अनमोल रतन सदृश । अति मनभावन ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार माननीया अमृता जी ।
हटाएंजितेन्द्र जी आपके इस लेख को जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है,बिलकुल बचपन के हिंडोले में झुला कर इतनी सुंदर रंग भरी कहानियों में पहुंचा दिया आपने कि इन सुंदर कहानियों से निकलने का मन नहीं,आज का यथार्थ देख वो सारी बाते सपने जैसी लगती है, जितेन्द्र जी मेरे एक चचेरे भाई थे जो कॉमिक्स और कहानियों की किताबें हमें 25 पैसे में 24 घंटे के लिए देते थे वो सारी बातें याद दिलाने के लिए आपका शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंहां जिज्ञासा जी । आज तो यह सब किसी स्वप्न जैसा ही लगता है । वो ज़माना ही और था । ऐसी भावपूर्ण विस्तृत टिप्पणी के लिए आपका आभारी तो मैं हूं ।
हटाएंबचपन में लौटा ले गए सर आप तो😊
जवाब देंहटाएंमधुमुस्कान, चंपक और चाचा चौधरी तो हमने पढ़ी ही हैं मगर सबसे रोचक नंदन के तेनाली राम और नन्हे सम्राट में छपने वाले मूर्खिस्तान ही लगते थे।
अच्छी बात यह है कि सुखवंत कलसी साहब ने मूर्खिस्तान को फेसबुक पर अब तक जारी रखा है।
हृदय के तल से आभार आपका आदरणीय यशवंत जी। आपने जो जानकारी दी है, वह उत्साहित करने वाली है।
हटाएंवो समय भी कितना हमारा था रंगीन कल्पनाओं का।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पोस्ट पुरानी मोहक यादें ताजा करती पोस्ट।
बिलकुल ठीक कहा कुसुम जी आपने। हार्दिक आभार आपका।
हटाएं