(यह आलेख चार वर्ष पूर्व २७ अप्रैल, २०१७ को विनोद खन्ना के देहावसान के उपरांत लिखा गया था एवं मूल रूप से ३० अप्रैल, २०१७ को प्रकाशित हुआ था)
हिन्दी फ़िल्मों के अत्यंत लोकप्रिय नायक तथा सांसद विनोद खन्ना के अस्वस्थ होने की बात विगत लंबे समय से सुनी जा रही थी । तथापि उनके देहावसान के समाचार ने मुझे स्तब्ध कर दिया । जैसा कि स्वाभाविक ही है, उनके ऊपर कई श्रद्धांजलियाँ लिखी जा चुकी हैं जो प्रकाशित तथा आभासी दोनों ही संसारों में स्थान-स्थान पर बिखरी पड़ी हैं । लेकिन उनके जीवन और व्यक्तित्व पर सर्वाधिक उपयुक्त टिप्पणी मुझे माधुरी नामक लेखिका के इंटरनेट पर डाले गए आलेख के शीर्षक में मिली जो वस्तुतः प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल के एक शेर से लिया गया है – ‘मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी; किराये के घर थे, बदलते रहे’ । विनोद खन्ना का जीवन सचमुच ऐसा ही गुज़रा । लेकिन उन्होंने ज़िंदगी से कभी कोई शिकवा नहीं किया । वह जैसी उन्हें मिली, उन्होंने उसे वैसे ही जिया और भरपूर जिया । उनकी ज़िन्दगी की तहें जैसे-जैसे उनके सामने खुलती गईं, वे उन्हें वैसे-वैसे ही अपनाते गए बिना किसी अंतर्बाधा के, बिना किसी अपराध-बोध के; सदा अपने कर्तव्य का निर्धारण अपने विवेक-बल से करते हुए ।
नायक के रूप में विनोद खन्ना की प्रथम फ़िल्म थी ‘हम तुम और वो’ (१९७१) जिसके शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में रचित प्रेम गीत – ‘प्रिय प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी’ के शब्द तथा उन पर विनोद खन्ना का अभिनय दोनों ही आज भी देखने वालों के हृदय को गुदगुदा देते हैं । पुरुषोचित सौन्दर्य से युक्त अपने अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व तथा अभिनय-प्रतिभा के कारण विनोद खन्ना नायक के रूप में अपने खलनायक रूप से कई गुना अधिक सफल रहे । उन दिनों दस्युओं की कथाओं पर बहुत फ़िल्में बनती थीं और उस दौर में दस्यु की भूमिका में विनोद खन्ना से अधिक प्रभावशाली और कोई नहीं लगता था । ‘मेरा गाँव मेरा देश’ (१९७१), ‘कच्चे धागे’ (१९७३), ‘शंकर शंभू’ (१९७६), ‘हत्यारा’ (१९७७) और ‘राजपूत’ (१९८२) जैसी फ़िल्में इस बात का प्रमाण हैं ।
अधिकांशतः मुख्यधारा की फ़िल्में करने के बावजूद विनोद खन्ना ने कई परिपाटी से हटकर बनाई गई सार्थक फ़िल्में भी कीं । असाधारण साहित्यकार और कवि गुलज़ार ने जब फ़िल्म बनाने का निश्चय किया तो बेरोज़गार युवाओं की भटकन के विषय पर आधारित अपनी फ़िल्म ‘मेरे अपने’ (१९७१) में विनोद खन्ना को एक प्रमुख भूमिका में लिया । और पच्चीस वर्षीय विनोद खन्ना ने इस उत्कृष्ट फ़िल्म में अपने यादगार अभिनय से सिद्ध कर दिया कि न तो उनमें प्रतिभा का अभाव था और न ही कार्य एवं कला के प्रति समर्पण-भाव का । जिन लोगों ने इस फ़िल्म में विनोद खन्ना को ‘कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों’ गाते हुए देखा है, वे इस तथ्य के साक्षी हैं कि इस अमर गीत को गा रहे स्वर्गीय किशोर कुमार के स्वर में अंतर्निहित खंडित मन और एकाकीपन की पीड़ा को विनोद खन्ना ने चित्रपट पर साकार कर दिया है । उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो वे उस निभाए जा रहे चरित्र में उतरकर उसकी पीड़ा को स्वयं अनुभव कर रहे हों । लगभग यही स्थिति वर्षों बाद ऋषि कपूर और श्रीदेवी अभिनीत यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘चाँदनी’ (१९८९) के गीत ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है’ में भी मिलती है जिसे गाया तो सुरेश वाडकर ने लेकिन शब्दों और सुरों से प्रतिध्वनित होती पीड़ा को अपने हाव-भावों में प्रतिबिम्बित किया विनोद खन्ना ने ।
एक बार गुलज़ार साहब के साथ काम कर लेने के उपरांत विनोद खन्ना उनके प्रिय अभिनेता बन गए और गुलज़ार साहब ने अपनी अनेक फ़िल्मों में उन्हें लिया । ऐसी सभी फ़िल्मों में जो कि फ़ॉर्मूलाबद्ध न होकर कुछ भिन्न रंग लिए हुए थीं, विनोद खन्ना ने अपनी अमिट छाप छोड़ी । मुख्यधारा की प्रेम एवं अपराध आधारित फ़िल्मों में भी उन्होंने लीक से हटकर भूमिकाएँ कीं यथा ‘इनकार’ (१९७७) एवं ‘लहू के दो रंग’ (१९७९) । इस संदर्भ में ‘इम्तिहान’ (१९७४) का नाम उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने एक आदर्शवादी प्राध्यापक की भूमिका निभाई है । हिन्दी सिनेमा में सत्तर का दशक केवल तथाकथित सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का ही नहीं, विनोद खन्ना का भी था । उस युग में अमिताभ बच्चन की अनेक फ़िल्मों की सफलता में विनोद खन्ना का भी बराबर का योगदान था और अमिताभ बच्चन की शिखर स्थिति को चुनौती देने वाला उन्हीं को माना जाता था । विनोद खन्ना ने अनेक बहुसितारा फ़िल्मों में भी काम किया लेकिन कई नायकों के मध्य रहकर भी उन्होंने किसी भी फ़िल्म में अपनी पहचान को खोने नहीं दिया । साहसी महिला फ़िल्मकार अरुणा राजे ने जब अपने पति विकास के साथ मिलकर (अरुणा-विकास के संयुक्त नाम से) पत्नी की स्वतंत्र सोच को दर्शाने वाली फ़िल्म ‘शक़’ (१९७६) बनाई तो उसमें उन्होंने शबाना आज़मी के साथ विनोद खन्ना को लिया और एक दशक से अधिक अवधि के उपरांत जब अकेले ही अत्यंत दुस्साहसी फ़िल्म ‘रिहाई’ (१९८८) बनाई तो उसमें भी हेमा मालिनी के साथ विनोद खन्ना को ही लिया । इन नायिका प्रधान फ़िल्मों में भी विनोद खन्ना ने निस्संकोच काम किया और स्वयं को दिए गए चरित्रों के साथ पूरा न्याय किया ।
फ़िरोज़ ख़ान निर्मित ‘क़ुरबानी’ (१९८०) की देशव्यापी सफलता ने विनोद खन्ना को सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया । लेकिन तब उन्होंने वह कार्य किया जिसे करने की बात सोचना तक किसी भी सफल व्यक्ति के लिए कठिन है । मैंने अपने लेख ‘सफलता बनाम गुण’ में लिखा है कि सफल व्यक्तियों की सोच प्रायः यह होती है कि सफलता के लिए कुछ भी त्यागा जा सकता है लेकिन किसी भी बात के लिए सफलता को दांव पर नहीं लगाया जा सकता । विनोद खन्ना ने स्वयं को अपवाद सिद्ध करते हुए १९८२ में फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध और उससे जुड़ी भौतिक सफलता एवं लोकप्रियता से किनारा कर लिया तथा आचार्य रजनीश (ओशो) के आश्रम में चले गए जो कि रजनीशपुरम (अमरीका) में था । मात्र ३६ वर्ष की आयु में भरपूर यौवन, धन-सम्पदा, सफलता, लोकप्रियता तथा परिवार के होते हुए भी सभी सुखों से पीठ फेरकर अध्यात्म की ओर उन्मुख हो जाने का असाधारण निर्णय एक असाधारण व्यक्ति ही ले सकता है । विनोद खन्ना सचमुच असाधारण ही थे जो सफलता का मोह छोड़ सके, उसके नशे से बाहर आ सके । उन्होंने अपने हृदय की पुकार सुनी और उसी के आधार पर निर्णय लेकर अपनी जीवन-यात्रा को एक नया मोड़ दे दिया । उन्होंने अपने इस निर्णय का बहुत बड़ा मूल्य अपनी पत्नी और अपने दो पुत्रों की माता गीतांजलि के साथ विवाह-विच्छेद के रूप में चुकाया । लेकिन संभवतः उन्होंने इन पंक्तियों को अपने व्यक्तित्व में आत्मसात् कर लिया था – ‘हार में या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं; संघर्ष-पथ पर जो मिले, ये भी सही, वो भी सही’ । आश्रम में रहते हुए उन्होंने बरतन तक माँजे । लेकिन इस सरल-चित्त तथा अहंकार से मुक्त असाधारण पुरुष के लिए यह भी एक सामान्य बात ही थी ।
पाँच वर्ष तक स्वामी विनोद भारती के नाम से आचार्य रजनीश के सान्निध्य में रहने के उपरांत उनका मन पुनः सांसारिक कर्तव्य-पथ की ओर मुड़ा । वे रजनीश के प्रिय शिष्य थे, अतः स्वाभाविक रूप से रजनीश ने उनसे उनके साथ ही रहने तथा उनके कार्यकलापों में हाथ बंटाने के लिए कहा लेकिन विनोद ने उन्हें अत्यंत स्वाभाविक और सच्चा उत्तर दिया – ‘अपने गुरु के साथ मेरी यात्रा यहीं तक थी’ । जीवन को सदा बहती धारा के रूप में देखने वाले विनोद जैसे पहले बंबई के फ़िल्म संसार में नहीं रुके थे, वैसे ही अब आश्रम के आध्यात्मिक संसार में भी नहीं रुके और अपने पुराने कर्मपथ पर लौट आए । लेकिन पाँच वर्ष के अंतराल के पश्चात् लौटने पर उनके पास अब न पूर्व में अर्जित सफलता थी, न संसाधन, न अर्द्धांगिनी । लेकिन कभी मन न हारने वाले विनोद खन्ना ने सम्पूर्ण साहस और आत्मविश्वास के साथ अपने भाग्य से पंजा लड़ाया और स्वयं को पुनः एक सफल नायक के रूप में स्थापित कर दिखाया । लौटते ही उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ (१९८७) जैसी सार्थक फ़िल्म की जो कि न केवल व्यावसायिक रूप से सफल रही वरन उसकी चहुँओर प्रशंसा भी हुई । कुछ ही समय के उपरांत लोग उनके लिए कहने लगे कि जब वे गए थे, तब भी नंबर दो पर थे और जब लौटे भी तो सीधे नंबर दो पर ही लौटे । वापसी के उपरांत उन्होंने गुलज़ार साहब की मर्मस्पर्शी फ़िल्म ‘लेकिन’ (१९९१) में भी प्रभावशाली भूमिका की । इस फ़िल्म में उन पर फ़िल्माए गए सुमधुर गीत ‘सुरमई शाम इस तरह आए’ (जिसे सुरेश वाडकर ने गाया और हृदयनाथ मंगेशकर ने संगीतबद्ध किया है) को देखना एक अवर्णनीय अनुभव है ।
विनोद खन्ना ने अपने जीवन को सदा अपनी शर्तों पर जिया लेकिन अपने कर्तव्यों से कभी मुँह नहीं मोड़ा । इस तथ्य को उनकी प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्र भी स्वीकार करते हैं । द्वितीय विवाह कर लेने के उपरांत भी उन्हें अपने प्रथम विवाह की संतानों के प्रति अपने कर्तव्य का सदा स्मरण रहा । उनके ज्येष्ठ पुत्र राहुल ने मुख्यधारा से पृथक् रहकर बनाई गई फ़िल्मों में प्रवेश किया जबकि कनिष्ठ पुत्र अक्षय के लिए उन्होंने स्वयं ‘हिमालय पुत्र’ (१९९७) नामक फ़िल्म का निर्माण किया जिसमें उन्होंने अक्षय के पिता की भूमिका स्वयं ही निभाई । फ़िल्म व्यावसायिक रूप से असफल रही किन्तु अक्षय नायक के रूप में फ़िल्मों में स्थापित हो गए । वार्धक्य के साथ विनोद खन्ना अपनी आयु से सामंजस्य रखती भूमिकाओं की ओर मुड़े लेकिन तभी नियति ने उनके लिए एक और मार्ग प्रस्तुत किया । उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया तथा गुरदासपुर लोक सभा क्षेत्र से चार बार निर्वाचित हुए । वे केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री भी बने । जब एक बार उन्होंने चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ‘सानू गुरदासपुर नूं पेरिस बना दवांगा’ (मैं गुरदासपुर को पेरिस बना दूंगा) तो मैंने उनका उपहास किया था लेकिन आज मुझे लगता है कि वे किसी आदी झूठे भारतीय राजनेता की तरह नहीं बोल रहे थे बल्कि वही कह रहे थे जो वे करना चाहते थे और समझते थे कि कर सकते थे । इसका कारण यह है कि वे अपने जीवन में झूठ और पाखंड से सदा दूर रहे । २००४ में केंद्र में सत्ता-परिवर्तन हो जाने के कारण वे मंत्री नहीं रहे और बाद के वर्षों में उनका स्वास्थ्य गिरने लगा । संभवतः इसीलिए वे जनाकांक्षाओं और उनसे जुड़ी अपने मंशाओं पर भलीभाँति अमल नहीं कर सके । इसके अतिरिक्त सांसद और मंत्री बनने के उपरांत भी उन्होंने फ़िल्मों में काम करना नहीं छोड़ा जिसका कारण उन्होंने सार्वजनिक रूप से बिना किसी लागलपेट के सम्पूर्ण ईमानदारी के साथ यह बताया था, ‘मेरी शानोशौकत की ज़िन्दगी है जिसके लिए पैसा चाहिए और पैसा केवल फ़िल्मों से मिल सकता है । सांसद और मंत्री के रूप में तो जो पैसा मुझे मिलता है, उससे गाड़ियों के पेट्रोल तक का खर्च चलना मुहाल है’ । यह उनके अपने प्रति ईमानदार होने का सबसे बड़ा प्रमाण था । न तो वे लोकदिखावे के लिए तथाकथित सादगी को ओढ़ना चाहते थे और न ही भ्रष्ट साधनों से कमाना चाहते थे । इसीलिए जब तक संभव हुआ, वे फ़िल्मों में काम करते रहे ।
पत्नी गीतांजलि से संबंध-विच्छेद के उपरांत विनोद खन्ना के एकाकी जीवन में उनके प्रारब्ध ने तब पुनः हस्तक्षेप किया जब उनकी भेंट कविता नामक युवती से हुई । आयु में बहुत अंतर होने के उपरांत भी और बॉलीवुड फ़िल्मों में विशेष रुचि न होने पर भी कविता ने उनके विवाह-प्रस्ताव को स्वीकार किया और विवाह के उपरांत न केवल उनके अकेलेपन को बाँटा वरन उनके प्रत्येक कार्य में उनकी सहयोगिनी और वास्तविक अर्थों में उनकी अर्द्धांगिनी बनकर दिखाया । संभवतः यही प्रारब्ध है जिसने दोनों का मिलना और जीवन साथी बनना पहले ही निर्धारित कर दिया था । कविता ने विनोद खन्ना को उनके जीवन के कठिन दौर में भावनात्मक संबल दिया और उनकी पत्नी के रूप में साक्षी नामक पुत्र तथा श्रद्धा नामक पुत्री को जन्म दिया । विनोद खन्ना ने अपने दोनों विवाहों से विकसित परिवार को किस तरह एकजुट रखा, यह इसी से सिद्ध होता है कि दो बड़े पुत्रों के उपस्थित होते हुए भी उनकी अंतिम क्रिया उनके दूसरे विवाह से उत्पन्न पुत्र साक्षी ने की ।
कविता को विनोद से एकमात्र शिकायत सदा यह रही कि वे अपना अधिक समय ध्यान (मेडिटेशन) को दिया करते थे, उन्हें नहीं । लेकिन वर्षों तक अध्यात्म से जुड़े रहे विनोद ध्यान को आत्मिक शांति के लिए अत्यावश्यक मानते थे । इसी से उन्हें सदा आंतरिक शक्ति प्राप्त होती थी जो उन्हें परिस्थितियों से जूझने का हौसला देती थी । वस्तुतः यही वह आत्मबल था जिसने पहले उन्हें शोबिज़ की चमकीली दुनिया और उसमें मिली कामयाबी की चकाचौंध को छोड़ जाने का हौसला दिया और कुछ अरसे बाद फिर से वहीं लौटकर एक नई शुरूआत करने की भी हिम्मत और ताक़त दी । भौतिक सफलता, लोकप्रियता और सुख-सुविधाओं का आनंद उठा रहे कितने लोग ऐसा साहस कर सकते हैं और अपने आपको चुनौती दे सकते हैं ?
उनके पुत्र अक्षय ने एक बार अपने पिता के संन्यासी होकर रजनीश के आश्रम में चले जाने के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा था कि उन्होंने अपनी ख़ुशी को चुना और अगर आप ख़ुद ख़ुश नहीं हैं तो दूसरों को भी ख़ुश नहीं रख सकते । इस कथन ने मुझे स्वर्गीय वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास ‘शिखंडी’ के एक संवाद का स्मरण करवा दिया – ‘स्वयं को पीछे रखकर किसी और के विषय में सोचना मृगतृष्णा होती है’ । पूर्णतः उचित बात कही है शर्मा जी ने क्योंकि आत्म-विकास करके ही मनुष्य स्वयं को परहित के निमित्त सक्षम बना सकता है, स्वयं की उपेक्षा करके कदापि नहीं । विनोद खन्ना ने इस सत्य को समझा एवं आत्मसात् किया । उन्हें आजीवन किसी का भय नहीं रहा क्योंकि वे सदा अपने प्रति ईमानदार रहे । अपने साथी कलाकारों द्वारा सदा एक भद्रपुरुष (जेंटलमैन) के रूप में देखे गए विनोद खन्ना अपने जीवन को अपनी शर्तों पर अपने ढंग से पूर्ण संतोष के साथ इसीलिए व्यतीत कर पाए क्योंकि वे उसका मूल्य चुकाने से कभी नहीं कतराए ।
विनोद खन्ना के जीवन-दर्शन को उनकी फ़िल्म ‘कुदरत’ (१९८१) में उन्हीं पर फ़िल्माए गए इस गीत के बोलों से समझा जा सकता है – ‘छोड़ो सनम, काहे का ग़म, हँसते रहो, खिलते रहो’ । अपने जीवन के उच्चावचनों से गुज़रते हुए संभवतः वे ‘इम्तिहान’ (१९७४) में स्वयं पर ही फ़िल्माए गए इस गीत के बोलों से प्रेरणा और ऊर्जा प्राप्त करते रहे - ‘रुक जाना नहीं तू कहीं हार के, काँटों पर चल के मिलेंगे साये बहार के, ओ राही ओ राही’ ।
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मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :
जवाब देंहटाएंIndraniApril 30, 2017 at 8:41 PM
I watched several of his movies. Great actor!
May he rest in peace!
Reply
जितेन्द्र माथुरApril 30, 2017 at 8:52 PM
Hearty thanks Indrani Ji. Indeed he was a great actor. And an extra-ordinary human-being as well.
Yogi SaraswatMay 1, 2017 at 4:15 AM
बढ़िया जानकारी ! हार्दिक श्रद्धांजलि ! विनोद खन्ना सच में अपने मन के हीरो रहे
Reply
जितेन्द्र माथुरMay 1, 2017 at 8:53 AM
हार्दिक आभार आदरणीय योगी जी ।
Ramakant MishraMay 1, 2017 at 4:58 AM
एक शानदार कलाकार का उतना ही शानदार स्मरण।
Reply
जितेन्द्र माथुरMay 1, 2017 at 8:52 AM
हार्दिक आभार आदरणीय रमाकांत जी ।
Beena PandeyMay 10, 2017 at 10:38 PM
बहुत बढ़िया माथुर जी ! यही वजह है कि खन्ना जी पर कई सारे आलेख मैंने पढ़े फिर भी आपके आलेख का इंतज़ार मुझे था. यह आलेख पढ़ने के बाद वाकई मजा तो आया लेकिन शायद फिर भी कहीं कुछ छूटा सा नज़र आया. फिर भी आपके लेखन को ढेर सारा साधुवाद .....
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जितेन्द्र माथुरMay 11, 2017 at 8:48 PM
हार्दिक आभार बीना जी । मुझे जो-जो सूझा, जो-जो मेरे मन में उमड़ा, मैंने लिख डाला । फिर भी अधूरापन रह ही गया । एक असाधारण व्यक्तित्व के साथ न्याय करना किसी साधारण लेखनी के लिए सहज होता भी नहीं है ।
बहुत ही विस्तार में आपने उस अभिनेता के जीवन के सभी आयामों का सजीव चित्रण किया जिसकी फिल्में देखते हुए हम किशोरावस्था की रंगीन दहलीज़ को पार किया।
जवाब देंहटाएंहृदय की गहनता से आपका आभार आदरणीय विश्वमोहन जी।
हटाएंसंभवतः यही प्रारब्ध है जिसने दोनों का मिलना और जीवन साथी बनना पहले ही निर्धारित कर दिया था । कविता ने विनोद खन्ना को उनके जीवन के कठिन दौर में भावनात्मक संबल दिया और उनकी पत्नी के रूप में साक्षी नामक पुत्र तथा श्रद्धा नामक पुत्री को जन्म दिया । विनोद खन्ना ने अपने दोनों विवाहों से विकसित परिवार को किस तरह एकजुट रखा, यह इसी से सिद्ध होता है कि दो बड़े पुत्रों के उपस्थित होते हुए भी उनकी अंतिम क्रिया उनके दूसरे विवाह से उत्पन्न पुत्र साक्षी ने की । ----बहुत सारी जानकारियां मिली हैं इस आलेख से...पसंदीदा कलाकार रहे हैं विनोद खन्ना। खूब अच्छा आलेख है बधाई आपको।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय संदीप जी।
हटाएंबहुत बढ़िया लेख।🌻
जवाब देंहटाएंइनकी बहुत सी फिल्मे मैने देखी है जिनका अपने लेख जिक्र किया है। विनोद खन्ना एक बेहतरीन अभिनेता थे।
हार्दिक आभार आदरणीय पांडेय जी।
हटाएंविनोद खन्ना के जीवन और उनके जीवन दर्शन को दर्शाता बेहतरीन आलेख।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार विकास जी।
हटाएंऐसे महान व्यक्तित्व आज भी सबों को मोह ही नहीं लेते बल्कि स्तब्ध भी करते रहते हैं ।
जवाब देंहटाएंआपने ठीक कहा अमृता जी। हार्दिक आभार आपका।
हटाएंमाथुर साहब ने अपने शब्दों की कला से जिस बाखूबी से विनोद खन्ना के जीवन काल और उनके व्यक्तित्व को उजागर किया है वो वाकई बहुत उम्दा है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेख।
बहुत-बहुत शुक्रिया सुजाता जी।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२७-०४-२०२१) को 'चुप्पियां दरवाजा बंद कर रहीं '(चर्चा अंक-४०५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीया अनीता जी।
हटाएंविनोद खन्ना जी की मैंने बहुत सी फिल्में देखी। कितना बड़ा स्टार साथ में हो पर वो दर्शकों के मन में अपनी खास जगह बना ही लेते थे। विनोद खन्ना जी एक बेहतरीन अभिनेता थे।
जवाब देंहटाएंआगमन हेतु हार्दिक आभार माननीया अनुराधा जी। मैं आपसे सहमत हूँ।
हटाएंबहुत बढ़िया जानकारी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंबढ़िया जानकारी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंविनोद खन्ना के बारे में लगभग सभी लोग परिचित हैं,परंतु इतनी सटीक और विस्तृत जानकारी और कही मिलना नामुमकिन है,आपने उनकी फिल्मों को देखने के लिए सभी के अंदर लालसा पैदा कर दी,सुंदर और सार्थक लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार आदरणीया जिज्ञासा जी।
हटाएंविनोद खन्ना के जीवन को दर्शाता बहुत ही सुंदर लेख।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी।
हटाएंपसंदीदा कलाकार पर विस्तृत जानकारी पढ़ कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंउनके जीवन के हर पहलू पर प्रकाश डालता सुंदर लेख।
आपकी लेखनशैली मोहक है शुरू से अंत तक पाठक को बांधने में समर्थ।
साधुवाद।
हृदयतल से आपका आभार आदरणीया कुसुम जी।
हटाएंमुझे भी विनोद खन्ना काफी अच्छा लगता था। वे दूसरे अभिनेताओं से काफी अलग थे। आपने ये पोस्ट द्वारा काफी अच्छी श्रृद्धांजलि दी उन्हें।
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा वर्तिका जी कि विनोद खन्ना दूसरे अभिनेताओं से काफ़ी अलग थे। बहुत-बहुत आभार आपका।
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