शनिवार, 9 जनवरी 2021

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

अपने अमर महाकाव्य 'कुरुक्षेत्र' के सप्तम सर्ग में कविवर रामधारी सिंह दिनकर शरशय्या पर अपनी निर्वाण-वेला की प्रतीक्षा में लेटे पितामह भीष्म से युधिष्ठिर को कहलवाते हैं - 

यह अरण्य झुरमुट जो काटे, अपनी राह बना ले
क्रीतदास यह नहीं किसी का, जो चाहे अपना ले 
जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर, जो उससे डरते हैं 
वह उनका जो चरण रोप, निर्भय होकर लड़ते हैं 

आज भारत में साधनहीन तथा निस्सहाय लोगों के लिए जो चीज़ें दुर्लभ हो गई हैं उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है पीड़ित होने पर न्याय का मिलना । जिसके पास साधन न हों, समर्थन न हो, जो अपने लिए न्याय ख़रीद न सके (क्योंकि दुर्भाग्यवश हमारे देश में न्याय बिकाऊ ही है); वह यदि न्याय को छीनकर पाने में भी सक्षम न हो तो उसके लिए अपने पीड़ित होने के यथार्थ को सदा के लिए भूल जाने तथा न्याय की आकांक्षा को अपने भीतर से सदा के लिए निकाल देने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं रहता है । 

परन्तु इस स्थिति में दिनकर जी की ऊपर उद्धृत पंक्तियां ऐसे उत्पीड़ित एवं दबे-कुचले व्यक्तियों को न्याय के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं, उसके लिए लड़ने की ऊर्जा तथा साहस देती हैं । फ़िल्मकार महेश भट्ट की तनूजा चंद्रा द्वारा निर्देशित अक्षय कुमार, प्रीति ज़िंटा एवं आशुतोष राणा की प्रमुख भूमिकाओं वाली फ़िल्म 'संघर्ष' (१९९९) का एक कालजयी संवाद है - 'जो अंधेरे का अंजाम जानते हैं, वे रोशनी ढूंढ ही लेते हैं चाहे उन्हें इसके लिए कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े' । तो जब पीड़ित का साथ समाज न दे, व्यवस्था न दे तो अपने चारों ओर फैले अंधेरे में रोशनी पाने के लिए उसे स्वयं ही संघर्ष करना होगा क्योंकि अंधेरे का अंजाम उसी को मालूम है । जिस पर बीतेगी, वही तो जानेगा ।

और पक्षपाती मानसिकता की बेड़ियों में जकड़े भारतीय समाज में बीतती तो रहती ही है उन पर जो दुर्बल हैं, विवश हैं, आसान शिकार (soft target) हैं । व्यवस्था प्रायः झूठों और आततायियों की ओर रहती है, अतः सत्य एवं न्याय के हिस्से पराजय ही आती है । अन्यायी के लिए अन्याय करना इसीलिए सरल होता है क्योंकि साधनहीन तथा एकाकी उत्पीड़ित के लिए न्याय पाना अत्यधिक कठिन होता है । अन्यायी इसी विश्वास के साथ अन्याय करता है कि जो अन्याय उसने चुटकियों में कर दिया है, उसके निराकरण तथा न्याय की प्राप्ति में उत्पीड़ित का संपूर्ण जीवन व्यतीत हो जाएगा (और तब भी उसे न्याय मिल ही जाए, यह आवश्यक नहीं) । इसीलिए भारत में अन्याय एवं अत्याचार होते ही रहते हैं, उनका सिलसिला थमता ही नहीं । एक हादसे की डरा देने वाली याद धुंधली भी नहीं पड़ी होती कि दूसरा, वैसा ही दहला देने वाला हादसा हो जाता है । घटनाएं वही रहती हैं, बस किरदार बदल जाते हैं ।

निर्भया मामले को अपने वैधानिक समापन तक पहुँचने में सात साल से अधिक लगे । इस बीच न जाने कितनी ही और निर्भयाएं जघन्य अत्याचार का शिकार बन गईं । बदायूँ कांड की पीड़ित दलित बच्चियों को न्याय केवल 'आर्टिकल पंद्रह' नामक फ़िल्म में ही मिला, वास्तविकता में कभी नहीं मिला । अब हाथरस की पीड़िता के मामले में तो व्यवस्था के ठेकेदारों ने अत्याचार की ही नहीं, असामाजिकता एवं संवेदनहीनता की भी सभी सीमाएं पार कर दी हैं लेकिन ... । लेकिन उस मार डाली गई युवती को अथवा उसके परिजनों को कभी न्याय मिल पाएगा, कहना कठिन ही है । मैंने अपने लेख 'दर्द सबका एक-सा' में लिखा है कि सहानुभूति जताने और न्याय की माँग करने के लिए भी हमारा दृष्टिकोण 'मुँह देखकर तिलक करने' वाला बन गया है । वस्तुतः संसार का सबसे बड़ा और सबसे पुराना पीड़ित वर्ग हैं महिलाएं जिन पर बिना किसी जाति, धर्म व स्थान के अंतर के चिरकाल से अत्याचार एवं अन्याय होते आ रहे हैं । लेकिन आज के भारत की तुच्छ राजनीति में डूबी मानसिकता ने इन पीड़िताओं को भी  अनेक (उप)वर्गों में विभक्त कर दिया है । किसी वर्ग की उत्पीड़ित स्त्री के लिए किसी का मन पसीजता है तो किसी दूसरे वर्ग की उत्पीड़ित स्त्री के लिए किसी दूसरे का । हमारी संवेदनशीलता (यदि विद्यमान है तो) शुद्ध नहीं रही है, पक्षपाती हो गई है । हम दर्दमंदों के दर्द का सही मायनों में अहसास तभी कर पाते हैं जब वैसे ही दर्द से हमें भी गुज़रना पड़े । वरना ऐसे दिल हिला देने वाले मामलों में भी हमारी बातें हिंदुस्तानी राजनीतिबाज़ों की तरह दिखावटी और फ़रमायशी ही होती हैं । विगत एक दशक से तो ऐसा आभास हो रहा है मानो हम वास्तविक जीवन से दूर होकर केवल ट्विटर वाले बन गए हैं जो ट्वीट कर-कर के ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं अथवा फ़ेसबुक तथा वॉट्सअप पर अपना (अधकचरा) ज्ञान बघार कर स्वयं को सर्वज्ञ घोषित कर देते हैं ।

लेकिन जिस पर गुज़री है, वह क्या करे ? अगर जान ही चली गई है तो वह ख़ुद तो कुछ कर नहीं सकता (या सकती) । जिसे उसके लिए इंसाफ़ चाहिए, उसे ताक़तवर सिस्टम से लड़ना होगा - उस ताक़तवर सिस्टम से जो ज़ुल्म करने वालों का सगा है, दौलत के हाथों बिकता है, ताक़त के आगे झुकता है; जिसे सही-ग़लत से कोई मतलब नहीं । समाज के दुर्बल भाग से संबद्ध किसी भी पीड़ित के लिए न्याय पाना (अथवा ऐसे किसी पीड़ित को न्याय दिलाना) असंभव की सीमा तक कठिन हो सकता है । पर फिर यही तो आततायियों की शक्ति है कि पीड़ित सदा न्याय का भिक्षुक बना रहे किन्तु उसे न्याय न मिले । ऐसे में मर-मर कर बरसों जीते रहने से तो बेहतर है कि इंसाफ़ के लिए लड़ते हुए ही मरा जाए । महात्मा गांधी ने भी तो जब किसी भी तरह मांगने से अंग्रेज़ों से आज़ादी नहीं मिली थी तो 'करो या मरो' का नारा दिया था । कायरों का जीवन जीने से तो मर जाना अच्छा है ।

वैधानिक व्यवस्था स्वयं को तटस्थ कहती है । बहुत-से लोग भी स्वयं को तटस्थ कहकर अपने आप को ही धोखा देते हैं - हम तो किसी की भी तरफ़ नहीं हैं । लेकिन सच वह है जो मेरे प्रिय हिंदी लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक अपने कई उपन्यासों में कह चुके हैं - तटस्थता आततायी का साथ देती है, पीड़ित का नहीं । तथाकथित तटस्थ व्यवस्था का अनकहा सिद्धांत यही तो है कि जो समर्थ है, वही सही है । गोस्वामी तुलसीदास तो सैकड़ों वर्ष पूर्व ही लिख गए हैं - समरथ को नहीं दोष गुसाईं । ज़ालिम तो समर्थ और ताक़तवर होगा ही, तभी तो वह कमज़ोर पर ज़ुल्म कर पाएगा । अगर आप शक्तिशाली आततायी एवं दुर्बल उत्पीड़ित में से किसी की ओर नहीं हैं तो अप्रत्यक्षतः आप आततायी की ही ओर हैं क्योंकि आपकी इस कथित तटस्थता का लाभ उसी को प्राप्त होगा ।

लेकिन ऐसे स्वयंभू तटस्थ लोगों को जो कि 'हमें क्या' का दृष्टिकोण पालकर निश्चिंत रहते हैं, यह विस्मरण नहीं करना चाहिए कि समय से अधिक बलवान कोई नहीं । उनका भी वक़्त हमेशा वैसा ही नहीं रहने वाला है जैसा वे आज देख रहे हैं । मैंने दिनकर जी की पंक्तियों के साथ यह लेख आरंभ किया था । उन्हीं की एक कालजयी कविता की इन पंक्तियों के साथ मैं इस लेख का समापन करता हूँ :

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

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9 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :

    रेणुOctober 19, 2020 at 10:46 AM
    समरथ को नहीं दोष गुसाईं --------- सच में बहुत सही लिखा था गोस्वामी जी ने | जितेन्द्र जी , आपका ये सटीक लेख मन को छू झझकोर गया | यही होता है -- निर्भया के आरोपी गरीब तबके से थे , सो फांसी चढ़ गये --- अगर वे अमीर खानदानों से होते तो बच निकलते -- मनु शर्मा की तरह -- अच्छे चालचलन का प्रमाण पत्र पाकर या रेलूराम परिवार के नौ सदस्यों की हत्यारिन बेटी की सजा की तरह उनकी सजा भी फांसी से आजीवन कारावास में बदल जाती | या फिर अनुराधा बाली को फिज़ा बनाकर शादी करने वाले चंद्रमोहन की तरह - उनके गुनाह भी समय की गर्त में गहरे धंस जाते जिसने फिजा को अकेला छोड़कर कई ब्राह्मणों से पूजा पाठ करवाकर अपना गुनाह धो लिया और फिजा बेमौत मारी गयी | पर इन सबके साथ लोगों का मौन भी अपराध को बढ़ावा देता है | लोग सरेआम ह्त्या पर भी चुप्पी साध लेते हैं मात्र एक गवाही के अभाव में अपराधी बड़े आराम से छूट जाते हैं | नारी उत्पीडन में भी समस्त नारी तबके की ख़ामोशी इसका सबसे बड़ा कारण है | अगर हम साधारण न्याय पर भी पहल नहीं कर सकते तो यौन उत्पीडन जैसे अत्यंत गंभीर मामलों में कैसे बोल पायेंगे !! जो लड़कियों के उत्पीडन के लिए जिम्मेवार होते हैं -- उन बेटों और पतियों को निरपराध साबित करने के लिए उनके पक्ष में खड़ी अंध मातृ भक्ति और अंध पति भक्ति का निर्वहन महिलाएं ये भूल जाती हैं कि ऐसा हादसा उनकी बेटी के साथ भी हो सकता है | तटस्थ लोगों की तटस्थता के अपराध से ही अन्यायी और अपराधी बेखौफ विचरण करते हैं | जब न्यायपालिका तटस्थ रहकर भी उसी जड़ व्यवस्था को पोषित करती है जो दोषियों को बचाकर अन्याय बढ़ावा देती है | एक विचार परक लेख के लिए हार्दिक आभार |

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    जितेन्द्र माथुरOctober 19, 2020 at 7:53 PM
    आपकी यह विस्तृत टिप्पणी अत्यंत विचारोत्तेजक है तथा इसी से मुझे अनुराधा उर्फ़ फ़िज़ा वाले मामले की याद आई है । अनुराधा (फ़िज़ा) को धोखा देने वाला चंद्रमोहन उर्फ़ चांद मोहम्मद तो आज भी आराम से जी रहा है लेकिन वह मासूम औरत तो बेमौत मारी गई । सच कहा आपने । महिलाओं को भी अंध-मातृभक्ति तथा अंध-पतिभक्ति त्यागनी होगी तथा सत्य एवं न्याय के पक्ष में बोलना होगा, अपने सगे का नहीं बल्कि मज़लूम का साथ देना होगा । पक्षपाती दृष्टिकोण तो एक दिन सम्पूर्ण समाज को ही समाप्त कर देगा । बहुत-बहुत शुक्रिया आपका ।

    रेणुOctober 19, 2020 at 10:52 AM
    एक बात और लिखना चाहूंगी - आज नारी को उत्पीडन से बचने के लिए अंध विश्वाससे बचना होगा और सावधानीपूर्वक किसी के प्यार के धोखे से खुद को बचाना होगा | पुराणों में भी जगह- जगह उल्लेख मिलता है कि ऋषि मुनि तक ने देह्लोलुपता के वशीभूत हो अपनी मर्यादाएं खंडित कर डालीं थीं , फिर साधारण मनुष्यों की क्या बात करें ? सावधानी ही सबसे बड़ा बचाव है | उसे अपने सनातन संस्कारों से जुड़ना होगा और स्वयं की रक्षा खुद करने का हुनर सीखना होगा |

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    जितेन्द्र माथुरOctober 19, 2020 at 7:56 PM
    मैं आपके इस विचार से भी सहमत हूँ रेणु जी । अपनी सुरक्षा के लिए स्त्रियों को स्वयं भी अत्यंत सजग रहना चाहिए तथा किसी पर भी तुरंत विश्वास कर लेने से बचना चाहिए ।

    यशवन्त माथुर (Yashwant R.B. Mathur)October 20, 2020 at 7:56 AM
    बिल्कुल सही कहा आपने। वर्तमान परिस्थितियों में न्याय सिर्फ चंद लोगों तक ही सीमित हो कर रह गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज के समय में न्याय भी विलासिता जैसा ही हो गया है जिसे अफोर्ड कर पाना एक आम आदमी के बूते की बात तो नहीं ही है।
    आपके विचारों से पूर्णतः सहमत।

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    जितेन्द्र माथुरOctober 20, 2020 at 7:08 PM
    हार्दिक आभार आदरणीय यशवंत जी ।

    Harsh Wardhan JogOctober 26, 2020 at 9:59 PM
    वैसे तो तटस्थ रहना भी एक विचार है जो दोनों तरफ जा सकता है. पर जिस तरह से आपने बात उठाई है वह निसन्देह सही है. आम आदमी से न्याय दूर होता जा रहा है. सुधार होता नज़र नहीं आ रहा है.

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    जितेन्द्र माथुरOctober 26, 2020 at 10:21 PM
    हार्दिक आभार हर्ष वर्धन जी । पीड़ादायक बात यही है कि आम आदमी से न्याय दूर, और दूर होता जा रहा है ।

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  2. आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी,
    आपकी इस बात से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि "विगत एक दशक से तो ऐसा आभास हो रहा है मानो हम वास्तविक जीवन से दूर होकर केवल ट्विटर वाले बन गए हैं जो ट्वीट कर-कर के ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं अथवा फ़ेसबुक तथा वॉट्सअप पर अपना (अधकचरा) ज्ञान बघार कर स्वयं को सर्वज्ञ घोषित कर देते हैं ।"
    वर्तमान समय की यह बहुत बड़ी विसंगति है। व्हाट्सएप पर अनर्गल बातों कि प्रचार-प्रसार तो हो ही रहा है, साहित्य के साथ भी खिलवाड़ ज़ारी है। कोई भी उल्टी-सीधी आठ-दस पंक्तियां कविता के रूप में लिख कर उसे मुंशी प्रेमचंद की कविता घोषित कर देता है, फिर forward पर forward का सिलसिला शुरु हो जाता है। कोई यह मानने को तैयार नहीं कि प्रेमचंद कवि नहीं लेखक थे। मुंशी उनके नाम में चस्पा कर दिया गया है सो अलग।
    यही दशा tweeter और facebook के इस्तेमाल की भी है। अधकचरे ज्ञान से वे भरे पड़े हैं।

    बहुत बढ़िया ...विचारोत्तेजक लेख के लिए शुक्रिया, बधाई
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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  3. हार्दिक आभार आदरणीया वर्षा जी । मैं भी सहमत हूँ आपके विचारों से ।

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  4. "स्वयंभू तटस्थ लोगों को जो कि 'हमें क्या' का दृष्टिकोण पालकर निश्चिंत रहते हैं, यह विस्मरण नहीं करना चाहिए कि समय से अधिक बलवान कोई नहीं ।"
    सत्य कथन । चिन्तनपरक और प्रभावशाली लेख ।

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  5. 'जो अंधेरे का अंजाम जानते हैं, वे रोशनी ढूंढ ही लेते हैं चाहे उन्हें इसके लिए कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े'
    तटस्थता आततायी का साथ देती है, पीड़ित का नहीं । तथाकथित तटस्थ व्यवस्था का अनकहा सिद्धांत यही तो है कि जो समर्थ है, वही सही है "
    ..आपके सुंदर यथार्थपूर्ण लेख में ऐसे कई विचारणीय प्रसंग हैं,जो आज की व्यवस्था के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं..सारगर्भित लेखन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आपको मेरा नमन..

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  6. जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
    तटस्थ भी अपराधी ही होते हैं आँखों देखी कानों सुनी पर भी जो हाँ कहने से किनारा कर जाते हैं वे भी अपराध को ही बढ़ावा देते हैं सही कहा आपने तथाकथित तटस्थ व्यवस्था का अनकहा सिद्धांत यही तो है कि जो समर्थ है, वही सही है । गोस्वामी तुलसीदास तो सैकड़ों वर्ष पूर्व ही लिख गए हैं - समरथ को नहीं दोष गुसाईं । ज़ालिम तो समर्थ और ताक़तवर होगा ही, तभी तो वह कमज़ोर पर ज़ुल्म कर पाएगा । अगर आप शक्तिशाली आततायी एवं दुर्बल उत्पीड़ित में से किसी की ओर नहीं हैं तो अप्रत्यक्षतः आप आततायी की ही ओर हैं क्योंकि आपकी इस कथित तटस्थता का लाभ उसी को प्राप्त होगा ।बिल्कुल ऐसा ही होता भी है ।
    बहुत ही चिंतनपरक एवं विचारोत्तेजक लेख ।

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    1. आपने मेरे विचारों को स्वीकृति दी सुधा जी।आभार प्रकट करता हूँ।

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