हमारे देश में चेतन भगत ने साधारण अंग्रेज़ी में लिखे गए साधारण कथानकों वाले उपन्यासों का एक बाज़ार उत्पन्न किया और इस सरिता को अमीश त्रिपाठी ने भारतीय पौराणिक मिथकों को ही तोड़ मरोड़ कर सिरजे गए अपने उपन्यासों की प्रारंभिक त्रयी द्वारा एक सागर में परिवर्तित कर दिया जिससे भारतीय भाषाओं के पाठकगण अंग्रेज़ी में रचित भारतीय उपन्यासों के प्रति कुछ ऐसे आकृष्ट हुए कि पहले से ही सिमटता जा रहा भारतीय भाषाओं विशेषतः हिंदी के साहित्य का प्रसार-क्षेत्र और भी अधिक सिमटने लगा । जहाँ तक लोकप्रिय हिन्दी साहित्य का प्रश्न था, ले-देकर उसके इकलौते झंडाबरदार केवल पुराने योद्धा सुरेन्द्र मोहन पाठक रह गए । किन्तु सर्वविदित है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है । २०१६ में नवोदित हिन्दी उपन्यासकार रमाकांत मिश्र (जो पहले से ही एक हिन्दी कथाकार के रूप में पहचाने जाते थे क्योंकि उनके द्वारा रचित कई कहानियां हिन्दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं) एक ताज़ा हवा के झोंके के समान अपना प्रथम हिन्दी उपन्यास 'सिंह मर्डर केस' लेकर प्रस्तुत हुए । थ्रिलर शैली में लिखे गए मन को छू लेने वाले उस उपन्यास को सफलता भी मिली और सराहना भी । दूसरी ओर सबा ख़ान के नाम से एक नवोदित लेखिका भी विदेशी लेखकों के उपन्यासों के अनुवाद के साथ-साथ अपने मौलिक सृजन से भी हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक पहचान बना रही थीं । इन दोनों लेखकों ने एक वृहत् कथा को आकार देने के निमित्त संयुक्त प्रयास किया जिसका परिणाम 'महासमर' नामक एक महागाथा के रूप में सामने आया । दो भागों में प्रस्तुत इस अत्यंत विस्तृत कथा का प्रथम भाग - परित्राणाय साधूनाम् के रूप में २०१९ में पाठकों के सम्मुख आया तो द्वितीय भाग - सत्यमेव जयते नानृतम् के रूप में २०२० में अवतरित हुआ । बड़े आकार के नौ सौ से अधिक पृष्ठों में समाहित महाभारत सरीखी इस महागाथा की समीक्षा करना भी कोई सरल कार्य नहीं है क्योंकि गुण-दोषों को अलग रखा जाए तो कम-से-कम यह महाप्रयास अपने आप में ही महती सराहना का पात्र है ।
'महासमर' में लेखक-द्वय ने पर्यावरण
संरक्षण की पृष्ठभूमि में एक तीव्र गति का थ्रिलर रचा है । प्राणी का शरीर तथा यह
संपूर्ण सृष्टि भी पंच महाभूतों से निर्मित बताई जाती है - मृत्तिका अर्थात्
मिट्टी, पानी, अग्नि, आकाश तथा वायु । गोस्वामी
तुलसीदास की वाणी को उद्धृत किया जाए तो 'क्षिति जल पावक गगन समीरा' ही इस नश्वर देह तथा नश्वर संसार के मूल तत्व हैं । इन पाँच तत्वों
में से एक तत्व - जल के महत्व को इस उपन्यास का आधार बनाया गया है एवं उसके
संरक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया है । पेशे से कीट वैज्ञानिक रमाकांत मिश्र की
पारिस्थितिकी में रुचि होना स्वाभाविक ही लगता है लेकिन यह उपन्यास वस्तुतः
पर्यावरण-प्रेमियों के लिए कम तथा रोमांच से युक्त फ़िक्शन पढ़ने में रुचि रखने
वालों के लिए अधिक है ।
क्राइम फ़िक्शन के रसिया जिन
पाठकों ने डॉन ब्राउन का 'द विंची
कोड' या अश्विन सांघी के 'द रोज़ाबाल लाइन' और 'द कृष्णा की' जैसे उपन्यास पढ़े हैं, वे 'महासमर' के कथा-प्रवाह की शैली को
भलीभांति समझ सकते हैं (वैसे मूल
रूप से ऐसी शैली के सृजक बाबू देवकीनंदन खत्री थे) । जल के महत्व पर प्रकाश डालते
हुए एक बाँध के टूटने से हुए जलप्लावन में विश्व बैंक के वित्तपोषण द्वारा निर्मित
एक संस्थान के पूर्णरूपेण नष्ट हो जाने की घटना इस सुदीर्घ कथानक के मूल में है
लेकिन ये बातें वास्तविक कथा की पृष्ठभूमि ही तैयार करती हैं । कथानक का रंगमंच तो
ढेर सारी घुमावदार घटनाओं, हत्याओं, छुपे हुए तथ्यों की खोजबीन, अपराधियों की धरपकड़, नेता-पुलिस-व्यापारी-नौकरशाही
गठजोड़, गुप्तचरों (तथा एक खोजी
पत्रकार) की भागदौड़ एवं सरकारी तंत्र के अनुत्तरदायी व चरम सीमा तक भ्रष्ट चरित्र
से उपजे परिणामों से अटा पड़ा है । ढेर सारे पात्र हैं, ढेर सारे ट्रैक और ढेर सारी
घटनाएं । पाठक को आदि से अंत तक उपन्यास से चिपकाए रखने के लिए यह पर्याप्त से भी
अधिक है ।
सवाल यह उठता है कि इस
विशालकाय सृजन के पीछे इन अत्यन्त प्रतिभाशाली लेखकों का उद्देश्य क्या था या क्या
है । यदि उद्देश्य एक अतिरोचक,
अतिमनोरंजक कथा की रचना करना था तो वे उसमें पूर्णतः सफल रहे हैं ।
फ़ॉर्मूला कार रेस में कारें जिस तरह दौड़ती हैं, वैसी ही रफ़्तार से इस महागाथा का घटनाक्रम दौड़ता
है और पढ़ने वाले को ठहर कर सोचना तो दूर, साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं देता मालूम होता है । एक दिलचस्प थ्रिलर
में जो कुछ होने की उम्मीद उसे पढ़ने वाले को होती है, वह सब कुछ 'महासमर' में मौजूद है हालांकि मेरी
राय में इसे कोई सस्पेंस-थ्रिलर नहीं कहा जा सकता क्योंकि थ्रिल ही है, कोई बड़ा राज़ कहीं दिखाई
नहीं देता जिसके ख़ुलासे के लिए आख़िर तक इंतज़ार रहे । पढ़कर सन्तुष्टि भी होती है
तथा एक प्रकार का असंतोष भी क्योंकि दो भागों में विस्तृत हो चुकने के उपरांत भी
सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए गए हैं । कई सिरे (बिलाशक़ जान-बूझकर) खुले छोड़े
गए हैं जिन्हें पकड़कर आइंदा इस सिलसिले को आगे बढ़ाया जाएगा । लेखकों के आत्मसंतोष
तथा भावी लेखन योजना के दृष्टिकोण से उनके लिए यह उचित हो सकता है परन्तु पाठक के
दृष्टिकोण से यह उचित प्रतीत नहीं होता । मूल विचार अथवा कतिपय पात्रों को लेकर
उपन्यासों की एक शृंखला रची जाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लेकिन रची गई कृति
अपने आप में सम्पूर्ण होनी चाहिए । कथानक से जुडे़ महत्वपूर्ण प्रश्नों को
अनुत्तरित रखकर पाठक को त्रिशंकु की भांति अधर में झूलता छोड़ देना उसके प्रति
अन्याय ही है ।
पात्रों की भाषा में
व्यावहारिकता का ध्यान वहीं रखा गया है जहाँ गाली-गलौज है, अन्यथा अनेक स्थलों पर
पात्रों द्वारा ऐसी भाषा बुलवाई गई है जो व्यवहार में प्रयुक्त नहीं होती । और
जहाँ तक गाली-गलौज या अपशब्दों के प्रयोग का प्रश्न है, मैं निजी रूप से मानता हूँ
कि यह यथासंभव कम-से-कम होना चाहिए और तभी होना चाहिए जब उसके बिना कथानक की गाड़ी
न चल सकती हो । लेखकगण यदि चाहते तो निश्चय ही इसे कम कर सकते थे । इसके अतिरिक्त
मुझे उपन्यास के दोनों ही भागों में स्त्रियों से संबंधित कुछ प्रसंग अनावश्यक लगे
। यदि लेखकगण विशुद्ध व्यावसायिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखने वाले
उपन्यासकारों की श्रेणी में नहीं आते हैं तो इन प्रसंगों को उपन्यास में सम्मिलित
करने से बचा जा सकता था ।
अब मैं पुनः लेखकद्वय के इस
कथा के सृजन के उद्देश्य की अपनी बात पर लौटता हूँ । यदि उनका उद्देश्य केवल
मनोरंजन प्रदान करना न होकर पाठकों में पारिस्थितिकीय जागरूकता उत्पन्न करना था
(और है) तो उनकी सफलता सीमित ही है क्योंकि वे उपन्यास में किसी भी स्थान पर इस
संदर्भ में किसी प्रकार का भावोद्वेलन उत्पन्न नहीं कर सके हैं । ऐसा नहीं कहा जा
सकता कि उपन्यास में अंतर्निहित ऐसा कोई भाव पढ़ने के उपरान्त भी पाठक के साथ बना
रहता है । लेकिन इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण निस्संदेह सराहनीय है कि घोर स्वार्थी
व्यवसायी अपने व्यापारिक लाभ के निमित्त प्राणलेवा रोग उत्पन्न करने वाले विषाणु
तक उत्पन्न करके संपूर्ण मानवता के स्वास्थ्य (एवं जीवन) को भी संकट में डाल सकते
हैं । इस कटु यथार्थ को रेखांकित करना भी श्लाघनीय है कि स्वार्थी लोग एवं
स्वार्थी वर्ग अपने प्रत्येक कुकर्म को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए कोई-न-कोई
(कु)तर्क ढूंढ ही लेते हैं ।
कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय
है । एक समीक्षक के रूप में मेरी आलोचना अपनी जगह है और उपन्यास की उत्तम गुणवत्ता
अपनी जगह । बेस्टसेलर बनने की तमाम ख़ूबियां इसमें हैं । उपन्यास के अंत से ही
स्पष्ट है कि लेखकगण की लेखनी थमने वाली नहीं है एवं इस महागाथा का नवीन विस्तार
तथा इसके
नवीन आयाम भविष्य में हिंदी के पाठकों के समक्ष आएंगे जिनकी प्रतीक्षा अभी से आरंभ
हो गई है । प्रतिभाशाली तथा ऊर्जस्वी लेखकद्वय को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
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रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी..आपके समीक्षात्मक लेख से लोगों में हिन्दी उपन्यासों को पढ़ने के प्रति रुचि बढ़ेगी.सराहनीय कार्य कर रहे हैं आप..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार जिज्ञासा जी ।
हटाएंमूल प्रकाशित लेख (14 जुलाई, 2020) पर स्वयं उपन्यास लेखक श्री रमाकांत मिश्र तथा सुधी पाठिका एवं ब्लॉगर सुधा देवरानी जी की प्रतिक्रियाएं :
जवाब देंहटाएंRamakant MishraJuly 15, 2020 at 12:19 AM
इस महागाथा को पढ़ने और इस पर अपने विचारों को इस बेबाक समीक्षा के माध्यम से व्यक्त करने के लिए ह्रदयतल से आभार।
आपके विचारों को पूर्ण रूप से आत्मसात करने की प्रक्रिया में कतिपय मुद्दों पर अपना पक्ष रखना चाहूंगा। ऐसा नहीं है कि जिन बिंदुओं पर आपने आपत्ति की है उनका मैं विरोध करना चाहता हूँ। वे अपने स्थान पर न सिर्फ सही हैं बल्कि इस बात का भी द्योतक हैं कि इतने बड़े कथानक को सम्यक रूप से रच पाने में संभवतः हम पूर्ण रूप से सफल नहीं हुए। किन्तु हमें अभी बहुत दूर तक यात्रा करनी है और आपकी सुविचारित, प्रखर और विवेक पूर्ण विवेचना हमारे लिए प्रकाशस्तम्भ का कार्य करेगी।
निश्चय ही इसमें अनेक कथासूत्र अपनी परिणति को नहीं पहुँचते है। कारण यह रहा है कि उन कथाओं का इस मूल कथा के साथ इतना ही साथ रहा। उनकी अपनी अलग दिशाएं हैं जो समय समय पर पाठकों की सेवा में प्रस्तुत की जाएंगी। उन्हें जल्दबाज़ी में पूर्ण नहीं किया जा सकता था और उनकी इस मूल कथा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है। अतः छोड़ा भी नहीं जा सकता था। यह थ्रिलर प्रकृति की कार्य शैली के अनुरूप रखने का यथासंभव प्रयास किया गया है। यही कारण है कि अनेक कथा प्रसंग स्वतंत्र रूप से फूटते हैं और फिर कथा यात्रा के साथी बन जाते हैं। लेकिन हर प्रसंग अपनी अलग गति से चलता है और मूल कथा के समापन के उपरांत भी चलता रहता है।
स्त्री पात्रों का तो उपन्यास में अकाल ही है क्योंकि कथा का स्वरुप ही कुछ इस प्रकार का है। किन्तु जो भी स्त्री पात्र आये हैं उनका कथ्य, भाव और चरित्र चित्रण में योगदान है। अन्यथा केवल शोभा के लिए किसी भी पात्र को नहीं लिया गया है।
मैं आपसे सहमत हूँ कि दोनों उपन्यास पारिस्थितिकीय संरक्षण के प्रति जागरूक तो करते हैं किन्तु कोई बहुत देर तक रहने वाला प्रभाव नहीं छोड़ते। यह एक दीर्घ कालिक योजना है, अतः जब ये अपने प्रथम चरण को पूर्ण करेगी तो पाठकों के मनो मस्तिष्क पर इस विषय में अमिट प्रभाव छोड़ेगी।
भाषा के प्रति आपकी राय का स्वागत है। निश्चय ही इस विधा की स्थापित भाषा का अनुगमन नहीं किया गया है।
आपके अमूल्य प्रेक्षणों का लेखक द्वय के लिए बहुत महत्त्व है। ये हमारे भविष्य के उपन्यासों के लिए दिशानिर्देश हैं। हम प्रत्येक बिंदु को ध्यान में रखते हुए ही अपनी भावी योजनाओं जिनमे महासमर के अतिरिक्त भी उपन्यास हैं को कार्यरूप देंगे।
कोटिशः आभार।
Reply
जितेन्द्र माथुरJuly 15, 2020 at 12:45 AM
बहुत-बहुत आभार आदरणीय रमाकांत जी । मैंने तो अत्यन्त संकोचपूर्वक ही यह समीक्षा लिखी है । आपने मेरी आलोचना को सकारात्मक रूप में लिया, यह आपका बड़प्पन ही है । मैंने भी आपकी विस्तृत टिप्पणी को भलीभांति समझा एवं आत्मसात् किया है ।
Sudha devraniJuly 18, 2020 at 10:14 AM
महासमर की महागाथा....
बहुत ही शानदार समीक्षा एवं आलोचना की है आपने।इतनी विस्तृत बेबाक और लाजवाब समीक्षा
पर प्रतिक्रिया हेतु शब्द नहीं हैं मेरे पास... नमन करती हूँ आपको और आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏🙏
Reply
जितेन्द्र माथुरJuly 18, 2020 at 8:31 PM
हार्दिक आभार सुधा जी आपका ।