सारी दुनिया में आज नक़लचियों का बोलबाला है । नक़लची हर जगह घुस जाते हैं और दूसरों के सृजन को कॉपी-पेस्ट करके या फिर चंद अल्फ़ाज़ की हेरा-फेरी करके वाह-वाही (और भौतिक लाभ भी) लूटते हैं जबकि वास्तविक सर्जक कई बार अपनी सृजन की इस चोरी से अनभिज्ञ रहता है । साहित्य और कला के क्षेत्र में यह आम बात है । कभी-कभी नक़ल करने वाले लोग मूल सृजनकर्ता को (प्रेरणा देने का) श्रेय भी दे देते हैं जबकि बाज़ मर्तबा ऐसा भी होता है कि जिसे श्रेय दिया जा रहा है, उसने भी किसी और की नक़ल ही की थी ।
कृतिस्वाम्य या कॉपीराइट का विधान इस संदर्भ में केवल समर्थ लोगों के लिए ही प्रभावी होता है (वैसे भारत की तो सम्पूर्ण वैधानिक व्यवस्था ही समर्थों के लिए हैं जो न्याय को मुँहमांगे दाम चुकाकर क्रय कर सकते हैं, साधारण व्यक्ति के लिए न्याय है कहाँ ?) । आर्थिक और व्यावहारिक रूप से अपेक्षाकृत दुर्बल सृजनकर्ताओं को इससे कोई विशेष लाभ नहीं मिलता है । प्रत्यक्षतः कॉपीराइट द्वारा सुरक्षित बौद्धिक सम्पदा की चोरी को भी रोक पाने में भी भारतीय विधि-व्यवस्था प्रायः प्रभावहीन ही सिद्ध होती है ।
कुछ वर्ष पूर्व आई हिन्दी फ़िल्म 'दबंग' का एक गीत 'मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए' बहुत लोकप्रिय हुआ तथा यह आज भी उतना ही लोकप्रिय है । यह गीत 1995 में आई हिन्दी फ़िल्म 'रॉक डांसर' के गीत 'लौंडा बदनाम हुआ लौंडिया तेरे लिए' की नक़ल है जिसे माया गोविंद ने लिखा था और बप्पी लहरी ने संगीतबद्ध किया था । लेकिन वस्तुतः वह गीत भी मशहूर भोजपुरी लोकगीत 'लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए' की ही नक़ल था जिसे तारा बानो फ़ैज़ाबादी के स्वर में उत्तर-मध्य भारत की कई पीढ़ियों ने सुना और उसका आनंद उठाया । चूंकि यह लोकगीत है, इसलिए अधिकतर लोकगीतों की तरह इसके मूल लेखक का भी कोई पता नहीं । लेकिन पहले 'रॉक डांसर' में और डेढ़ दशक बाद 'दबंग' में इस गीत को थोड़े हेर-फेर के साथ उठा लिया जाना निर्लज्ज साहित्यिक और सांगीतिक चोरी का ही नमूना कहा जा सकता है । और यह कोई एक ही उदाहरण नहीं, ऐसे ढेरों उदाहरण हैं ।
कई वर्ष पूर्व चर्चित फ़िल्मकार श्याम बेनेगल द्वारा अपनी फ़िल्म 'वेल डन अब्बा' की कहानी के लिए जिलानी बानो को उनकी कहानी - 'नरसईंया की बावड़ी' और संजीव कदम को उनकी कहानी 'फुलवा का पुल' के लिए श्रेय दिया गया था क्योंकि बेनेगल ने अपनी फ़िल्म की कहानी इन कहानियों से प्रेरणा लेकर लिखी थी । लेकिन जब मैंने रमेश गुप्त जी द्वारा दशकों पूर्व रचित व्यंग्य 'चोरी नए मकान की' पढ़ा तो मैं दंग रह गया क्योंकि फ़िल्म की कहानी उस अत्यंत पुराने भूले-बिसरे व्यंग्य से बहुत मिलती-जुलती थी । इसका आशय यह हुआ कि बेनेगल ने जिन कथाओं को पढ़कर अपनी फ़िल्म की कथा रची थी, वस्तुतः उन कथाओं के लेखकों ने अपनी रचनाओं की विषय-वस्तु गुप्त जी के व्यंग्य से ही चुराई थी ।
भारत में हिन्दी के असंख्य उपन्यास विदेशी उपन्यासों की नक़ल मारकर धड़ल्ले से लिखे गए हैं और अब भी लिखे जाते हैं । लुगदी साहित्य के नाम से रचे गए उपन्यासों के लेखकों ने पहले तो यह सोचकर विदेशी उपन्यासों की नक़ल मारी कि हिन्दी के पाठक वर्ग को विदेशी भाषाओं के साहित्य का क्या पता । लेकिन अपनी इस चोरी के पकड़े जाने के बाद भी वे खम ठोककर यही करते रहे क्योंकि उन्हें कॉपीराइट संबंधी कानून का कभी कोई ख़ौफ़ नहीं रहा ।
कई भाषाओं में बनाई गई चर्चित फ़िल्म 'दृश्यम' के लेखक ने निर्लज्ज होकर उसे अपनी 'मौलिक कहानी' के नाम से प्रचारित किया जबकि यह सर्वविदित था कि 'दृश्यम' की कहानी स्पष्टतः जापानी उपन्यास 'द डिवोशन ऑव सस्पैक्ट एक्स' से प्रेरित थी जिस पर जापानी भाषा में फ़िल्म भी बनी थी । लेकिन श्रेय और लाभ के बुभुक्षित लोगों को लज्जा कहाँ आती है । वे नक़ल को भी एक बहुत बड़ी कला समझते और मानते हैं और अपनी इस निपुणता पर गर्वित भी होते हैं ।
चर्चित अभिनेता और फ़िल्मकार आमिर ख़ान और उनके निर्देशक आशुतोष गोवारीकर ने अपनी फ़िल्म ‘लगान’ की कहानी के मौलिक होने का ढिंढोरा पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी । लेकिन सच्चाई यह है कि ‘लगान’ का मूल विचार बी॰आर॰ चोपड़ा द्वारा निर्मित-निर्देशित अपने समय की अत्यंत सफल फ़िल्म ‘नया दौर’ से उठाया गया है जिसमें दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं । स्वयं आमिर ख़ान ने ‘लगान’ के अनेक दृश्यों में ‘नया दौर’ के दिलीप कुमार की भाव-भंगिमाओं की हूबहू नक़ल की है । फिर भी मौलिकता का दावा ? ऐसे निष्णात नक़लची संभवतः स्वयं को महाज्ञानी और शेष संसार को निपट मूर्ख समझते हैं ।
सारांश यह कि साहित्य और कला की चोरी एक लाइलाज़ बीमारी है । चूंकि यह चोरी सरलता से की जा सकती है, इसीलिए चोर निर्भय रहते हैं । अकसर तो चुराए गए संगीत या साहित्य के वास्तविक सर्जक अपने सृजन की इस चोरी से अनभिज्ञ ही रहते हैं और यदि वे जान भी जाएं तो चोर के विरुद्ध कोई ठोस कार्रवाई करने में स्वयं को अक्षम ही पाते हैं । संगीत और साहित्य के कद्रदानों को भी इत्तफ़ाक़ से ही पता लगता है कि जिस सृजन को वे सराह रहे हैं, वह वस्तुतः किसी और की प्रतिभा और परिश्रम का सुफल है ।
अत्यंत खेद एवं क्षोभ का विषय है यह ।
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मूल प्रकाशित लेख (12 दिसम्बर, 2015 को) पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :
जवाब देंहटाएंरेणुSeptember 3, 2020 at 11:24 AM
वाह जितेन्द्र जी ! आपने हर विषय पर लिखा तो ये दुष्ट नक़लची भी क्यों बचते आपकी नजर से | बहुत रोचकता से लिखा है आपने | नक़लचियों की पूरी कलई खोल कर रख दी | ये चतुर लोग बड़ी आसानी से किसी की बौद्धिक संपदा चुराकर शर्मिंदा भी नहीं होते | फ़िल्मी दुनिया में तो चोरी का चलन आम है एसा सूना जाता है | और असल लोग नकल वालों से हारते सुने गये हैं जो भी हो | किसी का एक शेर याद आता है ऐसे प्रपंची लोगों के लिए -
मैं सच भी बोलूंगा हार जाऊंगा
वो झूठ बोलेगा और ला जवाब कर देगा !
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जितेन्द्र माथुरSeptember 3, 2020 at 7:42 PM
हार्दिक आभार माननीया रेणु जी | यह शेर पाकिस्तानी शायरा मरहूमा परवीन शाकिर जी का है (परवीन जी का 1994 में अल्पायु में ही निधन हो गया था) :
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
रेणुSeptember 4, 2020 at 10:31 AM
जी, जीतेंद्र जी। बहुत बहुत क्षमा प्रार्थी हूँ, कि शेर भूल से सही नहीं लिखा गया। शायद मैं लिखते समय भूल गयी।इसे मैंने अभी समालोचन ई पत्रिका पर पिछले दिनोँ पढ़ा था। आपने मेरी भूल सुधारी, जिसके लिए बहुत आभारी हूँ। आप बहुत ज्ञान रखते हैं। 🙏🙏🙏
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जितेन्द्र माथुरSeptember 4, 2020 at 8:54 PM
ओह रेणु जी । I am humbled. तारीफ़ के लिए शुक्रिया ।
रोचक और सटीक जानकारी
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार ज्योति जी ।
हटाएंबहुत ही लाजवाब उदाहरणों के साथ आपने नकलचियों का मुँह बंद करने की कोशिश की है जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्रशंसनीय है, ये लेख पढके मज़ा आ गया साथ साथ हंसी भी..आप जानकारियों की खान हैं जितेन्द्र माथुर जी, गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया जिज्ञासा जी । आपको भी गणतंत्र दिवस की अनेक शुभकामनाएं ।
हटाएंसही कहा आपने साहित्यिक चोरी और चोर नकलची दूसरों की बौद्धिक सम्पदा की चोरी कर वाहवाही बटोर रहे है...कॉपीराइट को भी चुरा ले जाते हैं तोड़मरोड़ कर पेश कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कोई इनका क्या बिगाड़ सकता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब लेख।
हार्दिक आभार माननीया सुधा जी ।
हटाएंसही कहा आपने। आजकल तो चोरी और सीना जोरी का भी रिवाज है। हिंदी के काफी लेखकों को मैंने इसलिए पढ़ना छोड़ दिया। पढ़ना ही है तो मूल उपन्यास पढा जाए। पुराने खरीदे गए उपन्यासों में अगर कोई ऐसा उपन्यास मिल जाता है तो मैं उसकी समीक्षा में मूल उपन्यास का जिक्र कर ही देता हूँ।
जवाब देंहटाएंआप बिलकुल सही करते हैं विकास जी ।
हटाएंमौलिकता कहां से आए ..जब हम नैतिक नहीं रहे..
जवाब देंहटाएंनैतिकता भी मौलिक नहीं अब..झूठ के है लिहाफ चढ़े..
आपकी बात बिल्कुल सही है..नकलचियों का बोलबाला है..फिल्म जगत हो या समाज..
आपकी बात पूरी तरह सही है । सारगर्भित एवं सार्थक टिप्पणी के लिए हृदयतल से आभार आपका ।
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