कुछ वर्षों पूर्व केंद्रीय सरकार ने तलाक के उपरांत पति की संपत्ति में पत्नी के अधिकार संबंधी कानून में संशोधन किया था जिसकी प्रशंसा भी हुई थी, आलोचना भी । पत्नी या यूं कहें कि स्त्री की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए यह अधिनियम बनाया गया था । इसके तथा इसके जैसे अन्य विधानों को बनाए जाने की पृष्ठभूमि में है पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्थाओं में स्त्री को दिया गया दोयम दरज़ा, उसकी जीवन-यापन हेतु सदा पुरुष पर निर्भर रहने की विवशता तथा उसके प्रति पुरुष वर्ग द्वारा किए जाते रहे अन्याय । स्वाभाविक रूप से, इन विधानों के निर्माण का एकमात्र प्रयोजन है स्त्री के प्रति न्याय ।
संसार की प्रत्येक
विषय-वस्तु के दो पक्ष होते हैं – पहला
यथार्थ जो कि विद्यमान है और दूसरा आदर्श जो कि होना चाहिए । नारी के संदर्भ में
भारतीय आदर्श तो यही होता कि 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास-रजत-नग-पगतल में, पीयूष
स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में' किन्तु जिस कटु एवं पीड़ादायक यथार्थ से
भारतीय महिलाएं सदा दो-चार होती रही हैं वह है 'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल
में है दूध और आँखों में पानी' । आधुनिक महिलाएं जब मध्ययुगीन इतिहास पढ़ती होंगी तो
उन्हें बात निश्चय ही चुभती होगी कि संपत्ति में भागीदारी तो दूर,
स्त्रियों को तो स्वयं ही पुरुषों की संपत्ति माना जाता था । आज भी हिन्दू विवाह-संस्कार
में कन्यादान की प्रथा सम्मिलित है जिसके मूल में यही धारणा
है ।
भारतीय आयकर विधान में करदाताओं
की एक श्रेणी रही है – हिन्दू अविभाजित परिवार जिसमें परिवार के ज्येष्ठतम पुरुष
सदस्य को कर्ता की प्रस्थिति प्राप्त होती है एवं वह विभिन्न वैधानिक व्यवस्थाओं
के अंतर्गत परिवार के कार्यकलापों के लिए उत्तरदायी माना जाता है । यह सामंतवादी
व्यवस्थाओं में पिता के देहांत के उपरांत पुत्र के राज्याभिषेक तथा उत्तर भारत के
हिन्दू परिवारों में अब भी होने वाली रस्म पगड़ी के लगभग समकक्ष ही है जिसमें
परिवार के सभी दायित्व (और स्वभावतः सभी अधिकार) पुत्र के ही होते हैं, पुत्री
के नहीं । हिन्दू अविभाजित परिवार से जुड़ी वैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत पैतृक
संपत्ति के विभाजन की मांग भी परिवार के पुरुष ही कर सकते हैं,
महिलाएं नहीं । अविवाहित कन्याओं की स्थिति तो और भी विकट रही है । पूर्व में लागू
व्यवस्थाओं के अधीन उन्हें तो पैतृक संपत्ति के विभाजन की स्थिति में किसी भी भाग
का अधिकारी ही नहीं माना जाता था और उनका अधिकार केवल भरण-पोषण तक ही सीमित माना
जाता था । विवाह के उपरांत वे अपने जन्म के परिवार की सदस्य भी नहीं रहती थीं और
उनकी सदस्यता उनके पति के परिवार में स्वतः ही स्थानांतरित हो जाती थी ।
भारतीय संपत्ति अधिनियम
तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत ये प्रत्यक्षतः अन्यायपूर्ण प्रावधान भारतीय
समाज में कन्या के अनिवार्यतः होने वाले विवाह तथा उसके विवाह में दिए जाने वाले
दहेज की प्रथा से जोड़कर देखे जाने पर इतने अधिक अन्यायपूर्ण प्रतीत नहीं होते ।
दहेज-प्रथा एक बहुत बड़ा सामाजिक अभिशाप है, इसमें
कोई संदेह नहीं । किन्तु जब यह आरंभ हुई होगी तो इसके पीछे एक उचित तर्क यही रहा
होगा कि माता-पिता अपनी धन-संपत्ति में पुत्री का भाग उसे दहेज के रूप में तब दे
दें जब वह वैवाहिक जीवन में प्रवेश करके उनके परिवार को छोड़कर अपने ससुराल जा रही
हो । इसे कानूनी भाषा में स्त्रीधन कहा जाता है जिस पर पूर्ण अधिकार संबंधित
स्त्री का ही होता है, उसके पति का नहीं ।
स्त्री का पति यदि दिवालिया घोषित हो जाए तो भी स्त्रीधन को कुर्क नहीं किया जा
सकता ।
किन्तु महिलाओं की स्थिति
शताब्दियों से शोचनीय ही रही है । उनके जीवन से जुड़े सभी निर्णय पुरुषों द्वारा ही
लिए जाते रहे तथा उन पर थोपे जाते रहे हैं । महिलाओं को उनके उचित अधिकार देने के
मामले में पुरुष वर्ग सदा से कृपण रहा है तथा कई सामाजिक प्रथाएँ उनके प्रति
अन्याय करने वाली ही नहीं,
अमानवीय भी रही हैं । अठारहवीं शताब्दी तक प्रचलित सती प्रथा के पीछे संभवतः विधवा
के परिजनों द्वारा उसकी संपत्ति हड़पने की मानसिकता ही थी । आज भी वृंदावन में
जैसे-तैसे अपना जीवन बिता रही विधवाओं की दयनीय स्थिति के मूल में भी यही बात है
कि उनके परिवार वाले उनके प्रति अपना कोई दायित्व नहीं मानते और पति के देहांत के
उपरांत ऐसी स्त्री उन्हें परिवार पर भार लगने लगती है ।
ऐसे में विधि-विधान तो
बनाए ही गए हैं, तथाकथित न्यायिक सक्रियता
के चलते न्यायालय भी वैधानिक व्यवस्थाओं से इतर ऐसे निर्णय सुना रहे हैं जो
महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देते हुए प्रतीत हों । न केवल तलाक़शुदा महिलाओं वरन
पुरुष के साथ बिना विवाह किए (लिव-इन) रहने वाली महिलाओं के हितों का भी ध्यान
रखने वाले निर्णय देखने में आए हैं । अब ऐसे निर्णय सार्वभौम रूप से कितने लागू
होते हैं, यह एक पृथक् बात है किन्तु
भारतीय न्यायाधीश अपने विवेक से ऐसे निर्णय संभवतः अपनी ओर से प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के अनुरूप ही दे रहे हैं । यदि भारतीय पुरुष वर्ग महिलाओं
के प्रति अपना दृष्टिकोण न्यायपूर्ण रखता तो ऐसे न्यायिक निर्णयों की नौबत ही न
आती ।
हिन्दू उत्तराधिकार
अधिनियम में वर्ष २००५ में किए गए संशोधन द्वारा विवाहित पुत्रियों का भी पैतृक
संपत्ति में अधिकार सुनिश्चित किया गया है । प्रश्न यह है कि क्या विवाहित स्त्री
पिता और पति दोनों ही की संपत्ति में दावा कर सकती है ? यदि
हाँ तो क्या यह न्यायपूर्ण है ?
पारंपरिक मानसिकता के अनुसार विवाह के उपरांत स्त्री अपने पति के घर की हो जाती है
तथा तदनुरूप उसका अधिकार अपने पति की संपत्ति में ही होना चाहिए । किन्तु यदि पति
शराबी हो, जुआरी हो,
दुराचारी हो तथा अपनी सम्पूर्ण संपत्ति को फूंक दे तो ऐसे में आश्रय के लिए क्या
पुत्री अपने माता-पिता की ओर न देखे जिनके यहाँ वह जन्मी है, जिनकी
गोद में खेलकर वह बड़ी हुई है ?
लेकिन क्या परिवार के भीतर
के स्त्री-पुरुष संबंधों की हर बात अर्थ से ही जुड़ी हुई रहेगी ? क्या
स्त्री-पुरुष केवल संपत्ति में भागीदारी से ही सरोकार रखेंगे ? क्या
भाई-बहिन का स्नेह, पति-पत्नी का अनुराग आदि
कोई मूल्य नहीं रखते ? क्या हम
यह चाहते हैं कि रक्षाबंधन के दिन बहिन अपने भाई की कलाई पर स्नेह का धागा बांधने
के स्थान पर पैतृक संपत्ति में भागीदारी को लेकर न्यायालय में उससे लड़े ? क्या
हम यह चाहते हैं कि जीवन-साथी एक नई संस्कारी पीढ़ी के निर्माण हेतु सौहार्द्र
पूर्वक संयुक्त प्रयत्न करने के स्थान पर संपत्ति के मामले को लेकर वर्षों तक
न्यायिक प्रक्रिया में फंसे रहें ? आख़िर हम
भविष्य में समाज को किस रूप में देखना चाहेंगे ? समाज
की धुरी है परिवार और परिवार की धुरी है महिला । महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय
का निराकरण हो और उन्हें अपना जायज़ हक़ मिले, इस बारे में कोई दो-राय नहीं हो सकती ।
किन्तु साथ ही यह भी तो सुनिश्चित हो कि स्त्री-पुरुष सौहार्द्र अक्षुण्ण रहे, परिवार
न टूटें, समाज न बिखरे ।
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अत्यंत सारगर्भित और सटीक आलेख
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार माथुर साहब ।
हटाएंबहुत सटीक एवं विचारणीय लेख...
जवाब देंहटाएंआज बहुतायत ऐसे मुद्दे सुनने में आ रहे हैं लड़कियां मायके से हक माँग रही हैं तो भाई बहिनों का आपसी सौहार्द खत्म हो रहा है ।
हार्दिक आभार सुधा जी । आप ठीक कह रही हैं ।
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