बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

प्यार ही नहीं, काम भी पूजा है

आज के इस स्वार्थपूर्ण युग में जब प्यार को भी एक वक़्ती सहूलियत मानने वाले बहुतेरे हैं, मुझ जैसे लोगों की प्रजाति अभी समाप्त नहीं हुई है जो सच्चे प्यार में विश्वास रखते हैं और प्यार को ईश्वर की आराधना से कम नहीं समझते । मैं तो इसी बहुत पुराने फ़िल्मी गीत के बोलों में यकीन रखता हूँ - 'दिल एक मंदिर है, प्यार की जिसमें होती है पूजा, ये प्रीतम का घर है' । लेकिन प्यार के साथ-साथ व्यक्ति का काम भी तो पूजा से कम नहीं जिसे ईश्वर की आराधना जैसी ही निष्ठा के साथ किया जाना चाहिए । उसके निर्वहन में लापरवाही अथवा आलस्य क्यों किया जाए ? कर्तव्य-पालन में कामचोरी कैसी और किसलिए ? 

कई बार स्त्री-पुरुष (विशेषतः युवा) अपने प्रियतम के प्रेम में कुछ इस प्रकार आकंठ डूब जाते हैं कि वे अपने जीवन के कर्म से नयन चुराने लगते हैं । मैं यह बात पुरुषों के संदर्भ में कह रहा हूँ जो अपनी प्रेमिका अथवा नवविवाहिता पत्नी के प्रेम में कुछ ऐसे निमग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने कर्तव्य एवं जीवन की अन्य प्राथमिकताओं का भान ही नहीं रहता । काम में लापरवाही आने लगती है और अपने लक्ष्य से उनका ध्यान भटक जाता है । इसमें दोष प्रायः उनकी प्रेयसी अथवा पत्नी का नहीं, स्वयं उन्हीं का होता है । वे ही भूल बैठते हैं कि ज़िन्दगी सिर्फ़ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है, ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है  

राजेन्द्र कुमार और वैजयंतीमाला अभिनीत पुरानी फ़िल्म 'साथी' (१९६८) में इस सत्य का निरूपण बड़े अच्छे ढंग से किया गया था । फ़िल्म के नायक-नायिका चिकित्सा के क्षेत्र में हैं लेकिन प्रेम-विवाह करने के उपरांत अपनी प्रणय-लीला में वे अपने कर्तव्य एवं जीवन के लक्ष्य को भुला बैठते हैं । जब उनके गुरु एवं पिता समान वरिष्ठ चिकित्सक (तथा वैज्ञानिक) जो उनकी सहायता से कैंसर का उपचार ढूंढने में जुटे थे, उन्हें लताड़ते हैं तब उनकी आँखें खुलती हैं और उन्हें अपनी भूल का एहसास होता है । 

अपने इस लेख में मैं एक ऐसे हिंदी उपन्यास की समीक्षा कर रहा हूँ जिसकी विषय-वस्तु यही है । इस अनूठी रहस्य-कथा की विशेषता यही है कि इसमें कोई अपराधी ही नहीं है । रहस्य आरंभ से अंत तक बना रहता है लेकिन अंत में उपन्यास के मुख्य पात्रों में से कोई खलनायक (अथवा खलनायिका) नहीं निकलता है । उपन्यास का कथानक इसी महत्वपूर्ण किन्तु प्रायः अनकहे सत्य को रेखांकित करता है जिसका निरूपण इस आलेख के प्रारंभिक दो अनुच्छेदों में किया गया है । स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा द्वारा रचित इस हिंदी उपन्यास का शीर्षक है - 'कानून का पंडित' जो प्रथम बार लगभग साढ़े तीन दशक पूर्व प्रकाशित हुआ था ।

लेखक ने कथानक की प्रेरणा संभवतः दो अप्रैल उन्नीस सौ चौरासी को स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा के प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनने की ऐतिहासिक घटना से ली थी जब राकेश अपने साथी रूसी अंतरिक्ष यात्रियों के साथ रूसी अंतरिक्ष यान सोयूज टी-११ में सवार होकर अंतरिक्ष में गए थे एवं एक सप्ताह तक वहाँ रहे थे । इस महत्वपूर्ण अभियान के लिए सर्वप्रथम भारतीय वायु सेना के बीस पायलटों को चिन्हित किया गया था जिनमें से चार को रूस भेजा गया तथा अंत में दो को आवश्यक प्रशिक्षण के लिए चुना गया । ये दो थे - विंग कमांडर रवीश मल्होत्रा तथा स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा । जाना अंतरिक्ष में इनमें से एक को ही था लेकिन रूस में दो वर्ष का कठोर प्रशिक्षण इन दोनों को दिया गया । अंततः राकेश शर्मा अंतरिक्ष में भेजे जाने के लिए चुने गए जबकि रवीश मल्होत्रा पूर्तिकर (बैकअप) के रूप में रखे गए । राकेश व्योम-पुत्र बनकर अंतरिक्ष में गए एवं भारतीय विज्ञान के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ा । 

'कानून का पंडित' की कहानी भारत के मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉक्टर रामन्ना बाली के परिवार से आरंभ होती है जिनकी धर्मपत्नी का देहावसान हो चुका है तथा उनका युवा पुत्र सिद्धार्थ भी एक अत्यंत प्रतिभाशाली वैज्ञानिक है । उसका मित्र एवं साथी वैज्ञानिक है आलोक जिसे रामन्ना बाली अपने पुत्र की ही भाँति मानते एवं स्नेह करते हैं । सिद्धार्थ एवं आलोक दोनों को ही भारतीय अंतरिक्ष अभियान के लिए चुना जाता है एवं उन्हें कठोर प्रशिक्षण दिया जाना सुनिश्चित होता है किन्तु अंततोगत्वा अंतरिक्ष में जाना इन दोनों में से एक को ही है । सिद्धार्थ एक निर्धन एवं दोषपूर्ण परिवार से आई परन्तु रूप-सौंदर्य में अनुपम युवती पूनम से विवाह कर लेता है । विवाहोपरांत वह अपनी नवविवाहिता पत्नी के प्रेम में कुछ इस प्रकार खो जाता है कि उसे उसके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अथवा कार्य दिखाई ही नहीं देता । वह उससे एक दिन भी दूर नहीं रह पाता एवं अंतरिक्ष अभियान के लिए दिए जाने वाले प्रशिक्षण के प्रति भी अरूचि दर्शाने लगता है । उसकी यह दशा उसकी प्रगति से ईर्ष्या करने वाले अन्य युवा वैज्ञानिकों के लिए प्रसन्नता का स्रोत बन जाती है । 

कथानक में मुख्य मोड़ तब आता है जब एक दिन सिद्धार्थ को एक वैज्ञानिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए नगर से बाहर जाना पड़ता है तथा उसकी अनुपस्थिति में ललित नाम का एक व्यक्ति उसके घर में घुसकर पूनम को अपनी पत्नी बताने लगता है । पहले तो पूनम उसे झूठा बताती है और पुलिस भी बुला लेती है लेकिन अगले ही दिन उसका व्यवहार ठीक विपरीत हो जाता है एवं वह यह कहने लगती है कि ललित ही उसका पति है तथा उसने सिद्धार्थ को धोखा दिया था । पुलिस भी भ्रमित हो जाती है क्योंकि ललित अपने और पूनम के विवाह के ठोस प्रमाण प्रस्तुत करता है । 

सिद्धार्थ लौटता है तो इन सब बातों को जानकर भौंचक्का रह जाता है । उसके भावुक मन पर मानो बिजली गिरती है । वह क्रोध में अपना आपा खो बैठता है एवं उसके सच्चे प्रेम के बदले उसे धोखा देने वाली पूनम को मार डालने तथा स्वयं उस अपराध में फाँसी चढ़ने को तत्पर हो जाता है । उसकी इस स्थिति को देखकर उससे कुढ़ने तथा जलने वाले वैज्ञानिक यह सोचकर उत्साहित हो जाते हैं कि अब ये तो क्या अंतरिक्ष में जाएगा, इसके मार्ग से हट जाने से हमारे लिए भी अवसर निकल सकता है । लेकिन सिद्धार्थ के अवसर गंवाने पर अंतरिक्ष में जाने के सर्वाधिक अवसर आलोक के हैं जिसे रामन्ना बाली का भी समर्थन प्राप्त है । 

लेकिन रामन्ना बाली अपने टूटे-बिखरे पुत्र सिद्धार्थ को भी यह समझाते हैं कि उसकी यह पागलपन जैसी स्थिति ही उसके शत्रुओं का अभीष्ट था जिन्होंने यह सारा षड्यंत्र रचा है एवं इस प्रकार अपना जीवन नष्ट करना शत्रुओं के हाथों में खेलने के समान ही होगा । शत्रुओं को मुँहतोड़ जवाब देना है तो उसे इस झमेले से बाहर निकलकर अपने कर्तव्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए तथा अंतरिक्ष अभियान के लिए जी जान से जुट जाना चाहिए । बात सिद्धार्थ के दिमाग़ में घुस जाती है जिसके बाद वह इन सभी घटनाओं से अपना मन विलग करके अंतरिक्ष अभियान के लिए पूरे मनोयोग से आलोक के साथ-साथ प्रशिक्षण प्राप्त करता है एवं अंततः उसी को भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में चुना जाता है । जिस समय वह यान में बैठकर अंतरिक्ष में भ्रमण कर रहा होता है, उसी समय एक भारतीय न्यायालय में चल रहे एक असाधारण मुक़दमे में कथानक के रहस्य का खुलासा होता है । 

रहस्यकथाएं अपराध पर आधारित होती हैं एवं प्रायः एक जैसे ही ढर्रे पर चलती हैं लेकिन वेद प्रकाश शर्मा ने इस उपन्यास के रूप में एक पूर्णरूपेण भिन्न शैली के कथानक की रचना की जो प्रेरणास्पद भी है एवं रोचक तो है ही । उपन्यास के शीर्षक का इसके कथानक से कोई विशेष संबंध नहीं है सिवाय इस बात के कि कहानी का एक पात्र स्वयं को 'कानून का पंडित' कहता है एवं उसके कार्यकलापों से संबंधित एक अत्यन्त रोचक प्रसंग भी उपन्यास में डाला गया है (जो मूल कथानक से जुड़ा हुआ नहीं है) । अत्यंत सरल हिंदी में लिखा गया यह उपन्यास आदि से अंत तक पाठक को बाँधे रखता है । लेखक ने विभिन्न चरित्रों को अपने आप उभरने एवं कथानक पर अपनी छाप छोड़ने का अवसर दिया है । उपन्यास में बेशक़ कुछ कमियां हैं लेकिन ख़ूबियां इतनी अधिक हैं कि वे कमियों पर भारी पड़ती हैं । 

मेरी आयु-वर्ग के के लोगों को स्मरण होगा कि जब हम प्राथमिक एवं उच्च-प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ते थे तो हमारे पाठ्यक्रम में सम्मिलित प्रत्येक कथा के अंत में कोई-न-कोई शिक्षा (मोरल ऑव द स्टोरी) हुआ करती थी । यह उपन्यास भी एक ऐसी ही कहानी कहता है । सभी हिंदी-प्रेमियों को इस उपन्यास को पढ़ने की सलाह देते हुए मैं यही कहना चाहूंगा कि इस कहानी के माध्यम से जो शिक्षा लेखक ने दी है, उसे हम जीवन में उतारें तथा अपने कर्म को भगवान की पूजा की ही मानिंद निष्ठा एवं समर्पण के साथ सम्पादित करें । यह सच है कि प्यार के बिना ज़िन्दगी अधूरी है और प्यार ही इंसान को जीने और आगे बढ़ने की ताक़त देता है लेकिन इसके साथ ही यह भी तो सच है कि और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा  

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13 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (31 जनवरी, 2020) पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :

    Neeraj KumarJanuary 31, 2020 at 3:14 AM
    रोचक प्रस्तुति जितेंद्र जी!

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 31, 2020 at 6:47 PM
    आभार नीरज जी ।

    Jyoti DehliwalJanuary 31, 2020 at 6:39 AM
    जितेंद्र भाई, प्यार के बिना ज़िन्दगी अधूरी है लेकिन प्यार के अलावा भी जिंदगी रहती हैं। बहुत खूब।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरJanuary 31, 2020 at 6:48 PM
    आभार ज्योति जी ।

    रेणुJune 13, 2020 at 3:30 AM
    वाह!!! 👌👌👌👌

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    जितेन्द्र माथुरJune 14, 2020 at 3:34 AM
    आभार रेणु जी ।

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  2. सही कहा सर! कर्म ही सच्चा प्रेम और पूजा है क्योंकि इसी से जीवन की हर राह पर हम चलने लायक हो पाते हैं।

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  3. प्यार के बिना ज़िन्दगी अधूरी है और प्यार ही इंसान को जीने और आगे बढ़ने की ताक़त देता है लेकिन इसके साथ ही यह भी तो सच है कि और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
    बिल्कुल सही है, जितेंद्र भाई।

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  4. बहुत सुन्दर और रोचक समीक्षात्मक लेख ।

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  5. मैंने उपन्यास तो नहीं पढ़ा पर समालोचना पढने में बहुत आनन्द आया |बहुत ही रोचक और अच्छा संदेश देने वाली समीक्षा की है आपने |

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  6. निसंदेह कर्म ही पूजा है..अपने विभिन्न तर्क एवं उदाहरणों द्वारा अच्छी विवेचना की है..सादर

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