बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

रहस्य-रोमांच और भावनाओं के चितेरे को श्रद्धांजलि

(मूल रूप से यह लेख 17 फ़रवरी, 2017 को वेद प्रकाश शर्मा के दिवंगत होने के कुछ दिन पश्चात 12 मार्च,  2017 को प्रकाशित हुआ था) 

जब पता चला कि हिन्दी उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा नहीं रहे तो मन में कहीं एक हूक-सी उठी और शीश एक बार पुनः नियति की शक्ति के सम्मुख नत हो गया । तीन दिसंबर, २०१६ को एक विवाह समारोह में अपने मेरठ स्थित संबंधियों से मैंने कहा था कि मैं अपने प्रिय लेखक वेदप्रकाश शर्मा से भेंट करने की वर्षों पुरानी कामना पूर्ण करने के लिए अतिशीघ्र ही मेरठ आना चाहता था । और बमुश्किल ढाई माह बाद ही समाचारपत्र में पढ़ा कि १७ फ़रवरी, २०१७ को वेद जी नहीं रहे । अब उनसे मिलने की चाह तो अधूरी ही रहेगी लेकिन उनके निधन के उपरांत उनके कृतित्व पर छिड़ी चर्चाओं की धूल बैठ जाने के उपरांत मैं उनसे जुड़ी अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा हूँ ।

एक समय में लुगदी साहित्य के नाम से जाने जाने वाले अल्पमोली उपन्यासों के संसार के सिरमौर रहे वेदप्रकाश शर्मा मुख्यतः एक रहस्य-रोमांच पर आधारित कथाओं के लेखक के रूप में पहचाने गए और उसी रूप में उन्हें कामयाबी और शोहरत नसीब हुई लेकिन उनकी लेखनी सामाजिक विडंबनाओं तथा देशप्रेम से भी जुड़ी रही । संभवतः अपने लेखन के प्रारम्भिक वर्षों में कई सामाजिक उपन्यास भी लिखने के कारण ऐसा रहा । बहरहाल कारण चाहे जो भी रहा हो, वेदप्रकाश शर्मा ने तीन दशक से अधिक समय तक पाठकों को ऐसे मनोरंजक कथानक परोसे जिनका मूल तत्व तो रहस्य-रोमांच था किन्तु कथ्य में सामाजिकता की भी छाप थी । यद्यपि उनके कई उपन्यास स्पष्टतः विदेशी कथानकों से प्रेरित थे लेकिन उन्होंने उन्हें भारतीय परिवेश एवं परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया । उदारीकरण का युग आने से पूर्व भारतीय युवा देशप्रेम और जीवन के आदर्शों से भी ओतप्रोत रहते थे तथा अस्त्र-शस्त्रों की सहायता से देश की स्वतंत्रता के लिए रक्तिम संघर्ष करने वाले बलिदानी क्रांतिकारियों की जीवन-गाथाएं उन्हें आकर्षित करती थीं । वेदप्रकाश शर्मा ने ठेठ भारतीय हिन्दी पाठक समुदाय की इस नब्ज़ को बाख़ूबी पकड़ा और देशप्रेम की चाशनी में डूबे रहस्य-रोमांच से भरपूर कई उपन्यास लिखे जिनमें खलनायक स्वाभाविक रूप से भारत को दास बनाकर बैठे अंग्रेज़ी शासक ही होते थे । जहाँ ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ नामक उपन्यास में उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर की कल्पित कथा प्रस्तुत की वहीं अपने आदर्श सुभाषचंद्र बोस को ही एक पात्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने ‘वतन की कसम’, ‘ख़ून दो आज़ादी लो’, ‘बिच्छू’, ‘जयहिंद’ और ‘वन्देमातरम’ जैसे उपन्यास रचे जो रोचक भी थे और प्रेरक भी । सुभाष बाबू के जीवन-चरित से वे बहुत अधिक प्रभावित थे, यह बात उनके इन उपन्यासों में स्पष्टतः परिलक्षित होती है । विकास, केशव पंडित और विभा जिंदल जैसे अत्यंत लोकप्रिय पात्रों को सृजित करने वाले भी वे रहे जिनके कारनामों के माध्यम से उन्होंने आम जनता को अपने उपन्यासों से जोड़ा और जनसामान्य की दमित भावनाओं को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्ति दी । अस्सी के दशक में हिन्दी के ऐसे असंख्य पाठक थे जो मेरठ वाले वेदप्रकाश शर्मा के अतिरिक्त (पॉकेट बुक लिखने वाले) किसी अन्य हिन्दी लेखक के उपन्यास पढ़ना पसंद नहीं करते थे । उनके लेखन का वह स्वर्णकाल था जब अपनी लेखनी के माध्यम से वे विशाल हिन्दी-भाषी समुदाय के मानस में घुसपैठ कर बैठे थे ।

वेदप्रकाश शर्मा ने अपनी विभा जिंदल सीरीज़ के उपन्यासों में स्वयं को तथा अपने परिवार के सदस्यों को भी पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया । मुझे उनकी यह बात बहुत पसंद आई कि ऐसे प्रत्येक उपन्यास के पात्र के रूप में पाठकों के समक्ष वे एक सामान्य व्यक्ति बनकर ही आए, कोई असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्ति या अतिमानव बनकर नहीं । इन उपन्यासों में उनकी अर्द्धांगिनी मधु भी चित्रित हुईं । वेदप्रकाश शर्मा उन भाग्यशाली लोगों में से एक रहे जिनके प्रेम को विवाह का गंतव्य प्राप्त हुआ । उनकी प्रेयसी मधु ही अंततः उनके जीवन में पत्नी बनकर आईं एवं उनके लिए प्रेरणा एवं शक्ति की अजस्र धारा बनकर सदा उनके जीवन-क्षेत्र में बहती रहीं । पहले एक उपन्यासकार, तदोपरांत एक प्रकाशक एवं तदोपरांत एक फ़िल्मी लेखक जैसे सभी रूपों में वेदप्रकाश शर्मा के मनोबल को मधु ने एक सच्ची जीवन-संगिनी होने का प्रमाण देते हुए सदा ऊंचा उठाए रखा एवं उनके उत्तरोत्तर सफलता के पथ पर अग्रसर होने में महती भूमिका निभाई । एक लेखक के रूप में वेदप्रकाश शर्मा को जिस मानसिक शांति की आवश्यकता थी, वह उन्हें मधु के द्वारा सदा उपलब्ध रही । इस तथ्य को उन्होंने कुछ उपन्यासों में जोड़े गए अपने आत्म-कथ्य में रेखांकित किया है । प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री होती है । अपने आरंभिक जीवन में आर्थिक कठिनाइयों से जूझने वाले तथा अत्यंत संघर्ष करने के उपरांत ही सफलता के लक्ष्य को प्राप्त करने वाले वेदप्रकाश शर्मा के अपने आत्म-कथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी माताजी के अतिरिक्त उनकी अर्द्धांगिनी मधु ही वह स्त्री रहीं जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी कभी उनके मनोबल को टूटने नहीं दिया ।

वेदप्रकाश शर्मा का व्यावसायिक दृष्टि से सर्वाधिक सफल एवं बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ को माना जाता है जो कहने को तो पुलिस विभाग के भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करता था लेकिन जो वस्तुतः श्रीपेरुंबूदुर में श्रीलंका के लिट्टे संगठन द्वारा स्वर्गीय राजीव गाँधी की हत्या के विषय पर आधारित था । ‘वर्दी वाला गुंडा’ के भरपूर प्रचार पर वेदप्रकाश शर्मा ने जो व्यय किया होगा उसकी उन्होंने पाठकों से भरपूर वसूली की । १९९२ में प्रकाशित इस उपन्यास की सफलता को वे अपने सम्पूर्ण जीवनपर्यंत भुनाते रहे तथा प्रथम संस्करण के उपरांत उसके सभी संस्करण उसे दो भागों में बांटकर प्रकाशित किए गए और इस प्रकार पाठकों की ज़ेब से दोहरा मूल्य खींचकर दोगुना लाभ कमाया गया । उपन्यास की लोकप्रियता के शोर में किसी का भी ध्यान इस बात पर नहीं गया  कि जिस उपन्यास का वर्षों से प्रचार किया जा रहा था, वह वस्तुतः राजीव गाँधी की हत्या के उपरांत आनन-फानन लिखा गया था । मेरा अपना विचार यह है कि ‘वर्दी वाला गुंडा’ वस्तुतः ‘नाम का हिटलर’ नामक वही उपन्यास था जो वेदप्रकाश शर्मा वर्षों पूर्व ‘मनोज पॉकेट बुक्स’ नामक प्रकाशन संस्था के लिए लिखने वाले थे लेकिन उससे अपने व्यावसायिक संबंध टूट जाने के कारण उन्होंने उसी कथानक को ‘तुलसी पब्लिकेशन्स’ के नाम से आरंभ किए गए अपने ही प्रकाशन संस्थान हेतु रचित ‘वर्दी वाला गुंडा’ में प्रस्तुत कर दिया तथा पूर्व-प्रधानमंत्री की हत्या को भुनाने के लिए वास्तविक लेखन के समय कथानक में उसी घटना को कुछ ऐसे पिरो दिया कि पढ़ने वाले भांप ही नहीं सके कि इस बहुप्रचारित उपन्यास का मूल कथानक कुछ और रहा होगा ।

वेदप्रकाश शर्मा अपने समकालीन गुप्तचरी उपन्यासकारों से इस रूप में भिन्न रहे कि उन्होंने सामाजिक तथा देशप्रेम की पृष्ठभूमि वाले अपने अनेक उपन्यासों में नारी पात्रों को न केवल यथेष्ट सम्मान दिया वरन उन्हें महिमामंडित करने की सीमा तक जा पहुँचे । सत्तर, अस्सी एवं नब्बे के दशक में जासूसी उपन्यासों को महिला पाठकों द्वारा प्रायः नापसंद किए जाने का प्रमुख कारण ही यही था कि ऐसे उपन्यासों में (जो कि अधिकांशतः विदेशी कथानकों पर आधारित होते थे) नारी पात्रों को उपभोग की वस्तु के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता था एवं उनका चरित्रांकन अपमानजनक ढंग से किया जाता था । वेदप्रकाश शर्मा ने इस अवांछित परंपरा को तोड़ा और इसीलिए उनके उपन्यास महिलाओं में भी उतने ही लोकप्रिय हुए जितने कि वे पुरुष वर्ग में थे । गुप्तचरी उपन्यास लिखने वाले वेदप्रकाश शर्मा भावनाओं के भी कुशल चितेरे थे और अपने इस कौशल का उपयोग उन्होंने अपने कई उपन्यासों में नारी पात्रों तथा मानवीय सम्बन्धों से जुड़े विभिन्न प्रसंगों में किया । ऐसे कई प्रसंग संवेदनशील पाठकों को भावुक कर देने ही नहीं, रुला देने के लिए भी पर्याप्त रहे ।

लेकिन जिस तथ्य ने वेदप्रकाश शर्मा की अन्य उपन्यासकारों से इतर, और बेहतर, छवि गढ़ी; वह यह था कि उन्होंने अपने उपन्यासों के कथानकों में न केवल नवीनता उत्पन्न की और विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलाई वरन सम-सामयिक समस्याओं एवं घटनाओं को भी अपने उपन्यासों के माध्यम से छुआ । नस्लभेद से उपजी आतंकवाद की समस्या पर उन्होंने ‘माँग में अंगारे’ नामक प्रेरक उपन्यास लिखा तो मादक पदार्थों की समस्या पर ‘जुर्म की माँ’ और ‘कुबड़ा’ नामक दो भागों में बंटा एक अत्यंत प्रभावशाली वृहत् कथानक प्रस्तुत किया । लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान भारतीय समाज में व्याप्त दहेज रूपी कुरीति के संदर्भ में रहा जिसे केंद्र में रखकर उन्होंने तीन भिन्न कथानक रचे जिनमें से प्रत्येक में उन्होंने समस्या का एक भिन्न आयाम प्रस्तुत किया । अस्सी के दशक में दहेज के लिए प्रताड़ित की जाने वाली (एवं जला डाली जाने वाली) बहुओं की कहानियाँ समाचारपत्रों की आए दिन की सुर्ख़ियाँ हुआ करती थीं । ऐसी ही एक बहू और उसके ससुराल की हौलनाक गाथा वेदप्रकाश शर्मा ने लिखी ‘बहू मांगे इंसाफ़’ में । यह उपन्यास न केवल अत्यंत लोकप्रिय हुआ वरन इसके आधार पर ‘बहू की आवाज़’ (१९८५) नामक फ़िल्म भी बनाई गई । लेकिन कुछ काल के उपरांत वेदप्रकाश शर्मा ने ‘दुल्हन मांगे दहेज’ नामक उपन्यास में समस्या का दूसरा पहलू भी पेश किया जो कि दहेज निरोधक अधिनियम के दुरुपयोग तथा बहू के निर्दोष ससुराल वालों को दहेज लेने के नाम पर प्रताड़ित किए जाने को दर्शाता था । कई वर्षों के उपरांत वेदप्रकाश शर्मा ने समस्या को पुनः एक भिन्न कोण से देखते हुए ‘दहेज में रिवॉल्वर’ तथा ‘जादू भरा जाल’ शीर्षकों से दो भागों में एक वृहत् कथानक प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने उस युवती की भावनाओं और मानसिकता को उजागर किया जिसके माता-पिता उसके सुखी वैवाहिक जीवन हेतु दहेज जुटाने के लिए स्वयं कंगाल और अधमरे होकर भी दहेज-लोलुप लड़के वालों का सुरसा जैसा पेट भरते रहे हों ।

वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यासों पर ‘बहू की आवाज़’ (१९८५), ‘अनाम’ (१९९२), ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ (१९९५) तथा ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’ (१९९९) जैसी फ़िल्में बनीं । अंतिम दो फ़िल्मों की पटकथा एवं संवाद भी उन्होंने ही लिखे लेकिन ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ को छोड़कर कोई भी फ़िल्म व्यावसायिक दृष्टि से सफल नहीं रही  । उनके द्वारा सृजित केशव पंडित नामक पात्र के कारनामों पर आधारित टी.वी. धारावाहिक का निर्माण भी एकता कपूर द्वारा किया गया जिसकी कड़ियों का लेखन वे स्वयं करते थे । वह भी विशेष सफल नहीं रहा । फ़िल्मी दुनिया में अपना कोई मुकाम बनाने की उनकी कोशिशों ने उनके लेखन पर विपरीत प्रभाव डाला । साथ ही वे शनैः-शनैः मनी-माइंडेड होकर लेखन की गुणवत्ता से अधिक उसके चतुराईपूर्ण विपणन एवं पाठकों से अधिक-से-अधिक वसूली करने में रुचि लेने लगे । अधिकाधिक धन कमाने की धुन में ही वेदप्रकाश शर्मा ने ऊंचे मूल्य वाले तथाकथित विशेषांकों की परंपरा डाली थी जिससे लुगदी उपन्यासों की कीमतें एकदम से बढ़कर आसमान छूने लगीं और केबल टी.वी. तथा इंटरनेट से स्पर्धा हो जाने के बाद उनका बाज़ार धीरे-धीरे घटते हुए अंततः बहुत कम हो गया । लेकिन धन कमाने के अंधे जुनून में फंस चुके वेदप्रकाश शर्मा दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ नहीं सके । जिस तरह भारतीय सिनेमा के शोमैन राज कपूर ने अपनी लंबी फ़िल्म ‘संगम’ (१९६४) की सफलता से भ्रमित होकर उससे भी अधिक लंबी फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ (१९७०) बना डाली थी और उसका दुष्परिणाम घोर व्यावसायिक असफलता के रूप में भुगता था, उसी तरह ‘वर्दी वाला गुंडा’ की सफलता से भ्रमित होकर वेदप्रकाश शर्मा ने भी ‘वो साला खद्दरवाला’ नामक उपन्यास को भारी तामझाम एवं अतिप्रचार के साथ सामान्य मूल्य से ढाई गुने मूल्य पर निकाला जिसका वही हश्र हुआ जो राज कपूर के लिए ‘मेरा नाम जोकर’ का हुआ था । और वहीं से अब तक शिखर पर बैठे वेदप्रकाश शर्मा का पतन आरंभ हुआ । और एक बार शुरू हुई फिसलन कभी थमी नहीं । सत्तर के दशक में हुए उनके अभूतपूर्व उत्थान की भाँति ही नव सहस्राब्दी में हुआ उनका पतन भी उतना ही आश्चर्यचकित कर देने वाला रहा जिसके लिए वे स्वयं ही उत्तरदायी थे ।

लेकिन इस व्यवसाय के और उनकी प्रतिष्ठा के ताबूत में सबसे शक्तिशाली कील तब पड़ी जब धन कमाने की धुन में वे ऐसी दुराशा में पड़े कि अपनी क़लम के साथ ही बेईमानी कर बैठे । इक्कीसवीं सदी में उनके नाम से प्रकाशित कई उपन्यासों पर उनकी हलकी गुणवत्ता एवं भिन्न लेखन-शैली के कारण इस संदेह के लिए पर्याप्त आधार उपस्थित है कि वे उन्होंने किसी और से लिखवाकर अपने नाम से प्रकाशित कर दिए थे (जबकि वे अकसर कहते रहते थे कि उनके लेखन काल के प्रारम्भिक वर्षों में उनके कई उपन्यास दूसरों के नामों से प्रकाशित हुए थे और १९९० में उन्होंने ‘मनोज पॉकेट बुक्स’ पर अपने नाम से नक़ली उपन्यास छापने का मुक़द्दमा भी किया था) । इसके अतिरिक्त उनके कई उपन्यास उनके अपने ही पुराने उपन्यासों के टुकड़े जोड़कर बनाए गए निकले । अपने पाठकों को सदा ‘मेरे प्रेरक पाठकों’ कहने वाले वेदप्रकाश शर्मा द्वारा अपने उन्हीं प्रशंसकों के साथ किया गया यह छल उनकी साख को ले डूबा । २०१० तक तो यह हाल हो गया था किसी समय बुक स्टाल पर आते ही बिक जाने वाले वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यासों को खरीदने वाले अब ढूंढे नहीं मिलते थे । महीनों-महीनों उनके नये उपन्यासों की प्रतीक्षा करने वाले अब उनके नये उपन्यासों को देखते ही बिदकने लगे थे । इसके अतिरिक्त उनकी पुरानी प्रतिष्ठा को अधिक-से-अधिक निचोड़ने के लिए उनके पुराने लोकप्रिय उपन्यासों को ब्लैकमेलिंग जैसी ऊंची कीमत पर बेचकर की जाने वाली मुनाफ़ाख़ोरी ने भी उनकी प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचाया । सारांश यह कि जब लेखन-कर्म प्रधान था तो वे शिखर पर थे, जब धन प्रधान हो गया तो वे रसातल में जा पहुँचे । इस प्रकार जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय एक लेखक के रूप में उनका सूर्यास्त हो गया ।

तथापि यह एक अटल सत्य है कि सत्तर के दशक के अंत से लेकर नब्बे के दशक के अंत तक वेदप्रकाश शर्मा ने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी । लुगदी साहित्य के नाम से पुकारे जाने वाले उनके लेखन कर्म की लोकप्रियता को ही नहीं, हिन्दी पठन-पाठन के क्षेत्र में उनके योगदान को भी तथाकथित उत्कृष्ट साहित्य से जुड़े लोग नकार नहीं सकते । गुलशन नन्दा के उपरांत यदि किसी हिन्दी उपन्यासकार ने उपन्यास-लेखन के माध्यम से समृद्धि अर्जित की तो वे वेदप्रकाश शर्मा ही रहे । वे अब स्मृति-शेष हैं और आकस्मिक देहावसान की पृष्ठभूमि में उनका पर्याप्त महिमामंडन हो चुकने के उपरांत अब उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वस्तुपरक आकलन वर्षों तक चलता रहेगा । राष्ट्रभाषा हिन्दी  के प्रसार तथा लोगों को हिन्दी पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने की दिशा में उनका योगदान अनमोल है । इस असाधारण हिन्दी उपन्यासकार को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।

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9 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की प्रतिक्रियाएं :

    विकास नैनवालMarch 13, 2017 at 5:51 AM
    सटीक आँकलन.

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 13, 2017 at 2:33 PM
    हार्दिक आभार विकास जी ।

    Ramakant MishraMarch 13, 2017 at 11:32 PM
    प्रिय बंधु,
    आपका आलेख जानकारियों का खजाना है। इसे पढ़ कर बहुत कुछ सीख भी प्राप्त होती है। तथापि, मुझे आभास है कि आप के पास ऐसी और भी जानकारियां हैं जो कि दिवंगत आत्मा के अवदान पर और प्रकाश डाल सकेंगी।
    अतः आपसे अनुरोध है कि यदि आपके व्यस्त कार्यक्रम में संभव हो तो इस आलेख का एक भाग और लिखने की कृपा करें।
    सादर।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 14, 2017 at 2:35 AM
    हार्दिक आभार आदरणीय रमाकांत जी । मैंने पहले ही दिवंगत आत्मा के लिए बहुत कुछ आलोचनात्मक लिख दिया है जिसकी पीड़ा मैं अपने अन्तर्मन में अनुभव कर रहा हूँ । यद्यपि लिखने को और भी है तथापि मैं कोई नया लेख लिखने के स्थान पर इसी लेख में कुछ अतिरिक्त तथ्य जोड़ने का प्रयास करूंगा ।

    Ramakant MishraMarch 15, 2017 at 10:52 PM
    निश्चय ही आपके पास जानकारी का खजाना भी है और विवेचक की संतुलित दृष्टि भी। आपके आलेख / परिवर्धन की प्रतीक्षा है।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 16, 2017 at 12:44 AM
    द्वितीन एवं तृतीय परिच्छेद को पुनः देखें आदरणीय रमाकांत जी । आपको मूल आलेख में संवर्धन मिलेगा ।

    Jyoti DehliwalMarch 16, 2017 at 8:51 AM
    वेदप्रकाश शर्मा के बारे में बहुत ही तथ्यात्मक, निरपेक्ष भाव से सही विश्लेषण किया है आपने।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 16, 2017 at 8:19 PM
    हार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी ।

    राकेश कुमार श्रीवास्तव राहीMarch 16, 2017 at 10:35 PM
    शोधपूर्ण आलेख माथुर जी।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 16, 2017 at 10:50 PM
    हार्दिक आभार राकेश जी ।

    Sudha DevraniMarch 23, 2017 at 10:50 AM
    महान उपन्यासकार श्री वेदप्रकाश शर्मा जी को श्रद्धांजलि स्वरूप बहुत ही सुन्दर विश्लेषणात्मक शोधपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया है आपने ..

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 26, 2017 at 1:59 AM
    हार्दिक आभार आदरणीया सुधा जी ।

    Digamber NaswaMarch 28, 2017 at 7:22 AM
    बहुत अच्छा संकलन है ..। सदाभार है उनका लेखन ... नमन वेद प्रकाश जी को ..।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 28, 2017 at 7:27 AM
    हार्दिक आभार आदरणीय दिगम्बर जी ।

    kanwalApril 5, 2017 at 8:09 PM
    Dear JM Sir,

    This morning this was the very first thing which i did.

    Reading this article was a treat for me. I am so unfortunate that i have not been into VPS style of writing but then there is no doubt that he was the leader of his trade for most of his career spawned in around three decades.

    Though once he established himself in bollywood it was the loss of Pocket Book Trade. Some other interesting aspects which very few people know, or they fail to recall are -

    1. VPS was the first author who was published in white paper and that too in early 90's itself. Though that experiment failed miserably at that time, today it is general perception that a pulp fiction should be printed on white paper.

    This was his vision.
    He was the only one who understood that the future lies in white paper ONLY.

    2. The first author who was published on a real 'Pocket Size' Pocket book. This was again a miserable experiment and reached its failure but then only VPS could have taken that kind of risks.

    3. After Gulshan Nanda, he was the first from this trade to establish himself as an script writer in bollywood.

    4. Only author in this trade who has a dedicated TV serial based on one of his serial characters.

    5. The only author who successfully established a publication firm. No one before him and no one after him was successful in this.

    My heart goes for VPS ji.
    May his soul rest in peace.

    Reply
    जितेन्द्र माथुरApril 7, 2017 at 2:26 AM
    Hearty thanks Kanwal Ji. The pieces of information shared by you regarding VPS are indeed value addition. I was completely unaware of the first one. Such things underscore that VPS indeed was extra-ordinary and quite different from his contemporaries. May his soul rest in peace.

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  2. वेद प्रकाश जी के विषय में जानकारी बढ़िया लगी। वर्दी वाला गुंडा मैने भी पढ़ा है। उपन्यास पढ़ने की लत लग गई थी। बाद में मेरे बड़े भाई ने थोड़ी शक्ति की तब जाकर उपन्यास पढ़ने की लत से पीछा छुड़ा सका। हमेशा की तरह बढ़िया पोस्ट। सादर बधाई

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    1. हां वीरेन्द्र जी, मैं इस बात को समझ सकता हूं क्योंकि वो ज़माना केबल टीवी और इंटरनेट के पहले वाला था जब ऐसे उपन्यास छपते भी बहुत थे । उन दिनों यह लत स्वाभाविक रूप से लग जाया करती थी । मुझे भी लग गई थी पर कोई छुड़ाने वाला नहीं था । हार्दिक आभार आपका ।

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  3. वेद प्रकाश जी के बारे में जानकारी अच्छी लगी, बहुत अच्छी पोस्ट, आदरणीय शुभकामनाएँ ।

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  4. जितेंद्र जी, 2017 में शब्द नगरी पर मैंने वेदप्रकाश जी के स्वर्गवास बारे में पढ़ा था तो बहुत विचलित हुई थी। मेरे स्वर्गीय ताऊ जी किताबों खासकर लुगदी साहित्य के बहुत शौकीन थे। वेद जी के ढेरों उपन्यास उनके जरिये हमने भी देखे। खासकर-- इंकलाब जिंदाबाद-- और वर्दी वाला गुंडा मुझे याद है। रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र की काल्पनिक रोमांच कथा मैंने भी पढ़ी थी और मुझे बहुत पसंद आई थी। एक प्रतिष्ठित जन प्रिय लेखक की रचना यात्रा का सर्वांग लेखा -जोखा बहुत रोचक है। अपनी अति महत्वाकांक्षा के कारण उनका नैतिक पतन हैरान और उद्विग्न कर गया। वेद जी एक काल खंड के चहेते रचनाकार रहे हैं so उनकी कुछ गलतियों के कारण उनके योगदान को कमतर नहीं आँका जा सकता। उनकी पुण्य स्मृति को सादर नमन करती हूँ । आपका हार्दिक आभार इस सारगर्भित लेख के लिए।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया रेणु जी । आपकी यह बात बिलकुल ठीक है कि वेद प्रकाश शर्मा एक कालखंड के अत्यंत लोकप्रिय रचनाकार रहे हैं तथा उनकी कतिपय भूलों के कारण उनके योगदान को कम करके नहीं देखा जा सकता ।

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  5. श्री वेद प्रकाश शर्मा जी अपनी कृतियों से सदैव अमर रहेंगे..उनके जीवन चित्रण एवं उनके साहित्यिक योगदान के बारे में बताने के लिए आपका धन्यवाद..

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