सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

उदारीकरण : अंधी दौड़

(यह लेख मूल रूप से 17 सितम्बर, 2015 को प्रकाशित हुआ था)

वर्ष १९९१ भारतीय अर्थनीति के लिए इस रूप में क्रांतिकारी सिद्ध हुआ कि भारत की नई केंद्रीय सरकार जिसने कि मई १९९१ में कार्यभार संभाला, ने कथित समाजवाद की दशकों से घोषित नीति से किनारा करते हुए उदारीकरण की नीति को अपनाने का निर्णय लिया जिसका कार्यान्वयन जुलाई १९९१ में तत्कालीन वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत उनके प्रथम केंद्रीय बजट में परिलक्षित हुआ । अपने सम्पूर्ण कार्यकाल के दौरान अर्थात् मई १९९६ तक तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं उनके वित्त मंत्री इस तथाकथित उदारीकरण के पथ पर चलते रहे । आठ वर्षों के अंतराल के बाद ये ही वित्त मंत्री भारत के प्रधानमंत्री के पद पर सुशोभित हुए एवं लगातार दस वर्षों तक इस पद पर बने रहते हुए उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे और आगे बढ़ाते रहे । लेकिन ख़ास बात यह है कि जिन आठ वर्षों में वे सत्ता से बाहर रहे, उनमें भी केंद्र में बनने वाली सभी सरकारें उनके द्वारा अपनाई गई नीतियों से हटी नहीं एवं उदारीकरण की जो प्रक्रिया उन्होंने आरंभ की थी, उसे रोकने या उसमें कोई परिवर्तन करने का कोई भी प्रयास किसी भी अन्य सरकार ने नहीं किया । २०१४ में सत्ता परिवर्तन हो जाने के उपरांत नई सरकार ने भी विगत तीन दशकों से चली आ रही इस अर्थनीति में संशोधन का कोई संकेत नहीं दिया। संभवतः इस राह पर हम इतनी दूर निकल आए हैं कि लौटने का साहस अब किसी भी सरकार में नहीं है ।  

उदारीकरण के गुण-दोषों की चर्चा से पूर्व मैं इस बात को रेखांकित करना चाहता हूँ कि यह उदारीकरण जिसमें सरकार बाज़ार की गतिविधियों में यथासंभव हस्तक्षेप नहीं करती एवं व्यापार तथा उद्योग धंधों पर नियंत्रण न्यून कर दिए जाते हैं, हमारे द्वारा सामान्य स्थितियों में नहीं अपनाया गया था । १९९१ में हमारी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से गुज़र रही थी । हमारा विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली होने जैसी अवस्था में था जिसमें मुश्किल से तीन सप्ताह के आयात के भुगतान हेतु विदेशी मुद्रा उपलब्ध थी । स्पष्टतः विदेशी व्यापार में हमारे लिए भुगतान संतुलन की स्थिति पूरी तरह प्रतिकूल थी । देश का सोना बैंक ऑव इंग्लैंड तथा यूनियन बैंक ऑव स्विट्जरलैंड के पास गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के बावजूद हाल ऐसा था जिसे वित्तीय आपातकाल की संज्ञा दी जा सकती है । कटु सत्य तो यह है कि विदेशी व्यापार में हमारे दिवालिया घोषित होने में थोड़ी ही कसर बाकी रह गई थी । ऐसी विकट परिस्थिति में उदारीकरण का जो कदम उठाया गया, वह मर्ज़ी का न होकर मजबूरी का था । 

तत्कालीन सरकार की विवशता स्पष्ट थी । हमें विदेशी वित्तीय संस्थाओं एवं धनी देशों के समक्ष विदेशी मुद्रा के लिए हाथ फैलाना था । जैसा कि कहा जाता है – बैगर्स आर नॉट चूज़र्स अर्थात् भिक्षुकों के लिए कोई चयन की सुविधा नहीं होती । भिक्षा जो मिले, जैसे मिले, जहाँ से मिले; उसे लेने के अतिरिक्त उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता । और तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं उनके वित्त मंत्री के प्रति अपना पूर्ण आदर प्रदर्शित करते हुए अग्रिम क्षमा-प्रार्थना सहित मैं यह कहना चाहता हूँ कि उस समय उनकी स्थिति किसी भिक्षुक जैसी ही थी । मानो हाथ में भिक्षापात्र लेकर वे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों तथा आर्थिक दृष्टि से सशक्त देशों के समक्ष विदेशी मुद्रा के लिए भिक्षाटन कर रहे थे । उन्होंने इस अपमानजनक स्थिति की पीड़ा को राष्ट्रहित में भोगा और जो भी शर्तें भिक्षा देने वालों ने उन पर थोपीं, उन्हें शीश नवाकर स्वीकार किया । आधुनिक युग में जब कुछ भी निःशुल्क नहीं मिलता तो यह भिक्षा भी बिना शर्त हमें कैसे मिलती ? दाताओं ने हमें भिक्षा नहीं दी वरन हमारी विवशता का सौदा किया और यह कथित उदारीकरण इसी प्रक्रिया में हम पर आरोपित कर दिया गया । हमें आर्थिक सहायता देने वाले इस सहायता के बदले में हमारे देश में अपने लिए खुला बाज़ार चाहते थे जिसमें घुसकर वे व्यापार तथा उद्योग-धंधों में लिप्त भारतीयों को प्रतिस्पर्द्धा में हराकर हमारे अर्थतन्त्र पर सम्पूर्ण अधिकार कर सकते । हमने उस मुश्किल घड़ी की मजबूरी से समझौता करते हुए इसे माना । इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए १९९४ में हमने गैट समझौते पर भी हस्ताक्षर किए । परिणाम यह रहा कि बाज़ार पर सरकारी नियंत्रण का युग समाप्त हुआ और भारतीय अर्थव्यवस्था में पहली बार मांग एवं पूर्ति की शक्तियों को खुलकर खेलने का अवसर मिला । घरेलू उत्पादों को सरकारी संरक्षण मिलना लगभग बंद हुआ तथा आयात सुगम हो जाने के कारण भारतीयों के उपभोग के लिए नाना प्रकार के विदेशी उत्पादों के आगमन का मार्ग खुल गया । 

अब तीन दशक बाद क्या यह उचित नहीं कि इस नीति का पुनर्मूल्यांकन किया जाए और देखा जाए कि यह किस सीमा तक राष्ट्र के हित में रही ? इस नीति को आर्थिक सुधारों का नाम भी दिया जाता है । पर इन सुधारों से आम भारतीयों के जीवन में कितना सुधार हो पाया, यह पड़ताल का विषय है । भुगतान संतुलन का गंभीर संकट तत्कालीन समस्या थी जिससे निपटने के लिए अल्पकालीन विकल्प के रूप में इस नीति को अपनाया जाना सर्वथा उचित था । लेकिन इसे दीर्घकालीन नीति के रूप में स्थायी रूप से अपना लिया जाना क्या समग्र राष्ट्र एवं रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत आवश्यकताओं से दैनंदिन जूझने वाले आमजन के हित में है ? इस नीति को अपनाए जाने के उपरांत उद्योग-धंधों पर अनावश्यक सरकारी नियंत्रण की एक भ्रष्ट व्यवस्था जो कि लाइसेन्स-कोटा-परमिट राज के नाम से बदनाम थी, पूर्णतः समाप्त नहीं हुई तो कम-से-कम सुधरी तो अवश्य लेकिन अंततोगत्वा इससे लाभ या तो विदेशी कंपनियों को हुआ और या फिर बड़े भारतीय उद्योगपतियों को । यह कथित उदारीकरण हमारे देश के छोटे व्यापारियों एवं उद्यमियों के लिए तो अनुदार ही सिद्ध हुआ । आज दानवाकार विदेशी कंपनियों को जिस तरह से देश में आकर व्यवसाय करने की निर्बाध अनुमति दी जा रही है, उससे तो छोटे पैमाने पर व्यवसाय करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले स्वनियोक्त भारतीयों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । बाज़ार रूपी समुद्र में ये छोटी मछलियां अति-शक्तिशाली बड़ी मछलियों के सामने कहाँ टिक सकती हैं जो प्रति-क्षण इन्हें निगल जाने के लिए तत्पर हों ? आयातों को खुली छूट मिलने पर भी हमारे देश में महंगाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । बल्कि १९९६-९८ तथा २००७-०९ में हमें भीषण मंदी का सामना भी करना पड़ा जिससे मध्यम तथा निम्नवर्गीय लोगों पर महंगाई और मंदी की दोहरी मार पड़ी ।  

इस उदारीकरण से पूर्व भारत में केंद्रीय सरकारों द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर निरंतर लागू की गई  आर्थिक नीति बोलचाल की भाषा में घाटे की अर्थव्यवस्था के नाम से जानी जाती थी । सरकार का व्यय सदा उसकी आय से अधिक रहता था और घाटे की पूर्ति अतिरिक्त करेंसी नोट छापकर की जाती थी । चूंकि अतिरिक्त मुद्रा छापने के पीछे उत्पादन या परिसंपत्तियों का कोई आधार नहीं होता था, स्वभावतः यह नीति मुद्रा-स्फीति अथवा महंगाई को बढ़ावा ही देती थी । लेकिन इस नीति के दोषपूर्ण होने के बावजूद इसमें मंदी के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी एवं सरकारी नियंत्रणों की भरमार के कारण भारतीय बाज़ार वैश्विक अर्थव्यवस्था के उच्चावचनों से भी लगभग पूरी तरह सुरक्षित रहते थे । तथाकथित समाजवाद के नारे को बनाए रखने के लिए ही सही, सरकारें सार्वजनिक निर्माण के कार्यों एवं सार्वजनिक सुविधाओं पर व्यय करती थीं जिससे रोज़गारों का सृजन होता था । उस दौर में वास्तविक उत्पादक क्षेत्र ही प्रधान थे । उदारीकरण के इस युग में सेवा क्षेत्र प्रधान बन बैठे हैं जिनमें से अधिकतर परजीवी हैं और उत्पादन एवं आय के वितरण को प्रभावित करने के अतिरिक्त उसमें अपना कोई सकारात्मक योगदान नहीं देते हैं । ऐसे अनेक क्षेत्रों में जुए सरीखी सट्टेबाज़ी वैधानिक  नामों से होती है जिसमें आर्थिक रूप से सशक्त व्यक्ति एवं अभिकरण ही सफल रहते हैं क्योंकि वे अपनी सुदृढ़ स्थिति के बल पर इस खेल के दुर्बल खिलाड़ियों की गतिविधियों का अपने हक़ में बड़ी आसानी से इस्तेमाल कर लेते हैं । इस व्यवस्था में परजीवी और बिचौलिये उत्तरोत्तर धनार्जन करते हैं जबकि वास्तविक उत्पादकों का केवल शोषण होता है । परिणामतः जो पहले से ही अमीर हैं, उनके लिए और अमीर होते जाना सुगम है लेकिन जो हाशिये पर हैं और रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीते हैं, उनके लिए तो जीना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है । 

ऐसे में यदि यह उदारीकरण दरिद्रनारायण की अवस्था में कोई गुणात्मक सुधार नहीं कर सकता है तो मूल रूप से गले में फंदे की तरह आ पड़े इस उदारीकरण को गले का हार बनाकर घूमना कहाँ तक उचित है ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उदारीकरण के पैरोकार विकसित देश भी अपने घरेलू उद्योग-धंधों को उचित संरक्षण देते हैं तथा विदेशी निवेश एवं विदेशी माल को अपने यहाँ उस तरह से खुली छूट नहीं देते हैं जिस तरह से उदारीकरण एवं आर्थिक सुधारों के नाम पर हमने दे रखी है । क्या सारी उदारता विदेशी निवेशकों एवं उद्यमियों के लिए ही होनी चाहिए, कर्मशील भारतीयों के लिए नहीं ? उदारीकरण के दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था उपभोक्ता की अर्थव्यवस्था बनकर रह गई है, उत्पादक की नहीं । भारतीय नागरिकों को विदेशी उत्पादों के उपभोग की जो स्वतंत्रता उदारीकरण ने प्रदान की है उससे उपभोग की संस्कृति को ही बढ़ावा मिला है, उत्पादन की संस्कृति को नहीं । लाइसेन्स-कोटा-परमिट राज की वापसी का तो कोई भी विवेकशील व्यक्ति समर्थन नहीं करेगा किन्तु विदेशी तो उत्पादन करें एवं हम उपभोक्ता बनने में ही अपनी प्रसन्नता एवं शान समझते रहें, यह भी तो वांछनीय नहीं । 

आज एक छोटे भारतीय उद्यमी के लिए किसी भी बैंक या वित्तीय संस्था से ऋण लेना हिमालय पर चढ़ने जैसा कठिन कार्य है जबकि विदेशी उद्यमियों के लिए हमारा हृदय और संसाधन दोनों खुले पड़े हैं । यह उदारीकरण हमें क्रेता ही बना रहा है - ऐसा क्रेता जिसकी क्रय-शक्ति उत्तरोत्तर घट रही है, विक्रेता नहीं जो अपने उत्पादित माल का विक्रय करके अपनी पूंजी को बढ़ा रहा हो । नब्बे के दशक में जब हम याचक थे तो हमारे धूर्त दाताओं ने हमें सशर्त भिक्षा इसीलिए दी थी ताकि हम उन्हें हमारे ही संसाधनों के उपयोग से माल बनाकर हमें ही बेचने और हमारे धनधान्य को लूट लेने की सुविधा देते । कभी ईस्ट इंडिया कंपनी ने ऐसा ही करके हमें आर्थिक दासता से राजनीतिक दासता की ओर धकेल दिया था । अब तो दर्ज़नों ईस्ट इंडिया कंपनियां उपस्थित हैं हमें लूटने के लिए । लेकिन अब हम तीन दशक पहले वाले याचक नहीं हैं । हमारे विदेशी मुद्रा भंडार परिपूर्ण हैं और भुगतान संतुलन का कोई संकट आसन्न नहीं है । तो फिर क्यों हम उदारीकरण के पथ पर लगातार दौड़ते ही जा रहे हैं बिना आगे देखे और परखे कि यह दौड़ हमें कहाँ लिए जा रही है ? इस अंधी दौड़ को रोकना और राष्ट्र तथा जनता के हिताहित पर समुचित विचार करके आर्थिक नीतियों में यथोचित सुधार करना अत्यंत आवश्यक है । यदि इन आर्थिक सुधारों को अब पलटा या रोका नहीं जा सकता तो कम-से-कम इन्हें संशोधित करके देश एवं देशवासियों के दीर्घकालीन हितों के अनुरूप ढाला तो जा सकता है । जिस नीति में राष्ट्र के निर्धनतम नागरिक के कल्याण की भावना निहित नहीं, उसे राष्ट्र के हित में कैसे माना जा सकता है ? हमने इस तथाकथित उदारीकरण को एक भिक्षुक की विवशता के रूप में अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया था किन्तु एक भिक्षुक के जीवन-दर्शन को एक सामान्य व्यक्ति द्वारा अपनाया जाना तो उचित नहीं ठहराया जा सकता । एक सामान्य व्यक्ति का जीवन-दर्शन तो स्वावलंबन-केन्द्रित ही होना चाहिए । अतः इस अंधी दौड़ को विराम देकर इस नीति का पुनर्मूल्यांकन किया जाए जिसकी कसौटी यही हो कि इस उदारीकरण में हमारे देशवासियों के लिए उदारता कितनी है । 

© Jitendra Mathur 2015 Copyrights reserved

6 टिप्‍पणियां:

  1. उदारीकरण विषय पर आपने बहुत अच्छी तरह अपना पक्ष रखा है..बेहतरीन..

    सादर प्रणाम

    जवाब देंहटाएं
  2. जितेंद्र जी, यूँ तो किसी अर्थ विज्ञान में मेरी रुचि नहीं है।पर आपका ये लेख पढ़ अर्थ व्यवस्थाओं के बारे में बहुत ज्ञान ज्ञानवर्धन हुआ। कोटि आभार इस सार्थक लेख के लिए🌷

    जवाब देंहटाएं