शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

बरेली की बर्फ़ी ! या मिक्स्ड वेजीटेबल ?

हिन्दी फ़िल्म ‘बरेली की बर्फ़ी’ के प्रदर्शन के उपरांत से ही उसकी प्रशंसा सुनता और पढ़ता आ रहा था । विगत दिनों जब यह मेरे नियोक्ता संगठन (भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, हैदराबाद) के क्लब में प्रदर्शित हुई तो इसे देखने का अवसर मिला । फ़िल्म निश्चय ही स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करती है और विलासिता से भरी हुई फ़िल्मों की भीड़ में अपनी एक अलग पहचान रखती है । कुछ वर्षों पूर्व प्रदर्शित ‘तनु वेड्स मनु’ (२०११) से ऐसी ताज़गी भरी हिन्दी फ़िल्मों का एक नवीन चलन आरंभ हुआ है जो छोटे शहरों के मध्यमवर्गीय (अथवा निम्न-मध्यमवर्गीय) पात्रों को लेकर रचित कथाओं पर बनाई जाती हैं । ऐसी फ़िल्मों के पात्रों तथा विलासिता-विहीन अति-साधारण परिवेश से वह सामान्य दर्शक वर्ग अपने आपको जोड़ पाता है जिसके लिए राजप्रासाद-सदृश आवास, बड़ी-बड़ी सुंदर कारें, निजी विमान एवं हेलीकॉप्टर तथा अनवरत विदेश-यात्राओं से युक्त जीवन गूलर के पुष्प की भाँति अलभ्य है क्योंकि उसे ये  पात्र तथा यह परिवेश अपना-सा लगता है, जाना-पहचाना प्रतीत होता है । इसीलिए विगत कुछ वर्षों में ऐसी फ़िल्में लोकप्रिय हुई हैं । ‘बरेली की बर्फ़ी’ इसी श्रेणी में आती है । इसके पात्र, परिवेश, भाषा एवं घटनाएं लुभाती हैं, हृदय को स्पर्श करती हैं ।

फ़िल्म उत्तर प्रदेश के बरेली शहर की बिट्टी नामक एक बिंदास स्वभाव की युवती तथा उसके दो युवकों के साथ बने प्रेम-त्रिकोण की कथा कहती है । फ़िल्म का नामकरण संभवतः इस आधार पर किया गया है कि बिट्टी के पिता एक मिठाई की दुकान चलाते हैं अन्यथा बिट्टी का व्यक्तित्व मिठास से अधिक नमक लिए हुए प्रतीत होता है । वह स्वयं बिजली विभाग में नौकरी करती है । उसका विवाह न हो पाने के चलते जब एक दिन वह घर से भागकर दूर चली जाने का निर्णय लेती है तो उसे स्टेशन पर स्थित बुक स्टाल से ‘बरेली की बर्फ़ी’ शीर्षक से एक उपन्यास पढ़ने को मिलता है जिसे पढ़कर उसे यह लगता है कि कथानायिका का व्यक्तित्व तो बिलकुल वैसा ही है जैसा स्वयं उसका अपना व्यक्तित्व है । चूंकि कथा भी बरेली शहर की ही एक युवती की है तो उसे लगता है कि लेखक से मिलना चाहिए जिसने हूबहू उसके जैसी युवती की कल्पना की और उसके व्यक्तित्व तथा स्वभाव को ठीक से समझा । यहीं से वास्तविक कथा आरंभ होती है जिसमें वह मूल लेखक से मिलती तो है किन्तु किसी और रूप में क्योंकि मूल लेखक चिराग दुबे ने अपनी प्रेमिका के विरह की पीड़ा से सिक्त मानसिकता में लिखे गए इस उपन्यास को किसी और के नाम से प्रकाशित करवाया था । एक प्रिंटिंग प्रेस चलाने वाले चिराग ने ही प्रीतम विद्रोही नामक छद्म लेखक को शहर छोड़कर चले जाने पर विवश कर दिया था । चिराग की दुविधा यह है कि बिट्टी से पहले मित्रता और तदोपरांत प्रेम हो चुकने के उपरांत वह उसकी ‘बरेली की बर्फ़ी’ के लेखक प्रीतम विद्रोही से मिलने के अनुरोध को ठुकरा नहीं सकता । और जब बिट्टी की प्रीतम विद्रोही से यह बहुप्रतीक्षित भेंट हो जाती है तो बिट्टी की सहेली रमा को भी सम्मिलित करता हुआ प्रेम का एक ऐसा जाल बन जाता है जिसमें कौन किसे प्रेम करता है, यह फ़िल्म के अंत में ही पता चलता है ।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा, इस फ़िल्म का सबसे बड़ा गुण इसका अपना-सा लगने वाला परिवेश (घर, गलियां, बाज़ार, तालाब आदि) तथा जाने-पहचाने से निम्न-मध्यमवर्गीय पात्र ही हैं जो दर्शक के हृदय में स्थान बना लेते हैं । जावेद अख़्तर के स्वर में पात्रों से परिचय करवाया जाता है तथा वे सम्पूर्ण कथानक में सूत्रधार के रूप में बोलते रहते हैं । फ़िल्म का प्रथम भाग अत्यंत मनोरंजक है । दूसरा भाग भी कुछ कम नहीं लेकिन अपने अपेक्षित अंत तक पहुँचने से पूर्व अंतिम बीस-पच्चीस मिनट में फ़िल्म में भावनाओं का अतिरेक है जो फ़िल्म की गुणवत्ता को सीमित करता है । फ़िल्मकार ने बहुत-सी बातें अपनी सुविधा से समायोजित की हैं जो फ़िल्म की स्वाभाविकता को कम करती हैं । ध्यान से देखने पर ही पता चलता है कि लेखकीय स्वतन्त्रता के नाम पर कई असंभव-सी बातें फ़िल्म में डाली गई हैं और एक छोटी-सी कहानी को दो घंटे तक खींचा गया है । ऐसा लगता है कि ‘बरेली की बर्फ़ी’ के निर्माता एक उत्कृष्ट फ़िल्म बनाना ही नहीं चाहते थे । वे केवल सत्तर एवं अस्सी के दशक में ऋषिकेश मुखर्जी तथा बासु चटर्जी जैसे निर्देशकों द्वारा साधारण परिवेश में साधारण भारतीय पात्रों को लेकर रची गई औसत मनोरंजन देने वाली फ़िल्मों की परंपरा में समाहित होने वाली एक ऐसी फ़िल्म बनाना चाहते थे जो औसत से कुछ बेहतर लगे । जब उत्कृष्टता लक्षित ही नहीं थी तो प्राप्त भी कैसे होती ? अतः कुल मिलाकर ‘बरेली की बर्फ़ी’ एक साफ़-सुथरी मनोरंजक फ़िल्म से अधिक कुछ नहीं बन सकी ।

परिवेश के अतिरिक्त फ़िल्म के गुणों में इसके एक-दो अच्छे गीतों को एवं प्रमुख पात्रों के प्रभावशाली अभिनय को सम्मिलित किया जा सकता है । सभी मुख्य पात्रों – कृति सेनन, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव एवं स्वाति सेमवाल तथा नायिका के माता-पिता की भूमिका में पंकज मिश्रा तथा सीमा पाहवा के साथ-साथ नायक के मित्र की भूमिका में रोहित चौधरी ने प्रभावशाली अभिनय किया है । लेकिन इन सबमें राजकुमार राव (जो पहले राजकुमार यादव के नाम से जाने जाते थे) बाज़ी मार ले गए हैं । फ़िल्म जब-जब भी ढीली पड़ी, राजकुमार ने उसमें पुनः नवीन ऊर्जा का संचार कर दिया । एक दब्बू और एक तेज़तर्रार – दो भिन्न-भिन्न प्रकार के रूपों को एक ही भूमिका में उन्होंने ऐसी अद्भुत प्रवीणता से निभाया है जिसने मुझे विभाजित व्यक्तित्व पर आधारित गंभीर फ़िल्मों – 'दीवानगी' (२००२) में अजय देवगन तथा 'अपरिचित' (२००५) में विक्रम द्वारा किए गए असाधारण अभिनय का स्मरण करवा दिया । 

लेकिन ‘बरेली की बर्फ़ी’ में मौलिकता का नितांत अभाव है । कुछ वर्षों पूर्व मैंने फ़िल्मों की स्वयं समीक्षा लिखने का निर्णय इसीलिए लिया था क्योंकि मैं कथित अनुभवी एवं प्रतिष्ठित समीक्षकों द्वारा लिखित कई समीक्षाओं में तथ्यपरकता तथा वस्तुपरकता का अभाव पाता था । फ़िल्मकार तो अपनी इधर-उधर से उठाई गई कथाओं के मौलिक होने के ग़लत दावे करते ही हैं, समीक्षक भी प्रायः फ़िल्मों की कथाओं के मूल स्रोत को या तो जानने का प्रयास नहीं करते या फिर उसकी बाबत ऐसी जानकारी अपनी समीक्षाओं में परोसते हैं जो तथ्यों से परे होती है । ‘बरेली की बर्फ़ी’ भी अपवाद नहीं है । इसे २०१२ में प्रकाशित निकोलस बैरू द्वारा लिखित फ्रेंच भाषा के उपन्यास 'द इनग्रीडिएंट्स ऑव लव' पर आधारित बताया जा रहा है । लेकिन यह अपूर्ण सत्य है । पूर्ण सत्य यह है कि कई हिन्दी फ़िल्में भी ‘बरेली की बर्फ़ी’ की कथा एवं पात्रों का आधार हैं । न केवल फ़िल्म की केंद्रीय पात्र बिट्टी का चरित्र स्पष्टतः ‘तनु वेड्स मनु’ की नायिका तनूजा त्रिवेदी (तनु) के चरित्र से प्रेरित है और प्रीतम विद्रोही के चरित्र में हम ‘दीवानगी’ के तरंग भारद्वाज की झलक देख सकते हैं, वरन फ़िल्म की पटकथा ही कुछ पुरानी फ़िल्मों के टुकड़े उठाकर बनाई गई है । फ़िल्म का मूल विचार माधुरी दीक्षित, संजय दत्त तथा सलमान ख़ान अभिनीत एवं लॉरेंस डी सूज़ा द्वारा निर्देशित सुपरहिट फ़िल्म ‘साजन’ (१९९१) से सीधे-सीधे उठा लिया गया है और मध्यांतर के उपरांत की फ़िल्म संजना, उदय चोपड़ा एवं जिमी शेरगिल अभिनीत तथा संजय गढ़वी द्वारा निर्देशित यशराज बैनर की फ़िल्म ‘मेरे यार की शादी है’ (२००२) को देखकर बनाई गई लगती है (जो स्वयं ही हॉलीवुड फ़िल्म – ‘माई बेस्ट फ़्रेंड्स वेडिंग’ की विषय-वस्तु उठाकर बनाई गई थी) । फ़िल्म का नाम ही ‘बरेली की बर्फ़ी’ है, वस्तुतः यह उस चटपटी तरकारी की भांति है जो कई सब्ज़ियों को मिश्रित करके उस मिश्रण में आवश्यक मसाले डालकर बनाई गई हो । बहरहाल इस मिक्स्ड वेजीटेबल को एक स्वादिष्ट व्यंजन कहा जा सकता है जो भोजन करने वाले की जिह्वा को तृप्त करने में सक्षम है ।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (14 सितम्बर, 2017) पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :

    Beena PandeySeptember 17, 2017 at 12:58 AM
    Review is awesome as you did always. I watched this movie and fall in love with bitt's character and her parent's is wow..

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    जितेन्द्र माथुरSeptember 17, 2017 at 1:28 AM
    Thanks Beena Ji. Glad that you enjoyed both the movie and the review.

    vanderloostMay 3, 2018 at 12:42 AM
    As usual very detailed review which reflects your meticulousness and love for cinema. However, I hold a different view in the matter. Though the character Bitti also reminded me of Tanu of 'Tanu Weds Manu' fame yet the latter seemed unreasonably rebellious while Bitti appears realistic and very much today's small town girl with a mind of her own.

    The milieu of Saajan is essentially different from that of this movie. There Sanjay Dutt was a closet poet and his timidity in facing the public emerged more from his physical handicap which had a direct relation with his psychological profile.

    As you said, the proliferation of such movies like the instant one is again a reflection of our present social change, the rise of the small towns, the increasing aspirations of the middle class, which are in turn, possibly consequences of the global scenario and the political changes in the country.

    With the Modi led BJP being in power and the PM's candid and forceful assertion, time and again, that a tea seller can also rise in stature and become the PM of the largest sub-continent of the world, the hitherto suppressed aspirations of the so called backward classes/subalterns are bound to find a corroboration in celluloid and even perhaps literature.

    Ajay Devgan's Deewangi was way different and I cannot draw a parallel of the same with this film. Raj Kumar Rao,(why he had to change his surname, God only knows), was superb, no doubt about it. But Ayushman Khurana was also a stealer in his own way. Kriti Sanon has very strong screen presence which is something pleasantly refreshing.

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    जितेन्द्र माथुरMay 3, 2018 at 3:47 AM
    Hearty thanks Geeta Ji for the surprise visit and the detailed value-adding comment

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  2. बेहतरीन समीक्षा..
    फिल्म सिर्फ कहानी भर होती है..शायद भावों का संगम..या मनोरंजन की सामग्री..किन्तु आप का लेखन ज्ञानपूर्ण रहता है..

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  3. बहुत अच्छी समीक्षा। वैसे मैं फिल्में नहीं देखती जितेंद्रजी पर इसे एक मनोरंजक कहानी की तरह पढ़ना अच्छा लगा। यदि मैं फिल्म देखती तो भी इस तरह से समीक्षा नहीं कर पाती।

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०२-२०२१) को 'स्वागत करो नव बसंत को' (चर्चा अंक- ३९६९) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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  5. बेहद दिलचस्प समीक्षा

    यह फ़िल्म पिछले साल मैंने Star Movie Select पर देखी थी।

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  6. जितनी दिलचस्प फिल्म उससे अधिक दिलचस्प उसकी समीक्षा.... बहुत खूब 🌹🙏🌹

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