नेहरू निंदा आजकल का मानो फ़ैशन बन गया है। सत्तारूढ़ दल का तो जैसे कार्य ही यही हो गया है कि चाहे अतीत की हो अथवा वर्तमान की; चाहे वास्तविक हो अथवा काल्पनिक; प्रत्येक ग़लती अथवा जो भी अनुचित हुआ हो, उसके लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उत्तरदायी ठहरा दिया जाए। जो ग़लत हुआ, सब नेहरू ने किया। नेहरू प्रत्येक बात में ग़लत थे, प्रत्येक कार्य में ग़लत थे। उनके द्वारा कुछ भी सही नहीं किया गया। और जो कुछ भी सही हुआ है, सब वर्तमान सत्ताधारियों के द्वारा ही किया गया है। व्हाट्सऐप पर नेहरू निंदा आए दिन की बात है। चुनावी सभा हो अथवा संसद का कोई सदन, प्रत्येक चर्चा में नेहरू का नाम खींच लिया जाना एवं उन पर दोषारोपण करना सामान्य बात हो गई है।
संसद के
वर्तमान सत्र में वंदे मातरम पर चर्चा के दौरान भी प्रधानमंत्री सहित सत्तारूढ़ दल
के विभिन्न सदस्यों का यही रवैया रहा। वंदे मातरम के दो ही अंतरे राष्ट्रगीत माने
गए, इसका ठीकरा भी नेहरू के सर ही फोड़ा गया। न तथ्यों को उनके
सम्पूर्ण स्वरूप में तथा सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया, न ही विचार-विमर्श को सही दिशा में ले जाया गया। उद्देश्य
वही, भारत से संबद्ध प्रत्येक बात जो ग़लत हो अथवा
ग़लत समझी जाए, उसके लिए नेहरू को ज़िम्मेदार बताना एवं उनकी
निंदा करना।
ऐसे में विपक्ष
की सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा द्वारा अपने भाषण में एक समुचित सुझाव दिया गया
है। उन्होंने तो ऐसा कटाक्ष के रूप में किया परंतु उनका सुझाव वस्तुतः व्यावहारिक
है। उन्होंने कहा कि जब बात-बात पर नेहरू की ग़लतियां निकाली जाती हैं तो क्यों न
एक बार सत्तापक्ष की ही सुविधा के अनुरूप समय निर्धारित करके इस विषय पर पूरी
चर्चा कर ली जाए एवं उसके उपरांत इस विषय को बंद कर दिया जाए ताकि सदन के समय का सदुपयोग जनसाधारण से जुड़े मुद्दों
पर चर्चा हेतु किया जा सके। इन व्यर्थ की बहसों से देश को छुटकारा मिलना चाहिए।
प्रियंकाजी की
बात बिल्कुल ठीक है। बार-बार एक ही रट क्या लगाना ? अतीत में तो जो हुआ, सो हुआ; अब क्या करना है ? यदि नेहरू की
ग़लतियां ही निकालनी हैं तो एक ही बार में अच्छी तरह निकाल ली जाएं। आधी-अधूरी बात
करने की जगह एक बार पूरी बात कर ली जाए। किसी सत्र में समय का निर्धारण यदि इस
कार्य हेतु कम लगता हो तो संसद का एक विशेष सत्र बुलाकर नेहरू की ही नहीं, पूर्ववर्ती सभी सरकारों की ग़लतियों एवं कामकाज पर एक गंभीर
चर्चा कर ली जाए। वर्तमान सत्ताधारी यदि चाहें तो इस विषय पर श्वेत-पत्र भी निकाल
सकते हैं जिनमें पूर्व की सरकारों ने जो भी सही नहीं किया, उसका विस्तृत विवरण हो। इन श्वेत-पत्रों को सार्वजनिक
निरीक्षण हेतु रखा जा सकता है। उसके उपरांत अतीत से जुड़ी इन बहसों को बंद किया जाए
तथा वर्तमान हेतु प्रासंगिक विषयों पर गंभीरतापूर्वक चर्चा की जाए। बार-बार एक
पूर्व प्रधानमंत्री की निंदा करना तथा प्रत्येक अनुचित बात के लिए उसी को
ज़िम्मेदार बताना कहाँ तक उचित है ? साथ ही इस
कार्य हेतु संसद के मूल्यवान समय का उपयोग कहाँ की समझदारी है ?
नेहरू ने भूलें
की होंगी। वे मनुष्य थे। प्रत्येक मनुष्य भूलें करता ही है। लेकिन भूलों के कारण
उसके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। नेहरू पर स्वातंत्र्योत्तर
भारत की आसन्न समस्याओं से जूझने तथा उसे आधुनिक बनाते हुए प्रगति के पथ पर अग्रसर
करने का महती दायित्व था जिसे उन्होंने निष्ठापूर्वक निभाया। वे स्वभाव से धार्मिक
नहीं थे एवं उन्होंने बांधों को ‘आधुनिक भारत के
मंदिर’ बताया था। किंतु उनकी देशभक्ति किसी भी प्रकार
के संदेह से परे थी। उनके एवं सरदार पटेल के संबंध भी बहुत अच्छे थे, यह एक अकाट्य सत्य है जिसे नेहरू-निंदक (एवं साथ ही
पटेल-प्रशंसक) देखना नहीं चाहते। किसी एकाध विषय पर मतभेद को छोड़कर नेहरू एवं पटेल
सदैव परस्पर सहमत ही रहते थे एवं राष्ट्रहित में मिलकर काम करते थे।
इसलिए
प्रियंकाजी का सुझाव काबिले ग़ौर है। नेहरू की (एवं यदि किसी और भी पूर्ववर्ती
शासन-प्रमुख की) निंदा करनी हो, उनके कार्यों
एवं निर्णयों का आलोचनात्मक परीक्षण करना हो तो यह कार्य एक ही बार में विस्तार से
एवं पृथक् रूप से कर लिया जाए। और कर लिए जाने के उपरांत इसे सदा के लिए बंद कर
दिया जाए। इस पर श्वेत-पत्र जारी करके राष्ट्रीय अभिलेखागार में रख दिया जाए ताकि
सनद रहे। और संसद के क़ीमती वक़्त को नेहरू-निंदा में ज़ाया करने के बजाय उसका सदुपयोग
देश एवं जनता के हित से जुड़ी बहसों में किया जाए।
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