मंगलवार, 16 सितंबर 2025

ओथेलो और दोरंगे जूतों का रहस्य

महान नाटककार शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक फ़िल्मकारों हेतु सदा ही प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। इसीलिए उन नाटकों की कथाओं पर आधारित अनेक फ़िल्में बनी हैं। ऐसा ही एक नाटक ओथेलो है जिसके कथानक का आधार मुख्य पात्र का अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करना है। इसके आधार पर इक्कीसवीं सदी में विशाल भारद्वाज ने ओमकारा नामक फ़िल्म बनाई थी। किंतु मैं एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात करूंगा जो कि कई दशक पूर्व १९६७ में प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म है – हमराज़ जिसका निर्माण एवं निर्देशन किया था – सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार बी.आर. चोपड़ा ने।

हमराज़ एक प्रेमकथा के रूप में आरंभ होती है किंतु मध्य तक आते-आते एक रहस्यकथा का रूप धारण कर लेती है। फ़िल्म की नायिका मीना (विमी) अपने प्रेमी राजेश (राजकुमार) जो कि एक सैनिक है, से गुप्त विवाह कर लेती है। राजेश के युद्ध में मारे जाने का समाचार आता है। मीना गर्भवती होती है जिसे प्रसव के उपरांत बताया जाता है कि उसका शिशु जीवित नहीं रहा। कुछ समय के उपरांत उसके जीवन में एक कलाकार कुमार (सुनील दत्त) का प्रवेश होता है जिससे मीना विवाह कर लेती है। मीना कुमार को अपने अतीत के विषय में कुछ नहीं बताती। कुछ वर्षों के उपरांत उसके पिता अपनी मृत्यु से पूर्व उसे बताते हैं कि उसका शिशु जो कि एक बालिका है, जीवित है तथा वह एक अनाथ-आश्रम में पल रही है। अब मीना अपनी बच्ची से मिल तो लेती है किंतु उसे गोद नहीं ले पाती क्योंकि कुमार इसके पक्ष में नहीं है।

फ़िल्म की वास्तविक कहानी अब आरंभ होती है जो कि ओथेलो से प्रेरित है (कुमार को रंगमंच पर भी ओथेलो नाटक में शीर्षक भूमिका निभाते हुए ही दिखाया गया है)। नव वर्ष की पार्टी में मीना को राजेश का एक पुराना मित्र मिलता है जो कि उसे उसके द्वारा राजेश को लिखे गए प्रेमपत्रों के विषय में बताता है। अगले दिन मीना के पास उसका फ़ोन आता है। अब एक ओर तो मीना की गतिविधियां कुमार को संदेह में डालती हैं, दूसरी ओर दर्शकों को किसी पात्र के केवल पैर दिखाए जाते हैं जिनमें वह पात्र दो रंगों वाले जूते पहनता है। यह दोरंगे जूते पहनने वाला कौन है, दर्शक इसका केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। लेकिन इससे फ़िल्म में रहस्य बहुत उत्पन्न होता है।

बहरहाल कुमार को अपनी पत्नी मीना पर संदेह हो जाता है तथा वह शहर से बाहर जाने का बहाना करके तथा वेश बदलकर उस पर नज़र रखता है। उसी रात मीना की हत्या हो जाती है। पुलिस को इस हत्या के लिए कुमार पर ही संदेह होता है। अब कुमार को एक ओर तो पुलिस से बचना है, दूसरी ओर मीना के हत्यारे का भी पता लगाना है। इधर दोरंगे जूतों वाला भी सक्रिय है जो कुमार के घर में घुसकर कुछ काग़ज़ात चुरा ले जाता है। यह रहस्यपूर्ण आख्यान एक प्रबल जलधारा की भांति दर्शकों को अपने साथ बहाए ले चलता है। आख़िर में दोरंगे जूतों वाले की वास्तविकता भी पता चलती है तथा मीना के हत्यारे की भी। फ़िल्म का नाम हमराज़ (ऐसा व्यक्ति जिसे आप अपनी कोई गोपनीय बात बताते हैं) रखा जाने का कारण भी स्पष्ट होता है।

हमराज़ एक अत्यंत रोचक फ़िल्म है जो यह बताती है कि पति-पत्नी को एकदूसरे पर संदेह करने के स्थान पर विश्वास करना चाहिए एवं एकदूसरे को अपने विश्वास में लेना चाहिए। विश्वास से समस्याएं हल होती हैं जबकि संदेह से समस्याएं जन्म लेती हैं। फ़िल्म में लेखक एवं निर्देशक ने कहीं पर भी समय नष्ट नहीं किया है। उस युग में बॉलीवुड की फ़िल्मों में एक हास्य का ट्रैक रखा जाता था। ऐसा कोई ट्रैक हमराज़ में नहीं रखा गया है। न ही कोई हास्य कलाकार इसमें है। फ़िल्म की प्रत्येक बात, प्रत्येक घटना, प्रत्येक दृश्य सार्थक है एवं मुख्य कथानक से संबद्ध है। फ़िल्म में गीत अवश्य हैं किंतु न केवल वे अत्यंत सुरीले हैं वरन कथानक को आगे बढ़ाने वाले हैं। और विशेष बात यह है कि सभी गीत (कुल पाँच) फ़िल्म के पहले घंटे में ही आ जाते हैं जिसके उपरांत केवल फ़िल्म की कहानी तीव्र गति से आगे बढ़ती है जिसमें किसी गीत का कोई व्यवधान नहीं आता। दर्शक को फ़िल्मकार घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देता। फ़िल्म देखने वाला प्रारंभ से अंत तक पटल से बंधा रहता है।

हमराज़ संगीतमय प्रेमकथा देखने वालों के लिए भी है तो रहस्यकथाएं पसंद करने वालों के लिए भी। कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है और बी.आर. चोपड़ा का निर्देशन बेहतरीन है। शायद ही किसी और फ़िल्म में किसी पात्र के जूतों को रहस्य उत्पन्न करने वाली बात के रूप में इस प्रकार काम में लिया गया हो जिस प्रकार हमराज़ में लिया गया है। इसी कहानी को १९९४ में इम्तिहान के नाम से पुनः बनाया गया था किंतु वह फ़िल्म हमराज़ की भांति प्रभावशाली नहीं रही। अंत में मैं यही कहूंगा कि पुरानी अच्छी फ़िल्में देखने के शौकीन लोगों के लिए हमराज़ किसी उपहार से कम नहीं।

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

मानवीय साहस की अद्भुत गाथा

निर्माता-निर्देशक बलदेवराज चोपड़ा की संस्था बी.आर. फ़िल्म्स एक अत्यंत प्रतिष्ठित फ़िल्म-निर्माण संस्था रही है जिसने एक-से-एक बढ़कर उत्तम फ़िल्में हिंदी सिने-दर्शकों के लिए प्रस्तुत कीं। युवा होने पर उनके पुत्र रवि चोपड़ा ने भी निर्देशन आरम्भ किया। उन्होंने एक हॉलीवुड फ़िल्म द टॉवरिंग इनफ़र्नो देखी जिसमें एक इमारत में आग लगने की घटना का वर्णन था। उस फ़िल्म से प्रेरित होकर उन्होंने एक कुछ भिन्न फ़िल्म की परिकल्पना की जिसमें एक चलती हुई रेलगाड़ी में आग लगने की घटना का कथानक प्रस्तुत किया जाने वाला था। यह हिंदी फ़िल्म अथक परिश्रम के उपरांत बनकर तैयार हो पाई एवं १९८० में प्रदर्शित हुई। इसका नाम है – द बर्निंग ट्रेन

द बर्निंग ट्रेन (जलती हुई रेलगाड़ी) में अपने समय के अत्यन्त लोकप्रिय सितारों को सम्मिलित किया गया यथा – धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, परवीन बॉबी, जीतेंद्र, नीतू सिंह, विनोद मेहरा, डैनी आदि। सभी सितारों की भूमिकाओं के साथ न्याय करने वाली तथा रेलगाड़ी के जलने की घटना को केंद्र में रखने वाली कहानी लिखना भी कोई सरल कार्य नहीं था किंतु कमलेश्वर ने यह सफलतापूर्वक किया। उनकी कथा तथा रवि चोपड़ा के निर्देशन के साथ-साथ कला-निर्देशक शांतिदास, एक्शन निर्देशक मंसूर, सम्पादक प्राण मेहरा एवं छायाकार धरम चोपड़ा ने भी सराहनीय कार्य किया और कलाकारों के सजीव अभिनय से युक्त यह अविस्मरणीय फ़िल्म रजतपट पर आई।

फ़िल्म तीन बालकों से आरम्भ होती है जिनमें से दो बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखते हैं जबकि दो ऐसे हैं जिनकी मित्रता अत्यन्त प्रगाढ़ है। प्रतिद्वंद्वी बालक रेल का इंजन बनाने का सपना पालते हैं एवं बड़े होकर भारतीय रेलवे में नौकरी करते हैं। भारतीय रेलवे एक अत्यन्त तीव्र चलने वाली रेलगाड़ी सुपर एक्सप्रेस की योजना केंद्रीय सरकार को भेजता है जिसके साथ विभिन्न अभियंताओं द्वारा बनाए गए इंजन के मॉडल भी होते हैं। जब सरकार इस परियोजना को स्वीकृति दे देती है तो विभिन्न मॉडलों में से तीन मॉडल अंतिम निर्णय हेतु चुने जाते हैं जो कि बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखने वाले विनोद (विनोद खन्ना) एवं रणधीर (डैनी) के अतिरिक्त उनके साथी अभियंता राकेश (विनोद मेहरा) के होते हैं। संबंधित निर्णयन समिति विनोद द्वारा बनाए गए मॉडल को इंजन बनाने हेतु चुनती है और यह बात रणधीर को चुभ जाती है जो पहले से ही विनोद से ख़ार खाए बैठा था क्योंकि जिस युवती शीतल (परवीन बॉबी) से वह विवाह करने की इच्छा रखता था, उसने विनोद से विवाह कर लिया था।

विनोद एक श्रेष्ठ एवं तीव्र गति वाला इंजन बनाने की धुन अपने मन में लेकर काम में जुट जाता है एवं उसकी इस धुन के चलते उसकी पत्नी शीतल स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगती है। विनोद का बचपन का अभिन्न मित्र अशोक (धर्मेंद्र) तीव्र गति से कार चलाने का शौकीन है तथा सीमा (हेमा मालिनी) से प्रेम करता है किंतु भाग्य उस पर ऐसा वज्रपात करता है कि वह अपने पिता, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति तथा सीमा के प्रेम को भी खो बैठता है। इस तरह बचपन के तीनों साथियों – विनोद, अशोक तथा रणधीर के जीवन अलग-अलग मोड़ ले लेते हैं।

वर्षों बीत जाते हैं। छह साल के अथक परिश्रम के उपरांत विनोद एक तीव्र गति वाली एवं भरपूर आरामदायक (लक्ज़री) गाड़ी अर्थात् सुपर एक्सप्रेस को बनाने में सफल हो जाता है। परंतु उसे धक्का तब लगता है जब गाड़ी की प्रथम यात्रा से ठीक एक दिन पूर्व उसकी पत्नी शीतल उसे छोड़ देने का निर्णय लेती है एवं अपने तथा विनोद के पुत्र राजू (मास्टर बिट्टू) को सुपर एक्सप्रेस (जो कि दिल्ली तथा मुम्बई के बीच चलने वाली है) से ही अकेले उसके ननिहाल भेज देती है एवं उसके उपरांत विनोद का घर भी छोड़कर चली जाती है। इसी गाड़ी से अशोक भी यात्रा कर रहा है एवं सीमा भी।

लेकिन कथानक का प्रमुख मोड़ तब आता है जब विनोद से खुन्नस खाया हुआ रणधीर न केवल गाड़ी के वैक्यूम ब्रेक निकाल देता है, बल्कि इंजन ड्राइवरों से नज़र बचाकर इंजन में एक टाइम बम भी रख देता है। गाड़ी में सीमा को यात्रा करती पाकर अशोक उससे दूर रहने के लिए मथुरा स्टेशन पर ही उतर जाता है जहाँ रणधीर पहले से ही उतर चुका है एवं अपनी कारगुज़ारी कर चुका है। लेकिन अपनी शेखी बघारने के चक्कर में रणधीर अशोक को बता देता है कि उसने क्या किया है। अब अशोक पहले एक कार से तथा उसके उपरांत एक मोटरसाइकिल से रेलगाड़ी का पीछा करता है एवं किसी तरह गार्ड के डिब्बे तक पहुँचता है। वह गार्ड उस्मान (दिनेश ठाकुर) को वस्तुस्थिति बताता है परंतु इससे पहले कि वे इंजन के ड्राइवरों से आपातकालीन ब्रेक लगवाकर गाड़ी को रुकवा पाएं, रणधीर द्वारा रखा गया बम फट जाता है। एक ड्राइवर वहीं मर जाता है जबकि दूसरा इंजन के बाहर जाकर गिरता है।

यह समाचार विनोद को मिलता है तो वह गाड़ी को रोकने की तथा यात्रियों को बचाने की जुगत में लग जाता है। अशोक और उस्मान किसी तरह यात्रियों के डिब्बों में पहुँचते हैं जहाँ उन्हें एक अच्छे मन वाले चोर रवि (जीतेंद्र) का साथ भी मिलता है जो कि मूल रूप से एक अनचाहे विवाह से बचने हेतु घर से भागी हुई मधु (नीतू सिंह) के ज़ेवर चुराने हेतु रेलगाड़ी में चढ़ा था। पर दुर्भाग्य से गाड़ी के रसोईघर में गैस फैलने से आग लग जाती है और पहले से ही गम्भीर समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। इधर रणधीर अब भी चुपचाप नहीं बैठा है। वह विनोद की गाड़ी रोकने हेतु की गई युक्ति के ऊपर अपनी चाल चलता है। जलती हुई बेलगाम रेलगाड़ी सौ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से भागी जा रही है। बाहर से विनोद और अंदर से रवि तथा अशोक यात्रियों को बचाने हेतु अपने-अपने प्रयास करते हैं। मुम्बई पहुँचा हुआ राकेश वहाँ अपनी ओर से यात्रियों की प्राण-रक्षा हेतु एक भिन्न प्रयास करता है। अंत में किस प्रकार से सभी नायक मिलकर रणधीर के रेल को यात्रियों सहित नष्ट करने के मंसूबों पर पानी फेरते हैं एवं (कुछ को छोड़कर) सभी यात्रियों को बचाते हैं, यह फ़िल्म के क्लाईमेक्स में देखने को मिलता है।

द बर्निंग ट्रेन मानवीय साहस की एक अद्भुत गाथा है। प्रारंभिक भाग को छोड़कर (जिसमें नायक-नायिकाओं का रोमांस तथा कथानक का आधार बनाना सम्मिलित है) फ़िल्म रणधीर द्वारा लगाए गए बम के फटने के उपरांत रेलगाड़ी के बेकाबू होने एवं उसमें आग लग जाने पर ही केंद्रित है। यह सम्पूर्ण भाग लोमहर्षक है तथा दर्शकों को सांस रोके फ़िल्म को देखते चले जाने पर विवश कर देता है। नायकों के रेलगाड़ी की छत पर चढ़ने, गार्ड के डिब्बे से यात्रियों के डिब्बे में जाने, आग में फंसे लोगों को बचाने, आग में से (फ़ायर-प्रूफ़ पोशाक पहनकर) गुज़रने तथा अंत में विनोद द्वारा एक दूसरे इंजन से जलती हुई गाड़ी में पहुँचकर पहले रणधीर से अंतिम संघर्ष करने एवं उसके उपरांत इंजन तथा गाड़ी के मध्य के कपलिंग को उड़ाकर यात्रियों को बचाने के सभी दृश्य कला-निर्देशक, छायाकार, एक्शन निर्देशक, कलाकारों एवं सबसे बढ़कर मुख्य निर्देशक के सामूहिक प्रयासों के फलस्वरूप देखने लायक बन पड़े हैं। फ़िल्म यह बताती है कि बड़ी-से-बड़ी मुसीबत में भी इंसान का साहस उसके काम आता है एवं साहसी तथा कर्मठ मनुष्य लगभग असंभव लगने वाले कार्यों को भी करके दिखा सकते हैं। जिस तरह से फ़िल्म के चारों नायक – विनोद, अशोक, रवि एवं राकेश – नामुमकिन से लगने वाले कारनामों को सरंजाम देते हैं तथा लगभग पाँच सौ मुसाफ़िरों की जान बचाते हैं, वह देखने वालों को रोमांच ही नहीं, प्रेरणा से भी भर देता है। फ़िल्म में छात्र बालकों को लेकर यात्रा कर रही अध्यापिका (सिमी) का पात्र भी प्रेरणादायक है तथा एक महिला कव्वाल (आशा सचदेव) का भी। विभिन्न यात्रियों का उपचार करने वाले चिकित्सक (नवीन निश्चल) का पात्र भी प्रेरणादायक है तो गार्ड का भी।

फ़िल्म पति-पत्नी के संबंध पर भी प्रकाश डालती है। जहाँ फ़िल्म यह बताती है कि पति को पत्नी एवं संतान के प्रति अपने कर्तव्य को उपेक्षित नहीं करना चाहिए, वहीं यह भी बताती है कि पत्नी को संकट के समय अपने पति को भावनात्मक संबल देना चाहिए एवं उसकी शक्ति बनना चाहिए। घर छोड़कर जा चुकी शीतल जब यह समझ जाती है तो वह परिस्थिति से जूझ रहे विनोद को भावनात्मक सहारा देने उसके पास पहुँचती है। सीमा का पात्र भी फ़िल्म के अंतिम भाग में दर्शकों की सहानुभूति प्राप्त कर लेता है जब वह अशोक को अपने दूर चले जाने का कारण बताती है।

फ़िल्म में रवि एवं मधु के पात्र केवल फ़िल्म की स्टार वैल्यू बढ़ाने हेतु डाले गए लगते हैं क्योंकि मूल कथानक से उनका संबंध नहीं है। लेकिन वे भी तथा राकेश व विभिन्न सहायक पात्रों के चरित्र भी प्रभावी हैं। फ़िल्म में कलाकारों की भरमार है तथा हास्य उत्पन्न करने हेतु डाले गए कुछ पात्रों को छोड़कर लगभग प्रत्येक कलाकार अपनी पहचान बनाए रखता है। जहाँ तक प्रमुख पात्रों का प्रश्न है, सभी कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं को जीवंत कर दिया है।     

राहुल देव बर्मन ने कुल मिलाकर तो फ़िल्म में कोई यादगार संगीत नहीं दिया है किंतु एक कव्वाली तथा छात्र बालकों एवं उनकी अध्यापिका द्वारा गाई गई वंदना अच्छी बन पड़ी हैं। पार्श्व संगीत निस्संदेह अच्छा है तथा फ़िल्म के रोमांचक वातावरण के रोमांच को बढ़ाने वाला है। कमलेश्वर ने पटकथा के साथ-साथ फ़िल्म के संवाद भी लिखे हैं जो प्रभावी हैं।

बड़ी लागत से अत्यंत परिश्रमपूर्वक बनाई गई द बर्निंग ट्रेन व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही थी। संभवतः भारतीय दर्शकों हेतु यह समय से आगे की फ़िल्म थी। परंतु यह एक आद्योपांत रोचक फ़िल्म है जिसे जब भी देखा जाए मनोरंजन के साथ-साथ प्रेरणा भी मिलती है।

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मंगलवार, 25 मार्च 2025

हिप हिप हुर्रे, चक दे इंडिया और 83

बॉलीवुड में खेलों पर आधारित फ़िल्में पहले नहीं बनती थीं। 'हिप हिप हुर्रे' नामक फ़िल्म एक अपवाद के रूप में १९८४ में दर्शकों के समक्ष आई थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी में ऐसी ढेरों फ़िल्में बनकर आ चुकी हैं। कुछ सच्ची खेल घटनाओं तथा खेलों से जुड़े वास्तविक व्यक्तियों पर आधारित हैं तो शेष काल्पनिक। बहुत-सी फ़िल्में साधारण रही हैं तो कुछ उत्कृष्ट। इस आलेख में ऐसी सभी फ़िल्मों को समाविष्ट करने के स्थान पर मैं केवल तीन अच्छी फ़िल्मों पर बात करूंगा। ये तीन फ़िल्में इस प्रकार हैं:

हिप हिप हुर्रे (१९८४): 'हिप हिप हुर्रे' एक निर्देशक के रूप में प्रकाश झा की प्रथम फ़िल्म थी। इसे एक खेल-आधारित फ़िल्म के रूप में भी देखा जा सकता है एवं शिक्षक तथा विद्यार्थियों के संबंधों पर आधारित फ़िल्म के रूप में भी। एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाने वाले नायक द्वारा फ़ुटबॉल के खेल में दूसरे विद्यालय के दल से सदा हारने वाले अपने छात्रों को जीतना सिखाने के विषय को दर्शाने वाली फ़िल्म है यह। कथ्य का निर्वाह प्रशंसनीय ढंग से किया गया है तथा नायक की भूमिका में राज किरण के साथ-साथ अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। फ़िल्म आदि से अंत तक रोचक है एवं प्रेरणास्पद भी। वास्तविक अर्थों में यह हिंदी फ़िल्मों में खेलों पर आधारित फ़िल्मों का आरम्भ थी। जब यह प्रदर्शित हुई थी तो बहुत-से लोगों ने इसे व्यावसायिक सिनेमा के अंतर्गत नहीं माना था एवं समानांतर सिनेमा की जो धारा सत्तर के दशक में प्रवाहित हुई थी, का ही अंग माना था। लेकिन यह फ़िल्म गीत-संगीत सहित व्यावसायिक सिनेमा के सभी मानदंडों पर खरी उतरती है। खेल से अधिक शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर ध्यान देने वाली यह फ़िल्म आज भी देखी जाए तो ताज़गी भरी लगती है। 

चक दे इंडिया (२००७): 'चक दे इंडिया' निश्चित रूप से भारत में बनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ खेल-फ़िल्म है। इसे भारतीय हॉकी दल के पूर्व गोलकीपर मीर रंजन नेगी के जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरित बताया जाता है किंतु इसके कुछ प्रसंग मुझे 'हिप हिप हुर्रे' से भी प्रेरित लगे। जिस तरह १९८२ के एशियाई खेलों की हॉकी प्रतियोगिता के फ़ाइनल में पाकिस्तान से हुई अपमानजनक पराजय के उपरांत नेगी को लांछित किया गया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म के नायक (शाह रूख़ ख़ान) को किया जाता है तथा जिस प्रकार नेगी ने वर्षों के अंतराल के उपरांत भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करके उसे २००२ के राष्ट्रकुल खेलों में विजेता बनाया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म का नायक भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करने का दायित्व लेकर उसे महिला हॉकी के विश्व कप में विजेता बनवाता है। नेगी ने इस फ़िल्म के निर्माण में सहयोग दिया तथा अनेक कलाकारों को हॉकी खेलना सिखाया ताकि वे फ़िल्म में अपनी भूमिकाएं सही ढंग से निभा सकें। इससे फ़िल्म के हॉकी खेलने से संबंधित दृश्य अत्यंत विश्वसनीय बन पड़े हैं। 

लेकिन 'चक दे इंडिया' की कथा खेल से ऊपर उठकर भावनाओं से भी जुड़ी है। फ़िल्म में नायक के साथ-साथ उसके द्वारा प्रशिक्षित लड़कियों की भावनाओं को भी उत्कृष्ट तरीके से उभारा गया है। चूंकि फ़िल्म में ऐसी सोलह लड़कियां हैं, अतः सीमित अवधि में सभी की उपकथाओं को सम्मिलित करना एवं सभी के साथ न्याय करना व्यावहारिक नहीं था। किंतु लेखक जयदीप साहनी तथा निर्देशक शिमित अमीन ने कई खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का उचित अवसर दिया है। खेल के मैदान में भी तथा मैदान के बाहर भी विभिन्न दृश्यों एवं प्रसंगों को विश्वसनीय एवं प्रभावशाली बनाया गया है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि फ़िल्म में त्रुटियां नहीं हैं, किंतु फ़िल्म में ख़ूबियां इतनी अधिक हैं कि वे ख़ामियों पर भारी पड़ती हैं। फ़िल्म में जो बात प्रमुखतः रेखांकित की गई है, वह यह है कि किस प्रकार प्रशिक्षक पृथक्-पृथक् प्रदेशों से आई महिला खिलाड़ियों को स्वयं को एक दल के रूप में देखना, समझना एवं एक-दूसरी के साथ समन्वय करना सिखाता है। फ़िल्म में महिला खिलाड़ियों का पुरुष खिलाड़ियों के विरूद्ध मैच खेलने का दृश्य अनूठा एवं अत्यन्त प्रभावी है।

'चक दे इंडिया' न केवल खिलाड़ियों द्वारा अपने को भारतीय समझकर भारत के लिए खेलने की सोच को मन में उतारने पर बल देती है बल्कि महिलाओं द्वारा अपनी अस्मिता को महत्व दिये जाने एवं आत्म-सम्मान के साथ जीने की भावना को भी पुरज़ोर ढंग से दर्शाती है। इस फ़िल्म की महिला खिलाड़ी पुरुष खिलाड़ियों तथा अन्य पुरुषों द्वारा भी अपने को (तथा अपने खेल को) कमतर समझे जाने को सिरे से नकारती हैं तथा अपने खेल एवं व्यवहार दोनों ही से सिद्ध करती हैं कि वे पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं। फ़िल्म में महिलाओं से जुड़ी पुरुष-प्रधान मानसिकता को बताया भी गया है एवं उसका खंडन भी किया गया है। ऐसी मानसिकता खेल-संघों के पदाधिकारियों (जिनमें महिलाएं भी हो सकती हैं) में तो होती ही है, पुरुष खिलाड़ियों में भी हो सकती है। और फ़िल्म इसका एक ही हल बताती है - मैदान पर जाकर अपने को साबित करना। फ़िल्म के अनेक दृश्य प्रेरणा से भरे हैं - महिलाओं के लिए भी तथा ज़िन्दगी से चोट खाए हुए व्यक्तियों के लिए भी। गीत-संगीत, फ़िल्मांकन, अभिनय तथा तकनीकी पक्ष, सभी उत्तम हैं। इस फ़िल्म को चाहे जितनी बार देखा जा सकता है। यह फ़िल्म सभी को पसंद आने वाली है चाहे वे हॉकी में रूचि रखते हों या नहीं।

83 (२०): 83 (तिरासी) भारतीय पुरुष क्रिकेट दल द्वारा १९८३ में इंग्लैंड में आयोजित विश्व कप को अप्रत्याशित ही नहीं, अविश्वसनीय ढंग से जीतने की गाथा है। चूंकि यह एक सच्ची बात है, फ़िल्म में कलाकारों द्वारा अभिनीत दृश्यों के साथ-साथ वास्तविक फ़ुटेज भी दिखाए गए हैं। केवल कप्तान कपिल देव द्वारा ज़िम्बाब्वे के विरूद्ध खेली गई अविजित १७५ रनों की पारी वाले मैच के मामले में यह संभव नहीं हो सका है क्योंकि बीबीसी की हड़ताल के कारण उस मैच की रिकॉर्डिंग नहीं हो सकी थी। जिन लोगों ने उस विश्व कप को रेडियो पर सुना तथा दूरदर्शन पर देखा था, वे इस फ़िल्म के साथ स्वयं को अधिक अच्छी तरह से जोड़ सकते हैं। साथ ही दूसरा सच यह भी है कि ऐसे (क्रिकेट-प्रेमी) दर्शक ही फ़िल्म की अनेक ख़ामियों को भी पकड़ सकते हैं। इसकी तुलना 'चक दे इंडिया' से होनी स्वाभाविक है परंतु इसमें वो प्रेरणादायी तत्व नहीं है जो 'चक दे इंडिया' में है। लेकिन फ़िल्म अत्यधिक रोचक है तथा क्रिकेट-प्रेमियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं। उस समय भारतीय क्रिकेट दल का नेतृत्व करने वाले कपिल देव भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय खिलाड़ियों में से एक हैं, अतः उनके प्रशंसकों को तो यह फ़िल्म पसंद आनी ही आनी है।

इस फ़िल्म का कथानक केवल विश्व कप के लिए भारतीय दल के इंग्लैंड रवाना होने से लेकर उसके विश्व कप फ़ाइनल जीतने तक सीमित है। कुछ कल्पित (और वास्तविक भी) प्रसंग अवश्य पिरोए गए हैं पर मूलतः फ़िल्म बस यही है। इसीलिए सारा ध्यान केवल भारत द्वारा खेले गए मैचों तथा उनके पूर्व एवं पश्चात् के घटनाक्रम पर लगाया गया है। भारत में क्रिकेट एक धर्म की भांति है, इसीलिए क्रिकेट की यह जीत भारतीयों के लिए गर्व एवं प्रसन्नता का एक अजस्र स्रोत है। हॉकी में जीते गए ओलंपिक पदकों को छोड़कर दल-आधारित खेलों में इसे भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इस जीत ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को अपने देश का गौरव-गान करने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया था। अतः इस फ़िल्म का महत्व बहुत अधिक है। यह दर्शकों को उस काल में ले जाती है तथा प्रसन्नताओं एवं (कुछ मैचों में हुई हारों के कारण लगे) आघातों से पुनः साक्षात् करवाती है। ख़ामियां बहुत हैं; यथा कुछ मैचों एवं प्रदर्शनों को अधिक महत्व दिया जाना जबकि कुछ पर यथेष्ट ध्यान न दिया जाना, देशप्रेम का नगाड़ा बार-बार कुछ ज़्यादा ही बजाया जाना, कुछ खिलाड़ियों के निजी जीवन को अनावश्यक रूप से दर्शाया जाना आदि। पर अपनी समग्रता में यह फ़िल्म दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है। हाँ, जिन लोगों को क्रिकेट में रूचि नहीं है, उन्हें यह पसंद नहीं आ सकती। 

फ़िल्म में उस भारतीय दल के लगभग सभी खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का कम-से-कम एक अवसर तो दिया ही गया है जो अच्छी बात है। किंतु कपिल देव की असाधारण शतकीय पारी को छोड़कर ऐसे पल कम ही हैं जो देखने वालों को प्रेरणा दें। खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे दे पाए तथा विभिन्न मैचों में विजय कैसे मिल सकी, इसका स्पष्टीकरण नहीं है। भारतीय दल एक अत्यन्त कमज़ोर प्रतिभागी के रूप में गया था, इसीलिए पहले मैच में मिली विजय से लेकर अंत में फ़ाइनल मुक़ाबले में मिली विजय तक सभी जीतें अप्रत्याशित एवं अचंभित करने वाली थीं; यह बात तो निर्देशक कबीर ख़ान ने बता दी पर उन जीतों एवं भारतीय दल के शानदार प्रदर्शन के कारण को वे ठीक से समझा नहीं सके। फ़िल्म में बेकार का हास्य न डाला जाता तो अच्छा रहता। साम्प्रदायिक वैमनस्य को दूर  करने हेतु क्रिकेट का उपयोग भी अनावश्यक ही लगता है। 83 का सबसे उज्ज्वल पक्ष है क्रिकेट संबंधी दृश्यों का अत्यन्त प्रभावी फ़िल्मांकन। दर्शक की रूचि एवं रोमांच को ये दृश्य ही बनाए रखते हैं। गीत-संगीत ठीक है एवं विभिन्न खिलाड़ियों की भूमिकाएं करने वाले कलाकारों का अभिनय उच्चस्तरीय है - विशेष रूप से कपिल देव की भूमिका में रणवीर सिंह एवं दल के प्रबंधक पी.आर. मानसिंह की भूमिका में पंकज त्रिपाठी का। कलाकारों को वास्तविक खिलाड़ियों जैसा रंगरूप (गेटअप) देने में भी परिश्रम किया गया है। कुल मिलाकर फ़िल्म अच्छी ही है।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा, अब खेलों एवं खिलाड़ियों पर आधारित अनेक फ़िल्में आ चुकी हैं - अच्छी भी, बुरी भी। पर ये तीन फ़िल्में हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती हैं। खेल-प्रेमियों को इन्हें अवश्य देखना चाहिए।