शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

स्त्री-पुरुष के अतीत और वर्तमान में सामंजस्य दर्शाने वाली कथा

जीवन में प्रेम अधिकांश स्त्री-पुरुष करते हैं। लेकिन सभी अपने प्रेम को जीवन भर के लिए प्राप्त नहीं कर पाते। प्रेम किसी से हुआ होता है और विवाह किसी और से हो जाता है। ऐसे में अपने अतीत को पीछे छोड़कर वर्तमान को स्वीकार करना ही होता है। स्त्रियां इस कार्य को अधिक सुगमता से कर पाती हैं तथा विवाह की पवित्र अग्नि में अपने अतीत को भस्म करके एक नये जीवन का आरंभ कर लेती हैं क्योंकि उनकी मानसिकता परिवार तथा समाज के पारम्परिक परिवेश में विकसित हुई होती है। इसके अतिरिक्त विवाहोपरांत मातृत्व भी उनके जीवन का एक नया मोड़ होता है जिसके उपरांत वही उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य बन जाता है और अन्य सभी बातें पार्श्व में चली जाती हैं। ऐसे में विवाह-पूर्व का कोई संबंध उनके लिए अब कोई महत्व नहीं रखता।

किंतु अनेक पुरुष ऐसा नहीं कर पाते। वे अतीत में विचरते हैं तथा वर्तमान में जिस संबंध में वे बंधे हैं उसे उतना महत्व नहीं दे पाते जितना कि देना चाहिए। इसका उनके वैवाहिक जीवन पर अनुचित प्रभाव पड़ता है। होना तो यही चाहिए कि अतीत को पीछे छोड़कर वर्तमान में ही जिया जाए तथा अपने जीवन-साथी को उसके सम्पूर्ण रूप में स्वीकार किया जाए (बिना किसी से तुलना किए हुए)। चूंकि किसी भी प्रेम-संबंध में पुरुष एवं स्त्री दोनों ही सम्मिलित होते हैं, विवाहित पुरुष को यह समझना चाहिए कि उसकी तरह उसकी पत्नी का भी विवाह-पूर्व का कोई संबंध हो सकता है जिसका वर्तमान संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। यद्यपि किसी को क्षमा करने वाली बात तर्कपूर्ण नहीं है क्योंकि प्रेम करना कोई अनुचित बात नहीं है, तथापि यदि पति चाहता है कि उसकी पत्नी उसके ऐसे किसी (पूर्व) संबंध हेतु उसे क्षमा कर दे तो ऐसा ही क्षमाशील उसे भी अपनी पत्नी के प्रति होना चाहिए।

निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा द्वारा निर्मित फ़िल्म कभी-कभी (१९७६) ऐसी ही एक कथा है जिसमें विवाह के भीतर एवं बाहर (विवाह-पूर्व) के संबंधों का प्रस्तुतीकरण है। यह फ़िल्म कहती है कि किसी को अपनी स्मृति में रखना एक बात है किंतु उस स्मृति को अपने वर्तमान संबंध को प्रभावित करने देना दूसरी बात जिससे कि बचा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपनी जीवन-संगिनी के किसी विवाह-पूर्व के संबंध को भी खुले मन से स्वीकार करना चाहिए क्योंकि इसी से व्यक्ति अपने आप के साथ समन्वय स्थापित करके शांति से पारिवारिक जीवन जी सकता है। दोहरे मानदंड अपनाना – अपने लिए कुछ और तथा अपने जीवन-साथी के लिए कुछ और, पूर्णतः त्याज्य है। युवावस्था में प्रेम कभी भी और किसी से भी हो सकता है लेकिन किसी और से विवाह हो जाने पर विवाहोपरांत जीवन नये सिरे से आरंभ होता है। यह बात अपने लिए भी तथा अपने जीवन-साथी के लिए भी भलीभांति समझ ली जानी चाहिए।

कभी-कभी कॉलेज जीवन में अमित (अमिताभ बच्चन) एवं पूजा (राखी) के प्रेम को बताती है। अमित शायर है तथा वह पूजा के प्रेम से ही प्रेरित होकर शायरी करता है। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि पूजा को विजय (शशि कपूर) से विवाह करना पड़ता है। वह अमित से वचन लेती है कि वह शायरी करना जारी रखेगा। अमित इस वचन को नहीं निभा पाता। वह अपने पिता के व्यवसाय में व्यस्त हो जाता है तथा अंजलि (वहीदा रहमान) से विवाह कर लेता है। जहाँ विजय एवं पूजा एक पुत्र विकी (ऋषि कपूर) के माता-पिता बनते हैं, वहीं अमित एवं अंजलि एक पुत्री स्वीटी (नसीम) के माता-पिता बनते हैं।

वर्षों बीत जाते हैं। बच्चे बड़े हो चुके हैं। विकी को पिंकी (नीतू सिंह) से प्रेम हो जाता है। पिंकी को अचानक पता चलता है कि उसे पालने वाले माता-पिता ने उसे गोद लिया था एवं उसके वास्तविक माता-पिता कोई और हैं। वह अपनी माता की तलाश में निकलती है और अंजलि तक जा पहुँचती है जो कि उसकी वास्तविक माता है जिसने उसे विवाह से पूर्व जन्म दिया था। उसे अपनी बच्ची को गोद इसलिए देना पड़ा था क्योंकि बच्ची के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी एवं उनका विवाह नहीं हो सका था। चूंकि उसने अपने पति अमित को इस विषय में कुछ नहीं बताया था, वह पिंकी को अपनी बहन की बेटी बताकर परिवार में परिचित करवाती है। विकी भी पिंकी के पीछे-पीछे वहीं जा पहुँचता है। अमित एवं अंजलि की पुत्री स्वीटी उससे प्रेम करने लगती है।

इधर विजय को पता चलता है कि उसकी पत्नी पूजा का विवाह से पूर्व अमित से प्रेम-संबंध था। वह स्वयं अमित की शायरी का प्रशंसक रहा है एवं उसने अपनी सुहागरात को पूजा को अमित की ही शायरी की पुस्तक भेंट की थी। जब अतीत से जुड़ी बातें वर्तमान में सतह पर आती हैं एवं सभी को पता चलती हैं तो रिश्ते उलझ जाते हैं। अमित को पता चलता है कि पिंकी अंजलि की विवाह-पूर्व की संतान है तो वह अंजलि से दूर हो जाता है। अंततः इन सभी लोगों का विवेक जागृत होता है तथा वे अतीत को वर्तमान की वास्तविकता के साथ स्वीकार कर लेते हैं। फ़िल्म के क्लाईमेक्स में विकी एक दुर्घटना से स्वीटी की जान बचाता है तथा उसे अपने और पिंकी के प्रेम के विषय में बताता है तो उसके एवं पिंकी के संबंध में स्वीटी की ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है तथा वह उनके प्रेम को स्वीकार कर लेती है। अमित भी पिंकी को अपनी पुत्री की तरह स्वीकार कर लेता है एवं अंजलि को स्वयं को छोड़कर नहीं जाने देता।

यश चोपड़ा रोमांटिक फ़िल्में बनाने में सिद्धहस्त माने जाते थे। इस फ़िल्म में भी उनकी इस प्रवीणता का पता चलता है। फ़िल्म की कहानी उनकी पत्नी पामेला चोपड़ा ने लिखी है जबकि पटकथा सागर सरहदी ने लिखी है जिसमें कई मोड़ हैं जो दर्शकों को बांधे रखते हैं । यश चोपड़ा ने फ़िल्म की कथा को कहीं पर भी पटरी से नहीं उतरने दिया है तथा दर्शकों को फ़िल्म के परदे पर उमड़ रहे भावनाओं के सागर में डूबने-उतराने का पूर्ण अवसर दिया है। चाहे युवा पीढ़ी का रोमांस हो हो या परिपक्व व्यक्तियों का प्रेम, वह वास्तविक लगता है, बनावटी नहीं। विवाहित स्त्री-पुरुषों द्वारा अपने अतीत एवं वर्तमान में सामंजस्य स्थापित करने को दर्शाने वाली इस फ़िल्म का प्रवाह स्वाभाविक है एवं दर्शकों को अपने साथ बहाए ले चलता है। आदि से अंत तक रोचक इस फ़िल्म की शूटिंग कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में की गई है तथा साहिर के गीतों पर ख़य्याम ने मधुर संगीत दिया है। मुकेश का गाया हुआ गीत कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है हिंदी फ़िल्म संगीत के इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रेमगीतों में सम्मिलित किया जाता है। अन्य गीत भी अच्छे बन पड़े हैं।

यश चोपड़ा ने नवोदित नसीम सहित सभी कलाकारों से अत्यन्त स्वाभाविक अभिनय करवाया है। वे सदा ही अमिताभ बच्चन, शशि कपूर तथा राखी जैसे कलाकारों से उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन निकलवाने में सफल रहे थे। कभी-कभी में भी इन सभी कलाकारों के साथ-साथ वहीदा रहमान, ऋषि कपूर एवं नीतू सिंह ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ ही दिया है। जिस प्रकार की कथा है, उसमें अपनी आंतरिक भावनाओं का प्रदर्शन न्यूनतम प्रयास के साथ बिना किसी प्रकार की नाटकीयता के किया जाना था। सभी कलाकार ऐसा करने में सफल रहे हैं।

यश चोपड़ा के बैनर यश राज फ़िल्म्स की प्रतिष्ठा के अनुरूप यह एक भव्य फ़िल्म है। तकनीकी रूप से फ़िल्म उत्कृष्ट है। अनेक स्थलों पर यह फ़िल्म दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ देती है। आँखों को सुहाने वाली तथा कानों में माधुर्य घोलने वाली इस फ़िल्म को एक क्लासिक प्रेमकथा माना जाता है। वस्तुतः यह एक परिपक्व प्रेमकथा कही जा सकती है जिसमें नई एवं पुरानी दोनों ही पीढ़ियों के लिए कुछ-न-कुछ है। गुणवत्तापूर्ण सिनेमा के शौकीनों के लिए भी तथा अमिताभ, शशि, राखी, ऋषि, नीतू जैसे कलाकारों के प्रशंसकों के लिए भी यह फ़िल्म किसी तोहफ़े से कम नहीं।

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बुधवार, 26 नवंबर 2025

वेद प्रकाश शर्मा और शिखंडी

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ने अपने कई उपन्यास विदेशी फ़िल्मों के कथानकों से प्रेरित होकर लिखे थे। उनका ऐसा ही एक उपन्यास है शिखंडी जो कि हॉलीवुड फ़िल्म माइनॉरिटी रिपोर्ट (Minority Report) से प्रेरित होकर लिखा गया है। यह फ़िल्म २००२ में प्रदर्शित हुई थी एवं १९५६ में प्रकाशित इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी। वेद प्रकाश शर्मा ने इस फ़िल्म से प्रेरित होकर इसके कथानक का पूर्णतः भारतीयकरण करते हुए अपना यह उपन्यास लिखा जो कि एक अत्यन्त रोचक पुस्तक है।

उपन्यास का कथानक भविष्य के हत्यारों को (हत्या करने से पूर्व ही) पकड़ने वाले एक दल के कार्यकलापों को बताता है। इस दल को एक उद्योगपति सिंहानिया द्वारा बनाया गया है जो कि इस दल के माध्यम से कानून की सहायता करने की बात करता है। यह दल अपना काम एक अद्भुत शक्तियों वाले बालक विशेष के कारण कर पाता है जिसमें कि भविष्य में होने वाली हत्याओं को पहले से ही देख लेने की दैवीय क्षमता है। वह जब भी ऐसा कुछ देखता है, उसे इस दल को समय और स्थान की सूचना (जो उसे देखते हुए उपलब्ध हो सके) के साथ-साथ बताता है और फिर यह दल तुरंत उस हत्यारे को हत्या करने से रोकने के लिए संबंधित स्थान की ओर प्रस्थान कर देता है।

इस दल का मुखिया है एक भूतपूर्व कमांडो पारस श्रीवास्तव जो कि एक जांबाज़ युवक है। उसके अन्य साथी भी उसी की तरह साहसी एवं अपने-अपने कार्यक्षेत्र में प्रवीण हैं। पारस एवं उसके साथियों द्वारा कई हत्याओं को होने से पूर्व ही रोक लेने के पश्चात् जहाँ एक ओर सिंहानिया अपने वकीलों के माध्यम से न्यायालय में यह बात रखता है कि भविष्य के हत्यारों को भी वास्तविक हत्यारों की भांति ही दंडित किया जाना चाहिए (यद्यपि उन्हें हत्या नहीं करने दी गई), वहीं दूसरी ओर भविष्य के हत्यारों को पकड़ने के एक प्रोजेक्ट को स्वीकृति हेतु सरकार के पास भेजा जाता है। सरकार मुश्ताक़ नामक एक अधिकारी को विशेष की विशिष्ट क्षमताओं के सत्यापन एवं तदनुरूप इस प्रस्तावित प्रोजेक्ट पर अपनी जाँच रिपोर्ट देने हेतु भेजती है।

विशेष नामक इस बालक के बारे में सिंहानिया सबको यह बताता है कि उसने विशेष को उसके वास्तविक माता-पिता से गोद ले लिया है। उसे एक गोपनीय स्थान पर अत्यन्त कड़ी सुरक्षा में रखा जाता है ताकि कोई अपराधी उस तक न पहुँच पाए। लेकिन मुश्ताक़ सहित सभी लोग तब अचंभे में पड़ जाते हैं जब विशेष अपनी ही माता की हत्या होते देख लेता है और वह भी भूतकाल में। जब सब लोग विशेष के जन्मस्थल तक पहुँचते हैं तो पता चलता है कि हत्या वास्तव में हो चुकी है और वह विशेष के पिता ने की है जैसा कि विशेष ने देखा था। लेकिन मुश्ताक़ यह सिद्ध कर देता है कि विशेष का पिता निर्दोष है।

इधर मुश्ताक़ सरकार को विशेष की क्षमताओं एवं प्रस्तावित प्रोजेक्ट के संबंध में अपनी सकारात्मक रिपोर्ट देने का मन बना ही रहा होता है कि अचानक विशेष इस दल के मुखिया पारस को ही किसी की हत्या करते हुए देख लेता है। पारस यह जानकर भौंचक्का रह जाता है। उस पर दूसरा आघात यह होता है कि उसके पुत्र का कोई अपहरण कर लेता है। अब जहाँ दल एवं सिंहानिया पारस को यह समझाना चाहते हैं कि वह अपने आप को दल की सुरक्षा में रखे, वहीं मुश्ताक़ उसे भविष्य के हत्यारे के रूप में गिरफ़्तार करना चाहता है। लेकिन पारस को अपने पुत्र की चिंता है। वह भाग निकलता है। विभिन्न घटनाओं तथा कथानक में आए अनेक मोड़ों के उपरांत वास्तविकता का पता चलता है।

उपन्यास का नाम शिखंडी इसलिए रखा गया है क्योंकि महाभारत महाकाव्य में शिखंडी नामक एक पात्र है जिसकी ओट में से अर्जुन ने भीष्म पितामह पर बाण बरसाए थे और पितामह उनका उचित प्रत्युत्तर इसलिए नहीं दे पाए क्योंकि शिखंडी पूर्व में स्त्री था एवं पितामह ऐसे व्यक्ति पर प्रहार नहीं कर सकते थे; उपन्यास का केंद्रीय पात्र पारस शिखंडी की ही भांति है जिसकी ओट में से वास्तविक अपराधी अपनी चालें चलता है। पारस को शिखंडी बनाकर ही उसने अपने सम्पूर्ण षड्यंत्र का ताना-बाना बुना था।

उपन्यास चाहे वेद जी की मौलिक रचना नहीं है, इसे उनके श्रेष्ठ उपन्यासों में रखा जा सकता है। पाठक को आरंभ से अंत तक बांधे रखने वाला यह उपन्यास इस तथ्य को रेखांकित करता है कि मनुष्य की नाम कमाने की अभिलाषा भी उससे बहुत कुछ (उचित या अनुचित) करवा लेती है। उपन्यास में एक महात्मा जी का पात्र भी है जो कि दिव्य दृष्टि रखते हैं तथा पारस की सहायता करते हैं (जब वह अपने पुत्र को ढूंढ़ने एवं स्वयं को गिरफ़्तारी से बचाने हेतु भाग निकलता है)। इसमें पारस की पत्नी का पात्र भी है जो पारस से अलग हो चुकी है। उपन्यास में यह भी बताया गया है कि विशेष को जिस सुरक्षित स्थान पर रखा गया था उसके बाहर एक मानव-निर्मित वन है जिसमें अनेक हिंसक पशु हैं। इससे उपन्यास का वह अंश जिसमें पारस उस वन से होता हुआ विशेष तक पहुँचता है, पाठकों को रोमांचित कर देने वाला बन पड़ा है।

हिंदी के जिन पाठकों ने हॉलीवुड फ़िल्म माइनॉरिटी रिपोर्ट नहीं देखी है (एवं संबंधित पुस्तक नहीं पढ़ी है), उनके लिए शिखंडी को पढ़ना एक अद्भुत एवं रोमांचकारी अनुभव होगा। एक बार पढ़ना आरंभ कर देने के उपरांत इस उपन्यास को बीच में छोड़ना संभव नहीं है। अपने मूल प्रकाशन के वर्षों बाद भी यह ताज़गी भरा लगता है। वेद प्रकाश शर्मा की सशक्त लेखनी से निकला सरल हिंदी में लिखा गया यह असाधारण उपन्यास पाठकों को सम्मोहित कर देने वाला है, इसमें संदेह नहीं।

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बुधवार, 5 नवंबर 2025

वेद प्रकाश शर्मा और फ़ेयरफ़ैक्स स्कैंडल

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा सदैव समसामयिक विषयों पर अपनी क़लम चलाने में विश्वास रखते थे। जब भी कोई घटना राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होने लगती थी, वे उस पर आधारित उपन्यास लिखने लगते थे (अथवा उस घटना को अपने उपन्यास में स्थान दे देते थे)। ऐसी ही एक घटना थी – १९८७ में भारत सरकार द्वारा फ़ेयरफ़ैक्स नामक अमरीकी संस्था को विदेशों में जमा भारतीय धन की जाँच का काम सौंपा जाना। कहा जाता है कि तत्कालीन भारतीय वित्त मंत्री वी.पी. सिंह ने यह कार्य अपने प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की सहमति के बिना किया था। इस बात पर संसद में विपक्ष ने बहुत शोर-शराबा किया था एवं अंततः सरकार ने इस मामले की जाँच हेतु एक आयोग का भी गठन किया था। आम जनता तो इस तथ्य से परिचित नहीं थी कि फ़ेयरफ़ैक्स संस्था वस्तुतः क्या थी एवं उसे भारत सरकार द्वारा क्या दायित्व सौंपा गया था किंतु समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं के माध्यम से कुछ ऐसी धारणा बन गई कि वित्त मंत्री तो ईमानदार थे एवं विदेशों में जमा काले धन का पता लगाना चाहते थे जबकि प्रधानमंत्री ऐसा नहीं होने देना चाहते थे। मामले का सत्य तो आज तक छुपा हुआ ही है किंतु वेद प्रकाश शर्मा को इस मामले में अपने विजय-विकास सीरीज़ के उपन्यास की विषय-वस्तु मिल गई एवं उन्होंने दो भागों में विभाजित एक विस्तृत कथानक अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।


इस कथानक के दो भागों के नाम हैं – 1. विजय और केशव पंडित तथा 2. कोख का मोती। वेद प्रकाश शर्मा ने इस उपन्यास में विजय, विकास तथा अपने इस सीरीज़ के अन्य स्थायी पात्रों के साथ-साथ अपने ही द्वारा सृजित केशव पंडित के पात्र को भी लिया। उपन्यास में उन्होंने फ़ेयरफ़ैक्स का नाम फ़ेवर फ़ैक्ट्स रख दिया तथा यह बताया कि यह संस्था कोबरा संगठन नामक एक विशाल अपराधी संगठन की एक शाखा थी। चूंकि यह धारणा थी (एवं अब भी है) कि काला धन स्विस बैंकों में रखा जाता है, वेद प्रकाश शर्मा ने उपन्यास में स्विस बैंक को स्वांग बैंक कहा। विजय और विकास भारतीय गुप्तचर हैं जिन्हें भारतीय सीक्रेट सर्विस के मुखिया द्वारा यह दायित्व सौंपा जाता है कि वे स्वांग बैंक में प्रधानमंत्री से संबंधित जो लॉकर है (जिसमें एक विशाल धनराशि जमा है), उसके स्वामित्व की जानकारी को किसी भी सूरत में सार्वजनिक न होने दें। इसके लिए उन्हें आवश्यकता है एक कलाई घड़ी (रिस्टवॉच) तथा अंगूठी (रिंग) की जिन पर स्वांग बैंक के संबंधित खाते के लॉकर नम्बर एवं लॉक नम्बर लिखे हुए हैं।

इधर केशव पंडित जो कि स्वयं वकील न होते हुए भी भारतीय कानून का ज्ञान वकीलों से अधिक रखता है, राजनगर (वेद प्रकाश शर्मा अपनी विजय विकास सीरीज़ के उपन्यासों का घटनाक्रम इसी काल्पनिक नगर में दर्शाते हैं) में अपनी एक संस्था खोल लेता है जो कि विभिन्न अपराधों में पकड़े गए व्यक्तियों को कानून से बचाने का कार्य शुल्क लेकर करती है। विकास जो कि ऐसी बातों को लेकर अपना आपा खो बैठता है, जाकर केशव एवं उसके कर्मचारियों से मारपीट करता है एवं दुकान को क्षतिग्रस्त कर देता है। अब केशव भी पलटवार करते हुए विकास को गिरफ़्तार करवा देता है। आइंदा घटनाक्रम कुछ ऐसी करवट लेता है कि विकास की मारपीट के कारण केशव की पत्नी सोनू का गर्भपात हो जाता है और उससे प्रतिशोध लेने के लिए केशव पंडित कोबरा संगठन में सम्मिलित हो जाता है। उसके उपरांत होते हैं केशव तथा विजय-विकास के साथ-साथ संपूर्ण भारतीय सीक्रेट सर्विस के बीच घात-प्रतिघात जो तब तक चलते हैं जब तक कि विजय-विकास रिस्टवॉच एवं रिंग प्राप्त नहीं कर लेते तथा उनके एवं केशव पंडित के मध्य की ग़लतफ़हमियां दूर नहीं हो जातीं। अंत में विजय-विकास तथा केशव पंडित कोबरा संगठन के मुख्यालय को भी नष्ट करवा देने में सफल हो जाते हैं।

वेद प्रकाश शर्मा ने उपन्यास एक बहुत बड़े कैनवास पर लिखा है जिसमें घटनाओं की भरमार है तथा विजय-विकास एवं केशव पंडित के टकराव को कोबरा संगठन की गतिविधियों तथा फ़ेवर फ़ैक्ट्स द्वारा स्वांग बैंक में लिए गए लॉकर के तथ्य से जोड़ा गया है। वेद जी ने केशव पंडित नामक पात्र का सृजन पृथक् रूप से किया था एवं कानून के अगाध ज्ञान के कारण वे उसे कानून का बेटा बताते हैं। केशव का पात्र इस उपन्यास में पूरी तरह से उभर कर आता है एवं उपन्यास के अधिकांश भाग तक ऐसा लगता है कि विजय-विकास एवं भारतीय सीक्रेट सर्विस के साथ अपने टकराव में केशव पंडित पूरी तरह दूसरे पक्ष पर हावी है। पर विजय-विकास सीरीज़ के उपन्यास में विजय-विकास की पराजय हो, यह संभव नहीं। उपन्यास के दूसरे भाग का नाम कोख का मोती इसलिए रखा गया है क्योंकि केशव अपनी पत्नी के (जिसका कि गर्भपात हो जाता है) गर्भ में पल रहे शिशु को कोख का मोती कहता है (जिसकी मृत्यु का प्रतिशोध उसे विकास से लेना है)।

इसके अतिरिक्त वेद जी ने विकास को जल्दी उत्तेजित हो जाने वाला तो बताया है पर साथ ही वे यह  भी बताते हैं कि विकास की देशभक्ति अटूट है एवं अपने देश के हित के लिए वह अपने प्राणों पर खेल जाने से भी नहीं हिचकता। वेद जी ने सदा यह भी बताया है कि विजय एक अत्यंत बुद्धिमान एवं ठंडे दिमाग़ वाला व्यक्ति है जो जल्दबाज़ी में कभी कोई ग़लत क़दम नहीं उठाता। वह शांत भाव से परिस्थिति पर विचार करता है एवं सूझबूझ से उचित निर्णय लेता है। उपन्यास में विजय-विकास सीरीज़ के अन्य पात्रों यथा सीक्रेट सर्विस के मुखिया ब्लैक ब्वॉय, अन्य सीक्रेट एजेंट, अंतर्राष्ट्रीय अपराधी अलफ़ांसे, विकास के माता-पिता (रैना एवं पुलिस सुपरिंटेंडेंट रघुनाथ), विजय के पिता ठाकुर निर्भयसिंह जो कि राजनगर पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल हैं, धनुषटंकार अथवा मोंटो नामक बंदर (जिसकी देह में मनुष्य का मस्तिष्क है) आदि को भी समुचित स्थान दिया गया है।

जहाँ तक फ़ेयरफ़ैक्स (वेद जी के लिए फ़ेवर फ़ैक्ट्स) मामले का संबंध है, वेद जी ने अपना यह दृष्टिकोण बताया है कि भारत के प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री दोनों ही ईमानदार थे। चूंकि लॉकर का लिया जाना गोपनीय राष्ट्रीय हितों से जुड़ा था, प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्री से त्यागपत्र तो ले लिया किंतु उन दोनों ने लॉकर के रहस्य को उजागर नहीं होने दिया। वेद जी यह भी बताते हैं कि वित्त मंत्री को यह तथ्य पता नहीं था कि वह संस्था किसी अपराधी संगठन की शाखा है। इस प्रकार उन्होंने इस वास्तविक प्रकरण को अपने उपन्यासकार वाले मस्तिष्क से सुलझाते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री दोनों को ही दुग्ध-धवल बताया जो कि सच्चे मन से देश के हित के लिए कार्य कर रहे थे एवं संयोगवश ही यह स्कैंडल उठ खड़ा हुआ था जिसके लिए कोई दोषी नहीं था।

उपन्यास के दोनों ही भाग अत्यन्त रोचक हैं। जहाँ पहले भाग में विकास ही अधिक दोषी दिखाई देता है, वहीं दूसरे भाग में केशव पंडित एक अपराधी सरीखा दिखाई देने लगता है। विजय को भी वेद जी ने उपन्यास के अधिकांश भाग में विवश-सा दिखाया है (उसे केशव पंडित कोबरा संगठन की क़ैद में डलवा देता है) पर उस स्थिति में भी वह कौनसी चाल चल रहा है, यह उत्सुकता का विषय बना रहता है। जहाँ केशव का ध्यान अपने कोख के मोती की मृत्यु के प्रतिशोध पर केंद्रित है, वहीं विजय का ध्यान दोतरफ़ा है – एक ओर उसे विकास को केशव एवं कोबरा संगठन की शक्ति से बचाना है, दूसरी ओर लॉकर के रहस्य को गोपनीय बनाए रखने के अभियान (मिशन) को भी पूरा करना है। पाठक इतना तो अंदाज़ा लगा सकते हैं कि प्रमुख पात्रों में से कोई मरेगा नहीं तथा केशव पंडित भी अंततः कोबरा संगठन जैसे अपराधी संगठन के साथ काम नहीं करेगा लेकिन घटनाक्रम अपने चरम तक कैसे पहुँचेगा एवं लॉकर का रहस्य वास्तव में क्या है, यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है। कोबरा संगठन के शक्ति-प्रदर्शन से आरंभ हुए इस उपन्यास का अंत विजय और केशव पंडित द्वारा कोबरा संगठन को पहुँचाई गई चोट से होता है। सभी प्रमुख स्थायी पात्र देशप्रेम से ओतप्रोत हैं।

उपन्यास प्रथम बार १९८७ में वेद प्रकाश शर्मा द्वारा आरम्भ की गई अपनी प्रकाशन संस्था तुलसी पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ था। अपनी रोचकता के साथ-साथ उन दिनों भारत में फ़ेयरफ़ैक्स मामले के सुर्खियां बटोरने तथा तत्कालीन वित्त (बाद में रक्षा) मंत्री के त्यागपत्र के संदर्भ में यह सामयिक भी था। आज भी इस विस्तृत कथानक को पढ़ना एक अलग ही अनुभव प्रदान करता है। यह वेद प्रकाश शर्मा के विजय-विकास सीरीज़ के संसार (उसमें उपस्थित परिवेश एवं पात्रों) से भी परिचय करवाता है। एक बार पढ़ना आरंभ कर देने के उपरांत इसे पूरा पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता। वेद जी तो दिवंगत हो चुके हैं किंतु उनका सृजन अब भी सुधी पाठकों हेतु उपलब्ध है एवं यह कथानक उनके श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है, इसमें संदेह नहीं।

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सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

फ़िल्म में वास्तविक जीवन का प्रेम-त्रिकोण !

प्रसिद्ध फ़िल्मकार स्वर्गीय यश चोपड़ा प्रेमकथाओं के सुंदर चित्रण के लिए ही प्रमुखतः जाने जाते हैं यद्यपि उन्होंने दीवार’, त्रिशूल’, काला पत्थर जैसी फ़िल्मों का भी दिग्दर्शन किया जो प्रेमकथाओं से इतर विषयों पर आधारित थीं। १९८१ में उनके द्वारा निर्मित एवं निर्देशित फ़िल्म सिलसिला प्रदर्शित हुई जो कि एक प्रेम-त्रिकोण के कथानक पर आधारित थी। यह फ़िल्म न केवल व्यावसायिक रूप से असफल रही वरन फ़िल्म-समीक्षकों की भी आलोचना का पात्र बनी। किन्तु आने वाले समय में इसे एक क्लासिक माना गया। आज भी माना जाता है। आइ, देखें कि क्यों यह प्रदर्शन के समय दर्शकों एवं समीक्षकों की सराहना नहीं पा सकी एवं क्यों अब यह क्लासिक की श्रेणी में रखी जाती है। 

इस फ़िल्म की कास्टिंग कुछ ऐसी थी जिसने इसे प्रदर्शन से पूर्व ही चर्चा का विषय बना दिया था। फ़िल्म में प्रमुख भूमिकाएं अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी (बच्चन) एवं रेखा की थीं (यद्यपि संजीव कुमार एवं मेहमान भूमिका में शशि कपूर भी इस फ़िल्म में थे)। अमिताभ एवं जया वास्तविक जीवन में पति-पत्नी थे तथा विगत आठ वर्षों से (१९७३ से) विवाहित थे जबकि अमिताभ एवं रेखा के रोमांस के चर्चे विगत चार-पाँच वर्षों से फ़िल्मी दुनिया में चल रहे थे। अमिताभ और रेखा की जोड़ी दर्शकों में भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। ऐसे में फ़िल्मों से संन्यास ले चुकीं जया और उनके साथ रेखा को फ़िल्म में लेना ही एक अत्यन्त कठिन कार्य था जो यश चोपड़ा कैसे कर सके, आज तक एक रहस्य ही है।

फ़िल्म की कथा में बताया गया है कि अमिताभ एवं रेखा प्रेमी-युगल थे किन्तु अपने बड़े भाई शशि कपूर के आकस्मिक निधन के कारण अमिताभ को जया से विवाह करना पड़ा जबकि रेखा का विवाह संजीव कुमार से हो गया। विवाह के कुछ समय उपरांत अमिताभ एवं रेखा मिलते हैं तथा प्रेम की चिंगारी उनके मन में फिर से भड़क उठती है। ऐसे में अमिताभ, जया एवं रेखा का प्रेम-त्रिकोण बन जाता है (एक कोने पर संजीव कुमार भी विवश से इस विवाहेतर प्रेम को देख रहे होते हैं)। अमिताभ जया को छोड़कर रेखा के साथ जीवन बिताने चल देते हैं लेकिन समाज के बंधन उन्हें एवं रेखा को लौटने पर विवश कर देते हैं। अंत में अमिताभ एक विमान दुर्घटना से संजीव कुमार की जान बचाते हैं तथा वे और रेखा अपने-अपने परिवार में सीमित हो जाते हैं।


इस फ़िल्म के कथानक को अमिताभ तथा रेखा के वास्तविक प्रेम एवं उसके अमिताभ के (जया के साथ) वैवाहिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के चित्रण के रूप में देखा गया। यश चोपड़ा यूं तो साहसी फ़िल्मकार माने जाते थे पर सम्भवतः वे विवाहेतर संबंध को न्यायोचित ठहराने का साहस नहीं कर पाए। उस समय का भारतीय सामाजिक परिवेश एवं सामाजिक मान्यताएं विवाह बंधन से बाहर ऐसे किसी संबंध को स्वीकार भी नहीं करते थे। अतः ऐसा लगता है कि यश चोपड़ा ने एक साहसी फ़िल्म बनाते-बनाते अपने पैर पीछे खींच लिए तथा फ़िल्म का अंत वैसा ही रखा जैसा कि भारतीय समाज में स्वीकार्य था। वैसे भी फ़िल्म एक अच्छी एवं प्रभावशाली फ़िल्म के रूप में दर्शक समुदाय के समक्ष नहीं आ सकी। सुमधुर गीत-संगीत एवं सभी कलाकारों के अच्छे अभिनय के बावजूद फ़िल्म फीकी-फीकी-सी रही। फ़िल्म की व्यावसायिक असफलता का सम्भवतः यह भी एक कारण था। जिस अपेक्षा के साथ दर्शक फ़िल्म को देखने गए थे, वह पूर्ण नहीं हुई। न तो वास्तविक जीवन के प्रेम-त्रिकोण को ठीक ढंग से परदे पर उतारा जा सका, न ही एक मनोरंजक फ़िल्मी कथानक दर्शकों के सम्मुख रखा जा सका।

जया बच्चन वैसे भी विवाह के उपरांत फ़िल्मों से दूर हो गई थीं। इस फ़िल्म के उपरांत वे पुनः अपनी घर-गृहस्थी में रम गईं तथा अनेक वर्षों तक रजतपट पर दिखाई नहीं दीं। पर विशेष बात यह है कि अमिताभ ने रेखा के साथ अपनी जोड़ी की लोकप्रियता के बावजूद आगे उनके साथ कोई फ़िल्म नहीं की और यही फ़िल्म उनकी एवं रेखा की एक साथ आई हुई अंतिम फ़िल्म सिद्ध हुई। वास्तविक जीवन में भी उनके मध्य दूरियां आ गईं जो आज तक अनुभव की जाती हैं। जया ने संजीव कुमार के साथ बहुत-सी फ़िल्में की थीं जिन्हें उन दोनों के सामूहिक अभिनय ने जीवंत तथा प्रभावशाली बना दिया था लेकिन सिलसिला उन दोनों की भी एक साथ की गई अन्तिम फ़िल्म सिद्ध हुई।

फ़िल्म के गीत-संगीत के लिए यश चोपड़ा ने सुप्रसिद्ध संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा तथा सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को (शिव-हरि के नाम से) लिया था तथा इन दोनों ही असाधारण कलाकारों ने फ़िल्म का संगीत सृजित करने के अपने दायित्व का निर्वहन बहुत अच्छे ढंग से किया। ये कहाँ आ गए हम’, नीला आसमां सो गया’, देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए’, रंग बरसे आदि गीत तो अत्यन्त लोकप्रिय हुए ही, अन्य गीत भी बहुत अच्छे बन पड़े। आज यदि इस फ़िल्म को क्लासिक का दरज़ा मिला है तो इसमें इसके गीत-संगीत का भी बहुत बड़ा योगदान है।

समय के साथ-साथ समाज की सोच भी बदली। और इसीलिए शायद कुछ वर्षों बाद सिलसिला को एक क्लासिक माना गया। पर सच यही है कि चाहे कोई भी समाज हो, विवाह की संस्था अपना जो महत्व रखती है, उसे हलके में नहीं लिया जा सकता। इस संस्था के बाहर किसी अन्य के साथ प्रेम-संबंध रखना न तो पति के लिए वांछनीय है, न ही पत्नी के लिए। इसीलिए सिलसिला का कथ्य न तो उस ज़माने में गले उतरने वाला था, न ही आज है। आज यह फ़िल्म पसंद भी की जाती है एवं सराही भी जाती है पर इसका संदेश आज भी स्वीकार्य नहीं है। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि यह एक सुंदर किंतु त्रुटिपूर्ण फ़िल्म है।

सिलसिला के असफल होने के उपरांत यश चोपड़ा ने आने वाले कुछ वर्षों तक प्रेमकथाएं नहीं रचीं। पर न तो वे सिलसिला को भूल पाए और न ही उसकी असफलता को पचा पाए। आठ वर्षों के उपरांत १९८९ में वे चांदनी के रूप में एक और प्रेमकथा लेकर आए (वह भी प्रेम-त्रिकोण ही है) जिसमें उन्होंने शिव-हरि को ही संगीतकार के रूप में लिया। फ़िल्म की नायिका का नाम उन्होंने चांदनी ही रखा जो कि सिलसिला में रेखा के चरित्र का नाम था। सिलसिला तो असफल रही थी किंतु श्रीदेवी अभिनीत चांदनी ने अभूतपूर्व व्यावसायिक सफलता अर्जित की।

सिलसिला में जो प्रेम-त्रिकोण दिखाया गया था उसने फ़िल्म के प्रदर्शन के उपरांत वास्तविक जीवन में उसी प्रेम-त्रिकोण का पटाक्षेप कर दिया। फ़िल्म पर बहुत कुछ कहा गया था और आज भी कहा जाता है। मैं तो यही कहूंगा कि इसे देखा जा सकता है और विचार किया जा सकता है कि वैवाहिक जीवन में प्रवेश कर लेने के उपरांत उससे बाहर का प्रेम-संबंध कितना उचित है। अमिताभ और रेखा तो इसे समझ गए। हम भी समझ लें तो क्या हर्ज़ है ?

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मंगलवार, 16 सितंबर 2025

ओथेलो और दोरंगे जूतों का रहस्य

महान नाटककार शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक फ़िल्मकारों हेतु सदा ही प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। इसीलिए उन नाटकों की कथाओं पर आधारित अनेक फ़िल्में बनी हैं। ऐसा ही एक नाटक ओथेलो है जिसके कथानक का आधार मुख्य पात्र का अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करना है। इसके आधार पर इक्कीसवीं सदी में विशाल भारद्वाज ने ओमकारा नामक फ़िल्म बनाई थी। किंतु मैं एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात करूंगा जो कि कई दशक पूर्व १९६७ में प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म है – हमराज़ जिसका निर्माण एवं निर्देशन किया था – सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार बी.आर. चोपड़ा ने।

हमराज़ एक प्रेमकथा के रूप में आरंभ होती है किंतु मध्य तक आते-आते एक रहस्यकथा का रूप धारण कर लेती है। फ़िल्म की नायिका मीना (विमी) अपने प्रेमी राजेश (राजकुमार) जो कि एक सैनिक है, से गुप्त विवाह कर लेती है। राजेश के युद्ध में मारे जाने का समाचार आता है। मीना गर्भवती होती है जिसे प्रसव के उपरांत बताया जाता है कि उसका शिशु जीवित नहीं रहा। कुछ समय के उपरांत उसके जीवन में एक कलाकार कुमार (सुनील दत्त) का प्रवेश होता है जिससे मीना विवाह कर लेती है। मीना कुमार को अपने अतीत के विषय में कुछ नहीं बताती। कुछ वर्षों के उपरांत उसके पिता अपनी मृत्यु से पूर्व उसे बताते हैं कि उसका शिशु जो कि एक बालिका है, जीवित है तथा वह एक अनाथ-आश्रम में पल रही है। अब मीना अपनी बच्ची से मिल तो लेती है किंतु उसे गोद नहीं ले पाती क्योंकि कुमार इसके पक्ष में नहीं है।

फ़िल्म की वास्तविक कहानी अब आरंभ होती है जो कि ओथेलो से प्रेरित है (कुमार को रंगमंच पर भी ओथेलो नाटक में शीर्षक भूमिका निभाते हुए ही दिखाया गया है)। नव वर्ष की पार्टी में मीना को राजेश का एक पुराना मित्र मिलता है जो कि उसे उसके द्वारा राजेश को लिखे गए प्रेमपत्रों के विषय में बताता है। अगले दिन मीना के पास उसका फ़ोन आता है। अब एक ओर तो मीना की गतिविधियां कुमार को संदेह में डालती हैं, दूसरी ओर दर्शकों को किसी पात्र के केवल पैर दिखाए जाते हैं जिनमें वह पात्र दो रंगों वाले जूते पहनता है। यह दोरंगे जूते पहनने वाला कौन है, दर्शक इसका केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। लेकिन इससे फ़िल्म में रहस्य बहुत उत्पन्न होता है।

बहरहाल कुमार को अपनी पत्नी मीना पर संदेह हो जाता है तथा वह शहर से बाहर जाने का बहाना करके तथा वेश बदलकर उस पर नज़र रखता है। उसी रात मीना की हत्या हो जाती है। पुलिस को इस हत्या के लिए कुमार पर ही संदेह होता है। अब कुमार को एक ओर तो पुलिस से बचना है, दूसरी ओर मीना के हत्यारे का भी पता लगाना है। इधर दोरंगे जूतों वाला भी सक्रिय है जो कुमार के घर में घुसकर कुछ काग़ज़ात चुरा ले जाता है। यह रहस्यपूर्ण आख्यान एक प्रबल जलधारा की भांति दर्शकों को अपने साथ बहाए ले चलता है। आख़िर में दोरंगे जूतों वाले की वास्तविकता भी पता चलती है तथा मीना के हत्यारे की भी। फ़िल्म का नाम हमराज़ (ऐसा व्यक्ति जिसे आप अपनी कोई गोपनीय बात बताते हैं) रखा जाने का कारण भी स्पष्ट होता है।

हमराज़ एक अत्यंत रोचक फ़िल्म है जो यह बताती है कि पति-पत्नी को एकदूसरे पर संदेह करने के स्थान पर विश्वास करना चाहिए एवं एकदूसरे को अपने विश्वास में लेना चाहिए। विश्वास से समस्याएं हल होती हैं जबकि संदेह से समस्याएं जन्म लेती हैं। फ़िल्म में लेखक एवं निर्देशक ने कहीं पर भी समय नष्ट नहीं किया है। उस युग में बॉलीवुड की फ़िल्मों में एक हास्य का ट्रैक रखा जाता था। ऐसा कोई ट्रैक हमराज़ में नहीं रखा गया है। न ही कोई हास्य कलाकार इसमें है। फ़िल्म की प्रत्येक बात, प्रत्येक घटना, प्रत्येक दृश्य सार्थक है एवं मुख्य कथानक से संबद्ध है। फ़िल्म में गीत अवश्य हैं किंतु न केवल वे अत्यंत सुरीले हैं वरन कथानक को आगे बढ़ाने वाले हैं। और विशेष बात यह है कि सभी गीत (कुल पाँच) फ़िल्म के पहले घंटे में ही आ जाते हैं जिसके उपरांत केवल फ़िल्म की कहानी तीव्र गति से आगे बढ़ती है जिसमें किसी गीत का कोई व्यवधान नहीं आता। दर्शक को फ़िल्मकार घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देता। फ़िल्म देखने वाला प्रारंभ से अंत तक पटल से बंधा रहता है।

हमराज़ संगीतमय प्रेमकथा देखने वालों के लिए भी है तो रहस्यकथाएं पसंद करने वालों के लिए भी। कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है और बी.आर. चोपड़ा का निर्देशन बेहतरीन है। शायद ही किसी और फ़िल्म में किसी पात्र के जूतों को रहस्य उत्पन्न करने वाली बात के रूप में इस प्रकार काम में लिया गया हो जिस प्रकार हमराज़ में लिया गया है। इसी कहानी को १९९४ में इम्तिहान के नाम से पुनः बनाया गया था किंतु वह फ़िल्म हमराज़ की भांति प्रभावशाली नहीं रही। अंत में मैं यही कहूंगा कि पुरानी अच्छी फ़िल्में देखने के शौकीन लोगों के लिए हमराज़ किसी उपहार से कम नहीं।

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

मानवीय साहस की अद्भुत गाथा

निर्माता-निर्देशक बलदेवराज चोपड़ा की संस्था बी.आर. फ़िल्म्स एक अत्यंत प्रतिष्ठित फ़िल्म-निर्माण संस्था रही है जिसने एक-से-एक बढ़कर उत्तम फ़िल्में हिंदी सिने-दर्शकों के लिए प्रस्तुत कीं। युवा होने पर उनके पुत्र रवि चोपड़ा ने भी निर्देशन आरम्भ किया। उन्होंने एक हॉलीवुड फ़िल्म द टॉवरिंग इनफ़र्नो देखी जिसमें एक इमारत में आग लगने की घटना का वर्णन था। उस फ़िल्म से प्रेरित होकर उन्होंने एक कुछ भिन्न फ़िल्म की परिकल्पना की जिसमें एक चलती हुई रेलगाड़ी में आग लगने की घटना का कथानक प्रस्तुत किया जाने वाला था। यह हिंदी फ़िल्म अथक परिश्रम के उपरांत बनकर तैयार हो पाई एवं १९८० में प्रदर्शित हुई। इसका नाम है – द बर्निंग ट्रेन

द बर्निंग ट्रेन (जलती हुई रेलगाड़ी) में अपने समय के अत्यन्त लोकप्रिय सितारों को सम्मिलित किया गया यथा – धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, परवीन बॉबी, जीतेंद्र, नीतू सिंह, विनोद मेहरा, डैनी आदि। सभी सितारों की भूमिकाओं के साथ न्याय करने वाली तथा रेलगाड़ी के जलने की घटना को केंद्र में रखने वाली कहानी लिखना भी कोई सरल कार्य नहीं था किंतु कमलेश्वर ने यह सफलतापूर्वक किया। उनकी कथा तथा रवि चोपड़ा के निर्देशन के साथ-साथ कला-निर्देशक शांतिदास, एक्शन निर्देशक मंसूर, सम्पादक प्राण मेहरा एवं छायाकार धरम चोपड़ा ने भी सराहनीय कार्य किया और कलाकारों के सजीव अभिनय से युक्त यह अविस्मरणीय फ़िल्म रजतपट पर आई।

फ़िल्म तीन बालकों से आरम्भ होती है जिनमें से दो बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखते हैं जबकि दो ऐसे हैं जिनकी मित्रता अत्यन्त प्रगाढ़ है। प्रतिद्वंद्वी बालक रेल का इंजन बनाने का सपना पालते हैं एवं बड़े होकर भारतीय रेलवे में नौकरी करते हैं। भारतीय रेलवे एक अत्यन्त तीव्र चलने वाली रेलगाड़ी सुपर एक्सप्रेस की योजना केंद्रीय सरकार को भेजता है जिसके साथ विभिन्न अभियंताओं द्वारा बनाए गए इंजन के मॉडल भी होते हैं। जब सरकार इस परियोजना को स्वीकृति दे देती है तो विभिन्न मॉडलों में से तीन मॉडल अंतिम निर्णय हेतु चुने जाते हैं जो कि बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखने वाले विनोद (विनोद खन्ना) एवं रणधीर (डैनी) के अतिरिक्त उनके साथी अभियंता राकेश (विनोद मेहरा) के होते हैं। संबंधित निर्णयन समिति विनोद द्वारा बनाए गए मॉडल को इंजन बनाने हेतु चुनती है और यह बात रणधीर को चुभ जाती है जो पहले से ही विनोद से ख़ार खाए बैठा था क्योंकि जिस युवती शीतल (परवीन बॉबी) से वह विवाह करने की इच्छा रखता था, उसने विनोद से विवाह कर लिया था।

विनोद एक श्रेष्ठ एवं तीव्र गति वाला इंजन बनाने की धुन अपने मन में लेकर काम में जुट जाता है एवं उसकी इस धुन के चलते उसकी पत्नी शीतल स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगती है। विनोद का बचपन का अभिन्न मित्र अशोक (धर्मेंद्र) तीव्र गति से कार चलाने का शौकीन है तथा सीमा (हेमा मालिनी) से प्रेम करता है किंतु भाग्य उस पर ऐसा वज्रपात करता है कि वह अपने पिता, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति तथा सीमा के प्रेम को भी खो बैठता है। इस तरह बचपन के तीनों साथियों – विनोद, अशोक तथा रणधीर के जीवन अलग-अलग मोड़ ले लेते हैं।

वर्षों बीत जाते हैं। छह साल के अथक परिश्रम के उपरांत विनोद एक तीव्र गति वाली एवं भरपूर आरामदायक (लक्ज़री) गाड़ी अर्थात् सुपर एक्सप्रेस को बनाने में सफल हो जाता है। परंतु उसे धक्का तब लगता है जब गाड़ी की प्रथम यात्रा से ठीक एक दिन पूर्व उसकी पत्नी शीतल उसे छोड़ देने का निर्णय लेती है एवं अपने तथा विनोद के पुत्र राजू (मास्टर बिट्टू) को सुपर एक्सप्रेस (जो कि दिल्ली तथा मुम्बई के बीच चलने वाली है) से ही अकेले उसके ननिहाल भेज देती है एवं उसके उपरांत विनोद का घर भी छोड़कर चली जाती है। इसी गाड़ी से अशोक भी यात्रा कर रहा है एवं सीमा भी।

लेकिन कथानक का प्रमुख मोड़ तब आता है जब विनोद से खुन्नस खाया हुआ रणधीर न केवल गाड़ी के वैक्यूम ब्रेक निकाल देता है, बल्कि इंजन ड्राइवरों से नज़र बचाकर इंजन में एक टाइम बम भी रख देता है। गाड़ी में सीमा को यात्रा करती पाकर अशोक उससे दूर रहने के लिए मथुरा स्टेशन पर ही उतर जाता है जहाँ रणधीर पहले से ही उतर चुका है एवं अपनी कारगुज़ारी कर चुका है। लेकिन अपनी शेखी बघारने के चक्कर में रणधीर अशोक को बता देता है कि उसने क्या किया है। अब अशोक पहले एक कार से तथा उसके उपरांत एक मोटरसाइकिल से रेलगाड़ी का पीछा करता है एवं किसी तरह गार्ड के डिब्बे तक पहुँचता है। वह गार्ड उस्मान (दिनेश ठाकुर) को वस्तुस्थिति बताता है परंतु इससे पहले कि वे इंजन के ड्राइवरों से आपातकालीन ब्रेक लगवाकर गाड़ी को रुकवा पाएं, रणधीर द्वारा रखा गया बम फट जाता है। एक ड्राइवर वहीं मर जाता है जबकि दूसरा इंजन के बाहर जाकर गिरता है।

यह समाचार विनोद को मिलता है तो वह गाड़ी को रोकने की तथा यात्रियों को बचाने की जुगत में लग जाता है। अशोक और उस्मान किसी तरह यात्रियों के डिब्बों में पहुँचते हैं जहाँ उन्हें एक अच्छे मन वाले चोर रवि (जीतेंद्र) का साथ भी मिलता है जो कि मूल रूप से एक अनचाहे विवाह से बचने हेतु घर से भागी हुई मधु (नीतू सिंह) के ज़ेवर चुराने हेतु रेलगाड़ी में चढ़ा था। पर दुर्भाग्य से गाड़ी के रसोईघर में गैस फैलने से आग लग जाती है और पहले से ही गम्भीर समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। इधर रणधीर अब भी चुपचाप नहीं बैठा है। वह विनोद की गाड़ी रोकने हेतु की गई युक्ति के ऊपर अपनी चाल चलता है। जलती हुई बेलगाम रेलगाड़ी सौ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से भागी जा रही है। बाहर से विनोद और अंदर से रवि तथा अशोक यात्रियों को बचाने हेतु अपने-अपने प्रयास करते हैं। मुम्बई पहुँचा हुआ राकेश वहाँ अपनी ओर से यात्रियों की प्राण-रक्षा हेतु एक भिन्न प्रयास करता है। अंत में किस प्रकार से सभी नायक मिलकर रणधीर के रेल को यात्रियों सहित नष्ट करने के मंसूबों पर पानी फेरते हैं एवं (कुछ को छोड़कर) सभी यात्रियों को बचाते हैं, यह फ़िल्म के क्लाईमेक्स में देखने को मिलता है।

द बर्निंग ट्रेन मानवीय साहस की एक अद्भुत गाथा है। प्रारंभिक भाग को छोड़कर (जिसमें नायक-नायिकाओं का रोमांस तथा कथानक का आधार बनाना सम्मिलित है) फ़िल्म रणधीर द्वारा लगाए गए बम के फटने के उपरांत रेलगाड़ी के बेकाबू होने एवं उसमें आग लग जाने पर ही केंद्रित है। यह सम्पूर्ण भाग लोमहर्षक है तथा दर्शकों को सांस रोके फ़िल्म को देखते चले जाने पर विवश कर देता है। नायकों के रेलगाड़ी की छत पर चढ़ने, गार्ड के डिब्बे से यात्रियों के डिब्बे में जाने, आग में फंसे लोगों को बचाने, आग में से (फ़ायर-प्रूफ़ पोशाक पहनकर) गुज़रने तथा अंत में विनोद द्वारा एक दूसरे इंजन से जलती हुई गाड़ी में पहुँचकर पहले रणधीर से अंतिम संघर्ष करने एवं उसके उपरांत इंजन तथा गाड़ी के मध्य के कपलिंग को उड़ाकर यात्रियों को बचाने के सभी दृश्य कला-निर्देशक, छायाकार, एक्शन निर्देशक, कलाकारों एवं सबसे बढ़कर मुख्य निर्देशक के सामूहिक प्रयासों के फलस्वरूप देखने लायक बन पड़े हैं। फ़िल्म यह बताती है कि बड़ी-से-बड़ी मुसीबत में भी इंसान का साहस उसके काम आता है एवं साहसी तथा कर्मठ मनुष्य लगभग असंभव लगने वाले कार्यों को भी करके दिखा सकते हैं। जिस तरह से फ़िल्म के चारों नायक – विनोद, अशोक, रवि एवं राकेश – नामुमकिन से लगने वाले कारनामों को सरंजाम देते हैं तथा लगभग पाँच सौ मुसाफ़िरों की जान बचाते हैं, वह देखने वालों को रोमांच ही नहीं, प्रेरणा से भी भर देता है। फ़िल्म में छात्र बालकों को लेकर यात्रा कर रही अध्यापिका (सिमी) का पात्र भी प्रेरणादायक है तथा एक महिला कव्वाल (आशा सचदेव) का भी। विभिन्न यात्रियों का उपचार करने वाले चिकित्सक (नवीन निश्चल) का पात्र भी प्रेरणादायक है तो गार्ड का भी।

फ़िल्म पति-पत्नी के संबंध पर भी प्रकाश डालती है। जहाँ फ़िल्म यह बताती है कि पति को पत्नी एवं संतान के प्रति अपने कर्तव्य को उपेक्षित नहीं करना चाहिए, वहीं यह भी बताती है कि पत्नी को संकट के समय अपने पति को भावनात्मक संबल देना चाहिए एवं उसकी शक्ति बनना चाहिए। घर छोड़कर जा चुकी शीतल जब यह समझ जाती है तो वह परिस्थिति से जूझ रहे विनोद को भावनात्मक सहारा देने उसके पास पहुँचती है। सीमा का पात्र भी फ़िल्म के अंतिम भाग में दर्शकों की सहानुभूति प्राप्त कर लेता है जब वह अशोक को अपने दूर चले जाने का कारण बताती है।

फ़िल्म में रवि एवं मधु के पात्र केवल फ़िल्म की स्टार वैल्यू बढ़ाने हेतु डाले गए लगते हैं क्योंकि मूल कथानक से उनका संबंध नहीं है। लेकिन वे भी तथा राकेश व विभिन्न सहायक पात्रों के चरित्र भी प्रभावी हैं। फ़िल्म में कलाकारों की भरमार है तथा हास्य उत्पन्न करने हेतु डाले गए कुछ पात्रों को छोड़कर लगभग प्रत्येक कलाकार अपनी पहचान बनाए रखता है। जहाँ तक प्रमुख पात्रों का प्रश्न है, सभी कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं को जीवंत कर दिया है।     

राहुल देव बर्मन ने कुल मिलाकर तो फ़िल्म में कोई यादगार संगीत नहीं दिया है किंतु एक कव्वाली तथा छात्र बालकों एवं उनकी अध्यापिका द्वारा गाई गई वंदना अच्छी बन पड़ी हैं। पार्श्व संगीत निस्संदेह अच्छा है तथा फ़िल्म के रोमांचक वातावरण के रोमांच को बढ़ाने वाला है। कमलेश्वर ने पटकथा के साथ-साथ फ़िल्म के संवाद भी लिखे हैं जो प्रभावी हैं।

बड़ी लागत से अत्यंत परिश्रमपूर्वक बनाई गई द बर्निंग ट्रेन व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही थी। संभवतः भारतीय दर्शकों हेतु यह समय से आगे की फ़िल्म थी। परंतु यह एक आद्योपांत रोचक फ़िल्म है जिसे जब भी देखा जाए मनोरंजन के साथ-साथ प्रेरणा भी मिलती है।

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