मंगलवार, 17 अगस्त 2021

तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो

हाल ही में आदरणीय संदीप शर्मा जी ने मेरे समक्ष 'फ़िल्मों में प्रकृति' विषय पर लिखने का विचार प्रस्तुत किया। चूंकि मैं (कुछ अपवादों को छोड़कर) हिंदी फ़िल्मों पर ही लिखता हूँ, इसलिए मेरे लिए इस विषय को 'हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति' कहा जा सकता है। मैंने शर्मा जी को वचन नहीं दिया क्योंकि विगत कुछ मास से मेरा ब्लॉग जगत से मन उचाट-सा हो गया है और यह विषय तो गहन शोध एवं श्रम की मांग करता है, अतः झूठा वचन देना अनुचित ही होता (वैसे भी मेरी नज़र में झूठा वादा करना एक गुनाह है)। लेकिन . . .

लेकिन श्रावण मास चल रहा है जिसमें जब मेघ बरस रहे हों तो प्रकृति की छटा देखते ही बनती है। और मेघमय आकाश तथा वर्षा की बूंदों के साथ ही भावुक मन में उमड़ती हैं कोमल भावनाएं - किसी विशिष्ट के लिए। बारिश के साथ, ठंडी हवाओं और काली घटाओं के साथ, चहुँओर फैल रही हरियाली के साथ दिल पुकारता है उसे जिस पर वो निसार हो चुका है। श्रावण मास को हम लोग बोलचाल की भाषा में सावन कहते हैं जो भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं में मधुर पारिवारिक संबंधों से भी जुड़ा हुआ है एवं नर-नारी के सनातन प्रेम से भी।

हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति से संबंधित हज़ारों गीत हैं जिनमें से बहुत-से सावन पर ही हैं। ऐसी बहुत-सी हिंदी फ़िल्में भी बनीं हैं जिनमें सावन माह उनके कथानक का अंग है और अधिक न हो तो शीर्षक में ही सम्मिलित है, यथा - सावन आया रे (१९४९), सावन भादों (१९४९), सावन (१९५९), सावन की घटा (१९६६), आया सावन झूम के (१९६९), सावन भादों (१९७०), प्यासा सावन (१९८१), प्यार का सावन (१९९१), सावन (२००६) आदि। लेकिन जिस फ़िल्म ने मेरे मन को गहराई से छुआ और जो मेरी नज़र में प्रेम और संगीत का रूपहले परदे पर चलता-फिरता दस्तावेज़ है, उसका नाम है - सावन को आने दो। 
सावन को आने दो (१९७९) स्वर्गीय ताराचंद बड़जात्या की संस्था राजश्री की प्रस्तुति है जिसने अपने प्रदर्शन के समय सम्पूर्ण भारत में धूम मचा दी थी। इसके गीतों ने सुगम संगीत तथा शास्त्रीय संगीत दोनों ही के चाहने वालों के मन जीत लिए थे और आज भी इसके गीतों को सुनकर किसी भी संगीत-प्रेमी का हृदय आह्लादित हो उठता है। यह अत्यंत लोकप्रिय एवं व्यावसायिक दृष्टि से सफल फ़िल्म केवल मनोरंजन ही प्रदान नहीं करती, मानवीय मूल्यों तथा सात्विक प्रेम में आस्था को भी दृढ़ करती है। कथा के प्रमुख पात्रों के साथ-साथ दर्शक भी भावनाओं में डूबते-उतराते हैं एवं अंतिम दृश्य तो नयनों को भिगो देता है, मन में एक ऐसा भाव जगाता है जिसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

'सावन को आने दो' ग्रामीण परिवेश में पनपी प्रेमकथा है चंद्रमुखी (ज़रीना वहाब) तथा बिरजू (अरूण गोविल) की। बिरजू निर्धन है जबकि चंद्रमुखी ज़मींदार की पुत्री है अर्थात् धनी परिवार से है। समाज में वर्ग-भेद एवं ऊंच-नीच की दीवारें भी उतनी ही प्राचीन हैं जितना कि स्त्री-पुरुष का प्रेम। किन्तु प्रेम तो यह सब नहीं देखता, वह तो किसी बाधा के रोके नहीं रूकता और जब हो जाता है तो न मिट सकता है, न भुलाया जा सकता है। चंद्रमुखी के पिता ज़मींदार साहब (अमरीश पुरी) बिरजू के गायन से प्रभावित तो होते हैं, उनका आशीर्वाद भी बिरजू के साथ है लेकिन बिरजू जानता है कि चंद्रमुखी को जीवन-संगिनी बनाने हेतु उसे अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाना होगा। इसके लिए वह क्या करे? उसे एक ही काम तो आता है - अपनी सुरीली आवाज़ में गाना। 

धन कमाने के निमित्त बिरजू महानगर जा पहुँचता है तथा जीवन-यापन हेतु श्रमिक बन जाता है। एक दिन श्रम करते हुए सड़क पर चलते-चलते जब वह अपनी मस्ती में गा भी रहा है, तब गीतांजलि (रीटा भादुड़ी) नामक युवती उसका गीत सुनती है तथा उस मधुर स्वर पर मुग्ध होकर तय करती है कि इस प्रतिभाशाली युवक की गायन-प्रतिभा संसार के समक्ष आनी चाहिए। संयोगवश वह चंद्रमुखी की सहेली भी है। गीतांजलि के सौजन्य से बिरजू को अवसर मिलता है - अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का, नाम और दाम कमाने का। और फिर वह लौटता है अपने गाँव - ज़मींदार साहब से अपने मनमंदिर की देवी चंद्रमुखी का हाथ मांगने। लेकिन . . .

लेकिन बिरजू भूल जाता है कि केवल धन कमाने से ऊंच-नीच की दीवारें (जो दिखावटी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ी होती हैं) नहीं गिराई जा सकतीं। क्रोधित ज़मींदार साहब उससे प्रश्न करते हैं - इतना बड़ा सपना तेरी आँखों में समाया कैसे? बिरजू क्या उत्तर दे? चंद्रमुखी मातृहीन है। अपने मन का दर्द केवल अपनी सहेली से बांट सकती है। उसकी सहेली गीतांजलि भी मन-ही-मन बिरजू को चाहने लगी है लेकिन उसे पता है कि बिरजू केवल चंद्रमुखी का है, किसी और का नहीं। इधर ठुकराए गए बिरजू के मन में तूफ़ान उठता है। वह अपने दर्द को केवल अपनी आवाज़ में ही ढाल सकता है। अब वह बिरजू नहीं, पंडित बृजमोहन कहलाता है, एक-एक गीत गाने के हज़ारों रूपये लेता है लेकिन उसकी सबसे बड़ी पूंजी वह एक रूपया ही है जो कभी उसका गाना सुनकर चंद्रमुखी के पिता ने उसे दिया था। उस एक रूपये को उसने बड़े जतन से अपने पास संभालकर रखा है। लेकिन अपनी प्रेयसी को कैसे पाए? विरह की अग्नि में दोनों जल रहे हैं, भाग्य के आगे विवश हैं, दुखी हैं लेकिन भाग्य के अतिरिक्त किसी से उन्हें शिकायत नहीं है (ज़मींदार साहब से भी नहीं)। 

यह भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक ताराचंद बड़जात्या जी की फ़िल्म है जिसके विरहाग्नि में जल रहे नायक-नायिका रो तो सकते हैं किन्तु अपने प्रेम को पाने के निमित्त अपने बुज़ुर्गों को अपमानित करने अथवा उनकी अवहेलना करने वाला कोई काम नहीं कर सकते। घर से भागकर विवाह करने जैसे किसी कृत्य के विषय में तो वे सोच तक नहीं सकते। ऐसे ही संस्कार मिले हैं उन्हें। वे बस प्रतीक्षा करते हैं कि उनके विवाह हेतु सहमत न हो रहे उनके वृद्ध अभिभावक की मानसिकता उनके पक्ष में परिवर्तित हो और उनका शुभ-विवाह उनके आशीष से ही सम्पन्न हो। 

समय का चक्र चलता भी है और वक़्त बदलता भी है। ज़मींदार साहब की ज़मींदारी चली गई है, अब वे धनी नहीं हैं; चंद्रमुखी का विवाह करना तो दूर, अब स्थिति यहाँ तक आ गई है कि चंद्रमुखी को घर चलाने हेतु ग्राम के विद्यालय में नौकरी करनी पड़ रही है। विद्यालय की आर्थिक स्थिति भी शोचनीय है। सब जान गए हैं कि इसी ग्राम से निकला बिरजू आज महानगर में पंडित बृजमोहन बनकर बहुत धन कमा रहा है तथा यदि वह विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रम में अतिथि बनकर आ जाए तो विद्यालय को बहुत बड़ा सहारा मिल जाएगा। पर उसे आमंत्रण देने कौन जाए कि वह आने से मना न कर सके? चंद्रमुखी? क्या वह आएगा? और आएगा तो क्या होगा? इस कथा का सुखद अंत कैसे हो सकता है? 
राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित इस मनभावन एवं हृदयस्पर्शी कथा को कनक मिश्रा के सुघड़ निर्देशन तथा राजकमल के कालजयी संगीत ने ऐसा रूप प्रदान किया है कि इसे चाहे जितनी बार देखा जाए, जी नहीं भरता। यह वह फ़िल्म है जिसने अरूण गोविल नामक युवक को हिंदी फ़िल्म संसार के आकाश में सितारा बनाया। नायक-नायिका के रूप में अरूण गोविल तथा ज़रीना वहाब का चयन सर्वोपयुक्त था क्योंकि ये दोनों ही इस फ़िल्म में पारम्परिक सौंदर्य की कसौटी पर नहीं कसे जा सकते लेकिन अपने-से लगते हैं मानो गाँव या कस्बे में अपने पासपड़ोस या गलीमोहल्ले के कोई लड़के-लड़की हों। इनकी जोड़ी ऐसी लगती है जैसे ये एकदूसरे के लिए ही बने हों। दोनों ने ही अपनी स्वाभाविक अभिनय प्रतिभा का प्रमाण दिया है। हिंदी फ़िल्मों के कुछ रूमानी दृश्य ऐसे हैं जो भुलाए नहीं भूलते तथा जिन्हें बार-बार देखने का मन करता है। इस फ़िल्म में भी शीर्षक गीत (तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो) से ठीक पूर्व बिरजू तथा चंद्रमुखी का एकदूसरे को निहारना एवं ख़यालों में खो जाना ऐसा ही एक दृश्य है।

जिन लोगों ने भारतीय फ़िल्मों के इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में से एक 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' (१९९५) देखी है, वे उस फ़िल्म में नायिका के पिता के रूप में अमरीश पुरी के चरित्र की तुलना 'सावन को आने दो' में अमरीश पुरी द्वारा निभाए गए नायिका के पिता के चरित्र से कर सकते हैं। अमरीश ने जैसा उत्कृष्ट अभिनय 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' में किया, वैसा ही उत्कृष्ट अभिनय वे उसके सोलह वर्ष पूर्व आई फ़िल्म 'सावन को आने दो' में कर चुके थे। न केवल इन दोनों फ़िल्मों में उनकी भूमिकाओं में समानता है वरन इन दोनों ही फ़िल्मों की भावनात्मक अंतर्धारा में भी समानता है (यद्यपि कथाएं भिन्न हैं)। दोनों ही फ़िल्मों के अंतिम दृश्य में नायिका के पिता जो पूर्व में उसके नायक को अपना जीवन साथी बनाने के विरूद्ध थे, उसके नायक के साथ संबंध को स्वीकार कर लेते हैं किन्तु जो नयनों में अश्रु ला देने वाली बात 'सावन को आने दो' के अन्तिम दृश्य में है, वह 'दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे' के क्लाईमेक्स में नहीं है। 'सावन को आने दो' के अंतिम दृश्य में इस फ़िल्म का अंतिम गीत भी है - तेरी तसवीर को सीने से लगा रक्खा है, हमने दुनिया से अलग गाँव बसा रक्खा है। इस गीत के चलते-चलते ही फ़िल्म समाप्त होती है, किसी भी पात्र का कोई संवाद नहीं है, बिना कुछ कहे ही नायक, नायिका तथा नायिका के पिता के मध्य सब कुछ कह दिया जाता है।
फ़िल्म के अधिकांश दृश्य राजश्री की परम्परा के अनुरूप सादगी से परिपूर्ण हैं तथा ग्रामीण परिवेश को छायाकार रामचंद्र ने अत्यंत सुंदरता से पटल पर उतारा है। प्रकृति का सौंदर्य फ़िल्म के कई दृश्यों में बिखरा हुआ है विशेषतः शीर्षक गीत वाले दृश्य में जिसमें एक मोर को भी नृत्य करते हुए दिखाया गया है। एच वी महारूद्र शेट्टी का कला-निर्देशन तथा अन्य तकनीकी पक्ष भी उत्कृष्ट हैं। गीतांजलि के रूप में रीटा भादुड़ी तथा छोटी-छोटी भूमिकाओं में विभिन्न सहायक कलाकारों ने भी अपने-अपने चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय किया है।

फ़िल्म के प्राण इसके गीतसंगीत में बसे हैं। जैसे सुंदर गीत गौहर कानपुरी, फ़ौक जामी, माया गोविंद, इंदीवर, पूर्ण कुमार होश, मदन भारती, अभिलाष तथा पुरुषोत्तम पंकज ने रचे हैं, वैसे गीत तो अब हिंदी फ़िल्मों में मिलना दुर्लभ ही हो गया है। ये गीत वस्तुतः फ़िल्मी गीत न होकर उत्कृष्ट काव्य के उदाहरण हैं। संगीत-निर्देशक राजकमल ने बहुत कम फ़िल्मों में संगीत दिया लेकिन वे कितने प्रतिभाशाली थे, 'सावन को आने दो' की सुमधुर धुनें इसका प्रमाण हैं। येसुदास, हेमलता, आनंद कुमार, जसपाल सिंह, कल्याणी मित्र तथा सुलक्षणा पंडित के स्वरों में गूंजते गीत ऐसे हैं जो किसी भी सच्चे संगीत-प्रेमी के हृदय में जीवन भर के लिए बस जाएं। कुल दस गीतों के अवलम्ब से फ़िल्म की कथा आगे बढ़ती है तथा ये दस-के-दस गीत भारतीय फ़िल्म संगीत के कोष के अनमोल रत्न हैं। मैं पूर्ण सूची दे रहा हूँ:

१. चाँद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा
२. जानम, तेरा मेरा प्यार नया है, गीत पुराना साज़ नया है
३. तुम्हें गीतों में ढालूंगा, सावन को आने दो
४. तुझे देखकर जग वाले पर यकीं नहीं क्यूं कर होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर वो कितना सुंदर होगा
५. गगन ये समझे चाँद सुखी है, चंदा कहे सितारे
६. तेरे बिन सूना मेरे मन का मंदिर, आ रे आ रे आ
७. बोले तो बाँसुरी कहीं बजती सुनाई दे, ऐसा बदन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे 
८. कजरे की बाती अँसुअन के तेल में,आली मैं हार गई अँखियन के खेल में
९. पत्थर से शीशा टकरा के वो कहते हैं दिल टूटे न
१०. तेरी तसवीर को सीने से लगा रक्खा है, हमने दुनिया से अलग गाँव बसा रक्खा है
      
फ़िल्म के कण-कण में भारतीयता व्याप्त है। एक साफ़-सुथरी पारिवारिक फ़िल्म कैसी होती है, जो जानना चाहे, इस फ़िल्म को देख ले। फ़िल्म में धन-वैभव का व्यर्थ प्रदर्शन नहीं है तथा भारतीय जीवन मूल्यों एवं आदर्शों को स्थान-स्थान पर दर्शाया गया है। नायक-नायिका का प्रेम कोई फ़िल्मी रोमांस नहीं, वह सच्चा प्रेम है जो एक बार किसी को किसी से हो जाए तो फिर किसी और से नहीं हो सकता। यह प्रेम केवल विरह में ही नहीं; मिलन में भी सात्विक है, पावन है। सावन मास की प्रेम-वर्षा में भिगो देने वाली फ़िल्म है यह। यदि आपने जीवन में किसी से सचमुच प्रेम किया है तो फ़िल्म के समापन दृश्य में आपके अश्रु न उमड़ आएं, यह संभव नहीं। 
कुछ वर्ष पूर्व आई एक फ़िल्म में कहा गया था - कुछ कहानियां सच्ची लगती हैं मगर अच्छी नहीं लगतीं जबकि कुछ कहानियां सच्ची तो नहीं लगतीं मगर बड़ी अच्छी लगती हैं। हम जानते हैं कि न तो ऐसे गाँव आज भारत में देखने को मिलते हैं तथा न ही ऐसी प्रेमकथाएं वास्तविक जीवन में घटित होती हैं। लेकिन क्या हमारा मन नहीं चाहता कि ऐसे स्थान, ऐसे लोग, ऐसी कथाएं वास्तविक जीवन में भी हों? यदि वास्तव में ऐसा हो तो यह संसार कितना सुंदर बन जाए !

है न ?

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25 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-08-2021) को चर्चा मंच   "माँ मेरे आस-पास रहती है"   (चर्चा अंक-४१६०)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  2. शानदार समीक्षा मानों पूरी फिल्म ही देख ली हो...कुछ कहानियां सच्ची तो नहीं लगतीं मगर बड़ी अच्छी लगती हैं। हम जानते हैं कि न तो ऐसे गाँव आज भारत में देखने को मिलते हैं तथा न ही ऐसी प्रेमकथाएं वास्तविक जीवन में घटित होती हैं। लेकिन क्या हमारा मन नहीं चाहता कि ऐसे स्थान, ऐसे लोग, ऐसी कथाएं वास्तविक जीवन में भी हों। यदि वास्तव में ऐसा हो तो यह संसार कितना सुंदर बन जाए !सही कहा आपने कि कि ये सुन्दर कल्पनाओं का संसार अगर वास्तव में हो तो स्वर्ग सी हो जाये ये दुनिया...।
    अद्भुत एवं लाजवाब समीक्षा हमेशा की तरह।

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  3. हिंदी फिल्मों में प्रकृति को बड़ी खूबसूरती से उपयोग किया गया है।
    मुझे वह गीत याद आ रहा है - 'हरी हरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन'
    कितनी खूबसूरती से प्रकृति से हमें जोड़ता है ये गीत।
    और वह गीत - 'मैं बन की चिड़िया बन के बन बन डोलूँ रे !'
    ऐसे बहुत सारे गीत याद आने लगे हैं जहाँ प्रकृति के तत्वों का वर्णन, चित्रण किया गया है।
    सागर किनारे, दिल ये पुकारे...
    चाँद छुपा बादल में...
    पंछी बनूँ, उड़ती फिरूँ नील गगन में...
    ईचक दाना बीचक दाना....
    बहुत लंबी लिस्ट है। पर सावन का बड़ा कर्ज है फिल्मवालों पर ! संदीप शर्मा जी को भी धन्यवाद कि उनके आग्रह ने आपसे एक खूबसूरत फिल्म की बेहतरीन समीक्षा लिखवा ली और मुझे अब फिर एक बार यह फिल्म देखने का मन कर रहा है। बहुत अरसे पहले देखी थी।

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  4. हिंदी फिल्मों के गीतों में प्रकृति के चित्रण पर एक विस्तृत आलेख मैंने अंग्रेज़ी में लिखा था। निश्चय ही ऐसे सुंदर गीत बहुत सारे हैं जिन्हें बार-बार सुनने का मन करता है। सावन को आने दो को पुनः देखिए मीना जी। यह भी ऐसी ही फ़िल्म है जिसे बार-बार देखा जा सकता है। हार्दिक आभार आपका।

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  5. जी बहुत आभार आपका...आनंद आ गया विषय पर आपके लेखन की पहली छवि देखकर...अभी महसूस करुंगा एक एक शब्द को...तब विस्तार से प्रतिक्रिया लिखूंगा...। अब निवेदन यह है कि यह आलेख मैं अपनी मासिक पत्रिका प्रकृति दर्शन के मौजूदा अंक के लिए ले रहा हूं... यदि आप बेहतर समझें तो आलेख, संक्षिप्त परिचय और आपका फोटोग्राफ मुझे मेल कर दीजिएगा या व्हाटसऐप कर दीजिएगा...।

    संदीप कुमार शर्मा
    website- www.prakritidarshan.com
    email-editorpd17@gmail.com
    mob/whatsapp- 8191903651

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    1. अवश्य शर्मा जी। आपको चित्र एवं आवश्यक विवरण अतिशीघ्र ही प्राप्त हो जाएंगे। हार्दिक आभार आपका।

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  6. कुछ कहानियां सच्ची लगती हैं मगर अच्छी नहीं लगतीं जबकि कुछ कहानियां सच्ची तो नहीं लगतीं मगर बड़ी अच्छी लगती हैं।सही कहा आपने,बहुत समय पहले यह फिल्म देखी थी। यादें ताजा हो गईं।बेहद खूबसूरत समीक्षा।

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  7. अंत तक पाठक को बांधने में सक्षम है आपकी लेखनी।
    कमाल का लिखते हैं सर आप।
    सादर

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  8. बहुत सुंदर ,सार्थक आलेख,प्रकृति और फिल्में,इस विषय पर इतना सुधार आलेख कोई और लिख भी नहीं सकता। बहुत बधाई जितेन्द्र जी ।

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  9. बहुत ही सुंदर समीक्षा पढ़कर बहुत अच्छा लगा! मनमोहक लेख!
    सर आपसे एक विनती है प्लीज अगर हो सके तो शेरशाह मूवी पर एक आलेख लिख दीजिएगा 🙏🙏
    आपकी समीक्षा बहुत ही अच्छी होती है!

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    1. मनीषा जी, 'शेरशाह' मैंने अभी देखी नहीं है। हां, 'एलओसी कारगिल' (२००३) देखी थी जिसमें अभिषेक बच्चन ने विक्रम बत्रा की भूमिका निभाई थी। पहले फ़िल्म देख लूं, फिर लिखने का निर्णय लूंगा। झूठा वादा नहीं करूंगा। कोशिश करूंगा। कुछ लेख समय-समय पर अपलोड करने हैं। फिर ब्लॉग जगत में आना-जाना काफ़ी कम होगा। बहरहाल हार्दिक आभार आपका।

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  10. बहुत ही श्रम साध्य लेख आप का , फिल्मों की प्रकृति के साथ ही प्रकृति चित्रण कर सावन को आप ने और हरा बना दिया आपने माथुर जी, काश लोग पढ़े ज्ञान वर्धन करें खुश रहें । आज कल ब्लाग जगत में लोग कम दिख रहे बहुत सुंदर।

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    1. यह मेरे लिए सम्मान की बात है भ्रमर जी कि आप जैसे विद्वान ने इस लेख को पढ़ा एवं किसी योग्य पाया। हृदयतल से आभार प्रकट करता हूँ।

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  11. बहुत बढ़िया सर जी। बहुत खूब। इस फिल्म के 3-4 गाने तो बहुत कर्णप्रिय हैं। सादर।

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    1. हार्दिक आभार वीरेन्द्र जी। इस फ़िल्म का गीतसंगीत साहित्य तथा संगीत दोनों ही के प्रेमियों के निमित्त एक अमूल्य उपहार है।

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  12. बहुत सुंदर लेख। आपने सच कहा। कुछ कहानियाँ सच्ची नहीं लगती हैं लेकिन बड़ी अच्छी लगती हैं। इस फिल्म के विषय में पता नहीं था। जल्द ही देखने का प्रयास रहेगा।

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    1. हृदय से आपका आभार विकास जी। आप संगीत-प्रेमी हैं और संगीत-प्रेमियों के लिए तो यह फ़िल्म एक अनमोल उपहार है। अवश्य देखिए।

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