शुक्रवार, 14 मई 2021

पति-पत्नी का आपसी विश्वास और शोबिज़ की चकाचौंध के पीछे का सच

हिन्दी उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक ने ऐसे कई उपन्यास लिखे हैं जिनको उनकी बेहतरीन कहानी और प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के बावजूद समुचित प्रशंसा नहीं मिलीवो तारीफ़ वो वाहवाही नहीं मिली जिसके वे हक़दार हैं । ऐसा ही एक उपन्यास है ‘साज़िश’ जो थ्रिलर उपन्यासों की श्रेणी में आता है ।

साज़िश’ का विज्ञापन मैंने पहली बार दिसंबर १९९७ में राधा पॉकेट बुक्स से प्रकाशित उपन्यास ‘गड़े मुर्दे’ के पृष्ठ आवरण (बैक कवर) पर देखा था । मेरी ख़ुशकिस्मती से पाठक साहब से मेरी पहली मुलाक़ात उसके दो महीने बाद ही हो गई जब मैं २६ फ़रवरी१९९८ की शाम को उनके दरियागंज (दिल्ली) स्थित कार्यालय में उनसे मिलने जा पहुँचा । वहाँ विभिन्न विषयों पर हुई चर्चा के दौरान जब उनके आगामी उपन्यासों का ज़िक्र छिड़ा तो उन्होने बताया कि तक़रीबन दो माह बाद शिवा पॉकेट बुक्स से थ्रिलर उपन्यास ‘फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी’ और राधा पॉकेट बुक्स से सुनील सीरीज़ का उपन्यास ‘कमरा नंबर 303’ आगे-पीछे ही प्रकाशित होंगे । इस पर जब मैंने पूछा कि राधा पॉकेट बुक्स से विज्ञापन तो ‘साज़िश’ का हो रहा है तो पाठक साहब ने बताया कि 'राधा' वालों ने नए उपन्यास का विज्ञापन करने के लिए नाम मांगा तो उन्होंने ‘साज़िश’ नाम दे दिया क्योंकि यह कॉमन नाम है । वस्तुतः इस नाम के उपन्यास की कोई रूपरेखा उस समय तैयार नहीं थी । कुछ समय पश्चात् जब ‘कमरा नंबर 303’ आया तो उसके साथ पुनः आगामी उपन्यास के रूप में ‘साज़िश’ का ही विज्ञापन था । लेकिन कोई छः महीने बाद राधा पॉकेट बुक्स से पाठक साहब का जो नया उपन्यास छपावो सुनील सीरीज़ का ही उपन्यास ‘गुनाह की ज़ंजीर’ था । उसके साथ भी 'राधा' से प्रकाशित होने वाले पाठक साहब के आगामी उपन्यास के रूप में ‘साज़िश’ का ही विज्ञापन था । अब नए साल में यानी कि १९९९ में हुआ यह कि पाठक साहब के उपन्यास केवल ‘मनोज पब्लिकेशन्स’ से ही छपने लगे और अन्य प्रकाशन संस्थानों से उनके उपन्यास छपने का सिलसिला टूट-सा गया । लेकिन पाठक साहब अपनी ज़ुबान के पक्के हैं । इसलिए उन्होंने 'राधा' को अपने वादे के मुताबिक ‘साज़िश’ नाम से उपन्यास लिखकर दिया जो कि 'मनोज' से प्रकाशित विमल की ‘दमन-चक्र’ वाली तिकड़ी के अंतिम भाग ‘जौहर ज्वाला’ के लगभग साथ-साथ ही दिसंबर १९९९ में छपा । यह 'राधा' से प्रकाशित उनका अंतिम उपन्यास रहा । उन्हीं दिनों मेरी नौकरी महाराष्ट्र में स्थित तारापुर परमाणु बिजलीघर में लग गई और मैं वहाँ जा पहुँचा जहाँ कॉलोनी से कुछ ही दूर ‘चित्रालय’ नामक बाज़ार में एक पुस्तकें किराए पर देने वाला अपना कारोबार चलाता था । मैं उससे पाठक साहब के पुराने उपन्यास किराए पर ला-लाकर पढ़ने लगा । जनवरी २००० में उसके पास जब मैंने नया उपन्यास ‘साज़िश’ देखा तो उसे किराए पर लेने की जगह मैंने उस नई प्रति को उसकी पूरी कीमत देकर ख़रीद ही लिया और रात को हमेशा की भांति अपने क्वार्टर में उसे एक ही बैठक में पढ़कर समाप्त किया । साज़िश की वह प्रति एक दशक से भी अधिक  समय तक मेरे पास रही और मैं गाहे-बगाहे उसे बार-बार तब तक पढ़ता रहा जब तक कि मेरी नादानी से वह मेरे पास से चली नहीं गई ।

साज़िश’ मुझे इतना पसंद आया कि जब मैंने माउथशट डॉट कॉम पर पाठक साहब के उपन्यासों की समीक्षाएं लिखने का फ़ैसला किया तो मैंने सबसे पहले ‘साज़िश’ को ही चुना । पाठक साहब ने ‘साज़िश’ के लेखकीय में लिखा था कि उन्होंने यह उपन्यास सुनीलविमलसुधीर और थ्रिलर उपन्यासों की एक नियमित रोटेशन बनाने की कोशिश में लिखा था । बहरहाल चाहे कैसे भी लिखा होबिना किसी शोरगुल के अपने पहले विज्ञापन के दो साल बाद बिना किसी पूर्वापेक्षा के एकाएक आया यह उपन्यास एक निहायत ही उम्दा थ्रिलर है जिसे अपनी मुनासिब तारीफ़ नसीब नहीं हुई । शायद इसलिए कि यह विमल के हाई प्रोफ़ाइल उपन्यास ‘जौहर ज्वाला’ के साथ-साथ आया और ‘जौहर ज्वाला’ की चौतरफ़ा वाहवाही के शोर में पाठकों द्वारा दरगुज़र कर दिया गया । कुछ ऐसा ही हादसा पाठक साहब के बेहतरीन थ्रिलर उपन्यास ‘एक ही अंजाम’ के साथ भी हुआ था जो विमल की ‘जहाज़ का पंछी’ वाली तिकड़ी के प्रकाशन के मध्य में आ गया था और शायद इसीलिए उसका पाठकों ने ठीक से नोटिस नहीं लिया था ।

साज़िश’ पाठक साहब का एक बेदाग़ उपन्यास है जिसमें लाख ढूंढने पर भी कोई ख़ामी निकालना मुमकिन नहीं लगता । जहाँ तक ख़ूबियों का सवाल हैयह उपन्यास बेशुमार ख़ूबियों का मालिक है । पाठक साहब ने ख़ुद एक बार फ़रमाया है कि उनके बहुत से उपन्यास केवल इसलिए जासूसी उपन्यास कहलाते हैं क्योंकि उन पर मिस्ट्री राइटर का ठप्पा लगा हुआ है वरना ऐसे कई उपन्यास हैं जिनको सहज ही सामाजिक उपन्यासों की श्रेणी में रखा जा सकता है । ‘साज़िश’ भी एक ऐसा ही उपन्यास है जिसे आप चाहें तो जासूसी उपन्यास मान लें और चाहें तो सामाजिक उपन्यास मान लें ।

साज़िश’ कहानी है अनिल पवार नाम के एक युवक की जो लोनावला स्थित एक कारख़ाने में इंडस्ट्रियल केमिस्ट की नौकरी करता है । उसका वर्तमान नियोक्ता अविनाश जोशी कुछ अरसा पहले उसे पूना से वहाँ लेकर आया था । आने के बाद उसकी मुलाक़ात बिना माँ-बाप की दो बेटियों – मुग्धा पाटिल और नोनिता पाटिल से हुई थी जिनमें से छोटी बहन मुग्धा से उसने विवाह कर लिया । इन दोनों बहनों का एक बुआ के अतिरिक्त कोई और रिश्तेदार नहीं है । मुग्धा को विवाह से पहले दौरे पड़ते बताए जाते थे । इस बात की रू में मुग्धा के साथ-साथ अनिल की साली नोनिता भी मानो मुग्धा के दहेज में उसके घर चली आई थी ताकि वो मुग्धा की देखभाल कर सके । शादी के बाद अब अनिल की समस्या यह हो गई कि उसकी आमदनी के मुक़ाबले उसकी बीवी और साली का रहन-सहन बहुत खर्चीला था । ‘तेते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर’ वाली कहावत में उन दोनों बहनों का कोई यकीन नहीं था और उनके पाँव सदा अनिल की आमदनी की चादर के बाहर ही पसरे रहते थे ।

साज़िश’ का श्रीगणेश एक तूफ़ानी रात को होता है जब अनिल एक जुए की फड़ में रमा हुआ है और पीछे से उसकी बीवी यानी मुग्धा और साली यानी नोनिता उसके घर से रहस्यमय ढंग से ग़ायब हो जाती हैं । अब क्या अनिल का एम्प्लॉयर अविनाश जोशीक्या स्थानीय पुलिस चौकी का इंचार्ज मुंडे और क्या उसका पड़ोसी दशरथ राजेसबकी एक ही राय है कि अनिल की मौजूदा पतली माली हालत के मद्देनज़र उसकी बीवी और साली उसे छोड़कर अपने यारों के साथ भाग गई हैं । लेकिन अनिल को सूरत-अ-हवाल की यह तर्जुमानी मंज़ूर नहीं क्योंकि उसे अपनी बीवी के प्यार पर अटूट विश्वास है और वह किसी सूरत यह क़ुबूल नहीं कर सकता कि उसकी बीवी उसे छोड़कर किसी ग़ैर के पास चली गई है । तड़पकर वह अपनी बीवी की तलाश में निकलता है । उसके पास पैसा नहीं है लेकिन वह कुछ उधार अपने मेहरबान पड़ोसी दशरथ राजे से लेता है और कुछ पैसा उसे छुट्टियों के साथ-साथ उसका एम्प्लॉयर अविनाश जोशी देता है । उसे पता चलता है कि उसके उनकी ज़िंदगी में पैवस्त होने से पहले दोनों बहनें फ़िल्म अभिनेत्रियां बनने के लिए घर से भागकर मुंबई चली गई थीं । इसलिए वह अपनी तलाश मुंबई से ही शुरू करने का फ़ैसला करता है । दोनों बहनों के ग़ायब होने के रहस्य की परत-दर-परत उधेड़ता हुआ अनिल आख़िर सच्चाई की तह तक कैसे पहुँचता हैयही ‘साज़िश’ का मुख्य भाग है । अनिल की यह तलाश इतनी दिलचस्प और पाठकों को बांधकर रखने वाली है कि पढ़ने वाले के लिए इस उपन्यास को इसके आख़िरी सफ़े तक मुक़म्मल पढ़े बिना बीच में छोड़ना तक़रीबन नामुमकिन है । केवल छः दिनों के घटनाक्रम पर आधारित यह उपन्यास साहित्य के सभी रसों को अपने में समेटे हुए हैं ।

पाठक साहब ने यह बात अपने कई उपन्यासों में रेखांकित की है कि पति-पत्नी का संबंध विश्वास पर आधारित होता है जिसमें कोई दुई का भेद नहीं होना चाहिएकोई छुपाव नहीं होना चाहिए । अगर दोनों के बीच भरोसा ही नहीं  है तो इस नाजुक रिश्ते को नहीं निभाया जा सकता । विमल सीरीज़ का उपन्यास ‘हज़ार हाथ’ और ‘बीवी का हत्यारा’ एवं ‘अनोखी रात’ जैसे थ्रिलर इसी थीम पर हैं । ‘साज़िश’ भी इसी श्रेणी में आता है । अनिल आधे-अधूरे तथ्यों और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अपनी बीवी पर कोई तोहमत थोपने को तैयार नहीं । इसीलिए वह हक़ीक़त का पता ख़ुद लगाना चाहता है और जो कुछ हुआ है या हुआ थाउसकी बाबत अपनी बीवी का बयान उसकी ज़ुबानी जानना चाहता है । वह ऐसा खाविंद है जो अपनी बीवी पर शक़ नहींतबार करता है । मियां-बीवी का रिश्ता ऐसा ही होना चाहिए । ‘साज़िश’ की कहानी प्रथम पुरुष में यानी कि फ़र्स्ट पर्सन में लिखी गई है और इसीलिए वह अनिल के साथ-साथ चलती है । पाठक उतना ही जानता है जितना कि इस उपन्यास का नायक यानि कि अनिल जानता है । अतः उपन्यास पढ़ते समय पाठक अनिल के साथ मानसिक रूप से जुड़ा रहता है।

साज़िश’ में पाठक साहब ने लगभग सभी किरदारों को अपने आप उभरने और अपनी छाप छोड़ने का पूरा मौका दिया है । कथानायक अनिल ही नहींअन्य किरदार जो कि सहायक चरित्र ही कहे जा सकते हैंभी कथानक के फ़लक पर अपना अलग वजूद बरक़रार रखते हैं और पाठकों पर अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ते हैं । जो किरदार दिखाए भी नहीं गए हैंजिनका महज़ ज़िक्र  किया गया हैवे भी अपनी अलग पहचान रखते हैं और पाठक उन्हें बड़ी आसानी से विज़ुअलाइज़ कर सकता हैउनके अक्स को अपने ज़हन पर उतार सकता है ।

पाठक साहब ने अखिलेश भौमिक नाम के एक कलरफ़ुल किरदार के माध्यम से पाठकों को हास्य-रस की भरपूर ख़ुराक दी है । अखिलेश भौमिक एक निर्देशक है जो मूल रूप से तो थिएटर में खेले जाने वाले नाटकों का निर्देशन करता है लेकिन अब वह ‘कौन किसकी बांहों में’ नाम का टी.वी. धारावाहिक बनाने की फ़िराक़ में है बशर्ते कि उसे कोई उसमें धन लगाने वाला मिल जाए । वह अल्कोहलिक है और अपने दफ़्तर में बैठे-बैठे भी शराब पीता रहता है । उसकी और अनिल की मुलाक़ात पाठकों को हँसा-हँसा कर लोटपोट कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ती । इस किरदार और कुछ अन्य किरदारों के माध्यम से पाठक साहब ने शोबिज़ की चमक-दमक के पीछे की सच्चाईयों को उजागर किया है जो कि इस दुनिया में घुसने के ख़्वाहिशमंद नौजवानों के लिए एक सबक है ।

साज़िश’ में पाठक साहब ने औरत-मर्द के प्यार के दो बिलकुल जुदा पहलू पेश किए हैं । एक पहलू यह है कि अगर मोहब्बत को उसका सिला न मिलेअगर उसे लगातार ठुकराया जाए और दूसरे द्वारा बार-बार नीचा दिखाया  जाए तो वह नफ़रत में भी बदल सकती है । लेकिन दूसरी ओर मोहब्बत का एक पहलू यह भी है कि सच्चा आशिक़ अपने महबूब के लिए अपनी जान तक दे सकता है । पाठक साहब ने प्रेम के इस दूसरे रूप को जो कि उदात्त हैपवित्र हैबलिदानी हैउपन्यास के अंत में प्रस्तुत किया है और साथ-साथ यह बात भी रेखांकित की है कि जुर्म में शरीक़ होने वाला भी बुनियादी तौर पर एक नेक इंसान हो सकता है । उपन्यास की अंतिम पंक्ति में इसके मुख्य किरदार भारी कदमों से बाहर निकलते हैं और इसे पढ़ने वाला भी अंतिम पंक्ति पढ़कर भारी मन से ही पुस्तक को बंद करता है ।  

साज़िश’ पाठकों को कैसा लगाइस बात का ज़िक्र सुरेन्द्र मोहन पाठक के किसी भी लेखकीय में नहीं आया और यह हर नुक़्तानिगाह से इस असाधारण ख्याति प्राप्त लेखक का एक लो-प्रोफ़ाइल उपन्यास ही साबित हुआ । लेकिन चर्चित उपन्यासकार की इस कम चर्चित कृति की गुणवत्ता बहुत ऊंची है और मैं इसे अपने प्रिय लेखक के सर्वश्रेष्ठ थ्रिलर उपन्यासों में शुमार करता हूँ ।  

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18 टिप्‍पणियां:

  1. साजिश काफी पहले पढ़ा था। मुझे भी यह काफी पसन्द आया था। हाँ, इसकी धीमी गति ही थोड़ा बहुत खली थी। आपका लेख हमेशा की ही तरह रोचक है और पुस्तक के प्रति उत्सुकता जागृत करता है। आभार।

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    1. हार्दिक आभार विकास जी। हाँ, उपन्यास की गति धीमी है लेकिन मनोरंजन तत्व फिर भी भरपूर है।

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  2. बहुत गहनता से आप पुस्तकों की समीक्षा लिखते हैं ।
    सुरेंद्र मोहन पाठक जी के कुछ उपन्यास पढ़े हैं मैंने , लेकिन अब याद नहीं हैं ।

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा रविवार ( 16-05-2021) को
    "हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में"(चर्चा अंक-4067)
    पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद

    "मीना भारद्वाज"

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    1. हृदयतल से आपका आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीया मीना जी।

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  4. बहुत ही गहन शब्दावली और तारतम्यता। बहुत गहराई है आपके लेखन में जितेंद्र जी।

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  5. बहुत सुंदर समिक्षा, जितेंद भाई।

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  6. बहुत ही रोचक और सरसता से भरपूर समालोचना ।
    पुस्तक, लेखक और उसके मुख्य किरदार, मुख्य विषय वस्तु पर आपने विस्तृत विशिष्ट समीक्षा की है।
    आप के पास एक बेहतरीन समालोचन दृष्टि है।
    सादर।

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  7. जितेन्द्र जी इतनी सार्वभौमिक समीक्षा बहुत कम पढ़ने को मिलती है,हर किरदार और हर पहलू की विस्तृत समीक्षा करने का आपका हुनर लाजवाब है,आपको सादर शुभकामनाएं ।

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