मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

सेल्यूलॉइड पर लिखी दर्दभरी कविता

‘अक्टूबर’ फ़िल्म के बारे में विभिन्न समीक्षकों के विचार पढ़ चुकने के उपरांत मैं इस फ़िल्म को सिनेमा हॉल में देखने गया । और जब फ़िल्म के पूरी हो चुकने पर निकास द्वार की ओर बढ़ा तो मेरा दिलोदिमाग़ मेरे साथ नहीं था । वह इस फ़िल्म के किरदारों के साथ था, उनके जज़्बात को महसूस करता हुआ, सच पूछिए तो उन्हें ख़ुद जीता हुआ । ‘अक्टूबर’ को एक फ़िल्म या एक कहानी कहना ग़लत होगा । कहानी तो यह है ही नहीं । यह तो एक कविता है – सेल्यूलॉइड पर लिखी एक दर्दभरी कविता । एक ऐसी कविता जिसे रचने के लिए ही नहीं, समझने और महसूस करने के लिए भी एक कवि का दिल चाहिए, संवेदनाओं से ओतप्रोत अंतस चाहिए ।

दशकों पूर्व स्वर्गीय सुनील दत्त ने एक फ़िल्म बनाई थी – ‘दर्द का रिश्ता’ जिसमें एक पिता के अपनी पुत्री के मरणासन्न होते जा रहे जीवन से जुड़े रिश्ते का दर्द प्रस्तुत किया गया था । फ़िल्म अत्यंत वास्तविक थी क्योंकि उसका कथानक एक दर्दभरे दिल से ही उभरा था । सुनील दत्त ने अपनी दिवंगत जीवन-संगिनी नरगिस के कैंसर के कारण हुए निधन से जागे अपने दिल के दर्द को ही फ़िल्म में उतार दिया था । इसीलिए इस फ़िल्म में वे अभिनय करते हुए दिखाई नहीं देते, पात्र को जीते हुए दिखाई देते हैं ।

और इसके भी दशकों पूर्व अमर हिन्दी कथाकार पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने एक कालजयी हिन्दी कथा का सृजन किया था – ‘उसने कहा था’ । इस कहानी में नायिका से (लगभग) एकपक्षीय प्रेम करने वाला नायक नायिका द्वारा कहे गए केवल एक वाक्य को हृदयंगम करके उसके पति की जीवन-रक्षा के निमित्त अपना प्राणोत्सर्ग कर देता है । ‘अक्टूबर’ में मुझे साढ़े तीन दशक पुरानी ‘दर्द का रिश्ता’ और एक सदी पुरानी ‘उसने कहा था’ का अद्भुत संगम देखने को मिला ।


फ़िल्म का नायक एक अपरिपक्व-सा, अव्यावहारिक-सा युवक है जो अपने ही जैसे युवा सहकर्मियों के साथ होटल प्रबंधन के पाठ्यक्रम के अंतर्गत एक होटल में प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहा है । प्रत्येक जगह नुक्स निकालने वाला और ऐसे प्रत्येक नुक्स को अपने ही ढंग से ठीक करने में रुचि रखने वाला यह पात्र व्यावहारिक संसार के लिए अनुपयुक्त-सा (अनफ़िट) ही प्रतीत होता है । उसके पात्र से मैं स्वयं को जोड़ पाया क्योंकि मैं स्वयं भी वैसा ही हूँ । लेकिन ऐसे अनफ़िट लोग ही तो पराये दर्द को अपने दर्द की भाँति अंगीकार कर पाते हैं, अनुभव कर पाते हैं और इसीलिए उसे बाँट पाते हैं ।

नायक की महिला सहकर्मी जिससे न उसकी मित्रता थी, न ही कोई उल्लेखनीय मेलजोल (प्रेम-संबंध की तो बात ही छोड़िए), जब दुर्घटनाग्रस्त होकर कोमा में चली जाती है तो नायक का जीवन ही बदल जाता है जब उसे पता चलता है कि दुर्घटनाग्रस्त होने से पूर्व नायिका ने उसके विषय में पूछा था । नायिका ने जो बात संभवतः सहजभाव से उसे अपना एक सामान्य सहकर्मी समझकर पूछी थी, वह उसके अन्तर्मन में एक ऐसा प्रश्न बनकर पैठ जाती है जिसका उत्तर उसे लगता है कि उसे मालूम है लेकिन वह चाहता है कि नायिका अपनी कोमा की अवस्था से उठकर बैठे और उस संभावित उत्तर की पुष्टि करे । और इसके लिए वह अपने जीवन को केवल नायिका के कोमाग्रस्त जीवन, उसकी चिकित्सा एवं सेवा-सुश्रूषा तथा उसके परिजनों (उसकी माता,भाई एवं बहन) तक सीमित कर देता है । उसके अन्य सहकर्मी (जो नायिका के भी सहकर्मी थे) जीवन में आगे बढ़ जाते हैं लेकिन उसका जीवन उसी एक बिंदु पर ठहर जाता है । क्यों ? शायद वह जानता है । शायद हम भी जानते हैं । नायिका के मन में क्या था, विश्वासपूर्वक कोई नहीं कह सकता लेकिन नायक तो वही समझता है, जो वह समझना चाहता है । क्या हम सभी कहीं-न-कहीं ऐसे ही नहीं ?

और अपने जीवन के इस दौर में; जब नायिका और उसके परिजनों के साथ वह दैनिक आधार पर जुड़ गया है और उसकी अपनी प्राथमिकताएं समाप्त होकर नायिका के जीवन पर आधारित हो चुकी उनकी दिनचर्या में समा गई हैं, ग़ालिब के शब्दों में वह काम का आदमी न रहकर इश्क़ में निकम्मा बन चुका है; तब वह देखता है कि कथित प्रैक्टीकल जीवन में भावनाओं की नहीं, धन और संसाधनों की महत्ता ही अधिक है । नायिका कभी सामान्य जीवन जी सकेगी या नहीं, यह पूर्णतः अनिश्चित है जिसके कारण उसका चाचा उसे दया-मृत्यु दे दिए जाने के पक्ष में है (ताकि उसकी चिकित्सा पर हो रहे व्यय के कारण होने वाली आर्थिक हानि को न्यूनतम किया जा सके) लेकिन चिकित्सा कर रहे विशेषज्ञ नायिका के परिवार को झूठी आशा बंधा रहे हैं (क्योंकि उनका व्यावसायिक हित नर्सिंग होम में नायिका की लंबी उपस्थिति और चिकित्सा के लंबे समय तक चलने में ही निहित है) । नायिका की माता एक सिंगल मदर है जो कि अपनी शिक्षिका की नौकरी की आय से ही दोनों बच्चों का पालन-पोषण कर रही है । नायिका के इलाज पर हो रहा भारी-भरकम ख़र्च उसकी आमदनी पर बहुत बड़ा बोझ है जिसे सहने के अलावा कोई चारा नहीं है । जननी है, परिस्थितियों के आगे नत होकर अपनी बच्ची को मृत्यु के हवाले कैसे कर दे ? नायक सब कुछ देखता, सुनता, समझता है और बिना किसी के बनाए स्वतः ही इस असहनीय पीड़ा को सह रहे परिवार का अंग बन जाता है । वह इस परिवार के सदस्यों के साथ उदास होता है तो मुसकराता भी है । लेकिन . . .

लेकिन मृत्यु से तो विरले ही जीत पाए हैं । सच्ची-झूठी आशा-निराशा-दुराशा के बीच झूलते इस परिवार को आख़िर अपने प्रिय की मृत्यु के सत्य से साक्षात् करना ही पड़ता है । और जीवन तो फिर भी चलता है जब तक आप स्वयं ही दिगंत में लीन न हो जाएं । अब नायक को भी जीवन में आगे बढ़ना होगा । लेकिन क्या वह बढ़ पाएगा ? क्या वह नायिका की स्मृतियों से स्वयं को विलग करके जीवन जी सकता है ? नहीं ! कदापि नहीं ! विशेष रूप से तब जबकि वह हरसिंगार (पारिजात) का वह वृक्ष अपने साथ ले आया है जिसके अक्टूबर मास में झरने वाले फूल नायिका को बहुत पसंद थे जिसका नामकरण ही उनके नाम पर ‘शिवली’ किया गया था । जीवन चलेगा । लेकिन यादें भी चलेंगी । जीवन-मृत्यु के बीच डूबती-उतराती नायिका की वह अवस्था नायक को बहुत कुछ सिखा गई है । अब वह अपरिपक्व युवक नहीं रहा । अचानक ही बड़ा हो गया है । 

फ़िल्म का शीर्षक अपने आप में ही बहुत कुछ समेटे हुए है । बहुत कुछ ऐसा जो अनकहा है जिसे बिना सुने ही समझना होता है । हरसिंगार के फूलों को शेफ़ाली भी कहा जाता है (शिवली के सदृश) । फ़िल्म देखते-ही-देखते वर्षों पूर्व कहीं पढ़ी गई एक सुकोमल भावों से भरी कविता की पंक्तियां मेरी स्मृतियों के आकाश में कौंध गईं – ‘सजने और सँवरने के दिन, इकदूजे पर मरने के दिन, बहती नदिया मन के भीतर, शेफ़ाली के झरने के दिन’ । हाँ, अक्टूबर ऐसा ही होता है – न शीतल, न उष्ण, कुछ-कुछ सुहाना-सा जिसमें भावनाएँ उमड़ती हैं । कुछ फूल-पत्ते झरते हैं और संसार में अपनी सुगंध बिखेरकर नए फूल-पत्तों के आगमन के लिए स्थान रिक्त कर  देते हैं ।

निर्देशक शुजीत सरकार और लेखिका जूही चतुर्वेदी ने वरुण धवन, बनिता संधू और गीतांजलि राव जैसे कलाकारों के साथ मिलकर इस अनूठी, अलबेली कविता को सिरजा है । शांतनु मोइत्रा द्वारा संगीतबद्ध गीतों को मैंने फ़िल्म में सुना या नहीं, याद नहीं पड़ता । मेरे लिए तो छायाकार अविक मुखोपाध्याय द्वारा किसी सुंदर चित्र की भाँति परदे पर उतारी गई इस फ़िल्म का प्रत्येक दृश्य, प्रत्येक पल ही एक दर्दीले लेकिन सुरीले संगीत में डूबा हुआ गुज़रा । ऐसा संगीत जिसे मैंने कानों से नहीं, आँखों से सुना । यह दर्दभरी कविता अधूरी होकर भी पूरी है, ठीक वैसे ही जैसे जीवन अधूरा होकर भी पूरा होता है । 


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2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!!
    बहुत ही रोचक समीक्षा जिसे पढ़कर फिल्म देखने का मन करने लगा....सही कहा कुछ कहानियां एक कविता सी होती हैं जिन्हें समझने के लिए एक कवि मन होना चाहिए...।
    लाजवाब सृजन।

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    1. यदि आपने यह फ़िल्म नहीं देखी है सुधा जी एवं यदि आप फ़िल्में देखना पसंद करती हैं तो इस फ़िल्म को अवश्य देखिए । हार्दिक आभार आपका ।

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