सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

संवेदना

आज भारतीय समाज या यूँ कहें कि संपूर्ण मानव समाज एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है और वह है संवेदनहीनता की समस्या । सच पूछिए तो यही वह समस्या है जो कि अनेक अन्य समस्याओं का मूल है । यही वह समस्या है जिसने निराशा की अंधकारमय रात्रि को इतना दीर्घ कर दिया है कि प्रकाश की किरण कहीं दूरदूर तक दृष्टिगोचर नहीं होती । इसीलिए आज मानव समाज को जिस बात की सबसे अधिक आवश्यकता है वह है संवेदना अथवा संवेदनशीलता ।

कहते हैं कि दर्द जब हद से गुज़र जाता है तो वह दवा बन जाता है । इसका आशय यह नहीं कि हद से गुज़र जाने के बाद दर्द समाप्त हो जाता है या अपने आप ठीक हो जाता है । इसका आशय यह है कि सहनशक्ति की सीमा से आगे निकल जाने के बाद व्यक्ति उस दर्द के प्रति संवेदनहीन हो जाता है अर्थात् दर्द उपस्थित तो रहता है किन्तु दर्द सहने वाले की देह ऐसी सुन्न हो चुकी होती है कि उसे दर्द के होने की अनुभूति ही नहीं होती । यह अवस्था तो दर्द के होने से भी अधिक संकटपूर्ण है क्योंकि दर्द उपस्थित रहता है तो व्यक्ति उस दर्द को दूर करने के लिए इच्छुक एवं जागरूक रहता है एवं उस दिशा में प्रयास करता है जबकि दर्द की अनुभूति ही समाप्त हो जाए तो व्यक्ति उसके प्रति लापरवाह हो जाता है और अपने कष्ट के निवारण के लिए इच्छुक ही नहीं रहता । वह उस दर्द के साथ जीना सीख जाता है । यह संवेदनहीनता ही उसकी चिकित्सा में सबसे बड़ा बाधक तत्व बन जाती है । यह उपमा हमारे इस सुंदर विश्व तथा हमारे इस महान राष्ट्र की अनेक ज्वलंत समस्याओं पर चरितार्थ होती है । समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर जब अंगीकार कर लिया जाता है तो क्या आश्चर्य कि हम उनकी उपस्थिति के प्रति संवेदनशील ही न रहें और उनके समाधान की कोई आवश्यकता ही न समझें ? समस्या के समाधान की दिशा में प्रथम पग है उसके अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता ।

आज हमारे समाज से करूणा, परोपकार, भ्रातृत्व-भाव आदि भावनाओं का लोप होता जा रहा है । सड़क पर पड़े दर्द से कराह रहे व्यक्ति से हम कतराकर निकल जाते हैं । किसी रोते हुए बालक के अश्रु हमें विगलित नहीं करते । निर्धन की निर्धनता हो या पीड़ित की पीड़ा, हम उसी प्रकार निष्प्रभावित रहते हैं जिस प्रकार चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता । कारण वही कि हमारी संवेदना या तो समाप्तप्रायः हो गई है या अत्यन्त दुर्बल । समाज तो नागरिकों से ही बनता है । जब नागरिकों में ही संवेदना न रहे तो समाज कैसे संवेदनशील बने ?

चाहे कोई भी समाज हो, हमारी मानसिकता अत्यन्त तटस्थ होती जा रही है । मुहल्ले में, समुदाय में, वृहत् समाज में, राष्ट्र में अथवा संसार में चाहे जो भी हो जाए, हमारी तो एक ही प्रतिक्रिया होती है हमें क्या ? और हम कोऊ नृप होय हमें का हानिकी पुरातन कहावत को चरितार्थ करते दृष्टिगोचर होते हैं । हमारी संवेदना अब हमें किसी भी बात पर झकझोरती ही नहीं । न्यूनाधिक हम सभी कोई मरे कोई जिये, सुथरा घोल बताशा पियेवाली श्रेणी में आ गए हैं । जब तक कि स्वयं हम पर या हमारे किसी सगे वाले पर कोई विपदा न आए, हमारी संवेदना जड़ रूप में ही रहती है ।

यही कारण है कि चाहे भ्रष्टाचार हो या राजनीति का अपराधीकरण, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता और ऐसी समस्याएँ ज्यों-की-त्यों बनी ही नहीं रहतीं वरन् दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती हैं । हम समाचार-पत्र की सुर्खियों पर एक दृष्टि डालते हैं और फिर उसे एक ओर उछाल देते हैं । कभीकभार घर की बैठक में या कार्यालय में अवकाश के क्षणों में अवश्य चर्चा छिड़ सकती है लेकिन वह समय बिताने की विलासिता ही होती है, उसमें कोई ऐसी संवेदना नहीं होती जो कि किसी ठोस कार्य का आधार बन सके । अगर कोई हमारी संवेदना को झिंझोड़ने का प्रयास भी करे तो हम वही अपना मानक राग अलापते हैं - भई, अपनी ही समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि दूसरों की क्या सोचें ?’ हमारी यही तटस्थता कुमार्गियों को संबल प्रदान करती है । उचित ही कहा गया है कि बुराई की विजय तो तभी हो जाती है जब अच्छाई अपने नेत्र बंद कर लेती है । हम भूल जाते हैं कि कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़े सुखन, ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है ।

कोई भी सफल एवं महान राष्ट्र बनता है संवेदनशील एवं जागरूक नागरिकों से, तथाकथित तटस्थ एवं आत्मकेंद्रित नागरिकों से नहीं । बुराइयों के प्रति संवेदना जागेगी तभी तो उन्हें दूर करने का प्रयास होगा । शरीर में चुभा हुआ काँटा निकालने की आवश्यकता तभी तो अनुभव होगी जबकि उसकी चुभन से दर्द की लहर देह में दौड़ेगी । अतः प्रथम आवश्यकता है अपनी संवेदना को जगाना, हमें क्या की मानसिकता से बाहर आना । हम स्वयं संवेदनशील बनेंगे तभी तो दूसरों को संवेदनशील बनाने का कोई सार्थक प्रयास कर पाएंगे ।

बुरा व्यक्ति उपदेशों से प्रभावित नहीं होता । संवेदनहीन प्रशासन हमारे कहने भर से संवेदनशील नहीं बन सकता । जड़भूत समाज की संवेदनाएँ खोखली चर्चाओं से पुनरूद्भूत नहीं होने वालीं । क्षेत्र कोई भी हो, पर उपदेश कुशल बहुतेरेसे काम नहीं चलता । अतः पहले हम स्वयं संवेदनशील बनें तथा इस बात को अपने आचार में उतारकर अन्य लोगों के लिए उदाहरण बनें । तभी हमारी बात में वज़न आएगा तथा वह दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के योग्य बनेगी । हमारा अनुकरण लोग तभी तो करेंगे जब हमारा अपना आचरण उन्हें अनुकरणीय लगे । तदोपरांत हम प्रयास कर सकते हैं कि एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा व्यक्ति संवेदनशील बने तथा यह संवेदनशीलता समाज में एक संक्रामक रोग की भाँति प्रसृत हो । भ्रष्ट व्यक्ति भ्रष्टाचार छोड़ने की बात तभी सोच सकता है जबकि वह उसके दुष्परिणामों को अपनी आँखों से देखे तथा उनके प्रति संवेदनशील बने । अपराधी अपराध तभी छोड़ सकता है जबकि वह अपने अपराध से प्रभावित लोगों की पीड़ा को देखे, समझे, जाने तथा उसके भीतर की सुप्त संवेदनशीलता जागृत हो । यह संवेदना ही वह नींव की ईंट है जिस पर एक स्वस्थ और उदात्त समाज रूपी राजप्रासाद का निर्माण हो सकता है ।

आज अगर हम अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर कुछ नहीं सोच पाते तो इसका एक ही कारण है संवेदना का अभाव । संवेदना जागृत होगी तो सोच अपने आप ही सही दिशा में मुड़ेगी । व्यक्ति से परिवार, परिवार से समुदाय, समुदाय से ग्राम, ग्राम से राज्य और राज्य से राष्ट्र में संवेदनाओं का प्रसार होगा और तमाम बिगड़ी बातें बनने लगेंगी । एक बार अपनी संवेदना का दामन थामकर अकेले चलिए तो सही । आगे चलकर आपको यह शेर बरबस ही याद आ जाएगा - मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल, लोग आते गए, कारवाँ बनता गया ।

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6 टिप्‍पणियां:

  1. Mathur ji, ek aur shaandaar kruti!
    Sach hai..."Sanvedana zaruri hai zindgi k liye..."

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  2. Mr Mathur what a nicely written essay on 'Samvedana'. I totally agree with u regarding the mindset of a current society. I would like to remind you about our previous prime minister Sh PV Narsimha Rao he used to make non-different attututde towards problems posed in front of him, this policy was later termed as 'Thakao Neeti' most of us are so busy with our own pace of life that we try to 'thakao' the burning issues in front of us and thereby become insensitive to it.
    One thing more i m sure of is that very few of the readers might have read it or would read it carefully.
    To be frank even i would not have read it unless i would have seen your name on it.
    I don't know how can we recreate our sympathetic aspect which is dying down gradually.

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  3. A comprehensive statement on social sensitivity which in turn sensitizes the readers towards the advantages, pragmatism and progressiveness of sensitiveness towards each other and society in general. Wonderful! Keep it up! Wanting to read more from your pen.

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