मानवीय जीवन का एक अविभाज्य अंग हैं भावनाएँ । भावनाओं के बिना जीवन कैसा ? भावनाएँ ही तो हैं जो कि एक रुखेसूखे और रंगहीन जीवन को रसरंगयुक्त बनाती हैं । एक भावनाविहीन जीवन उपयोगी तो हो सकता है लेकिन उसकी उपयोगिता सीमित ही रहेगी । यदि व्यक्ति भावनाओं से रहित है तो न तो उसकी प्रतिभा का ही समुचित उपयोग हो सकता है और न ही उसके प्रयास अपनी सम्पूर्णता में सफल हो सकते हैं । अतः जीवन में भावनात्मक होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
अकसर ऐसा कहा जाता है कि जीवन तर्क तथा मस्तिष्क से चलना चाहिए, भावनाओं तथा हृदय से नहीं । व्यावहारिक जीवन में यह बात कुछ हद तक सही है, विशेष रुप से संकट के समय में क्योंकि कठिन समय में भावनाएँ कभी-कभी विचार-प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देती हैं । लेकिन इसके साथ ही यह भी सत्य है कि संकट जितना बड़ा हो, संकल्प उतना ही दृढ़ होना चाहिए और संकल्प का सीधा संबंध हृदय से है जो कि भावनाओं से जुड़ा होता है । जिस संकल्प के पीछे भावना नहीं है, वह किसी भी झंझावात में एक कमज़ोर वृक्ष की भाँति लड़खड़ा कर टूट सकता है ।
अब प्रश्न यह है कि भावनात्मक होने से क्या अभिप्राय है ? क्या बातबात पर अश्रु बहाने लगना तथा गले का रुंध जाना ही भावनात्मक होना है ? बातबेबात पर भावनाओं में बह जाने तथा तदनुरुप ही व्यवहार करने लगने को ही क्या हम व्यक्ति का भावनात्मक होना समझें ? मेरे विचार से यह सही नहीं है क्योंकि भावुकता तथा भावनात्मकता में एक सूक्ष्म अंतर है जो कि व्यक्ति की परिपक्वता से संबंध रखता है । अतिभावुक व्यक्ति संकट के समय में अपने को संभाल नहीं सकता । उसके लिए तो अपनी सहायता करना भी कठिन हो जाता है, अन्य की तो बात ही क्या । जबकि भावनात्मक व्यक्ति वह है जो भावना और कर्तव्य में संतुलन करना जानता हो, जो भावनाओं को अपने हृदय में संजोकर रखे लेकिन उन्हें कर्तव्य-पालन पर हावी न होने दे ।
दशकों पूर्व महान कहानीकार जैनेन्द्र
कुमार ने एक कहानी लिखी थी – श्रेय एवं प्रेय । सच्चा भावनात्मक व्यक्ति वही है जो कि श्रेय अथवा कर्तव्य तथा प्रेय अथवा प्रिय कार्य में उचितअनुचित का भेद कर सके तथा सही समय पर सही कार्य का चुनाव कर सके । उदात्त भावनाओं को अपने हृदय में स्थान देते हुए उनके अनुरुप ही चलकर कर्तव्य-पालन में कोई चूक न करना ही सच्चे भावनात्मक व्यक्ति की पहचान है । ऐसा व्यक्ति ही श्रेय को प्रेय से पृथक् करके उसे अपने जीवन में प्राथमिकता दे सकता है ।
भावनाओं के कई प्रकार होते हैं । जब हम भावनात्मक होने की बात करते हैं तो हमारा आशय उदात्त एवं वांछनीय भावनाओं से ही होता है । यहाँ मैं जयशंकर प्रसाद जी के प्रसिद्ध नाटक – ‘कामना’ का स्मरण करता हूँ जिसमें विभिन्न मानवीय भावनाओं को चरित्रों के माध्यम से दो वर्गों में बाँटकर प्रस्तुत किया गया था । एक ओर उदात्त एवं कोमल भावनाएँ होती हैं यथा कामना, संतोष, उदारता, करुणा, प्रेम, निष्कपटता, विनोद आदि तथा दूसरी ओर कुछ ऐसी भावनाएँ भी होती हैं जो मानवीय जीवन के कृष्ण पक्ष से संबंध रखती हैं यथा लालसा, विलास, कपट, क्रूरता आदि जिनसे दूरी ही भली । जब हम व्यक्ति से भावनात्मक होने की अपेक्षा करते हैं तो हमारा अभिप्राय वांछनीय भावनाओं से ही होता है जो कि जीवन को सुखद बनाएं, उसके सौंदर्य को बढ़ाएं, उसे संसार हेतु मूल्यवान बनने में सहयोग दें ।
जीवन का भावनात्मक पक्ष प्रबल होने पर ही व्यक्ति निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर अन्य व्यक्तियों या और अधिक विस्तृत रुप में कहें तो अन्य प्राणियों के विषय में सोचता है, उनके सौंदर्य को सराहता है तथा उनके संताप को स्वानुभूत करता है । ऐसा व्यक्ति ही अपने जीवन को जनोपयोगी बना सकता है क्योंकि उसके भीतर की भावनात्मकता उसे आत्मकेंद्रित तथा स्वार्थी बनने से रोकती है । प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव रखना तथा दीनदुखियों की यथासंभव सहायता करना एक भावनात्मक व्यक्ति के ही वश की बात है, भावनाविहीन व्यक्ति के वश की नहीं ।
मेरा एक निजी विचार यह भी है कि व्यक्ति भावनात्मक तो बने पर अपनी उदात्त भावनाओं के प्रतिदान में कभी कुछ चाहे नहीं । कुछ चाहने की भावना यदि अन्य भावनाओं पर हावी होने लगे तो व्यक्ति की उदारता एवं आंतरिक सौंदर्य का क्रमश: ह्रास होने लगता है और यह बात व्यक्ति को स्वयं पता नहीं लगती । अत: भावनात्मक व्यक्ति को चाहिए कि वह देने के भाव को अपने हृदय में सर्वोच्च स्थान दे किंतु कुछ पाने की लालसा से नहीं । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कार्य अत्यंत कठिन है किंतु यही नि:स्वार्थ भाव एक भावनात्मक व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनाता है और उसे महानता के पथ पर अग्रसर करता है । तथापि कुछ चाहना हो तो यही चाहे कि उसकी उदारता का कुछ अंश उन लोगों के व्यक्तित्व में भी प्रविष्ट हो जो उसके संपर्क में आएं और उसकी भावनात्मकता से किसी-न-किसी रुप में प्रभावित हों ।
चूँकि भावनाएँ व्यक्तित्व का एक कोमल पक्ष हैं, अत: हमें चाहिए कि कभी किसी भी कारण से हम किसी भी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस न पहुँचाएं । किसी की कोमल भावनाओं को ठेस पहुँचाकर हम उसके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्ष पर आघात करते हैं जो कि अंततोगत्वा व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्तर पर नकारात्मक परिणाम ही लाता है । इसके विपरीत किसी की भावनाओं का आदर करके और उसकी भावनात्मकता को सकारात्मक प्रतिक्रिया देकर हम उसके व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को उभार सकते हैं । सहानुभूति और प्रेम तो ऐसी सकारात्मक भावनाएँ हैं जो कि दैत्य को भी देव बना सकती हैं ।
अस्तु, भावनात्मकता मानवीय व्यक्तित्व का वह पहलू है जो उसे रसमय बनाता है तथा स्वार्थी एवं निष्ठुर नहीं बनने देता । भावनाएँ मानव को ईश्वरीय देन हैं जिन्हें संजोकर रखना तथा विकसित करना व्यक्ति का अपना कार्य है । इस कार्य में उसका पारिवारिक तथा सामाजिक वातावरण भी अपनी महती भूमिका निभाता है । एक भावनात्मक व्यक्ति ही समाजोपयोगी हो सकता है, यह बात समाज को भी समझनी चाहिए । आइए, हम भावनाओं के मूल्य को समझें, स्वयं भावनात्मक बनें तथा अन्य लोगों को भी भावनात्मक बनाने में अपना सकारात्मक योगदान दें ।
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जवाब देंहटाएंशुक्रिया गीता जी ।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र
Admirable and heart-touching article Mathurji.. I am really impressed.
जवाब देंहटाएंWith best regard,
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Beena
धन्यवाद बीना जी ।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र
achha lekh hai mathurji. padhne ke baad kuch sikhney ko mila hai.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सीमा जी ।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी ।
हटाएंSuch deep and touching thoughts. Loved it. Look forward to read more from you.
जवाब देंहटाएंHearty thanks Anupam Ji.
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