सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

फ़िल्म में वास्तविक जीवन का प्रेम-त्रिकोण !

प्रसिद्ध फ़िल्मकार स्वर्गीय यश चोपड़ा प्रेमकथाओं के सुंदर चित्रण के लिए ही प्रमुखतः जाने जाते हैं यद्यपि उन्होंने दीवार’, त्रिशूल’, काला पत्थर जैसी फ़िल्मों का भी दिग्दर्शन किया जो प्रेमकथाओं से इतर विषयों पर आधारित थीं। १९८१ में उनके द्वारा निर्मित एवं निर्देशित फ़िल्म सिलसिला प्रदर्शित हुई जो कि एक प्रेम-त्रिकोण के कथानक पर आधारित थी। यह फ़िल्म न केवल व्यावसायिक रूप से असफल रही वरन फ़िल्म-समीक्षकों की भी आलोचना का पात्र बनी। किन्तु आने वाले समय में इसे एक क्लासिक माना गया। आज भी माना जाता है। आइ, देखें कि क्यों यह प्रदर्शन के समय दर्शकों एवं समीक्षकों की सराहना नहीं पा सकी एवं क्यों अब यह एक क्लासिक की श्रेणी में रखी जाती है।

इस फ़िल्म की कास्टिंग कुछ ऐसी थी जिसने इसे प्रदर्शन से पूर्व ही चर्चा का विषय बना दिया था। फ़िल्म में प्रमुख भूमिकाएं अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी (बच्चन) एवं रेखा की थीं (यद्यपि संजीव कुमार एवं मेहमान भूमिका में शशि कपूर भी इस फ़िल्म में थे)। अमिताभ एवं जया वास्तविक जीवन में पति-पत्नी थे तथा विगत आठ वर्षों से (१९७३ से) विवाहित थे जबकि अमिताभ एवं रेखा के रोमांस के चर्चे विगत चार-पाँच वर्षों से फ़िल्मी दुनिया में चल रहे थे। अमिताभ और रेखा की जोड़ी दर्शकों में भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। ऐसे में फ़िल्मों से संन्यास ले चुकीं जया और उनके साथ रेखा को फ़िल्म में लेना ही एक अत्यन्त कठिन कार्य था जो यश चोपड़ा कैसे कर सके, आज तक एक रहस्य ही है।

फ़िल्म की कथा में बताया गया है कि अमिताभ एवं रेखा प्रेमी-युगल थे किन्तु अपने बड़े भाई शशि कपूर के आकस्मिक निधन के कारण अमिताभ को जया से विवाह करना पड़ा जबकि रेखा का विवाह संजीव कुमार से हो गया। विवाह के कुछ समय उपरांत अमिताभ एवं रेखा मिलते हैं तथा प्रेम की चिंगारी उनके मन में फिर से भड़क उठती है। ऐसे में अमिताभ, जया एवं रेखा का प्रेम-त्रिकोण बन जाता है (एक कोने पर संजीव कुमार भी विवश से इस विवाहेतर प्रेम को देख रहे होते हैं)। अमिताभ जया को छोड़कर रेखा के साथ जीवन बिताने चल देते हैं लेकिन समाज के बंधन उन्हें एवं रेखा को लौटने पर विवश कर देते हैं। अंत में अमिताभ एक विमान दुर्घटना से संजीव कुमार की जान बचाते हैं तथा वे और रेखा अपने-अपने परिवार में सीमित हो जाते हैं।


इस फ़िल्म के कथानक को अमिताभ तथा रेखा के वास्तविक प्रेम एवं उसके अमिताभ के (जया के साथ) वैवाहिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के चित्रण के रूप में देखा गया। यश चोपड़ा यूं तो साहसी फ़िल्मकार माने जाते थे पर सम्भवतः वे विवाहेतर संबंध को न्यायोचित ठहराने का साहस नहीं कर पाए। उस समय का भारतीय सामाजिक परिवेश एवं सामाजिक मान्यताएं विवाह बंधन से बाहर ऐसे किसी संबंध को स्वीकार भी नहीं करते थे। अतः ऐसा लगता है कि यश चोपड़ा ने एक साहसी फ़िल्म बनाते-बनाते अपने पैर पीछे खींच लिए तथा फ़िल्म का अंत वैसा ही रखा जैसा कि भारतीय समाज में स्वीकार्य था। वैसे भी फ़िल्म एक अच्छी एवं प्रभावशाली फ़िल्म के रूप में दर्शक समुदाय के समक्ष नहीं आ सकी। सुमधुर गीत-संगीत एवं सभी कलाकारों के अच्छे अभिनय के बावजूद फ़िल्म फीकी-फीकी-सी रही। फ़िल्म की व्यावसायिक असफलता का सम्भवतः यह भी एक कारण था। जिस अपेक्षा के साथ दर्शक फ़िल्म को देखने गए थे, वह पूर्ण नहीं हुई। न तो वास्तविक जीवन के प्रेम-त्रिकोण को ठीक ढंग से परदे पर उतारा जा सका, न ही एक मनोरंजक फ़िल्मी कथानक दर्शकों के सम्मुख रखा जा सका।

जया बच्चन वैसे भी विवाह के उपरांत फ़िल्मों से दूर हो गई थीं। इस फ़िल्म के उपरांत वे पुनः अपनी घर-गृहस्थी में रम गईं तथा अनेक वर्षों तक रजतपट पर दिखाई नहीं दीं। पर विशेष बात यह है कि अमिताभ ने रेखा के साथ अपनी जोड़ी की लोकप्रियता के बावजूद आगे उनके साथ कोई फ़िल्म नहीं की और यही फ़िल्म उनकी एवं रेखा की एक साथ आई हुई अंतिम फ़िल्म सिद्ध हुई। वास्तविक जीवन में भी उनके मध्य दूरियां आ गईं जो आज तक अनुभव की जाती हैं। जया ने संजीव कुमार के साथ बहुत-सी फ़िल्में की थीं जिन्हें उन दोनों के सामूहिक अभिनय ने जीवंत तथा प्रभावशाली बना दिया था लेकिन सिलसिला उन दोनों की भी एक साथ की गई अन्तिम फ़िल्म सिद्ध हुई।

फ़िल्म के गीत-संगीत के लिए यश चोपड़ा ने सुप्रसिद्ध संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा तथा सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया को (शिव-हरि के नाम से) लिया था तथा इन दोनों ही असाधारण कलाकारों ने फ़िल्म का संगीत सृजित करने के अपने दायित्व का निर्वहन बहुत अच्छे ढंग से किया। ये कहाँ आ गए हम’, नीला आसमां सो गया’, देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए’, रंग बरसे आदि गीत तो अत्यन्त लोकप्रिय हुए ही, अन्य गीत भी बहुत अच्छे बन पड़े। आज यदि इस फ़िल्म को एक क्लासिक का दरज़ा मिला है तो इसमें इसके गीत-संगीत का भी बहुत बड़ा योगदान है।

समय के साथ-साथ समाज की सोच भी बदली। और इसीलिए शायद कुछ वर्षों बाद सिलसिला को क्लासिक माना गया। पर सच यही है कि चाहे कोई भी समाज हो, विवाह की संस्था अपना जो महत्व रखती है, उसे हलके में नहीं लिया जा सकता। इस संस्था के बाहर किसी अन्य के साथ प्रेम-संबंध रखना न तो पति के लिए वांछनीय है, न ही पत्नी के लिए। इसीलिए सिलसिला का कथ्य न तो उस ज़माने में गले उतरने वाला था, न ही आज है। आज यह फ़िल्म पसंद भी की जाती है एवं सराही भी जाती है पर इसका संदेश आज भी स्वीकार्य नहीं है। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि यह एक सुंदर किंतु त्रुटिपूर्ण फ़िल्म है।

सिलसिला के असफल होने के उपरांत यश चोपड़ा ने आने वाले कुछ वर्षों तक प्रेमकथाएं नहीं रचीं। पर न तो वे सिलसिला को भूल पाए और न ही उसकी असफलता को पचा पाए। आठ वर्षों के उपरांत १९८९ में वे चांदनी के रूप में एक और प्रेमकथा लेकर आए (वह भी प्रेम-त्रिकोण ही है) जिसमें उन्होंने शिव-हरि को ही संगीतकार के रूप में लिया। फ़िल्म की नायिका का नाम उन्होंने चांदनी ही रखा जो कि सिलसिला में रेखा के चरित्र का नाम था। सिलसिला तो असफल रही थी किंतु श्रीदेवी अभिनीत चांदनी ने अभूतपूर्व व्यावसायिक सफलता अर्जित की।

सिलसिला में जो प्रेम-त्रिकोण दिखाया गया था उसने फ़िल्म के प्रदर्शन के उपरांत वास्तविक जीवन में उसी प्रेम-त्रिकोण का पटाक्षेप कर दिया। फ़िल्म पर बहुत कुछ कहा गया था और आज भी कहा जाता है। मैं तो यही कहूंगा कि इसे देखा जा सकता है और विचार किया जा सकता है कि वैवाहिक जीवन में प्रवेश कर लेने के उपरांत उससे बाहर का प्रेम-संबंध कितना उचित है। अमिताभ और रेखा तो इसे समझ गए। हम भी समझ लें तो क्या हर्ज़ है ?

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मंगलवार, 16 सितंबर 2025

ओथेलो और दोरंगे जूतों का रहस्य

महान नाटककार शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक फ़िल्मकारों हेतु सदा ही प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। इसीलिए उन नाटकों की कथाओं पर आधारित अनेक फ़िल्में बनी हैं। ऐसा ही एक नाटक ओथेलो है जिसके कथानक का आधार मुख्य पात्र का अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करना है। इसके आधार पर इक्कीसवीं सदी में विशाल भारद्वाज ने ओमकारा नामक फ़िल्म बनाई थी। किंतु मैं एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात करूंगा जो कि कई दशक पूर्व १९६७ में प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म है – हमराज़ जिसका निर्माण एवं निर्देशन किया था – सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार बी.आर. चोपड़ा ने।

हमराज़ एक प्रेमकथा के रूप में आरंभ होती है किंतु मध्य तक आते-आते एक रहस्यकथा का रूप धारण कर लेती है। फ़िल्म की नायिका मीना (विमी) अपने प्रेमी राजेश (राजकुमार) जो कि एक सैनिक है, से गुप्त विवाह कर लेती है। राजेश के युद्ध में मारे जाने का समाचार आता है। मीना गर्भवती होती है जिसे प्रसव के उपरांत बताया जाता है कि उसका शिशु जीवित नहीं रहा। कुछ समय के उपरांत उसके जीवन में एक कलाकार कुमार (सुनील दत्त) का प्रवेश होता है जिससे मीना विवाह कर लेती है। मीना कुमार को अपने अतीत के विषय में कुछ नहीं बताती। कुछ वर्षों के उपरांत उसके पिता अपनी मृत्यु से पूर्व उसे बताते हैं कि उसका शिशु जो कि एक बालिका है, जीवित है तथा वह एक अनाथ-आश्रम में पल रही है। अब मीना अपनी बच्ची से मिल तो लेती है किंतु उसे गोद नहीं ले पाती क्योंकि कुमार इसके पक्ष में नहीं है।

फ़िल्म की वास्तविक कहानी अब आरंभ होती है जो कि ओथेलो से प्रेरित है (कुमार को रंगमंच पर भी ओथेलो नाटक में शीर्षक भूमिका निभाते हुए ही दिखाया गया है)। नव वर्ष की पार्टी में मीना को राजेश का एक पुराना मित्र मिलता है जो कि उसे उसके द्वारा राजेश को लिखे गए प्रेमपत्रों के विषय में बताता है। अगले दिन मीना के पास उसका फ़ोन आता है। अब एक ओर तो मीना की गतिविधियां कुमार को संदेह में डालती हैं, दूसरी ओर दर्शकों को किसी पात्र के केवल पैर दिखाए जाते हैं जिनमें वह पात्र दो रंगों वाले जूते पहनता है। यह दोरंगे जूते पहनने वाला कौन है, दर्शक इसका केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। लेकिन इससे फ़िल्म में रहस्य बहुत उत्पन्न होता है।

बहरहाल कुमार को अपनी पत्नी मीना पर संदेह हो जाता है तथा वह शहर से बाहर जाने का बहाना करके तथा वेश बदलकर उस पर नज़र रखता है। उसी रात मीना की हत्या हो जाती है। पुलिस को इस हत्या के लिए कुमार पर ही संदेह होता है। अब कुमार को एक ओर तो पुलिस से बचना है, दूसरी ओर मीना के हत्यारे का भी पता लगाना है। इधर दोरंगे जूतों वाला भी सक्रिय है जो कुमार के घर में घुसकर कुछ काग़ज़ात चुरा ले जाता है। यह रहस्यपूर्ण आख्यान एक प्रबल जलधारा की भांति दर्शकों को अपने साथ बहाए ले चलता है। आख़िर में दोरंगे जूतों वाले की वास्तविकता भी पता चलती है तथा मीना के हत्यारे की भी। फ़िल्म का नाम हमराज़ (ऐसा व्यक्ति जिसे आप अपनी कोई गोपनीय बात बताते हैं) रखा जाने का कारण भी स्पष्ट होता है।

हमराज़ एक अत्यंत रोचक फ़िल्म है जो यह बताती है कि पति-पत्नी को एकदूसरे पर संदेह करने के स्थान पर विश्वास करना चाहिए एवं एकदूसरे को अपने विश्वास में लेना चाहिए। विश्वास से समस्याएं हल होती हैं जबकि संदेह से समस्याएं जन्म लेती हैं। फ़िल्म में लेखक एवं निर्देशक ने कहीं पर भी समय नष्ट नहीं किया है। उस युग में बॉलीवुड की फ़िल्मों में एक हास्य का ट्रैक रखा जाता था। ऐसा कोई ट्रैक हमराज़ में नहीं रखा गया है। न ही कोई हास्य कलाकार इसमें है। फ़िल्म की प्रत्येक बात, प्रत्येक घटना, प्रत्येक दृश्य सार्थक है एवं मुख्य कथानक से संबद्ध है। फ़िल्म में गीत अवश्य हैं किंतु न केवल वे अत्यंत सुरीले हैं वरन कथानक को आगे बढ़ाने वाले हैं। और विशेष बात यह है कि सभी गीत (कुल पाँच) फ़िल्म के पहले घंटे में ही आ जाते हैं जिसके उपरांत केवल फ़िल्म की कहानी तीव्र गति से आगे बढ़ती है जिसमें किसी गीत का कोई व्यवधान नहीं आता। दर्शक को फ़िल्मकार घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देता। फ़िल्म देखने वाला प्रारंभ से अंत तक पटल से बंधा रहता है।

हमराज़ संगीतमय प्रेमकथा देखने वालों के लिए भी है तो रहस्यकथाएं पसंद करने वालों के लिए भी। कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है और बी.आर. चोपड़ा का निर्देशन बेहतरीन है। शायद ही किसी और फ़िल्म में किसी पात्र के जूतों को रहस्य उत्पन्न करने वाली बात के रूप में इस प्रकार काम में लिया गया हो जिस प्रकार हमराज़ में लिया गया है। इसी कहानी को १९९४ में इम्तिहान के नाम से पुनः बनाया गया था किंतु वह फ़िल्म हमराज़ की भांति प्रभावशाली नहीं रही। अंत में मैं यही कहूंगा कि पुरानी अच्छी फ़िल्में देखने के शौकीन लोगों के लिए हमराज़ किसी उपहार से कम नहीं।

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

मानवीय साहस की अद्भुत गाथा

निर्माता-निर्देशक बलदेवराज चोपड़ा की संस्था बी.आर. फ़िल्म्स एक अत्यंत प्रतिष्ठित फ़िल्म-निर्माण संस्था रही है जिसने एक-से-एक बढ़कर उत्तम फ़िल्में हिंदी सिने-दर्शकों के लिए प्रस्तुत कीं। युवा होने पर उनके पुत्र रवि चोपड़ा ने भी निर्देशन आरम्भ किया। उन्होंने एक हॉलीवुड फ़िल्म द टॉवरिंग इनफ़र्नो देखी जिसमें एक इमारत में आग लगने की घटना का वर्णन था। उस फ़िल्म से प्रेरित होकर उन्होंने एक कुछ भिन्न फ़िल्म की परिकल्पना की जिसमें एक चलती हुई रेलगाड़ी में आग लगने की घटना का कथानक प्रस्तुत किया जाने वाला था। यह हिंदी फ़िल्म अथक परिश्रम के उपरांत बनकर तैयार हो पाई एवं १९८० में प्रदर्शित हुई। इसका नाम है – द बर्निंग ट्रेन

द बर्निंग ट्रेन (जलती हुई रेलगाड़ी) में अपने समय के अत्यन्त लोकप्रिय सितारों को सम्मिलित किया गया यथा – धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना, परवीन बॉबी, जीतेंद्र, नीतू सिंह, विनोद मेहरा, डैनी आदि। सभी सितारों की भूमिकाओं के साथ न्याय करने वाली तथा रेलगाड़ी के जलने की घटना को केंद्र में रखने वाली कहानी लिखना भी कोई सरल कार्य नहीं था किंतु कमलेश्वर ने यह सफलतापूर्वक किया। उनकी कथा तथा रवि चोपड़ा के निर्देशन के साथ-साथ कला-निर्देशक शांतिदास, एक्शन निर्देशक मंसूर, सम्पादक प्राण मेहरा एवं छायाकार धरम चोपड़ा ने भी सराहनीय कार्य किया और कलाकारों के सजीव अभिनय से युक्त यह अविस्मरणीय फ़िल्म रजतपट पर आई।

फ़िल्म तीन बालकों से आरम्भ होती है जिनमें से दो बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखते हैं जबकि दो ऐसे हैं जिनकी मित्रता अत्यन्त प्रगाढ़ है। प्रतिद्वंद्वी बालक रेल का इंजन बनाने का सपना पालते हैं एवं बड़े होकर भारतीय रेलवे में नौकरी करते हैं। भारतीय रेलवे एक अत्यन्त तीव्र चलने वाली रेलगाड़ी सुपर एक्सप्रेस की योजना केंद्रीय सरकार को भेजता है जिसके साथ विभिन्न अभियंताओं द्वारा बनाए गए इंजन के मॉडल भी होते हैं। जब सरकार इस परियोजना को स्वीकृति दे देती है तो विभिन्न मॉडलों में से तीन मॉडल अंतिम निर्णय हेतु चुने जाते हैं जो कि बचपन से ही प्रतिद्वंद्विता रखने वाले विनोद (विनोद खन्ना) एवं रणधीर (डैनी) के अतिरिक्त उनके साथी अभियंता राकेश (विनोद मेहरा) के होते हैं। संबंधित निर्णयन समिति विनोद द्वारा बनाए गए मॉडल को इंजन बनाने हेतु चुनती है और यह बात रणधीर को चुभ जाती है जो पहले से ही विनोद से ख़ार खाए बैठा था क्योंकि जिस युवती शीतल (परवीन बॉबी) से वह विवाह करने की इच्छा रखता था, उसने विनोद से विवाह कर लिया था।

विनोद एक श्रेष्ठ एवं तीव्र गति वाला इंजन बनाने की धुन अपने मन में लेकर काम में जुट जाता है एवं उसकी इस धुन के चलते उसकी पत्नी शीतल स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगती है। विनोद का बचपन का अभिन्न मित्र अशोक (धर्मेंद्र) तीव्र गति से कार चलाने का शौकीन है तथा सीमा (हेमा मालिनी) से प्रेम करता है किंतु भाग्य उस पर ऐसा वज्रपात करता है कि वह अपने पिता, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति तथा सीमा के प्रेम को भी खो बैठता है। इस तरह बचपन के तीनों साथियों – विनोद, अशोक तथा रणधीर के जीवन अलग-अलग मोड़ ले लेते हैं।

वर्षों बीत जाते हैं। छह साल के अथक परिश्रम के उपरांत विनोद एक तीव्र गति वाली एवं भरपूर आरामदायक (लक्ज़री) गाड़ी अर्थात् सुपर एक्सप्रेस को बनाने में सफल हो जाता है। परंतु उसे धक्का तब लगता है जब गाड़ी की प्रथम यात्रा से ठीक एक दिन पूर्व उसकी पत्नी शीतल उसे छोड़ देने का निर्णय लेती है एवं अपने तथा विनोद के पुत्र राजू (मास्टर बिट्टू) को सुपर एक्सप्रेस (जो कि दिल्ली तथा मुम्बई के बीच चलने वाली है) से ही अकेले उसके ननिहाल भेज देती है एवं उसके उपरांत विनोद का घर भी छोड़कर चली जाती है। इसी गाड़ी से अशोक भी यात्रा कर रहा है एवं सीमा भी।

लेकिन कथानक का प्रमुख मोड़ तब आता है जब विनोद से खुन्नस खाया हुआ रणधीर न केवल गाड़ी के वैक्यूम ब्रेक निकाल देता है, बल्कि इंजन ड्राइवरों से नज़र बचाकर इंजन में एक टाइम बम भी रख देता है। गाड़ी में सीमा को यात्रा करती पाकर अशोक उससे दूर रहने के लिए मथुरा स्टेशन पर ही उतर जाता है जहाँ रणधीर पहले से ही उतर चुका है एवं अपनी कारगुज़ारी कर चुका है। लेकिन अपनी शेखी बघारने के चक्कर में रणधीर अशोक को बता देता है कि उसने क्या किया है। अब अशोक पहले एक कार से तथा उसके उपरांत एक मोटरसाइकिल से रेलगाड़ी का पीछा करता है एवं किसी तरह गार्ड के डिब्बे तक पहुँचता है। वह गार्ड उस्मान (दिनेश ठाकुर) को वस्तुस्थिति बताता है परंतु इससे पहले कि वे इंजन के ड्राइवरों से आपातकालीन ब्रेक लगवाकर गाड़ी को रुकवा पाएं, रणधीर द्वारा रखा गया बम फट जाता है। एक ड्राइवर वहीं मर जाता है जबकि दूसरा इंजन के बाहर जाकर गिरता है।

यह समाचार विनोद को मिलता है तो वह गाड़ी को रोकने की तथा यात्रियों को बचाने की जुगत में लग जाता है। अशोक और उस्मान किसी तरह यात्रियों के डिब्बों में पहुँचते हैं जहाँ उन्हें एक अच्छे मन वाले चोर रवि (जीतेंद्र) का साथ भी मिलता है जो कि मूल रूप से एक अनचाहे विवाह से बचने हेतु घर से भागी हुई मधु (नीतू सिंह) के ज़ेवर चुराने हेतु रेलगाड़ी में चढ़ा था। पर दुर्भाग्य से गाड़ी के रसोईघर में गैस फैलने से आग लग जाती है और पहले से ही गम्भीर समस्या और भी गम्भीर हो जाती है। इधर रणधीर अब भी चुपचाप नहीं बैठा है। वह विनोद की गाड़ी रोकने हेतु की गई युक्ति के ऊपर अपनी चाल चलता है। जलती हुई बेलगाम रेलगाड़ी सौ मील प्रति घंटे की रफ़्तार से भागी जा रही है। बाहर से विनोद और अंदर से रवि तथा अशोक यात्रियों को बचाने हेतु अपने-अपने प्रयास करते हैं। मुम्बई पहुँचा हुआ राकेश वहाँ अपनी ओर से यात्रियों की प्राण-रक्षा हेतु एक भिन्न प्रयास करता है। अंत में किस प्रकार से सभी नायक मिलकर रणधीर के रेल को यात्रियों सहित नष्ट करने के मंसूबों पर पानी फेरते हैं एवं (कुछ को छोड़कर) सभी यात्रियों को बचाते हैं, यह फ़िल्म के क्लाईमेक्स में देखने को मिलता है।

द बर्निंग ट्रेन मानवीय साहस की एक अद्भुत गाथा है। प्रारंभिक भाग को छोड़कर (जिसमें नायक-नायिकाओं का रोमांस तथा कथानक का आधार बनाना सम्मिलित है) फ़िल्म रणधीर द्वारा लगाए गए बम के फटने के उपरांत रेलगाड़ी के बेकाबू होने एवं उसमें आग लग जाने पर ही केंद्रित है। यह सम्पूर्ण भाग लोमहर्षक है तथा दर्शकों को सांस रोके फ़िल्म को देखते चले जाने पर विवश कर देता है। नायकों के रेलगाड़ी की छत पर चढ़ने, गार्ड के डिब्बे से यात्रियों के डिब्बे में जाने, आग में फंसे लोगों को बचाने, आग में से (फ़ायर-प्रूफ़ पोशाक पहनकर) गुज़रने तथा अंत में विनोद द्वारा एक दूसरे इंजन से जलती हुई गाड़ी में पहुँचकर पहले रणधीर से अंतिम संघर्ष करने एवं उसके उपरांत इंजन तथा गाड़ी के मध्य के कपलिंग को उड़ाकर यात्रियों को बचाने के सभी दृश्य कला-निर्देशक, छायाकार, एक्शन निर्देशक, कलाकारों एवं सबसे बढ़कर मुख्य निर्देशक के सामूहिक प्रयासों के फलस्वरूप देखने लायक बन पड़े हैं। फ़िल्म यह बताती है कि बड़ी-से-बड़ी मुसीबत में भी इंसान का साहस उसके काम आता है एवं साहसी तथा कर्मठ मनुष्य लगभग असंभव लगने वाले कार्यों को भी करके दिखा सकते हैं। जिस तरह से फ़िल्म के चारों नायक – विनोद, अशोक, रवि एवं राकेश – नामुमकिन से लगने वाले कारनामों को सरंजाम देते हैं तथा लगभग पाँच सौ मुसाफ़िरों की जान बचाते हैं, वह देखने वालों को रोमांच ही नहीं, प्रेरणा से भी भर देता है। फ़िल्म में छात्र बालकों को लेकर यात्रा कर रही अध्यापिका (सिमी) का पात्र भी प्रेरणादायक है तथा एक महिला कव्वाल (आशा सचदेव) का भी। विभिन्न यात्रियों का उपचार करने वाले चिकित्सक (नवीन निश्चल) का पात्र भी प्रेरणादायक है तो गार्ड का भी।

फ़िल्म पति-पत्नी के संबंध पर भी प्रकाश डालती है। जहाँ फ़िल्म यह बताती है कि पति को पत्नी एवं संतान के प्रति अपने कर्तव्य को उपेक्षित नहीं करना चाहिए, वहीं यह भी बताती है कि पत्नी को संकट के समय अपने पति को भावनात्मक संबल देना चाहिए एवं उसकी शक्ति बनना चाहिए। घर छोड़कर जा चुकी शीतल जब यह समझ जाती है तो वह परिस्थिति से जूझ रहे विनोद को भावनात्मक सहारा देने उसके पास पहुँचती है। सीमा का पात्र भी फ़िल्म के अंतिम भाग में दर्शकों की सहानुभूति प्राप्त कर लेता है जब वह अशोक को अपने दूर चले जाने का कारण बताती है।

फ़िल्म में रवि एवं मधु के पात्र केवल फ़िल्म की स्टार वैल्यू बढ़ाने हेतु डाले गए लगते हैं क्योंकि मूल कथानक से उनका संबंध नहीं है। लेकिन वे भी तथा राकेश व विभिन्न सहायक पात्रों के चरित्र भी प्रभावी हैं। फ़िल्म में कलाकारों की भरमार है तथा हास्य उत्पन्न करने हेतु डाले गए कुछ पात्रों को छोड़कर लगभग प्रत्येक कलाकार अपनी पहचान बनाए रखता है। जहाँ तक प्रमुख पात्रों का प्रश्न है, सभी कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं को जीवंत कर दिया है।     

राहुल देव बर्मन ने कुल मिलाकर तो फ़िल्म में कोई यादगार संगीत नहीं दिया है किंतु एक कव्वाली तथा छात्र बालकों एवं उनकी अध्यापिका द्वारा गाई गई वंदना अच्छी बन पड़ी हैं। पार्श्व संगीत निस्संदेह अच्छा है तथा फ़िल्म के रोमांचक वातावरण के रोमांच को बढ़ाने वाला है। कमलेश्वर ने पटकथा के साथ-साथ फ़िल्म के संवाद भी लिखे हैं जो प्रभावी हैं।

बड़ी लागत से अत्यंत परिश्रमपूर्वक बनाई गई द बर्निंग ट्रेन व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही थी। संभवतः भारतीय दर्शकों हेतु यह समय से आगे की फ़िल्म थी। परंतु यह एक आद्योपांत रोचक फ़िल्म है जिसे जब भी देखा जाए मनोरंजन के साथ-साथ प्रेरणा भी मिलती है।

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मंगलवार, 25 मार्च 2025

हिप हिप हुर्रे, चक दे इंडिया और 83

बॉलीवुड में खेलों पर आधारित फ़िल्में पहले नहीं बनती थीं। 'हिप हिप हुर्रे' नामक फ़िल्म एक अपवाद के रूप में १९८४ में दर्शकों के समक्ष आई थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी में ऐसी ढेरों फ़िल्में बनकर आ चुकी हैं। कुछ सच्ची खेल घटनाओं तथा खेलों से जुड़े वास्तविक व्यक्तियों पर आधारित हैं तो शेष काल्पनिक। बहुत-सी फ़िल्में साधारण रही हैं तो कुछ उत्कृष्ट। इस आलेख में ऐसी सभी फ़िल्मों को समाविष्ट करने के स्थान पर मैं केवल तीन अच्छी फ़िल्मों पर बात करूंगा। ये तीन फ़िल्में इस प्रकार हैं:

हिप हिप हुर्रे (१९८४): 'हिप हिप हुर्रे' एक निर्देशक के रूप में प्रकाश झा की प्रथम फ़िल्म थी। इसे एक खेल-आधारित फ़िल्म के रूप में भी देखा जा सकता है एवं शिक्षक तथा विद्यार्थियों के संबंधों पर आधारित फ़िल्म के रूप में भी। एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाने वाले नायक द्वारा फ़ुटबॉल के खेल में दूसरे विद्यालय के दल से सदा हारने वाले अपने छात्रों को जीतना सिखाने के विषय को दर्शाने वाली फ़िल्म है यह। कथ्य का निर्वाह प्रशंसनीय ढंग से किया गया है तथा नायक की भूमिका में राज किरण के साथ-साथ अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। फ़िल्म आदि से अंत तक रोचक है एवं प्रेरणास्पद भी। वास्तविक अर्थों में यह हिंदी फ़िल्मों में खेलों पर आधारित फ़िल्मों का आरम्भ थी। जब यह प्रदर्शित हुई थी तो बहुत-से लोगों ने इसे व्यावसायिक सिनेमा के अंतर्गत नहीं माना था एवं समानांतर सिनेमा की जो धारा सत्तर के दशक में प्रवाहित हुई थी, का ही अंग माना था। लेकिन यह फ़िल्म गीत-संगीत सहित व्यावसायिक सिनेमा के सभी मानदंडों पर खरी उतरती है। खेल से अधिक शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों पर ध्यान देने वाली यह फ़िल्म आज भी देखी जाए तो ताज़गी भरी लगती है। 

चक दे इंडिया (२००७): 'चक दे इंडिया' निश्चित रूप से भारत में बनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ खेल-फ़िल्म है। इसे भारतीय हॉकी दल के पूर्व गोलकीपर मीर रंजन नेगी के जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरित बताया जाता है किंतु इसके कुछ प्रसंग मुझे 'हिप हिप हुर्रे' से भी प्रेरित लगे। जिस तरह १९८२ के एशियाई खेलों की हॉकी प्रतियोगिता के फ़ाइनल में पाकिस्तान से हुई अपमानजनक पराजय के उपरांत नेगी को लांछित किया गया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म के नायक (शाह रूख़ ख़ान) को किया जाता है तथा जिस प्रकार नेगी ने वर्षों के अंतराल के उपरांत भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करके उसे २००२ के राष्ट्रकुल खेलों में विजेता बनाया था, उसी प्रकार इस फ़िल्म का नायक भारतीय महिला हॉकी दल को प्रशिक्षित करने का दायित्व लेकर उसे महिला हॉकी के विश्व कप में विजेता बनवाता है। नेगी ने इस फ़िल्म के निर्माण में सहयोग दिया तथा अनेक कलाकारों को हॉकी खेलना सिखाया ताकि वे फ़िल्म में अपनी भूमिकाएं सही ढंग से निभा सकें। इससे फ़िल्म के हॉकी खेलने से संबंधित दृश्य अत्यंत विश्वसनीय बन पड़े हैं। 

लेकिन 'चक दे इंडिया' की कथा खेल से ऊपर उठकर भावनाओं से भी जुड़ी है। फ़िल्म में नायक के साथ-साथ उसके द्वारा प्रशिक्षित लड़कियों की भावनाओं को भी उत्कृष्ट तरीके से उभारा गया है। चूंकि फ़िल्म में ऐसी सोलह लड़कियां हैं, अतः सीमित अवधि में सभी की उपकथाओं को सम्मिलित करना एवं सभी के साथ न्याय करना व्यावहारिक नहीं था। किंतु लेखक जयदीप साहनी तथा निर्देशक शिमित अमीन ने कई खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का उचित अवसर दिया है। खेल के मैदान में भी तथा मैदान के बाहर भी विभिन्न दृश्यों एवं प्रसंगों को विश्वसनीय एवं प्रभावशाली बनाया गया है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि फ़िल्म में त्रुटियां नहीं हैं, किंतु फ़िल्म में ख़ूबियां इतनी अधिक हैं कि वे ख़ामियों पर भारी पड़ती हैं। फ़िल्म में जो बात प्रमुखतः रेखांकित की गई है, वह यह है कि किस प्रकार प्रशिक्षक पृथक्-पृथक् प्रदेशों से आई महिला खिलाड़ियों को स्वयं को एक दल के रूप में देखना, समझना एवं एक-दूसरी के साथ समन्वय करना सिखाता है। फ़िल्म में महिला खिलाड़ियों का पुरुष खिलाड़ियों के विरूद्ध मैच खेलने का दृश्य अनूठा एवं अत्यन्त प्रभावी है।

'चक दे इंडिया' न केवल खिलाड़ियों द्वारा अपने को भारतीय समझकर भारत के लिए खेलने की सोच को मन में उतारने पर बल देती है बल्कि महिलाओं द्वारा अपनी अस्मिता को महत्व दिये जाने एवं आत्म-सम्मान के साथ जीने की भावना को भी पुरज़ोर ढंग से दर्शाती है। इस फ़िल्म की महिला खिलाड़ी पुरुष खिलाड़ियों तथा अन्य पुरुषों द्वारा भी अपने को (तथा अपने खेल को) कमतर समझे जाने को सिरे से नकारती हैं तथा अपने खेल एवं व्यवहार दोनों ही से सिद्ध करती हैं कि वे पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं। फ़िल्म में महिलाओं से जुड़ी पुरुष-प्रधान मानसिकता को बताया भी गया है एवं उसका खंडन भी किया गया है। ऐसी मानसिकता खेल-संघों के पदाधिकारियों (जिनमें महिलाएं भी हो सकती हैं) में तो होती ही है, पुरुष खिलाड़ियों में भी हो सकती है। और फ़िल्म इसका एक ही हल बताती है - मैदान पर जाकर अपने को साबित करना। फ़िल्म के अनेक दृश्य प्रेरणा से भरे हैं - महिलाओं के लिए भी तथा ज़िन्दगी से चोट खाए हुए व्यक्तियों के लिए भी। गीत-संगीत, फ़िल्मांकन, अभिनय तथा तकनीकी पक्ष, सभी उत्तम हैं। इस फ़िल्म को चाहे जितनी बार देखा जा सकता है। यह फ़िल्म सभी को पसंद आने वाली है चाहे वे हॉकी में रूचि रखते हों या नहीं।

83 (२०): 83 (तिरासी) भारतीय पुरुष क्रिकेट दल द्वारा १९८३ में इंग्लैंड में आयोजित विश्व कप को अप्रत्याशित ही नहीं, अविश्वसनीय ढंग से जीतने की गाथा है। चूंकि यह एक सच्ची बात है, फ़िल्म में कलाकारों द्वारा अभिनीत दृश्यों के साथ-साथ वास्तविक फ़ुटेज भी दिखाए गए हैं। केवल कप्तान कपिल देव द्वारा ज़िम्बाब्वे के विरूद्ध खेली गई अविजित १७५ रनों की पारी वाले मैच के मामले में यह संभव नहीं हो सका है क्योंकि बीबीसी की हड़ताल के कारण उस मैच की रिकॉर्डिंग नहीं हो सकी थी। जिन लोगों ने उस विश्व कप को रेडियो पर सुना तथा दूरदर्शन पर देखा था, वे इस फ़िल्म के साथ स्वयं को अधिक अच्छी तरह से जोड़ सकते हैं। साथ ही दूसरा सच यह भी है कि ऐसे (क्रिकेट-प्रेमी) दर्शक ही फ़िल्म की अनेक ख़ामियों को भी पकड़ सकते हैं। इसकी तुलना 'चक दे इंडिया' से होनी स्वाभाविक है परंतु इसमें वो प्रेरणादायी तत्व नहीं है जो 'चक दे इंडिया' में है। लेकिन फ़िल्म अत्यधिक रोचक है तथा क्रिकेट-प्रेमियों के लिए किसी उपहार से कम नहीं। उस समय भारतीय क्रिकेट दल का नेतृत्व करने वाले कपिल देव भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय खिलाड़ियों में से एक हैं, अतः उनके प्रशंसकों को तो यह फ़िल्म पसंद आनी ही आनी है।

इस फ़िल्म का कथानक केवल विश्व कप के लिए भारतीय दल के इंग्लैंड रवाना होने से लेकर उसके विश्व कप फ़ाइनल जीतने तक सीमित है। कुछ कल्पित (और वास्तविक भी) प्रसंग अवश्य पिरोए गए हैं पर मूलतः फ़िल्म बस यही है। इसीलिए सारा ध्यान केवल भारत द्वारा खेले गए मैचों तथा उनके पूर्व एवं पश्चात् के घटनाक्रम पर लगाया गया है। भारत में क्रिकेट एक धर्म की भांति है, इसीलिए क्रिकेट की यह जीत भारतीयों के लिए गर्व एवं प्रसन्नता का एक अजस्र स्रोत है। हॉकी में जीते गए ओलंपिक पदकों को छोड़कर दल-आधारित खेलों में इसे भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इस जीत ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को अपने देश का गौरव-गान करने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया था। अतः इस फ़िल्म का महत्व बहुत अधिक है। यह दर्शकों को उस काल में ले जाती है तथा प्रसन्नताओं एवं (कुछ मैचों में हुई हारों के कारण लगे) आघातों से पुनः साक्षात् करवाती है। ख़ामियां बहुत हैं; यथा कुछ मैचों एवं प्रदर्शनों को अधिक महत्व दिया जाना जबकि कुछ पर यथेष्ट ध्यान न दिया जाना, देशप्रेम का नगाड़ा बार-बार कुछ ज़्यादा ही बजाया जाना, कुछ खिलाड़ियों के निजी जीवन को अनावश्यक रूप से दर्शाया जाना आदि। पर अपनी समग्रता में यह फ़िल्म दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है। हाँ, जिन लोगों को क्रिकेट में रूचि नहीं है, उन्हें यह पसंद नहीं आ सकती। 

फ़िल्म में उस भारतीय दल के लगभग सभी खिलाड़ियों के चरित्रों को उभरने का कम-से-कम एक अवसर तो दिया ही गया है जो अच्छी बात है। किंतु कपिल देव की असाधारण शतकीय पारी को छोड़कर ऐसे पल कम ही हैं जो देखने वालों को प्रेरणा दें। खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ कैसे दे पाए तथा विभिन्न मैचों में विजय कैसे मिल सकी, इसका स्पष्टीकरण नहीं है। भारतीय दल एक अत्यन्त कमज़ोर प्रतिभागी के रूप में गया था, इसीलिए पहले मैच में मिली विजय से लेकर अंत में फ़ाइनल मुक़ाबले में मिली विजय तक सभी जीतें अप्रत्याशित एवं अचंभित करने वाली थीं; यह बात तो निर्देशक कबीर ख़ान ने बता दी पर उन जीतों एवं भारतीय दल के शानदार प्रदर्शन के कारण को वे ठीक से समझा नहीं सके। फ़िल्म में बेकार का हास्य न डाला जाता तो अच्छा रहता। साम्प्रदायिक वैमनस्य को दूर  करने हेतु क्रिकेट का उपयोग भी अनावश्यक ही लगता है। 83 का सबसे उज्ज्वल पक्ष है क्रिकेट संबंधी दृश्यों का अत्यन्त प्रभावी फ़िल्मांकन। दर्शक की रूचि एवं रोमांच को ये दृश्य ही बनाए रखते हैं। गीत-संगीत ठीक है एवं विभिन्न खिलाड़ियों की भूमिकाएं करने वाले कलाकारों का अभिनय उच्चस्तरीय है - विशेष रूप से कपिल देव की भूमिका में रणवीर सिंह एवं दल के प्रबंधक पी.आर. मानसिंह की भूमिका में पंकज त्रिपाठी का। कलाकारों को वास्तविक खिलाड़ियों जैसा रंगरूप (गेटअप) देने में भी परिश्रम किया गया है। कुल मिलाकर फ़िल्म अच्छी ही है।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा, अब खेलों एवं खिलाड़ियों पर आधारित अनेक फ़िल्में आ चुकी हैं - अच्छी भी, बुरी भी। पर ये तीन फ़िल्में हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास में अपना एक अलग स्थान रखती हैं। खेल-प्रेमियों को इन्हें अवश्य देखना चाहिए।


बुधवार, 13 नवंबर 2024

यह लिखा है

हिन्दी फ़िल्म 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा' (२०११) में विश्व-भ्रमण पर निकले तीन मित्र - ऋतिक रोशन, फ़रहान अख़्तर तथा अभय देओल अपनी यात्रा के दौरान एक दिन पुरानी बातों को याद करते हुए उन बातों के संदर्भ में एकदूसरे से कहते हैं - 'यह भी लिखा था, वो भी लिखा था'। अर्थात् जो बातें वाक़या हुईं, उनका होना पहले से ही क़िस्मत ने लिख दिया था यानी नियत था उनका होना; वह टल नहीं सकता था। क्या यह सच है ? क्या होनी (या अनहोनी) पहले से तय हो जाती है ? 

मुझे ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेअर' विशेष पसंद नहीं आई थी किन्तु जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा था, वह इस प्रकार थी - फ़िल्म के प्रथम दृश्य में परदे पर प्रश्न आता है - जमाल प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में भारी धनराशि जीतने की अवस्था में कैसे पहुँचा ? इस प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर भी परदे पर दिए गए हैं - अ‍. उसने बेईमानी की, ब. वह भाग्यशाली है, स. वह अत्यंत प्रतिभाशाली (genius) है, द. ऐसा होना लिखा है (it is written) अर्थात् ऐसा होना पहले से नियत था; उसके पश्चात् पूरे ढाई घंटे की फ़िल्म गुज़र जाती है तथा फ़िल्म के अंतिम दृश्य में प्रश्न का सही उत्तर परदे पर प्रकट होता है - द. ऐसा होना लिखा है (अर्थात् यह प्रारब्ध ने तय कर दिया था)।

मैं पुरुषार्थ की महिमा से भली-भांति परिचित हूँ तथा मानता भी हूँ कि मानव को पुरुषार्थ से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। कृष्ण भी गीता में यही कहते हैं कि अकर्म में आस्था नहीं होनी चाहिए एवं गोस्वामी तुलसीदास भी मानस में यही कहते हैं-'दैव दैव आलसी पुकारा'। किन्तु कृष्ण गीता में यह भी कहते हैं कि आपका कर्म पर ही अधिकार है, फल पर नहीं। क्या अर्थ है इस बात का ? यही न कि कर्म करते रहो पर उसका फल या अभीष्ट आपके भाग्यानुसार (जैसा कि प्रारब्ध ने आपके लिए नियत कर दिया है) ही आपको मिलेगा ? 

मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिनके होने की मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। और ऐसी भी अनेक घटनाएं घटते‌-घटते रह गई हैं जिनके होने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार था और मानकर चलता था कि वे तो होंगी ही। अर्थात् जो सोचा, वो न हुआ एवं जिसके होने की दूर-दूर तक अपेक्षा न की, वो हो गया। क्या है इसका राज़ ? यही कि सृष्टि में जो कुछ भी होता है, वह पहले से तय है। विधि का विधान है वह जो टलता नहीं। और जो विधि के विधान में होना नहीं लिखा है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं होने वाला।

आप मुझे भाग्यवादी कह सकते हैं। पर मैं सदा से भाग्यवादी नहीं था। मुझे भाग्यवादी बनाया है जीवन के निरंतर होते रहने वाले अनुभवों ने। अप्रैल २०२१ में जब मूर्धन्य कवयित्रियों वर्षा सिंह तथा शरद सिंह की माताजी विद्यावती जी अस्वस्थ थीं तो मेरे मन में कई बार आता था कि मैं किसी प्रकार उनसे सम्पर्क साधकर उनकी माताजी का कुशल-क्षेम पूछूं किन्तु मैं उनसे सम्पर्क करने का कोई साधन ढूंढ़ ही नहीं पाया। फिर जब उनकी माताजी के देहावसान का समाचार मिला तो उनके दुख में मैंने भी स्वयं को सम्मिलित अनुभव किया। लेकिन जब उनकी माताजी के देहांत के मात्र बारह दिन बाद ही वर्षा जी अकस्मात् चल बसीं तो मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ। इतना समय बीत चुकने के उपरांत भी यदि मैं कहूँ कि मैं उस आघात से पूर्णतः उबर गया हूँ तो यह असत्य ही होगा। क्या स्पष्टीकरण है उनके असामयिक निधन का सिवाय इसके कि उनका जाना ऐसे ही लिखा था ? क्या हैं हम लोग ? क़िस्मत या प्रारब्ध या नियति के हाथ की कठपुतलियां, बस! होना तो वही है जो कर्म की रेख ने पहले ही लिख दिया है, आप चाहे जो कर लें। जो होना है, अपने वक़्त पर होकर ही रहेगा आप बचने के जितने चाहे प्रयास कर लें। और इसी तरह जो नहीं होना है, वो नहीं ही होगा आप उसे करने के चाहे जितने जतन कर लें।

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यास 'रामबाण' में इस बात को रेखांकित किया है कि विधि के विधान में हस्तक्षेप किसी को नहीं करना चाहिए। विधि ने हमारे जीवन में जो एक अनिश्चितता रखी है (हम अपना भविष्य नहीं जान सकते), उसे स्वीकार करना चाहिए। जब होनी टल नहीं सकती और जो अनहोनी है, वो हो नहीं सकती तो भविष्य को जानकर भी हम क्या करेंगे ? 

जोसेफ़ मर्फ़ी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक 'आपके अवचेतन मन की शक्ति' में यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य के अवचेतन मन में यह शक्ति है कि वह आपकी इच्छाओं को पूरा कर सकता है। कुछ सीमा तक उनका यह सिद्धांत ठीक लगता है किन्तु जब विभिन्न व्यक्तियों की इच्छाएं परस्पर विरोधी हो जाएं तो क्या होगा ? उत्तर स्पष्ट है - वही होगा जो पहले से नियत है, जो प्रारब्ध ने पहले ही सुनिश्चित कर दिया है। 

पच्चीस वर्ष पूर्व उनतीस मार्च, सन उन्नीस सौ निन्यानवे को मैं मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर चलती हुई रेलगाड़ी से नीचे जा गिरा। मेरे बाएं हाथ की हड्डी गंभीर रूप से टूट गई तथा मुझे दो बार शल्य-क्रिया से गुज़रना पड़ा। ठीक होने में महीनों लगे तथा मेरे हाथ में एक असामान्यता स्थायी रूप से आ गई। इसके कारण मैंने बहुत कुछ सहा पर अंततः यही माना कि शायद यह मेरे प्रारब्ध में लिखा था। मैंने इस घटना का उल्लेख अपने संघर्ष फ़िल्म पर लिखे गए लेख में किया है।

क़रीब दो माह पूर्व चार सितम्बर को मैं पुनः दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा मेरे हाथ की पच्चीस वर्ष पूर्व टूटी हड्डी पुनः टूट गई। एक बार पुनः मुझे शल्य-क्रिया तथा उसके बाद की जाने वाली चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ा। इन दिनों मेरी फ़िज़ियोथेरापी चल रही है। एक बार फिर बहुत कुछ मैं सह गया (और अभी भी सह रहा हूँ)। मेरे साथ-साथ मेरे परिवार ने भी इसके कारण बहुत सहा है। इस बार तो दुर्घटना के पीछे मैं अपनी कोई ग़लती भी नहीं ढूंढ़ पा रहा। फिर यह क्यों हुई ? क्योंकि होनी लिखी थी। और इसका क्या स्पष्टीकरण हो सकता है ?

दुर्घटना तो फिर भी बड़ी बात है। मैंने तो अपने जीवन में पाया है कि ज़िन्दगी आपको क़दम-क़दम पर चौंकाती है (सरप्राइज़ देती है)। अच्छे सरप्राइज़ भी मिलते हैं, बुरे भी। जो आपको उल्लास से भर दें, ऐसे सरप्राइज़ भी और जो आपको आघात पहुँचाएं, ऐसे सरप्राइज़ भी। जीवन की छोटी-से-छोटी घटनाओं के पीछे ऐसे कारक हो सकते हैं जिन्हें समझ पाना अथवा जिनकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं। आप कुछ न करना चाहें पर अगर आपके हाथ से कुछ ऐसा होना बदा हो तो बानक आप-से-आप ही ऐसे बनते चले जाते हैं कि आप वही करते हैं जो नहीं करने के लिए मन पक्का कर चुके थे। आपकी नियति आपको खींचकर उसी पथ पर ले जाती है और आप नियति की शक्ति के समक्ष विवश हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है - मेरे मन कछु और है, विधना के कछु और।

मैं आत्म-सुधार का विरोधी नहीं। अपनी भूलों को महसूस करके उनसे सबक़ सीखना और आगे के लिए ख़ुद में सुधार करना ही जीवन जीने का सही मार्ग है। बस बात इतनी-सी है कि हम प्रारब्ध (या नियति या विधि का विधान या कर्म की रेख या भाग्य) के अस्तित्व को स्वीकारें तथा बात-बात पर ख़ुद को (या दूसरों को) न कोसें। कभी-कभी इसी सोच से अपने मन को सांत्वना दें कि यही होना लिखा था।

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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

प्रश्न राजस्थानी भाषा के आठवीं अनुसूची में समावेश का

विगत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किए जाने से संबंधित याचिका पर निर्णय देते हुए इस संबंध में सरकार को कोई भी निर्देश देने से मना कर दिया तथा कहा कि ऐसा कोई भी निर्णय सरकार ही कर सकती है। न्यायालय का निर्णय उचित है। सरकार ही निर्णय कर सकती है। सरकार को ही निर्णय करना चाहिए। पर यह निर्णय तो दशकों से लंबित है। कब निर्णय होगा इस पर ? कब तक एक सुसमृद्ध भाषा अपनी ही भूमि में पराई बनी रहेगी ?  एक ऐसी भाषा जो अपने साथ शताब्दियों लंबा इतिहास लिए चलती है, कब तक अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रखी जाएगी ? 

खेद का विषय है कि हिन्दी वाले ही अपनी बहन सरीखी भाषाओं को उनका अधिकार दिए जाने का विरोध करते हैं। यह बात समझ से परे है कि जब गुजराती, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं को मान्यता दिए जाने से हिन्दी भाषियों को कोई कष्ट नहीं है तो राजस्थानी भाषा को मान्यता दिए जाने से उन्हें विरोध क्यों है। राजस्थानी देश के भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़े राज्य राजस्थान की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती है जिसकी यह मातृभाषा है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग हिंदी भलीभांति समझते ही नहीं, राजस्थानी ही समझते हैं। राजस्थानी भाषा का समृद्ध साहित्य है जो कई शताब्दियों में विकसित हुआ है। राजस्थानी लोकगीतों की परम्परा सदियों से अनवरत चली आ रही है। राजस्थानी भाषा का अपना विशाल शब्द भंडार है तथा अपना पृथक् व्याकरण है जो हिन्दी से सर्वथा भिन्न है। ऐसे में इसे इसका यथोचित अधिकार न देने का कोई कारण नहीं है। 

दक्षिण भारतीय राज्य तो हिन्दी थोपे जाने का मुखर विरोध करते हैं और करते आ रहे हैं। क्या राजस्थानी लोग भी ऐसा ही करें कि उन पर हिन्दी क्यों थोपी जा रही है ? इसे समुचित मान्यता मिलनी ही चाहिए। यह इसका अधिकार है जिसे देना सरकार का कर्तव्य है। राजस्थानी भाषा एक सम्पूर्ण भाषा है, कोई बोली नहीं है। यह ठीक है कि राजस्थान के विविध अंचलों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी आदि बोलियां प्रचलन में हैं किंतु ये सब समग्र रूप में राजस्थानी भाषा की ही अंग हैं। इनके अस्तित्व के कारण राजस्थानी भाषा के अस्तित्व को ही मान्यता न दिया जाना न्यायपूर्ण नहीं है। किसी भी भाषा में आंचलिक भिन्नता के कारण बोलियों के स्तर पर अंतर आ ही जाता है किंतु इससे भाषा की समग्रता पर प्रभाव नहीं पड़ता है। जिसे हम हिन्दी के रूप में लिखते हैं, वह खड़ी बोली है किंतु यह खड़ी बोली उत्तर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक एक ही प्रकार से नहीं बोली जाती है। अनेक परिवर्तन आते हैं इसमें। यह आंचलिक आधार पर स्वयं में अनेक बोलियों को समाविष्ट करती है जिनमें तुलसी की अवधी तथा सूर की ब्रज भी सम्मिलित है। अतः राजस्थानी भाषा को बोलियों की भिन्नता के आधार पर नकारा जाना सर्वथा अनुचित है। जब मैथिली भाषा को पृथक् रूप से आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जा सकता है तो राजस्थानी भाषा को क्यों नहीं ? 

प्रत्येक भाषा अपने साथ अपना एक इतिहास, एक संस्कार, एक संस्कृति तथा एक विशिष्ट धरोहर लेकर चलती है। यदि कोई भाषा पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त हो जाती है तो हजारों वर्ष पूर्व की पहचान, साहित्य, सूचनाएं, अनुभव, सांस्कृतिक विरासत आदि के लिए भी विलुप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए। राजस्थानी एक स्वतंत्र भाषा है जिसका संरक्षण संविधान में मान्यता प्रदान करके किया ही जाना चाहिए। राजस्थानी समुदाय भारत ही नहीं, विश्व के विविध भागों में फैला हुआ है तथा वह अपने साथ राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं को लेकर जाता है। ऐसे में भाषारूपी सांस्कृतिक धरोहर को क्यों न सहेजकर रखा जाए ? राजस्थानी गीतों के माधुर्य को उन्हें सुनने वाले ही जानते हैं। आज भी हम पृथ्वीराज चौहान को चंद बरदाई की पृथ्वीराज रासो के माध्यम से ही याद रखते हैं। हम मीरा के भजन गाते हैं। रानी पद्मिनी के बलिदान और आल्हा-ऊदल के शौर्य को स्मरण करते हैं। ऐसे में उनकी भाषा को स्वीकृति देने में संकोच क्यों ? क्या बाधा है इसमें ? अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को संजोकर रखना तो प्रत्येक सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। सूर्यमल्ल मिश्रण तथा कन्हैयालाल सेठिया जैसे कवियों का कर्म हिन्दी कवियों के कर्म से कमतर नहीं आंका जा सकता। इनके जैसे प्रतिभाशाली राजस्थानी कलाकारों एवं साहित्यकारों को मान्यता एवं सम्मान तभी मिलेगा जब राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाएगा। अब इसमें और विलम्ब नहीं होना चाहिए। 

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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

सूरज बड़जात्या का अयोध्या कांड

अब जबकि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है, मुझे एक ऐसी हिन्दी फ़िल्म की याद आ रही है जो कि रामायण पर तो आधारित नहीं है किन्तु रामायण के अयोध्या कांड को आधुनिक परिवेश में आधुनिक पात्रों के साथ प्रस्तुत करती है। जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी तो यह मेरे तथा मेरे छोटे-से परिवार (मैं, मेरी पत्नी एवं मेरी नन्ही पुत्री) की पसंदीदा फ़िल्म बन गई थी। यह फ़िल्म है - 'हम साथ-साथ हैं' (१९९९)।

'हम साथ-साथ हैं' राजश्री बैनर के तले बनाई गई निर्माता-निर्देशक सूरज बड़जात्या की फ़िल्म है जिनकी इससे पहले बनी फ़िल्म 'हम आपके हैं कौन ?' (१९९४) व्यावसायिक रूप से अत्यधिक सफल रही थी एवं उसे भरपूर प्रशंसा भी प्राप्त हुई थी। मुझे वह फ़िल्म कुछ कम पसंद इसलिए आई थी क्योंकि उसमें जो परिवार दिखाया गया था, वह अत्यधिक धनी था एवं जीवन की दैनंदिन समस्याओं से सुरक्षित था। वस्तुतः वह राजश्री की ही पुरानी फ़िल्म 'नदिया के पार' (१९८२) का ही नगरीय संस्करण थी जो कि एक सादगी से परिपूर्ण हृदयस्पर्शी फ़िल्म थी। बहरहाल 'हम आपके हैं कौन ?' भारतीय सिने इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में सम्मिलित हुई तथा सूरज ने अपनी अगली फ़िल्म 'हम साथ-साथ हैं ?' को लगभग उसी ढंग से बनाया। लेकिन फ़िल्म में कथा भी तो होनी चाहिए। सूरज को अपनी फ़िल्म की कथा गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के अयोध्या कांड में मिली।

अयोध्या कांड में राम के राजतिलक से पूर्व ही रानी कैकेयी द्वारा राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत हेतु राजपाट तथा राम हेतु चौदह वर्षों के वनवास का वचन मांगना, राम द्वारा पिता के वचन-पालन हेतु अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण सहित वन-गमन, उनकी अनुपस्थिति में भरत द्वारा स्वयं को राजा न मानकर केवल अपने अग्रज राम की चरण-पादुका को सिंहासन पर रखकर उनके प्रतिनिधि के रूप में राज-कर्तव्य का पालन आदि प्रसंग सम्मिलित हैं। इसी कथा को सूरज बड़जात्या ने आधुनिक बाना पहना दिया है। राजा दशरथ के स्थान पर हैं एक उद्योगपति रामकिशन (आलोक नाथ), कैकेयी के स्थान पर हैं उनकी दूसरी पत्नी ममता (रीमा), राम के स्थान पर हैं उनकी दिवंगत प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्र विवेक (मोहनीश बहल), भरत एवं लक्ष्मण के स्थान पर हैं ममता के पुत्र प्रेम (सलमान खान) एवं विनोद (सैफ़ अली खान) एवं सीता के स्थान पर हैं विवेक की पत्नी साधना (तब्बू). इस आधुनिक रामकथा में तीन भाइयों की एक बहन भी है - संगीता (नीलम) जो कि आनंद बाबू (महेश ठाकुर) से विवाहित है। रामकथा में सीता के पिता राजा जनक हैं तो यहाँ साधना के पिता आदर्श बाबू (राजीव वर्मा) हैं। अन्य पात्रों में एक ओर आनंद बाबू के बड़े भाई अनुराग बाबू (दिलीप धवन) एवं उनकी पत्नी (शीला शर्मा) हैं तो दूसरी ओर विवेक के अभिन्न मित्र अनवर (शक्ति कपूर)। संगीता एक बच्ची की माता है पर वह अपने जेठ के दो लड़कों को अपनी संतानों की तरह ही प्यार करती है तथा तीनों बालक साथ ही रहते एवं हंसते-खेलते हैं। 

अब चूंकि सूरज को एक नृत्य-गीतों वाली, मनोरंजन से युक्त व्यावसायिक फ़िल्म बनानी थी, तो उसने प्रेम एवं विनोद के लिए भी दो नायिकाएं प्रस्तुत कर दीं। हम चाहें तो प्रेम की बचपन की सखी एवं प्रेयसी प्रीति (सोनाली बेंद्रे) को रामायण की मांडवी मान लें तथा विनोद की बचपन की सखी एवं प्रेयसी सपना (करिश्मा कपूर) को रामायण की उर्मिला। दोनों के ही पिता रामकिशन के पुराने मित्र एवं उनके मूल गांव रामपुर के साथी हैं। प्रीति के पिता प्रीतम (सतीश शाह) एक हंसमुख स्वभाव के सरल व्यक्ति हैं जबकि सपना के पिता धर्मराज (सदाशिव अमरापुरकर) कुछ लालची एवं नाटकीय स्वभाव के व्यक्ति हैं। सपना की दादी (शम्मी) भी फ़िल्म में हैं। रामायण में कैकेयी को दिग्भ्रमित करने वाली दासी मंथरा है तो फ़िल्म में ममता की बुद्धि फेरने हेतु तीन-तीन मंथराएं (कुनिका, जयश्री तलपदे एवं कल्पना अय्यर) रखी गई हैं। इनके अतिरिक्त भी फ़िल्म में कुछ पात्र हैं जिनमें प्रमुख हैं ममता के वकील भाई (अजीत वाच्छानी) एवं उनकी पत्नी (हिमानी शिवपुरी)। 

अब ढेर सारे पात्र हैं तो सभी से दर्शकों को परिचित भी करवाना था एवं कथा में समायोजित भी करना था। आधुनिक कैकेयी ममता (जो आधुनिक राम विवेक को अपनी संतान की ही भांति प्रेम करती हैं) के मनोमस्तिष्क पर कुप्रभाव डालने वाली कोई घटना भी होनी चाहिए थी। अतः घर के दामाद आनंद बाबू के साथ उनके बड़े भाई अनुराग बाबू द्वारा अन्याय किया जाना दिखाया जाता है। इधर व्यवसाय के सर्वेसर्वा रामकिशन अपनी कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद (जो कि रामायण के राजपाट के सदृश ही है) अपने ज्येष्ठ पुत्र विवेक को सौंपने की घोषणा कर देते हैं जो न केवल इस परिवार को देखकर कुढ़ने वाले धर्मराज को वरन ममता की तीन सहेलियों (अर्थात फ़िल्म की मंथराओं) को विचलित कर देती है। चूंकि आनंद बाबू के साथ हाल ही में बुरा हुआ है, ममता को अपने पुत्र प्रेम की चिंता लग जाती है एवं वह व्यवसाय तथा संपत्ति के बंटवारे की मांग को लेकर कोपभवन (अपने कक्ष) में जा बैठती है। रामकिशन दुखी होते हैं किन्तु माता का मन शांत हो, इसके लिए विवेक तथा साधना उनके पैतृक गांव रामपुर जाने का निर्णय ले लेते हैं जहाँ उनका पुराना मकान है तथा रामकिशन द्वारा वहाँ एक नया कारख़ाना बनवाया जा रहा है। अपनी माता से रूष्ट विनोद भी उनके साथ लग लेता है।

रामायण के अयोध्या कांड में इन घटनाओं के समय भरत को अयोध्या से बाहर बताया गया है तो फ़िल्म में भी आधुनिक भरत प्रेम को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गया हुआ बताया गया है। रामायण के भरत की ही भांति प्रेम भी लौटकर यह सब जानने के उपरांत अपनी माता से रूष्ट होता है एवं अपने बड़े भाई को मनाकर लौटा लाने का प्रयास करता है। अंततः वह कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद सम्भालता तो है किन्तु उस आसन पर नहीं बैठता एवं अपने आवास में भी विवेक के कक्ष में जाने के अपनी माता के आग्रह को ठुकरा देता है। चूंकि फ़िल्म का सुखद अंत करना था तो अनुराग बाबू का हृदय-परिवर्तन करवाया गया है जिससे आनंद बाबू तथा संगीता को उनका अधिकार पुनः मिलता है, इसका सकारात्मक प्रभाव ममता के मन पर पड़ता है, वह अपनी भूल को सुधारती है एवं विवेक व साधना की प्रथम संतान के जन्म के समय सम्पूर्ण परिवार का सुखद पुनर्मिलन होता है। 


सभी पात्रों तथा उनके पारस्परिक संबंधों से दर्शकों को परिचित करवाने हेतु फ़िल्म की शुरुआत पुराने ज़माने के पारसी नाटकों की तर्ज़ पर की गई है जहाँ प्रत्येक पात्र अपना परिचय देकर एक ओर हो जाता है तथा दूसरे पात्र को दर्शकों के समक्ष आने का अवसर देता है। इस हेतु रामकिशन एवं ममता के विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ को निमित्त बनाया गया है। विवेक के चरित्र को उभारने हेतु यह बताया गया है कि अपने अनुज को बचाने के प्रयास में उसका हाथ चोटग्रस्त हो गया था। वहीं इसी अवसर को विवेक तथा साधना का विवाह तय करने हेतु आधार बनाया गया है तथा विवाह समारोह, विवाहोपरांत घर में हुए (रिसैप्शन सरीखे) दूसरे समारोह, प्रेम व प्रीति की सगाई, हनीमून के लिए कहीं दूर जाने के स्थान पर विवेक तथा साधना द्वारा सभी को साथ लेकर रामपुर जाना, वहाँ सभी का हंसी-ख़ुशी समय बिताना और विनोद व सपना की सगाई आदि कार्यक्रमों के माध्यम से न केवल नाच-गाने फ़िल्म में डाले गए हैं बल्कि फ़िल्म का अधिकांश भाग इन्हीं सब में व्यय किया गया है। कथानक में मोड़ तथा उससे जुड़े घटनाक्रम फ़िल्म के अंतिम घंटे में ही दर्शकों के समक्ष आते हैं। लगभग तीन घंटे लंबी यह फ़िल्म स्वस्थ एवं सम्पूर्ण मनोरंजन प्रदान करती है।

फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में 'हम आपके हैं कौन ?' के ढंग से ही चलती है, संभवतः इसीलिए यह उससे कम सफल रही थी क्योंकि दर्शकों को दोहराव का आभास हुआ। फिर भी यह फ़िल्म पारिवारिक स्नेह एवं उसके महत्व को न केवल प्रभावी ढंग से दर्शाती है वरन अनेक स्थानों पर गुदगुदाती भी है विशेषतः उन दृश्यों में जो विनोद से संबंधित हैं। तीनों भाइयों के चरित्रों का विकास बहुत अच्छे ढंग से किया गया है तथा उनका पारस्परिक स्नेह ही फ़िल्म की हाईलाइट है। अपने प्रारंभ से ही यह फ़िल्म दर्शकों को पात्रों की गतिविधियों के साथ-साथ बहाती चलती है एवं उन्हें ऊबने का कोई अवसर नहीं देती यद्यपि प्रारंभिक दो घंटे केवल पात्रों द्वारा किसी-न-किसी अवसर की ख़ुशियां मनाने में ही बिताए जाते हैं। सूरज संभवतः किसी भी कथा के इसी पक्ष के चित्रण में सिद्धहस्त रहे हैं।

कमियां फ़िल्म के निर्देशन में हैं। फ़िल्म के  पात्रों के पास न केवल बहुत धन है बल्कि उसका आनंद उठाने हेतु बहुत सारा समय भी है। एक सम्पूर्ण पारिवारिक महिला होने पर भी ममता द्वारा तीन सोसाइटी गर्ल सरीखी स्त्रियों से प्रगाढ़ मित्रता रखना एवं उन्हें न केवल बढ़-बढ़कर बोलने की वरन अपने घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की भी खुली छूट देना अस्वाभाविक लगता है। किसी भी धनी व्यावसायिक परिवार की गृहिणी बाहरी लोगों को ऐसा नहीं करने देगी। वस्तुतः इन फ़िल्मी मंथराओं के चरित्र तथा बातें व हावभाव ही फ़िल्म को स्वाभाविकता की पटरी से उतार देते हैं और ऐसा अनुभव कराते हैं मानो कोई दूसरे लोक से आए पात्रों को सिनेमा के पटल पर ले आया गया हो। फ़िल्म का सुखान्त भी बड़ी सुगमता से करा दिया गया है और संगीता व आनंद बाबू की गंभीर समस्या को भी चुटकी बजाने जैसी सरलता से हल होते दिखाया गया है। ये सब बातें फ़िल्म को गंभीरता से नहीं लेने देतीं तथा इसे केवल मनोरंजनार्थ ही रहने देती हैं। अंतिम एक घंटे में रामायण के अयोध्या कांड के प्रसंगों की नक़ल कुछ ऐसे की गई है कि नासमझ-से-नासमझ दर्शक भी जान लेता है कि फ़िल्म की कहानी किस स्रोत से फूटकर आ रही है। आख़िर जिन्होंने रामचरितमानस नहीं पढ़ी, सदियों से आयोजित होती आ रहीं रामलीलाएं तो उन्होंने भी देखी हैं।

रामलक्ष्मण का संगीत तथा जय बोराड़े का नृत्य-निर्देशन फ़िल्म का एक अत्यन्त सशक्त पक्ष है। रवींद्र रावल, देव कोहली, मिताली शशांक तथा आर. किरण द्वारा रचे गए अति-सुंदर गीतों पर मनमोहक धुनें बनाई गई हैं एवं उन पर किए गए नृत्य दर्शकों के नयनों को शीतलता प्रदान करते हैं। म्हारे हिवड़ा में नाचे मोरतथा एबीसीडीईएफ़जीएचआईविशेष रूप से उल्लेखनीय हैं किन्तु अन्य गीत भी संगीत-प्रेमियों के दिलों को लुभाने में पीछे नहीं रहे हैं। सुनोजी दुल्हन इक बात सुनोजीगीत में पिरोई गई विभिन्न पुराने गीतों की पैरोडियां भी ख़ूब मनोरंजन करती हैं।

ममता की सहेलियों के रूप में कुनिका, जयश्री तलपदे व कल्पना अय्यर तथा कुछ सीमा तक धर्मराज के रूप में सदाशिव अमरापुरकर के साठ के दशक से अस्सी के दशक वाली अति-नाटकीयता का स्मरण कराने वाले अभिनय को छोड़ दिया जाए तो सभी कलाकारों ने अपने-अपने चरित्रों के साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के रूप में मोहनीश बहल, सलमान खान एवं सैफ़ अली खान का प्रेम कहीं से भी फ़िल्मी नहीं लगतासच्चा लगता है। सैफ़ अली खान ने एक मस्तमौला युवक के रूप में अपने अभिनय से बाक़ी सभी कलाकारों को पीछे छोड़ दिया है। इस फ़िल्म में उनका अभिनय उनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय-प्रदर्शनों में सम्मिलित किया जा सकता है।

अब यह रामायण तुलसीदास जी ने तो रची नहीं है किन्तु उनके द्वारा रचित चौपाइयां फ़िल्म के प्रथम दृश्य में एवं फ़िल्म के उत्तरार्ध के कतिपय दृश्यों में सुनी जा सकती हैं। सूरज बड़जात्या न तो तुलसीदास हैं, न बन सकते थे किन्तु उन्हें तुलसीदास जी का आभारी होना चाहिए कि उनकी रामायण के अयोध्या कांड ने उन्हें अपनी फ़िल्म की कथा प्रदान कर दी अन्यथा उनकी नवीनतम फ़िल्म ऊंचाईसे पूर्व मैं यही समझता था कि सूरज बड़े बजट की भव्य और संगीतमय फ़िल्म तो बना सकते हैं लेकिन किसी नई कथा का सृजन उनके वश की बात नहीं। ख़ैर, जब राम-सिया-लक्ष्मण हमारे मन में बसे हैं तो हम सम्पूर्ण परिवार के साथ इस फ़िल्म को भी देख सकते हैं एवं एक स्वस्थ, संगीतमय, पारिवारिक मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं।

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