बुधवार, 13 नवंबर 2024

यह लिखा है

हिन्दी फ़िल्म 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा' (२०११) में विश्व-भ्रमण पर निकले तीन मित्र - ऋतिक रोशन, फ़रहान अख़्तर तथा अभय देओल अपनी यात्रा के दौरान एक दिन पुरानी बातों को याद करते हुए उन बातों के संदर्भ में एकदूसरे से कहते हैं - 'यह भी लिखा था, वो भी लिखा था'। अर्थात् जो बातें वाक़या हुईं, उनका होना पहले से ही क़िस्मत ने लिख दिया था यानी नियत था उनका होना; वह टल नहीं सकता था। क्या यह सच है ? क्या होनी (या अनहोनी) पहले से तय हो जाती है ? 

मुझे ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेअर' विशेष पसंद नहीं आई थी किन्तु जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा था, वह इस प्रकार थी - फ़िल्म के प्रथम दृश्य में परदे पर प्रश्न आता है - जमाल प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में भारी धनराशि जीतने की अवस्था में कैसे पहुँचा ? इस प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर भी परदे पर दिए गए हैं - अ‍. उसने बेईमानी की, ब. वह भाग्यशाली है, स. वह अत्यंत प्रतिभाशाली (genius) है, द. ऐसा होना लिखा है (it is written) अर्थात् ऐसा होना पहले से नियत था; उसके पश्चात् पूरे ढाई घंटे की फ़िल्म गुज़र जाती है तथा फ़िल्म के अंतिम दृश्य में प्रश्न का सही उत्तर परदे पर प्रकट होता है - द. ऐसा होना लिखा है (अर्थात् यह प्रारब्ध ने तय कर दिया था)।

मैं पुरुषार्थ की महिमा से भली-भांति परिचित हूँ तथा मानता भी हूँ कि मानव को पुरुषार्थ से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। कृष्ण भी गीता में यही कहते हैं कि अकर्म में आस्था नहीं होनी चाहिए एवं गोस्वामी तुलसीदास भी मानस में यही कहते हैं-'दैव दैव आलसी पुकारा'। किन्तु कृष्ण गीता में यह भी कहते हैं कि आपका कर्म पर ही अधिकार है, फल पर नहीं। क्या अर्थ है इस बात का ? यही न कि कर्म करते रहो पर उसका फल या अभीष्ट आपके भाग्यानुसार (जैसा कि प्रारब्ध ने आपके लिए नियत कर दिया है) ही आपको मिलेगा ? 

मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिनके होने की मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। और ऐसी भी अनेक घटनाएं घटते‌-घटते रह गई हैं जिनके होने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार था और मानकर चलता था कि वे तो होंगी ही। अर्थात् जो सोचा, वो न हुआ एवं जिसके होने की दूर-दूर तक अपेक्षा न की, वो हो गया। क्या है इसका राज़ ? यही कि सृष्टि में जो कुछ भी होता है, वह पहले से तय है। विधि का विधान है वह जो टलता नहीं। और जो विधि के विधान में होना नहीं लिखा है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं होने वाला।

आप मुझे भाग्यवादी कह सकते हैं। पर मैं सदा से भाग्यवादी नहीं था। मुझे भाग्यवादी बनाया है जीवन के निरंतर होते रहने वाले अनुभवों ने। अप्रैल २०२१ में जब मूर्धन्य कवयित्रियों वर्षा सिंह तथा शरद सिंह की माताजी विद्यावती जी अस्वस्थ थीं तो मेरे मन में कई बार आता था कि मैं किसी प्रकार उनसे सम्पर्क साधकर उनकी माताजी का कुशल-क्षेम पूछूं किन्तु मैं उनसे सम्पर्क करने का कोई साधन ढूंढ़ ही नहीं पाया। फिर जब उनकी माताजी के देहावसान का समाचार मिला तो उनके दुख में मैंने भी स्वयं को सम्मिलित अनुभव किया। लेकिन जब उनकी माताजी के देहांत के मात्र बारह दिन बाद ही वर्षा जी अकस्मात् चल बसीं तो मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ। इतना समय बीत चुकने के उपरांत भी यदि मैं कहूँ कि मैं उस आघात से पूर्णतः उबर गया हूँ तो यह असत्य ही होगा। क्या स्पष्टीकरण है उनके असामयिक निधन का सिवाय इसके कि उनका जाना ऐसे ही लिखा था ? क्या हैं हम लोग ? क़िस्मत या प्रारब्ध या नियति के हाथ की कठपुतलियां, बस! होना तो वही है जो कर्म की रेख ने पहले ही लिख दिया है, आप चाहे जो कर लें। जो होना है, अपने वक़्त पर होकर ही रहेगा आप बचने के जितने चाहे प्रयास कर लें। और इसी तरह जो नहीं होना है, वो नहीं ही होगा आप उसे करने के चाहे जितने जतन कर लें।

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यास 'रामबाण' में इस बात को रेखांकित किया है कि विधि के विधान में हस्तक्षेप किसी को नहीं करना चाहिए। विधि ने हमारे जीवन में जो एक अनिश्चितता रखी है (हम अपना भविष्य नहीं जान सकते), उसे स्वीकार करना चाहिए। जब होनी टल नहीं सकती और जो अनहोनी है, वो हो नहीं सकती तो भविष्य को जानकर भी हम क्या करेंगे ? 

जोसेफ़ मर्फ़ी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक 'आपके अवचेतन मन की शक्ति' में यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य के अवचेतन मन में यह शक्ति है कि वह आपकी इच्छाओं को पूरा कर सकता है। कुछ सीमा तक उनका यह सिद्धांत ठीक लगता है किन्तु जब विभिन्न व्यक्तियों की इच्छाएं परस्पर विरोधी हो जाएं तो क्या होगा ? उत्तर स्पष्ट है - वही होगा जो पहले से नियत है, जो प्रारब्ध ने पहले ही सुनिश्चित कर दिया है। 

पच्चीस वर्ष पूर्व उनतीस मार्च, सन उन्नीस सौ निन्यानवे को मैं मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर चलती हुई रेलगाड़ी से नीचे जा गिरा। मेरे बाएं हाथ की हड्डी गंभीर रूप से टूट गई तथा मुझे दो बार शल्य-क्रिया से गुज़रना पड़ा। ठीक होने में महीनों लगे तथा मेरे हाथ में एक असामान्यता स्थायी रूप से आ गई। इसके कारण मैंने बहुत कुछ सहा पर अंततः यही माना कि शायद यह मेरे प्रारब्ध में लिखा था। मैंने इस घटना का उल्लेख अपने संघर्ष फ़िल्म पर लिखे गए लेख में किया है।

क़रीब दो माह पूर्व चार सितम्बर को मैं पुनः दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा मेरे हाथ की पच्चीस वर्ष पूर्व टूटी हड्डी पुनः टूट गई। एक बार पुनः मुझे शल्य-क्रिया तथा उसके बाद की जाने वाली चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ा। इन दिनों मेरी फ़िज़ियोथेरापी चल रही है। एक बार फिर बहुत कुछ मैं सह गया (और अभी भी सह रहा हूँ)। मेरे साथ-साथ मेरे परिवार ने भी इसके कारण बहुत सहा है। इस बार तो दुर्घटना के पीछे मैं अपनी कोई ग़लती भी नहीं ढूंढ़ पा रहा। फिर यह क्यों हुई ? क्योंकि होनी लिखी थी। और इसका क्या स्पष्टीकरण हो सकता है ?

दुर्घटना तो फिर भी बड़ी बात है। मैंने तो अपने जीवन में पाया है कि ज़िन्दगी आपको क़दम-क़दम पर चौंकाती है (सरप्राइज़ देती है)। अच्छे सरप्राइज़ भी मिलते हैं, बुरे भी। जो आपको उल्लास से भर दें, ऐसे सरप्राइज़ भी और जो आपको आघात पहुँचाएं, ऐसे सरप्राइज़ भी। जीवन की छोटी-से-छोटी घटनाओं के पीछे ऐसे कारक हो सकते हैं जिन्हें समझ पाना अथवा जिनकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं। आप कुछ न करना चाहें पर अगर आपके हाथ से कुछ ऐसा होना बदा हो तो बानक आप-से-आप ही ऐसे बनते चले जाते हैं कि आप वही करते हैं जो नहीं करने के लिए मन पक्का कर चुके थे। आपकी नियति आपको खींचकर उसी पथ पर ले जाती है और आप नियति की शक्ति के समक्ष विवश हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है - मेरे मन कछु और है, विधना के कछु और।

मैं आत्म-सुधार का विरोधी नहीं। अपनी भूलों को महसूस करके उनसे सबक़ सीखना और आगे के लिए ख़ुद में सुधार करना ही जीवन जीने का सही मार्ग है। बस बात इतनी-सी है कि हम प्रारब्ध (या नियति या विधि का विधान या कर्म की रेख या भाग्य) के अस्तित्व को स्वीकारें तथा बात-बात पर ख़ुद को (या दूसरों को) न कोसें। कभी-कभी इसी सोच से अपने मन को सांत्वना दें कि यही होना लिखा था।

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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

प्रश्न राजस्थानी भाषा के आठवीं अनुसूची में समावेश का

विगत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किए जाने से संबंधित याचिका पर निर्णय देते हुए इस संबंध में सरकार को कोई भी निर्देश देने से मना कर दिया तथा कहा कि ऐसा कोई भी निर्णय सरकार ही कर सकती है। न्यायालय का निर्णय उचित है। सरकार ही निर्णय कर सकती है। सरकार को ही निर्णय करना चाहिए। पर यह निर्णय तो दशकों से लंबित है। कब निर्णय होगा इस पर ? कब तक एक सुसमृद्ध भाषा अपनी ही भूमि में पराई बनी रहेगी ?  एक ऐसी भाषा जो अपने साथ शताब्दियों लंबा इतिहास लिए चलती है, कब तक अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रखी जाएगी ? 

खेद का विषय है कि हिन्दी वाले ही अपनी बहन सरीखी भाषाओं को उनका अधिकार दिए जाने का विरोध करते हैं। यह बात समझ से परे है कि जब गुजराती, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं को मान्यता दिए जाने से हिन्दी भाषियों को कोई कष्ट नहीं है तो राजस्थानी भाषा को मान्यता दिए जाने से उन्हें विरोध क्यों है। राजस्थानी देश के भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़े राज्य राजस्थान की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती है जिसकी यह मातृभाषा है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग हिंदी भलीभांति समझते ही नहीं, राजस्थानी ही समझते हैं। राजस्थानी भाषा का समृद्ध साहित्य है जो कई शताब्दियों में विकसित हुआ है। राजस्थानी लोकगीतों की परम्परा सदियों से अनवरत चली आ रही है। राजस्थानी भाषा का अपना विशाल शब्द भंडार है तथा अपना पृथक् व्याकरण है जो हिन्दी से सर्वथा भिन्न है। ऐसे में इसे इसका यथोचित अधिकार न देने का कोई कारण नहीं है। 

दक्षिण भारतीय राज्य तो हिन्दी थोपे जाने का मुखर विरोध करते हैं और करते आ रहे हैं। क्या राजस्थानी लोग भी ऐसा ही करें कि उन पर हिन्दी क्यों थोपी जा रही है ? इसे समुचित मान्यता मिलनी ही चाहिए। यह इसका अधिकार है जिसे देना सरकार का कर्तव्य है। राजस्थानी भाषा एक सम्पूर्ण भाषा है, कोई बोली नहीं है। यह ठीक है कि राजस्थान के विविध अंचलों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी आदि बोलियां प्रचलन में हैं किंतु ये सब समग्र रूप में राजस्थानी भाषा की ही अंग हैं। इनके अस्तित्व के कारण राजस्थानी भाषा के अस्तित्व को ही मान्यता न दिया जाना न्यायपूर्ण नहीं है। किसी भी भाषा में आंचलिक भिन्नता के कारण बोलियों के स्तर पर अंतर आ ही जाता है किंतु इससे भाषा की समग्रता पर प्रभाव नहीं पड़ता है। जिसे हम हिन्दी के रूप में लिखते हैं, वह खड़ी बोली है किंतु यह खड़ी बोली उत्तर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक एक ही प्रकार से नहीं बोली जाती है। अनेक परिवर्तन आते हैं इसमें। यह आंचलिक आधार पर स्वयं में अनेक बोलियों को समाविष्ट करती है जिनमें तुलसी की अवधी तथा सूर की ब्रज भी सम्मिलित है। अतः राजस्थानी भाषा को बोलियों की भिन्नता के आधार पर नकारा जाना सर्वथा अनुचित है। जब मैथिली भाषा को पृथक् रूप से आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जा सकता है तो राजस्थानी भाषा को क्यों नहीं ? 

प्रत्येक भाषा अपने साथ अपना एक इतिहास, एक संस्कार, एक संस्कृति तथा एक विशिष्ट धरोहर लेकर चलती है। यदि कोई भाषा पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त हो जाती है तो हजारों वर्ष पूर्व की पहचान, साहित्य, सूचनाएं, अनुभव, सांस्कृतिक विरासत आदि के लिए भी विलुप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए। राजस्थानी एक स्वतंत्र भाषा है जिसका संरक्षण संविधान में मान्यता प्रदान करके किया ही जाना चाहिए। राजस्थानी समुदाय भारत ही नहीं, विश्व के विविध भागों में फैला हुआ है तथा वह अपने साथ राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं को लेकर जाता है। ऐसे में भाषारूपी सांस्कृतिक धरोहर को क्यों न सहेजकर रखा जाए ? राजस्थानी गीतों के माधुर्य को उन्हें सुनने वाले ही जानते हैं। आज भी हम पृथ्वीराज चौहान को चंद बरदाई की पृथ्वीराज रासो के माध्यम से ही याद रखते हैं। हम मीरा के भजन गाते हैं। रानी पद्मिनी के बलिदान और आल्हा-ऊदल के शौर्य को स्मरण करते हैं। ऐसे में उनकी भाषा को स्वीकृति देने में संकोच क्यों ? क्या बाधा है इसमें ? अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को संजोकर रखना तो प्रत्येक सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। सूर्यमल्ल मिश्रण तथा कन्हैयालाल सेठिया जैसे कवियों का कर्म हिन्दी कवियों के कर्म से कमतर नहीं आंका जा सकता। इनके जैसे प्रतिभाशाली राजस्थानी कलाकारों एवं साहित्यकारों को मान्यता एवं सम्मान तभी मिलेगा जब राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाएगा। अब इसमें और विलम्ब नहीं होना चाहिए। 

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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

सूरज बड़जात्या का अयोध्या कांड

अब जबकि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है, मुझे एक ऐसी हिन्दी फ़िल्म की याद आ रही है जो कि रामायण पर तो आधारित नहीं है किन्तु रामायण के अयोध्या कांड को आधुनिक परिवेश में आधुनिक पात्रों के साथ प्रस्तुत करती है। जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी तो यह मेरे तथा मेरे छोटे-से परिवार (मैं, मेरी पत्नी एवं मेरी नन्ही पुत्री) की पसंदीदा फ़िल्म बन गई थी। यह फ़िल्म है - 'हम साथ-साथ हैं' (१९९९)।

'हम साथ-साथ हैं' राजश्री बैनर के तले बनाई गई निर्माता-निर्देशक सूरज बड़जात्या की फ़िल्म है जिनकी इससे पहले बनी फ़िल्म 'हम आपके हैं कौन ?' (१९९४) व्यावसायिक रूप से अत्यधिक सफल रही थी एवं उसे भरपूर प्रशंसा भी प्राप्त हुई थी। मुझे वह फ़िल्म कुछ कम पसंद इसलिए आई थी क्योंकि उसमें जो परिवार दिखाया गया था, वह अत्यधिक धनी था एवं जीवन की दैनंदिन समस्याओं से सुरक्षित था। वस्तुतः वह राजश्री की ही पुरानी फ़िल्म 'नदिया के पार' (१९८२) का ही नगरीय संस्करण थी जो कि एक सादगी से परिपूर्ण हृदयस्पर्शी फ़िल्म थी। बहरहाल 'हम आपके हैं कौन ?' भारतीय सिने इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में सम्मिलित हुई तथा सूरज ने अपनी अगली फ़िल्म 'हम साथ-साथ हैं ?' को लगभग उसी ढंग से बनाया। लेकिन फ़िल्म में कथा भी तो होनी चाहिए। सूरज को अपनी फ़िल्म की कथा गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के अयोध्या कांड में मिली।

अयोध्या कांड में राम के राजतिलक से पूर्व ही रानी कैकेयी द्वारा राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत हेतु राजपाट तथा राम हेतु चौदह वर्षों के वनवास का वचन मांगना, राम द्वारा पिता के वचन-पालन हेतु अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण सहित वन-गमन, उनकी अनुपस्थिति में भरत द्वारा स्वयं को राजा न मानकर केवल अपने अग्रज राम की चरण-पादुका को सिंहासन पर रखकर उनके प्रतिनिधि के रूप में राज-कर्तव्य का पालन आदि प्रसंग सम्मिलित हैं। इसी कथा को सूरज बड़जात्या ने आधुनिक बाना पहना दिया है। राजा दशरथ के स्थान पर हैं एक उद्योगपति रामकिशन (आलोक नाथ), कैकेयी के स्थान पर हैं उनकी दूसरी पत्नी ममता (रीमा), राम के स्थान पर हैं उनकी दिवंगत प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्र विवेक (मोहनीश बहल), भरत एवं लक्ष्मण के स्थान पर हैं ममता के पुत्र प्रेम (सलमान खान) एवं विनोद (सैफ़ अली खान) एवं सीता के स्थान पर हैं विवेक की पत्नी साधना (तब्बू). इस आधुनिक रामकथा में तीन भाइयों की एक बहन भी है - संगीता (नीलम) जो कि आनंद बाबू (महेश ठाकुर) से विवाहित है। रामकथा में सीता के पिता राजा जनक हैं तो यहाँ साधना के पिता आदर्श बाबू (राजीव वर्मा) हैं। अन्य पात्रों में एक ओर आनंद बाबू के बड़े भाई अनुराग बाबू (दिलीप धवन) एवं उनकी पत्नी (शीला शर्मा) हैं तो दूसरी ओर विवेक के अभिन्न मित्र अनवर (शक्ति कपूर)। संगीता एक बच्ची की माता है पर वह अपने जेठ के दो लड़कों को अपनी संतानों की तरह ही प्यार करती है तथा तीनों बालक साथ ही रहते एवं हंसते-खेलते हैं। 

अब चूंकि सूरज को एक नृत्य-गीतों वाली, मनोरंजन से युक्त व्यावसायिक फ़िल्म बनानी थी, तो उसने प्रेम एवं विनोद के लिए भी दो नायिकाएं प्रस्तुत कर दीं। हम चाहें तो प्रेम की बचपन की सखी एवं प्रेयसी प्रीति (सोनाली बेंद्रे) को रामायण की मांडवी मान लें तथा विनोद की बचपन की सखी एवं प्रेयसी सपना (करिश्मा कपूर) को रामायण की उर्मिला। दोनों के ही पिता रामकिशन के पुराने मित्र एवं उनके मूल गांव रामपुर के साथी हैं। प्रीति के पिता प्रीतम (सतीश शाह) एक हंसमुख स्वभाव के सरल व्यक्ति हैं जबकि सपना के पिता धर्मराज (सदाशिव अमरापुरकर) कुछ लालची एवं नाटकीय स्वभाव के व्यक्ति हैं। सपना की दादी (शम्मी) भी फ़िल्म में हैं। रामायण में कैकेयी को दिग्भ्रमित करने वाली दासी मंथरा है तो फ़िल्म में ममता की बुद्धि फेरने हेतु तीन-तीन मंथराएं (कुनिका, जयश्री तलपदे एवं कल्पना अय्यर) रखी गई हैं। इनके अतिरिक्त भी फ़िल्म में कुछ पात्र हैं जिनमें प्रमुख हैं ममता के वकील भाई (अजीत वाच्छानी) एवं उनकी पत्नी (हिमानी शिवपुरी)। 

अब ढेर सारे पात्र हैं तो सभी से दर्शकों को परिचित भी करवाना था एवं कथा में समायोजित भी करना था। आधुनिक कैकेयी ममता (जो आधुनिक राम विवेक को अपनी संतान की ही भांति प्रेम करती हैं) के मनोमस्तिष्क पर कुप्रभाव डालने वाली कोई घटना भी होनी चाहिए थी। अतः घर के दामाद आनंद बाबू के साथ उनके बड़े भाई अनुराग बाबू द्वारा अन्याय किया जाना दिखाया जाता है। इधर व्यवसाय के सर्वेसर्वा रामकिशन अपनी कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद (जो कि रामायण के राजपाट के सदृश ही है) अपने ज्येष्ठ पुत्र विवेक को सौंपने की घोषणा कर देते हैं जो न केवल इस परिवार को देखकर कुढ़ने वाले धर्मराज को वरन ममता की तीन सहेलियों (अर्थात फ़िल्म की मंथराओं) को विचलित कर देती है। चूंकि आनंद बाबू के साथ हाल ही में बुरा हुआ है, ममता को अपने पुत्र प्रेम की चिंता लग जाती है एवं वह व्यवसाय तथा संपत्ति के बंटवारे की मांग को लेकर कोपभवन (अपने कक्ष) में जा बैठती है। रामकिशन दुखी होते हैं किन्तु माता का मन शांत हो, इसके लिए विवेक तथा साधना उनके पैतृक गांव रामपुर जाने का निर्णय ले लेते हैं जहाँ उनका पुराना मकान है तथा रामकिशन द्वारा वहाँ एक नया कारख़ाना बनवाया जा रहा है। अपनी माता से रूष्ट विनोद भी उनके साथ लग लेता है।

रामायण के अयोध्या कांड में इन घटनाओं के समय भरत को अयोध्या से बाहर बताया गया है तो फ़िल्म में भी आधुनिक भरत प्रेम को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गया हुआ बताया गया है। रामायण के भरत की ही भांति प्रेम भी लौटकर यह सब जानने के उपरांत अपनी माता से रूष्ट होता है एवं अपने बड़े भाई को मनाकर लौटा लाने का प्रयास करता है। अंततः वह कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद सम्भालता तो है किन्तु उस आसन पर नहीं बैठता एवं अपने आवास में भी विवेक के कक्ष में जाने के अपनी माता के आग्रह को ठुकरा देता है। चूंकि फ़िल्म का सुखद अंत करना था तो अनुराग बाबू का हृदय-परिवर्तन करवाया गया है जिससे आनंद बाबू तथा संगीता को उनका अधिकार पुनः मिलता है, इसका सकारात्मक प्रभाव ममता के मन पर पड़ता है, वह अपनी भूल को सुधारती है एवं विवेक व साधना की प्रथम संतान के जन्म के समय सम्पूर्ण परिवार का सुखद पुनर्मिलन होता है। 


सभी पात्रों तथा उनके पारस्परिक संबंधों से दर्शकों को परिचित करवाने हेतु फ़िल्म की शुरुआत पुराने ज़माने के पारसी नाटकों की तर्ज़ पर की गई है जहाँ प्रत्येक पात्र अपना परिचय देकर एक ओर हो जाता है तथा दूसरे पात्र को दर्शकों के समक्ष आने का अवसर देता है। इस हेतु रामकिशन एवं ममता के विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ को निमित्त बनाया गया है। विवेक के चरित्र को उभारने हेतु यह बताया गया है कि अपने अनुज को बचाने के प्रयास में उसका हाथ चोटग्रस्त हो गया था। वहीं इसी अवसर को विवेक तथा साधना का विवाह तय करने हेतु आधार बनाया गया है तथा विवाह समारोह, विवाहोपरांत घर में हुए (रिसैप्शन सरीखे) दूसरे समारोह, प्रेम व प्रीति की सगाई, हनीमून के लिए कहीं दूर जाने के स्थान पर विवेक तथा साधना द्वारा सभी को साथ लेकर रामपुर जाना, वहाँ सभी का हंसी-ख़ुशी समय बिताना और विनोद व सपना की सगाई आदि कार्यक्रमों के माध्यम से न केवल नाच-गाने फ़िल्म में डाले गए हैं बल्कि फ़िल्म का अधिकांश भाग इन्हीं सब मे व्यय किया गया है। कथानक में मोड़ तथा उससे जुड़े घटनाक्रम फ़िल्म के अंतिम घंटे में ही दर्शकों के समक्ष आते हैं। लगभग तीन घंटे लंबी यह फ़िल्म स्वस्थ एवं सम्पूर्ण मनोरंजन प्रदान करती है।

फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में 'हम आपके हैं कौन ?' के ढंग से ही चलती है, संभवतः इसीलिए यह उससे कम सफल रही थी क्योंकि दर्शकों को दोहराव का आभास हुआ। फिर भी यह फ़िल्म पारिवारिक स्नेह एवं उसके महत्व को न केवल प्रभावी ढंग से दर्शाती है वरन अनेक स्थानों पर गुदगुदाती भी है विशेषतः उन दृश्यों में जो विनोद से संबंधित हैं। तीनों भाइयों के चरित्रों का विकास बहुत अच्छे ढंग से किया गया है तथा उनका पारस्परिक स्नेह ही फ़िल्म की हाईलाइट है। अपने प्रारंभ से ही यह फ़िल्म दर्शकों को पात्रों की गतिविधियों के साथ-साथ बहाती चलती है एवं उन्हें ऊबने का कोई अवसर नहीं देती यद्यपि प्रारंभिक दो घंटे केवल पात्रों द्वारा किसी-न-किसी अवसर की ख़ुशियां मनाने में ही बिताए जाते हैं। सूरज संभवतः किसी भी कथा के इसी पक्ष के चित्रण में सिद्धहस्त रहे हैं।

कमियां फ़िल्म के निर्देशन में हैं। फ़िल्म के  पात्रों के पास न केवल बहुत धन है बल्कि उसका आनंद उठाने हेतु बहुत सारा समय भी है। एक सम्पूर्ण पारिवारिक महिला होने पर भी ममता द्वारा तीन सोसाइटी गर्ल सरीखी स्त्रियों से प्रगाढ़ मित्रता रखना एवं उन्हें न केवल बढ़-बढ़कर बोलने की वरन अपने घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की भी खुली छूट देना अस्वाभाविक लगता है। किसी भी धनी व्यावसायिक परिवार की गृहिणी बाहरी लोगों को ऐसा नहीं करने देगी। वस्तुतः इन फ़िल्मी मंथराओं के चरित्र तथा बातें व हावभाव ही फ़िल्म को स्वाभाविकता की पटरी से उतार देते हैं और ऐसा अनुभव कराते हैं मानो कोई दूसरे लोक से आए पात्रों को सिनेमा के पटल पर ले आया गया हो। फ़िल्म का सुखान्त भी बड़ी सुगमता से करा दिया गया है और संगीता व आनंद बाबू की गंभीर समस्या को भी चुटकी बजाने जैसी सरलता से हल होते दिखाया गया है। ये सब बातें फ़िल्म को गंभीरता से नहीं लेने देतीं तथा इसे केवल मनोरंजनार्थ ही रहने देती हैं। अंतिम एक घंटे में रामायण के अयोध्या कांड के प्रसंगों की नक़ल कुछ ऐसे की गई है कि नासमझ-से-नासमझ दर्शक भी जान लेता है कि फ़िल्म की कहानी किस स्रोत से फूटकर आ रही है। आख़िर जिन्होंने रामचरितमानस नहीं पढ़ी, सदियों से आयोजित होती आ रहीं रामलीलाएं तो उन्होंने भी देखी हैं।

रामलक्ष्मण का संगीत तथा जय बोराड़े का नृत्य-निर्देशन फ़िल्म का एक अत्यन्त सशक्त पक्ष है। रवींद्र रावल, देव कोहली, मिताली शशांक तथा आर. किरण द्वारा रचे गए अति-सुंदर गीतों पर मनमोहक धुनें बनाई गई हैं एवं उन पर किए गए नृत्य दर्शकों के नयनों को शीतलता प्रदान करते हैं। म्हारे हिवड़ा में नाचे मोरतथा एबीसीडीईएफ़जीएचआईविशेष रूप से उल्लेखनीय हैं किन्तु अन्य गीत भी संगीत-प्रेमियों के दिलों को लुभाने में पीछे नहीं रहे हैं। सुनोजी दुल्हन इक बात सुनोजीगीत में पिरोई गई विभिन्न पुराने गीतों की पैरोडियां भी ख़ूब मनोरंजन करती हैं।

ममता की सहेलियों के रूप में कुनिका, जयश्री तलपदे व कल्पना अय्यर तथा कुछ सीमा तक धर्मराज के रूप में सदाशिव अमरापुरकर के साठ के दशक से अस्सी के दशक वाली अति-नाटकीयता का स्मरण कराने वाले अभिनय को छोड़ दिया जाए तो सभी कलाकारों ने अपने-अपने चरित्रों के साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के रूप में मोहनीश बहल, सलमान खान एवं सैफ़ अली खान का प्रेम कहीं से भी फ़िल्मी नहीं लगतासच्चा लगता है। सैफ़ अली खान ने एक मस्तमौला युवक के रूप में अपने अभिनय से बाक़ी सभी कलाकारों को पीछे छोड़ दिया है। इस फ़िल्म में उनका अभिनय उनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय-प्रदर्शनों में सम्मिलित किया जा सकता है।

अब यह रामायण तुलसीदास जी ने तो रची नहीं है किन्तु उनके द्वारा रचित चौपाइयां फ़िल्म के प्रथम दृश्य में एवं फ़िल्म के उत्तरार्ध के कतिपय दृश्यों में सुनी जा सकती हैं। सूरज बड़जात्या न तो तुलसीदास हैं, न बन सकते थे किन्तु उन्हें तुलसीदास जी का आभारी होना चाहिए कि उनकी रामायण के अयोध्या कांड ने उन्हें अपनी फ़िल्म की कथा प्रदान कर दी अन्यथा उनकी नवीनतम फ़िल्म ऊंचाईसे पूर्व मैं यही समझता था कि सूरज बड़े बजट की भव्य और संगीतमय फ़िल्म तो बना सकते हैं लेकिन किसी नई कथा का सृजन उनके वश की बात नहीं। ख़ैर, जब राम-सिया-लक्ष्मण हमारे मन में बसे हैं तो हम सम्पूर्ण परिवार के साथ इस फ़िल्म को भी देख सकते हैं एवं एक स्वस्थ, संगीतमय, पारिवारिक मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं।

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शनिवार, 16 दिसंबर 2023

आंतरिक लेखा-परीक्षा की व्यावहारिक चुनौतियां

मनुष्य की भूलने की आदत ने लेखांकन (accounting) के कार्य को जन्म दिया तथा लेखांकन में अनजाने में होने वाली त्रुटियों एवं जान-बूझकर की जाने वाली गड़बड़ियों (बेईमानियों) के कारण प्रादुर्भाव हुआ लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण (audit) की अवधारणा का। अन्य शब्दों में कहा जाए तो लेखांकन इसलिए आरम्भ हुआ क्योंकि जैसा कि महाजनी व्यावसायिक परम्परा में कहा जाता है – पहले लिख और पीछे दे, भूल पडे कागद से लेजबकि लेखा-परीक्षा का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि व्यवसायियों एवं लेखापालों दोनों ने इस उक्ति को हृदयंगम किया – भूल करना मानव का स्वभाव है’ (to err is human)। और जब हम किसी भी कार्य में भूलों की सम्भावना को देखते हैं तो ऐसी (सम्भावित) भूलों का पता लगाना एवं उनका सुधार करना भी हमारे लिए आवश्यक होता है। यही आवश्यकता जननी बनी लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण के आविष्कार की।

मूलतः लेखा-परीक्षा इसलिए आरम्भ हुई ताकि व्यवसाय की एक वर्ष (अथवा उससे कम की) अवधि पूर्ण होने पर बनाए जाने वाले अंतिम लेखों की विश्वसनीयता बनी रहे जो उस अवधि के हानि-लाभ तथा व्यवसाय की दायित्व एवं सम्पत्ति संबंधी स्थिति को दर्शाते हैं। लेखा-परीक्षक द्वारा किया गया प्रमाणीकरण इस विश्वसनीयता का आधार माना गया। किन्तु धीरे-धीरे यह अनुभव किया गया कि बड़े पैमाने के व्यवसायों में ऐसी आंतरिक नियंत्रण व्यवस्था होनी चाहिए जिससे त्रुटियां कम-से-कम हों तथा वे वर्षांत से पूर्व ही पकड़ी एवं सुधारी जा सकें,  साथ ही बेईमानी एवं ग़बन की सम्भावनाएं भी न्यूनतम हो जाएं। इस निमित्त व्यावसायिक संगठन की व्यवस्था में आंतरिक जाँच (internal check) के साथ-साथ प्रवेश हुआ आंतरिक लेखा-परीक्षा (internal audit) का जो सामान्य लेखा-परीक्षा की भांति किसी बाह्य अभिकरण (external agency) द्वारा भी की जा सकती है या फिर संगठन अपना निजी आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग (in-house internal audit department) भी स्थापित कर सकता है। और जो संगठन इस दूसरे विकल्प को चुनते हैं, उनमें आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य को करने वाले अपने कार्य की सैद्धांतिक चुनौतियों से इतर कुछ व्यावहारिक चुनौतियों का भी सामना करते हैं।

मुख्यतः ये चुनौतियां दो होती हैं – पहली स्वयं उनसे सम्बन्धित होती है तो दूसरी संगठन की संबंधित इकाई में कार्यरत अन्य लोगों से (जिनके कार्य का लेखा-परीक्षण किया जाता है)। पहली चुनौती इसलिए आती है क्योंकि लेखा-परीक्षक संगठन के ही कर्मचारी होते हैं तथा अन्य कर्मचारियों की भांति पदोन्नति, अन्य परिलाभों एवं सुविधाओं के आकांक्षी होते हैं। साथ ही वे बहुत-सी छोटी-बड़ी चीज़ों हेतु अन्य कर्मचारियों एवं वरिष्ठ अधिकारियों पर निर्भर होते हैं। इसके लिए सभी स्तरों पर विभिन्न लोगों से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना आवश्यक होता है। संबंध बिगाड़ने का ख़तरा मोल लेकर नौकरी नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में एक लेखा-परीक्षक को जो स्वतंत्रता (independence) एवं स्वायत्तता (autonomy) उपलब्ध होनी चाहिए, वह नहीं होती। बाह्य संस्था के लोग स्वतंत्र भी होते हैं एवं स्वायत्त भी जब वे आंतरिक लेखा-परीक्षा का कार्य करते हैं। संगठन के एक अंग के रूप में ही स्थित आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग के सदस्यों हेतु तो यह दुर्लभ ही होता है। ऐसे में अपने कार्य का निष्पादन करना उनके लिए सीधी रस्सी पर चलने (tightrope-walk) के समकक्ष ही होता है क्योंकि नौकरी भी करनी है और किसी को (जहाँ तक हो सके) नाराज़ भी नहीं करना है।

दूसरी चुनौती होती है लेखा-परीक्षा कार्य तथा लेखा-परीक्षकों के प्रति अन्य लोगों का नकारात्मक दृष्टिकोण। यद्यपि बहुचर्चित किंग्सटन कॉटन मिल्स केस (the Kingston Cotton Mills case) में विद्वान न्यायाधीशों ने स्पष्ट कर दिया था कि लेखा-परीक्षक एक रखवाली करने वाला कुत्ता (watchdog) है न कि शिकारी कुत्ता (bloodhound), तथापि जिन विभागों की लेखा-परीक्षा की जाती है, वे भी एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीगण भी लेखा-परीक्षकों को संदेह की दृष्टि से ही देखते हैं एवं उन्हें अपना सहयोगी न समझकर केवल भूलें पकड़ने वाले लोग (fault-finders) समझते हैं। इसके कारण वे उनसे दूरी बनाए रखने एवं उन्हें सहयोग न देने में ही अपनी भलाई मानते हैं। नतीजा यह होता है कि आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग में कार्यरत कर्मचारियों को उनकी उत्तर न देने वाली प्रवृत्ति (non-responsiveness) से जूझना पड़ता है। संबधित विभागों से उत्तर न मिलने पर वे वरिष्ठ अधिकारियों के पास पहुँचते हैं तो प्रायः उनकी ओर से भी सहयोग प्राप्त नहीं हो पाता क्योंकि वे भी लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति नकारात्मक सोच से ही ग्रस्त होते हैं। ऐसे में आंतरिक लेखा-परीक्षकों हेतु अपने उत्तरदायित्वों को निभाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह चुनौती तब और भी गंभीर हो जाती है जब आंतरिक लेखा-परीक्षक पदोन्नतियां न मिलने के कारण संगठन के पदानुक्रम (hierarchy) में निचले स्तर पर ही रह जाएं क्योंकि जो व्यक्ति पदोन्नतियां न मिलने के कारण औरों से कनिष्ठ रह जाए, उसकी बात को महत्व नहीं दिया जाता।   

इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने हेतु संगठन के सभी स्तरों पर (विशेषतः उच्च पदाधिकारियों के स्तर पर) आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति भ्रांतियों को दूर करना आवश्यक है। सभी उत्तरदायी अधिकारियों को विविध कार्यक्रमों, व्याख्यानों, गोष्ठियों आदि के माध्यम से यह समझाया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षा केवल अनुपालन (compliance) सुनिश्चित करने हेतु ही नहीं होती वरन जोखिम प्रबंधन (risk management), प्रचालन प्रक्रियाओं को अधिक कुशल बनाने (प्रच्छन्न अकुशलताओं की ओर ध्यानाकर्षण करके), आंतरिक वित्तीय नियंत्रण (internal financial control) सुनिश्चित करने तथा शीर्ष प्रबंधन के निर्णय लेने में सहयोग हेतु भी होती है। उनके मन में इस सत्य को स्थापित किया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षक अपने अन्य विभागीय सहयोगियों का मित्र है, विरोधी अथवा शत्रु नहीं। उसका कार्य प्रक्रियागत त्रुटियों का पता लगाकर उनके यथासमय सुधार हेतु सम्बन्धित व्यक्तियों को जागरूक करना है, किसी को संदिग्ध मानकर उसके पीछे पड़ना (witch-hunt) नहीं। आंतरिक लेखा-परीक्षकों को भी उच्च-प्रबंधन को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करना चाहिए कि उनका कार्य कोई आवश्यक बुराई (necessary evil) तथा संसाधनों का अपव्यय नहीं है वरन एक ऐसा कार्य है जिसके जाँच-परिणामों (findings) पर ध्यान देकर संगठन के मूल्यवान संसाधनों एवं लागत को बचाया जा सकता है।

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मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

मेरी दृष्टि में हिन्दी सिनेमा की दस श्रेष्ठ कृतियां

सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि संवेदनशील एवं विवेकशील फ़िल्मकारों के द्वारा इसके माध्यम से समाज को उपयोगी संदेश देने का कार्य भी इसके प्रारम्भिक वर्षों से ही किया जाता रहा है। भारत में अपने उद्भव (दादासाहब फाल्के द्वारा १९१३ में निर्मित 'राजा हरिश्चंद्र' के रूप में) के साथ ही सिनेमा आम जनता में लोकप्रिय हो गया क्योंकि यह मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन सिद्ध हुआ जिसने नौटंकियों, तमाशों तथा नाटकों को पीछे छोड़ते हुए 'बाइस्कोप' के नाम से अमीर एवं ग़रीब दोनों ही वर्गों के दिलों में स्थायी जगह बना ली (आज स्थिति परिवर्तित हो चुकी है तथा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना निर्धन तो क्या संपन्न वर्ग के लोगों हेतु भी बारम्बार सम्भव नहीं होता है, अब तो घर बैठे-बैठे छोटे आकार के पट पर सिनेमा देखना ही सस्ता पड़ता है)। अट्ठारह वर्षों के उपरांत मूक फ़िल्में बोलने भी लगीं (१९३१ में प्रदर्शित 'आलम आरा' के साथ) तो फ़िल्मों में गीत-संगीत भी होने लगा एवं इस माध्यम की लोकप्रियता और भी परिवर्धित हो गई। लेकिन जैसा कि मैंने इस लेख की प्रथम पंक्ति में कहा, यह केवल मनोरंजन का साधन बनकर ही नहीं रह गया। समय-समय पर ऐसे साहसी, प्रतिभाशाली तथा संवेदनाओं से ओतप्रोत फ़िल्मकार जनसमुदाय के समक्ष हृदय को स्पर्श कर लेने वाली तथा समकालीन समाज को दर्पण दिखाने वाली सोद्देश्य फ़िल्में लेकर आए जिनमें से अनेक तो कालजयी सिद्ध हुईं। यह एक अत्यन्त संतोषजनक तथ्य है कि ऐसी उद्देश्यपरक तथा विचारोत्तेजक फ़िल्में आज तक बन रही हैं।

विगत एक सौ दस वर्षों में भारतीय दर्शकों के समक्ष अवतरित हुईं सैकड़ों उत्कृष्ट हिन्दी फ़िल्मों का तो एक लेख में नामोल्लेख तक नहीं किया जा सकता। अतः मैं अपने इस लेख में दस ऐसी (मुख्य-धारा की) श्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्मों की बात कर रहा हूँ जो मेरे हृदय के अति-निकट हैं। ये दस उत्तम हिन्दी फ़िल्में इस प्रकार हैं:

. प्यासा (१९५७): भारत के महान फ़िल्मकार गुरु दत्त ने एक अंग्रेज़ी कविता पढ़ी - 'Seven cities claimed Homer dead where the living Homer begged his bread' जिसने उन्हें कुछ इस क़दर प्रभावित किया कि उसके भाव से प्रेरित होकर उन्होंने इस फ़िल्म की परिकल्पना अपने मन में कर डाली। प्रमुख भूमिका गुरु दत्त ने स्वयं निभाई जबकि अन्य प्रमुख भूमिकाओं हेतु उन्होंने वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, जॉनी वाकर आदि कलाकारों को लिया। यह एक अजरअमर फ़िल्म है एवं मेरी दृष्टि में मुख्य-धारा की हिन्दी फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ है जो देश एवं समाज को दर्पण दिखाते हुए भी अंत में एक सकारात्मक बिन्दु पर समाप्त होती है। इसके कथानक को इस शेर से समझा जा सकता है - 'वो लिखता है ज़ीस्त की हद तक, मरने पर वो शायर होगा'। देश के स्वतंत्र होने के पश्चात कुछ ही वर्षों में लोगों में व्याप्त हो गई घोर स्वार्थपरता एवं नैतिक पतन के साथ-साथ नेहरूवादी आदर्शवाद से हुए मोहभंग का सजीव चित्रण करती है यह फ़िल्म। देश में स्त्रियों के शोषण को देखकर जहाँ नायक के मुख से निकल पड़ता है - 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं' तो समाज का ख़ुदगर्ज़ चेहरा देखकर उसके मुँह से बरबस ही यह आह फूट पड़ती है - 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। उसे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं है, उसे शिकायत है समाज की उस तहज़ीब से जहाँ मुरदों की पूजा की जाती है और ज़िन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है। संवेदनशील नायक को ऐसे वातावरण में कहाँ शांति मिलती ? लेकिन यह नायक कम-से-कम अपनी कहानी को पेश करने वाले शख़्स से ज़्यादा ख़ुशकिस्मत था जो उसे एक चाहने वाली, समझने वाली मिल जाती है जिसका हाथ पकड़कर वह ख़ुदगर्ज़ और बेरहम लोगों की बस्ती से दूर चला जाता है। मैं इस फ़िल्म को भारत ही नहीं, संसार की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक मानता हूँ। 

ख़ामोशी (१९६९): मैंने अपनी सिविल सेवा की परीक्षा हेतु मनोविज्ञान विषय लिया तो उसके अन्तर्गत मुझे  सिगमंड फ़्रायड के मनोविश्लेषणवाद (psyco-analysis) को पढ़ने एवं समझने का अवसर मिला। इसी सिद्धांत का एक भाग है - 'स्थानांतरण' (transference) तथा 'प्रति-स्थानांतरण'(counter-transference)। स्थानांतरण की स्थिति में अपना इलाज़ करवा रहा मनोरोगी अपना इलाज़ कर रहे मनोचिकित्सक से एक भावनात्मक संबंध जोड़ लेता है जबकि प्रति-स्थानांतरण वह स्थिति है जिसमें वह मनोचिकित्सक भी उस मनोरोगी से एक भावनात्मक संबंध अपने मन में स्थापित कर लेता है (क्योंकि वह भी अंततः एक मनुष्य ही है)। यह उत्कृष्ट फ़िल्म इन्हीं दो स्थितियों को लेकर लिखी गई एक भावुक कथा है जिसमें मनोरोगी (राजेश खन्ना) से अधिक महत्वपूर्ण पात्र उसकी चिकित्सा कर रही नर्स (वहीदा रहमान) का हो उठता है तथा फ़िल्म उसकी दमित भावनाओं एवं एक स्त्री के रूप में प्रेमाकांक्षी होने के मूक ही रह गए भाव का अद्भुत चित्रण करती है। सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार आशुतोष मुखर्जी द्वारा रचित कथा पर आधारित यह फ़िल्म पहले बांग्ला में 'दीप ज्वेले जाय' के नाम से बनाई गई थी जिसमें नर्स की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी। फ़िल्म का संगीत (हेमंत कुमार द्वारा रचित) भी कालजयी है तथा 'हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू', 'तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है' एवं 'वो शाम कुछ अजीब थी' जैसे गीत अजरअमर हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब इस फ़िल्म को देखकर मेरे आँसू न निकल आए हों।

तारे ज़मीन पर (२००७): आमिर ख़ान द्वारा निर्मित-दिग्दर्शित यह फ़िल्म एक अद्भुत कलाकृति (मास्टरपीस) है जिसे सिनेमाघर में देखते समय मैं ज़ार-ज़ार रोया था। एक निर्दोष बालक जो डायसलेक्सिया नामक रोग से पीड़ित है, की भावनाओं पर आधारित यह फ़िल्म बाल-मनोविज्ञान पर किसी प्रशंसनीय पाठ्यपुस्तक के समान है। सभी माता-पिताओं एवं शिक्षकों को यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिए। केन्द्रीय भूमिका में बाल कलाकार दर्शील सफ़ारी के असाधारण अभिनय से सजी यह फ़िल्म इक्कीसवीं शताब्दी की होकर भी पुरानी क्लासिक फ़िल्मों की श्रेणी में रखी जा सकती है। इसके गीत 'बम बम बोले' पर मेरे नन्हे पुत्र सौरव ने मंच पर दिल जीत लेने वाला नृत्य प्रस्तुत किया था।

मदर इंडिया (१९५७): सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान ने परतंत्र भारत में साहूकारी शोषण, निजी जीवन की पीड़ा तथा निर्धनता से आजीवन जूझने वाली एक भारतीय कृषक महिला की कथा पर १९४० में 'औरत' नाम से एक फ़िल्म बनाई जिसमें केन्द्रीय भूमिका सरदार अख़्तर नामक अभिनेत्री ने निभाई। सत्रह वर्ष के उपरांत देश तो स्वतंत्र हो चुका था लेकिन भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में कृषकों की अवस्था में कोई अंतर नहीं आया था। अतः महबूब ख़ान ने उसी श्वेत-श्याम फ़िल्म को बड़ा बजट लेकर रंगीन स्वरूप में पुनः बनाया तथा जुझारू एवं आदर्शवादी कृषक महिला की मुख्य भूमिका में नरगिस को लिया। इस क्लासिक फ़िल्म को सभी सिने-विश्लेषकों एवं सिनेमा के विशेषज्ञों द्वारा एक मत से भारतीय सिनेमा के इतिहास की सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में सम्मिलित किया गया है। फ़िल्म में किशोरी से लेकर वृद्धा तक की भूमिका निभाने वाली नरगिस के अतिरिक्त सुनील दत्त एवं अन्य प्रमुख कलाकारों का अभिनय भी अविस्मरणीय ही है। 'औरत' में शोषक साहूकार की भूमिका निभाने वाले कन्हैयालाल ने ही 'मदर इंडिया' में भी वह भूमिका निभाई। संगीत सहित फ़िल्म के सभी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। यह फ़िल्म ऑस्कर पुरस्कार जीतने के अत्यन्त निकट जा पहुँची थी। 

५. हक़ीक़त (१९६४): मेरी दृष्टि में यह भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ युद्ध फ़िल्म है जो १९६२ के भारत-चीन युद्ध से अधिक उन भारतीय सैनिकों की पीड़ा को रूपायित करती है जिससे वे पीछे लौटते समय गुज़रते हैं। उनकी यह पीड़ा युद्ध में हुई पराजय की पीड़ा के समकक्ष ही है। सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद की यह फ़िल्म न केवल बलराज साहनी, धर्मेन्द्र, प्रिया राजवंश, जयंत, लेवी आरोन (बाल कलाकार) तथा सैनिकों की छोटी-छोटी भूमिकाओं में विजय आनंद, संजय, मैक मोहन, सुधीर आदि के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी है वरन मदन मोहन का कालजयी संगीत भी इसे एक कभी न भूली जा सकने वाली अद्भुत फ़िल्म का स्वरूप प्रदान करता है। कैफ़ी आज़मी ने दिल को छू लेने वाले गीत लिखे हैं। और एक गीत - 'हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा' तो न केवल सुनते समय बल्कि परदे पर देखते समय भी दिलोदिमाग़ में एक हूक-सी उठा देता है। मैं इस गीत को हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ गीत मानता हूँ जिसे भूपिंदर, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद एवं मन्ना डे जैसे चार असाधारण गायकों ने मिलकर गाया है। 

६. साहिब बीबी और ग़ुलाम (१९६२): महान बांग्ला उपन्यासकार बिमल मित्र के उपन्यास पर आधारित गुरु दत्त द्वारा निर्मित यह क्लासिक फ़िल्म उन्नीसवीं सदी के बंगाल में ज़मींदारों के रहन-सहन, मानसिकता, अंग्रेज़ी शासन के दौरान गिरती हुई उनकी आर्थिक स्थिति तथा उस युग के बंगाली सामाजिक परिवेश का सजीव चित्र एक मर्मस्पर्शी कथा के द्वारा प्रस्तुत करती है। बिमल मित्र ने जीवन तथा समाज को अत्यन्त निकट से देखा-जाना था, यह बात उनकी किसी भी कृति को पढ़कर जानी जा सकती है। अबरार अल्वी ने फ़िल्म का कुशलता से निर्देशन किया है जबकि मीना कुमारी ने छोटी बहू की भूमिका में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। अन्य प्रमुख भूमिकाओं में गुरु दत्त, रहमान तथा वहीदा रहमान ने भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इस फ़िल्म को देखना ही अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। हेमंत कुमार का संगीत भी हृदय-विजयी है।

. दो बीघा ज़मीन (१९५३): 'मदर इंडिया' की ही भांति यह फ़िल्म भी ग्रामीण भारत में सूदख़ोर साहूकारों द्वारा कृषकों के शोषण का मर्मस्पर्शी चित्रण करती है। 'मदर इंडिया' जहाँ एक स्त्री के साहस की कथा है, वहीं 'दो बीघा ज़मीन' एक कृषक दंपती की हृदय-विदारक दुखद गाथा है। बिमल रॉय द्वारा निर्मित-निर्देशित यह फ़िल्म बलराज साहनी तथा निरूपा रॉय के सजीव अभिनय से सुशोभित है एवं कहीं से भी कोई कल्पित कथा प्रतीत नहीं होती। शैलेन्द्र के लिखे सुंदर गीतों हेतु सलिल चौधरी ने ऐसा सुमधुर संगीत दिया है कि वे गीत कालजयी हो गए हैं तथा संगीत-प्रेमियों द्वारा आज भी बार-बार सुने जाते हैं।

. मुग़ल-ए-आज़म (१९६०): निर्माता-निर्देशक करीम आसिफ़ की यह फ़िल्म निर्विवाद रूप से अब तक की सबसे भव्य हिन्दी फ़िल्म है। सलीम-अनारकली की कल्पित गाथा पर आधारित इस फ़िल्म में न केवल भव्यता है वरन नौशाद का अमर संगीत भी है तथा एक मन को झकझोर देने वाली कहानी है। प्रमुख भूमिकाओं में पृथ्वी राज कपूर, दिलीप कुमार तथा मधुबाला के अभिनय से सजी यह फ़िल्म बार-बार देखी जा सकती है क्योंकि इसे देखना अपने आप में ही एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव है। मनोरंजन से भरपूर मूल फ़िल्म के कुछ दृश्य रंगीन थे लेकिन सन २००४ में सम्पूर्ण फ़िल्म को ही रंगीन बनाकर पुनः प्रदर्शित किया गया और नवीन रंगीन संस्करण भी मूल श्वेत-श्याम फ़िल्म की भांति ही अत्यन्त सफल रहा। 

९. सत्यकाम (१९६९): निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी इस अत्यंत यथार्थपरक फ़िल्म में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे पाखंडी समाज के बदसूरत चेहरे को नग्न कर दिया और बता दिया कि आज की दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है ईमानदारी और शराफ़त। बेईमानों से भरी व्यवस्था में कितना मुश्किल होता है सच्चा और ईमानदार होना, इसे बताती है पत्थर जैसी चोट करने वाली यह फ़िल्म। फ़िल्म इस सूक्ष्म तथ्य को भी निरूपित करती है कि संसार से कटकर आदर्शवादी बातें करना सरल है, संसार के मध्य रहकर दैनंदिन कष्टों एवं समस्याओं से जूझते हुए आदर्शों पर चलना अत्यंत कठिन। और जो इस कठिन काम को बिना अपने पथ से तनिक भी विचलित हुए करे, सत्य का उद्घोष करने का वास्तविक अधिकार उसी को है। केन्द्रीय भूमिका में धर्मेन्द्र ने प्राण फूंक दिए हैं जबकि अन्य भूमिकाओं में शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, सारिका (बाल कलाकार) एवं अशोक कुमार ने भी अत्यन्त प्रभावी अभिनय किया है। सत्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने वाले पथिक की कथा दुखांत ही हो सकती थी, दुखांत ही है। तथापि अंधकार में फूटने वाली एक किरण की भांति अंत में आशा का संकेत भी है। 

१०. काग़ज़ के फूल (१९): गुरु दत्त द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म है यह जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही थी लेकिन आज इसे एक असाधारण फ़िल्म माना जाता है। फ़िल्म-संसार की ही पृष्ठभूमि पर आधारित यह फ़िल्म बिना किसी लागलपेट के देश एवं काल के पार की इस सच्चाई को बताती है कि समाज गुणों का बखान चाहे जितना कर ले, वास्तव में सफलता को ही पूजता है। भौतिक रूप से असफल व्यक्ति चाहे कितने ही गुणी हों, समाज उनके साथ निर्ममता की सीमा तक जाने वाली क्रूरता से ही पेश आता है। जो सफल है, सब उसके हैं और जो असफल है, उसका कोई नहीं। ऐसा लगता है कि नाकामयाब इंसान के लिए इस दुनिया में कोई जगह ही नहीं है। काग़ज़ के सुंदर मगर बिना ख़ुशबू वाले फूलों से भरी है यह दुनिया। कैफ़ी आज़मी के यथार्थपरक गीतों को सचिन देव बर्मन ने सुंदर संगीत से सजाया है। श्वेत-श्याम फ़िल्म में भी वी.के. मूर्ति का छायांकन अपनी अमिट छाप छोड़ता है तथा तत्कालीन बम्बई में चलने वाली स्टूडियो-व्यवस्था के पतन को प्रभावी ढंग से अंकित करता है।  केन्द्रीय भूमिका में गुरु दत्त ने दिल की गहराई में उतर जाने वाला अभिनय किया है जबकि नायिका के रूप में वहीदा रहमान भी पीछे नहीं रही हैं। यह महान फ़िल्म एक ऐसे सुंदर गीत की भांति है जिसे ठीक से गाया नहीं जा सका, एक ऐसी सुंदर मूरत की भांति है जो अनगढ़ ही रह गई, एक ऐसी सुंदर कथा की भांति है जिसके कुछ अंश अनकहे ही रह गए। अपने अंतिम क्षणों में रुला देने वाली इस दर्दभरी फ़िल्म की तुलना मोना लिसा के उस महान चित्र से की जा सकती है जिसमें स्त्री की भौहें ही नहीं हैं।

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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

मानवीय मनःस्थितियों, संबंधों एवं भावनाओं से ओतप्रोत हृदयस्पर्शी कथा

आज आठ दिसम्बर है। आज भारतीय रजतपट के दो अत्यन्त चमकीले सितारों का जन्मदिन है। एक हैं धर्मेन्द्र और दूसरी हैं शर्मिला टैगोर (या ठाकुर)। धर्मेन्द्र आज अट्ठासी वर्ष के हो गए हैं जबकि शर्मिला टैगोर ने आज अपनी आयु के उनयासी वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। इन दोनों ही सदाबहार सितारों को जन्मदिवस की बधाई देते हुए मैं एक ऐसी फ़िल्म के विषय में बात करने जा रहा हूँ जिसमें इन दोनों ने प्रमुख भूमिकाएं निबाही थीं। एक साहित्यिक कृति पर आधारित यह सुंदर फ़िल्म है - 'देवर' जो सन उन्नीस सौ छियासठ में प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म का कथानक सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कृति 'ना' पर आधारित है। फ़िल्म का नाम 'देवर' इसलिए रखा गया है क्योंकि फ़िल्म में शर्मिला टैगोर धर्मेन्द्र की भाभी बनती हैं और धर्मेंन्द्र शर्मिला के देवर। 

फ़िल्म दो बच्चों के निर्दोष प्रेम से आरम्भ होती है ‌‌- एक बालक है तथा दूसरी बालिका। बालक का बालपन का नाम 'भोला' है जबकि बालिका का 'भंवरिया'। परिस्थितियां ऐसी करवट लेती हैं कि भोला और भंवरिया को बिछुड़ना पड़ता है। दोनों पृथक्-पृथक् परिवेश में बड़े होते हैं। 'भंवरिया' (शर्मिला टैगोर) अब 'मधुमति' के नाम से जानी जाती है जबकि 'भोला' (धर्मेन्द्र) अब अपने वास्तविक नाम 'शंकर' के नाम से पुकारा जाता है। वयस्क हो चुके शंकर का अब सबसे अधिक लगाव है तो अपने चचेरे भाई सुरेश (देवेन वर्मा) से। दोनों भाई से कहीं अधिक मित्र हैं तथा अपने मन की बात एकदूसरे से बांटते हैं। यह एक पारम्परिक ज़मींदार परिवार है और धन-सम्पदा से परिपूर्ण है। सुरेश सुशिक्षित है तथा साहित्य में रुचि रखता है जबकि शंकर ने अधिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है एवं पढ़ने-लिखने से अधिक रुचि शिकार में ली है। सुरेश के हाथ में पुस्तक शोभा पाती है तो शंकर के हाथ में बंदूक। 

लड़के बड़े हो गए हैं तो उनके विवाह की भी बात चलने लगती है। दोनों के लिए अलग-अलग जगह से रिश्ते आते हैं। अब नये ज़माने के लड़के हैं तो उनके मन में विवाह-संबंध पक्के होने से पहले कन्याओं को देखने की भी इच्छा होती है। पर उनके ख़ानदान में न ऐसा रिवाज है और न ही इसकी इजाज़त है। लेकिन शंकर के पिता दीवान साहब (सप्रू) उन्हें एकदूसरे की होने वाली वधू को देखने जाने की अनुमति दे देते हैं। परिणामतः शंकर 'शांता' (शशिकला) को देखने उसके घर जाता है जिसका रिश्ता सुरेश के लिए आया है जबकि सुरेश मधुमति को देखने जाता है जिसका रिश्ता शंकर के लिए आया है। कम शिक्षित होने पर भी शंकर सुशिक्षिता शांता से इस ढंग से बात करता है कि वह उसे शिक्षित एवं साहित्य-प्रेमी समझ लेती है। सुन्दर, सुशील और साहित्यिक अभिरुचि से सुसंपन्न शांता के लिए अपने मन में बड़ी अच्छी धारणा बनाकर शंकर लौटता है एवं अपने सखा जैसे भाई सुरेश को शुभ समाचार देता है कि शांता प्रत्येक दृष्टि से उसके योग्य है जिसके साथ उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुख से बीतेगा। लेकिन . . .

लेकिन दूसरी ओर सुरेश जब शंकर की ओर से मधुमति को देखने उसके घर जाता है एवं उससे मिलता है तो उसका मन बहक जाता है। मधुमति का रूप-सौंदर्य उसे मोहित कर लेता है। नतीजा यह होता है कि वह आया तो था अपने चचेरे भाई के लिए उसे पसंद करने और पसंद उसे अपने लिए कर बैठता है। पर अपने मन की यह बात वह किसी को बता नहीं सकता। शंकर से वह यही कहता है कि उसे मधुमति कोई विशेष पसंद नहीं आई। सरल स्वभाव का शंकर इस बात की परवाह नहीं करता एवं यही तय करता है कि यदि उसके माता-पिता इस संबंध हेतु स्वीकृति दे देते हैं तो वह विवाह कर लेगा। कन्या (सुरेश के अनुसार) कोई विशेष अच्छी नहीं तो वह भी तो अल्प-शिक्षित है। निभा लेगा आजीवन उसके साथ। पर यह तो शंकर की सोच है। सुरेश के मन में तो तूफ़ान उठा हुआ है। क्या करे वह ? कैसे मधुमति को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करे ?

सुरेश का बहका हुआ मन षड्यंत्र रचने लगता है। उसे न केवल मधुमति का विवाह-संबंध शंकर के साथ होने से रोकना है बल्कि उस संबंध को अपने लिए तय करवाना है। काम बहुत मुश्किल है। इसलिए साज़िश भी उसे बड़ी पेचीदा करनी है। वह दो विषबुझी चिट्ठियां (poison pen letters) संबंधित कन्याओं के परिवारों को लिखता है। इन चिट्ठियों में वह अपना तथा शंकर का ऐसा चरित्रहनन करता है कि जो विवाह-संबंध होने जा रहे थे, वे नहीं हो पाते। किन्तु शांता तथा उसका परिवार शंकर से ऐसे प्रभावित हैं कि वे शांता का विवाह शंकर से करने पर सहमत हो जाते हैं। दूसरी ओर जब शंकर के पिता मधुमति के परिवार की प्रतिष्ठा के प्रति चिंतित रहते हैं तो सुरेश अपने आप को किसी बलिदानी की भांति प्रस्तुत करते हुए मधुमति से विवाह करने हेतु सहमति दे देता है। इस तरह दोनों विवाह-संबंध उलट जाते हैं और शंकर का विवाह शांता से जबकि मधुमति का विवाह सुरेश से हो जाता है। और यही तो सुरेश चाहता था।

विवाह की प्रथम रात्रि को ही शांता को अपने पति शंकर की सच्चाई पता चलती है कि वह अल्प-शिक्षित है तो उसे ऐसा लगता है कि उसे तथा उसके परिवार को बहुत बड़ा धोखा दिया गया है। इसका परिणाम यह होता है कि  वैवाहिक जीवन आरंभ होने से पूर्व ही पति-पत्नी के संबंधों में दरार आ जाती है जो विभिन्न घटनाओं के साथ विस्तृत ही होती चली जाती है। विषबुझी चिट्ठियों की बात भी सभी को पता लगती है तो जहाँ शांता के परिवार को लिखी गई चिट्ठी को तो सुरेश नष्ट करने में सफल हो जाता है, वहीं दूसरी चिट्ठी को मधुमति के बड़े भाई (तरुण बोस) अपने पास संभालकर रख लेते हैं तथा सत्य का पता लगाने में जुट जाते हैं क्योंकि वे एक हस्तलिपि विशेषज्ञ (handwriting expert) हैं। पर शांता, उसके पीहर वाले तथा शंकर के परिवार वाले शंकर को ही दोषी समझते हैं जिसने शांता से विवाह करने की ख़ातिर वे झूठी चिट्ठियां लिखी थीं। शंकर का जीना दुश्वार हो जाता है। अब अपने घर में अगर उसे हमदर्दी मिलती है तो सिर्फ़ अपनी भाभी मधुमति से। एक दिन जब वह अचानक जान जाता है कि मधुमति ही उसके बचपन का प्रेम भंवरिया है तो उसका रोम-रोम पीड़ा से भर जाता है पर अपने नाम को चरितार्थ करते हुए वह इस गरल को चुपचाप पी जाता है और इस रहस्य को जीवन भर अपने मन में छुपाए रखने का निर्णय ले लेता है। 

दूसरी ओर सुरेश मधुमति के साथ वैसा ही सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहा है जैसे की उसे अभिलाषा थी। पर जब मधुमति के भाई यह सच्चाई जान जाते हैं कि विषबुझी झूठी चिट्ठियां वास्तव में सुरेश ने लिखी थीं, शंकर ने नहीं तो वे अनजाने में ही यह बात शंकर को बता बैठते हैं। अब शंकर इस बाबत सुरेश से जवाबतलबी करता है। सुरेश उससे वह चिट्ठी छीनने की कोशिश करता है। दोनों भाइयों में रार होती है और अनजाने में ही सुरेश मारा जाता है। शंकर उसकी हत्या के आरोप में गिरफ़्तार हो जाता है। अनजाने में हुई उस हत्या की चश्मदीद गवाह और कोई नहीं, शंकर की भाभी मधुमति ही है जो अपने देवर को अपने सुहाग को मिटाने वाले अपराधी के रूप में देखती है तथा अदालत में उसके ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए तैयार हो जाती है। अब जबकि सभी लोग उन चिट्ठियों की सच्चाई तथा सुरेश के षड्यंत्र को जान चुके हैं तो वे मधुमति को गवाही देने से रोकने का प्रयास करते हैं पर मधुमति किसी की नहीं सुनती। फ़िल्म अत्यन्त भावुक ढंग से समाप्त होती है।

न केवल ताराशंकर बंद्योपाध्याय जी की लिखी हुई कथा (ना) बहुत अच्छी है, बल्कि निर्देशक मोहन सेगल ने इसे बहुत ही रोचक ढंग से रूपहले परदे पर उतारा है। आरंभ से अंत तक फ़िल्म एकदम चुस्त है तथा दर्शकों को घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देती। दर्शक श्वास रोके विभिन्न घटनाओं को देखता चला जाता है एवं अंत में फ़िल्म उसके हृदय को गहनता से स्पर्श कर लेती है। धर्मेन्द्र तथा शर्मिला टैगोर ने तो बेहतरीन अभिनय किया ही है; शशिकला, देवेन वर्मा एवं (बाल कलाकारों सहित) अन्य सहायक कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक दिये हैं। फ़िल्म का छायांकन एवं अन्य तकनीकी पक्ष भी सराहनीय हैं। सत्तावन वर्ष पुरानी यह श्वेत-श्याम फ़िल्म आज भी देखी जाए तो किसी नवीन फ़िल्म की भांति ही प्रतीत होती है। 

संगीतकार रोशन (फ़िल्म स्टार हृतिक रोशन के दादा) ने 'देवर' में बेहतरीन संगीत दिया है जबकि हृदयस्पर्शी गीत लिखे हैं आनंद बक्शी ने। तीन गीत तो कालजयी हैं - लता मंगेशकर का गाया हुआ 'दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है' तथा मुकेश के गाए हुए दो गीत - 'आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का' व 'बहारों ने मेरा चमन लूटकर खिज़ां को ये इल्ज़ाम क्यूं दे दिया है'। ये ऐसे अमर गीत हैं जो दशकों से सुने जा रहे हैं तथा आने वाले समय में भी सुने जाते रहेंगे।

'देवर' हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की एक अनमोल धरोहर है। सौभाग्य से यह अवलोकनार्थ सुगमता से उपलब्ध भी  है। सभी हिंदी सिनेमा के प्रेमी इस श्रेष्ठ फ़िल्म को देखकर अपने मन में सदा के लिए संजो सकते हैं। 

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मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

देश-प्रेम : तब और अब

मैंने १९८८ में अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण करके उच्च शिक्षा हेतु कोलकाता (तब वह नगर कलकत्ता कहलाता था) प्रस्थान किया एवं चार्टर्ड लेखापालन के पाठ्यक्रम की आवश्यकता के अनुरूप चार्टर्ड लेखापालों की एक संस्था में प्रवेश प्राप्त किया। राजस्थान के सांभर झील नामक एक छोटे-से कस्बे से आया मैं महानगरीय युवकों (जिनका सान्निध्य मुझे उस संस्था से संबद्ध होने के उपरांत प्राप्त हुआ) हेतु एक परिहास का विषय बन गया। इसका एक कारण तो मेरा शुद्ध हिन्दी बोलना था, साथ ही कुछ अन्य कारण भी थे (अनेक महानगरीय युवक छोटे स्थानों से आने वाले छात्रों को हीनता की दृष्टि से भी देखते थे)। किंतु जिस कारण ने मुझे आज साढ़े तीन दशकों के उपरांत इस लेख के सृजन हेतु प्रेरित किया है, वह है उनके द्वारा किया जाने वाला देश-प्रेम जैसे आदर्श जीवन मूल्यों का उपहास एवं तिरस्कार।

मैं (न जाने कैसे) बालपन से ही आदर्शवादी बन गया था एवं महात्मा गांधी की भांति सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप मानने लगा था। इसके अतिरिक्त मैंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले एवं प्राणाहुति तक देने वाले अनेक देशभक्तों की जीवनियां पढ़ी थीं। चंद्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, बाघा जतीन, सूर्य सेन, कित्तूर की रानी चेन्नम्मा  आदि मातृभूमि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले देशभक्तों की जीवनियां पढ़कर न जाने कब मेरे मन में भी देश-प्रेम के बीज अंकुरित हो गए तथा मैं भी देश-प्रेम को एक बहुत उच्च आदर्श के रूप में अपने व्यक्तित्व में स्थापित कर बैठा। एकांत में जब भी मैं इन अमर देश-प्रेमियों की जीवन-कथाओं को (पुनः-पुनः) पढ़ता था तो कई बार मेरे नयन सजल हो उठते थे (ऐसा अब भी हो जाता है)। अपने विद्यालय तथा महाविद्यालय के जीवन में भी मैं अपने साथियों से इस संदर्भ में वार्ता किया करता था तो पाता था कि वे मेरी बातों को काटते तो नहीं थी किन्तु उनमें गंभीर रुचि भी नहीं लेते थे। इसका कारण मैंने यही समझा कि वे मेरी तुलना में कहीं शीघ्र ही परिपक्व एवं व्यावहारिक हो गए थे।

पर आगे के वर्षों में अपने कोलकाता प्रवास तथा (विभिन्न लेखा-परीक्षण संबंधी कार्यों हेतु) बाह्य स्थलों के लंबे-लंबे दौरों के मध्य जब मैंने ऐसी ही वार्ताएं अपने उन साथियों से कीं जो महानगरीय एवं साधन-संपन्न परिवेश में पले थे एवं अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा-प्राप्त थे तो मुझे अधिकांश साथी-विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं ने पीड़ा-मिश्रित आश्चर्य से भर दिया। मेरे अधिकांश साथी-छात्र देश-प्रेम ही नहीं वरन अन्य आदर्शों एवं जीवन मूल्यों को भी उपहास की वस्तु ही समझते थे तथा (मेरे जैसा) आदर्शवादी एवं देश-प्रेमी युवक उनकी दृष्टि में मूर्ख के अतिरिक्त कुछ नहीं था। देश और समाज के विषय में सोचना भी उन युवाओं के बहुमत की दृष्टि में मूर्खता ही थी। और सत्य, न्याय, परोपकार एवं अन्य सद्गुण पुस्तकीय शब्द मात्र थे। उनके लिए जीवन का अर्थ मौज-मस्ती तथा अधिकाधिक धनार्जन ही था, और कुछ नहीं।  उस साढ़े तीन वर्षों की अवधि में तथा तदोपरांत अपने तीन दशक से अधिक लम्बे करियर में मैंने प्रायः यही जाना कि इस संसार का सबसे बड़ा सत्य है निहित स्वार्थ जिसके समक्ष समस्त जीवन मूल्य एवं सतोगुण गौण प्रतीत होते हैं। निज हित से हटकर कुछ और सोचने-देखने-चाहने वाला व्यक्ति सांसारिकता में रचे-बसे लोगों की राय में एक भावुक-मूर्ख (इमोशनल फ़ूल) ही होता है। रही बात देश-प्रेम की तो जिन्हें स्वतंत्रता बिना उसका मूल्य चुकाए तथा बिना उसके लिए कोई त्याग किए मिल गई, वे देश-प्रेम (और वीर बलिदानियों) का मोल क्या जानें ? 

सन २००६ में भारत के गणतंत्र दिवस के दिन एक हिन्दी फ़िल्म प्रदर्शित हुई - रंग दे बसंती। इसके कथानक में भी फ़िल्मकार (राकेश ओमप्रकाश मेहरा) ने कुछ ऐसे ही युवा दिखाए हैं जो मौज-मस्ती के अतिरिक्त जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य नहीं समझते। देश-प्रेम जैसी बातें और देश की स्वाधीनतार्थ अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले अमर शहीदों की कथाएं तो उनके लिए मानो किसी अपरिचित भाषा की उक्तियां हैं। ऐसे में एक विदेशी युवती अपने स्वर्गीय पिता की दैनंदिनी (डायरी) के आधार पर मातृभूमि के हित अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले कतिपय क्रांतिकारियों पर एक वृत्तचित्र बनाने हेतु आती है। उसके पिता एक अंग्रेज़ अधिकारी थे जो माँ भारती की दासता की बेड़ियां काटने के लिए हँसते-हँसते फाँसी पर झूल जाने वाले क्रांतिकारियों के निकट सम्पर्क में रहकर उनसे बहुत प्रभावित हुए थे तथा उनकी गाथा ही उन्होंने लेखबद्ध की थी (ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी वास्तव में थे जो देशभक्तों के अदम्य साहस, मातृभूमि पर मर-मिटने की उनकी भावना तथा उनके उदात्त विचारों से अत्यन्त प्रभावित हुए थे)। 
यह अंग्रेज़ युवती अपनी एक भारतीय सखी की सहायता से अपना वृत्तचित्र बनाने हेतु क्रांतिकारियों - चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ां तथा राज गुरु की भूमिकाओं हेतु इन्हीं खिलंदड़े युवकों को चुनती है जो पहले तो उसकी हँसी ही उडाते हैं किन्तु एक बार इन भूमिकाओं को निभाना स्वीकार कर लेने के उपरांत जब वे उन महान देशभक्तों के चरित्रों को समझते हैं तो उनके अपने विचारों में भी परिवर्तन आता है। दुर्गा भाभी की भूमिका हेतु वह अंग्रेज़ युवती अपनी भारतीय सखी को ही चुनती है जबकि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की भूमिका हेतु एक ऐसे युवक को चुना जाता है जो इन युवकों के दल का नहीं है तथा जिसका इनसे सदा ही मतभेद बना रहता है। सब कुछ ठीकठाक हो रहा होता है कि एक दुखद घटना इन्हें बताती है कि स्वाधीन भारत में भी स्थितियां पराधीन भारत से मिलती-जुलती-सी ही हैं। और तब जिन क्रांतिकारियों का ये केवल अभिनय ही कर रहे थे, उन्हीं के जैसे भाव इनके मनोमस्तिष्क में उमड़ने लगते हैं। फ़िल्म का दुखद अंत होता है। दुखद ही हो सकता था। पर दर्शकों को तथा विशेषतः उन युवाओं को जिनके लिए खाना-पीना-मौज उड़ाना ही सब कुछ है, यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने के लिए दे जाती है।

कुछ कमियों के बावजूद 'रंग दे बसंती' में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे साधारण फ़िल्मों से अलग करता है। फ़िल्म में अभिनय, गीत-संगीत तथा तकनीकी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। पर जो सबसे बड़ी बात इसमें है, वह यह है कि फ़िल्मकार यह मानता है कि वतन पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले देशभक्तों में जो वतनपरस्ती का जज़्बा मौजूद था, वह आज की पीढ़ी में भी हो सकता है। किसी की भी आँखें कभी भी खुल सकती हैं। इस फ़िल्म में उस युग के क्रांतिकारियों तथा इस युग के (देशभक्त बन चुके) युवकों के मध्य जो समानांतर रेखाएं खींची गई हैं, वे अद्भुत हैं। साथ ही बिस्मिल और अशफ़ाक़ का भावनात्मक जुड़ाव यह बताता है कि वे देश-प्रेमी आपस में भी उतना ही प्रेम करते थे एवं धार्मिक विभाजन से ऊपर उठ चुके थे। यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि मानवता का भाव देश-प्रेम से भी उच्च होता है, तथापि यदि केवल देश-प्रेम की ही बात की जाए तो सत्य यही है कि अपने देश को सुधारने तथा उच्चताओं पर ले जाने का दायित्व किसी अन्य का नहीं हमारा ही है। क्यों ? इसलिए कि यह देश हमारा है। अमर बलिदानी तो तूफ़ान से कश्ती निकाल कर ले आए, अब इस देश को सम्भाल कर रखना हमारी ही ज़िम्मेदारी है। देश तथा व्यवस्था में बहुत-सी कमियां हैं, माना। पर जैसा कि 'रंग दे बसंती' के ही एक पात्र का संवाद है - 'कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता, उसे परफ़ेक्ट बनाना पड़ता है।' 

तो आइए, आज़ादी का और इसके लिए मर-मिटने वाले अमर शहीदों की शहादत का मोल समझें और अपनी आने वाली नस्ल को भी समझाएं।

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मंगलवार, 5 सितंबर 2023

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के . . .

प्रति वर्ष पाँच सितम्बर को भारत के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। हम शिक्षक तथा गुरू शब्दों का प्रयोग प्रायः पर्यायवाची के रूप में करते हैं। वस्तुतः इनमें भिन्नता है। प्रत्येक गुरू निस्संदेह शिक्षक होता है क्योंकि उससे शिष्य को निश्चय ही शिक्षा प्राप्त होती है। किन्तु प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता, हो भी नहीं सकता क्योंकि गुरू शब्द की परिधि शिक्षण-कार्य से कहीं अधिक है। संस्कृत शब्द 'गुरू' का अर्थ है वह जो आपके भीतर के अंधकार को तिरोहित कर दे। अतः गुरू वही जो अपने शिष्य (अथवा शिष्या) को अंधकार से प्रकाश की दिशा में ले जाए, उसके मन एवं जीवन में सद्गुणों का आलोक विकीर्ण कर दे। यह कार्य प्रत्येक शिक्षक नहीं कर सकता - विशेषतः वर्तमान युग के वेतनभोगी (अथवा शुल्क लेकर सेवाएं देने वाले) शिक्षक तो नहीं ही कर सकते। शिष्य के मन को वही शिक्षक प्रकाशित कर सकता है जिसका अपना अंतस प्रकाशित हो तथा जो अपने शिक्षण-कृत्य के प्रति उच्चतम स्तर तक निष्ठावान हो। 

ऐसे एक शिक्षक मुझे भी मेरे विद्यार्थी जीवन में मिले। नाम था - सुरेन्द्र कुमार मिश्र। महान कवि हरिवंशराय बच्चन जी की ही भांति वे अध्यापक अंग्रेज़ी के थे किन्तु हिन्दी का भी सम्यक ज्ञान रखते थे (एवं हिन्दी में कविता भी करते थे)। हिन्दी से उनकी आत्मीयता ऐसी थी कि अंग्रेज़ी के अध्यापक होते हुए भी हस्ताक्षर सदैव हिन्दी में ही करते थे एवं अपना पूरा नाम सुरेन्द्र कुमार 'मिश्र' ही लिखते थे (मिश्रा नहीं)। वैसे सभी लोग बोलचाल में उन्हें 'मिश्रा जी' कहकर ही सम्बोधित किया करते थे।

मैंने छठी कक्षा से अंग्रेज़ी भाषा को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत एक विषय के रूप में पढ़ना आरम्भ किया। भाषा के प्रति मेरा लगाव कुछ ऐसा था कि मैंने सातवीं कक्षा में २०० में से १६९ तथा आठवीं कक्षा में २०० में से १८९ अंक प्राप्त किए थे। किन्तु मेरा भाषा ज्ञान अशुद्ध भी था एवं अपूर्ण भी। कारण ? पढ़ाने वाले अध्यापकों को स्वयं ही अंग्रेज़ी भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं था। और विद्यार्थी तो वही पढ़ते एवं समझते जो पढ़ाया जाता (राजस्थान के सरकारी विद्यालयों मे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का अंग्रेज़ी ज्ञान दुर्बल होने का यही कारण था)। इतना अवश्य है कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तो सुदर्शनसिंह जी नामक एक अध्यापक महोदय ने अंग्रेज़ी के अक्षरों को सीधा, गोल एवं समान बनाने की सीख देकर मेरी लिखावट को सुन्दर बना दिया था। 

नौवीं कक्षा में मेरा भाग्योदय हुआ जब मिश्रा जी मुझे अपने अंग्रेज़ी शिक्षक के रूप में मिले। तृतीय श्रेणी के अध्यापक होकर भी वे नौवीं एवं दसवीं कक्षाओं को पढ़ाया करते थे (जबकि उनसे उच्च श्रेणी वाले अध्यापक अंग्रेज़ी पढ़ाने में सक्षम नहीं समझे जाते थे)। हमारे अंग्रेज़ी विषय के पाठ्यक्रम में दो पुस्तकें होती थीं - कोर्स रीडर एवं रैपिड रीडर। प्रायः जिन अध्यापकों को अंग्रेज़ी विषय पढ़ाने के निमित्त दिया जाता था, वे रैपिड रीडर को पढ़ाने में ही रुचि लेते थे क्योंकि वह सरल होती थी, अतः उसे सुगमतापूर्वक पढ़ाते हुए उसका पाठ्यक्रम शीघ्रता से पूर्ण कराया जा सकता था। किन्तु मिश्रा जी एक अपवाद थे जो कि अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान एवं परीक्षा में अंक प्राप्त करने दोनों ही दृष्टियों से कोर्स रीडर की महत्ता को समझते थे। इसीलिए वे कोर्स रीडर को पढ़ाने में विशेष रुचि लिया करते थे। पाठ को पढ़ाने के उपरांत वे उसके साथ दिए गए अभ्यास प्रश्नों (exercises) को भी भलीभांति समझाया करते थे एवं उन प्रश्नों का बारम्बार इस प्रकार अभ्यास करवाया करते थे जिस प्रकार कि सेना में रंगरूटों का व्यायाम (drill) होता है। अंग्रेज़ी भाषा के व्याकरण संबंधी वे प्रश्न भाषा-संरचना (structures) शीर्षक के अंतर्गत दिए जाते थे। इस प्रकार मिश्रा जी व्याकरण (grammar) के ज्ञान को शब्द-भंडार (vocabulary) के ज्ञान के समतुल्य ही महत्व दिया करते थे। मैंने उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को कुछ इस प्रकार समझा कि यदि अंग्रेज़ी भाषा को मानव देह की उपमा दी जाए तो उसे स्थूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. Structures जो कि मानव कंकाल की भांति होता है और जिस पर शेष शरीर को अवस्थित रखने का दायित्व होता है, 2. Vocabulary जो कि देह का अन्य भाग - मांस, रक्त, मज्जा, त्वचा आदि - होता है जो कि कंकाल पर मढ़ा होता है। Vocabulary का ज्ञान अथाह सागर की भांति होता है जिसे किसी भी सीमा तक विस्तार दिया जा सकता है किन्तु उसकी उपयोगिता तभी है जबकि उसे धारण करने हेतु Structures रूपी कंकाल दृढ़ता से उपस्थित हो। अनेक वर्षों के उपरांत जब मैंने नौकरी की और मेरे उच्चाधिकारी ने अपने पुत्र को अंग्रेज़ी पढ़ाने हेतु मुझसे कहा तो मैंने यही उपमा देते हुए उसे पढ़ाया। यदि मैंने Structures के महत्व को उचित रूप में पहचाना तो इसका श्रेय पूर्णरूपेण मिश्रा जी को ही है। 

यह मिश्रा जी के शिक्षण का ही परिणाम था कि मैंने स्नातक तक की शिक्षा हिन्दी माध्यम से पूर्ण करने के उपरान्त आगे के वर्षों में जब विभिन्न परीक्षाएं (चार्टर्ड लेखापालन तथा सिविल सेवा संबंधी परीक्षाएं)  अंग्रेज़ी माध्यम से दीं तो मुझे कोई भी असुविधा नहीं हुई। मैं तो तब इस बात में अपने सहपाठियों के समक्ष गौरवान्वित अनुभव करता था कि वे अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा लेने के उपरान्त भी अंग्रेज़ी लिखने में अशुद्धियां करते थे जबकि मैं (चाहे धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोल नहीं सकता था) हिन्दी माध्यम से पढ़ाई की होने पर भी अंग्रेज़ी भाषा का उनसे बेहतर ज्ञान रखता था एवं मेरे अंग्रेज़ी लेखन में पूर्ण परिशुद्धता होती थी। और इसके लिए मैंने प्रतिपल स्वयं को मिश्रा जी के प्रति आभारी पाया।

मिश्रा जी के व्यक्तित्व में जो सबसे महत्वपूर्ण गुण मुझे दृष्टिगोचर हुआ, वह यह था कि वे एक बहुत अच्छे विद्यार्थी थे। वे ज्ञानार्जन का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे एवं सदैव अपने ज्ञान को परिष्कृत करने में एवं अपनी त्रुटियों को सुधारने में रत रहते थे। उनके इस गुण ने मुझे बहुत प्रभावित किया तथा इससे उनके एक आदर्श शिक्षक होने का रहस्य भी मैं जान गया। एक आदर्श शिक्षक वही बन सकता है जो पहले एक आदर्श विद्यार्थी हो। और एक आदर्श विद्यार्थी वही होता है जो आजीवन एक विद्यार्थी बना रहे तथा अपने ज्ञान में निरंतर सुधार ही जिसका अभीष्ट रहे। मिश्रा जी ऐसे ही थे, इसीलिए वे एक आदर्श शिक्षक बने। जब भी मैंने कभी उनकी किसी त्रुटि की ओर उनका ध्यानाकर्षण किया, उन्होंने मेरे द्वारा इंगित उस तथ्य का परीक्षण किया एवं त्रुटि की पुष्टि हो जाने पर उसे बिना किसी अवरोध (तथा अहंभाव) के सुधारा। अपनी त्रुटि को सहज भाव से स्वीकारना तथा उसे अविलम्ब सुधारना उनके व्यक्तित्व में समाहित एक दुर्लभ गुण था। उनके इस गुण को मैंने भी अपने व्यक्तित्व में यथावत उतारा है। निरंतर सुधार का मंत्र मैंने उनसे ही सीखा है।

मिश्रा जी की कर्तव्यनिष्ठा इतनी थी कि वे अनेक विद्यार्थियों को नि:शुल्क पढ़ाया करते थे एवं ऐसे विद्यार्थियों को वे केवल अंग्रेज़ी ही नहीं, हिन्दी एवं संस्कृत भी पढ़ाते थे तथा उन विषयों की परीक्षाओं की तैयारी भी सम्पूर्ण समर्पण के साथ करवाया करते थे। लक्ष्य यही रहता था कि कोई भी परीक्षार्थी किसी भी विषय की परीक्षा में अनुत्तीर्ण न हो। और इस कार्य को वे परीक्षाओं के समय में सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ किया करते थे। ऐसा विरला शिक्षक मैंने दूसरा नहीं देखा।

अपनी जन्मजात मेधा का ज्ञान मुझे बिना किसी के कराए स्वतः ही अपनी बाल्यावस्था में ही हो गया था। तथापि मेरी वास्तविक क्षमताओं का सम्पूर्ण ज्ञान मुझे मिश्रा जी ने ही करवाया। उन्होंने कुछ ही दिनों में मेरी प्रतिभा को भलीभांति पहचान लिया था। तदोपरांत स्थिति यह रही कि मुझे स्वयं अपनी क्षमताओं पर इतना विश्वास नहीं था जितना मिश्रा जी को हो गया था। उनके इसी विश्वास के आसरे मैं आगे बढ़ता गया। परीक्षक उत्तर-पुस्तिकाओं में केवल अंक ही देते हैं, कुछ लिखते नहीं किन्तु मिश्रा जी ने नौवीं कक्षा की अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरी अंग्रेज़ी की उत्तर-पुस्तिका में मेरे द्वारा दिए गए अंतिम उत्तर के नीचे लिखा, ‘I am very glad to see your efforts’ (मैं आपके प्रयासों को देखकर बहुत प्रसन्न हूँ)। उनके ये शब्द मेरे लिए किसी भी अन्य पुरस्कार से अधिक उन्नत पुरस्कार थे। वे इसी प्रकार उत्तरोत्तर मेरा मनोबल एवं आत्मविश्वास बढ़ाते रहे। जब मैंने दसवीं कक्षा की परीक्षा में सम्पूर्ण बोर्ड में द्वितीय स्थान प्राप्त किया तो (मुझ सहित) सभी आश्चर्यचकित थे किन्तु मिश्रा जी को केवल प्रसन्नता थी, आश्चर्य नहीं मानो वे पहले से ही जानते थे कि उनका शिष्य ऐसी कोई उपलब्धि अवश्य प्राप्त करेगा। हायर सैकेंडरी की परीक्षा में मैंने सम्पूर्ण बोर्ड में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया एवं अंग्रेज़ी विषय में पचास में से उनचास अंक प्राप्त किये तो सभी के मुंह खुले-के-खुले रह गए। कोई कुछ भी कहता, मैं जानता था कि तब भी श्रेय के अधिकारी मिश्रा जी ही थे, कोई अन्य नहीं।

मिश्रा जी के स्थानांतरण के कारण उनसे मेरा सम्पर्क कम हो गया किन्तु छुट्टियों में जब वे आया करते थे (उन्होंने अपना घर तथा परिवार स्थानांतरित नहीं किया था) तो मैं विभिन्न विषयों पर उनसे बातचीत करने उनके घर पर पहुंच जाया करता था। वैसे भी उनके पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा पुत्र (अखिलेश) मेरा बचपन का मित्र था जिसके कारण सामान्यतः भी मेरा उनके यहाँ बहुत आना-जाना था। उन्हें क्रिकेट से बहुत लगाव था जिसके कारण मैं उनसे क्रिकेट पर भी बहुत बातचीत किया करता था। मेरी उनसे बातचीत शेक्सपियर के नाटकों पर भी हुआ करती थी जिससे मेरे ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे एवं मैं विश्व-साहित्य की उस विभूति के जीवन-दर्शन को समुचित रूप में आत्मसात कर पाता था।

मेरे उच्च शिक्षा के निमित्त कलकत्ता चले जाने पर मेरा मिश्रा जी से सम्पर्क तभी हो पाता था जब मैं अपने मूल स्थान (साम्भर झील) पर कुछ दिनों के लिए आता था। बाद में नौकरी लग जाने पर यह और भी कम हो गया। फ़रवरी २०१२ में उनका निधन हुआ जिसके उपरांत वे मेरे लिए केवल स्मृति-शेष ही रह गए। अपने गुरू को मैं आदर के अतिरिक्त कोई गुरू-दक्षिणा नहीं दे सका। केवल महाकवि निराला के कृतित्व पर आधारित एक पुस्तक राग-विरागही मेरे द्वारा उनको दी गई एकमात्र वस्तु रही। शेष तो मैंने उनसे केवल पाया ही।  

जब भी गुरू-शिष्य संबंधों का संदर्भ आता है, मुझे अपनी प्रिय हिन्दी फ़िल्म इम्तिहान’ (१९७४) स्मरण हो आती है जिसमें सदैव विद्यार्थियों के हित में सोचने वाले तथा उन्हें दुर्गुणों से बचाकर उचित मार्ग दिखलाने वाले एक आदर्श शिक्षक की कथा है। सफल हो जाने के उपरांत तो चिपकने वाले बहुतेरे आ जाते हैं लेकिन सच्चा गुरू वह है जो शिष्य के सफल होने से पूर्व ही उसकी प्रतिभा को पहचानकर उसके भीतर के आत्मविश्वास को जागृत करे एवं उसे सफलता के पथ पर अग्रसर करे। मिश्रा जी ने मेरे भीतर के अंधकार को मिटाकर मेरे आत्मविश्वास को जगाया एवं प्रत्येक शिक्षक दिवस पर जब उनकी स्मृतियां मेरे मन में कौंध जाती हैं तो मुझे इम्तिहानफ़िल्म का यह कालजयी गीत भी स्मरण हो आता है – रुक जाना नहीं तू कहीं हार के; कांटों पे चल के मिलेंगे साये बहार के; ओ राही, ओ राही। मिश्रा जी की शिक्षा मेरे लिए यही जीवन-दर्शन बनकर सदैव मेरे साथ रही। आज भी है।

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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

एक भले आदमी की त्रासदी

मेरे पिता श्री सूरज नारायण माथुर को दिवंगत हुए दो दशक हो चुके हैं। उनका देहावसान उनके जन्मदिन (पंद्रह जुलाई) के ठीक एक दिवस पूर्व (चौदह जुलाई) को हुआ था। उस सदमे ने मेरे दिलोदिमाग़ पर जो असर डाला था, उसका नतीजा था एक लेख जो मैंने कुछ दिन बाद अपने कार्यालय में बैठे हुए ही लिखा था। शीर्षक था - एक भले आदमी की त्रासदी। उन दिनों ब्लॉग जगत तो था नहीं, सो ख़ुद ही वक़्त-वक़्त पर उसे पढ़ लेता था और अपने पिता की यादों को फिर से महसूस कर लेता था। बाद में नौकरी और जगह बदलने पर उस लेख की न तो कोई छपी हुई प्रति साथ रही, न ही कम्प्यूटर में उसकी कोई सॉफ़्ट प्रति। अब नये सिरे से लिख रहा हूँ वही शीर्षक लेकर। लिख क्या रहा हूँ, अपने पिता की यादों और उनसे जुड़े अपने अहसासों को अल्फ़ाज़ की शक्ल दे रहा हूँ बस।

राजस्थान के एक कस्बे साम्भर झील में जन्मे मेरे पिता चार भाइयों में तीसरे नम्बर के थे। बाक़ी तीन भाई जितने चालाक और तिकड़मबाज़ थे, मेरे पिता उतने ही सीधे। अपने सीधेपन के कारण ही वे अपने मन की बात को मन में नहीं रख पाते थे और सामने वाले के मुँह पर कह देते थे। अपने ग़ुस्से को दबाना भी उन्हें नहीं आता था। इसीलिए ग़ुस्सा आने पर वे उसे सीधे ही बाहर निकाल देते थे। इसीलिए उनका जीवन में भौतिक रूप से सफल हो पाना कठिन ही रहा। जैसा कि हरिवंशराय बच्चन जी की पंक्तियां भी हैं - मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा। बच्चन जी के ये अमर उद्गार मेरे पिता पर पूर्णतः चरितार्थ हुए (एवं कालांतर में मुझ पर भी‌)। 

मेरे पिता ने मूल रूप से आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की एवं अनेक वर्षों के अंतराल के उपरांत मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। किशोरावस्था में ही वे भारत के स्वतंत्र होने के भी तीन वर्ष पूर्व (१९४४ में) एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो गए तथा सैंतीस वर्षों की अनवरत सरकारी सेवा के उपरांत १९८१ में तृतीय श्रेणी के शिक्षक के रूप में ही सेवानिवृत्त हुए। उस समय वे साम्भर झील के राजकीय विद्यालय नम्बर चार में प्रधानाध्यापक के पद पर थे किन्तु उनकी वेतन शृंखला तृतीय श्रेणी के शिक्षक की ही थी। यह वह समय था जब सेवानिवृत्ति की आयु बहुत कम (पचपन वर्ष) हुआ करती थी तथा मेरे पिता तो सम्भवतः अभिलेखों में आयु अधिक लिखवा दी गई होने के कारण उससे भी कम आयु में सेवानिवृत्त हो गए थे। सभी उत्तरदायित्व लम्बित थे और पेंशन के रूप में आय आधी हो गई थी। ख़ैर, ख़ास बात यह थी कि सम्पूर्ण कस्बे में मोटे मास्टर साहब के नाम से जाने जाने वाले मेरे पिता के सेवा से विदा होने के अवसर पर शिक्षक समुदाय का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था। उन्हें फूलमालाओं से लादकर तथा गुलाल लगाकर साम्भर की विभिन्न गलियों एवं मार्गों पर स्थानीय शिक्षक समुदाय ने उनकी मानो शोभायात्रा निकाली थी जिसके अंत में जब सब लोग उनके साथ हमारे निवास स्थान (सरस्वती मार्ग, छोटा बाज़ार) पर आए थे तो क्या घर में और क्या घर की छत पर - पैर रखने की जगह नहीं थी। अपनी सेवानिवृत्ति पर ऐसा सम्मान विरले ही सरकारी कर्मचारियों के भाग्य में होता होगा।

सेवानिवृत्त होने से परिवार के उत्तरदायित्व तो कम हो नहीं गए थे। अतः वे अतिरिक्त श्रम कर-करके अतिरिक्त आय का प्रबंध करने लगे ताकि घर चल सके। इसके लिए उन्हें अपनी बढ़ती आयु के साथ समायोजन करते हुए बहुत दौड़-धूप करनी पड़ती थी। कई बार तो रात को जयपुर से रेल द्वारा लौटने में देर हो जाने पर जब उन्हें फुलेरा नामक स्थान से बस नहीं मिल पाती थी तो वे कई किलोमीटर पैदल चलकर घर आते थे। उनकी इस श्रमशीलता तथा धैर्य को मैने बहुत बाद में अनुभव किया और तब ही मैंने उनकी उस उदारता को भी पहचाना जिसके अंतर्गत केवल मेरे पठन के निमित्त घर में कई बाल-पत्रिकाएं आया करती थीं यद्यपि परिवार की सीमित आय इस सत्य पर बल देती थी कि व्यय यथासंभव कम किए जाने चाहिए थे। 

मेरे माता-पिता का विवाह एक अनमेल संयोग था। मेरी माता श्रीमती शकुन्तला माथुर दिल्ली की थीं, अपने विवाह-पूर्व जीवन का एक बड़ा  भाग उन्होंने आगरा तथा हाथरस जैसे नगरों में बिताया था, सोलन स्थित पंजाब विश्वविद्यालय से भी उन्होंने शिक्षा ली थी तथा अंततः हिन्दी विषय में 'प्रभाकर' की उपाधि प्राप्त की थी। उन्हें न केवल हिन्दी एवं अंग्रेज़ी भाषाओं का विशद ज्ञान था वरन वे संगीत का भी सम्यक् ज्ञान रखती थीं। अपने दहेज में आया हुआ 'बल्लूराम एंड संस' निर्मित पुराने ज़माने का हारमोनियम वे कभी-कभी बजाया करती थीं। आयु अधिक हो जाने पर उनकी आवाज़ का सुरीलापन जाता रहा था अन्यथा वे गाया भी करती थीं (उनके द्वारा संकलित स्वरलिपियों की पुस्तिका जो उनके ही हस्तलेख में है, मैंने उस हारमोनियम के साथ ही संभालकर रखी है)। मैं संगीत तो नहीं सीख सका लेकिन हिन्दी भाषा का ज्ञान वस्तुतः मैंने अपनी माता से ही प्राप्त किया (अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान मैंने नौवीं कक्षा में पहुँचने के उपरान्त अपने असाधारण शिक्षक श्री सुरेन्द्र कुमार मिश्र से प्राप्त किया)। मेरी माता को संगीत के साथ-साथ पुस्तकें पढ़ने का भी बहुत शौक़ था और सिनेमा देखने का भी। ये अभिरुचियां मुझे मेरी माता से ही मिलीं। जब टीवी का दौर आया तो प्रत्येक सप्ताह दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली हिन्दी फ़िल्म देखने का चस्का मुझे अपने माता के कारण ही लगा। साम्भर साल्ट्स लिमिटेड कम्पनी द्वारा (साम्भर नमक उद्योग का एक प्रसिद्ध केन्द्र है तथा साम्भर झील भारत की सबसे बड़ी अंतर्देशीय नमक की झील है) अपने कर्मचारियों हेतु किंग्स स्क्वेयर नामक स्थान पर खुले में प्रसारित की जाने वाली अनेक हिन्दी फ़िल्में भी मैंने अपनी माता के साथ ही देखीं। अपनी माता के प्रभाव में ही मैंने पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना आरम्भ किया तथा धीरे-धीरे घर में मेरे इस शौक़ के लिए ही कई बाल-पत्रिकाएं आने लगीं। 

बचपन में मैं अपनी माता के ही अधिक निकट रहा जिसके कारण मेरे बाह्य व्यक्तित्व तथा अभिरुचियों का विकास अपनी माता की ही भांति हुआ। मेरे पिता तो प्रायः राजस्थानी भाषा में ही बातचीत किया करते थे। उन्हें तो लोगों से हँसने-बोलने का शौक़ था तथा अपने जीवन के तनावों और दुखों को लोगों से हँसी-मज़ाक़ करते-करते बाहर निकाल देना (या भीतर-ही-भीतर सह जाना) उनके स्वभाव का एक अंग बन गया था। कहते हैं - पिता पर पूत, जात पर घोड़ा; बहुत नहीं पर थोड़ा-थोड़ा। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भीतरी (एवं वास्तविक) व्यक्तित्व मेरे पिता के व्यक्तित्व का ही प्रतिरूप है चाहे मेरे पिता न उच्च-शिक्षित थे, न ही साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि में कोई रुचि रखते थे। सदा चलते-फिरते रहने के आदी तथा पैदल भ्रमण में ही आनंद प्राप्त करने वाले मेरे पिता मधुमेह (जो उन्हें बहुत जल्दी हो गया था) के बढ़ जाने (एवं अत्यन्त दुर्बल हो जाने) के कारण अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में चलने-फिरने से पूरी तरह लाचार हो गए थे। यह भी उनके जीवन की कुछ त्रासदियों में से एक त्रासदी थी।

मेरे पिता को जीवन कुछ ऐसा मिला कि वे न तो कभी धन जोड़ सके और न ही कभी अपने घर को आराम देने वाली वस्तुओं से सम्पन्न कर सके। उनकी सारी कमाई बस यूं ही व्यय हो जाया करती थी। अपनी ओर से वे स्वयं कष्ट में रहकर भी अपने परिवार को जितना हो सके, सुख देने का ही प्रयास करते थे किन्तु धन की देवी लक्ष्मी की कृपा उन पर कभी रही नहीं। लेकिन उनका स्वभाव ऐसा था कि उन्होंने कभी इस बात की परवाह की भी नहीं। वे जो मिला, उसी में मस्त रहा करते थे। 

मुझे अपनी संवेदनशीलता (और सम्भवतः अपना भाग्य भी) विरासत में अपने पिता से ही मिला। वे हर किसी के दुख-तक़लीफ़ से पिघल जाया करते थे और अपनी कमज़ोर माली हालत के बावजूद जिसकी जो मदद उनसे बन पड़ती थी, किया करते थे। वे पूरी तरह से सर्वधर्मसमभाव में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे एवं जातिधर्म के आधार पर मनुष्यों में भेद करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनके स्वभाव की ये विशेषता भी ज्यों-की-त्यों मेरे व्यक्तित्व में आ गई। वैसे मेरी माता भी ऐसी ही थीं (उन्हें उर्दू ज़ुबान भी बाख़ूबी आती थी और वे शायरी को भी समझती थीं)। 

मुझे अपने लिए अगर सचमुच कोई अफ़सोस है तो यह कि मैं अत्यन्त गम्भीर स्वभाव का हूँ, अपने पिता की तरह हँसमुख स्वभाव का एवं ज़िन्दादिल नहीं जो हँसते-मुसकराते ज़माने के ग़म भुला दे। मेरे पिता का स्वभाव तो भगवान शिव की तरह का था - जितनी जल्दी क्रोधित होते थे, उतनी ही जल्दी क्रोध को बिसरा कर प्रसन्न भी हो जाते थे (ऐसे स्वभाव के कारण ही भगवान शिव को 'आशुतोष' कहा जाता है)। 

एक बार मेरे एक मित्र ने बातों-बातों में मुझसे कहा था, 'जो सब की परवाह करता है, उसकी परवाह कोई नहीं करता है'। अपने पिता की ज़िन्दगी को देखकर मुझे यह बात बिलकुल सच लगी। वे ताज़िन्दगी सब की परवाह करते रहे जबकि उनकी परवाह करने वाला शायद ही कोई रहा हालांकि उनकी ज़रूरतें बेहद कम और मामूली थीं। वे केवल ठीक से भोजन करके कुछ समय शांति से आराम करने या सोने के अलावा कुछ नहीं चाहते थे (वे तो अपने कपड़े भी कभी-कभार बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी होने पर सिलवाया करते थे, अन्यथा पुराने कपड़ों से ही काम चला लेते थे) लेकिन उन्हें वह भी बड़ी मुश्किल से नसीब होता था। पर वे उसके लिए भी शिकायत नहीं करते थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने कहा था, 'जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में कह नहीं सकता, उसी को क्रोध अधिक आता है'। मेरे पिता को क्रोध अधिक आने का सम्भवतः यही कारण था। मैं भी क्रोधी हूँ। मुझे क्रोध अधिक आने का भी (सम्भवतः नहीं, निस्संदेह) यही कारण है।

उनके देहान्त पर हमारे यहाँ रिश्तेदारों का जमावड़ा हुआ जो तरह-तरह के कर्मकांडों के बहाने से बस इसी ताक में लगे हुए थे कि मेरी जेब कितनी और कैसे काटी जा सकती है। बरसों बाद मैंने हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा के प्रथम खंड 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में पढ़ा कि उनके दादा के देहावसान पर भी ऐसा ही कुछ हो रहा था। लेकिन मेरे (या कहा जाए कि मेरे पिता के) रिश्तेदारों को उनकी मौत का कोई अफ़सोस नहीं था। रिश्तेदारों से इतर लोग भी दिखावटी बातें ही कर रहे थे (उनके निधन से पूर्व जब वे जयपुर में सवाई मानसिंह हस्पताल में भर्ती थे, तब भी लगभग यही हाल था), उनके चले जाने का वास्तविक दुख कहीं किसी को था, कम-से-कम मुझे तो ऐसा नहीं लगा। मैं ज़रूर दुखी था पर अपना दुख किसे दिखाता, किससे कहता ?

एक भला आदमी इस दुनिया से उठ गया। जब ज़िन्दा था तो किसी को उसकी परवाह नहीं थी, मर गया तो किसी को अफ़सोस नहीं था। संभवतः यही भले आदमी की त्रासदी होती है। यह दुनिया ऐसी ही है जिसमें भले ही ख़ता खाते हैं, लुच्चों का कुछ नहीं बिगड़ता। भलामानस होना अपने आप में ही घाटे का सौदा है शायद। मेरी माता उसके उपरांत मेरे साथ ही रहीं जहाँ कहीं भी मेरी नौकरी रही (उनका निधन साढ़े चौदह वर्षों के अंतराल के उपरांत जनवरी दो हज़ार अट्ठारह में हुआ)। 

रोमन कवि होरेस ने कहा था, 'Deep in the cavern of the infant's breast; the father's nature lurks, and lives anew'(शिशु के हृदय की गुहा के भीतर गहराई में कहीं पिता का स्वभाव अंतर्निहित रहता है एवं पुनः जीवन प्राप्त करता है)। मेरे अपने पिता के साथ संबंध को इसी उक्ति से समझा जा सकता है। मेरे पिता के निधन के साढ़े तीन मास के उपरांत मेरी पत्नी ने हमारे पुत्र को जन्म दिया। यह भी एक विडम्बना रही कि मेरे पिता पौत्र का मुख देखने की आस लगाए ही संसार से चले गए एवं उनका पौत्र कभी अपने दादा को नहीं देख सका। 

मैंने अपने लेख 'संवेदनशील रचनाएं ! किसके लिए ?' में यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि संवेदनशीलता तथा संवेदनशील रचनाएं सृजित करने की प्रतिभा के मध्य कोई संबंध नहीं। अनेक कलावंतों एवं साहित्यकारों की संवेदनशीलता केवल प्रदर्शनी होती है जबकि मेरे पिता जैसे संवेदनशील व्यक्ति भी हो सकते हैं जिनकी कला एवं साहित्य में कोई रुचि ही न हो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक संवेदनशील व्यक्ति तो संवेदनशील रचनाओं के पात्र बन जाते हैं जिनकी कथाओं को मनोरंजन-सामग्री बनाकर संसार के बाज़ार में वे बेचते हैं जो स्वयं संवेदनशील नहीं होते।

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