गुरुवार, 26 नवंबर 2020

मर्यादा

मर्यादा से अभिप्राय है व्यवहार की स्वीकार्य सीमा । अतः मर्यादाएँ जुड़ी होती हैं सम्बन्धों सेपद अथवा प्रस्थिति सेसामाजिक व्यवहार से एवं वाणी से । भारतीय परंपरा में मर्यादा के निर्वाह की बड़ी महिमा है । हिंदुओं के आराध्य भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर सम्मानित किया गया है । उन्होंने कुल एवं सम्बन्धों की मर्यादाओं का एवं कालांतर में अपने पद एवं कर्तव्य से जुड़ी मर्यादाओं का अनुपालन किया एवं उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखाइसीलिए वे नरश्रेष्ठ कहलाएपुरुषों में उत्तम माने गए । 

अब प्रश्न यह है कि मर्यादा की इतनी महिमा क्यों ? क्या कारण है कि मर्यादा का पालन वांछनीय एवं प्रशंसनीय है जबकि इसके विपरीत मर्यादा का उल्लंघन अवांछनीय एवं त्याज्य ? इसके लिए हमें यह बात समझनी होगी कि प्रकृति ने मनुष्यों एवं प्राणियों की ही नहीं, विभिन्न निर्जीव वस्तुओं की भी मर्यादाएँ नियत की हैं । मर्यादा का संबंध है व्यवस्था से । सम्पूर्ण सृष्टि की विभिन्न व्यवस्थाओं का आधार है उन व्यवस्थाओं के विभिन्न अंगों द्वारा अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन । ज़रा सोचिए कि यदि एक नदी अपनी मर्यादा भूलकर अपने बंध तोड़ दे तो क्या होगा, यदि समुद्र अपनी मर्यादा तोड़कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर जलप्लावन करने चल पड़े तो क्या होगा, यदि पर्वत अपनी मर्यादा छोड़कर अपने स्थान से इधर-उधर खिसक जाएँ तो क्या होगा, यदि विभिन्न ग्रह अपनी-अपनी कक्षाओं की मर्यादा लांघकर अंतरिक्ष में स्वच्छंद निकल पड़ें तो क्या होगा, यदि वन के हिंस्र पशु अपनी मर्यादा से बाहर निकलकर बस्तियों में आ जाएँ तो क्या होगा, यदि ऋतुचक्र अपनी मर्यादा भूल जाए तथा नियत समय पर ऋतु-परिवर्तन होने रुक जाएँ तो क्या होगा ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही है विनाश । यदि संसार को विनाश से बचना है और उत्तरजीवी बने रहना है तो यह अपरिहार्य है कि कोई भी वस्तु चाहे छोटी हो अथवा बड़ी अपनी मर्यादा को किसी भी स्थिति में न भूले । 

सांसारिक व्यवस्थाओं के आधार हैं समाज, समुदाय एवं संस्कृति एवं इन सभी की मूल इकाई है व्यक्ति अथवा मनुष्य । चूंकि ये सभी व्यवस्थाएँ अमूर्त हैं जबकि व्यक्ति इनका मूर्त प्रतीक है जिसकी गतिविधियों एवं व्यवहार से ये व्यवस्थाएँ अपना अस्तित्व पाती है एवं उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हैं, अतः व्यक्ति के लिए उसका समाज कतिपय मर्यादाएँ नियत करता है । आज के व्यक्तिपरक एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानने वाले युग में भी सामाजिक मर्यादाओं का मूल्य कम नहीं हुआ है । व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाले । यदि वह ऐसा नहीं करता तो इसे समाज के अहित में माना जाता है तथा समाज व्यक्ति को दंडित करता है । 

जो बात व्यक्ति पर समाज की मूल इकाई के रूप में लागू है, वही बात उस पर राष्ट्र के नागरिक के रूप में भी लागू है । न केवल व्यक्ति से राष्ट्र के लिखित एवं औपचारिक कानूनों को मानने की अपेक्षा की जाती है तथा उनके उल्लंघन पर उसे कानून द्वारा उक्त अपराध हेतु निर्धारित दंड दिया जाता है, वरन् उससे राष्ट्र का एक आदर्श नागरिक बनने की अलिखित अपेक्षा भी की जाती है । यह भी उसके व्यवहार की मर्यादा का ही अंग है । राष्ट्र के नागरिक से कोई भी ऐसा कार्य जो कि राष्ट्र के अथवा आमजन के हित में न हो, चाहे वह कानूनी रूप से अपराध न भी हो; न करना अपेक्षित होता है । 

व्यक्ति के बाद समाज की अगली वृहत्तर इकाई है परिवार । भारतीय परिवेश में परिवार को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है एवं ऐसा लाखों बार हो चुका है जब परिवार के हित के लिए अथवा कुल की मर्यादा के लिए व्यक्ति ने आत्म-बलिदान दिया हो अथवा अपने निजी सुख को परिवार पर निछावर कर दिया हो । इसका कारण यह है कि कुल की मर्यादा कुल की सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रतीक मानी गई है। भारतीय सामाजिक सरंचना सदा से इस प्रकार की रही है कि यदि परिवार के किसी सदस्य ने कुल की मर्यादा का उल्लंघन किया तो उसका परिणाम परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाला रहा । पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में परिवार अथवा कुटुंब की मर्यादाओं के अनुपालन का अधिक दायित्व नारियों पर डाला गया तथा यही कारण रहा कि वे लंबे समय तक मर्यादाओं के बंधनों में छटपटाती रहीं एवं उन्हें अपनी कामनाओं, सुखों एवं महत्वाकांक्षाओं को छोड़कर मन मारकर जीना पड़ा । पुरुषों के पास सभी अधिकार रहे जबकि नारी को परिवार की धुरी बताकर बिना अधिकार के ही कर्तव्य-पालन एवं मर्यादा-पालन के समस्त दायित्व उस पर लाद दिए गए । परिणामतः पारंपरिक भारतीय समाज में नारियों को पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक बलिदान करने पड़े और आज भी करने पड़ते हैं । 

प्रश्न यह है कि मर्यादा-पालन अच्छा है या बुरा । इसे सही माना जाए या ग़लत । इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है क्योंकि बहुत-सी बातों का औचित्य अथवा अनौचित्य सापेक्ष होता है जिसका निर्णय संदर्भों के आधार पर करना पड़ता है । जैसा कि मैंने पहले कहा कि नदी, समुद्र, पर्वत, आकाशीय पिंड, पशु-पक्षी आदि सभी से अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहना अपेक्षित है ताकि सृष्टि का व्यापार अनवरत एवं सुचारु रूप से चल सके । यदि सम्बन्धों की मर्यादाओं का खयाल न रखा जाए तो सम्बन्धों का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है । यदि पद की गरिमा एवं मर्यादा का खयाल न रखा जाए तो उससे जुड़े दायित्वों को निभाना असंभव की सीमा तक कठिन हो सकता है । यदि वाणी की मर्यादा को बनाकर न रखा जाए तो अनेक अनचाही विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है । ऐसे में मर्यादा-पालन को उचित ही समझा जाना चाहिए । 

आज मनुष्य प्रकृति द्वारा नियत नियमों एवं मर्यादाओं को विस्मृत कर बैठा है जिसके कारण पर्यावरण-क्षय एवं प्राकृतिक आपदाओं की समस्या उत्तरोत्तर भीषण होती जा रही है । मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि देकर सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में सृजित किया किन्तु मनुष्य भौतिक लालसाओं एवं अस्थाई सुखों के आकर्षण के चलते अपनी मर्यादाओं को बिसरा रहा है, नैसर्गिक कर्तव्यों की ओर से आँखें मूँदे बैठा है । वह विवश कर रहा है अन्य प्राणियों को उनकी मर्यादाओं को छोड़ने के लिए । वह विवश कर रहा है प्रकृति के विविध रूपों को अपनी मर्यादाओं की सीमा से बाहर निकलने के लिए तथा मानव-जाति का विनाश करने के लिए । वन-सम्पदा के विनाश के चलते मरुस्थल अपनी मर्यादा तोड़कर आगे फैलते जा रहे हैं जबकि उपजाऊ मैदान सिकुड़ते जा रहे हैं, कभी नदियां मार्ग छोड़कर विनाश-लीला करने लगती हैं तो कभी समुद्र सुनामी का अवांछनीय उपहार लेकर आ जाता है, पर्वतों पर बर्फ कम जम रही है तथा ग्लेशियरों का पिघलना यह संकेत दे रहा है कि वर्तमान सभ्यता पर संकट के मेघ मंडरा रहे हैं । साथ ही युवा पीढ़ी के दोषपूर्ण समाजीकरण के कारण समाज के विभिन्न अंग तुच्छ हितों के लिए अपनी मर्यादाएँ तोड़ रहे हैं तथा नई पीढ़ी को क्षणिक आनंद प्रत्येक मर्यादा से ऊपर लगने लगा है । परिणामतः सामाजिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक धरोहर का निरंतर क्षरण हो रहा है । 

निष्कर्ष यही है कि यद्यपि आज के व्यक्तिपरक युग में जबकि निजी स्वतन्त्रता एक जीवन-मूल्य बन चुकी है, मर्यादा के नाम पर किसी भी व्यक्ति पर कुछ थोपा नहीं जाना चाहिए किन्तु जो मर्यादाएँ वृहत् व्यवस्थाओं के अस्तित्व एवं विकास के लिए अपरिहार्य हैं, उनके मूल्य को समझना तथा उनका निष्ठापूर्वक अनुपालन किया जाना अत्यंत आवश्यक है । स्मरण रहे कि जब माता सीता ने लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का उल्लंघन किया तो मात्र उनके ही नहीं, रामायण के अनेक चरित्रों के जीवन में कैसे पीड़ाजनक मोड़ आए । अतः आइए, मर्यादाओं को मात्र बंधन न मानकर सांसारिक जीवन का एक अनिवार्य अंग मानें एवं उनके महत्व को समष्टिगत संदर्भों में समझें ।

© Copyrights reserved

सोमवार, 16 मई 2011

भारतीय खेलों के गौरव – प्रकाश पादुकोण


मॉडल से अभिनेत्री बनीं आज की चोटी की सिने तारिका – दीपिका पादुकोण का नाम तो लगभग सभी जानते हैं लेकिन उनके प्रशंसकों को मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके पिता प्रकाश पादुकोण उनसे कई गुणा अधिक सफल एवम् चर्चित रहे हैं । आज से तीन दशक पहले प्रकाश पादुकोण का नाम भारत के हर खेल-प्रेमी की ज़ुबान पर हुआ करता था ।

१९५५ में कर्नाटक के एक बैडमिंटन-प्रेमी परिवार में जन्मे प्रकाश को खेल का वातावरण बचपन से ही मिला । जब बालक प्रकाश ने खिलाड़ी बनने का निर्णय लिया तो उसे टेनिस खेलने की सलाह देने वाले कई लोग मिले जिन्होंने उससे कहा कि टेनिस में तो बड़े-बड़े इनाम होते हैं, खिलाड़ी एक मुक़ाबले में ही बन जाता है वग़ैरह । पर प्रकाश के मन में जो बात थी वो यह थी कि दो ही तो खेल हैं जिनमें एशिया का बोलबाला है – हॉकी और बैडमिंटन । अतः उन्होंने बैडमिंटन को अपनाने का निर्णय लिया ।
 
प्रकाश ने बैडमिंटन की दुनिया में किशोरावस्था से ही अपना नाम चमकाना शुरू कर दिया मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही अपनी धुन का पक्का यह बालक देश का जूनियर नंबर एक खिलाड़ी बन गया १९७१ में मात्र सोलह वर्ष की आयु में राष्ट्रीय बैडमिंटन प्रतियोगिता में पहले प्रकाश ने जूनियर ख़िताब जीता और दो दिन बाद ही फ़ाइनल में देश के धुरंधर खिलाड़ी देवेन्द्र आहूजा को हराकर सीनियर ख़िताब भी जीत लिया. यह पहला अवसर था जब किसी खिलाड़ी ने जूनियर और सीनियर दोनों ख़िताब एक साथ जीत लिए हों । उसके बाद तो राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने का सिलसिला ही चल पड़ा । एक-दो-तीन बार नहीं, पूरे नौ बार लगातार राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतकर प्रकाश ने रिकॉर्ड कायम किया । प्रकाश का यह रिकॉर्ड आज तक भी नहीं टूटा है

राष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा क़ायम कर लेने के बाद प्रकाश ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करना आरम्भ किया यद्यपि वे १९७४ में तेहरान (ईरान) में हुए एशियाई खेलों में कांस्य पदक विजेता भारतीय दल के सदस्य रहे, तथापि शुरूआती कुछ सालों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सफलता सीमित ही रही और विश्व के नामचीन खिलाड़ियों में उनकी गिनती नहीं हुई । १९७८ में एडमंटन (कनाडा) में हुए राष्ट्रकुल खेलों में बैडमिंटन के एकल मुकाबलों के फ़ाइनल में इंग्लैंड के डेरेक टालबोट को हराकर प्रकाश ने भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता प्रकाश की इस स्वर्णिम सफलता पर देश में ख़ुशी की सी लहर दौड़ी कि भारतीय संसद में लड्डू बांटे गए यह प्रकाश की सफलता का ही प्रेरक प्रभाव था कि चार साल बाद ब्रिसबेन (ऑस्ट्रेलिया) में हुए राष्ट्रकुल खेलों में प्रकाश की अनुपस्थिति में सैयद मोदी ने भी इस स्वर्णिम सफलता को दोहराकर दिखा दिया

प्रकाश के खेल का जादू अब बैडमिंटन-प्रेमियों के सर चढ़कर बोलने लगा १९७९ में इंग्लैंड में हुई निंग ऑव चैंपियंस में विश्व के नामी बैडमिंटन खिलाड़ी इकट्ठे हुए दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ियों की उपस्थिति में प्रकाश ने उसमें विजेता होने का गौरव पाया इस जीत के बाद प्रकाश को बैडमिंटन का विश्व चैम्पियन घोषित किया गया और तब भारतीय खेल जगत को यह एहसास हुआ कि प्रकाश के रूप में संसार में भारत का नाम रौशन करने वाला एक असाधारण खिलाड़ी सामने आया है
प्रकाश के खेल-जीवन का चरम मार्च १९८० में आया जब उन्होंने केवल दो सप्ताह के भीतर स्वीडिश ओपन, डेनिश ओपन और ऑल इंग्लैंड जैसी तीन बड़ी प्रतियोगिताएं लगातार जीतकर अपने खेल का डंका सारी दुनिया में बजा दिया इनमें से तीसरी सफलता सबसे बड़ी और सबसे महत्त्वपूर्ण थी बैडमिंटन में ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता का वही स्थान है जो कि टेनिस में विम्बलड का है इस प्रतिष्ठित ख़िताब को जीतना भारतीय खिलाडियों के लिए सदा से एक सपना ही रहा था १९७८ और १९७९ में इस प्रतियोगिता को जीतने वाले इंडोनेशिया के खिलाड़ी  लिम स्वी किंग को लगातार तीसरे वर्ष भी ख़िताब का प्रबल दावेदार माना जा रहा था प्रकाश ने हदियांतो, स्वेन प्री और मॉर्टन फ्रॉस्ट जैसे खिलाड़ियों को हराकर फ़ाइनल में किंग से भिड़ंत तय की तो विशेषज्ञों ने किंग की ख़िताबी तिकड़ी को सुनिश्चित मान लिया लेकिन जब प्रकाश ने किंग को सीधे गेमों में १५-३ १५-१० से हराकर इस प्रतिष्ठित ट्रॉफी पर कब्ज़ा कर लिया तो विशेषज्ञों के मुँह खुले-के-खुले रह गए ऑल इंग्लैंड ट्रॉफी को लेकर भारत लौटने वाले प्रकाश का हवाई अड्डे पर भव्य स्वागत किया गया भाव-विह्वल देशवासियों ने प्रकाश को फूलमालाओं से लाद दिया । 


इसके दो माह बाद जकार्ता (इंडोनेशिया) में हुई अधिकृत विश्व चैम्पियनशिप में प्रकाश को शीर्ष वरीयता दी गई । इंडोनेशिया की गर्मी को न सह पाए प्रकाश क्वार्टर फ़ाइनल में ही हदियांतो से हार गए तो इंडोनेशिया के अख़बारों ने शोर मचाया कि प्रकाश की किंग पर जीत एक तुक्का थी । पर इससे अपने देशवासियों के मन में प्रकाश का मान कम नहीं हुआ और प्रकाश ने अपने मनोबल को लगातार ऊँचा बनाये रखा ।

१९८१ में जापान ओपन खेलकर भारत लौटने के बाद राष्ट्रीय प्रतियोगिता में लगातार नौ ख़िताबी जीतों के बाद दसवें साल प्रकाश को फ़ाइनल में सैयद मोदी के हाथों पराजय मिली । मार्च १९८१ में अपने ख़िताब की रक्षा के लिए ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता में उतरे प्रकाश को छठी वरीयता दी गई । एक चैम्पियन को छठी वरीयता देना उसकी तौहीन थी । लेकिन प्रकाश ने अपने शानदार प्रदर्शन से निचली वरीयता देने वाले आयोजकों को क़रारा जवाब दिया और फ़ाइनल तक जा पहुँचे जहाँ एक बार फिर उनका मुक़ाबला किंग से हुआ । लेकिन इस बार किंग ने पिछले वर्ष की पराजय का हिसाब चुकाते हुए प्रकाश को हरा दिया ।

बहरहाल प्रकाश की क़ामयाबियों का क़ाबिल-ए-दाद सफ़रनामा १९८१ में भी जारी रहा । उन्होंने भारत में पहली बार आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता इंडियन मास्टर्स बैडमिंटन चैंपियनशिप चीन के हान जियान को हराकर जीती । १९८१ में ही कुआलालम्पुर में पहली बार बैडमिंटन का विश्व कप आयोजित हुआ । प्रकाश ने फ़ाइनल में जियान को ही हराते हुए विश्व कप को भारत की झोली में डाल दिया । 

१९८२ में प्रकाश ने हांग कांग ओपन और डच ओपन ख़िताब जीते । प्रकाश पर पेशेवर होने का आरोप लगाकर उन्हें नई दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों में भारत की ओर से नहीं खेलने दिया गया । अपने ही देश में आयोजित खेल महाकुंभ में अपने देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाना प्रकाश के लिए काफ़ी दुखद रहा । पर उन्होंने अपने मनोबल को गिरने नहीं दिया और ग़ैर-खिलाड़ी कप्तान के रूप में भारतीय बैडमिंटन दल का नेतृत्व करते हुए पाँच कांस्य पदक भारत की झोली में डलवाए । 

प्रकाश के घुटने के ऑपरेशन ने उनके खेल पर विपरीत प्रभाव डाला । १९८२ के बाद कोई बड़ा ख़िताब उन्होंने नहीं जीता लेकिन वे सदा विश्व के शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ियों में शामिल रहे और लगभग सभी बड़ी प्रतियोगिताओं के क्वार्टर फ़ाइनल, सेमी फ़ाइनल या फ़ाइनल तक पहुँचना उनके लिए सामान्य बात रही । १९८६ में एशियाई खेलों के नियमों में ढील देते हुए प्रकाश को खेलने की अनुमति दी गई । तब तक प्रकाश की आयु ३१ वर्ष की हो चुका थी और प्रतिस्पर्द्धी खेल के हिसाब से वे युवा नहीं रहे थे । इसके बावज़ूद भारत और चीन के बीच हुए दलगत मुक़ाबले में प्रकाश ने १९८५ के ऑल इंग्लैंड चैम्पियन और अपने से दस वर्ष छोटे झाओ जियान हुआ को इतनी सहजता से हराया कि खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों तथा विशेषज्ञों सभी ने दाँतों तले उंगली दबा ली ।
 
भारत में विश्व-स्तर के खिलाड़ियों की कमी के कारण भारत अक्सर बैडमिंटन की दलगत स्पर्द्धा की सबसे बड़ी प्रतियोगिता – थॉमस कप के क्षेत्रीय मुक़ाबलों में ही बाहर हो जाया करता था । लेकिन १९८८ में प्रकाश ने अपनी ढलती आयु के बावजूद शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत को थॉमस कप के अन्तिम दौर में पहुँचाया । मूल रूप से एकल के खिलाड़ी प्रकाश ने इस बार उदय पवार के साथ जोड़ी बनाकर युगल मुक़ाबले भी खेले तथा अनेक महत्वपूर्ण एकल एवं युगल मुक़ाबले जीतते हुए भारत को अन्तिम दौर में पहुँचाकर ही दम लिया । 

प्रकाश के आगमन से पूर्व भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी दमखम और फ़िटनेस की कमी के कारण अन्य देशों के खिलाड़ियों का सामना नहीं कर पाते थे । प्रकाश ने ही फ़िटनेस को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अन्य खिलाड़ियों को सही मार्ग दिखलाया । प्रकाश की खेल तकनीक़, चुस्ती-फुरती और खेल के प्रति समर्पण ने ही भारत में बैडमिंटन के प्रति लोगों की धारणा भी बदली तथा पहली बार भारतीयों को लगा कि बैडमिंटन नाजुक कलाई का खेल नहीं, रफ़्तार और दमखम का कमाल है ।
 
अपने करियर के दौरान प्रकाश को डेनमार्क की नागरिकता लेकर कोपेनहेगन में बस जाने का अवसर मिला जिसको अपनाकर वे अपार धन कमा सकते थे । लेकिन अपने देश से प्यार करने वाले प्रकाश ने धन के प्रलोभन में आकर अपना वतन छोड़ने की जगह भारत में ही रहकर खेल के उत्थान के लिए काम करने का निश्चय किया ।

आज तो ख़ैर खिलाड़ियों का विज्ञापनों में मॉडल बनकर धन कमाना एक आम बात है, उस ज़माने में भी प्रसिद्ध खिलाड़ी अपनी लोकप्रियता को भुनाते हुए विज्ञापनों के द्वारा धन कमाया करते थे । परंतु प्रकाश ने सदा अपनी एक गरिमा बनाये रखी तथा विज्ञापनों से दूर रहकर केवल खेल पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । लेकिन जब देश की एकता और अखंडता का प्रश्न आया तो विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों को लेकर राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देने के निमित्त दूरदर्शन द्वारा बनाये गए वृत्तचित्र में प्रकाश ने भी काम किया ।

प्रकाश की सफलता में उनकी अर्द्धांगिनी और दीपिका की माँ उजला की प्रेरणा भी महत्वपूर्ण रही है । उजला करकल से प्रकाश की मँगनी बहुत पहले ही हो गई थी लेकिन उन्होंने विवाह तब तक नहीं किया जब तक कि उन्होंने खिलाड़ी के रूप में अपने करियर के चरम को नहीं छू लिया । दीपिका भी पहले बैडमिंटन खेला करती थीं लेकिन प्रकाश और उजला ने अपनी इच्छाओं को उन पर थोपा नहीं और मॉडलिंग तथा अभिनय की ओर उनके रूझान को पहचानकर आधुनिक माता-पिता होने का परिचय देते हुए उन्हें अपने करियर की दिशा बदलने में पूरा सहयोग दिया ।

जुलाई १९८८ में भारत के दूसरे नंबर के बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की अचानक हत्या हो गई । मोदी के इस असामयिक देहावसान ने प्रकाश को मानसिक आघात पहुँचाया । फिर उनका प्रतिस्पर्द्धात्मक स्तर पर खेलने का मन नहीं हुआ तथा खिलाड़ी के रुप में उन्होंने खेल को अलविदा कह दिया । उसके बाद उन्होंने अपना ध्यान युवा बैडमिंटन खिलाड़ियों को मार्गदर्शन और प्रशिक्षण देने की ओर लगाया । उन्होंने दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम - शटल टाइम विद प्रकाश पादुकोण भी बनाया जिसमें वे स्वयं खेल की बारीक़ियाँ बताया करते थे ।

लगभग सभी भारतीय खेलों की तरह बैडमिंटन भी खेल संघ की राजनीति से अछूता नहीं रहा । खेल संघ की गंदी राजनीति के चलते युवा प्रतिभाओं को कुंठित किए जाने से प्रकाश व्यथित रहा करते थे । आख़िर प्रकाश ने देश में बैडमिंटन की दशा सुधारने का बीड़ा उठाते हुए भारतीय बैडमिंटन संघ (बीएआई) की समानान्तर संस्था - भारतीय बैडमिंटन परिसंघ (आईबीसी) बनाई । यह प्रकाश की लोकप्रियता और खेल के प्रति उनके समर्पण का ही परिणाम था कि आनन-फ़ानन में अनेक राज्यों की बैडमिंटन इकाइयों ने उन्हें समर्थन देते हुए उनकी संस्था से नाता जोड़ लिया । आख़िर भारतीय बैडमिंटन संघ को झुकते हुए प्रकाश से समझौता करना पड़ा । संघ का पुनर्गठन हुआ तथा प्रकाश उसके कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए । प्रकाश ने अपने पद पर निष्ठापूर्वक कार्य करते हुए भारतीय प्रतिभाओं को तराशा । २००१ में पुल्लेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतकर इक्कीस वर्ष बाद यह प्रतिष्ठित ट्रॉफ़ी फिर से भारत पहुँचाई । बाद के वर्षों में भी अपर्णा पोपट, अनूप श्रीधर, अरविंद भट्ट, ज्वाला गुट्टा, वी. डीजू और सायना नेहवाल जैसे खिलाड़ियों ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बैडमिंटन में भारत का परचम बुलंद रखा ।

आज अपनी आयु के छठे दशक में भी भारतीय खेलों के आकाश का यह जगमगाता सितारा उत्साह और ऊर्जा से परिपूर्ण है । प्रकाश की पुत्री दीपिका का नाम मनोरंजन जगत में चमक रहा है लेकिन दीपिका के पिता का नाम भारतीय खेलों के इतिहास में इतने गहरे और सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है कि उसका मिटना तो दूर धुंधलाना भी संभव नहीं है । गर्व है ऐसे प्रकाश पर ।

 © Copyrights reserved

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

इवान गूलागौंग – संघर्ष से सफलता


आज से आधी सदी से भी अधिक पहले की बात है – ऑस्ट्रेलिया के बरेलान नामक एक छोटे-से कस्बे में कुछ लड़के एक मैदान में टेनिस खेल रहे थे । एक छोटी-सी बच्ची बड़े चाव से उन लोगों का खेल देख रही थी । जब भी किसी लड़के के शॉट से गेंद उछलकर उसके पास गिरती, वह उसे उठाकर उन्हें वापस दे देती । इससे अधिक कुछ करना उसके बस की बात नहीं थी क्योंकि वह एक अत्यंत साधारण परिवार में जन्मी थी और उसकी इच्छाओं को पूरा करना उसके घरवालों के बस की बात नहीं थी ।
लड़की रोज़ उन लड़कों का खेल देखने आया करती । धीरे-धीरे वे लड़के भी उसे पहचानने लगे । एक दिन खेल समाप्त करके घर जाते समय उन लड़कों ने एक पुरानी टेनिस गेंद उस लड़की को दे दी । उस एक पुरानी गेंद को पाकर लड़की ऐसी प्रसन्न हुई मानो उसे कारूं का खज़ाना मिल गया हो । चूँकि खेलने के लिए उसके पास और कुछ नहीं था, अतः वह वैसे ही गेंद को उछाल-उछालकर खेलती रहती । 
गेंद खेलने में लड़की की इतनी रूचि को देखकर एक दिन उसकी चाची ने उसे एक रैकिट दिलवा दिया । अब लड़की के पास गेंद भी थी और रैकिट भी । लेकिन खेलने के लिए कोई साथी अब भी उसके पास नहीं था । इस समस्या का हल उसने यह निकाला कि वह एक हाथ से गेंद को उछालकर दीवार पर मारती और जब गेंद दीवार से टकराकर लौटती तो वह दूसरे हाथ में रैकिट थामकर उस पर बैकहैंड स्ट्रोक लगाने का प्रयास करती । करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । यूँ ही सतत अभ्यास करते-करते एक दिन वह लड़की बैकहैंड स्ट्रोक लगाने में ऐसी पारंगत हो गई कि पूरी दुनिया में इस मामले में उसका कोई सानी नहीं रहा ।
लड़की का नाम इवान गूलागौंग था । इवान कई वर्षों तक ऐसे ही स्वतः ही टेनिस खेलने का अभ्यास करती रही । फिर एक दिन उसे दूसरे खिलाड़ियों के साथ भी खेलने का अवसर मिला । उसके खेल की तेज़ी और निपुणता ने अच्छेअच्छों को चौंका दिया । उस साधारण परिवार की लड़की का नाम उसके कस्बे की सीमाओं को तोड़कर पहले उसके देश और फिर दुनिया में फैलने लगा । 
आख़िर इवान पेशेवर टेनिस जगत में उतरी और एक-के-बाद-एक मुक़ाबले जीतती हुई शोहरत हासिल करती गई । वह मार्गरेट कोर्ट को दुनिया की सबसे अच्छी महिला टेनिस खिलाड़ी मानती थी । संयोगवश 1971 की विंबलडन प्रतियोगिता के एकल फ़ाइनल में इवान का सामना मार्गरेट कोर्ट से ही हो गया । मुक़ाबले से पूर्व इवान थोड़ी आशंकित थी लेकिन मैदान में उतरते ही वह यह भूल गई कि मार्गरेट उससे बड़ी खिलाड़ी है । वह पूरे आत्मविश्वास के साथ खेली और मार्गरेट को हराकर टेनिस की दुनिया में तहलका मचा दिया ।
1975 में इवान ने विवाह किया । लेकिन विवाह के बाद भी उसका टेनिस खेलना जारी रहा । अपने वैवाहिक जीवन में वह दो बच्चों की माता बनी । इसके बाद भी 1980 में क्रिस एवर्ट को हराकर विंबलडन का ख़िताब फिर से जीतकर इवान ने साबित कर दिया कि बढ़ती हुई उम्र तथा गृहस्थ जीवन भी उसके पक्के इरादों के मार्ग में रुकावट नहीं बन सके थे ।

इवान गूलागौंग ने एक दशक से अधिक लंबे अपने टेनिस करियर में अनेक प्रतिष्ठित ख़िताब जीते जिनमें एक फ़्रेंच ओपन, दो विंबलडन तथा चार ऑस्ट्रेलियन ओपन टाइटल शामिल रहे । एक पुरानी गेंद से खेलना आरंभ करने वाली एक छोटे-से कस्बे की इस साधारण लड़की का नाम आज संसार की सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ महिला टेनिस खिलाड़ियों में शुमार किया जाता है ।

© Copyrights reserved

बुधवार, 16 मार्च 2011

कहीं आप ब्रेकिंग प्वॉइंट के निकट तो नहीं ?

तनाव आज के भागते हुए जीवन का एक ऐसा सच बन गया है जिसे अनदेखा करना अपने आपको छलने से अधिक कुछ भी नहीं । हर पत्र-पत्रिका में आए दिन तनाव, उसके प्रभावों एवं उससे बचने अथवा उससे राहत पाने के उपायों पर लिखा जा रहा है । तनाव से राहत तो सभी चाहते हैं किन्तु वस्तुतः ऐसा कैसे किया जाए, इसका व्यावहारिक ज्ञान बहुत ही कम लोगों को होता है ।

तनाव की कई अवस्थाएँ होती हैं । पहली अवस्था रोज़मर्रा के तनाव की है जिसका कि व्यक्ति-चाहे वह कोई विद्यार्थी हो या कामकाजी मानव या गृहिणी-आदी हो जाता है और उससे उसकी सामान्य दिनचर्या पर कोई विपरीत प्रभाव इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि वह तनाव वस्तुतः उस दिनचर्या का ही एक अंग बन चुका होता है ।

किन्तु तनाव की अगली अवस्थाएँ जिन्हें कि एडवांस्ड स्टेजेज़ कहा जाता है, विशेष ध्यानाकर्षण माँगती हैं । एक ऐसी ही अवस्था को बोलचाल की भाषा में ब्रेकिंग प्वॉइंट कहा जाता है । यह वह बिंदु है जहाँ पहुँचकर तनावग्रस्त व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है । ऐसे में वह किसी शारीरिक व्याधि से ग्रस्त हो सकता है अथवा तंत्रिकाताप (न्यूरोसिस) की चपेट में आ सकता है । शारीरिक व्याधि में नर्वस ब्रेकडाउन से लेकर ब्रेन हैमरेज तक आ सकते हैं और जीवनलीला समाप्त तक हो सकती है । मानसिक स्तर पर व्यक्ति अधिक परेशान हो जाए तो उसका प्रभाव तंत्रिकाताप की सूरत में उसकी दैनंदिन गतिविधियों पर नज़र आ सकता है । अगर सावधानी न बरती जाए और तुरंत उपचारात्मक कदम न उठाए जाएँ तो तंत्रिकाताप मनस्ताप (साइकोसिस) की शक्ल ले सकता है और व्यक्ति लोगों की दृष्टि में मनोरोगी बन सकता है । ऐसे में आत्मघात की भी पूरी-पूरी संभावनाएँ होती हैं ।

ऐसी नौबत न आए, इसके लिए तनावग्रस्त व्यक्ति को स्वयं ही अपना ख़याल रखना होगा । उसे इस सार्वभौम सत्य को आत्मसात करना होगा कि संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति वह स्वयं है तथा अन्य सभी लोग बाद में आते हैं । यदि आप तनावग्रस्त हैं तथा आपको यह अहसास हो रहा है कि धीरे-धीरे आप अपने ब्रेकिंग प्वॉइंट के निकट पहुँचते जा रहे हैं तो निम्नलिखित उपायों पर अमल करें :

1. यदि घर एवं परिवार के भीतर कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जिससे अपने तनाव का कारण एवं परिस्थिति कही जा सके तो ऐसे किसी विश्वसनीय मित्र अथवा शुभचिन्तक को ढूंढें जो बिना कोई अनावश्यक सलाह दिए एवं टीका-टिप्पणी किए आपकी बात को सहानुभूतिपूर्वक सुने एवं उसे गोपनीय रखे । एक बार अपने तनाव एवं घुटन को किसी से कह देने के बाद आप हलकापन महसूस करेंगे एवं ब्रेकिंग प्वॉइंट दूर खिसक जाएगा । इस मामले में सावचेत रहना आवश्यक है क्योंकि यदि वह व्यक्ति विश्वसनीय नहीं है तो आपकी गोपनीय बात के सार्वजनिक हो जाने अथवा भविष्य में उसी व्यक्ति के द्वारा आप पर इस बात को लेकर ताना कसे जाने या प्रहार किए जाने का संभावना रहती है ।

2. तनाव की स्थिति में रसभरी चीज़ें यथा चेरी, स्ट्राबेरी आदि खाएँ क्योंकि तनाव का निकट संबंध मूड से होता है और रसभरी चीज़ें मूड सुधारने वाली मानी जाती हैं । इस संदर्भ में चॉकलेट को भी विशेषज्ञों ने लाभदायक माना है ।

3. अपनी पसंद की पुस्तकें पढ़ें, फ़िल्में देखें एवं गीत सुनें । पढ़ी हुई पुस्तक को दोबारा पढ़ने एवं देखी हुई फ़िल्म को दोबारा देखने में कोई हर्ज़ नहीं होता है वरन् कभी-कभी तो दोबारा पढ़ते या देखते समय किसी प्रसंग या संवाद के नये मायने समझ में आ जाते हैं और देखने या पढ़ने वाले को ऐसी नई दिशा मिलती है कि निराशा छूमंतर हो जाती है – भले ही थोड़े समय के लिए । पर यह अस्थायी परिवर्तन भी व्यक्ति को उसके ब्रेकिंग प्वॉइंट से दूर कर देता है । संगीत में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये तो अपने आप को संभालना बेहद सुगम है । न केवल आशा से परिपूर्ण गीत वरन् निराशा एवं दुख में डूबे हुए गीत भी सुनने वाले को स्वयं को संभालने में मदद करते हैं क्योंकि वह गीत के बोलों से अपने जीवन एवं परिस्थिति को जोड़कर देखता है एवं उसे लगता है कि जैसे गीत के रूप में उसी की कहानी कही जा रही है । इससे वह अन्य किसी व्यक्ति से बात किए बिना भी अपने आप को हलका अनुभव करता है ।

4. उन लोगों से पूरी तरह दूर रहें जो आपके ज़ख्मों को कुरेदते हों या आपको हीनता का अहसास कराते हों । ऐसे लोगों से संपूर्ण रूप से दूरी बनाते हुए (उन्हें अवॉइड करते हुए) अन्य लोगों से मिलें जिनसे आप पहले अधिक न मिलते रहे हों । नए लोगों से होने वाली नई बातें न केवल अपने साथ चिपके हुए तनाव की तरफ़ से ध्यान हटाती हैं बल्कि उनके माध्यम से कई बार ऐसी नई गतिविधियों में सम्मिलित होने का अवसर मिल जाता है जो किसी समस्या के व्यावहारिक हल अथवा मानसिक शांति की ओर ले जाती हैं ।

5. जब ऐसा लगे कि हृदय दुख से लबालब भर गया है और रोना आ रहा है तो एकान्त में रोने में कोई बुराई नहीं । अकसर लोग रोने के लिए किसी के कंधे की तलाश करते हैं लेकिन अगर किसी निकट व्यक्ति का कंधा न मिले तो आँसुओं को रोके रखना ठीक नहीं क्योंकि ये मन में भरे हुए दुख को बाहर निकाल देते हैं और शरीर के रासायनिक संतुलन को ठीक कर देते हैं जिससे रो लेने के बाद व्यक्ति को हलकेपन का अनुभव होता है । हाँ, दीर्घावधि तक रोना एवं बारंबार रोना निश्चय ही हानिकारक है ।

इन उपायों पर अमल करें एवं देखें कि आप तनावग्रस्त एवं समस्याग्रस्त होने के बावजूद टूटेंगे नहीं । यह भी स्मरण रखें कि समस्याओं से पलायन नहीं किया जा सकता । पलायन का कोई भी प्रयास केवल कायरता है और कुछ नहीं । ज़िन्दगी की लड़ाई में आपदा रूपी साँड को सींगों से पकड़ना होगा । संघर्ष एवं जुझारूपन का कोई विकल्प नहीं । इसीलिए कहा गया है – टफ़ टाइम्स नैवर लास्ट बट टफ़ पीपुल डू ।

© Copyrights reserved