शनिवार, 16 दिसंबर 2023

आंतरिक लेखा-परीक्षा की व्यावहारिक चुनौतियां

मनुष्य की भूलने की आदत ने लेखांकन (accounting) के कार्य को जन्म दिया तथा लेखांकन में अनजाने में होने वाली त्रुटियों एवं जान-बूझकर की जाने वाली गड़बड़ियों (बेईमानियों) के कारण प्रादुर्भाव हुआ लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण (audit) की अवधारणा का। अन्य शब्दों में कहा जाए तो लेखांकन इसलिए आरम्भ हुआ क्योंकि जैसा कि महाजनी व्यावसायिक परम्परा में कहा जाता है – पहले लिख और पीछे दे, भूल पडे कागद से लेजबकि लेखा-परीक्षा का जन्म इसलिए हुआ क्योंकि व्यवसायियों एवं लेखापालों दोनों ने इस उक्ति को हृदयंगम किया – भूल करना मानव का स्वभाव है’ (to err is human)। और जब हम किसी भी कार्य में भूलों की सम्भावना को देखते हैं तो ऐसी (सम्भावित) भूलों का पता लगाना एवं उनका सुधार करना भी हमारे लिए आवश्यक होता है। यही आवश्यकता जननी बनी लेखा-परीक्षा अथवा अंकेक्षण के आविष्कार की।

मूलतः लेखा-परीक्षा इसलिए आरम्भ हुई ताकि व्यवसाय की एक वर्ष (अथवा उससे कम की) अवधि पूर्ण होने पर बनाए जाने वाले अंतिम लेखों की विश्वसनीयता बनी रहे जो उस अवधि के हानि-लाभ तथा व्यवसाय की दायित्व एवं सम्पत्ति संबंधी स्थिति को दर्शाते हैं। लेखा-परीक्षक द्वारा किया गया प्रमाणीकरण इस विश्वसनीयता का आधार माना गया। किन्तु धीरे-धीरे यह अनुभव किया गया कि बड़े पैमाने के व्यवसायों में ऐसी आंतरिक नियंत्रण व्यवस्था होनी चाहिए जिससे त्रुटियां कम-से-कम हों तथा वे वर्षांत से पूर्व ही पकड़ी एवं सुधारी जा सकें,  साथ ही बेईमानी एवं ग़बन की सम्भावनाएं भी न्यूनतम हो जाएं। इस निमित्त व्यावसायिक संगठन की व्यवस्था में आंतरिक जाँच (internal check) के साथ-साथ प्रवेश हुआ आंतरिक लेखा-परीक्षा (internal audit) का जो सामान्य लेखा-परीक्षा की भांति किसी बाह्य अभिकरण (external agency) द्वारा भी की जा सकती है या फिर संगठन अपना निजी आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग (in-house internal audit department) भी स्थापित कर सकता है। और जो संगठन इस दूसरे विकल्प को चुनते हैं, उनमें आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य को करने वाले अपने कार्य की सैद्धांतिक चुनौतियों से इतर कुछ व्यावहारिक चुनौतियों का भी सामना करते हैं।

मुख्यतः ये चुनौतियां दो होती हैं – पहली स्वयं उनसे सम्बन्धित होती है तो दूसरी संगठन की संबंधित इकाई में कार्यरत अन्य लोगों से (जिनके कार्य का लेखा-परीक्षण किया जाता है)। पहली चुनौती इसलिए आती है क्योंकि लेखा-परीक्षक संगठन के ही कर्मचारी होते हैं तथा अन्य कर्मचारियों की भांति पदोन्नति, अन्य परिलाभों एवं सुविधाओं के आकांक्षी होते हैं। साथ ही वे बहुत-सी छोटी-बड़ी चीज़ों हेतु अन्य कर्मचारियों एवं वरिष्ठ अधिकारियों पर निर्भर होते हैं। इसके लिए सभी स्तरों पर विभिन्न लोगों से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना आवश्यक होता है। संबंध बिगाड़ने का ख़तरा मोल लेकर नौकरी नहीं की जा सकती। ऐसी स्थिति में एक लेखा-परीक्षक को जो स्वतंत्रता (independence) एवं स्वायत्तता (autonomy) उपलब्ध होनी चाहिए, वह नहीं होती। बाह्य संस्था के लोग स्वतंत्र भी होते हैं एवं स्वायत्त भी जब वे आंतरिक लेखा-परीक्षा का कार्य करते हैं। संगठन के एक अंग के रूप में ही स्थित आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग के सदस्यों हेतु तो यह दुर्लभ ही होता है। ऐसे में अपने कार्य का निष्पादन करना उनके लिए सीधी रस्सी पर चलने (tightrope-walk) के समकक्ष ही होता है क्योंकि नौकरी भी करनी है और किसी को (जहाँ तक हो सके) नाराज़ भी नहीं करना है।

दूसरी चुनौती होती है लेखा-परीक्षा कार्य तथा लेखा-परीक्षकों के प्रति अन्य लोगों का नकारात्मक दृष्टिकोण। यद्यपि बहुचर्चित किंग्सटन कॉटन मिल्स केस (the Kingston Cotton Mills case) में विद्वान न्यायाधीशों ने स्पष्ट कर दिया था कि लेखा-परीक्षक एक रखवाली करने वाला कुत्ता (watchdog) है न कि शिकारी कुत्ता (bloodhound), तथापि जिन विभागों की लेखा-परीक्षा की जाती है, वे भी एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीगण भी लेखा-परीक्षकों को संदेह की दृष्टि से ही देखते हैं एवं उन्हें अपना सहयोगी न समझकर केवल भूलें पकड़ने वाले लोग (fault-finders) समझते हैं। इसके कारण वे उनसे दूरी बनाए रखने एवं उन्हें सहयोग न देने में ही अपनी भलाई मानते हैं। नतीजा यह होता है कि आंतरिक लेखा-परीक्षा विभाग में कार्यरत कर्मचारियों को उनकी उत्तर न देने वाली प्रवृत्ति (non-responsiveness) से जूझना पड़ता है। संबधित विभागों से उत्तर न मिलने पर वे वरिष्ठ अधिकारियों के पास पहुँचते हैं तो प्रायः उनकी ओर से भी सहयोग प्राप्त नहीं हो पाता क्योंकि वे भी लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति नकारात्मक सोच से ही ग्रस्त होते हैं। ऐसे में आंतरिक लेखा-परीक्षकों हेतु अपने उत्तरदायित्वों को निभाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। यह चुनौती तब और भी गंभीर हो जाती है जब आंतरिक लेखा-परीक्षक पदोन्नतियां न मिलने के कारण संगठन के पदानुक्रम (hierarchy) में निचले स्तर पर ही रह जाएं क्योंकि जो व्यक्ति पदोन्नतियां न मिलने के कारण औरों से कनिष्ठ रह जाए, उसकी बात को महत्व नहीं दिया जाता।   

इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने हेतु संगठन के सभी स्तरों पर (विशेषतः उच्च पदाधिकारियों के स्तर पर) आंतरिक लेखा-परीक्षा कार्य के प्रति भ्रांतियों को दूर करना आवश्यक है। सभी उत्तरदायी अधिकारियों को विविध कार्यक्रमों, व्याख्यानों, गोष्ठियों आदि के माध्यम से यह समझाया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षा केवल अनुपालन (compliance) सुनिश्चित करने हेतु ही नहीं होती वरन जोखिम प्रबंधन (risk management), प्रचालन प्रक्रियाओं को अधिक कुशल बनाने (प्रच्छन्न अकुशलताओं की ओर ध्यानाकर्षण करके), आंतरिक वित्तीय नियंत्रण (internal financial control) सुनिश्चित करने तथा शीर्ष प्रबंधन के निर्णय लेने में सहयोग हेतु भी होती है। उनके मन में इस सत्य को स्थापित किया जाना चाहिए कि आंतरिक लेखा-परीक्षक अपने अन्य विभागीय सहयोगियों का मित्र है, विरोधी अथवा शत्रु नहीं। उसका कार्य प्रक्रियागत त्रुटियों का पता लगाकर उनके यथासमय सुधार हेतु सम्बन्धित व्यक्तियों को जागरूक करना है, किसी को संदिग्ध मानकर उसके पीछे पड़ना (witch-hunt) नहीं। आंतरिक लेखा-परीक्षकों को भी उच्च-प्रबंधन को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करना चाहिए कि उनका कार्य कोई आवश्यक बुराई (necessary evil) तथा संसाधनों का अपव्यय नहीं है वरन एक ऐसा कार्य है जिसके जाँच-परिणामों (findings) पर ध्यान देकर संगठन के मूल्यवान संसाधनों एवं लागत को बचाया जा सकता है।

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मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

मेरी दृष्टि में हिन्दी सिनेमा की दस श्रेष्ठ कृतियां

सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि संवेदनशील एवं विवेकशील फ़िल्मकारों के द्वारा इसके माध्यम से समाज को उपयोगी संदेश देने का कार्य भी इसके प्रारम्भिक वर्षों से ही किया जाता रहा है। भारत में अपने उद्भव (दादासाहब फाल्के द्वारा १९१३ में निर्मित 'राजा हरिश्चंद्र' के रूप में) के साथ ही सिनेमा आम जनता में लोकप्रिय हो गया क्योंकि यह मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन सिद्ध हुआ जिसने नौटंकियों, तमाशों तथा नाटकों को पीछे छोड़ते हुए 'बाइस्कोप' के नाम से अमीर एवं ग़रीब दोनों ही वर्गों के दिलों में स्थायी जगह बना ली (आज स्थिति परिवर्तित हो चुकी है तथा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना निर्धन तो क्या संपन्न वर्ग के लोगों हेतु भी बारम्बार सम्भव नहीं होता है, अब तो घर बैठे-बैठे छोटे आकार के पट पर सिनेमा देखना ही सस्ता पड़ता है)। अट्ठारह वर्षों के उपरांत मूक फ़िल्में बोलने भी लगीं (१९३१ में प्रदर्शित 'आलम आरा' के साथ) तो फ़िल्मों में गीत-संगीत भी होने लगा एवं इस माध्यम की लोकप्रियता और भी परिवर्धित हो गई। लेकिन जैसा कि मैंने इस लेख की प्रथम पंक्ति में कहा, यह केवल मनोरंजन का साधन बनकर ही नहीं रह गया। समय-समय पर ऐसे साहसी, प्रतिभाशाली तथा संवेदनाओं से ओतप्रोत फ़िल्मकार जनसमुदाय के समक्ष हृदय को स्पर्श कर लेने वाली तथा समकालीन समाज को दर्पण दिखाने वाली सोद्देश्य फ़िल्में लेकर आए जिनमें से अनेक तो कालजयी सिद्ध हुईं। यह एक अत्यन्त संतोषजनक तथ्य है कि ऐसी उद्देश्यपरक तथा विचारोत्तेजक फ़िल्में आज तक बन रही हैं।

विगत एक सौ दस वर्षों में भारतीय दर्शकों के समक्ष अवतरित हुईं सैकड़ों उत्कृष्ट हिन्दी फ़िल्मों का तो एक लेख में नामोल्लेख तक नहीं किया जा सकता। अतः मैं अपने इस लेख में दस ऐसी (मुख्य-धारा की) श्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्मों की बात कर रहा हूँ जो मेरे हृदय के अति-निकट हैं। ये दस उत्तम हिन्दी फ़िल्में इस प्रकार हैं:

. प्यासा (१९५७): भारत के महान फ़िल्मकार गुरु दत्त ने एक अंग्रेज़ी कविता पढ़ी - 'Seven cities claimed Homer dead where the living Homer begged his bread' जिसने उन्हें कुछ इस क़दर प्रभावित किया कि उसके भाव से प्रेरित होकर उन्होंने इस फ़िल्म की परिकल्पना अपने मन में कर डाली। प्रमुख भूमिका गुरु दत्त ने स्वयं निभाई जबकि अन्य प्रमुख भूमिकाओं हेतु उन्होंने वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, जॉनी वाकर आदि कलाकारों को लिया। यह एक अजरअमर फ़िल्म है एवं मेरी दृष्टि में मुख्य-धारा की हिन्दी फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ है जो देश एवं समाज को दर्पण दिखाते हुए भी अंत में एक सकारात्मक बिन्दु पर समाप्त होती है। इसके कथानक को इस शेर से समझा जा सकता है - 'वो लिखता है ज़ीस्त की हद तक, मरने पर वो शायर होगा'। देश के स्वतंत्र होने के पश्चात कुछ ही वर्षों में लोगों में व्याप्त हो गई घोर स्वार्थपरता एवं नैतिक पतन के साथ-साथ नेहरूवादी आदर्शवाद से हुए मोहभंग का सजीव चित्रण करती है यह फ़िल्म। देश में स्त्रियों के शोषण को देखकर जहाँ नायक के मुख से निकल पड़ता है - 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं' तो समाज का ख़ुदगर्ज़ चेहरा देखकर उसके मुँह से बरबस ही यह आह फूट पड़ती है - 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। उसे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं है, उसे शिकायत है समाज की उस तहज़ीब से जहाँ मुरदों की पूजा की जाती है और ज़िन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है। संवेदनशील नायक को ऐसे वातावरण में कहाँ शांति मिलती ? लेकिन यह नायक कम-से-कम अपनी कहानी को पेश करने वाले शख़्स से ज़्यादा ख़ुशकिस्मत था जो उसे एक चाहने वाली, समझने वाली मिल जाती है जिसका हाथ पकड़कर वह ख़ुदगर्ज़ और बेरहम लोगों की बस्ती से दूर चला जाता है। मैं इस फ़िल्म को भारत ही नहीं, संसार की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक मानता हूँ। 

ख़ामोशी (१९६९): मैंने अपनी सिविल सेवा की परीक्षा हेतु मनोविज्ञान विषय लिया तो उसके अन्तर्गत मुझे  सिगमंड फ़्रायड के मनोविश्लेषणवाद (psyco-analysis) को पढ़ने एवं समझने का अवसर मिला। इसी सिद्धांत का एक भाग है - 'स्थानांतरण' (transference) तथा 'प्रति-स्थानांतरण'(counter-transference)। स्थानांतरण की स्थिति में अपना इलाज़ करवा रहा मनोरोगी अपना इलाज़ कर रहे मनोचिकित्सक से एक भावनात्मक संबंध जोड़ लेता है जबकि प्रति-स्थानांतरण वह स्थिति है जिसमें वह मनोचिकित्सक भी उस मनोरोगी से एक भावनात्मक संबंध अपने मन में स्थापित कर लेता है (क्योंकि वह भी अंततः एक मनुष्य ही है)। यह उत्कृष्ट फ़िल्म इन्हीं दो स्थितियों को लेकर लिखी गई एक भावुक कथा है जिसमें मनोरोगी (राजेश खन्ना) से अधिक महत्वपूर्ण पात्र उसकी चिकित्सा कर रही नर्स (वहीदा रहमान) का हो उठता है तथा फ़िल्म उसकी दमित भावनाओं एवं एक स्त्री के रूप में प्रेमाकांक्षी होने के मूक ही रह गए भाव का अद्भुत चित्रण करती है। सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार आशुतोष मुखर्जी द्वारा रचित कथा पर आधारित यह फ़िल्म पहले बांग्ला में 'दीप ज्वेले जाय' के नाम से बनाई गई थी जिसमें नर्स की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी। फ़िल्म का संगीत (हेमंत कुमार द्वारा रचित) भी कालजयी है तथा 'हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू', 'तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है' एवं 'वो शाम कुछ अजीब थी' जैसे गीत अजरअमर हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब इस फ़िल्म को देखकर मेरे आँसू न निकल आए हों।

तारे ज़मीन पर (२००७): आमिर ख़ान द्वारा निर्मित-दिग्दर्शित यह फ़िल्म एक अद्भुत कलाकृति (मास्टरपीस) है जिसे सिनेमाघर में देखते समय मैं ज़ार-ज़ार रोया था। एक निर्दोष बालक जो डायसलेक्सिया नामक रोग से पीड़ित है, की भावनाओं पर आधारित यह फ़िल्म बाल-मनोविज्ञान पर किसी प्रशंसनीय पाठ्यपुस्तक के समान है। सभी माता-पिताओं एवं शिक्षकों को यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिए। केन्द्रीय भूमिका में बाल कलाकार दर्शील सफ़ारी के असाधारण अभिनय से सजी यह फ़िल्म इक्कीसवीं शताब्दी की होकर भी पुरानी क्लासिक फ़िल्मों की श्रेणी में रखी जा सकती है। इसके गीत 'बम बम बोले' पर मेरे नन्हे पुत्र सौरव ने मंच पर दिल जीत लेने वाला नृत्य प्रस्तुत किया था।

मदर इंडिया (१९५७): सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान ने परतंत्र भारत में साहूकारी शोषण, निजी जीवन की पीड़ा तथा निर्धनता से आजीवन जूझने वाली एक भारतीय कृषक महिला की कथा पर १९४० में 'औरत' नाम से एक फ़िल्म बनाई जिसमें केन्द्रीय भूमिका सरदार अख़्तर नामक अभिनेत्री ने निभाई। सत्रह वर्ष के उपरांत देश तो स्वतंत्र हो चुका था लेकिन भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में कृषकों की अवस्था में कोई अंतर नहीं आया था। अतः महबूब ख़ान ने उसी श्वेत-श्याम फ़िल्म को बड़ा बजट लेकर रंगीन स्वरूप में पुनः बनाया तथा जुझारू एवं आदर्शवादी कृषक महिला की मुख्य भूमिका में नरगिस को लिया। इस क्लासिक फ़िल्म को सभी सिने-विश्लेषकों एवं सिनेमा के विशेषज्ञों द्वारा एक मत से भारतीय सिनेमा के इतिहास की सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में सम्मिलित किया गया है। फ़िल्म में किशोरी से लेकर वृद्धा तक की भूमिका निभाने वाली नरगिस के अतिरिक्त सुनील दत्त एवं अन्य प्रमुख कलाकारों का अभिनय भी अविस्मरणीय ही है। 'औरत' में शोषक साहूकार की भूमिका निभाने वाले कन्हैयालाल ने ही 'मदर इंडिया' में भी वह भूमिका निभाई। संगीत सहित फ़िल्म के सभी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। यह फ़िल्म ऑस्कर पुरस्कार जीतने के अत्यन्त निकट जा पहुँची थी। 

५. हक़ीक़त (१९६४): मेरी दृष्टि में यह भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ युद्ध फ़िल्म है जो १९६२ के भारत-चीन युद्ध से अधिक उन भारतीय सैनिकों की पीड़ा को रूपायित करती है जिससे वे पीछे लौटते समय गुज़रते हैं। उनकी यह पीड़ा युद्ध में हुई पराजय की पीड़ा के समकक्ष ही है। सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद की यह फ़िल्म न केवल बलराज साहनी, धर्मेन्द्र, प्रिया राजवंश, जयंत, लेवी आरोन (बाल कलाकार) तथा सैनिकों की छोटी-छोटी भूमिकाओं में विजय आनंद, संजय, मैक मोहन, सुधीर आदि के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी है वरन मदन मोहन का कालजयी संगीत भी इसे एक कभी न भूली जा सकने वाली अद्भुत फ़िल्म का स्वरूप प्रदान करता है। कैफ़ी आज़मी ने दिल को छू लेने वाले गीत लिखे हैं। और एक गीत - 'हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा' तो न केवल सुनते समय बल्कि परदे पर देखते समय भी दिलोदिमाग़ में एक हूक-सी उठा देता है। मैं इस गीत को हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ गीत मानता हूँ जिसे भूपिंदर, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद एवं मन्ना डे जैसे चार असाधारण गायकों ने मिलकर गाया है। 

६. साहिब बीबी और ग़ुलाम (१९६२): महान बांग्ला उपन्यासकार बिमल मित्र के उपन्यास पर आधारित गुरु दत्त द्वारा निर्मित यह क्लासिक फ़िल्म उन्नीसवीं सदी के बंगाल में ज़मींदारों के रहन-सहन, मानसिकता, अंग्रेज़ी शासन के दौरान गिरती हुई उनकी आर्थिक स्थिति तथा उस युग के बंगाली सामाजिक परिवेश का सजीव चित्र एक मर्मस्पर्शी कथा के द्वारा प्रस्तुत करती है। बिमल मित्र ने जीवन तथा समाज को अत्यन्त निकट से देखा-जाना था, यह बात उनकी किसी भी कृति को पढ़कर जानी जा सकती है। अबरार अल्वी ने फ़िल्म का कुशलता से निर्देशन किया है जबकि मीना कुमारी ने छोटी बहू की भूमिका में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। अन्य प्रमुख भूमिकाओं में गुरु दत्त, रहमान तथा वहीदा रहमान ने भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इस फ़िल्म को देखना ही अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। हेमंत कुमार का संगीत भी हृदय-विजयी है।

. दो बीघा ज़मीन (१९५३): 'मदर इंडिया' की ही भांति यह फ़िल्म भी ग्रामीण भारत में सूदख़ोर साहूकारों द्वारा कृषकों के शोषण का मर्मस्पर्शी चित्रण करती है। 'मदर इंडिया' जहाँ एक स्त्री के साहस की कथा है, वहीं 'दो बीघा ज़मीन' एक कृषक दंपती की हृदय-विदारक दुखद गाथा है। बिमल रॉय द्वारा निर्मित-निर्देशित यह फ़िल्म बलराज साहनी तथा निरूपा रॉय के सजीव अभिनय से सुशोभित है एवं कहीं से भी कोई कल्पित कथा प्रतीत नहीं होती। शैलेन्द्र के लिखे सुंदर गीतों हेतु सलिल चौधरी ने ऐसा सुमधुर संगीत दिया है कि वे गीत कालजयी हो गए हैं तथा संगीत-प्रेमियों द्वारा आज भी बार-बार सुने जाते हैं।

. मुग़ल-ए-आज़म (१९६०): निर्माता-निर्देशक करीम आसिफ़ की यह फ़िल्म निर्विवाद रूप से अब तक की सबसे भव्य हिन्दी फ़िल्म है। सलीम-अनारकली की कल्पित गाथा पर आधारित इस फ़िल्म में न केवल भव्यता है वरन नौशाद का अमर संगीत भी है तथा एक मन को झकझोर देने वाली कहानी है। प्रमुख भूमिकाओं में पृथ्वी राज कपूर, दिलीप कुमार तथा मधुबाला के अभिनय से सजी यह फ़िल्म बार-बार देखी जा सकती है क्योंकि इसे देखना अपने आप में ही एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव है। मनोरंजन से भरपूर मूल फ़िल्म के कुछ दृश्य रंगीन थे लेकिन सन २००४ में सम्पूर्ण फ़िल्म को ही रंगीन बनाकर पुनः प्रदर्शित किया गया और नवीन रंगीन संस्करण भी मूल श्वेत-श्याम फ़िल्म की भांति ही अत्यन्त सफल रहा। 

९. सत्यकाम (१९६९): निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी इस अत्यंत यथार्थपरक फ़िल्म में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे पाखंडी समाज के बदसूरत चेहरे को नग्न कर दिया और बता दिया कि आज की दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है ईमानदारी और शराफ़त। बेईमानों से भरी व्यवस्था में कितना मुश्किल होता है सच्चा और ईमानदार होना, इसे बताती है पत्थर जैसी चोट करने वाली यह फ़िल्म। फ़िल्म इस सूक्ष्म तथ्य को भी निरूपित करती है कि संसार से कटकर आदर्शवादी बातें करना सरल है, संसार के मध्य रहकर दैनंदिन कष्टों एवं समस्याओं से जूझते हुए आदर्शों पर चलना अत्यंत कठिन। और जो इस कठिन काम को बिना अपने पथ से तनिक भी विचलित हुए करे, सत्य का उद्घोष करने का वास्तविक अधिकार उसी को है। केन्द्रीय भूमिका में धर्मेन्द्र ने प्राण फूंक दिए हैं जबकि अन्य भूमिकाओं में शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, सारिका (बाल कलाकार) एवं अशोक कुमार ने भी अत्यन्त प्रभावी अभिनय किया है। सत्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने वाले पथिक की कथा दुखांत ही हो सकती थी, दुखांत ही है। तथापि अंधकार में फूटने वाली एक किरण की भांति अंत में आशा का संकेत भी है। 

१०. काग़ज़ के फूल (१९): गुरु दत्त द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म है यह जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही थी लेकिन आज इसे एक असाधारण फ़िल्म माना जाता है। फ़िल्म-संसार की ही पृष्ठभूमि पर आधारित यह फ़िल्म बिना किसी लागलपेट के देश एवं काल के पार की इस सच्चाई को बताती है कि समाज गुणों का बखान चाहे जितना कर ले, वास्तव में सफलता को ही पूजता है। भौतिक रूप से असफल व्यक्ति चाहे कितने ही गुणी हों, समाज उनके साथ निर्ममता की सीमा तक जाने वाली क्रूरता से ही पेश आता है। जो सफल है, सब उसके हैं और जो असफल है, उसका कोई नहीं। ऐसा लगता है कि नाकामयाब इंसान के लिए इस दुनिया में कोई जगह ही नहीं है। काग़ज़ के सुंदर मगर बिना ख़ुशबू वाले फूलों से भरी है यह दुनिया। कैफ़ी आज़मी के यथार्थपरक गीतों को सचिन देव बर्मन ने सुंदर संगीत से सजाया है। श्वेत-श्याम फ़िल्म में भी वी.के. मूर्ति का छायांकन अपनी अमिट छाप छोड़ता है तथा तत्कालीन बम्बई में चलने वाली स्टूडियो-व्यवस्था के पतन को प्रभावी ढंग से अंकित करता है।  केन्द्रीय भूमिका में गुरु दत्त ने दिल की गहराई में उतर जाने वाला अभिनय किया है जबकि नायिका के रूप में वहीदा रहमान भी पीछे नहीं रही हैं। यह महान फ़िल्म एक ऐसे सुंदर गीत की भांति है जिसे ठीक से गाया नहीं जा सका, एक ऐसी सुंदर मूरत की भांति है जो अनगढ़ ही रह गई, एक ऐसी सुंदर कथा की भांति है जिसके कुछ अंश अनकहे ही रह गए। अपने अंतिम क्षणों में रुला देने वाली इस दर्दभरी फ़िल्म की तुलना मोना लिसा के उस महान चित्र से की जा सकती है जिसमें स्त्री की भौहें ही नहीं हैं।

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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

मानवीय मनःस्थितियों, संबंधों एवं भावनाओं से ओतप्रोत हृदयस्पर्शी कथा

आज आठ दिसम्बर है। आज भारतीय रजतपट के दो अत्यन्त चमकीले सितारों का जन्मदिन है। एक हैं धर्मेन्द्र और दूसरी हैं शर्मिला टैगोर (या ठाकुर)। धर्मेन्द्र आज अट्ठासी वर्ष के हो गए हैं जबकि शर्मिला टैगोर ने आज अपनी आयु के उनयासी वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। इन दोनों ही सदाबहार सितारों को जन्मदिवस की बधाई देते हुए मैं एक ऐसी फ़िल्म के विषय में बात करने जा रहा हूँ जिसमें इन दोनों ने प्रमुख भूमिकाएं निबाही थीं। एक साहित्यिक कृति पर आधारित यह सुंदर फ़िल्म है - 'देवर' जो सन उन्नीस सौ छियासठ में प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म का कथानक सुप्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कृति 'ना' पर आधारित है। फ़िल्म का नाम 'देवर' इसलिए रखा गया है क्योंकि फ़िल्म में शर्मिला टैगोर धर्मेन्द्र की भाभी बनती हैं और धर्मेंन्द्र शर्मिला के देवर। 

फ़िल्म दो बच्चों के निर्दोष प्रेम से आरम्भ होती है ‌‌- एक बालक है तथा दूसरी बालिका। बालक का बालपन का नाम 'भोला' है जबकि बालिका का 'भंवरिया'। परिस्थितियां ऐसी करवट लेती हैं कि भोला और भंवरिया को बिछुड़ना पड़ता है। दोनों पृथक्-पृथक् परिवेश में बड़े होते हैं। 'भंवरिया' (शर्मिला टैगोर) अब 'मधुमति' के नाम से जानी जाती है जबकि 'भोला' (धर्मेन्द्र) अब अपने वास्तविक नाम 'शंकर' के नाम से पुकारा जाता है। वयस्क हो चुके शंकर का अब सबसे अधिक लगाव है तो अपने चचेरे भाई सुरेश (देवेन वर्मा) से। दोनों भाई से कहीं अधिक मित्र हैं तथा अपने मन की बात एकदूसरे से बांटते हैं। यह एक पारम्परिक ज़मींदार परिवार है और धन-सम्पदा से परिपूर्ण है। सुरेश सुशिक्षित है तथा साहित्य में रुचि रखता है जबकि शंकर ने अधिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है एवं पढ़ने-लिखने से अधिक रुचि शिकार में ली है। सुरेश के हाथ में पुस्तक शोभा पाती है तो शंकर के हाथ में बंदूक। 

लड़के बड़े हो गए हैं तो उनके विवाह की भी बात चलने लगती है। दोनों के लिए अलग-अलग जगह से रिश्ते आते हैं। अब नये ज़माने के लड़के हैं तो उनके मन में विवाह-संबंध पक्के होने से पहले कन्याओं को देखने की भी इच्छा होती है। पर उनके ख़ानदान में न ऐसा रिवाज है और न ही इसकी इजाज़त है। लेकिन शंकर के पिता दीवान साहब (सप्रू) उन्हें एकदूसरे की होने वाली वधू को देखने जाने की अनुमति दे देते हैं। परिणामतः शंकर 'शांता' (शशिकला) को देखने उसके घर जाता है जिसका रिश्ता सुरेश के लिए आया है जबकि सुरेश मधुमति को देखने जाता है जिसका रिश्ता शंकर के लिए आया है। कम शिक्षित होने पर भी शंकर सुशिक्षिता शांता से इस ढंग से बात करता है कि वह उसे शिक्षित एवं साहित्य-प्रेमी समझ लेती है। सुन्दर, सुशील और साहित्यिक अभिरुचि से सुसंपन्न शांता के लिए अपने मन में बड़ी अच्छी धारणा बनाकर शंकर लौटता है एवं अपने सखा जैसे भाई सुरेश को शुभ समाचार देता है कि शांता प्रत्येक दृष्टि से उसके योग्य है जिसके साथ उसका वैवाहिक जीवन बहुत सुख से बीतेगा। लेकिन . . .

लेकिन दूसरी ओर सुरेश जब शंकर की ओर से मधुमति को देखने उसके घर जाता है एवं उससे मिलता है तो उसका मन बहक जाता है। मधुमति का रूप-सौंदर्य उसे मोहित कर लेता है। नतीजा यह होता है कि वह आया तो था अपने चचेरे भाई के लिए उसे पसंद करने और पसंद उसे अपने लिए कर बैठता है। पर अपने मन की यह बात वह किसी को बता नहीं सकता। शंकर से वह यही कहता है कि उसे मधुमति कोई विशेष पसंद नहीं आई। सरल स्वभाव का शंकर इस बात की परवाह नहीं करता एवं यही तय करता है कि यदि उसके माता-पिता इस संबंध हेतु स्वीकृति दे देते हैं तो वह विवाह कर लेगा। कन्या (सुरेश के अनुसार) कोई विशेष अच्छी नहीं तो वह भी तो अल्प-शिक्षित है। निभा लेगा आजीवन उसके साथ। पर यह तो शंकर की सोच है। सुरेश के मन में तो तूफ़ान उठा हुआ है। क्या करे वह ? कैसे मधुमति को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करे ?

सुरेश का बहका हुआ मन षड्यंत्र रचने लगता है। उसे न केवल मधुमति का विवाह-संबंध शंकर के साथ होने से रोकना है बल्कि उस संबंध को अपने लिए तय करवाना है। काम बहुत मुश्किल है। इसलिए साज़िश भी उसे बड़ी पेचीदा करनी है। वह दो विषबुझी चिट्ठियां (poison pen letters) संबंधित कन्याओं के परिवारों को लिखता है। इन चिट्ठियों में वह अपना तथा शंकर का ऐसा चरित्रहनन करता है कि जो विवाह-संबंध होने जा रहे थे, वे नहीं हो पाते। किन्तु शांता तथा उसका परिवार शंकर से ऐसे प्रभावित हैं कि वे शांता का विवाह शंकर से करने पर सहमत हो जाते हैं। दूसरी ओर जब शंकर के पिता मधुमति के परिवार की प्रतिष्ठा के प्रति चिंतित रहते हैं तो सुरेश अपने आप को किसी बलिदानी की भांति प्रस्तुत करते हुए मधुमति से विवाह करने हेतु सहमति दे देता है। इस तरह दोनों विवाह-संबंध उलट जाते हैं और शंकर का विवाह शांता से जबकि मधुमति का विवाह सुरेश से हो जाता है। और यही तो सुरेश चाहता था।

विवाह की प्रथम रात्रि को ही शांता को अपने पति शंकर की सच्चाई पता चलती है कि वह अल्प-शिक्षित है तो उसे ऐसा लगता है कि उसे तथा उसके परिवार को बहुत बड़ा धोखा दिया गया है। इसका परिणाम यह होता है कि  वैवाहिक जीवन आरंभ होने से पूर्व ही पति-पत्नी के संबंधों में दरार आ जाती है जो विभिन्न घटनाओं के साथ विस्तृत ही होती चली जाती है। विषबुझी चिट्ठियों की बात भी सभी को पता लगती है तो जहाँ शांता के परिवार को लिखी गई चिट्ठी को तो सुरेश नष्ट करने में सफल हो जाता है, वहीं दूसरी चिट्ठी को मधुमति के बड़े भाई (तरुण बोस) अपने पास संभालकर रख लेते हैं तथा सत्य का पता लगाने में जुट जाते हैं क्योंकि वे एक हस्तलिपि विशेषज्ञ (handwriting expert) हैं। पर शांता, उसके पीहर वाले तथा शंकर के परिवार वाले शंकर को ही दोषी समझते हैं जिसने शांता से विवाह करने की ख़ातिर वे झूठी चिट्ठियां लिखी थीं। शंकर का जीना दुश्वार हो जाता है। अब अपने घर में अगर उसे हमदर्दी मिलती है तो सिर्फ़ अपनी भाभी मधुमति से। एक दिन जब वह अचानक जान जाता है कि मधुमति ही उसके बचपन का प्रेम भंवरिया है तो उसका रोम-रोम पीड़ा से भर जाता है पर अपने नाम को चरितार्थ करते हुए वह इस गरल को चुपचाप पी जाता है और इस रहस्य को जीवन भर अपने मन में छुपाए रखने का निर्णय ले लेता है। 

दूसरी ओर सुरेश मधुमति के साथ वैसा ही सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहा है जैसे की उसे अभिलाषा थी। पर जब मधुमति के भाई यह सच्चाई जान जाते हैं कि विषबुझी झूठी चिट्ठियां वास्तव में सुरेश ने लिखी थीं, शंकर ने नहीं तो वे अनजाने में ही यह बात शंकर को बता बैठते हैं। अब शंकर इस बाबत सुरेश से जवाबतलबी करता है। सुरेश उससे वह चिट्ठी छीनने की कोशिश करता है। दोनों भाइयों में रार होती है और अनजाने में ही सुरेश मारा जाता है। शंकर उसकी हत्या के आरोप में गिरफ़्तार हो जाता है। अनजाने में हुई उस हत्या की चश्मदीद गवाह और कोई नहीं, शंकर की भाभी मधुमति ही है जो अपने देवर को अपने सुहाग को मिटाने वाले अपराधी के रूप में देखती है तथा अदालत में उसके ख़िलाफ़ गवाही देने के लिए तैयार हो जाती है। अब जबकि सभी लोग उन चिट्ठियों की सच्चाई तथा सुरेश के षड्यंत्र को जान चुके हैं तो वे मधुमति को गवाही देने से रोकने का प्रयास करते हैं पर मधुमति किसी की नहीं सुनती। फ़िल्म अत्यन्त भावुक ढंग से समाप्त होती है।

न केवल ताराशंकर बंद्योपाध्याय जी की लिखी हुई कथा (ना) बहुत अच्छी है, बल्कि निर्देशक मोहन सेगल ने इसे बहुत ही रोचक ढंग से रूपहले परदे पर उतारा है। आरंभ से अंत तक फ़िल्म एकदम चुस्त है तथा दर्शकों को घड़ी देखने का कोई अवसर नहीं देती। दर्शक श्वास रोके विभिन्न घटनाओं को देखता चला जाता है एवं अंत में फ़िल्म उसके हृदय को गहनता से स्पर्श कर लेती है। धर्मेन्द्र तथा शर्मिला टैगोर ने तो बेहतरीन अभिनय किया ही है; शशिकला, देवेन वर्मा एवं (बाल कलाकारों सहित) अन्य सहायक कलाकारों ने भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में प्राण फूंक दिये हैं। फ़िल्म का छायांकन एवं अन्य तकनीकी पक्ष भी सराहनीय हैं। सत्तावन वर्ष पुरानी यह श्वेत-श्याम फ़िल्म आज भी देखी जाए तो किसी नवीन फ़िल्म की भांति ही प्रतीत होती है। 

संगीतकार रोशन (फ़िल्म स्टार हृतिक रोशन के दादा) ने 'देवर' में बेहतरीन संगीत दिया है जबकि हृदयस्पर्शी गीत लिखे हैं आनंद बक्शी ने। तीन गीत तो कालजयी हैं - लता मंगेशकर का गाया हुआ 'दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है' तथा मुकेश के गाए हुए दो गीत - 'आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का' व 'बहारों ने मेरा चमन लूटकर खिज़ां को ये इल्ज़ाम क्यूं दे दिया है'। ये ऐसे अमर गीत हैं जो दशकों से सुने जा रहे हैं तथा आने वाले समय में भी सुने जाते रहेंगे।

'देवर' हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की एक अनमोल धरोहर है। सौभाग्य से यह अवलोकनार्थ सुगमता से उपलब्ध भी  है। सभी हिंदी सिनेमा के प्रेमी इस श्रेष्ठ फ़िल्म को देखकर अपने मन में सदा के लिए संजो सकते हैं। 

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मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

देश-प्रेम : तब और अब

मैंने १९८८ में अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण करके उच्च शिक्षा हेतु कोलकाता (तब वह नगर कलकत्ता कहलाता था) प्रस्थान किया एवं चार्टर्ड लेखापालन के पाठ्यक्रम की आवश्यकता के अनुरूप चार्टर्ड लेखापालों की एक संस्था में प्रवेश प्राप्त किया। राजस्थान के सांभर झील नामक एक छोटे-से कस्बे से आया मैं महानगरीय युवकों (जिनका सान्निध्य मुझे उस संस्था से संबद्ध होने के उपरांत प्राप्त हुआ) हेतु एक परिहास का विषय बन गया। इसका एक कारण तो मेरा शुद्ध हिन्दी बोलना था, साथ ही कुछ अन्य कारण भी थे (अनेक महानगरीय युवक छोटे स्थानों से आने वाले छात्रों को हीनता की दृष्टि से भी देखते थे)। किंतु जिस कारण ने मुझे आज साढ़े तीन दशकों के उपरांत इस लेख के सृजन हेतु प्रेरित किया है, वह है उनके द्वारा किया जाने वाला देश-प्रेम जैसे आदर्श जीवन मूल्यों का उपहास एवं तिरस्कार।

मैं (न जाने कैसे) बालपन से ही आदर्शवादी बन गया था एवं महात्मा गांधी की भांति सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप मानने लगा था। इसके अतिरिक्त मैंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले एवं प्राणाहुति तक देने वाले अनेक देशभक्तों की जीवनियां पढ़ी थीं। चंद्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, बाघा जतीन, सूर्य सेन, कित्तूर की रानी चेन्नम्मा  आदि मातृभूमि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले देशभक्तों की जीवनियां पढ़कर न जाने कब मेरे मन में भी देश-प्रेम के बीज अंकुरित हो गए तथा मैं भी देश-प्रेम को एक बहुत उच्च आदर्श के रूप में अपने व्यक्तित्व में स्थापित कर बैठा। एकांत में जब भी मैं इन अमर देश-प्रेमियों की जीवन-कथाओं को (पुनः-पुनः) पढ़ता था तो कई बार मेरे नयन सजल हो उठते थे (ऐसा अब भी हो जाता है)। अपने विद्यालय तथा महाविद्यालय के जीवन में भी मैं अपने साथियों से इस संदर्भ में वार्ता किया करता था तो पाता था कि वे मेरी बातों को काटते तो नहीं थी किन्तु उनमें गंभीर रुचि भी नहीं लेते थे। इसका कारण मैंने यही समझा कि वे मेरी तुलना में कहीं शीघ्र ही परिपक्व एवं व्यावहारिक हो गए थे।

पर आगे के वर्षों में अपने कोलकाता प्रवास तथा (विभिन्न लेखा-परीक्षण संबंधी कार्यों हेतु) बाह्य स्थलों के लंबे-लंबे दौरों के मध्य जब मैंने ऐसी ही वार्ताएं अपने उन साथियों से कीं जो महानगरीय एवं साधन-संपन्न परिवेश में पले थे एवं अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा-प्राप्त थे तो मुझे अधिकांश साथी-विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं ने पीड़ा-मिश्रित आश्चर्य से भर दिया। मेरे अधिकांश साथी-छात्र देश-प्रेम ही नहीं वरन अन्य आदर्शों एवं जीवन मूल्यों को भी उपहास की वस्तु ही समझते थे तथा (मेरे जैसा) आदर्शवादी एवं देश-प्रेमी युवक उनकी दृष्टि में मूर्ख के अतिरिक्त कुछ नहीं था। देश और समाज के विषय में सोचना भी उन युवाओं के बहुमत की दृष्टि में मूर्खता ही थी। और सत्य, न्याय, परोपकार एवं अन्य सद्गुण पुस्तकीय शब्द मात्र थे। उनके लिए जीवन का अर्थ मौज-मस्ती तथा अधिकाधिक धनार्जन ही था, और कुछ नहीं।  उस साढ़े तीन वर्षों की अवधि में तथा तदोपरांत अपने तीन दशक से अधिक लम्बे करियर में मैंने प्रायः यही जाना कि इस संसार का सबसे बड़ा सत्य है निहित स्वार्थ जिसके समक्ष समस्त जीवन मूल्य एवं सतोगुण गौण प्रतीत होते हैं। निज हित से हटकर कुछ और सोचने-देखने-चाहने वाला व्यक्ति सांसारिकता में रचे-बसे लोगों की राय में एक भावुक-मूर्ख (इमोशनल फ़ूल) ही होता है। रही बात देश-प्रेम की तो जिन्हें स्वतंत्रता बिना उसका मूल्य चुकाए तथा बिना उसके लिए कोई त्याग किए मिल गई, वे देश-प्रेम (और वीर बलिदानियों) का मोल क्या जानें ? 

सन २००६ में भारत के गणतंत्र दिवस के दिन एक हिन्दी फ़िल्म प्रदर्शित हुई - रंग दे बसंती। इसके कथानक में भी फ़िल्मकार (राकेश ओमप्रकाश मेहरा) ने कुछ ऐसे ही युवा दिखाए हैं जो मौज-मस्ती के अतिरिक्त जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य नहीं समझते। देश-प्रेम जैसी बातें और देश की स्वाधीनतार्थ अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले अमर शहीदों की कथाएं तो उनके लिए मानो किसी अपरिचित भाषा की उक्तियां हैं। ऐसे में एक विदेशी युवती अपने स्वर्गीय पिता की दैनंदिनी (डायरी) के आधार पर मातृभूमि के हित अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले कतिपय क्रांतिकारियों पर एक वृत्तचित्र बनाने हेतु आती है। उसके पिता एक अंग्रेज़ अधिकारी थे जो माँ भारती की दासता की बेड़ियां काटने के लिए हँसते-हँसते फाँसी पर झूल जाने वाले क्रांतिकारियों के निकट सम्पर्क में रहकर उनसे बहुत प्रभावित हुए थे तथा उनकी गाथा ही उन्होंने लेखबद्ध की थी (ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी वास्तव में थे जो देशभक्तों के अदम्य साहस, मातृभूमि पर मर-मिटने की उनकी भावना तथा उनके उदात्त विचारों से अत्यन्त प्रभावित हुए थे)। 
यह अंग्रेज़ युवती अपनी एक भारतीय सखी की सहायता से अपना वृत्तचित्र बनाने हेतु क्रांतिकारियों - चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ां तथा राज गुरु की भूमिकाओं हेतु इन्हीं खिलंदड़े युवकों को चुनती है जो पहले तो उसकी हँसी ही उडाते हैं किन्तु एक बार इन भूमिकाओं को निभाना स्वीकार कर लेने के उपरांत जब वे उन महान देशभक्तों के चरित्रों को समझते हैं तो उनके अपने विचारों में भी परिवर्तन आता है। दुर्गा भाभी की भूमिका हेतु वह अंग्रेज़ युवती अपनी भारतीय सखी को ही चुनती है जबकि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की भूमिका हेतु एक ऐसे युवक को चुना जाता है जो इन युवकों के दल का नहीं है तथा जिसका इनसे सदा ही मतभेद बना रहता है। सब कुछ ठीकठाक हो रहा होता है कि एक दुखद घटना इन्हें बताती है कि स्वाधीन भारत में भी स्थितियां पराधीन भारत से मिलती-जुलती-सी ही हैं। और तब जिन क्रांतिकारियों का ये केवल अभिनय ही कर रहे थे, उन्हीं के जैसे भाव इनके मनोमस्तिष्क में उमड़ने लगते हैं। फ़िल्म का दुखद अंत होता है। दुखद ही हो सकता था। पर दर्शकों को तथा विशेषतः उन युवाओं को जिनके लिए खाना-पीना-मौज उड़ाना ही सब कुछ है, यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने के लिए दे जाती है।

कुछ कमियों के बावजूद 'रंग दे बसंती' में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे साधारण फ़िल्मों से अलग करता है। फ़िल्म में अभिनय, गीत-संगीत तथा तकनीकी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। पर जो सबसे बड़ी बात इसमें है, वह यह है कि फ़िल्मकार यह मानता है कि वतन पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले देशभक्तों में जो वतनपरस्ती का जज़्बा मौजूद था, वह आज की पीढ़ी में भी हो सकता है। किसी की भी आँखें कभी भी खुल सकती हैं। इस फ़िल्म में उस युग के क्रांतिकारियों तथा इस युग के (देशभक्त बन चुके) युवकों के मध्य जो समानांतर रेखाएं खींची गई हैं, वे अद्भुत हैं। साथ ही बिस्मिल और अशफ़ाक़ का भावनात्मक जुड़ाव यह बताता है कि वे देश-प्रेमी आपस में भी उतना ही प्रेम करते थे एवं धार्मिक विभाजन से ऊपर उठ चुके थे। यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि मानवता का भाव देश-प्रेम से भी उच्च होता है, तथापि यदि केवल देश-प्रेम की ही बात की जाए तो सत्य यही है कि अपने देश को सुधारने तथा उच्चताओं पर ले जाने का दायित्व किसी अन्य का नहीं हमारा ही है। क्यों ? इसलिए कि यह देश हमारा है। अमर बलिदानी तो तूफ़ान से कश्ती निकाल कर ले आए, अब इस देश को सम्भाल कर रखना हमारी ही ज़िम्मेदारी है। देश तथा व्यवस्था में बहुत-सी कमियां हैं, माना। पर जैसा कि 'रंग दे बसंती' के ही एक पात्र का संवाद है - 'कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता, उसे परफ़ेक्ट बनाना पड़ता है।' 

तो आइए, आज़ादी का और इसके लिए मर-मिटने वाले अमर शहीदों की शहादत का मोल समझें और अपनी आने वाली नस्ल को भी समझाएं।

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