अब जबकि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर का
उद्घाटन होने जा रहा है, मुझे एक
ऐसी हिन्दी फ़िल्म की याद आ रही है जो कि रामायण पर तो आधारित नहीं है किन्तु
रामायण के अयोध्या कांड को आधुनिक परिवेश में आधुनिक पात्रों के साथ प्रस्तुत करती
है। जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी तो यह मेरे तथा मेरे छोटे-से परिवार (मैं, मेरी पत्नी एवं मेरी नन्ही
पुत्री) की पसंदीदा फ़िल्म बन गई थी। यह फ़िल्म है - 'हम साथ-साथ हैं' (१९९९)।
'हम साथ-साथ हैं' राजश्री बैनर के तले बनाई
गई निर्माता-निर्देशक सूरज बड़जात्या की फ़िल्म है जिनकी इससे पहले बनी फ़िल्म 'हम आपके हैं कौन ?' (१९९४) व्यावसायिक रूप से
अत्यधिक सफल रही थी एवं उसे भरपूर प्रशंसा भी प्राप्त हुई थी। मुझे वह फ़िल्म कुछ
कम पसंद इसलिए आई थी क्योंकि उसमें जो परिवार दिखाया गया था, वह अत्यधिक धनी था एवं जीवन
की दैनंदिन समस्याओं से सुरक्षित था। वस्तुतः वह राजश्री की ही पुरानी फ़िल्म 'नदिया के पार' (१९८२) का ही नगरीय संस्करण
थी जो कि एक सादगी से परिपूर्ण हृदयस्पर्शी फ़िल्म थी। बहरहाल 'हम आपके हैं कौन ?' भारतीय सिने इतिहास की
सफलतम फ़िल्मों में सम्मिलित हुई तथा सूरज ने अपनी अगली फ़िल्म 'हम साथ-साथ हैं ?' को लगभग उसी ढंग से बनाया।
लेकिन फ़िल्म में कथा भी तो होनी चाहिए। सूरज को अपनी फ़िल्म की कथा गोस्वामी
तुलसीदास की रामचरितमानस के अयोध्या कांड में मिली।
अयोध्या कांड में राम के राजतिलक से पूर्व ही रानी कैकेयी द्वारा
राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत हेतु राजपाट तथा राम हेतु चौदह वर्षों के वनवास का
वचन मांगना, राम
द्वारा पिता के वचन-पालन हेतु अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण सहित वन-गमन, उनकी अनुपस्थिति में भरत
द्वारा स्वयं को राजा न मानकर केवल अपने अग्रज राम की चरण-पादुका को सिंहासन पर
रखकर उनके प्रतिनिधि के रूप में राज-कर्तव्य का पालन आदि प्रसंग सम्मिलित हैं। इसी कथा को सूरज
बड़जात्या ने आधुनिक बाना पहना दिया है। राजा दशरथ के स्थान पर हैं एक उद्योगपति
रामकिशन (आलोक नाथ), कैकेयी
के स्थान पर हैं उनकी दूसरी पत्नी ममता (रीमा), राम के स्थान पर हैं उनकी दिवंगत प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्र विवेक
(मोहनीश बहल), भरत एवं
लक्ष्मण के स्थान पर हैं ममता के पुत्र प्रेम (सलमान खान) एवं विनोद (सैफ़ अली खान)
एवं सीता के स्थान पर हैं विवेक की पत्नी साधना (तब्बू). इस आधुनिक रामकथा में तीन
भाइयों की एक बहन भी है - संगीता (नीलम) जो कि आनंद बाबू (महेश ठाकुर) से विवाहित
है। रामकथा में सीता के पिता राजा जनक हैं तो यहाँ साधना के पिता आदर्श बाबू
(राजीव वर्मा) हैं। अन्य पात्रों में एक ओर आनंद बाबू के बड़े भाई अनुराग बाबू
(दिलीप धवन) एवं उनकी पत्नी (शीला शर्मा) हैं तो दूसरी ओर विवेक के अभिन्न मित्र
अनवर (शक्ति कपूर)। संगीता एक बच्ची की माता है पर वह अपने जेठ के दो लड़कों को
अपनी संतानों की तरह ही प्यार करती है तथा तीनों बालक साथ ही रहते एवं हंसते-खेलते
हैं।
अब चूंकि सूरज को एक नृत्य-गीतों वाली, मनोरंजन से युक्त व्यावसायिक फ़िल्म बनानी थी, तो उसने प्रेम एवं विनोद के
लिए भी दो नायिकाएं प्रस्तुत कर दीं। हम चाहें तो प्रेम की बचपन की सखी एवं
प्रेयसी प्रीति (सोनाली बेंद्रे) को रामायण की मांडवी मान लें तथा विनोद की बचपन
की सखी एवं प्रेयसी सपना (करिश्मा कपूर) को रामायण की उर्मिला। दोनों के ही पिता
रामकिशन के पुराने मित्र एवं उनके मूल गांव रामपुर के साथी हैं। प्रीति के पिता
प्रीतम (सतीश शाह) एक हंसमुख स्वभाव के सरल व्यक्ति हैं जबकि सपना के पिता धर्मराज
(सदाशिव अमरापुरकर) कुछ लालची एवं नाटकीय स्वभाव के व्यक्ति हैं। सपना की दादी
(शम्मी) भी फ़िल्म में हैं। रामायण में कैकेयी को दिग्भ्रमित करने वाली दासी मंथरा
है तो फ़िल्म में ममता की बुद्धि फेरने हेतु तीन-तीन मंथराएं (कुनिका, जयश्री तलपदे एवं कल्पना
अय्यर) रखी गई हैं। इनके अतिरिक्त भी फ़िल्म में कुछ पात्र हैं जिनमें प्रमुख हैं
ममता के वकील भाई (अजीत वाच्छानी) एवं उनकी पत्नी (हिमानी शिवपुरी)।
अब ढेर सारे पात्र हैं तो सभी से दर्शकों को परिचित भी करवाना था एवं
कथा में समायोजित भी करना था। आधुनिक कैकेयी ममता (जो आधुनिक राम विवेक को अपनी
संतान की ही भांति प्रेम करती हैं) के मनोमस्तिष्क पर कुप्रभाव डालने वाली कोई
घटना भी होनी चाहिए थी। अतः घर के दामाद आनंद बाबू के साथ उनके बड़े भाई अनुराग
बाबू द्वारा अन्याय किया जाना दिखाया जाता है। इधर व्यवसाय के सर्वेसर्वा रामकिशन
अपनी कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद (जो कि रामायण के राजपाट के सदृश ही है) अपने
ज्येष्ठ पुत्र विवेक को सौंपने की घोषणा कर देते हैं जो न केवल इस परिवार को देखकर
कुढ़ने वाले धर्मराज को वरन ममता की तीन सहेलियों (अर्थात फ़िल्म की मंथराओं) को
विचलित कर देती है। चूंकि आनंद बाबू के साथ हाल ही में बुरा हुआ है, ममता को अपने पुत्र प्रेम
की चिंता लग जाती है एवं वह व्यवसाय तथा संपत्ति के बंटवारे की मांग को लेकर
कोपभवन (अपने कक्ष) में जा बैठती है। रामकिशन दुखी होते हैं किन्तु माता का मन
शांत हो, इसके लिए
विवेक तथा साधना उनके पैतृक गांव रामपुर जाने का निर्णय ले लेते हैं जहाँ उनका
पुराना मकान है तथा रामकिशन द्वारा वहाँ एक नया कारख़ाना बनवाया जा रहा है। अपनी
माता से रूष्ट विनोद भी उनके साथ लग लेता है।
रामायण के अयोध्या कांड में इन घटनाओं के समय भरत को अयोध्या से बाहर
बताया गया है तो फ़िल्म में भी आधुनिक भरत प्रेम को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गया हुआ
बताया गया है। रामायण के भरत की ही भांति प्रेम भी लौटकर यह सब जानने के उपरांत
अपनी माता से रूष्ट होता है एवं अपने बड़े भाई को मनाकर लौटा लाने का प्रयास करता
है। अंततः वह कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद सम्भालता तो है किन्तु उस आसन पर नहीं
बैठता एवं अपने आवास में भी विवेक के कक्ष में जाने के अपनी माता के आग्रह को
ठुकरा देता है। चूंकि फ़िल्म का सुखद अंत करना था तो अनुराग बाबू का हृदय-परिवर्तन
करवाया गया है जिससे आनंद बाबू तथा संगीता को उनका अधिकार पुनः मिलता है, इसका सकारात्मक प्रभाव ममता
के मन पर पड़ता है, वह अपनी
भूल को सुधारती है एवं विवेक व साधना की प्रथम संतान के जन्म के समय सम्पूर्ण
परिवार का सुखद पुनर्मिलन होता है।
सभी पात्रों तथा उनके पारस्परिक संबंधों से
दर्शकों को परिचित करवाने हेतु फ़िल्म की शुरुआत पुराने ज़माने के पारसी नाटकों की
तर्ज़ पर की गई है जहाँ प्रत्येक पात्र अपना परिचय देकर एक ओर हो जाता है तथा दूसरे पात्र
को दर्शकों के समक्ष आने का अवसर देता है। इस हेतु रामकिशन एवं ममता के विवाह की
पच्चीसवीं वर्षगांठ को निमित्त बनाया गया है। विवेक के चरित्र को उभारने हेतु यह
बताया गया है कि अपने अनुज को बचाने के प्रयास में उसका हाथ चोटग्रस्त हो गया था।
वहीं इसी अवसर को विवेक तथा साधना का विवाह तय करने हेतु आधार बनाया गया है तथा विवाह समारोह, विवाहोपरांत घर में हुए
(रिसैप्शन सरीखे) दूसरे समारोह,
प्रेम व प्रीति की सगाई, हनीमून के लिए कहीं दूर जाने के स्थान पर विवेक तथा साधना द्वारा सभी
को साथ लेकर रामपुर जाना, वहाँ सभी
का हंसी-ख़ुशी समय बिताना और विनोद व सपना की सगाई आदि कार्यक्रमों के माध्यम से न
केवल नाच-गाने फ़िल्म में डाले गए हैं बल्कि फ़िल्म का अधिकांश भाग इन्हीं सब मे
व्यय किया गया है। कथानक में मोड़ तथा उससे जुड़े घटनाक्रम फ़िल्म के अंतिम घंटे
में ही दर्शकों के समक्ष आते हैं। लगभग तीन घंटे लंबी यह फ़िल्म स्वस्थ एवं
सम्पूर्ण मनोरंजन प्रदान करती है।
फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में 'हम आपके हैं कौन ?' के ढंग से ही चलती है, संभवतः इसीलिए यह उससे कम सफल रही
थी क्योंकि दर्शकों को दोहराव का आभास हुआ। फिर
भी यह फ़िल्म पारिवारिक स्नेह एवं उसके महत्व को न केवल प्रभावी ढंग से दर्शाती है वरन
अनेक स्थानों पर गुदगुदाती भी है विशेषतः उन दृश्यों में जो विनोद से संबंधित हैं।
तीनों भाइयों के चरित्रों का विकास बहुत अच्छे ढंग से किया गया है तथा उनका पारस्परिक
स्नेह ही फ़िल्म की हाईलाइट है। अपने प्रारंभ से ही यह फ़िल्म दर्शकों को पात्रों की
गतिविधियों के साथ-साथ बहाती चलती है एवं उन्हें ऊबने का कोई अवसर नहीं देती यद्यपि
प्रारंभिक दो घंटे केवल पात्रों द्वारा किसी-न-किसी अवसर की ख़ुशियां मनाने में ही बिताए
जाते हैं। सूरज संभवतः किसी भी कथा के इसी पक्ष के चित्रण में सिद्धहस्त रहे हैं।
कमियां फ़िल्म के निर्देशन में हैं। फ़िल्म के पात्रों के पास न केवल
बहुत धन है बल्कि उसका आनंद उठाने हेतु बहुत सारा समय भी है। एक सम्पूर्ण पारिवारिक महिला होने पर भी ममता द्वारा तीन सोसाइटी गर्ल
सरीखी स्त्रियों से प्रगाढ़ मित्रता रखना एवं उन्हें न केवल बढ़-बढ़कर बोलने की वरन
अपने घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की भी खुली छूट देना अस्वाभाविक लगता
है। किसी भी धनी व्यावसायिक परिवार की गृहिणी बाहरी लोगों को ऐसा नहीं करने देगी। वस्तुतः
इन फ़िल्मी मंथराओं के चरित्र तथा बातें व हावभाव ही फ़िल्म को स्वाभाविकता की पटरी से
उतार देते हैं और ऐसा अनुभव कराते हैं मानो कोई दूसरे लोक से आए पात्रों को सिनेमा
के पटल पर ले आया गया हो। फ़िल्म का सुखान्त भी बड़ी सुगमता से करा दिया गया है और संगीता
व आनंद बाबू की गंभीर समस्या को भी चुटकी बजाने जैसी सरलता से हल होते दिखाया गया है।
ये सब बातें फ़िल्म को गंभीरता से नहीं लेने देतीं तथा इसे केवल मनोरंजनार्थ ही रहने
देती हैं। अंतिम एक घंटे में रामायण के अयोध्या कांड के प्रसंगों की नक़ल कुछ ऐसे की
गई है कि नासमझ-से-नासमझ दर्शक भी जान लेता है कि फ़िल्म की कहानी किस स्रोत से फूटकर
आ रही है। आख़िर जिन्होंने रामचरितमानस नहीं पढ़ी, सदियों से आयोजित होती आ रहीं रामलीलाएं तो उन्होंने भी देखी हैं।
रामलक्ष्मण का संगीत
तथा जय बोराड़े का नृत्य-निर्देशन फ़िल्म का एक अत्यन्त सशक्त पक्ष है। रवींद्र रावल, देव कोहली, मिताली शशांक तथा आर. किरण द्वारा रचे गए अति-सुंदर गीतों पर मनमोहक धुनें
बनाई गई हैं एवं उन पर किए गए नृत्य दर्शकों के नयनों को शीतलता प्रदान करते हैं। ‘म्हारे हिवड़ा में नाचे मोर’ तथा ‘एबीसीडीईएफ़जीएचआई’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं किन्तु
अन्य गीत भी संगीत-प्रेमियों के दिलों को लुभाने में पीछे नहीं रहे हैं। ‘सुनोजी दुल्हन इक बात सुनोजी’ गीत में पिरोई गई विभिन्न
पुराने गीतों की पैरोडियां भी ख़ूब मनोरंजन करती हैं।
ममता की सहेलियों
के रूप में कुनिका, जयश्री तलपदे व कल्पना
अय्यर तथा कुछ सीमा तक धर्मराज के रूप में सदाशिव अमरापुरकर के साठ के दशक से अस्सी
के दशक वाली अति-नाटकीयता का स्मरण कराने वाले अभिनय को छोड़ दिया जाए तो सभी कलाकारों
ने अपने-अपने चरित्रों के साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के रूप में मोहनीश बहल,
सलमान खान एवं सैफ़ अली खान का प्रेम कहीं से भी फ़िल्मी नहीं लगता; सच्चा लगता है। सैफ़ अली खान ने एक मस्तमौला युवक के रूप में अपने अभिनय
से बाक़ी सभी कलाकारों को पीछे छोड़ दिया है। इस फ़िल्म में उनका अभिनय उनके सर्वश्रेष्ठ
अभिनय-प्रदर्शनों में सम्मिलित किया जा सकता है।
अब यह रामायण तुलसीदास
जी ने तो रची नहीं है किन्तु उनके द्वारा रचित चौपाइयां फ़िल्म के प्रथम दृश्य में एवं
फ़िल्म के उत्तरार्ध के कतिपय दृश्यों में सुनी जा सकती हैं। सूरज बड़जात्या न तो तुलसीदास
हैं, न बन सकते थे किन्तु उन्हें तुलसीदास जी का आभारी होना
चाहिए कि उनकी रामायण के अयोध्या कांड ने उन्हें अपनी फ़िल्म की कथा प्रदान कर दी अन्यथा
उनकी नवीनतम फ़िल्म ‘ऊंचाई’ से पूर्व मैं
यही समझता था कि सूरज बड़े बजट की भव्य और संगीतमय फ़िल्म तो बना सकते हैं लेकिन
किसी नई कथा का सृजन उनके वश की बात नहीं। ख़ैर,
जब राम-सिया-लक्ष्मण हमारे मन में बसे हैं तो हम सम्पूर्ण परिवार के
साथ इस फ़िल्म को भी देख सकते हैं एवं एक स्वस्थ, संगीतमय,
पारिवारिक मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं।
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