सुरेन्द्र मोहन पाठक का ऐसा कोई प्रशंसक नहीं जो उनके द्वारा रचित प्रथम नायक सुनील कुमार चक्रवर्ती से परिचित न हो । राष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्र 'ब्लास्ट' में पत्रकार की नौकरी कर रहे इस लगभग तीस वर्षीय नौजवान से हम उतने ही परिचित हैं जितने कि इसके प्रणेता पाठक साहब से । यह जीवन के ऊंचे मूल्यों को लेकर चलने वाला, हाज़िर-जवाब, शानदार खान-पान का शौकीन, शानदार कपड़े पहनने और ठाठ से रहने का रसिया, एम. वी. आगस्ता अमेरिका नामक बाइक पर शाही ढंग से विचरने वाला और हर किसी की दुख-तकलीफ़ से पिघल कर उसकी मदद करने को तैयार हो जाने वाला चिर-कुंवारा शख़्स १९६३ से पाठकों के दिलों पर राज कर रहा है ।
पाठक साहब ने ऐसे अनेक उपन्यास लिखे हैं जिनमें सुनील एक पत्रकार से इतर एक गुप्तचर की भूमिका में हमारे समक्ष आता है और 'ब्लास्ट' के लिए नहीं बल्कि भारत के लिए, हमारे राष्ट्र के लिए काम करता है । देश के हितों की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों पर खेल जाने वाला यह युवक 'ब्लास्ट' के मालिक और मुख्य संपादक बलदेव कृष्ण मलिक साहब का कर्मचारी ही नहीं बल्कि भारत सरकार के केंद्रीय जाँच ब्यूरो के एक अत्यंत विशिष्ट विभाग ‘स्पेशल इंटेलिजेंस’ का सदस्य भी है जिसके प्रमुख हैं कर्नल मुखर्जी ।
सुनील की ही तरह कई विश्वासपात्र और योग्य गुप्तचर हैं जो कर्नल साहब के निर्देशों पर देश के हित के लिए काम करते हैं । यहाँ तक कि कई विदेशी मुल्कों में भी ‘स्पेशल इंटेलिजेंस’ के एजेंट मौजूद हैं । राजनगर में कर्नल मुखर्जी के सुनील के अलावा दो अन्य अत्यंत कार्यकुशल एजेंट हैं – १. विंग कमांडर रामू, २. गोपाल । जैसा कि प्रत्यक्ष है, विंग कमांडर रामू कर्नल मुखर्जी की ही तरह सेना से जुड़ा रहा है जबकि गोपाल राजनगर के होटल नीलकमल में वेटर की नौकरी करता है । जिस तरह सुनील की 'ब्लास्ट' की नौकरी उसके जासूसी कारोबार के लिए ओट है, वैसे ही गोपाल की वेटरगिरी उसके लिए है । गोपाल कई भाषाएं जानता है और होटल की नौकरी के दौरान अपने कान खुले रखते हुए लोगों की बातें ग़ौर से सुनता है । फिर जो जानकारी काम की लगे, उसे कर्नल साहब को हस्तांतरित कर देता है ।
कर्नल साहब का एक नौकर है – धर्म सिंह । जब भी सुनील विदेश जाता है, उसका पासपोर्ट, वीज़ा, टिकट तथा अन्य काग़ज़ात धर्म सिंह ही हवाई अड्डे पर जाकर उस तक पहुँचाता है । सुनील धर्म सिंह पर हमेशा संदेह करता है । उसे लगता है कि धर्म सिंह महत्वपूर्ण सूचनाएं दुश्मनों को लीक कर देता है । लेकिन उसका संदेह सदा ही निराधार सिद्ध होता है जबकि कर्नल मुखर्जी का धर्म सिंह पर विश्वास सही सिद्ध होता है ।
पाठक साहब ने 'ब्लास्ट' के संवाददाता के रूप में अभी सुनील के कुल जमा पाँच ही उपन्यास लिखे थे कि उन्हें इस सीरीज़ में विविधता पैदा करने की ज़रूरत महसूस होने लगी और सुनील का छठा कारनामा – ‘हांगकांग में हंगामा’ ही ऐसा आ गया जो कि उसे एक जासूस के रूप में पेश करता था । फिर तो सुनील और कर्नल मुखर्जी की जुगलबंदी बराबर चली और क्या खूब चली !
सुनील के कई ऐसे उपन्यास पढ़ते समय हम उसके साथ विदेशों की सैर करते हैं । उनमें हमें विदेशों का ऐसा सजीव और प्रामाणिक चित्रण देखने को मिलता है जिसे करना केवल पाठक साहब के बस की ही बात है, और किसी भारतीय लेखक के बस की नहीं । इनमें सुनील जमकर ख़ूनख़राबा करता है, जेल जाता है, जेल तोड़कर भागता है और ऐसे-ऐसे साहसिक काम करता है जिनकी कल्पना उसे एक पत्रकार के रूप में देखते हुए नहीं की जा सकती ।
लेकिन सुनील द्वारा किए जा रहे रक्तपात के बीच भी पाठक साहब ने एक संवेदनशील मनुष्य होने का उसका मूल रूप बनाए रखा है क्योंकि वह, जहाँ तक संभव हो, बिना किसी की हत्या किए अपना काम बना लेने का प्रयास करता है । ‘योरोप में हंगामा’ में लुईसा पेकाटी उसे एस्पियानेज (गुप्तचरी) के खेल का कच्चा खिलाड़ी बताती है क्योंकि वह उसके और उसके साथी के प्राण लेने की जगह केवल उन्हें रस्सियों से बाँधकर छोड़ गया था ।
‘बसरा में हंगामा’ और ‘स्पाई चक्र’ उपन्यासों में हमारी मुलाक़ात त्रिवेणी प्रसाद शास्त्री से होती है जो कि काहिरा में ‘स्पेशल इंटेलिजेंस’ का कर्ताधर्ता है । कई उपन्यासों में सुनील की टक्कर अंतर्राष्ट्रीय अपराधी कार्ल प्लूमर से होती है तो कई उपन्यासों में सुनील को पाकिस्तान की गुप्तचर सेवा के अधिकारी अब्दुल वहीद कुरैशी को मात देते हुए दिखाया जाता है । कभी सुनील पीकिंग (बीजिंग) जा पहुँचता है तो कभी सिंगापुर तो कभी हांगकांग तो कभी ओस्लो (नार्वे) तो कभी पेरिस तो कभी रोम तो कभी तेहरान । ‘लंदन में हंगामा’ में सुनील 'ब्लास्ट' के लंदन स्थित संवाददाता सरदार जगतार सिंह का सहयोग हासिल करता है जो कि अपनी बातों से पाठकों को हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देने में कसर नहीं छोड़ता ।
‘अमन के दुश्मन’ और ‘हाईजैक’ (संयुक्त संस्करण – ‘लहू पुकारेगा आस्तीं का’) बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम पर आधारित हैं । ये पाठक साहब ने इतने भावुक ढंग से लिखे हैं कि इन्हें पढ़कर किसी भी वतनपरस्त की आँखें भर आएं । पाठक साहब हमें यह भी बताते हैं कि सुनील का जन्म भी अविभाजित बंगाल के गोपालगंज नामक स्थान पर हुआ था जो कि अब बांग्लादेश में है ।
सवाल यह है कि इन सब कारनामों के बीच सुनील की नौकरी कैसे चलती है ? ‘स्पाई चक्र’ में तो सुनील को डकैती डालकर जानबूझकर गिरफ़्तारी देने के बाद और अदालत से सज़ायाफ़्ता होकर काहिरा की जेल में भी बंद होना पड़ता है । तो फिर वह 'ब्लास्ट' की नौकरी कैसे करता है ? ‘बसरा में हंगामा’ के अंत में पाठक साहब ने इस सवाल का जवाब दिया है कि जब वह मिशन से लौटकर 'ब्लास्ट' में जॉइन करता है तो तुरंत ही उसे मलिक साहब की लिखित चेतावनी मिल जाती है कि अगर फिर कभी वह इस तरह से बिना सूचना दिए ग़ायब हो तो अपने आपको नौकरी से बर्ख़ास्त समझे ।
एक गुप्तचर के रूप में सुनील का अंतिम उपन्यास ‘ऑपरेशन सिंगापुर’ है जो कि इस सीरीज़ का उनसठवां उपन्यास है लेकिन सुनील और कर्नल मुखर्जी की जुगलबंदी सुनील के बासठवें उपन्यास ‘ख़ून का खेल’ में भी कायम रहती है जिसमें उपन्यास के पूर्वार्द्ध में तो सुनील एक पत्रकार के रूप में ही सक्रिय रहता है लेकिन उत्तरार्द्ध में वह कर्नल मुखर्जी के सहयोग और मार्गदर्शन से वतन के दुश्मनों को थाम लेता है ।
कर्नल मुखर्जी को आख़िरी बार पाठक साहब ने सुनील के तिरेसठवें उपन्यास ‘नया दिन नई लाश’ में पलक झपकने जैसी अपीयरेंस में दिखाया है । जिस एकमात्र दृश्य में वे हाज़िरी भरते हैं उसमें सुनील के मौजूद होते हुए भी उनकी आपस में कोई बातचीत या अन्य संपर्क नहीं होता है ।
‘नया दिन नई लाश’ के बाद कर्नल साहब सुनील सीरीज़ से विदा हो गए, ‘ख़ून का खेल’ के बाद सुनील 'ब्लास्ट' के कर्मचारी और पत्रकार के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में दिखाई देना बंद हो गया और ‘ऑपरेशन सिंगापुर’ के बाद पाठक साहब ने सुनील के जासूसी कारनामे लिखने पूरी तरह छोड़ दिए । लेकिन सुनील सीरीज़ के ये उपन्यास जितने भी हैं, काबिल-ए-दाद हैं । रोलरकोस्टर राइड जैसी उत्तेजना और रोमांच देने वाले ये उपन्यास न केवल पाठकों का मनोरंजन करते हैं बल्कि उन्हें अनमोल जानकारियों से नवाज़ते हैं और दिल में वतनपरस्ती का जज़्बा जगाते हैं ।
© Copyrights reserved