गुरुवार, 20 जुलाई 2023

एक भले आदमी की त्रासदी

मेरे पिता श्री सूरज नारायण माथुर को दिवंगत हुए दो दशक हो चुके हैं। उनका देहावसान उनके जन्मदिन (पंद्रह जुलाई) के ठीक एक दिवस पूर्व (चौदह जुलाई) को हुआ था। उस सदमे ने मेरे दिलोदिमाग़ पर जो असर डाला था, उसका नतीजा था एक लेख जो मैंने कुछ दिन बाद अपने कार्यालय में बैठे हुए ही लिखा था। शीर्षक था - एक भले आदमी की त्रासदी। उन दिनों ब्लॉग जगत तो था नहीं, सो ख़ुद ही वक़्त-वक़्त पर उसे पढ़ लेता था और अपने पिता की यादों को फिर से महसूस कर लेता था। बाद में नौकरी और जगह बदलने पर उस लेख की न तो कोई छपी हुई प्रति साथ रही, न ही कम्प्यूटर में उसकी कोई सॉफ़्ट प्रति। अब नये सिरे से लिख रहा हूँ वही शीर्षक लेकर। लिख क्या रहा हूँ, अपने पिता की यादों और उनसे जुड़े अपने अहसासों को अल्फ़ाज़ की शक्ल दे रहा हूँ बस।

राजस्थान के एक कस्बे साम्भर झील में जन्मे मेरे पिता चार भाइयों में तीसरे नम्बर के थे। बाक़ी तीन भाई जितने चालाक और तिकड़मबाज़ थे, मेरे पिता उतने ही सीधे। अपने सीधेपन के कारण ही वे अपने मन की बात को मन में नहीं रख पाते थे और सामने वाले के मुँह पर कह देते थे। अपने ग़ुस्से को दबाना भी उन्हें नहीं आता था। इसीलिए ग़ुस्सा आने पर वे उसे सीधे ही बाहर निकाल देते थे। इसीलिए उनका जीवन में भौतिक रूप से सफल हो पाना कठिन ही रहा। जैसा कि हरिवंशराय बच्चन जी की पंक्तियां भी हैं - मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा। बच्चन जी के ये अमर उद्गार मेरे पिता पर पूर्णतः चरितार्थ हुए (एवं कालांतर में मुझ पर भी‌)। 

मेरे पिता ने मूल रूप से आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की एवं अनेक वर्षों के अंतराल के उपरांत मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। किशोरावस्था में ही वे भारत के स्वतंत्र होने के भी तीन वर्ष पूर्व (१९४४ में) एक सरकारी विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो गए तथा सैंतीस वर्षों की अनवरत सरकारी सेवा के उपरांत १९८१ में तृतीय श्रेणी के शिक्षक के रूप में ही सेवानिवृत्त हुए। उस समय वे साम्भर झील के राजकीय विद्यालय नम्बर चार में प्रधानाध्यापक के पद पर थे किन्तु उनकी वेतन शृंखला तृतीय श्रेणी के शिक्षक की ही थी। यह वह समय था जब सेवानिवृत्ति की आयु बहुत कम (पचपन वर्ष) हुआ करती थी तथा मेरे पिता तो सम्भवतः अभिलेखों में आयु अधिक लिखवा दी गई होने के कारण उससे भी कम आयु में सेवानिवृत्त हो गए थे। सभी उत्तरदायित्व लम्बित थे और पेंशन के रूप में आय आधी हो गई थी। ख़ैर, ख़ास बात यह थी कि सम्पूर्ण कस्बे में मोटे मास्टर साहब के नाम से जाने जाने वाले मेरे पिता के सेवा से विदा होने के अवसर पर शिक्षक समुदाय का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था। उन्हें फूलमालाओं से लादकर तथा गुलाल लगाकर साम्भर की विभिन्न गलियों एवं मार्गों पर स्थानीय शिक्षक समुदाय ने उनकी मानो शोभायात्रा निकाली थी जिसके अंत में जब सब लोग उनके साथ हमारे निवास स्थान (सरस्वती मार्ग, छोटा बाज़ार) पर आए थे तो क्या घर में और क्या घर की छत पर - पैर रखने की जगह नहीं थी। अपनी सेवानिवृत्ति पर ऐसा सम्मान विरले ही सरकारी कर्मचारियों के भाग्य में होता होगा।

सेवानिवृत्त होने से परिवार के उत्तरदायित्व तो कम हो नहीं गए थे। अतः वे अतिरिक्त श्रम कर-करके अतिरिक्त आय का प्रबंध करने लगे ताकि घर चल सके। इसके लिए उन्हें अपनी बढ़ती आयु के साथ समायोजन करते हुए बहुत दौड़-धूप करनी पड़ती थी। कई बार तो रात को जयपुर से रेल द्वारा लौटने में देर हो जाने पर जब उन्हें फुलेरा नामक स्थान से बस नहीं मिल पाती थी तो वे कई किलोमीटर पैदल चलकर घर आते थे। उनकी इस श्रमशीलता तथा धैर्य को मैने बहुत बाद में अनुभव किया और तब ही मैंने उनकी उस उदारता को भी पहचाना जिसके अंतर्गत केवल मेरे पठन के निमित्त घर में कई बाल-पत्रिकाएं आया करती थीं यद्यपि परिवार की सीमित आय इस सत्य पर बल देती थी कि व्यय यथासंभव कम किए जाने चाहिए थे। 

मेरे माता-पिता का विवाह एक अनमेल संयोग था। मेरी माता श्रीमती शकुन्तला माथुर दिल्ली की थीं, अपने विवाह-पूर्व जीवन का एक बड़ा  भाग उन्होंने आगरा तथा हाथरस जैसे नगरों में बिताया था, सोलन स्थित पंजाब विश्वविद्यालय से भी उन्होंने शिक्षा ली थी तथा अंततः हिन्दी विषय में 'प्रभाकर' की उपाधि प्राप्त की थी। उन्हें न केवल हिन्दी एवं अंग्रेज़ी भाषाओं का विशद ज्ञान था वरन वे संगीत का भी सम्यक् ज्ञान रखती थीं। अपने दहेज में आया हुआ 'बल्लूराम एंड संस' निर्मित पुराने ज़माने का हारमोनियम वे कभी-कभी बजाया करती थीं। आयु अधिक हो जाने पर उनकी आवाज़ का सुरीलापन जाता रहा था अन्यथा वे गाया भी करती थीं (उनके द्वारा संकलित स्वरलिपियों की पुस्तिका जो उनके ही हस्तलेख में है, मैंने उस हारमोनियम के साथ ही संभालकर रखी है)। मैं संगीत तो नहीं सीख सका लेकिन हिन्दी भाषा का ज्ञान वस्तुतः मैंने अपनी माता से ही प्राप्त किया (अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान मैंने नौवीं कक्षा में पहुँचने के उपरान्त अपने असाधारण शिक्षक श्री सुरेन्द्र कुमार मिश्र से प्राप्त किया)। मेरी माता को संगीत के साथ-साथ पुस्तकें पढ़ने का भी बहुत शौक़ था और सिनेमा देखने का भी। ये अभिरुचियां मुझे मेरी माता से ही मिलीं। जब टीवी का दौर आया तो प्रत्येक सप्ताह दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली हिन्दी फ़िल्म देखने का चस्का मुझे अपने माता के कारण ही लगा। साम्भर साल्ट्स लिमिटेड कम्पनी द्वारा (साम्भर नमक उद्योग का एक प्रसिद्ध केन्द्र है तथा साम्भर झील भारत की सबसे बड़ी अंतर्देशीय नमक की झील है) अपने कर्मचारियों हेतु किंग्स स्क्वेयर नामक स्थान पर खुले में प्रसारित की जाने वाली अनेक हिन्दी फ़िल्में भी मैंने अपनी माता के साथ ही देखीं। अपनी माता के प्रभाव में ही मैंने पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना आरम्भ किया तथा धीरे-धीरे घर में मेरे इस शौक़ के लिए ही कई बाल-पत्रिकाएं आने लगीं। 

बचपन में मैं अपनी माता के ही अधिक निकट रहा जिसके कारण मेरे बाह्य व्यक्तित्व तथा अभिरुचियों का विकास अपनी माता की ही भांति हुआ। मेरे पिता तो प्रायः राजस्थानी भाषा में ही बातचीत किया करते थे। उन्हें तो लोगों से हँसने-बोलने का शौक़ था तथा अपने जीवन के तनावों और दुखों को लोगों से हँसी-मज़ाक़ करते-करते बाहर निकाल देना (या भीतर-ही-भीतर सह जाना) उनके स्वभाव का एक अंग बन गया था। कहते हैं - पिता पर पूत, जात पर घोड़ा; बहुत नहीं पर थोड़ा-थोड़ा। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भीतरी (एवं वास्तविक) व्यक्तित्व मेरे पिता के व्यक्तित्व का ही प्रतिरूप है चाहे मेरे पिता न उच्च-शिक्षित थे, न ही साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि में कोई रुचि रखते थे। सदा चलते-फिरते रहने के आदी तथा पैदल भ्रमण में ही आनंद प्राप्त करने वाले मेरे पिता मधुमेह (जो उन्हें बहुत जल्दी हो गया था) के बढ़ जाने (एवं अत्यन्त दुर्बल हो जाने) के कारण अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में चलने-फिरने से पूरी तरह लाचार हो गए थे। यह भी उनके जीवन की कुछ त्रासदियों में से एक त्रासदी थी।

मेरे पिता को जीवन कुछ ऐसा मिला कि वे न तो कभी धन जोड़ सके और न ही कभी अपने घर को आराम देने वाली वस्तुओं से सम्पन्न कर सके। उनकी सारी कमाई बस यूं ही व्यय हो जाया करती थी। अपनी ओर से वे स्वयं कष्ट में रहकर भी अपने परिवार को जितना हो सके, सुख देने का ही प्रयास करते थे किन्तु धन की देवी लक्ष्मी की कृपा उन पर कभी रही नहीं। लेकिन उनका स्वभाव ऐसा था कि उन्होंने कभी इस बात की परवाह की भी नहीं। वे जो मिला, उसी में मस्त रहा करते थे। 

मुझे अपनी संवेदनशीलता (और सम्भवतः अपना भाग्य भी) विरासत में अपने पिता से ही मिला। वे हर किसी के दुख-तक़लीफ़ से पिघल जाया करते थे और अपनी कमज़ोर माली हालत के बावजूद जिसकी जो मदद उनसे बन पड़ती थी, किया करते थे। वे पूरी तरह से सर्वधर्मसमभाव में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे एवं जातिधर्म के आधार पर मनुष्यों में भेद करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनके स्वभाव की ये विशेषता भी ज्यों-की-त्यों मेरे व्यक्तित्व में आ गई। वैसे मेरी माता भी ऐसी ही थीं (उन्हें उर्दू ज़ुबान भी बाख़ूबी आती थी और वे शायरी को भी समझती थीं)। 

मुझे अपने लिए अगर सचमुच कोई अफ़सोस है तो यह कि मैं अत्यन्त गम्भीर स्वभाव का हूँ, अपने पिता की तरह हँसमुख स्वभाव का एवं ज़िन्दादिल नहीं जो हँसते-मुसकराते ज़माने के ग़म भुला दे। मेरे पिता का स्वभाव तो भगवान शिव की तरह का था - जितनी जल्दी क्रोधित होते थे, उतनी ही जल्दी क्रोध को बिसरा कर प्रसन्न भी हो जाते थे (ऐसे स्वभाव के कारण ही भगवान शिव को 'आशुतोष' कहा जाता है)। 

एक बार मेरे एक मित्र ने बातों-बातों में मुझसे कहा था, 'जो सब की परवाह करता है, उसकी परवाह कोई नहीं करता है'। अपने पिता की ज़िन्दगी को देखकर मुझे यह बात बिलकुल सच लगी। वे ताज़िन्दगी सब की परवाह करते रहे जबकि उनकी परवाह करने वाला शायद ही कोई रहा हालांकि उनकी ज़रूरतें बेहद कम और मामूली थीं। वे केवल ठीक से भोजन करके कुछ समय शांति से आराम करने या सोने के अलावा कुछ नहीं चाहते थे (वे तो अपने कपड़े भी कभी-कभार बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी होने पर सिलवाया करते थे, अन्यथा पुराने कपड़ों से ही काम चला लेते थे) लेकिन उन्हें वह भी बड़ी मुश्किल से नसीब होता था। पर वे उसके लिए भी शिकायत नहीं करते थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने कहा था, 'जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप में कह नहीं सकता, उसी को क्रोध अधिक आता है'। मेरे पिता को क्रोध अधिक आने का सम्भवतः यही कारण था। मैं भी क्रोधी हूँ। मुझे क्रोध अधिक आने का भी (सम्भवतः नहीं, निस्संदेह) यही कारण है।

उनके देहान्त पर हमारे यहाँ रिश्तेदारों का जमावड़ा हुआ जो तरह-तरह के कर्मकांडों के बहाने से बस इसी ताक में लगे हुए थे कि मेरी जेब कितनी और कैसे काटी जा सकती है। बरसों बाद मैंने हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा के प्रथम खंड 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' में पढ़ा कि उनके दादा के देहावसान पर भी ऐसा ही कुछ हो रहा था। लेकिन मेरे (या कहा जाए कि मेरे पिता के) रिश्तेदारों को उनकी मौत का कोई अफ़सोस नहीं था। रिश्तेदारों से इतर लोग भी दिखावटी बातें ही कर रहे थे (उनके निधन से पूर्व जब वे जयपुर में सवाई मानसिंह हस्पताल में भर्ती थे, तब भी लगभग यही हाल था), उनके चले जाने का वास्तविक दुख कहीं किसी को था, कम-से-कम मुझे तो ऐसा नहीं लगा। मैं ज़रूर दुखी था पर अपना दुख किसे दिखाता, किससे कहता ?

एक भला आदमी इस दुनिया से उठ गया। जब ज़िन्दा था तो किसी को उसकी परवाह नहीं थी, मर गया तो किसी को अफ़सोस नहीं था। संभवतः यही भले आदमी की त्रासदी होती है। यह दुनिया ऐसी ही है जिसमें भले ही ख़ता खाते हैं, लुच्चों का कुछ नहीं बिगड़ता। भलामानस होना अपने आप में ही घाटे का सौदा है शायद। मेरी माता उसके उपरांत मेरे साथ ही रहीं जहाँ कहीं भी मेरी नौकरी रही (उनका निधन साढ़े चौदह वर्षों के अंतराल के उपरांत जनवरी दो हज़ार अट्ठारह में हुआ)। 

रोमन कवि होरेस ने कहा था, 'Deep in the cavern of the infant's breast; the father's nature lurks, and lives anew'(शिशु के हृदय की गुहा के भीतर गहराई में कहीं पिता का स्वभाव अंतर्निहित रहता है एवं पुनः जीवन प्राप्त करता है)। मेरे अपने पिता के साथ संबंध को इसी उक्ति से समझा जा सकता है। मेरे पिता के निधन के साढ़े तीन मास के उपरांत मेरी पत्नी ने हमारे पुत्र को जन्म दिया। यह भी एक विडम्बना रही कि मेरे पिता पौत्र का मुख देखने की आस लगाए ही संसार से चले गए एवं उनका पौत्र कभी अपने दादा को नहीं देख सका। 

मैंने अपने लेख 'संवेदनशील रचनाएं ! किसके लिए ?' में यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि संवेदनशीलता तथा संवेदनशील रचनाएं सृजित करने की प्रतिभा के मध्य कोई संबंध नहीं। अनेक कलावंतों एवं साहित्यकारों की संवेदनशीलता केवल प्रदर्शनी होती है जबकि मेरे पिता जैसे संवेदनशील व्यक्ति भी हो सकते हैं जिनकी कला एवं साहित्य में कोई रुचि ही न हो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक संवेदनशील व्यक्ति तो संवेदनशील रचनाओं के पात्र बन जाते हैं जिनकी कथाओं को मनोरंजन-सामग्री बनाकर संसार के बाज़ार में वे बेचते हैं जो स्वयं संवेदनशील नहीं होते।

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