जीवन एवं संसार में सर्वोत्कृष्ट सौंदर्य दो ही हैं - एक सद्गुणी मनुष्य के मन का सौंदर्य तथा दूसरा प्रकृति का सौंदर्य । और प्रकृति से प्रेम करने वाले, उसके सौंदर्य को अपने मन में उतार लेने वाले का सौंदर्य-बोध निस्सीम हो जाता है। कवियों तथा कवयित्रियों की प्रतिभा के दोहन हेतु तो प्रकृति का सौंदर्य एक अक्षय कोष ही है। चाहे जितनी कविताएं एवं गीत हृदय से फूट पड़ें, अल्प ही रहेंगे।
हिन्दी फ़िल्मों में प्रकृति के सौंदर्य को लेकर सहस्रों गीत रचे गए हैं। एक प्रकृति-प्रेमी होने के कारण मुझ जैसे फ़िल्मों तथा संगीत में रुचि रखने वाले के लिए ऐसे गीतों पर लिखना स्वाभाविक ही था। मैंने प्रकृति के सौंदर्य से जुड़े गीतों पर, वर्षा से संबंधित गीतों पर तथा रात्रि से संबद्ध गीतों पर (जी हाँ, रात्रि का भी अपना सौंदर्य होता है) अंग्रेज़ी में विस्तृत लेख लिखे हैं। वही कार्य हिंदी में भी करना दोहराव ही लगता है। अतः आज मैं हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति के चित्रण की बात करते हुए गीत-संगीत के स्थान पर हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति तथा पर्यावरण के संरक्षण पर हुए विमर्श की बात करना चाहूंगा।
इस सुंदर संसार का मूल सौंदर्य प्रकृति के कारण ही हैं क्योंकि मानव का उद्भव तो सृष्टि के विकास-क्रम के अंतिम चरण के रूप में हुआ। उसके उपरांत जो कुछ भी परिवर्तन संसार में आए, वे मानव के कृत्यों के कारण आए। मानव का पुरुषार्थ तब तक सार्थक था जब तक उसने प्रकृति से अपना तादात्म्य बनाए रखा। प्रकृति को माता मानकर एवं अन्य प्राणियों तथा वनस्पति को भी अपने समान ही उसकी संतान मानकर उनके एवं अपने सह-अस्तित्व के महत्व को समझा। जब तक पर्यावरण संरक्षित था, पारिस्थितिकीय संतुलन अक्षुण्ण था; धरती पर भी समग्र रूप में सुख-शांति से परिपूर्ण जीवन के अनंतकाल तक स्थापित रहने की पूर्ण सम्भावना थी। किंतु जब अपने सीमाहीन स्वार्थ, लोभ-लालच तथा प्रकृति पर विजय पाने की दुराकांक्षा के कारण मानव ने प्रकृति को प्रदूषित करना एवं पारिस्थितिकीय संतुलन को विकृत करना आरंभ किया तो वह विकट समस्या खड़ी हुई जिस पर आज बातें तो बहुत की जाती हैं किंतु उसका समाधान बहुत दूर प्रतीत होता है।
पर्यावरण के विनाश की इस समस्या का समाधान तथा संबंधित अभीष्ट एक ही है - वन-सम्पदा तथा वन्य-जीवन का संरक्षण एवं यही वह मार्ग भी है जिसके द्वारा मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता है, उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकता है। हिंदी सिनेमा ने प्रकृति तथा पशुपक्षियों को लेकर बहुत-सी फ़िल्में बनाई हैं। स्वर्गीय चिन्नप्पा देवर इस कार्य में अग्रणी थे जिनकी फ़िल्में पशुपक्षियों को कहानी के महत्वपूर्ण पात्रों के रूप में लेकर बनाई जाती थीं एवं जो यह दर्शाया करते थे कि मानवों की भांति अन्य प्राणियों की भी भावनाएं होती हैं एवं उनके प्रति दयालुतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए (मैं भी इससे सहमत हूँ)। यह वह समय था जब भारत में (तथाकथित) पशु अधिकार संरक्षक सक्रिय नहीं थे एवं वास्तविक पशुपक्षियों को लेकर फ़िल्मांकन किया जाता था। परंतु वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण को ही विषय-वस्तु के रूप मे लेकर भारत में बहुत कम फ़िल्में बनीं हैं। ऐसी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म तो इसी वर्ष प्रदर्शित 'शेरनी' है जो पूर्णतः यथार्थपरक है किंतु भूतकाल में हमारे यहाँ यथार्थपरक फ़िल्मों के स्थान पर मनोरंजन प्रदान करने वाली फ़िल्में ही प्रायः बना करती थीं। 'जानवर और इंसान' (१९७२) तथा 'कर्तव्य' (१९७९) जैसी फ़िल्मों में वन्य-जीवन के संरक्षण के विषय को स्पर्श तो किया गया किंतु उस पर गहन विमर्श नहीं हुआ। मैं इस संदर्भ में केवल दो हिंदी फ़िल्मों की चर्चा करूंगा जो फ़ॉर्मूलाबद्ध सामान्य फ़िल्मों की तरह बनाई गईं लेकिन उनमें इस गंभीर विषय पर गंभीरता से बात भी की गई। ये हैं - 'हबारी' (१९७९) एवं 'सफ़ारी' (१९९९)।
'सफ़ारी' शब्द का अर्थ ही होता है 'वन में यात्रा'। अपने शीर्षक को यह अत्यंत रोचक फ़िल्म अपने पूर्वार्द्ध में सार्थक कर देती है जब नायक-नायिका टापू पर स्थित वन में विभिन्न वन्य जीवों की संगति में यात्रा करते हैं। जहाँ एक ओर इस यात्रा में नायक-नायिका के मध्य प्रेम के अंकुर फूटते हैं, वहीं यह यात्रा सदा नगरीय जीवन जीने वाली एवं एक व्यवसायी के ढंग से सोचने वाली नायिका को वन्य-जीवन से तथा वनवासियों की सरलता से परिचित करवाती है। फ़िल्मकार ने वन्य-जीवन को दर्शाने के साथ-साथ वनों की आवश्यकता पर भी एक दृश्य में प्रकाश डाला है जब नायक उदाहरण देकर नायिका के समक्ष यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार वन इस धरती के (एवं उसके वासी प्राणियों के) संरक्षक हैं तथा वे न रहें तो किस प्रकार पृथ्वी पर जलप्लावन हो जाएगा। नायिका भी अपना निर्णय इस बात को समझकर परिवर्तित कर देती है कि कारख़ाने के माध्यम से आने वाली भौतिक समृद्धि की तुलना में उस वन-सम्पदा का महत्व बहुत अधिक है जो कारख़ाने के लिए भूमि ले ली जाने पर नष्ट हो जाएगी।
लेकिन एक प्रेमकथा बनाने के चक्कर में फ़िल्मकार ने फ़िल्म का उत्तरार्द्ध पूर्णतः नगर में ही रखा है तथा फ़िल्म रोचक होते हुए भी अपने विषय से भटक जाती है। लेकिन मैं नि:स्वार्थ एवं पवित्र प्रेम को न केवल नायक-नायिका वरन नायिका के माता-पिता के संदर्भ में भी मर्मस्पर्शी ढंग से दर्शाने के लिए फ़िल्म के लेखक तथा निर्देशक को पूरे अंक दूंगा। संभवतः फ़िल्म के बनकर प्रदर्शित होने में विलम्ब हुआ जिसका विपरीत प्रभाव फ़िल्म के व्यवसाय पर पड़ा, अन्यथा मधुर गीत-संगीत से सजी यह रोचक फ़िल्म दर्शकों का मनोरंजन करने में पूर्णतया सफल है। सभी प्रमुख कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है एवं तकनीकी रूप से भी फ़िल्म उच्च है। विभिन्न जीव-जंतुओं के साथ-साथ प्रकृति की छटा एवं वन-सम्पदा के मध्य फ़िल्माए गए दृश्य नयनों को ही नहीं, मन को भी शीतल कर देते हैं। यह फ़िल्म भी पुराने फ़ॉर्मूलों को प्रयुक्त करके ही बनाई गई है लेकिन निश्चय ही प्रभावी है।
'हबारी' (कुछ कटे-फटे रूप में) तथा 'सफ़ारी' (सम्पूर्ण रूप में) इंटरनेट पर उपलब्ध हैं तथा प्रकृति व प्राकृतिक धरोहर से प्रेम करने वालों के लिए किसी उपहार से कम नहीं हैं। ये दोनों ही फ़िल्में अंडर-रेटेड कही जा सकती हैं क्योंकि इन्हें न तो समीक्षकों की सराहना मिली, न ही व्यावसायिक सफलता। लेकिन व्यावसायिक असफलता का जोखिम लेकर भी इन्हें बनाने वाले लोग साधुवाद के पात्र हैं।
'हबारी', 'सफ़ारी', पशुपक्षियों को लेकर बनाई गई अन्य कई फ़िल्में तथा इस विषय पर बनी अब तक की सर्वोत्कृष्ट फ़िल्म 'शेरनी' भी इसी तथ्य को प्रतिपादित करती हैं कि अन्य प्राणियों को भी उसी प्रकार जीने का अधिकार है जिस प्रकार मनुष्य-जाति को। हिंसक स्वभाव के एवं मांसाहारी प्राणी भी तब तक मनुष्य के प्रति आक्रामक नहीं होते जब तक मनुष्य अपनी ओर से उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयास न करे। साथ ही यदि मनुष्य उनके प्रति प्रेम एवं करूणा से युक्त व्यवहार करता है तो मूक होते हुए भी अन्य प्राणी उसकी बातों को समझ लेते हैं तथा उसके उदात्त भावों का उसी रूप में प्रतिदान देते हैं। और यह तथ्य वास्तविक है, मेरा अनुभवजन्य सत्य है। क्यों न हो? आख़िर ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की।
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