दूरदर्शन पर प्रति वर्ष 'बाल दिवस' के अवसर पर 'चित्रहार' नामक लोकप्रिय कार्यक्रम
में पुरानी फ़िल्म 'दो
कलियाँ' (१९६८) का
एक गीत प्रसारित हुआ करता था (सम्भव है, अब भी होता हो) - 'बच्चे, मन के सच्चे'। इस गीत में बाल कलाकार
बेबी सोनिया (अपने बालपन में नीतू सिंह जो बड़ी होकर हिन्दी फ़िल्मों की लोकप्रिय
नायिका बनीं) स्वर्गीया लता मंगेशकर के स्वर में गाती हुई बताती हैं: 'इंसां जब तक बच्चा है, तब तक समझो सच्चा है; ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े; क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे; लालच की आदत घेरे, बचपन इन पापों से हटकर अपनी
उमर गुज़ारे'। और इसी
गीत के एक अंतरे में वे बताती हैं - 'इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पांत नहीं; भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं; इनकी नज़रों में एक हैं मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे।' अपने बचपन में जब मैंने
साहिर द्वारा रचित एवं रवि द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को सुना था, तब मुझे इसका मर्म इस
प्रकार समझ में नहीं आया था जिस प्रकार अब आ गया है। काश हम सब बच्चे ही होते !
साफ़ दिल के और इंसान को सिर्फ़ इंसान की तरह देखने वाले !
पंजाब सहित कई राज्यों में चुनाव हो गए, आज़ादी का अमृत महोत्सव भी
मन ही गया। अब किसे याद है कि पिछले साल अट्ठारह दिसम्बर को अमृतसर के स्वर्ण
मंदिर में एक युवक की वहाँ उपस्थित सेवादारों एवं अन्य व्यक्तियों ने पीट-पीटकर
(सीसीटीवी कैमरों के सामने, बेधड़क)
हत्या कर दी थी ? इल्ज़ाम
था कि उसने सिख समुदाय की पवित्र पुस्तक - गुरू ग्रंथ साहिब का अपमान करने एवं धार्मिक सेवाओं को बाधित
करने का प्रयास किया था। पुलिस ने (भारत की फ़िल्मी पुलिस की तरह) बाद में वहाँ
अपनी आमद दर्ज़ कराई और हत्या करने वालों (जिनके चेहरे टीवी फ़ुटेज में साफ़ नज़र आ
रहे थे) के ख़िलाफ़ नहीं, उस
बेचारे मार दिए गए शख़्स के ख़िलाफ़ ही हत्या की कोशिश का मामला दर्ज़ कर लिया। कितनी महान है मेरे देश की पुलिस ! धार्मिक
ग्रंथ की बेअदबी की साज़िश की बात का जमकर शोर मचाया गया क्योंकि ढाई-तीन महीने में
ही पंजाब में चुनाव होने थे और सभी राजनीतिक दलों को सिख समुदाय के थोक में वोट
चाहिए थे (चुनाव जीतकर सत्ता पाने के लिए)। किसी ने उस अभागे अजनबी की जान की कोई
क़ीमत नहीं समझी जो पता नहीं, उस वक़्त
अपने आपे में भी था या नहीं। आज तक पता नहीं चला है कि वह कौन था, कहाँ से आया था, उसका धर्म क्या था और उसके
आगे-पीछे कोई है या नहीं। अब किसे क्या करना है जानकर ? चुनाव तो हो गए।
उस वक़्त भी पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने
ही इस भीड़ द्वारा पीटकर की गई हत्या (मॉब लिंचिंग) की निंदा की थी, बाक़ी किसी भारतीय राजनेता ने
नहीं। क्रिकेटर से टीवी के विदूषक और उससे नेता बने एक महानुभाव (जो अब ख़ुद जेल
में बैठे हैं) ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ऐसे अपराध करने वालों को सार्वजनिक रूप
से फाँसी दी जानी चाहिए।
तथाकथित बेअदबी या ईशनिंदा (blasphemy) के ऐसे प्रकरण कट्टरपंथी एवं धर्मांध देशों में होते रहते हैं
क्योंकि वहाँ की बहुसंख्यक जनता के धर्म
के आधार पर शासन करने वाले राजनेता ऐसे विधि-विधान बनाते हैं जिनका उपयोग प्रायः
वहाँ के धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के निमित्त ही होता है। पाकिस्तान
ऐसे देशों (तथा उनमें लागू ऐसे कानूनों) का एक ज्वलंत उदाहरण है जहाँ इस दिशा में
सुधार का प्रयास करने के कारण पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की एक धर्मांध
व्यक्ति ने हत्या कर दी थी। कुछ समय पूर्व बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के पंडाल
में क़ुरान शरीफ़ की प्रति रखने का आरोप लगाकर कट्टरपंथियों ने वहाँ के धार्मिक
अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा आरंभ की थी जिस पर शीघ्र ही नियंत्रण पा लिया गया
क्योंकि सौभाग्यवश वहाँ शासन एक मानवतावादी एवं उदार विचारों वाली महिला
(बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीब-उर-रहमान की पुत्री) शेख़ हसीना वाजेद के हाथ
में है। ऐसे झूठ एवं निहित स्वार्थ पर आधारित काम धर्म के नाम पर हमारे सनातन
मानवीय मूल्यों पर आधारित राष्ट्र में भी हों तो हममें एवं धर्मांधता पर चलने वाले
देशों में क्या अंतर रह जाएगा ?
अपने होश-ओ-हवास में कौन ऐसा है जो बहुसंख्यक भीड़ के हाथों मरना या उत्पीड़ित होना चाहेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-मुस्लिम व्यक्ति होगा जो किसी मुस्लिम बहुल देश में क़ुरान या पैग़म्बर का अपमान करेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-हिंदू व्यक्ति होगा जो कि भारत में किसी भीड़ भरे मंदिर या हिंदू धार्मिक आयोजन के मध्य में जाकर हिंदू देवताओं या आस्थाओं को अपमानित करने का दुस्साहस करेगा ? कौन ऐसा ग़ैर-सिख व्यक्ति होगा जो कि सिख श्रद्धालुओं की भीड़ से भरे हरमंदिर साहब में जाकर वाहेगुरू या ग्रंथ साहब का अपमान करने की गंभीर भूल करेगा ? मरना या देश के कानून के तहत गिरफ़्तार होकर लम्बी क़ैद की सज़ा पाना कौन चाहता है ? कोई समझदार और दुनियादार बालिग़ शख़्स ऐसा नहीं कर सकता। और करे भी तो उस पर कार्रवाई करने के लिए कानून-व्यवस्था है। ऐसे व्यक्ति की मानसिक स्थिति की जाँच भी होनी चाहिए जिससे यह पता लगे कि कहीं वह अर्द्ध-विक्षिप्त अथवा अल्पविकसित मानस वाला व्यक्ति तो नहीं है। क्या देश में भीड़ को अपनी मनमानी का इंसाफ़ करने की इजाज़त दे दी जाए और जंगल का कानून लागू कर दिया जाए ? जिस घटना को आधार बनाकर मैं यह लेख लिख रहा हूँ, वैसी ही घटना चौबीस घंटे के अंतराल के भीतर ही कपूरथला में भी हुई थी जिसमें गुरूद्वारे में एक युवक पर पवित्र 'निशान साहिब' के अपमान का आरोप लगाकर भीड़ ने उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। बाद में पुलिस ने यह वक्तव्य दिया कि वह 'निशान साहिब' का अपमान नहीं कर रहा था बल्कि चोरी करने का प्रयास कर रहा था। यदि पुलिस के इस आधिकारिक वक्तव्य को मान भी लिया जाए तो भी क्या भीड़ को उसे जान से मार डालने का अनुज्ञापत्र प्राप्त हो गया था ?
घटनाएं हुईं, भुला दी गईं। बस इतनी ही क़ीमत है अब हमारे मुल्क में इंसानी जान की। हत्यारे आज़ाद घूम रहे हैं। मरने वाले गुमनाम लोगों के ख़िलाफ़ बेमक़सद मामले दर्ज़ होकर पुलिस की फ़ाइलों में बंद हो गए हैं। मारने वाले बेख़ौफ़ हैं। साफ़ तौर पर टीवी कैमरों के सामने हत्या करने के बाद भी न उन्हें पकड़ा गया, न उनके विरूद्ध पुलिस ने कोई मामला दर्ज़ किया, न हमारे वोटों के भूखे नेताओं और उनके दलों ने इस बाबत कुछ कहा। अब यदि अवसर मिलने पर वे अपने इस कुकृत्य की पुनरावृत्ति कर दें तो क्या आश्चर्य क्योंकि यह बात तो उनके मन में स्थान बना चुकी है कि यदि अपराध धर्म के नाम पर करें तो उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। एक ज़माने में महज़ अख़बार में छपी ऐसी ख़बरों को जनहित याचिका मानकर हमारे उच्च न्यायालयों के जज उनका संज्ञान लेते थे एवं समुचित जाँच और कार्रवाई का आदेश दे देते थे। अब तो ...। क्या कहूँ ?
लेकिन क्या जनमानस भी तथा सुशिक्षित एवं संतुलित मस्तिष्क से विचार करने वाले जागरूक नागरिक भी धर्मांधता के साँचे में ऐसे ढल गए हैं कि किसी को ऐसी बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता ? सम्भवतः (और दुर्भाग्यवश) ऐसा ही है। मरने वाले मर गए। उनके होते-सोते उनकी मौत के बारे में जानकर भी शायद इसलिए सामने नहीं आए कि कहीं उन्मादी भीड़ और अंधा कानून उन्हें भी अपना शिकार न बना ले। मैंने इस लेख को लिखने की प्रक्रिया अनेक दिवस पूर्व आरंभ की थी। देख रहा हूँ कि तब से अब तक ही दरिया में बहुत पानी बह गया है और ऐसे ही कुछ अलग मगर दिल को चीर देने वाले वाक़ये और हो गए हैं।
महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य 'कुमारसम्भव' में एक श्लोक की एक पंक्ति है - 'शरीरमाद्यम् खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर निश्चय ही धर्म के पालन का प्रथम साधन है। अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान का ध्येय वाक्य भी यही है। यह आदर्श-वाक्य शरीर को निरोग एवं स्वस्थ रखने पर बल देने हेतु उद्धृत किया जाता है किन्तु इसे एक अन्य कोण से देखने पर यही आदर्श-वाक्य हमारे समक्ष यह भी स्पष्ट करता है कि हमारी यह देह धर्म के पालन हेतु ही है (अधर्म के पालन हेतु नहीं)। अब धर्म किसे कहें ? मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं - धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। किसी निर्दोष के प्राण ले लेना अथवा उस पर अत्याचार करना इन दस लक्षणों में कहाँ स्थित है ? कहीं नहीं। इनमें तो क्रोध के परित्याग को भी सम्मिलित किया गया है।
अतः धर्म के नाम पर अधर्म ही करते हैं वे लोग जो या तो स्वयं अपनी विवेक-बुद्धि खो चुके हैं अथवा अपने किसी निहित स्वार्थ की सिद्धि करने में लगे हैं। भारत महान इसीलिए बना तथा सम्पूर्ण विश्व में उसने प्रतिष्ठा इसीलिए अर्जित की क्योंकि इसके अधिसंख्य नागरिक धर्मांध देशों के नागरिकों की भांति न बनकर उदार एवं विवेकशील बने। हमने धर्म को सदाचरण का ही पर्याय माना। अब जो हो रहा है, वह इस देश का दुर्भाग्य ही है। मेरे विचारों के निकट तो फ़िल्म 'राम तेरे कितने नाम' (१९८५) का यह गीत ही है - 'इंसानियत ही सबसे पहला धर्म है इंसान का'। कम-से-कम मेरा धर्म तो यही है।
पुरानी श्वेत-श्याम फ़िल्म 'दीदी' (१९५९) का गीत है - 'बच्चों तुम तक़दीर हो कल के हिन्दुस्तान की'। अपनी इस लम्बी हो चुकी बात को मैं इसी गीत की इन पंक्तियों के साथ विराम देता हूँ -