मंगलवार, 5 सितंबर 2023

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के . . .

प्रति वर्ष पाँच सितम्बर को भारत के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। हम शिक्षक तथा गुरू शब्दों का प्रयोग प्रायः पर्यायवाची के रूप में करते हैं। वस्तुतः इनमें भिन्नता है। प्रत्येक गुरू निस्संदेह शिक्षक होता है क्योंकि उससे शिष्य को निश्चय ही शिक्षा प्राप्त होती है। किन्तु प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता, हो भी नहीं सकता क्योंकि गुरू शब्द की परिधि शिक्षण-कार्य से कहीं अधिक है। संस्कृत शब्द 'गुरू' का अर्थ है वह जो आपके भीतर के अंधकार को तिरोहित कर दे। अतः गुरू वही जो अपने शिष्य (अथवा शिष्या) को अंधकार से प्रकाश की दिशा में ले जाए, उसके मन एवं जीवन में सद्गुणों का आलोक विकीर्ण कर दे। यह कार्य प्रत्येक शिक्षक नहीं कर सकता - विशेषतः वर्तमान युग के वेतनभोगी (अथवा शुल्क लेकर सेवाएं देने वाले) शिक्षक तो नहीं ही कर सकते। शिष्य के मन को वही शिक्षक प्रकाशित कर सकता है जिसका अपना अंतस प्रकाशित हो तथा जो अपने शिक्षण-कृत्य के प्रति उच्चतम स्तर तक निष्ठावान हो। 

ऐसे एक शिक्षक मुझे भी मेरे विद्यार्थी जीवन में मिले। नाम था - सुरेन्द्र कुमार मिश्र। महान कवि हरिवंशराय बच्चन जी की ही भांति वे अध्यापक अंग्रेज़ी के थे किन्तु हिन्दी का भी सम्यक ज्ञान रखते थे (एवं हिन्दी में कविता भी करते थे)। हिन्दी से उनकी आत्मीयता ऐसी थी कि अंग्रेज़ी के अध्यापक होते हुए भी हस्ताक्षर सदैव हिन्दी में ही करते थे एवं अपना पूरा नाम सुरेन्द्र कुमार 'मिश्र' ही लिखते थे (मिश्रा नहीं)। वैसे सभी लोग बोलचाल में उन्हें 'मिश्रा जी' कहकर ही सम्बोधित किया करते थे।

मैंने छठी कक्षा से अंग्रेज़ी भाषा को अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत एक विषय के रूप में पढ़ना आरम्भ किया। भाषा के प्रति मेरा लगाव कुछ ऐसा था कि मैंने सातवीं कक्षा में २०० में से १६९ तथा आठवीं कक्षा में २०० में से १८९ अंक प्राप्त किए थे। किन्तु मेरा भाषा ज्ञान अशुद्ध भी था एवं अपूर्ण भी। कारण ? पढ़ाने वाले अध्यापकों को स्वयं ही अंग्रेज़ी भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं था। और विद्यार्थी तो वही पढ़ते एवं समझते जो पढ़ाया जाता (राजस्थान के सरकारी विद्यालयों मे पढ़ने वाले विद्यार्थियों का अंग्रेज़ी ज्ञान दुर्बल होने का यही कारण था)। इतना अवश्य है कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तो सुदर्शनसिंह जी नामक एक अध्यापक महोदय ने अंग्रेज़ी के अक्षरों को सीधा, गोल एवं समान बनाने की सीख देकर मेरी लिखावट को सुन्दर बना दिया था। 

नौवीं कक्षा में मेरा भाग्योदय हुआ जब मिश्रा जी मुझे अपने अंग्रेज़ी शिक्षक के रूप में मिले। तृतीय श्रेणी के अध्यापक होकर भी वे नौवीं एवं दसवीं कक्षाओं को पढ़ाया करते थे (जबकि उनसे उच्च श्रेणी वाले अध्यापक अंग्रेज़ी पढ़ाने में सक्षम नहीं समझे जाते थे)। हमारे अंग्रेज़ी विषय के पाठ्यक्रम में दो पुस्तकें होती थीं - कोर्स रीडर एवं रैपिड रीडर। प्रायः जिन अध्यापकों को अंग्रेज़ी विषय पढ़ाने के निमित्त दिया जाता था, वे रैपिड रीडर को पढ़ाने में ही रुचि लेते थे क्योंकि वह सरल होती थी, अतः उसे सुगमतापूर्वक पढ़ाते हुए उसका पाठ्यक्रम शीघ्रता से पूर्ण कराया जा सकता था। किन्तु मिश्रा जी एक अपवाद थे जो कि अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान एवं परीक्षा में अंक प्राप्त करने दोनों ही दृष्टियों से कोर्स रीडर की महत्ता को समझते थे। इसीलिए वे कोर्स रीडर को पढ़ाने में विशेष रुचि लिया करते थे। पाठ को पढ़ाने के उपरांत वे उसके साथ दिए गए अभ्यास प्रश्नों (exercises) को भी भलीभांति समझाया करते थे एवं उन प्रश्नों का बारम्बार इस प्रकार अभ्यास करवाया करते थे जिस प्रकार कि सेना में रंगरूटों का व्यायाम (drill) होता है। अंग्रेज़ी भाषा के व्याकरण संबंधी वे प्रश्न भाषा-संरचना (structures) शीर्षक के अंतर्गत दिए जाते थे। इस प्रकार मिश्रा जी व्याकरण (grammar) के ज्ञान को शब्द-भंडार (vocabulary) के ज्ञान के समतुल्य ही महत्व दिया करते थे। मैंने उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को कुछ इस प्रकार समझा कि यदि अंग्रेज़ी भाषा को मानव देह की उपमा दी जाए तो उसे स्थूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. Structures जो कि मानव कंकाल की भांति होता है और जिस पर शेष शरीर को अवस्थित रखने का दायित्व होता है, 2. Vocabulary जो कि देह का अन्य भाग - मांस, रक्त, मज्जा, त्वचा आदि - होता है जो कि कंकाल पर मढ़ा होता है। Vocabulary का ज्ञान अथाह सागर की भांति होता है जिसे किसी भी सीमा तक विस्तार दिया जा सकता है किन्तु उसकी उपयोगिता तभी है जबकि उसे धारण करने हेतु Structures रूपी कंकाल दृढ़ता से उपस्थित हो। अनेक वर्षों के उपरांत जब मैंने नौकरी की और मेरे उच्चाधिकारी ने अपने पुत्र को अंग्रेज़ी पढ़ाने हेतु मुझसे कहा तो मैंने यही उपमा देते हुए उसे पढ़ाया। यदि मैंने Structures के महत्व को उचित रूप में पहचाना तो इसका श्रेय पूर्णरूपेण मिश्रा जी को ही है। 

यह मिश्रा जी के शिक्षण का ही परिणाम था कि मैंने स्नातक तक की शिक्षा हिन्दी माध्यम से पूर्ण करने के उपरान्त आगे के वर्षों में जब विभिन्न परीक्षाएं (चार्टर्ड लेखापालन तथा सिविल सेवा संबंधी परीक्षाएं)  अंग्रेज़ी माध्यम से दीं तो मुझे कोई भी असुविधा नहीं हुई। मैं तो तब इस बात में अपने सहपाठियों के समक्ष गौरवान्वित अनुभव करता था कि वे अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा लेने के उपरान्त भी अंग्रेज़ी लिखने में अशुद्धियां करते थे जबकि मैं (चाहे धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोल नहीं सकता था) हिन्दी माध्यम से पढ़ाई की होने पर भी अंग्रेज़ी भाषा का उनसे बेहतर ज्ञान रखता था एवं मेरे अंग्रेज़ी लेखन में पूर्ण परिशुद्धता होती थी। और इसके लिए मैंने प्रतिपल स्वयं को मिश्रा जी के प्रति आभारी पाया।

मिश्रा जी के व्यक्तित्व में जो सबसे महत्वपूर्ण गुण मुझे दृष्टिगोचर हुआ, वह यह था कि वे एक बहुत अच्छे विद्यार्थी थे। वे ज्ञानार्जन का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे एवं सदैव अपने ज्ञान को परिष्कृत करने में एवं अपनी त्रुटियों को सुधारने में रत रहते थे। उनके इस गुण ने मुझे बहुत प्रभावित किया तथा इससे उनके एक आदर्श शिक्षक होने का रहस्य भी मैं जान गया। एक आदर्श शिक्षक वही बन सकता है जो पहले एक आदर्श विद्यार्थी हो। और एक आदर्श विद्यार्थी वही होता है जो आजीवन एक विद्यार्थी बना रहे तथा अपने ज्ञान में निरंतर सुधार ही जिसका अभीष्ट रहे। मिश्रा जी ऐसे ही थे, इसीलिए वे एक आदर्श शिक्षक बने। जब भी मैंने कभी उनकी किसी त्रुटि की ओर उनका ध्यानाकर्षण किया, उन्होंने मेरे द्वारा इंगित उस तथ्य का परीक्षण किया एवं त्रुटि की पुष्टि हो जाने पर उसे बिना किसी अवरोध (तथा अहंभाव) के सुधारा। अपनी त्रुटि को सहज भाव से स्वीकारना तथा उसे अविलम्ब सुधारना उनके व्यक्तित्व में समाहित एक दुर्लभ गुण था। उनके इस गुण को मैंने भी अपने व्यक्तित्व में यथावत उतारा है। निरंतर सुधार का मंत्र मैंने उनसे ही सीखा है।

मिश्रा जी की कर्तव्यनिष्ठा इतनी थी कि वे अनेक विद्यार्थियों को नि:शुल्क पढ़ाया करते थे एवं ऐसे विद्यार्थियों को वे केवल अंग्रेज़ी ही नहीं, हिन्दी एवं संस्कृत भी पढ़ाते थे तथा उन विषयों की परीक्षाओं की तैयारी भी सम्पूर्ण समर्पण के साथ करवाया करते थे। लक्ष्य यही रहता था कि कोई भी परीक्षार्थी किसी भी विषय की परीक्षा में अनुत्तीर्ण न हो। और इस कार्य को वे परीक्षाओं के समय में सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ किया करते थे। ऐसा विरला शिक्षक मैंने दूसरा नहीं देखा।

अपनी जन्मजात मेधा का ज्ञान मुझे बिना किसी के कराए स्वतः ही अपनी बाल्यावस्था में ही हो गया था। तथापि मेरी वास्तविक क्षमताओं का सम्पूर्ण ज्ञान मुझे मिश्रा जी ने ही करवाया। उन्होंने कुछ ही दिनों में मेरी प्रतिभा को भलीभांति पहचान लिया था। तदोपरांत स्थिति यह रही कि मुझे स्वयं अपनी क्षमताओं पर इतना विश्वास नहीं था जितना मिश्रा जी को हो गया था। उनके इसी विश्वास के आसरे मैं आगे बढ़ता गया। परीक्षक उत्तर-पुस्तिकाओं में केवल अंक ही देते हैं, कुछ लिखते नहीं किन्तु मिश्रा जी ने नौवीं कक्षा की अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मेरी अंग्रेज़ी की उत्तर-पुस्तिका में मेरे द्वारा दिए गए अंतिम उत्तर के नीचे लिखा, ‘I am very glad to see your efforts’ (मैं आपके प्रयासों को देखकर बहुत प्रसन्न हूँ)। उनके ये शब्द मेरे लिए किसी भी अन्य पुरस्कार से अधिक उन्नत पुरस्कार थे। वे इसी प्रकार उत्तरोत्तर मेरा मनोबल एवं आत्मविश्वास बढ़ाते रहे। जब मैंने दसवीं कक्षा की परीक्षा में सम्पूर्ण बोर्ड में द्वितीय स्थान प्राप्त किया तो (मुझ सहित) सभी आश्चर्यचकित थे किन्तु मिश्रा जी को केवल प्रसन्नता थी, आश्चर्य नहीं मानो वे पहले से ही जानते थे कि उनका शिष्य ऐसी कोई उपलब्धि अवश्य प्राप्त करेगा। हायर सैकेंडरी की परीक्षा में मैंने सम्पूर्ण बोर्ड में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया एवं अंग्रेज़ी विषय में पचास में से उनचास अंक प्राप्त किये तो सभी के मुंह खुले-के-खुले रह गए। कोई कुछ भी कहता, मैं जानता था कि तब भी श्रेय के अधिकारी मिश्रा जी ही थे, कोई अन्य नहीं।

मिश्रा जी के स्थानांतरण के कारण उनसे मेरा सम्पर्क कम हो गया किन्तु छुट्टियों में जब वे आया करते थे (उन्होंने अपना घर तथा परिवार स्थानांतरित नहीं किया था) तो मैं विभिन्न विषयों पर उनसे बातचीत करने उनके घर पर पहुंच जाया करता था। वैसे भी उनके पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा पुत्र (अखिलेश) मेरा बचपन का मित्र था जिसके कारण सामान्यतः भी मेरा उनके यहाँ बहुत आना-जाना था। उन्हें क्रिकेट से बहुत लगाव था जिसके कारण मैं उनसे क्रिकेट पर भी बहुत बातचीत किया करता था। मेरी उनसे बातचीत शेक्सपियर के नाटकों पर भी हुआ करती थी जिससे मेरे ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे एवं मैं विश्व-साहित्य की उस विभूति के जीवन-दर्शन को समुचित रूप में आत्मसात कर पाता था।

मेरे उच्च शिक्षा के निमित्त कलकत्ता चले जाने पर मेरा मिश्रा जी से सम्पर्क तभी हो पाता था जब मैं अपने मूल स्थान (साम्भर झील) पर कुछ दिनों के लिए आता था। बाद में नौकरी लग जाने पर यह और भी कम हो गया। फ़रवरी २०१२ में उनका निधन हुआ जिसके उपरांत वे मेरे लिए केवल स्मृति-शेष ही रह गए। अपने गुरू को मैं आदर के अतिरिक्त कोई गुरू-दक्षिणा नहीं दे सका। केवल महाकवि निराला के कृतित्व पर आधारित एक पुस्तक राग-विरागही मेरे द्वारा उनको दी गई एकमात्र वस्तु रही। शेष तो मैंने उनसे केवल पाया ही।  

जब भी गुरू-शिष्य संबंधों का संदर्भ आता है, मुझे अपनी प्रिय हिन्दी फ़िल्म इम्तिहान’ (१९७४) स्मरण हो आती है जिसमें सदैव विद्यार्थियों के हित में सोचने वाले तथा उन्हें दुर्गुणों से बचाकर उचित मार्ग दिखलाने वाले एक आदर्श शिक्षक की कथा है। सफल हो जाने के उपरांत तो चिपकने वाले बहुतेरे आ जाते हैं लेकिन सच्चा गुरू वह है जो शिष्य के सफल होने से पूर्व ही उसकी प्रतिभा को पहचानकर उसके भीतर के आत्मविश्वास को जागृत करे एवं उसे सफलता के पथ पर अग्रसर करे। मिश्रा जी ने मेरे भीतर के अंधकार को मिटाकर मेरे आत्मविश्वास को जगाया एवं प्रत्येक शिक्षक दिवस पर जब उनकी स्मृतियां मेरे मन में कौंध जाती हैं तो मुझे इम्तिहानफ़िल्म का यह कालजयी गीत भी स्मरण हो आता है – रुक जाना नहीं तू कहीं हार के; कांटों पे चल के मिलेंगे साये बहार के; ओ राही, ओ राही। मिश्रा जी की शिक्षा मेरे लिए यही जीवन-दर्शन बनकर सदैव मेरे साथ रही। आज भी है।

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