बुधवार, 3 नवंबर 2021

पिता-पुत्र संबंध पर बनीं श्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्में

आज (तीन नवम्बर को) मेरे पुत्र सौरव का जन्मदिन है । सामान्यतः माता एवं पुत्र के तथा पिता एवं पुत्री के भावनात्मक जुड़ाव ही विमर्श का विषय बनते हैं क्योंकि प्रायः ऐसा देखा गया है कि भारतीय परिवारों में पुत्री अपने पिता की लाड़ली होती है जबकि पुत्र अपनी माता का लाड़ला होता है । लेकिन पिता एवं पुत्र के मध्य का संबंध भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं । कई बार पिता अपने पुत्र के प्रति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं करते (या बहुत कम करते हैं) लेकिन योग्य पुत्र अपने पिता का गौरव होता है, इसमें कोई संदेह नहीं । पिता के अपनी भावनाओं को मन में दबा लेने तथा पुत्र के साथ संवादहीनता के कारण कभी-कभी पुत्र अपने पिता को ग़लत भी समझने लगते हैं लेकिन अधिकांश उदाहरणों में सत्य यही होता है कि जहाँ एक सफल एवं समर्थ पिता अपने पुत्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखना चाहता है, वहीं एक असफल एवं विवश पिता अपने पुत्र को जीवन की प्रत्येक अवस्था में अपने से बेहतर देखना चाहता है तथा यही कामना करता है कि जो कुछ उसने अपने जीवन में भुगता है, उसके पुत्र को न भुगतना पड़े; वह सबल एवं सक्षम बने, अपनी योग्यतानुसार भौतिक जीवन में सब कुछ प्राप्त करे, कभी किसी अभाव का मुख न देखे और सदा सर उठाकर ही जिये, ज़िन्दगी में कभी न हारे । ऐसा हर बाप यही चाहता है कि मेरे ख़्वाब तो पूरे न हुए लेकिन मेरे बेटे के ज़रूर पूरे हों । 

बॉलीवुड ने इस जज़्बाती रिश्ते पर कई फ़िल्में बनाई हैं जिनमें से कुछ बेहतरीन फ़िल्मों की चर्चा मैं इस आलेख में करूंगा । यूँ तो फ़ॉर्मूलाबद्ध फ़िल्में बनाने वाले इस उद्योग ने ऐसी असंख्य पारिवारिक फ़िल्में बनाई हैं जिनमें पिता-पुत्र के मध्य कहीं प्रेम का बाहुल्य तो कहीं तनाव दिखाया गया है । ऐसी स्थापित ढर्रे की फ़िल्मों में पिता-पुत्र तनाव का कारण प्राय: पिता अथवा पुत्र का अपराधी या दुराचारी होना दिखाया गया है । दुनिया (१९६८) तथा त्रिशूल (१९७८) जैसी फ़िल्मों में यह भी दिखाया गया है कि पिता या पुत्र या दोनों को ही एक-दूसरे के साथ अपना संबंध ज्ञात नहीं है । स्कूल मास्टर (१९५९), ज़िन्दगी (१९७६), अवतार (१९८३) तथा बाग़बां (२००३) जैसी फ़िल्मों में स्वार्थी एवं कृतघ्न पुत्र दिखाए गए हैं जो अपने निहित स्वार्थ के लिए पिता को (तथा माता को भी) कष्ट देते हैं तथा आगे चलकर कर्मठ पिता अपने जीवट एवं परिश्रम से पुनः अपना भाग्योदय करते हैं जो कि परजीवी पुत्रों के मुख पर तमाचे सरीखा सिद्ध होता है । लेकिन ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनी हैं जिनमें कथावस्तु को पिता-पुत्र के भावात्मक संबंध पर ही  केन्द्रित रखा गया हो (फ़ोकस किया गया हो) । ऐसी कुछ उत्कृष्ट हिन्दी फ़िल्में हैं :

१. सम्बंध (१९६९): प्रदीप कुमार तथा देब मुखर्जी को पिता एवं पुत्र के रूप में प्रस्तुत करती इस फ़िल्म को जिन भावुक लोगों ने देखा है, उनके नेत्र अवश्य ही आर्द्र हो उठे होंगे । भाग्य के झंझावात पिता, माता (अनिता गुहा) एवं पुत्र को पृथक् कर देते हैं जिसके उपरान्त पुत्र अपने एकाकी जीवन में बहुत कुछ सह जाता है । लेकिन उसके पिता कोई बुरे व्यक्ति नहीं हैं । किस्मत की आँधी ही ऐसी चलती है कि सब कुछ बिखर जाता है जिस पर किसी का भी कोई बस नहीं चलता । लेकिन आख़िर पिता और पुत्र मिलते हैं । कुछ समय उन्हें एकदूसरे को पहचानने में लगता है लेकिन भावनाओं से भरा पिता अपने पुत्र को बिना पहचाने भी उसके दुख को जान लेता है, अनुभव कर लेता है एवं बांटने का प्रयास करता है । फ़िल्म का अंत कोई अधिक प्रभावी नहीं लेकिन बिछोह के उपरांत जो कुछ घटता है, वह फ़िल्म देखने वालों को कथा के पात्रों से अभिन्न रूप से जोड़ देता है । प्रदीप कुमार एवं देब मुखर्जी दोनों ने ही हृदयस्पर्शी अभिनय किया है । फ़िल्म में 'अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पे भी कुछ डालो, अरे ओ रोशनी वालों' तथा 'चल अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही, चल अकेला' जैसे कालजयी गीत हैं ।

२. ज़िंदा दिल (१९७५): प्राण तथा ऋषि कपूर की प्रमुख भूमिकाओं वाली यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से बुरी तरह से असफल रही थी लेकिन इसकी विषय-वस्तु बहुत अच्छी है । पटकथा एवं निर्देशन भी यदि अच्छे होते तो कमाल की फ़िल्म बनती क्योंकि बाप-बेटे की भूमिकाओं में प्राण और ऋषि कपूर ने पटकथा से ऊपर उठकर शानदार अभिनय किया है और फ़िल्म को एक बार देखने लायक तो बना ही दिया है । पिता अपने दो पुत्रों में भेदभाव करता है क्योंकि वह जानता है कि जिस पुत्र के प्रति वह पक्षपातपूर्ण ढंग से अन्याय करता है, वह ज़िंदा दिल है जबकि दूसरा पुत्र मानसिक रूप से दुर्बल है जिसके कारण उसकी अतिरिक्त देखभाल करनी होती है । इस फ़िल्म में कठोर बाप और ज़िंदा दिल बेटे के बीच के कुछ दृश्य तो ऐसे हैं कि बरबस ही मुँह से 'वाह' निकल पड़ती है ।

३. शक्ति (१९८२): दिलीप कुमार को पिता तथा अमिताभ बच्चन को पुत्र के रूप में दर्शाती रमेश सिप्पी की यह फ़िल्म चाहे व्यावसायिक रूप से कम चली लेकिन पिता-पुत्र की भूमिकाओं में इन दोनों ही असाधारण कलाकारों ने जान डाल दी । अपने कर्तव्य के प्रति अति-सजग पिता अपने पुत्र से प्रेम तो बहुत करता है लेकिन अभिव्यक्त नहीं करता जिसका परिणाम यह निकलता है कि पुत्र अपने पिता को ग़लत समझने लगता है एवं अनायास ही भावनात्मक रूप से एक अपराधी के निकट आ जाता है जबकि पिता से दूर होता चला जाता है । यह दुखांत फ़िल्म भावनाओं की अभिव्यक्ति के महत्व को रेखांकित करती है एवं दिलीप कुमार तथा अमिताभ बच्चन, दोनों की ही श्रेष्ठ फ़िल्मों में गिनी जाती है । इससे कुछ-कुछ मिलती-जुलती फ़िल्म 'स्वर्ग यहाँ नरक यहाँ' (१९९१) थी जिसमें मिथुन चक्रवर्ती ने पिता और पुत्र की दोहरी भूमिका निभाई थी लेकिन वह फ़िल्म ख़राब पटकथा एवं कमज़ोर निर्देशन के कारण बोझिल बन गई तथा दर्शकों को अधिक प्रभावित नहीं कर सकी । 

४. शराबी (१९८४): अमिताभ बच्चन को ही बेटे के रूप में पेश करती प्रकाश मेहरा की यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर अत्यधिक सफल रही थी । व्यवसाय में डूबे पिता की भूमिका प्राण ने निभाई थी ।  मातृहीन पुत्र अपने पिता की उपेक्षा के कारण शराबी बन जाता है जिसे स्नेह केवल अपने पिता के एक कर्मचारी मुंशी जी (ओम प्रकाश) से मिलता है । इस कथा में पिता अपने पुत्र की भावनाओं से अनभिज्ञ रहता है एवं उसे ग़लत समझता है । मुंशी जी का निधन शराबी पुत्र को और भी एकाकी बना देता है किन्तु अंत में पिता को अपनी भूल अनुभव होती है तथा फ़िल्म 'शक्ति' के विपरीत सुखद ढंग से समाप्त होती है । बेहद मनोरंजक यह फ़िल्म यकीनन देखने लायक है जिस में प्राण और अमिताभ बच्चन, दोनों का अभिनय कमाल का है ।

५. नाजायज़ (१९)महेश भट्ट द्वारा दिग्दर्शित यह फ़िल्म एक ऐसे पिता की कहानी है जो एक सीधा-सादा व्यक्ति होते हुए भी परिस्थितियों के कारण अपराधी बनने पर विवश हो गया । उसका अपनी विधिवत् विवाहित पत्नी से एक जायज़ पुत्र है तथा असाधारण परिस्थितियों में एक स्त्री के निकट आ जाने से उत्पन्न एक नाजायज़ पुत्र है । नाजायज़ पुत्र की माता को उसके पिता से सच्चा प्रेम है तथा उसे अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है । पिता अपने दोनों ही पुत्रों तथा उन दोनों ही की माताओं से सच्चा प्रेम करता है एवं यही चाहता है कि उसके दोनों ही पुत्र अपराध-जगत से दूर रहकर सद्गुणी मनुष्य बनें । इसीलिए वह अपने नाजायज़ पुत्र के पुलिस अधिकारी बनने से बहुत प्रसन्न है एवं अपने जायज़ पुत्र को अपराधी बनने से रोकने हेतु भरसक प्रयास करता है । नाजायज़ पुत्र को जब ज्ञात होता है कि उसका पिता कौन है तो जैसे उस पर वज्रपात होता है और फिर उठता है भावनाओं का ज्वार । यह दुखांत फ़िल्म पिता के  दोनों पुत्रों के एक ही परिवार का अंग बन जाने के साथ समाप्त होती है । पिता की भूमिका में नसीरूद्दीन शाह तथा नाजायज़ पुत्र की भूमिका में अजय देवगन ने तो मर्मस्पर्शी अभिनय किया ही है, पिता के जायज़ पुत्र की भूमिका में दीपक तिजोरी तथा दोनों माताओं की भूमिकाओं में आभा धुलिया एवं रीमा लागू ने भी दर्शकों के मन को छू लिया है ।

६. एहसास (२००१): ज़िन्दगी को बहुत नज़दीक से देखने वाले निर्देशक महेश मांजरेकर ने यह उत्कृष्ट फ़िल्म बनाई थी जिसके साथ न तो दर्शकों ने न्याय किया, न ही समीक्षकों ने । अपनी ज़िन्दगी में हारने वाला पिता (सुनील शेट्टी) अपने पुत्र (मयंक टंडन) को अपने जैसा नहीं बनते देखना चाहता तथा उसे उसके जीवन में विजेता बनाने के लिए वह उसे इतने कठोर अनुशासन में रखता है कि वह बालक अपने पिता को ग़लत समझने लगता है । उसके पिता उसे कितना प्यार करते हैं, यह बात वह बालक फ़िल्म के अंत में जाकर समझ पाता है । फ़िल्म को पूर्ण रूप से यथार्थपरक रखा गया है, यहाँ तक कि क्लाईमेक्स में भी फ़िल्मी फ़ॉर्मूला न अपनाकर वही दिखाया गया है जो उन परिस्थितियों में संभव था । दिल की गहराई में उतर जाने वाली यह फ़िल्म जिन माता-पिताओं ने नहीं देखी है, मैं उनसे यही कहूंगा कि इसे ज़रूर देखें । सुनील शेट्टी और मयंक टंडन, दोनों ही अपने काम से फ़िल्म देखने वालों का दिल जीत लेते हैं । एक ऐसी ही अच्छी फ़िल्म गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित 'विजेता' (१९८२) थी जिसमें पिता की भूमिका शशि कपूर ने तथा पुत्र की भूमिका उनके वास्तविक पुत्र कुणाल कपूर ने निभाई थी लेकिन पिता-पुत्र संबंध उसकी कथा का केवल एक अंश ही था । 

७. अपने (२०): धर्मेन्द्र तथा उनके दोनों वास्तविक पुत्रों सन्नी देओल एवं बॉबी देओल को लेकर बनाई गई इस फ़िल्म का निर्देशन अनिल शर्मा ने किया है एवं यदि वे फ़िल्म के अंतिम भाग को खींचने के प्रलोभन से बच पाते तो यह एक अत्यन्त श्रेष्ठ फ़िल्म बनती । फिर भी एक जीवन से हारे हुए पिता द्वारा अपने व्यावहारिक कर्तव्य को प्राथमिकता देने वाले अपने ज्येष्ठ पुत्र को ग़लत समझने की कथा पर बनाई गई यह फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में प्रभावी है । यद्यपि बॉबी देओल भी फ़िल्म में हैं एवं वास्तविक जीवन के अनुरूप ही वे धर्मेंद्र के कनिष्ठ पुत्र बने हैं, तथापि यह फ़िल्म वस्तुतः धर्मेंद्र एवं सन्नी देओल की ही है । पिता का दर्द कुछ और है, पुत्र का कुछ और । इन दोनों के बीच पिस रही माता (किरण खेर) किससे शिकायत करे और क्या शिकायत करे ? सभी कलाकारों के प्रभावशाली अभिनय से सजी यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से सफल तो नहीं रही थी लेकिन कुछ ख़ामियों को अनदेखा किया जाए तो कुल मिलाकर अच्छी ही है । 

८. उड़ान (२०१०): 'उड़ान' एक ऐसी फ़िल्म है जिसमें पिता का चरित्र विशुद्ध नकारात्मक है । मन को झकझोर देने वाली यह फ़िल्म किशोर पुत्र के अपने क्रूर पिता की बेड़ियों से मुक्त होकर जीवन में स्वतंत्र उड़ान भरने की स्थिति में पहुँचने की गाथा है जिसमें पुत्र के यौवन एवं साहस के समक्ष अंततः पिता को पराजय स्वीकार करनी पड़ती है । समीक्षकों द्वारा मुक्त-कंठ से सराही गई एवं अनेक पुरस्कार जीतने वाली इस फ़िल्म में पुत्र की प्रेरक भूमिका रजत बारमेचा ने एवं पाषाण-हृदय पिता की भूमिका रोनित रॉय ने निभाई है और दोनों ने ही अविस्मरणीय अभिनय किया है । मनोज बाजपेयी के सुन्दर अभिनय से सजी 'गली गुलियां' (२०१८) में पिता-पुत्र (नीरज काबी-ओम सिंह) का ट्रैक भी कुछ-कुछ ऐसा ही है लेकिन 'गली गुलियां' अपनी एक अलग श्रेणी की फ़िल्म है और यह बात उसे देखे बिना नहीं समझी जा सकती । 

९. पटियाला हाउस (२०११): क्रिकेट के साथ-साथ इंग्लैंड में नस्लभेद की समस्या की पृष्ठभूमि में बनाई गई निखिल आडवाणी की यह फ़िल्म यदि रटे-रटाये फ़ॉर्मूलों का लोभ संवरण कर पाती तो इसकी गुणवत्ता बहुत उच्च होती । तथापि पिता ऋषि कपूर एवं आज्ञाकारी पुत्र अक्षय कुमार के बीच के उलझे हुए संबंंध को यह फ़िल्म बहुत प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करती है जिसमें दोनों ही कलाकारों का अभिनय अत्यन्त प्रशंसनीय रहा है । पिता की भावनाएं आहत न हों, इसके लिए पुत्र अपनी उमंगों का दम घोट देता है एवं अपनी युवावस्था के स्वप्नों का बलिदान कर देता है । लेकिन वर्षों के अंतराल के उपरांत जब उसे अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करने का अवसर मिलता है तो वह दुविधा में पड़ जाता है - एक ओर उसका अपना जीवन है, दूसरी ओर पिता की भावनाएं । जब वह पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाता है तो पहले तो पिता उसे ग़लत ही समझता है लेकिन फिर उसके अंदर आया बदलाव फ़िल्म को ख़ुशनुमा ढंग से ख़त्म करता है । 

. फ़रारी की सवारी (२०१२): आज आदर्शवादी लोग ढूंढे नहीं मिलते । ऐसे में एक आदर्शवादी पिता एवं उसके वैसे ही आदर्शवादी पुत्र की यह कथा न केवल भरपूर मनोरंजन करती है वरन मर्म को स्पर्श करती है तथा एक फ़ीलगुड अनुभूति करवाती है, यह आशा बंधाती है कि इस स्वार्थाधारित समाज तथा मूल्यों के क्षरण के युग में भी अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है । आदर्शवादी लोग सदा तथाकथित व्यावहारिक लोगों से हारें, यह आवश्यक नहीं । एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार के बालक के स्वप्न भी साकार हो सकते हैं जिसके लिए उसके पिता (तथा दादा क्योंकि फ़िल्म में तीन पीढ़ियों वाला परिवार है जिसमें सभी पुरुष हैं) का अपने आदर्शों से समझौता करना आवश्यक नही । बड़े पहले स्वयं आदर्शों पर चलें, तभी वे बालकों को आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, इस सत्य को यह फ़िल्म स्पष्ट रूप से उद्घाटित करती है । सभी कलाकारों के सजीव अभिनय से ओतप्रोत यह फ़िल्म एक पारसी परिवार में पिता रुस्तम (शर्मन जोशी), पुत्र कायो (ऋत्विक साहोर) तथा पिता के पिता बहराम देबू (बोमन ईरानी) के भावनात्मक संबंधों को दिल को छू लेने वाले ढंग से चित्रित करती है । नन्हा पुत्र ऐसा आदर्शवादी बन चुका है कि अपने सपने को पूरा करने के लिए भी उसे अपने पिता का कोई अनुचित कार्य करना स्वीकार नहीं है । यह फ़िल्म मनोरंजन तथा संदेश, दोनों ही की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है ।

बाप-बेटे के रिश्ते को समझना आसान नहीं लेकिन यह रिश्ता बहुत अहम होता है दोनों ही की ज़िन्दगी में । ऊपर वर्णित फ़िल्में इसका प्रमाण हैं । अपने पुत्र का हित चाहने वाला स्नेहपूर्ण पिता नारियल की भांति भी हो सकता है जिसकी अनुशासनप्रियता के कठोर आवरण में ही उसका अपने पुत्र के प्रति निश्छल प्रेम एवं शुभचिंतन अन्तर्निहित हो । बेटे को सोने का निवाला खिलाने वाले लेकिन शेर की नज़र से देखने वाले बाप ऐसे ही होते हैं । शेष सत्य यही है कि बालक से बड़े होते हुए अपने पुत्र को निहारते समय पिता के मन में यही पंक्तियां चलती रहती हैं - 'तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा, मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा'

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बुधवार, 22 सितंबर 2021

ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की

जीवन एवं संसार में सर्वोत्कृष्ट सौंदर्य दो ही हैं - एक सद्गुणी मनुष्य के मन का सौंदर्य तथा दूसरा प्रकृति का सौंदर्य । और प्रकृति से प्रेम करने वाले, उसके सौंदर्य को अपने मन में उतार लेने वाले का सौंदर्य-बोध निस्सीम हो जाता है। कवियों तथा कवयित्रियों की प्रतिभा के दोहन हेतु तो प्रकृति का सौंदर्य एक अक्षय कोष ही है। चाहे जितनी कविताएं एवं गीत हृदय से फूट पड़ें, अल्प ही रहेंगे। 

हिन्दी फ़िल्मों में प्रकृति के सौंदर्य को लेकर सहस्रों गीत रचे गए हैं। एक प्रकृति-प्रेमी होने के कारण मुझ जैसे फ़िल्मों तथा संगीत में रुचि रखने वाले के लिए ऐसे गीतों पर लिखना स्वाभाविक ही था। मैंने प्रकृति के सौंदर्य से जुड़े गीतों पर, वर्षा से संबंधित गीतों पर तथा रात्रि से संबद्ध गीतों पर (जी हाँ, रात्रि का भी अपना सौंदर्य होता है) अंग्रेज़ी में विस्तृत लेख लिखे हैं। वही कार्य हिंदी में भी करना दोहराव ही लगता है। अतः आज मैं हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति के चित्रण की बात करते हुए गीत-संगीत के स्थान पर हिंदी फ़िल्मों में प्रकृति तथा पर्यावरण के संरक्षण पर हुए विमर्श की बात करना चाहूंगा।

इस सुंदर संसार का मूल सौंदर्य प्रकृति के कारण ही हैं क्योंकि मानव का उद्भव तो सृष्टि के विकास-क्रम के अंतिम  चरण के रूप में हुआ। उसके उपरांत जो कुछ भी परिवर्तन संसार में आए, वे मानव के कृत्यों के कारण आए। मानव का पुरुषार्थ तब तक सार्थक था जब तक उसने प्रकृति से अपना तादात्म्य बनाए रखा। प्रकृति को माता मानकर एवं अन्य प्राणियों तथा वनस्पति को भी अपने समान ही उसकी संतान मानकर उनके एवं अपने सह-अस्तित्व के महत्व को समझा। जब तक पर्यावरण संरक्षित था, पारिस्थितिकीय संतुलन अक्षुण्ण था; धरती पर भी समग्र रूप में सुख-शांति से परिपूर्ण जीवन के अनंतकाल तक स्थापित रहने की पूर्ण सम्भावना थी। किंतु जब अपने सीमाहीन स्वार्थ, लोभ-लालच तथा प्रकृति पर विजय पाने की दुराकांक्षा के कारण मानव ने प्रकृति को प्रदूषित करना एवं पारिस्थितिकीय संतुलन को विकृत करना आरंभ किया तो वह विकट समस्या खड़ी हुई जिस पर आज बातें तो बहुत की जाती हैं किंतु उसका समाधान बहुत दूर प्रतीत होता है। 

पर्यावरण के विनाश की इस समस्या का समाधान तथा संबंधित अभीष्ट एक ही है - वन-सम्पदा तथा वन्य-जीवन का संरक्षण एवं यही वह मार्ग भी है जिसके द्वारा मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर सकता है, उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर सकता है। हिंदी सिनेमा ने प्रकृति तथा पशुपक्षियों को लेकर बहुत-सी फ़िल्में बनाई हैं। स्वर्गीय चिन्नप्पा देवर इस कार्य में अग्रणी थे जिनकी फ़िल्में पशुपक्षियों को कहानी के महत्वपूर्ण पात्रों के रूप में लेकर बनाई जाती थीं एवं जो यह दर्शाया करते थे कि मानवों की भांति अन्य प्राणियों की भी भावनाएं होती हैं एवं उनके प्रति दयालुतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए (मैं भी इससे सहमत हूँ)। यह वह समय था जब भारत में (तथाकथित) पशु अधिकार संरक्षक सक्रिय नहीं थे एवं वास्तविक पशुपक्षियों को लेकर फ़िल्मांकन किया जाता था। परंतु वनों तथा वन्य प्राणियों के संरक्षण को ही विषय-वस्तु के रूप मे लेकर भारत में बहुत कम फ़िल्में बनीं हैं। ऐसी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म तो इसी वर्ष प्रदर्शित 'शेरनी' है जो पूर्णतः यथार्थपरक है किंतु भूतकाल में हमारे यहाँ यथार्थपरक फ़िल्मों के स्थान पर मनोरंजन प्रदान करने वाली फ़िल्में ही प्रायः बना करती थीं। 'जानवर और इंसान' (१९७२) तथा 'कर्तव्य' (१९७९) जैसी फ़िल्मों में वन्य-जीवन के संरक्षण के विषय को स्पर्श तो किया गया किंतु उस पर गहन विमर्श नहीं हुआ। मैं इस संदर्भ में केवल दो हिंदी फ़िल्मों की चर्चा करूंगा जो फ़ॉर्मूलाबद्ध सामान्य फ़िल्मों की तरह बनाई गईं लेकिन उनमें इस गंभीर विषय पर गंभीरता से बात भी की गई। ये हैं - 'हबारी' (१९७९) एवं 'सफ़ारी' (१९९९)।


हबारी  (१९७९)
'हबारी' सम्भवतः पहली ऐसी हिन्दी फ़िल्म थी जिसकी मूल विषय-वस्तु (थीम) ही वन्य-जीवन संरक्षण थी। पिक्स इंटरनेशनल द्वारा निर्मित इस अनूठी फ़िल्म में अनवरत अवैध शिकार द्वारा वन्य प्राणियों की प्रजातियों के विलोपन की समस्या को उठाया गया था। फ़िल्म की कथा को भारत में बताया गया था किंतु सम्पूर्ण फ़िल्म की शूटिंग वस्तुतः केन्या (कीनिया) के जंगलों में की गई थी। इसीलिए फ़िल्म का नाम 'हबारी' रखा गया जो कि केन्या की आधिकारिक भाषा 'स्वाहिली' का शब्द है जिसका अर्थ होता है - 'क्या हालचाल हैं' (अभिवादन के रूप में प्रयुक्त)। 

'हबारी' की कहानी पशुपक्षी-प्रेमी नायक (महेन्द्र संधू) एवं वन्य जीवों का अवैध आखेट तथा उनके अंगों की तस्करी करने वाले खलनायकों (डी.के. सप्रू व नरेन्द्र नाथ) के बीच के संघर्ष पर आधारित है। खलनायकों द्वारा मार डाले गए अपने बहन-बहनोई के इकलौते पुत्र अर्थात् अपने भांजे (राजू देसाई) को अपने साथ रख रहे कर्तव्यपरायण नायक को खलनायक की पुत्री (प्रीति सप्रू) से प्रेम भी होता है किन्तु वह अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता है। 

इस दर्शनीय फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ूबी तो इसकी विषय-वस्तु ही है जो न केवल शिकारियों एवं लालची व्यापारियों की क्रूरता को दर्शाती है वरन वन्य जंतुओं के संरक्षण की आवश्यकता पर सार्थक एवं मनोरंजक ढंग से प्रकाश भी डालती है। प्रकृति के अंगों के रूप में वनस्पति तथा जीव-जंतुओं का सौंदर्य सम्पूर्ण फ़िल्म में बिखरा पड़ा है। इस सौंदर्य को रजतपट पर उतारने में छायाकार ने कमाल कर दिखाया है। ऐसा एक-एक दृश्य नयनों को शीतलता  प्रदान करता है। कई दृश्य मन को छू लेते हैं एवं दर्शकों को अन्य प्राणियों से प्रेम करने, उनकी परवाह करने तथा उनकी भावनाओं को समझने की शिक्षा देते हैं। तकनीकी रूप से अच्छी इस फ़िल्म का गीत-संगीत भी प्रभावी एवं कर्णप्रिय है। सभी प्रमुख कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। कहानी में घिसे-पिटे फ़ॉर्मूलों (रोमांस, मारधाड़ आदि) के प्रयोग के बावजूद यह फ़िल्म अपने उद्देश्य में सफल है। 

सफ़ारी  (१९९)
'हबारी' के बीस साल बाद संजय दत्त तथा जूही चावला जैसे बड़े सितारों को लेकर बनाई गई हिन्दी फ़िल्म 'सफ़ारी' प्रदर्शित हुई जिसकी कहानी का आधार भी वन्य-जीवन को ही बनाया गया। लेकिन यह फ़िल्म वस्तुतः एक प्रेमकथा है - एक व्यवसायी युवती (जूही चावला) के एक वनवासी (संजय दत्त) जो नगर से बहुत दूर समुद्र में स्थित एक टापू पर अपने जैसे लोगों के साथ रहता है, से प्रेम की। व्यवसायी युवती ने व्यवसाय के गुर अपनी माता (तनूजा) से सीखे हैं जो कि उसके पिता (सुरेश ओबराय) से पूर्णतः भिन्न स्वभाव की हैं। यह माता-पुत्री की व्यवसायी जोड़ी टापू की भूमि क्रय करके उस पर आच्छादित वन को काटकर वहाँ एक कारख़ाना लगाना चाहती है। लेकिन वहाँ के वासी इसका विरोध कर रहे हैं जिनके नेता से मिलने हेतु नायिका वहाँ जाती है तथा नायक के प्रेम में पड़ जाती है। सरल स्वभाव का नायक भी उससे उतना ही प्रेम करने लगता है तथा दोनों के संबंध को औपचारिक रूप देने हेतु मुम्बई आ पहुँचता है। इधर सरकार भी प्रस्तावित कारख़ाने के प्रति टापूवासियों के विरोध को देखते हुए उनके प्रमुख लोगों को इस विषय पर वार्ता हेतु मुम्बई आमंत्रित करती है। नायिका की माता उसका विवाह उसके प्रेमी नायक के स्थान पर अपनी पसंद के युवक (मोहनीश बहल) से करना चाहती हैं जबकि उसके पिता सब कुछ जानते हुए भी विवश हैं। कुछ ग़लतफ़हमियों के बाद नायक-नायिका के मिलन के साथ फ़िल्म का सुखद अंत होता है। 

'सफ़ारी' शब्द का अर्थ ही होता है 'वन में यात्रा'। अपने शीर्षक को यह अत्यंत रोचक फ़िल्म अपने पूर्वार्द्ध में सार्थक कर देती है जब नायक-नायिका टापू पर स्थित वन में विभिन्न वन्य जीवों की संगति में यात्रा करते हैं। जहाँ एक ओर इस यात्रा में नायक-नायिका के मध्य प्रेम के अंकुर फूटते हैं, वहीं यह यात्रा सदा नगरीय जीवन जीने वाली एवं एक व्यवसायी के ढंग से सोचने वाली नायिका को वन्य-जीवन से तथा वनवासियों की सरलता से परिचित करवाती है। फ़िल्मकार ने वन्य-जीवन को दर्शाने के साथ-साथ वनों की आवश्यकता पर भी एक दृश्य में प्रकाश डाला है जब नायक उदाहरण देकर नायिका के समक्ष यह स्पष्ट करता है कि किस प्रकार वन इस धरती के (एवं उसके वासी प्राणियों के) संरक्षक हैं तथा वे न रहें तो किस प्रकार पृथ्वी पर जलप्लावन हो जाएगा। नायिका भी अपना निर्णय इस बात को समझकर परिवर्तित कर देती है कि कारख़ाने के माध्यम से आने वाली भौतिक समृद्धि की तुलना में उस वन-सम्पदा का महत्व बहुत अधिक है जो कारख़ाने के लिए भूमि ले ली जाने पर नष्ट हो जाएगी। 

लेकिन एक प्रेमकथा बनाने के चक्कर में फ़िल्मकार ने फ़िल्म का उत्तरार्द्ध पूर्णतः नगर में ही रखा है तथा फ़िल्म रोचक होते हुए भी अपने विषय से भटक जाती है। लेकिन मैं नि:स्वार्थ एवं पवित्र प्रेम को न केवल नायक-नायिका वरन नायिका के माता-पिता के संदर्भ में भी मर्मस्पर्शी ढंग से दर्शाने के लिए फ़िल्म के लेखक तथा निर्देशक को पूरे अंक दूंगा। संभवतः फ़िल्म के बनकर प्रदर्शित होने में विलम्ब हुआ जिसका विपरीत प्रभाव फ़िल्म के व्यवसाय पर पड़ा, अन्यथा मधुर गीत-संगीत से सजी यह रोचक फ़िल्म दर्शकों का मनोरंजन करने में पूर्णतया सफल है। सभी प्रमुख कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है एवं तकनीकी रूप से भी फ़िल्म उच्च है। विभिन्न जीव-जंतुओं के साथ-साथ प्रकृति की छटा एवं वन-सम्पदा के मध्य फ़िल्माए गए दृश्य नयनों को ही नहीं, मन को भी शीतल कर देते हैं। यह फ़िल्म भी पुराने फ़ॉर्मूलों को प्रयुक्त करके ही बनाई गई है लेकिन निश्चय ही प्रभावी है।

'हबारी' (कुछ कटे-फटे रूप में) तथा 'सफ़ारी' (सम्पूर्ण रूप में) इंटरनेट पर उपलब्ध हैं तथा प्रकृति व प्राकृतिक धरोहर से प्रेम करने वालों के लिए किसी उपहार से कम नहीं हैं। ये दोनों ही फ़िल्में अंडर-रेटेड कही जा सकती हैं क्योंकि इन्हें न तो समीक्षकों की सराहना मिली, न ही व्यावसायिक सफलता। लेकिन व्यावसायिक असफलता का जोखिम लेकर भी इन्हें बनाने वाले लोग साधुवाद के पात्र हैं। 

'हबारी', 'सफ़ारी', पशुपक्षियों को लेकर बनाई गई अन्य कई फ़िल्में तथा इस विषय पर बनी अब तक की सर्वोत्कृष्ट फ़िल्म 'शेरनी' भी इसी तथ्य को प्रतिपादित करती हैं कि अन्य प्राणियों को भी उसी प्रकार जीने का अधिकार है जिस प्रकार मनुष्य-जाति को। हिंसक स्वभाव के एवं मांसाहारी प्राणी भी तब तक मनुष्य के प्रति आक्रामक नहीं होते जब तक मनुष्य अपनी ओर से उन्हें हानि पहुँचाने का प्रयास न करे। साथ ही यदि मनुष्य उनके प्रति प्रेम एवं करूणा से युक्त व्यवहार करता है तो मूक होते हुए भी अन्य प्राणी उसकी बातों को समझ लेते हैं तथा उसके उदात्त भावों का उसी रूप में प्रतिदान देते हैं। और यह तथ्य वास्तविक है, मेरा अनुभवजन्य सत्य है। क्यों न हो? आख़िर ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की। 

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रविवार, 19 सितंबर 2021

वतन पे जो फ़िदा होगा, अमर वो नौजवां होगा

बचपन में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में मुग़ल काल के बारे में पढ़ते समय अफ़ग़ान शासक शेर शाह के विषय में भी जाना था जिसका मूल नाम फ़रीद ख़ां सूर था एवं जो कालांतर में मुग़ल बादशाह हुमायूँ को पहले चौसा व तदोपरांत कन्नौज के युद्धों में पराजित करके दिल्ली के राजसिंहासन पर जा बैठा था। १५४० से १५४५ तक भारत के मुग़ल राज्य को अपने अधिकार में रखने वाले शेर शाह सूरी के नाम से प्रसिद्ध इस व्यक्ति को प्रमुखतः उसके प्रशासनिक सुधारों के लिए जाना एवं प्रशंसित किया जाता है। 

१९९८ में अनुजा चौहान ने पेप्सी के पेय पदार्थ को भारत में लोकप्रिय बनाने के लिए एक सूत्रवाक्य (नारा) दिया - ये दिल मांगे मोर। हिंदी एवं अंग्रेज़ी के शब्दों के संयोजन से निर्मित यह सूत्रवाक्य अतिशीघ्र ही अत्यंत लोकप्रिय होकर विज्ञापन जगत पर छा गया। इसकी लोकप्रियता यहाँ तक जा पहुँची कि निर्देशक अनंत महादेवन ने शाहिद कपूर को नायक की भूमिका में लेकर 'दिल मांगे मोर' नामक हिंदी फ़िल्म ही बना डाली जो वर्ष २००४ के अंतिम दिन प्रदर्शित हुई। इस वाक्य का अभिप्राय है कि जो मिला है, उससे मेरा मन नहीं भरा है, मुझे और अधिक (मोर) चाहिए।

लेकिन आज जब 'शेरशाह' शब्द का उल्लेख होता है तो हमें सोलहवीं शताब्दी के अफ़ग़ान शासक का स्मरण नहीं होता, न ही 'ये दिल मांगे मोर' वाक्य को सुनने से पेप्सी के पेय पदार्थ का विचार मन में आता है। इन दोनों को ही अमरत्व प्रदान कर दिया एक चौबीस-पच्चीस वर्ष के युवा भारतीय सैनिक के बलिदान ने जिसका नाम है विक्रम बतरा। सात जुलाई, १९९९ को कारगिल की पहाड़ियों में मातृभूमि की रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करने वाले उस वीर युवक को कभी नहीं सूझा होगा कि उसके संसार से चले जाने के उपरांत 'शेरशाह' एवं 'ये दिल मांगे मोर' शब्द भारतवासियों के हृदय में सदा के लिए बस जाएंगे। 

भारत एवं पाकिस्तान के बीच हुए चार युद्धों में से सबसे लम्बा चलने वाला यह कारगिल युद्ध ही था जो पचास दिनों तक चला एवं जिसने ५२७ भारतीय सैनिकों की बलि ली। यही सबसे कठिन युद्ध था जिसकी कभी औपचारिक घोषणा भी नहीं की गई लेकिन जिसने भारतीय सेना को अपनी उस भूमि को शत्रु से मुक्त कराने का का लक्ष्य दिया था जो हज़ारों फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित थी एवं जहाँ घुसपैठिए बनकर आए शत्रु सुविधाजनक स्थिति में घात लगाए बैठे थे। ऐसी स्थिति में भारतीय वीरों के लिए मरना सरल था, मारना एवं अपनी भूमि पर पुनः अधिकार करना अत्यन्त दुष्कर। लेकिन यह लगभग असंभव-सा कार्य कर दिखाया भारतीय वीरों ने जिनमें से एक था हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में जन्मा लेफ़्टिनेंट विक्रम बतरा जिसे युद्धभूमि में ही पदोन्नत करके कैप्टन बनाया गया। 

रणभूमि में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अपने वतन पर मर-मिटने वाले विक्रम बतरा का व्यक्तित्व कुछ ऐसा नाटकीय एवं फ़िल्मी रंग लिए हुए था कि उनके जीवन पर फ़िल्म तो बननी ही थी। मस्तमौला मिज़ाज वाले, बात-बात पर नाटकीय संवाद बोलने वाले तथा फ़िल्मी अंदाज़ में अपनी प्रेयसी की मांग अपने ख़ून से भरकर उसे अपनी दुलहन बना लेने वाले इस स्टाइलिश युवक की जीवन-कथा रूमानी ढंग से ही चली और रूमानी ढंग से ही अपने चरम पर पहुँच कर पूरी हुई। 

१९७१ के भारत-पाक युद्ध पर 'बॉर्डर' (१९९७) जैसी सफल फ़िल्म बना चुके फ़िल्मकार जे.पी. दत्ता ने कारगिल युद्ध पर अपनी व्यावसायिक रूप से असफल लेकिन अत्यन्त प्रामाणिक फ़िल्म 'एल.ओ.सी.-कारगिल' (२००३) में विक्रम बतरा की भूमिका अभिषेक बच्चन को सौंपी जिन्होंने निश्चय ही उसे प्रभावशाली ढंग से निभाया। उनकी प्रेयसी डिम्पल चीमा की भूमिका एशा देओल ने की। लेकिन अत्यन्त विस्तृत कैनवास पर बनी चार घंटे से भी अधिक लम्बी उस फ़िल्म में विक्रम बतरा के ट्रैक को आख़िर कितना फ़ुटेज मिल सकता था ? उनकी जीवन गाथा तो एक स्वतंत्र फ़िल्म की अधिकारिणी थी। यह आवश्यकता अंततः २०२१ में निर्माता धर्मा प्रोडक्शंस तथा निर्देशक विष्णुवर्धन ने संदीप श्रीवास्तव की पटकथा पर फ़िल्म बनाकर पूरी की जिसका नाम स्वाभाविक रूप से 'शेरशाह' ही होना था।

'शेरशाह' फ़िल्म युद्धभूमि में विक्रम बतरा द्वारा लड़ी गई अंतिम लड़ाई से आरम्भ होती है  एवं तदोपरांत फ़्लैश बैक में चलती हुई विक्रम के जीवन के विषय में बताती है। फ़िल्म प्रामाणिक है क्योंकि विक्रम के बचपन से लेकर युवावस्था तक के विभिन्न घटनाक्रम उनके साथ जुड़े लोगों के माध्यम से ज्ञात हैं। विक्रम बचपन से ही जुझारू एवं कभी हार न मानने वाले थे एवं भाग्यशाली भी थे कि जिसे उन्होंने चाहा, उसका भी सच्चा प्रेम उन्हें प्रतिदान में मिला। डिम्पल का प्रेम तो विक्रम के देशप्रेम के समकक्ष रखा जा सकता है क्योंकि उन्होंने विक्रम की स्मृति को ही अपने मन में बसाकर जीवन बिता दिया एवं किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं किया। फ़िल्म रोचक ढंग से चलती है एवं दर्शक विक्रम से जुड़ी एक-एक घटना को ध्यान से देखते हुए धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व को समझते चले जाते हैं। स्वाभाविक ही है कि फ़िल्म का अंतिम भाग जिसमें विक्रम की विजय एवं बलिदान हैं, सर्वाधिक प्रभावशाली है। तकनीकी पक्ष, गीत-संगीत अच्छे हैं एवं सभी सहायक कलाकारों का अभिनय सहज-स्वाभाविक है। संवाद लेखक के लिए अधिक कार्य नहीं था क्योंकि कभी न भुलाए जा सकने वाले संवाद तो स्वयं स्वर्गीय विक्रम ही अपने मुख से दे गए थे। 

विक्रम (तथा उनके हमशक़्ल भाई विशाल) की भूमिका में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने प्रभावशाली अभिनय किया है। यदि वे 'एल.ओ.सी.-कारगिल' के अभिषेक बच्चन से बेहतर नहीं रहे तो कमतर भी नहीं रहे। पर एक समीक्षक के रूप में मुझे लगता है कि वे सैन्य जीवन से बाहर एक अपने सपनों को जीने वाले युवा तथा एक प्रेमी की भूमिका में अधिक प्रभावी रहे बजाय अपने सैनिक रूप में। फिर भी अपने करियर की इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को निभाने के लिए वे पूरे अंकों के अधिकारी हैं। डिम्पल की भूमिका में कियारा आडवाणी ने प्राण फूंक दिए हैं। सिद्धार्थ के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी है। फ़िल्म के अंत में वास्तविक विक्रम के साथ-साथ उनसे जुड़े सभी वास्तविक व्यक्तियों के चित्र दिखाए गए हैं लेकिन वास्तविक डिम्पल का चित्र नहीं दिखाया गया है जो कि पूर्णतः उचित है। उस साहसी स्त्री की निजता का सम्मान होना ही चाहिए। 

फ़िल्म में सैन्य जीवन के भीतर की वास्तविकताओं को यथार्थपरक ढंग से ही प्रदर्शित किया गया है जिनमें वरिष्ठों का अहम् भी सम्मिलित है जो कि उनके अपने कनिष्ठों के साथ व्यवहार में परिलक्षित होता है। विक्रम के हृदय की विशालता तथा काश्मीरी लोगों के कष्ट एवं स्थिति को समझकर उन्हें अपना बनाने की विवेकशीलता को भी अच्छे-से दिखाया गया है। इससे फ़िल्म देखने वालों के मन में विक्रम का मान एक बलिदानी सैनिक के रूप में ही नहीं वरन एक सरलचित्त एवं उदार मानव के रूप में भी बढ़ जाता है। 

फिर भी मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि 'शेरशाह' फ़िल्म जितनी अच्छी बनी है, उससे भी अधिक अच्छी बन सकती थी एवं बननी चाहिए थी। विक्रम के महान बलिदान को देखकर मन में भावनाओं का वह ज्वार नहीं उठता जो कि ऐसी फ़िल्म को देखते समय किसी भी संवेदनशील एवं देशप्रेमी दर्शक के मन में उठना चाहिए। इसके लिए सम्पादन, दृश्य-संयोजन एवं पटकथा का प्रवाह बेहतर होना चाहिए था। दाल अच्छी बनी पर नमक कुछ कम रह गया। 

फ़िल्म की एक अन्य कमी अत्यंत अभद्र अपशब्दों (भद्दी गालियों) का प्रयोग भी है जिन्हें विक्रम के मुख से भी कहलवाया गया है। रणभूमि में युद्धरत सैनिकों का अपने प्रतिपक्षियों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग एक तथ्य होगा लेकिन उन्हें फ़िल्म में ऐसा करते हुए प्रदर्शित करना सम्पूर्ण परिवार एवं बालकों के साथ फ़िल्म देखने वालों के प्रति फ़िल्मकार का अन्याय ही है। यही ग़लती 'एल.ओ.सी.-कारगिल' में जे.पी. दत्ता ने भी की थी। और यही वह कमी है जो 'लम्हा' (२०१०) तथा 'नो वन किल्ड जेसिका' (२०११) जैसी अच्छी फ़िल्मों पर दाग़ लगा देती है। भारतीय दर्शक सीमा पर अपने प्राणों को संकट में डालकर देश की रक्षा करने वाले सैनिकों की वीरता से भलीभांति परिचित हैं, इसके लिए उन्हें गालियां देते हुए दिखाना आवश्यक नहीं। इससे ऐसी फ़िल्मों का प्रभाव घटता है, बढ़ता नहीं। 

लेकिन 'शेरशाह' निश्चय ही देखने लायक फ़िल्म है - देशभक्तों के लिए भी तथा मनोरंजन के आकांक्षियों के लिए भी। इस फ़िल्म की सफलता का श्रेय इसे बनाने वालों से अधिक उस अमर शहीद को है जिस पर यह बनी है। हिंदी फ़िल्म 'फूल बने अंगारे' (१९६३) का गीत है - 'वतन पे जो फ़िदा होगा, अमर वो नौजवां होगा'। वतन पे फ़िदा होकर विक्रम अमर हो गए, युद्ध में उनको दिया गया कूट नाम 'शेरशाह' अमर हो गया, उनका विजय-घोष 'ये दिल मांगे मोर' अमर हो गया, उनके द्वारा विभिन्न अवसरों पर कही गईं विभिन्न बातें अमर हो गईं। विक्रम ने कैफ़ी आज़मी साहब की इन पंक्तियों को अपने जीवन में उतारकर सार्थक कर दिया - 'ज़िन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर जान देने की रुत रोज़ आती नहीं, हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे वो जवानी जो ख़ूं में नहाती नहीं'। इसी गीत की यह पंक्ति भी विक्रम पर शब्दशः लागू होती है - 'मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो'। ज़िन्दगी जीने के अपने बाँकपन को 'शेरशाह' विक्रम ने अपनी शहादत के लम्हे में भी यकीनन क़ायम रखा।

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बुधवार, 1 सितंबर 2021

गोपिकाओं का निश्छल प्रेम

जन्माष्टमी आई और चली गई । प्रत्येक वर्ष आती है । हम धर्मप्राण हिंदू भगवान कृष्ण को स्मरण करते हैं, उनकी लीलाओं को विशेषतः उनकी गोकुल-वृंदावन में रचाई गई बाल-लीलाओं को याद करके और उनका नाट्य रूपांतर करके प्रफुल्लित होते हैं । गाँव-खेड़ों में रासलीलाओं के आयोजन होते हैं और कल्पनाएं की जाती हैं कि राधारानी और अन्य गोपिकाओं के साथ कृष्ण ने कैसे-कैसे रास रचाए होंगे, कैसे वे स्वयं आनंदित हुए होंगे और कैसे उन्होंने सर्वत्र आनंद-रस बरसाया होगा । इस सबके दौरान हम सहज ही यह मानकर चलते हैं कि उन रासलीलाओं तथा कृष्ण की बालसुलभ लीलाओं से ब्रज और गोकुल की गोपिकाएं भी आनंदित ही हुई होंगी । उन बालाओं को कृष्ण से हार्दिक प्रेम हो गया था, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता । भक्त कवि सूरदास का तो संपूर्ण काव्य-सृजन ही इन्हीं सब कार्यकलाप तथा सुकोमल संबंधों पर आधारित है । लेकिन कृष्ण ने तो ग्यारह वर्ष की आयु में वृन्दावन छोड़ दिया था और मथुरा चले गए थे । इस तरह उनका गोकुल-वृंदावन की भूमि, अपने पालक माता-पिता अर्थात् नंदबाबा तथा यशोदा मैया एवं समस्त गोप-बालाओं तथा गोप-वधुओं से विछोह हो गया था । उस विछोह के उपरांत क्या हुआ ?

 

किवदंतियों की बात जाने दीजिए जिनसे आज इंटरनेट भरा पड़ा है और जिनमें से अधिकांश की कोई प्रामाणिकता नहीं है । कृष्ण की प्रामाणिक जीवन-कथा को आद्योपांत पढ़ा जाए तो यही पता लगता है कि एक बार गोकुल-वृंदावन छोड़ जाने के उपरांत वे पुनः वहाँ कभी नहीं लौटे । क्यों ? वे ही बेहतर जानते होंगे । क्या उन्हें कभी अपने उस बाल्यकाल की मधुर स्मृतियों ने, वृंदावन की कुंज-गलियों ने, नंदबाबा और यशोदा मैया के दुलार ने एवं उन पर प्राणप्रण से न्यौछावर हो जाने वाली गोपिकाओं के पावन प्रेम ने नहीं पुकारा ? यह भी वे ही बेहतर जानते होंगे । वे योगेश्वर कहलाए, महाभारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, गीतोपदेश दिया तथा आजीवन पांडवों के सम्पर्क में रहे । उन्होंने अनेक लोगों से संबंध जोड़े, अनेक विवाह किए, द्वारिका नगरी बसाई और द्वापर के युगपुरुष के रूप में स्थापित हुए । भारतीय जनमानस में उनकी महानता आज भी निर्विवाद है । अत्यंत सफल रहे वे अपने जीवन में । लेकिन सफलता के आभामंडल में सरल प्रेम यदि कहीं खो जाए तो सफलता और स्वार्थपरता में भिन्नता करना कठिन हो जाता है । वे दीर्घजीवी रहे और अपने पड़पोतों तक का मुख देख सके ।  क्या अपने सुदीर्घ जीवन में उन्हें इतना भी समय नहीं मिला कि कभी गोकुल-वृंदावन जाकर अपने वियोग में तड़पने वालों की विरहाग्नि को शीतल कर देते ? सम्भवतः उनकी कभी ऐसी इच्छा ही नहीं हुई ।

 

प्रेम क्या है ? प्रेम हृदयों को जोड़ने वाला वह कच्चा धागा है जिसे कोई तोड़ना चाहे तो एक झटके में तोड़ दे और जो उसे न टूटना हो तो हज़ार हाथियों के बल से भी न टूटे ।  कृष्ण ने उस बाल्यकालीन निर्दोष प्रेम को किस रूप में देखा, वे ही जानें किंतु राधा सहित गोप-बालाओं के लिए तो वह ऐसा शक्तिशाली और चिरस्थायी धागा था जो किसी भांति नहीं टूट सकता था, कभी नहीं टूट सकता था । अजर-अमर और सनातन था (और है) उनका प्रेम । और इसी प्रेम ने सृष्टि में अपनी चिरकालिक परिभाषा रची, वह परिभाषा जिसे शब्दों से नहीं, अनुभूति से समझा जा सकता है और उसी से समझा जाता है ।

 

एक फ़िल्मी गीत में कहा गया है - 'न जाने क्यूँ होता है ये ज़िन्दगी के साथ, अचानक ये मन किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद छोटी-छोटी-सी बात' । प्रिय के विछोह में त्रस्त विरही या विरहणी को उससे जुड़ी प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति से गहरा लगाव हो जाता है क्योंकि वह वस्तु या व्यक्ति उसके लिए अपने प्रिय का ही प्रतीक बन जाता है । कई वर्षों के उपरांत जब बलराम वृंदावन आए तो उन्हें देखकर गोपियाँ भाव-विह्वल हो उठीं । क्यों ? गोपियों का लगाव तो कृष्ण से था, बलराम से नहीं । किंतु बलराम के आगमन एवं दर्शन ने भी उन्हें अतीव आनंदित किया क्योंकि वे कृष्ण के भाई थे और इसीलिए उनका आना भी गोपियों के आनंद का स्रोत बन गया था । बे बार-बार बलराम से पूछती रहीं कि कान्हा कैसे हैं, वे कभी उन्हें स्मरण करते हैं या नहीं । बलराम क्या उत्तर देते ?

 

कृष्ण ने विरहणी गोपियों के विकल मन को धीरज बंधाने के लिए तथा उन्हें मोह की निस्सारता समझाने के लिए उद्धव को गोकुल भेजा । उद्धव गए तो थे अपने ज्ञान से गोपियों के मन को शांत करने तथा उनकी मानसिकता एवं कृष्ण के प्रति दृष्टिकोण को मोड़ने लेकिन गोपिकाओं की विरह-वेदना देखकर संभवतः उन्हें अपने ज्ञान की निस्सारता का आभास हो गया और वे भाँप गए कि गोपिकाओं के असीम कृष्ण-प्रेम के समक्ष उनका तथाकथित  तत्व-ज्ञान तृणभर भी नहीं था और इसीलिए उनका विरह-व्यथित गोपिकाओं को समझाने का प्रयास निरर्थक ही था । सूरदास के शब्दों में गोपियों ने उद्धव से कहा - 'ऊधो मन न भए दस-बीस, एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस' अर्थात् हमारे पास कोई दस-बीस मन तो थे नहीं, एक ही था जो कृष्ण के संग गया, अब कुछ है ही नहीं जिसे कहीं और लगाया जाए' । अब उद्धव क्या बोल सकते थे और क्या उपदेश दे सकते थे उन्हें ? मेरे अंतर्मन में यही प्रश्न उठता है कि जब कृष्ण उद्धव को भेज सकते थे तो क्या स्वयं नहीं जा सकते थे ? सूरदास के ही शब्दों में उन्होंने स्वयं उद्धव से (जो कि उनके सखा थे) कहा था - 'ऊधो, मोहि ब्रज बिसरत नाहीं' । जब वे ब्रज को भूल नहीं सकते थे तो जाने में क्या बाधा थी ?

 

एक हिंदी फ़िल्म की समीक्षा में मैंने इस बात को रेखांकित किया है कि 'अपनों की क़ीमत सपनों से ज़्यादा होती है' । लेकिन संसार में निरंतर दृष्टिगोचर यथार्थ तो यही बताता है कि सपनों का पीछा करने वाले और सफलता को मुट्ठी में कर लेने वाले अपनों की परवाह करना भूल ही जाते हैं । उनकी संवेदनशीलता, भावनाएं और स्नेह: सब कुछ वास्तविक से प्रदर्शनी कब बन जाता है, सम्भवतः वे स्वयं भी नहीं जान पाते । मैंने अपने लेख 'सफलता बनाम गुण' में कहा है - सफलता के लिए बहुत कुछ त्यागा जा सकता है लेकिन सफलता को किसी के भी लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि (सफल व्यक्तियों के लिए) वह सबसे अधिक मूल्यवान होती है। गोपियों को तो किसी भौतिक सफलता की अभिलाषा नहीं थी । वे तो कृष्ण के दरस से, उनके सान्निध्य से और उनकी लीलाओं से हो रही आनंद-प्राप्ति से ही अपने जीवन को धन्य मान चुकी थीं । वही उनके संपूर्ण जीवन के लिए पर्याप्त था । सफलता का महत्व तो कृष्ण के लिए रहा । सफल बनकर वे कूटनीतिज्ञ बन गए (प्राय: सभी सफल व्यक्त्ति बन ही जाते हैं), संवेदनशील नहीं रहे । उनके जीवन में आई सफलता की आँधी उनके भीतर निहित संवेदनाओं से युक्त एवं कोमल भावनाओं से ओतप्रोत प्रेमी को कहीं बाहर उड़ा ले गई । देवत्व प्राप्त करके वे मानव न रहे ।   

 

गोपियों ने अपने मन पर पत्थर रखकर कृष्ण को विदा देने समय यह तो नहीं सोचा था कि वे उनसे और ब्रज-गोकुल से ऐसा मुँह फेरेंगे कि कभी पलटकर न आएंगे । वे भोली बालाएं तो यही समझती रहीं और सदा उनकी बाट जोहती रहीं कि वे कभी तो आएंगे । दिन महीनों में बदले और महीने बरसों में । उनका संपूर्ण जीवन कृष्ण का पंथ निहारते बीत गया, आँखें पथरा गईं होंगी उनकी, पलकों को भिगोते-भिगोते किसी दिन अश्रु भी सूख गए होंगे उनके । पर कान्हा न आए । केवल उनकी वर्षों पुरानी स्मृतियां ही साथ रहीं उनके । और अपने लाल पर दिन-रात स्नेह बरसाने वाली यशोदा मैया पर अपने पुत्र के वियोग में क्या बीती होगी, इसका केवल एक पीड़ादायी अनुमान ही लगाया जा सकता है ।

 

मैं नहीं जानता कि जयदेव रचित 'गीतगोविंद' में तथा रीतिकालीन कवियों की रचनाओं में वर्णित कृष्ण की राधा तथा अन्य गोप-बालाओं एवं गोप-वधुओं के साथ की गई क्रीड़ाओं में सत्य का अंश कितना है लेकिन इन सभी वर्णनों में दैहिकता ही प्रमुखता रखती है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण ने अपनी रासलीलाओं द्वारा उन सरल एवं निष्पाप नारियों की कमनीय देहों का सुख लिया । किंतु गोप-बालाओं तथा गोप-वधुओं का उनके लिए प्रेम आत्मिक ही था जिसमें दैहिकता लेशमात्र भी नहीं थी । इसीलिए वह प्रेम कृष्ण की महानता से भी कहीं अधिक महान है क्योंकि वह निस्वार्थ था, निष्कलंक था, किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त था । वह प्रेम कोई साधन नहीं, अपने आप में ही साध्य था ।

 

और इन्हीं गोपिकाओं में थीं - वृषभानुजा राधारानी जो कृष्ण से आयु में कई वर्ष बड़ी थीं लेकिन कृष्ण के लिए उनका प्रेम आयु और देह की सीमाओं से परे था । कृष्ण से विछोह हो जाने के उपरांत उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छानुसार विवाह भी किया लेकिन अपने हृदय में अपने बंसीवाले कान्हा की छवि को अक्षुण्ण बनाए रखा । कौन जाने, वे ही कलियुग में मीरा बनकर अवतरित हुई हों । सत्य और तथ्य यही है कि कृष्ण ने चाहे जितने विवाह किए और चाहे जितनी उनकी पटरानियां (कुल आठ बताई जाती हैं) रही हों, उनके नाम के साथ सदा-सदा-सर्वदा के लिए यदि किसी का नाम संयुक्त हो गया तो राधा का । कृष्ण के किसी भी मंदिर में उनके साथ उनकी किसी पटरानी की प्रतिमा नहीं लगती, राधा की लगती है । उस राधा की जिसका कृष्ण के साथ संबंध सामाजिक नहीं; हार्दिक था, आत्मिक था, ऐसा था जिसमें वह पृथक् न रही, कृष्ण के अस्तित्व के साथ एकाकार हो गई । ऐसे निश्छल और पावन प्रेम को विवाह जैसी किसी औपचारिकता की आवश्यकता थी भी नहीं । उसे अमरत्व तो प्राप्त होना ही था । 

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