आज (तीन नवम्बर को) मेरे पुत्र सौरव का जन्मदिन है । सामान्यतः माता एवं पुत्र के तथा पिता एवं पुत्री के भावनात्मक जुड़ाव ही विमर्श का विषय बनते हैं क्योंकि प्रायः ऐसा देखा गया है कि भारतीय परिवारों में पुत्री अपने पिता की लाड़ली होती है जबकि पुत्र अपनी माता का लाड़ला होता है । लेकिन पिता एवं पुत्र के मध्य का संबंध भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं । कई बार पिता अपने पुत्र के प्रति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं करते (या बहुत कम करते हैं) लेकिन योग्य पुत्र अपने पिता का गौरव होता है, इसमें कोई संदेह नहीं । पिता के अपनी भावनाओं को मन में दबा लेने तथा पुत्र के साथ संवादहीनता के कारण कभी-कभी पुत्र अपने पिता को ग़लत भी समझने लगते हैं लेकिन अधिकांश उदाहरणों में सत्य यही होता है कि जहाँ एक सफल एवं समर्थ पिता अपने पुत्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखना चाहता है, वहीं एक असफल एवं विवश पिता अपने पुत्र को जीवन की प्रत्येक अवस्था में अपने से बेहतर देखना चाहता है तथा यही कामना करता है कि जो कुछ उसने अपने जीवन में भुगता है, उसके पुत्र को न भुगतना पड़े; वह सबल एवं सक्षम बने, अपनी योग्यतानुसार भौतिक जीवन में सब कुछ प्राप्त करे, कभी किसी अभाव का मुख न देखे और सदा सर उठाकर ही जिये, ज़िन्दगी में कभी न हारे । ऐसा हर बाप यही चाहता है कि मेरे ख़्वाब तो पूरे न हुए लेकिन मेरे बेटे के ज़रूर पूरे हों ।
बॉलीवुड ने इस जज़्बाती रिश्ते पर कई फ़िल्में बनाई हैं
जिनमें से कुछ बेहतरीन फ़िल्मों की चर्चा मैं इस आलेख में करूंगा । यूँ तो
फ़ॉर्मूलाबद्ध फ़िल्में बनाने वाले इस उद्योग ने ऐसी असंख्य पारिवारिक फ़िल्में बनाई
हैं जिनमें पिता-पुत्र के मध्य कहीं प्रेम का बाहुल्य तो कहीं तनाव दिखाया गया है
। ऐसी स्थापित ढर्रे की फ़िल्मों में पिता-पुत्र तनाव का कारण प्राय: पिता अथवा
पुत्र का अपराधी या दुराचारी होना दिखाया गया है । दुनिया (१९६८) तथा त्रिशूल
(१९७८) जैसी फ़िल्मों में यह भी दिखाया गया है कि पिता या पुत्र या दोनों को ही
एक-दूसरे के साथ अपना संबंध ज्ञात नहीं है । स्कूल मास्टर (१९५९), ज़िन्दगी (१९७६), अवतार (१९८३) तथा
बाग़बां (२००३) जैसी फ़िल्मों में स्वार्थी एवं कृतघ्न पुत्र दिखाए गए हैं जो अपने
निहित स्वार्थ के लिए पिता को (तथा माता को भी) कष्ट देते हैं तथा आगे चलकर कर्मठ
पिता अपने जीवट एवं परिश्रम से पुनः अपना भाग्योदय करते हैं जो कि परजीवी पुत्रों
के मुख पर तमाचे सरीखा सिद्ध होता है । लेकिन ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनी हैं जिनमें
कथावस्तु को पिता-पुत्र के भावात्मक संबंध पर ही केन्द्रित रखा गया हो (फ़ोकस किया गया हो)
। ऐसी कुछ उत्कृष्ट हिन्दी फ़िल्में हैं :
१. सम्बंध (१९६९): प्रदीप कुमार तथा देब
मुखर्जी को पिता एवं पुत्र के रूप में प्रस्तुत करती इस फ़िल्म को जिन भावुक लोगों
ने देखा है, उनके
नेत्र अवश्य ही आर्द्र हो उठे होंगे । भाग्य के झंझावात पिता, माता (अनिता गुहा) एवं
पुत्र को पृथक् कर देते हैं जिसके उपरान्त पुत्र अपने एकाकी जीवन में बहुत कुछ सह
जाता है । लेकिन उसके पिता कोई बुरे व्यक्ति नहीं हैं । किस्मत की आँधी ही ऐसी
चलती है कि सब कुछ बिखर जाता है जिस पर किसी का भी कोई बस नहीं चलता । लेकिन आख़िर
पिता और पुत्र मिलते हैं । कुछ समय उन्हें एकदूसरे को पहचानने में लगता है लेकिन
भावनाओं से भरा पिता अपने पुत्र को बिना पहचाने भी उसके दुख को जान लेता है, अनुभव कर लेता है एवं
बांटने का प्रयास करता है । फ़िल्म का अंत कोई अधिक प्रभावी नहीं लेकिन बिछोह के
उपरांत जो कुछ घटता है, वह
फ़िल्म देखने वालों को कथा के पात्रों से अभिन्न रूप से जोड़ देता है । प्रदीप
कुमार एवं देब मुखर्जी दोनों ने ही हृदयस्पर्शी अभिनय किया है । फ़िल्म में 'अंधेरे में जो बैठे
हैं, नज़र
उन पे भी कुछ डालो, अरे
ओ रोशनी वालों' तथा
'चल
अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा
मेला पीछे छूटा राही, चल
अकेला' जैसे
कालजयी गीत हैं ।
२. ज़िंदा दिल (१९७५): प्राण तथा ऋषि कपूर की
प्रमुख भूमिकाओं वाली यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से बुरी तरह से असफल रही थी लेकिन
इसकी विषय-वस्तु बहुत अच्छी है । पटकथा एवं निर्देशन भी यदि अच्छे होते तो कमाल की
फ़िल्म बनती क्योंकि बाप-बेटे की भूमिकाओं में प्राण और ऋषि कपूर ने पटकथा से ऊपर
उठकर शानदार अभिनय किया है और फ़िल्म को एक बार देखने लायक तो बना ही दिया है ।
पिता अपने दो पुत्रों में भेदभाव करता है क्योंकि वह जानता है कि जिस पुत्र के
प्रति वह पक्षपातपूर्ण ढंग से अन्याय करता है, वह ज़िंदा दिल है जबकि दूसरा पुत्र मानसिक
रूप से दुर्बल है जिसके कारण उसकी अतिरिक्त देखभाल करनी होती है । इस फ़िल्म में
कठोर बाप और ज़िंदा दिल बेटे के बीच के कुछ दृश्य तो ऐसे हैं कि बरबस ही मुँह से 'वाह' निकल पड़ती है ।
३. शक्ति (१९८२): दिलीप कुमार को पिता
तथा अमिताभ बच्चन को पुत्र के रूप में दर्शाती रमेश सिप्पी की यह फ़िल्म चाहे
व्यावसायिक रूप से कम चली लेकिन पिता-पुत्र की भूमिकाओं में इन दोनों ही असाधारण
कलाकारों ने जान डाल दी । अपने कर्तव्य के प्रति अति-सजग पिता अपने पुत्र से प्रेम
तो बहुत करता है लेकिन अभिव्यक्त नहीं करता जिसका परिणाम यह निकलता है कि पुत्र
अपने पिता को ग़लत समझने लगता है एवं अनायास ही भावनात्मक रूप से एक अपराधी के निकट
आ जाता है जबकि पिता से दूर होता चला जाता है । यह दुखांत फ़िल्म भावनाओं की
अभिव्यक्ति के महत्व को रेखांकित करती है एवं दिलीप कुमार तथा अमिताभ बच्चन, दोनों की ही श्रेष्ठ
फ़िल्मों में गिनी जाती है । इससे कुछ-कुछ मिलती-जुलती फ़िल्म 'स्वर्ग यहाँ नरक यहाँ' (१९९१) थी जिसमें मिथुन
चक्रवर्ती ने पिता और पुत्र की दोहरी भूमिका निभाई थी लेकिन वह फ़िल्म ख़राब पटकथा
एवं कमज़ोर निर्देशन के कारण बोझिल बन गई तथा दर्शकों को अधिक प्रभावित नहीं कर सकी
।
४. शराबी (१९८४): अमिताभ बच्चन को ही बेटे के रूप में पेश करती प्रकाश मेहरा की यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर अत्यधिक सफल रही थी । व्यवसाय में डूबे पिता की भूमिका प्राण ने निभाई थी । मातृहीन पुत्र अपने पिता की उपेक्षा के कारण शराबी बन जाता है जिसे स्नेह केवल अपने पिता के एक कर्मचारी मुंशी जी (ओम प्रकाश) से मिलता है । इस कथा में पिता अपने पुत्र की भावनाओं से अनभिज्ञ रहता है एवं उसे ग़लत समझता है । मुंशी जी का निधन शराबी पुत्र को और भी एकाकी बना देता है किन्तु अंत में पिता को अपनी भूल अनुभव होती है तथा फ़िल्म 'शक्ति' के विपरीत सुखद ढंग से समाप्त होती है । बेहद मनोरंजक यह फ़िल्म यकीनन देखने लायक है जिस में प्राण और अमिताभ बच्चन, दोनों का अभिनय कमाल का है ।
६. एहसास (२००१): ज़िन्दगी को बहुत नज़दीक
से देखने वाले निर्देशक महेश मांजरेकर ने यह उत्कृष्ट फ़िल्म बनाई थी जिसके साथ न
तो दर्शकों ने न्याय किया, न
ही समीक्षकों ने । अपनी ज़िन्दगी में हारने वाला पिता (सुनील शेट्टी) अपने पुत्र
(मयंक टंडन) को अपने जैसा नहीं बनते देखना चाहता तथा उसे उसके जीवन में विजेता
बनाने के लिए वह उसे इतने कठोर अनुशासन में रखता है कि वह बालक अपने पिता को ग़लत
समझने लगता है । उसके पिता उसे कितना प्यार करते हैं, यह बात वह बालक फ़िल्म
के अंत में जाकर समझ पाता है । फ़िल्म को पूर्ण रूप से यथार्थपरक रखा गया है, यहाँ तक कि क्लाईमेक्स
में भी फ़िल्मी फ़ॉर्मूला न अपनाकर वही दिखाया गया है जो उन परिस्थितियों में संभव
था । दिल की गहराई में उतर जाने वाली यह फ़िल्म जिन माता-पिताओं ने नहीं देखी है, मैं उनसे यही कहूंगा
कि इसे ज़रूर देखें । सुनील शेट्टी और मयंक टंडन, दोनों ही अपने काम से फ़िल्म देखने वालों
का दिल जीत लेते हैं । एक ऐसी ही अच्छी फ़िल्म गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित 'विजेता' (१९८२) थी जिसमें पिता
की भूमिका शशि कपूर ने तथा पुत्र की भूमिका उनके वास्तविक पुत्र कुणाल कपूर ने
निभाई थी लेकिन पिता-पुत्र संबंध उसकी कथा का केवल एक अंश ही था ।
७. अपने (२००७): धर्मेन्द्र तथा उनके दोनों वास्तविक पुत्रों सन्नी देओल एवं बॉबी देओल को लेकर बनाई गई इस फ़िल्म का निर्देशन अनिल शर्मा ने किया है एवं यदि वे फ़िल्म के अंतिम भाग को खींचने के प्रलोभन से बच पाते तो यह एक अत्यन्त श्रेष्ठ फ़िल्म बनती । फिर भी एक जीवन से हारे हुए पिता द्वारा अपने व्यावहारिक कर्तव्य को प्राथमिकता देने वाले अपने ज्येष्ठ पुत्र को ग़लत समझने की कथा पर बनाई गई यह फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में प्रभावी है । यद्यपि बॉबी देओल भी फ़िल्म में हैं एवं वास्तविक जीवन के अनुरूप ही वे धर्मेंद्र के कनिष्ठ पुत्र बने हैं, तथापि यह फ़िल्म वस्तुतः धर्मेंद्र एवं सन्नी देओल की ही है । पिता का दर्द कुछ और है, पुत्र का कुछ और । इन दोनों के बीच पिस रही माता (किरण खेर) किससे शिकायत करे और क्या शिकायत करे ? सभी कलाकारों के प्रभावशाली अभिनय से सजी यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से सफल तो नहीं रही थी लेकिन कुछ ख़ामियों को अनदेखा किया जाए तो कुल मिलाकर अच्छी ही है ।
८. उड़ान (२०१०): 'उड़ान' एक ऐसी फ़िल्म है
जिसमें पिता का चरित्र विशुद्ध नकारात्मक है । मन को झकझोर देने वाली यह फ़िल्म
किशोर पुत्र के अपने क्रूर पिता की बेड़ियों से मुक्त होकर जीवन में स्वतंत्र उड़ान
भरने की स्थिति में पहुँचने की गाथा है जिसमें पुत्र के यौवन एवं साहस के समक्ष
अंततः पिता को पराजय स्वीकार करनी पड़ती है । समीक्षकों द्वारा मुक्त-कंठ से सराही
गई एवं अनेक पुरस्कार जीतने वाली इस फ़िल्म में पुत्र की प्रेरक भूमिका रजत बारमेचा ने एवं
पाषाण-हृदय पिता की भूमिका रोनित रॉय ने निभाई है और दोनों ने ही अविस्मरणीय अभिनय
किया है । मनोज बाजपेयी के सुन्दर अभिनय से सजी 'गली गुलियां' (२०१८) में पिता-पुत्र
(नीरज काबी-ओम सिंह) का ट्रैक भी कुछ-कुछ ऐसा ही है लेकिन 'गली गुलियां' अपनी एक अलग श्रेणी की
फ़िल्म है और यह बात उसे देखे बिना नहीं समझी जा सकती ।
९. पटियाला हाउस (२०११): क्रिकेट के साथ-साथ
इंग्लैंड में नस्लभेद की समस्या की पृष्ठभूमि में बनाई गई निखिल आडवाणी की यह
फ़िल्म यदि रटे-रटाये फ़ॉर्मूलों का लोभ संवरण कर पाती तो इसकी गुणवत्ता बहुत उच्च
होती । तथापि पिता ऋषि कपूर एवं आज्ञाकारी पुत्र अक्षय कुमार के बीच के उलझे हुए
संबंंध को यह फ़िल्म बहुत प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करती है जिसमें दोनों ही
कलाकारों का अभिनय अत्यन्त प्रशंसनीय रहा है । पिता की भावनाएं आहत न हों, इसके लिए पुत्र अपनी
उमंगों का दम घोट देता है एवं अपनी युवावस्था के स्वप्नों का बलिदान कर देता है ।
लेकिन वर्षों के अंतराल के उपरांत जब उसे अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करने का अवसर
मिलता है तो वह दुविधा में पड़ जाता है - एक ओर उसका अपना जीवन है, दूसरी ओर पिता की भावनाएं
। जब वह पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाता है तो पहले तो पिता उसे ग़लत ही समझता है
लेकिन फिर उसके अंदर आया बदलाव फ़िल्म को ख़ुशनुमा ढंग से ख़त्म करता है ।
१०. फ़रारी की सवारी (२०१२): आज आदर्शवादी लोग ढूंढे नहीं मिलते । ऐसे में एक आदर्शवादी पिता एवं उसके वैसे ही आदर्शवादी पुत्र की यह कथा न केवल भरपूर मनोरंजन करती है वरन मर्म को स्पर्श करती है तथा एक फ़ीलगुड अनुभूति करवाती है, यह आशा बंधाती है कि इस स्वार्थाधारित समाज तथा मूल्यों के क्षरण के युग में भी अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है । आदर्शवादी लोग सदा तथाकथित व्यावहारिक लोगों से हारें, यह आवश्यक नहीं । एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार के बालक के स्वप्न भी साकार हो सकते हैं जिसके लिए उसके पिता (तथा दादा क्योंकि फ़िल्म में तीन पीढ़ियों वाला परिवार है जिसमें सभी पुरुष हैं) का अपने आदर्शों से समझौता करना आवश्यक नही । बड़े पहले स्वयं आदर्शों पर चलें, तभी वे बालकों को आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, इस सत्य को यह फ़िल्म स्पष्ट रूप से उद्घाटित करती है । सभी कलाकारों के सजीव अभिनय से ओतप्रोत यह फ़िल्म एक पारसी परिवार में पिता रुस्तम (शर्मन जोशी), पुत्र कायो (ऋत्विक साहोर) तथा पिता के पिता बहराम देबू (बोमन ईरानी) के भावनात्मक संबंधों को दिल को छू लेने वाले ढंग से चित्रित करती है । नन्हा पुत्र ऐसा आदर्शवादी बन चुका है कि अपने सपने को पूरा करने के लिए भी उसे अपने पिता का कोई अनुचित कार्य करना स्वीकार नहीं है । यह फ़िल्म मनोरंजन तथा संदेश, दोनों ही की कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है ।
बाप-बेटे के रिश्ते को समझना आसान नहीं लेकिन यह
रिश्ता बहुत अहम होता है दोनों ही की ज़िन्दगी में । ऊपर वर्णित फ़िल्में इसका
प्रमाण हैं । अपने पुत्र का हित चाहने वाला स्नेहपूर्ण पिता नारियल की भांति भी हो
सकता है जिसकी अनुशासनप्रियता के कठोर आवरण में ही उसका अपने पुत्र के प्रति
निश्छल प्रेम एवं शुभचिंतन अन्तर्निहित हो । बेटे को सोने का निवाला खिलाने वाले
लेकिन शेर की नज़र से
देखने वाले बाप ऐसे ही होते हैं । शेष सत्य यही है कि बालक से बड़े होते हुए अपने
पुत्र को निहारते समय पिता के मन में यही पंक्तियां चलती रहती हैं - 'तुझे सूरज कहूं या
चंदा, तुझे
दीप कहूं या तारा, मेरा
नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा' ।
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