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बुधवार, 1 सितंबर 2021

गोपिकाओं का निश्छल प्रेम

जन्माष्टमी आई और चली गई । प्रत्येक वर्ष आती है । हम धर्मप्राण हिंदू भगवान कृष्ण को स्मरण करते हैं, उनकी लीलाओं को विशेषतः उनकी गोकुल-वृंदावन में रचाई गई बाल-लीलाओं को याद करके और उनका नाट्य रूपांतर करके प्रफुल्लित होते हैं । गाँव-खेड़ों में रासलीलाओं के आयोजन होते हैं और कल्पनाएं की जाती हैं कि राधारानी और अन्य गोपिकाओं के साथ कृष्ण ने कैसे-कैसे रास रचाए होंगे, कैसे वे स्वयं आनंदित हुए होंगे और कैसे उन्होंने सर्वत्र आनंद-रस बरसाया होगा । इस सबके दौरान हम सहज ही यह मानकर चलते हैं कि उन रासलीलाओं तथा कृष्ण की बालसुलभ लीलाओं से ब्रज और गोकुल की गोपिकाएं भी आनंदित ही हुई होंगी । उन बालाओं को कृष्ण से हार्दिक प्रेम हो गया था, इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता । भक्त कवि सूरदास का तो संपूर्ण काव्य-सृजन ही इन्हीं सब कार्यकलाप तथा सुकोमल संबंधों पर आधारित है । लेकिन कृष्ण ने तो ग्यारह वर्ष की आयु में वृन्दावन छोड़ दिया था और मथुरा चले गए थे । इस तरह उनका गोकुल-वृंदावन की भूमि, अपने पालक माता-पिता अर्थात् नंदबाबा तथा यशोदा मैया एवं समस्त गोप-बालाओं तथा गोप-वधुओं से विछोह हो गया था । उस विछोह के उपरांत क्या हुआ ?

 

किवदंतियों की बात जाने दीजिए जिनसे आज इंटरनेट भरा पड़ा है और जिनमें से अधिकांश की कोई प्रामाणिकता नहीं है । कृष्ण की प्रामाणिक जीवन-कथा को आद्योपांत पढ़ा जाए तो यही पता लगता है कि एक बार गोकुल-वृंदावन छोड़ जाने के उपरांत वे पुनः वहाँ कभी नहीं लौटे । क्यों ? वे ही बेहतर जानते होंगे । क्या उन्हें कभी अपने उस बाल्यकाल की मधुर स्मृतियों ने, वृंदावन की कुंज-गलियों ने, नंदबाबा और यशोदा मैया के दुलार ने एवं उन पर प्राणप्रण से न्यौछावर हो जाने वाली गोपिकाओं के पावन प्रेम ने नहीं पुकारा ? यह भी वे ही बेहतर जानते होंगे । वे योगेश्वर कहलाए, महाभारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, गीतोपदेश दिया तथा आजीवन पांडवों के सम्पर्क में रहे । उन्होंने अनेक लोगों से संबंध जोड़े, अनेक विवाह किए, द्वारिका नगरी बसाई और द्वापर के युगपुरुष के रूप में स्थापित हुए । भारतीय जनमानस में उनकी महानता आज भी निर्विवाद है । अत्यंत सफल रहे वे अपने जीवन में । लेकिन सफलता के आभामंडल में सरल प्रेम यदि कहीं खो जाए तो सफलता और स्वार्थपरता में भिन्नता करना कठिन हो जाता है । वे दीर्घजीवी रहे और अपने पड़पोतों तक का मुख देख सके ।  क्या अपने सुदीर्घ जीवन में उन्हें इतना भी समय नहीं मिला कि कभी गोकुल-वृंदावन जाकर अपने वियोग में तड़पने वालों की विरहाग्नि को शीतल कर देते ? सम्भवतः उनकी कभी ऐसी इच्छा ही नहीं हुई ।

 

प्रेम क्या है ? प्रेम हृदयों को जोड़ने वाला वह कच्चा धागा है जिसे कोई तोड़ना चाहे तो एक झटके में तोड़ दे और जो उसे न टूटना हो तो हज़ार हाथियों के बल से भी न टूटे ।  कृष्ण ने उस बाल्यकालीन निर्दोष प्रेम को किस रूप में देखा, वे ही जानें किंतु राधा सहित गोप-बालाओं के लिए तो वह ऐसा शक्तिशाली और चिरस्थायी धागा था जो किसी भांति नहीं टूट सकता था, कभी नहीं टूट सकता था । अजर-अमर और सनातन था (और है) उनका प्रेम । और इसी प्रेम ने सृष्टि में अपनी चिरकालिक परिभाषा रची, वह परिभाषा जिसे शब्दों से नहीं, अनुभूति से समझा जा सकता है और उसी से समझा जाता है ।

 

एक फ़िल्मी गीत में कहा गया है - 'न जाने क्यूँ होता है ये ज़िन्दगी के साथ, अचानक ये मन किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद छोटी-छोटी-सी बात' । प्रिय के विछोह में त्रस्त विरही या विरहणी को उससे जुड़ी प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति से गहरा लगाव हो जाता है क्योंकि वह वस्तु या व्यक्ति उसके लिए अपने प्रिय का ही प्रतीक बन जाता है । कई वर्षों के उपरांत जब बलराम वृंदावन आए तो उन्हें देखकर गोपियाँ भाव-विह्वल हो उठीं । क्यों ? गोपियों का लगाव तो कृष्ण से था, बलराम से नहीं । किंतु बलराम के आगमन एवं दर्शन ने भी उन्हें अतीव आनंदित किया क्योंकि वे कृष्ण के भाई थे और इसीलिए उनका आना भी गोपियों के आनंद का स्रोत बन गया था । बे बार-बार बलराम से पूछती रहीं कि कान्हा कैसे हैं, वे कभी उन्हें स्मरण करते हैं या नहीं । बलराम क्या उत्तर देते ?

 

कृष्ण ने विरहणी गोपियों के विकल मन को धीरज बंधाने के लिए तथा उन्हें मोह की निस्सारता समझाने के लिए उद्धव को गोकुल भेजा । उद्धव गए तो थे अपने ज्ञान से गोपियों के मन को शांत करने तथा उनकी मानसिकता एवं कृष्ण के प्रति दृष्टिकोण को मोड़ने लेकिन गोपिकाओं की विरह-वेदना देखकर संभवतः उन्हें अपने ज्ञान की निस्सारता का आभास हो गया और वे भाँप गए कि गोपिकाओं के असीम कृष्ण-प्रेम के समक्ष उनका तथाकथित  तत्व-ज्ञान तृणभर भी नहीं था और इसीलिए उनका विरह-व्यथित गोपिकाओं को समझाने का प्रयास निरर्थक ही था । सूरदास के शब्दों में गोपियों ने उद्धव से कहा - 'ऊधो मन न भए दस-बीस, एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस' अर्थात् हमारे पास कोई दस-बीस मन तो थे नहीं, एक ही था जो कृष्ण के संग गया, अब कुछ है ही नहीं जिसे कहीं और लगाया जाए' । अब उद्धव क्या बोल सकते थे और क्या उपदेश दे सकते थे उन्हें ? मेरे अंतर्मन में यही प्रश्न उठता है कि जब कृष्ण उद्धव को भेज सकते थे तो क्या स्वयं नहीं जा सकते थे ? सूरदास के ही शब्दों में उन्होंने स्वयं उद्धव से (जो कि उनके सखा थे) कहा था - 'ऊधो, मोहि ब्रज बिसरत नाहीं' । जब वे ब्रज को भूल नहीं सकते थे तो जाने में क्या बाधा थी ?

 

एक हिंदी फ़िल्म की समीक्षा में मैंने इस बात को रेखांकित किया है कि 'अपनों की क़ीमत सपनों से ज़्यादा होती है' । लेकिन संसार में निरंतर दृष्टिगोचर यथार्थ तो यही बताता है कि सपनों का पीछा करने वाले और सफलता को मुट्ठी में कर लेने वाले अपनों की परवाह करना भूल ही जाते हैं । उनकी संवेदनशीलता, भावनाएं और स्नेह: सब कुछ वास्तविक से प्रदर्शनी कब बन जाता है, सम्भवतः वे स्वयं भी नहीं जान पाते । मैंने अपने लेख 'सफलता बनाम गुण' में कहा है - सफलता के लिए बहुत कुछ त्यागा जा सकता है लेकिन सफलता को किसी के भी लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि (सफल व्यक्तियों के लिए) वह सबसे अधिक मूल्यवान होती है। गोपियों को तो किसी भौतिक सफलता की अभिलाषा नहीं थी । वे तो कृष्ण के दरस से, उनके सान्निध्य से और उनकी लीलाओं से हो रही आनंद-प्राप्ति से ही अपने जीवन को धन्य मान चुकी थीं । वही उनके संपूर्ण जीवन के लिए पर्याप्त था । सफलता का महत्व तो कृष्ण के लिए रहा । सफल बनकर वे कूटनीतिज्ञ बन गए (प्राय: सभी सफल व्यक्त्ति बन ही जाते हैं), संवेदनशील नहीं रहे । उनके जीवन में आई सफलता की आँधी उनके भीतर निहित संवेदनाओं से युक्त एवं कोमल भावनाओं से ओतप्रोत प्रेमी को कहीं बाहर उड़ा ले गई । देवत्व प्राप्त करके वे मानव न रहे ।   

 

गोपियों ने अपने मन पर पत्थर रखकर कृष्ण को विदा देने समय यह तो नहीं सोचा था कि वे उनसे और ब्रज-गोकुल से ऐसा मुँह फेरेंगे कि कभी पलटकर न आएंगे । वे भोली बालाएं तो यही समझती रहीं और सदा उनकी बाट जोहती रहीं कि वे कभी तो आएंगे । दिन महीनों में बदले और महीने बरसों में । उनका संपूर्ण जीवन कृष्ण का पंथ निहारते बीत गया, आँखें पथरा गईं होंगी उनकी, पलकों को भिगोते-भिगोते किसी दिन अश्रु भी सूख गए होंगे उनके । पर कान्हा न आए । केवल उनकी वर्षों पुरानी स्मृतियां ही साथ रहीं उनके । और अपने लाल पर दिन-रात स्नेह बरसाने वाली यशोदा मैया पर अपने पुत्र के वियोग में क्या बीती होगी, इसका केवल एक पीड़ादायी अनुमान ही लगाया जा सकता है ।

 

मैं नहीं जानता कि जयदेव रचित 'गीतगोविंद' में तथा रीतिकालीन कवियों की रचनाओं में वर्णित कृष्ण की राधा तथा अन्य गोप-बालाओं एवं गोप-वधुओं के साथ की गई क्रीड़ाओं में सत्य का अंश कितना है लेकिन इन सभी वर्णनों में दैहिकता ही प्रमुखता रखती है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण ने अपनी रासलीलाओं द्वारा उन सरल एवं निष्पाप नारियों की कमनीय देहों का सुख लिया । किंतु गोप-बालाओं तथा गोप-वधुओं का उनके लिए प्रेम आत्मिक ही था जिसमें दैहिकता लेशमात्र भी नहीं थी । इसीलिए वह प्रेम कृष्ण की महानता से भी कहीं अधिक महान है क्योंकि वह निस्वार्थ था, निष्कलंक था, किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त था । वह प्रेम कोई साधन नहीं, अपने आप में ही साध्य था ।

 

और इन्हीं गोपिकाओं में थीं - वृषभानुजा राधारानी जो कृष्ण से आयु में कई वर्ष बड़ी थीं लेकिन कृष्ण के लिए उनका प्रेम आयु और देह की सीमाओं से परे था । कृष्ण से विछोह हो जाने के उपरांत उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छानुसार विवाह भी किया लेकिन अपने हृदय में अपने बंसीवाले कान्हा की छवि को अक्षुण्ण बनाए रखा । कौन जाने, वे ही कलियुग में मीरा बनकर अवतरित हुई हों । सत्य और तथ्य यही है कि कृष्ण ने चाहे जितने विवाह किए और चाहे जितनी उनकी पटरानियां (कुल आठ बताई जाती हैं) रही हों, उनके नाम के साथ सदा-सदा-सर्वदा के लिए यदि किसी का नाम संयुक्त हो गया तो राधा का । कृष्ण के किसी भी मंदिर में उनके साथ उनकी किसी पटरानी की प्रतिमा नहीं लगती, राधा की लगती है । उस राधा की जिसका कृष्ण के साथ संबंध सामाजिक नहीं; हार्दिक था, आत्मिक था, ऐसा था जिसमें वह पृथक् न रही, कृष्ण के अस्तित्व के साथ एकाकार हो गई । ऐसे निश्छल और पावन प्रेम को विवाह जैसी किसी औपचारिकता की आवश्यकता थी भी नहीं । उसे अमरत्व तो प्राप्त होना ही था । 

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33 टिप्‍पणियां:

  1. सफलता के लिए बहुत कुछ त्यागा जा सकता है लेकिन सफलता को किसी के भी लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि (सफल व्यक्तियों के लिए) वह सबसे अधिक मूल्यवान होती है। -- बिल्कुल सही बात है बहुत अच्छा लेख है

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  2. मूल प्रकाशित लेख (बारह सितम्बर २०१९ को) पर नीरज कुमार जी की प्रतिक्रिया:

    Neeraj KumarSeptember 13, 2019 at 2:02 AM
    ज़बरदस्त लेख!

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    जितेन्द्र माथुरSeptember 13, 2019 at 3:37 AM
    हार्दिक आभार नीरज जी ।

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  3. "कृष्ण" एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे जितना समझो उतना ही नासमझ बनते जाना होता है। तभी तो आज तक, कभी उनके चारित्रिक गुणों की व्याख्या होती है और कोई उनके दोष तलाशता है। आज तक के जितने भी अवतरण माने जाते है उनमे सिर्फ एक कृष्ण ही ऐसे थे जिसे जो जिस रूप में देखा उसे वही मिले। कहते हैं-कृष्ण युग परिवर्तक थे और युग परिवर्तन के क्रम में आपना भी बलिदान देना होता है और लोगो का भी,तभी तो अपने प्रिय अभिमन्यु तक को उन्होंने दांव पर लगा दिया। कृष्ण को समझने का बेहतरीन प्रयास किया आपने,सादर नमन जितेंद्र जी

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    1. मैंने श्रीकृष्ण-कथा को आदि से अंत तक पढ़ा है माननीया कामिनी जी। आगमन एवं विचाराभिव्यक्ति हेतु सादर आभार आपका।

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  4. कृष्ण और उनके रहस्यमयी,अविश्वसनीय चमत्कारिक व्यक्तित्व को उनपर लिखे गये शोधग्रंथों के दृष्टिकोण से अपने अपने तर्कों के द्वारा,हम अपने वैचारिकी मंथन के अनुसार विश्लेषित करते रहे हैं। मुझे कृष्ण पर रचे गये शास्त्रों का या वेद उपनिषद,पुराणों में उल्लेखित चारित्रिक वर्णनों का ज्ञान नहीं,किंतु उन्हें फिर भी कभी कहीं भी उनको पढ़ते समय उनके विराट व्यक्तित्व को आत्मसात करते हुए इतना समझ आया कि उनके द्वारा किये गये कर्मों को भौतिक जीवन के साधारण कलापों की तरह समझने का प्रयास वैचारिकी उलझन ही उत्पन्न करता है।
    मेरी समझ से-
    निर्विकार और निष्काम भाव से समस्त मानवीय गुणों जैसे लोभ,मोह,क्रोध एवं सांसारिक कामनाओं को त्यागकर ही बंधनमुक्त हुआ जा सकता है
    उसी प्रकार प्रेम के आनंद को महसूस करने के लिए भी पाने की लालसा त्याग करना आवश्यक है।
    अर्थात् उनके समस्त कर्मों का निष्कर्ष निकाला जाय तो यही समझ आता है कि त्याग ही आत्मिक आनंद की परम अनुभूति है जिससे मनुष्य मोह एवं कामनाओं से मुक्त हो जाता है।
    कृष्ण का अलौकिक व्यक्तित्व, किंवदंती में परिवर्तित होती असंख्य प्रेरक कथाएँ भले ही तार्किकों के लिए आलोचना कि विषय हो पर उनके कर्मों की साधारण व्याख्या उनके चरित्र को सही ढंग से परिभाषित नहीं कर सकती न ही हमारी आने पीढ़ियों तक सही संदेश प्रेषित कर सकती है।
    कृष्ण के व्यक्तित्व को शब्दों में समेटना मेरे क़लम के वश में नहीं।
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    वैचारिकी मंथन को.आमंत्रित करता आपके लेख के लिए आभार सर।
    सादर।

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    1. मेरे आलेख का केन्द्र-बिंदु उसके शीर्षक के अनुरूप ही ब्रज-गोकुल की गोपिकाओं का कृष्ण के प्रति निश्छल एवं सात्विक प्रेम है, न कि कुछ और। मैं प्रेम का आदर्श उनके उसी निस्वार्थ प्रेम को मानता हूँ। आगमन एवं विस्तृत प्रतिक्रिया के निमित्त हार्दिक आभार श्वेता जी।

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  5. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (03-09-2021) को "बैसाखी पर चलते लोग" (चर्चा अंक- 4176) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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  6. बहुत सुंदर आलेख। यह पढ़ते पढ़ते अपनी स्थिति के विषय में सोचने लगा। मुझे अपना कस्बा पौड़ी बहुत प्यारा है। उधर जाओ तो वहीं बसने का मन करता है लेकिन काम गुरुग्राम है तो उधर बसना पड़ता है। ऐसे मेरे जैसे न जाने कितने लोग होंगे जो कि अपने घरों से दूर रह रहे हैं। शायद कृष्ण भी ऐसे ही रहे होंगे। उन्हे पता होगा कि अगर वह उधर गए तो शायद वापिस लौटकर आने का उनका मन न करे। वह उधर ही बस जाएँ। शायद यही कारण है गोपियों को समझाने के लिये वो खुद नहीं गए। उन्होंने अपने मित्र को भेजा। हम सब कहीं न कहीं ऐसे ही बिछोह को तो सह रहे हैं। अपने अपने घरों की यादें दिल में लिये घूम रहे हैं लेकिन वहाँ जा नहीं पाते हैं। या जाते भी हैं तो न के बराबर।

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    1. आपने एक भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है विकास जी जो निस्संदेह विचारणीय है। हार्दिक आभार आपका।

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  7. एक नए नजरिए से श्रीकृष्ण के बारे पढ़ने को मिला। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं सर।

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    1. मैंने कृष्ण से अधिक गोपियों की भावनाओं को समझने का प्रयास किया है वीरेन्द्र जी। हार्दिक आभार आपका।

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  8. सफलता के लिए बहुत कुछ त्यागा जा सकता है लेकिन सफलता को किसी के भी लिए दांव पर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि (सफल व्यक्तियों के लिए) वह सबसे अधिक मूल्यवान होती है।

    बिल्कुल।
    सादर।

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  9. संसार में निरंतर दृष्टिगोचर यथार्थ तो यही बताता है कि सपनों का पीछा करने वाले और सफलता को मुट्ठी में कर लेने वाले अपनों की परवाह करना भूल ही जाते हैं । सही कहा आपने जितेन्द्र जी सफलता प्राप्त कर ये सफलता के मार्ग में आने वाले नये लोगों से जुड़ जाते हैं फिर इन्हें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं रहती...सम्भवतः कृष्ण भी....
    परन्तु गोप-बालाओं तथा गोप-वधुओं का उनके लिए प्रेम आत्मिक था जिसमें दैहिकता लेशमात्र भी नहीं थी । इसीलिए वह प्रेम कृष्ण की महानता से भी कहीं अधिक महान है क्योंकि वह निस्वार्थ था, निष्कलंक था, किसी भी प्रकार की अपेक्षा से मुक्त था । वह प्रेम कोई साधन नहीं, अपने आप में ही साध्य था ।
    बहुत सटीक....। बाकी तो वे लीलाधर श्रीकृष्ण ही जानें...पर वे चाहते तो उनकी सुध ले सकते थे एक द्वारिका क्या अनेक द्वारका बसा सकते थे...अब सोच का क्या हम भक्ति में लीन ये भी सोच सकते हैं कि उनकी भक्ति और दर्शन का समयकाल उतना ही था पर मेरे मन में भी ऐसे भाव आते हैं कि कम से कम माता यशोदा या राधा को तो स्मरण किया होता कम से कम उनके लिए तो वापस एक बार गये होते।

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    1. आपने मेरे भावों को समझा सुधा जी। हृदय से कृतज्ञ हूं। जो आपने कहा और महसूस किया, वही एहसास मेरे भी रहे।

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  10. यह प्रसंग आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब रहा होगा

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  11. कृष्ण एक युगपुरुष योगी रहें हैं ,मोह बंधन उन्हें कभी नहीं बांध पाया, उनके लिए उनका कार्यक्षेत्र सर्वोपरि था, बाल्यकाल गोकुल में बिता , गोपियों संग नेह राधा से प्रीति ज्यादातर बाल लीला के रुप में कवियों के माध्यम से प्रचारित है,ऐसा मुझे लगता है ।
    कृष्ण कर्मयोगी थे निरन्तर चलने वाले योद्धा, गीता का सार समझाने आये थे और कर्मों के माध्यम से जगह जगह साकार रूप में स्वयं के योग से समझाते रहे।
    वे सगुणी होकर भी निर्गुणी थे ।
    वे सामान्य मनुष्य नहीं थे, बस अवतार लेकर धरा पर आये तो मानव के सभी गुणों के साथ रहे मानव के उच्च गुण थे उनमें तो मानव की कमियां भी थी ।
    पर वे निर्लिप्त निराकार थे।
    जिज्ञासात्मक लेख , सुंदर!!

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    1. मेरा लेख वस्तुतः कृष्ण के प्रति गोपिकाओं के निःस्वार्थ एवं निश्छल प्रेम पर केंद्रित है कुसुम जी। विस्तृत विचाराभिव्यक्ति हेतु हार्दिक आभार आपका।

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  12. वस्तुतः राधा और कृष्ण को शिव-शक्ति की तरह ही एक माना जाता है
    बहुत अच्छी जानकारी

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  13. 'प्रेम क्या है? प्रेम हृदयों को जोड़ने वाला वह कच्चा धागा है जिसे कोई तोड़ना चाहे तो एक झटके में तोड़ दे और जो उसे न टूटना हो तो हज़ार हाथियों के बल से भी न टूटे।'... बहुत सुन्दर! प्रेम की जो परिभाषा श्री कृष्ण लिख गए हैं, वह अद्भुत है, अवर्चनीय है। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई बंधुवर!

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    1. मैंने प्रेम की उस अजर-अमर परिभाषा को समझने का प्रयास किया है आदरणीय गजेंद्र जी जो कृष्ण के प्रति राधा एवं अन्य गोपिकाओं के निश्छल, निस्वार्थ एवं निष्पाप प्रेम ने संसार को प्रदान की है। हृदय की गहनता से आपके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करता हूं।

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  14. जितेन्द्र जी, एक बार इस पर टिप्पणी डाल चुकी हूं, पता नहीं क्यूं प्रेषित नहीं हुई । आप कई दिनों से दिखे नहीं थे तो मैंने सोचा ब्लॉग पर जाकर देखती हूं।
    हम कृष्ण को जन्म जन्मांतर से एक अलौकिक पुरुष मानते हैं, जो कि हमारे दिलों में भगवान के ही अलौकिक, भिन्न भिन्न रूपों में विराजमान हैं, चूंकि मैंने ज्यादा शास्त्र पढ़े नहीं, अतः कृष्ण के प्रेम का विश्लेषण कर सकने में असमर्थ हूं,परंतु इस पक्ष को समझने की कोशिश करूंगी,जिस पर आपने प्रकाश डाला है, बहुत चिंतनपरक आलेख है आपका,मेरी बहुत शुभकामनाएं आपको ।

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  15. बहुत चर्चित और जाने पहचाना विषय था पर पूरा लेख पढ़े बिना मन नहीं माना | वास्तव में आपके द्वारा उठाये गए कई प्रकरण विचारनीय हैं |बहुत सुन्दर प्रस्तुति | बहुत सुन्दर लेख |

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