शुक्रवार, 26 मार्च 2021

पिंक बनाम अनारकली आरावाली

वर्ष २०१६ तथा वर्ष २०१७ भारतीय सिनेमा में अत्यंत विलम्ब से आरम्भ हुए नारी-मुक्ति आंदोलन के लिए अति महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं क्योंकि इन दोनों ही वर्षों में एक-एक ऐसी असाधारण हिंदी फ़िल्म प्रदर्शित हुई जिसे नारी-मुक्ति की लम्बी राह में मील का पत्थर कहा जा सकता है । भारतीय सिनेमा की असाधारण उपलब्धि के रूप में आए ये दो मील के पत्थर हैं – ‘पिंक’ (२०१६) तथा ‘अनारकली ऑव आरा’ (२०१७)  


मैंने दोनों ही फ़िल्में देखीं और देखने के उपरांत मैं उनकी तुलना किए बिना नहीं रह सका । गुणवत्ता की दृष्टि से दोनों ही फ़िल्में उच्च-स्तरीय हैं और भारतीय समाज की नारी को केवल एक उपभोग्य देह मानने वाली पुरुष-प्रधान सोच पर कड़ा प्रहार करती हैं । एक मनुष्य केे रूप में नारी के सम्मान और उसकी देह पर केवल उसी के अधिकार के विचार को स्वर देने वाली इन अति-सराहनीय फ़िल्मों में कुछ सूक्ष्म भिन्नताएं हैं जिन पर मैं आगे प्रकाश डालूंगा 

सामंतवादी युग से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच जिसमें स्त्री को पुरुष की सम्पत्ति माना जाता था (विशेषतः विवाहिता की गणना अपने पति की सम्पत्तियों में की जाती थी) और उससे अपने जीवन-संबंधी कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के स्थान पर सदा पुरुष के अधीन रहने तथा उसके आदेशों एवं वांछाओं के अनुरूप ही चलने की अपेक्षा की जाती थी (ये बातें बालिकाओं को संस्कार रूपी घुट्टी में इस प्रकार पिलाई जाती थीं कि वे आजीवन उससे पृथक् कुछ सोच ही न सकें) के कारण नारी-मुक्ति आंदोलन भारत में अति-विलम्ब से आरम्भ हुआ तथा उसने एक तर्कसंगत तथा व्यावहारिक रूप लेने में और भी अधिक समय लिया । कथा-साहित्य की भांति फ़िल्में भी समाज की तत्कालीन सोच का ही प्रतिबिम्ब होती हैं क्योंकि धारा के विपरीत जाने का साहस करने का अर्थ होता है व्यावसायिक हानि के साथ-साथ मुखर (एवं हिंसक भी) विरोध का लक्ष्य बनने का जोखिम लेना  स्वभावतः फ़िल्में भी इसी पारम्परिक विचारधारा को बल देने एवं आगे ले जाने में लगी रहीं  लेकिन कभी-कभी अपवाद भी दर्शक-वर्ग के समक्ष आए 


वी. शांताराम द्वारा निर्मित-दिग्दर्शित 'दुनिया ना माने' (१९३७) इस दिशा में पहला प्रयास था जिसमें केंद्रीय भूमिका शांता आप्टे ने निभाई थी  नूतन को शीर्षक भूमिका में प्रस्तुत करती 'सीमा' (१९५५) जिसकेे दिग्दर्शक अमिय चक्रवर्ती थे, भी कुछ भिन्न रूप में इसी दिशा में अगला चरण था  आगे के समय में भी नारी-प्रधान फ़िल्में तो बनती रहीं लेकिन वे समाज की पितृसत्तात्मक सोच की पुष्टि ही करती थीं, उसका खंडन नहीं  शिवेंद्र सिन्हा की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फ़िल्म 'फिर भी' (१९७१) को यदि छोड़ दिया जाए (क्योंकि वह मुख्यधारा की फ़िल्म नहीं थी) तो नारी द्वारा अपनी देह को महत्व दिया जाने और उस पर अपना अधिकार समझने का विमर्श करने वाली फ़िल्में नहीं ही बनीं क्योंकि यह विषय ही वर्जित समझा जाता था । राखी अभिनीत 'हमकदम' (१९८०) नारी के घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर पुरुष-प्रधान समाज में आत्मविश्वास के साथ काम करने के महत्व को रेखांकित करते हुए इस संदर्भ में पुरुष की पक्षपाती तथा गर्हित सोच का तो विरोध करती थी लेकिन नारी के अपने परिवार से इतर केवल अपने बारे में सोचने की बात से परहेज़ ही करती थी (क्योंकि वह स्थापित पारम्परिक पारिवारिक संरचना की परिधि में रहने वाले राजश्री बैनर की फ़िल्म थी) । नारी-मुक्ति को वास्तविक स्वर दिया विनोद पांडे की फ़िल्म 'एक बार फिर' (१९८०) ने जिसमें प्रमुख भूमिका दीप्ति नवल ने निभाई थी । यह सिनेमा के परदे पर वैवाहिक संस्था में घुट-घुटकर जीने वाली भारतीय नारी का पहला विद्रोह था । भारतीय विवाहिताओं ने पति के विवाहेतर संबंधों को स्पष्टतः नकारने और ऐसे पति को छोड़ देने का ग़ैर-पारम्परिक कार्य विनोद पांडे की 'ये नज़दीकियां' (१९८२) तथा महेश भट्ट की 'अर्थ' (१९८२) में किया (इन दोनों ही फ़िल्मों में पत्नी की भूमिका में शबाना आज़मी थीं) लेकिन स्वयं विवाह से इतर संबंध बनाने के अपने अधिकार को स्वर अरुणा राजे की 'रिहाई' (१९८८) में दिया जिसमें पुरुषों द्वारा इस बाबत दोहरे मानदंड अपनाए जाने पर करारा प्रहार किया गया था । यह साहसी भूमिका हेमा मालिनी ने निभाई थी । इसी विषय पर महेश मांजरेकर की तब्बू अभिनीत फ़िल्म 'अस्तित्व' (२०००) में भी सार्थक चर्चा की गई थी 


लेकिन विवाह के बिना ही देह-संबंध बनाने के नारी के अधिकार और स्वतंत्र जीवन जीने वाली कामकाजी महिला को दुर्बल चरित्र की (चालू) मानकर उस पर घात लगाने की पुरुषों की दूषित मानसिकता की सही ढंग से चर्चा अब जाकर आरम्भ हुई है जब लिव-इन रिलेशन जैसी बात भारतीय शहरों में आम होने लगी है (भारतीय गाँवों में तो नाता-प्रथा के नाम से यह न जाने कब से प्रचलन में है) । अपने चरित्र से आँखें मूंदे रहकर कुछ भी अनैतिक और ग़ैरकानूनी करने को अपना अधिकार मानने वाले धनाढ्य और शक्तिसंपन्न वर्ग के पुरुषों द्वारा नारी के चरित्र पर नुक़्ताचीनी करने और उसके आचरण के आधार पर उसे अपने लिए 'उपलब्ध' मानने की मानसिकता जो नारियों के साथ अब आम होते जा रहे दुर्व्यवहार, छेड़छाड़ तथा दुराचार की जननी है, पर प्रहार करने वाली दो फ़िल्में इक्कीसवीं सदी का डेढ़ दशक बीत जाने के उपरांत आई हैं यानी 'पिंक' एवं 'अनारकली ऑव आरा' जो दो भिन्न-भिन्न परिवेशों में लेकिन एक ही ज्वलंत मुद्दे पर निर्भीक तथा सार्थक विमर्श करते हुए उत्पीड़ित नारियों को भी और पाखंडी भारतीय समाज को भी सही राह दिखाती हैं 


शूजीत सरकार द्वारा लिखित एवं अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा दिग्दर्शित 'पिंक' (२०१६) दिल्ली महानगर में रहने वाली भारत के तीन पृथक्-पृथक् भागों से आईं तीन कामकाजी युवतियों के उत्पीड़न की मार्मिक कथा कहती है जिन्हें केवल स्वतंत्र (और स्वच्छंद) जीवन जीने के कारण धनी परिवारों के लेकिन शोहदे युवक 'चालू' समझकर न केवल उनका शारीरिक शोषण करने का प्रयास करते हैं वरन उनके विरोध (जिसमें अपनी देह-रक्षा हेतु काँच की बोतल से एक युवक के सर पर किया गया प्रहार सम्मिलित था) एवं पुलिस में शिकायत करने को अपने अहं पर चोट के रूप में लेते हुए उनका और भी अधिक उत्पीड़न स्वयं करते हैं तथा शक्तिशाली लोगों की दास बनी व्यवस्था से भी करवाते हैं । जब इन निर्दोष युवतियों को अपना वर्तमान तथा भविष्य पूर्णतः अंधकारमय लगने लगते हैं तो एक सहृदय वकील उनकी सहायता के लिए आगे आता है और उनका मुक़द्दमा लड़कर उन्हें इस सांसत से बाहर निकालता है और दोषी युवकों को दंडित करवाता है । इस प्रक्रिया में मुख्य बात इस वकील (अमिताभ बच्चन) का इस तथ्य को स्थापित करना है कि अपनी देह के संदर्भ में प्रत्येक स्त्री को किसी भी पुरुष को 'ना' कहने का सम्पूर्ण अधिकार है जिसका सम्मान उसके निकट जाने वाले प्रत्येक पुरुष को करना ही चाहिए । स्त्री की 'ना' का अर्थ 'ना' ही होता है, न कि अपनी सुविधा के अनुरूप निकाला गया कोई मनमाना अर्थ । स्त्री का निजी जीवन चाहे जैसा हो, उसका चरित्र चाहे जैसा हो तथा उसका व्यवसाय चाहे जो भी हो, उसकी स्वीकृति के बिना उसे स्पर्श करने का अधिकार किसी को भी नहीं है  प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थिति में अपनी देह की स्वामिनी वह स्वयं ही है, कोई और नहीं  

 

अविनाश दास कृत 'अनारकली ऑव आरा' (२०१७) जिसे किसी-किसी पोस्टर में हिंदी अनुवाद करते हुए 'अनारकली आरावाली' भी लिखा गया है, बिहार के एक छोटे शहर 'आरा' में लोकगीत गाकर और उन पर नृत्य करके अपना पेट पालने वाली एक कम पढ़ी-लिखी लेकिन स्वाभिमानी युवती की कथा कहती है जिसे नीची निगाहों से इसलिए देखा जाता है क्योंकि वह द्विअर्थी लोकगीत गाकर लोगों का मनोरंजन करती है लेकिन उसकी अपनी निगाह में इसमें कोई बुराई नहीं क्योंकि यह उसका व्यवसाय है जिसे वह ईमानदारी से करती है और बिना किसी का अहसान लिए अपनी मेहनत की कमाई से जीवन-यापन करती है । यह स्वाभिमानी युवती अपनी देह पर अपने अधिकार के प्रति सजग है और जब राज्य के मुख्यमंत्री के साथ अपनी निकटता से उपजी अपनी कथित शक्ति से भरमाया हुआ विश्वविद्यालय का उप-कुलपति (वीसी) नशे में उसके साथ सार्वजनिक रूप से दुर्व्यवहार करता है तो वह न केवल सबके सामने उसे तमाचा मारती है बल्कि उसके विरुद्ध पुलिस में भी शिकायत करने पहुँच जाती है  ताक़तवर वीसी साहब की ग़ुलाम बनी पुलिस उसी को देह-व्यापार के झूठे आरोप में फँसा देती है । जैसे-तैसे छूटकर वह दिल्ली जा पहुँचती है तो भी मुसीबतें उसका पीछा नहीं छोड़तीं । लेकिन उसका स्वाभिमान दुश्वारियों के आगे न झुकता है, न टूटता है  आख़िर वह आरा लौटती है और अपने बुद्धिबल से अपनी सियासी ताक़त के मद में चूर वीसी साहब को करारा सबक सिखाती है । वह उन्हें कभी न भूलने वाला यह पाठ पढ़ाती है - 'औरत चाहे रंडी हो, रंडी से कम हो या फिर तुम्हारी बीबी हो;  हाथ पूछकर लगाना 


यह भारत देश की विडंबना है कि यहाँ व्यवस्था सदा निर्दोष को ही प्रताड़ित करती है तथा शक्तिशाली दोषियों की चेरी बनी रहती है । इसलिए किसी भी सामान्य पीड़ित के लिए सामर्थ्यवान अन्यायी के विरुद्ध लड़कर न्याय पाना गूलर के फूल के समान अलभ्य ही रहता है । व्यवस्था व्यक्ति से कहीं अधिक अन्यायी तथा क्रूर होती है जिसके चंगुल में फँस जाने के उपरांत न्याय पाना तो दूर, एक सामान्य जीवन जीना भी असम्भव-सा हो जाता है  यह कटु सत्य इन दोनों ही फ़िल्मों में यथार्थपरक ढंग से दिखाया गया है  लेकिन 'पिंक' की कामकाजी युवतियां सुशिक्षित होकर भी न तो भले-बुरे युवकों में अंतर करने का विवेक रखती हैं और अपने स्वच्छंद जीवन का आनंद लेते हुए लापरवाह बनी रहती हैं (अपनी ऐसी लापरवाही से ही वे अनचाहे संकट में पड़ती हैं), और न ही उनमें संकट में पड़ जाने के उपरांत अपने आपको संभालने तथा विषम परिस्थिति से स्वयं को उबारने का कोई यत्न करने की बुद्धि दिखाई देती है । आत्मविश्वास से कोरी ये युवतियां संकट आते ही टूटकर बिखर जाती हैं और अपनी समस्या के हल की कोई जुगत करने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं । वे इसलिए अपनी दुश्वारी से बाहर आ पाती हैं क्योंकि एक सत्य का साथ देने वाला प्रभावशाली वकील उनका मुक़द्दमा सफलतापूर्वक लड़ता है और न्यायाधीश भी सत्य का ही पक्ष लेकर सही निर्णय देता है (अन्यथा यह सर्वज्ञात है कि बिकाऊ लोगों से न्यायपालिका भी अछूती नहीं है) । इसके विपरीत आरावाली अनारकली अल्पशिक्षित होकर भी  किसी भी सूरत में किसी अन्य पर निर्भर नहीं है एवं अपने मनोबल को सदा सशक्त बनाए रखती है  वह अपनी माता की त्रासद हत्या की दुखद स्मृति को मन में रखते हुए भी जीवन-यापन हेतु उसी का व्यवसाय अपनाती है और निर्विकार भाव से परिश्रमपूर्वक अपना काम करती है । वह बहुत स्वाभिमानी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण रहती हुई अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीती है  वह आत्मनिर्भर तो है ही, उसमें आत्मबल भी भरपूर है  मुसीबत के टूटने से पहले भी और उसके बाद भी उसका सर कभी झुकता नहीं  वह हर हाल में सर उठाकर जीती है और अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ती है (हालांकि हमदर्द उसे भी मिलते हैं पर उसका संघर्ष दूसरों के भरोसे पर नहीं है, अपने दम पर है। जहाँ 'पिंक' की युवतियां फ़िल्म के अंत में भी  (न्यायालय से बरी हो जाने पर) उत्साहविहीन दिखाई देती हैं, वहीं आरा की अनारकली (स्वरा भास्कर) वीसी साहब को सबक सिखाने के बाद जिस गर्वोन्न्त भाव से मस्ती भरी चाल चलती हुई अपने घर की ओर प्रस्थान करती है, वह दृश्य अविस्मरणीय है  

 

मैं नारी-मुक्ति का वास्तविक और व्यावहारिक जयघोष करने वाली इन दोनों ही फ़िल्मों को देखने की अपील क्वालिटी सिनेमा के सभी शैदाइयों से करता हूँ चाहे वे स्त्रियां हों या पुरुष । बस मुझे यह लगता है कि 'पिंक' की कमियों पर और 'अनारकली ऑव आरा' की ख़ूबियों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया । मेरी नज़र में 'पिंक' कुछ ओवर‌‌‌‌‌‌‌-रेटेड है जबकि 'अनारकली ऑव आराकुछ अंडर‌‌‌‌‌‌‌-रेटेड है 

 

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गुरुवार, 25 मार्च 2021

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे

सन २०१३ में प्रदर्शित 'काय पो छे' फ़िल्म देखने के उपरांत मैं सुशांत सिंह राजपूत का प्रशंसक बन गया था । तीन मित्रों की कथा पर बनी उस फ़िल्म में सबसे अधिक प्रभावशाली भूमिका भी उन्हें ही मिली थी । फ़िल्म के अंत में तो वे दर्शकों के मन को तल तक छू गए थे । २०१५ में 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी' देखने के बाद मेरा यह यकीन पुख़्ता हो गया कि वे बेजोड़ कलाकार थे । इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में बड़े परदे पर अपने करियर का आग़ाज़ करने वाले अदाकारों में उनकी पहचान एकदम जुदा थी - जवां दिलों पर राज करने वाली (छोटे परदे पर तो वे अपनी पहचान पहले ही बना चुके थे) । आने वाले सालों में उन्होंने और भी तरक़्क़ी की, तारीफ़ें पाईं, अपनी मक़बूलियत में इज़ाफ़ा किया । शोबिज़ की दुनिया में कामयाबी को अपने कदम चूमने पर मजबूर करने वाले सुशांत के चाहने वालों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थी कि ... कि अचानक वे मौत को गले लगा बैठे । क्यों

आख़िर क्यों केवल चौंतीस साल की उम्र में वे ज़िन्दगी से बेज़ार हो उठे ? ऐसा क्या हो गया ? यह सवाल केवल सुशांत के लिए ही नहीं, हर उस शख़्स के लिए पूछा जा सकता है जिसने ज़ाहिरा तौर पर कामयाब और ख़ुशी से लबरेज़ नज़र आने के बावजूद आख़िरकार मौत की गोद में ही सुकून महसूस किया । पूरी तरह सही जवाब किसी के लिए नहीं मिल सकता - न महान फ़िल्मकार गुरु दत्त के लिए, न नौजवानी से भरपूर जिया ख़ान के लिए, न किसी और ऐसे युवक या युवती के लिए । गुज़िश्ता कुछ वक़्त में ख़ुदकुशी करने वाले सलेब्रिटीज़ की मानो कतार-सी लग गई है । पर जिस किसी ने भी अपनी जान दी, उसने ऐसा क्यों किया, यह तो सही-सही वही जानता था (या जानती थी) । दूसरे लोग तो सिर्फ़ अंदाज़े ही लगा सकते हैं । हक़ीक़त पर से मुक़म्मल तौर पर परदा उठाना शायद किसी के बस की बात नहीं ।

अचानक ख़ुदकुशी कर लेने वालों के अलावा अपनी मरज़ी से मरने का हक़ भी लोगों द्वारा (कानून से) मांगा गया है जिसे इच्छा-मृत्यु (यूथेनेसिया) का अधिकार भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त मृत्युदान अथवा मर्सी किलिंग की बात भी समय-समय पर उठाई गई है जिसमें यह तर्क दिया जाता है कि यदि संबंधित व्यक्ति सम्मान के साथ जी न सके तो उसे अपने जीवन का अंत स्वयं कर लेने दिया जाए अथवा चिकित्सक उसके लिए यह कार्य कर दें । इस विषय पर बॉलीवुड में दो फ़िल्में बनीं हैं (मैने दोनों ही की समीक्षा की है) : १. शायद (१९७९), २. गुज़ारिश (२०१०)   'शायद' में मृत्युदान के विषय पर एक चिकित्सक के दृष्टिकोण से विमर्श किया गया था जबकि 'गुज़ारिश' में संबंधित व्यक्ति के देश के विधि-विधान से इच्छा-मृत्यु का अधिकार मांगने की कथा थी । मरने की ख़्वाहिश कोई अच्छी बात तो नहीं जिसे काबिल-ए-एहतराम समझा जाए लेकिन अगर किसी इंसान की ज़िन्दगी उसके लिए मौत से भी बदतर हो जाए, तब ? ज़िंदगी तो वही है जो जीने लायक़ हो । इंसान इज़्ज़त और ग़ैरत के साथ जी न सके तो उसे मौत में पनाह कैसे न नज़र आए


किसी इंसान को मार डालना ग़लत है तो किसी को ज़बरदस्ती जीने पर मजबूर करना भी ग़लत ही है  (अरुणा शानबाग का जीवन एक ऐसा ही उदाहरण रहा है जिन्हें उनकी देखभाल करने वालों के दबाव में बयालीस लंबे वर्षों तक ऐसी अवस्था में रखा गया जो केवल तकनीकी रूप से ही जीवित अवस्था कही जा सकती है, व्यावहारिक दृष्टि से एक मृतक के समान ही होती है)। लेकिन फिर इस बात को भी निगाह में रखना चाहिए कि ऐसा हर मामला अपने आप में अलग (यूनिक़) होता है । इंसानों के दुख-दर्द से जुड़े मामलों को चावल के दानों की तरह एक जैसा मानकर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि ज़िंदगी सभी को अलग-अलग ट्रीटमेंट देती है । अपना ग़म सभी को सबसे बड़ा लगता है जबकि दूसरों के ग़म हलके लगते हैं पर यह सच्चाई तो नहीं । ग़मों से न हारने वाले और उनसे जूझने का जज़्बा अपने अंदर रखने वाले का फ़लसफ़ा तो यह होता है - दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है । एक सच यह भी है कि मरने की बात करना जितना आसान है, उतना वास्तव में मर जाना नहीं । ज़्यादातर इंसान मौत से डरते हैं । ऐसे में मरने वाला / वाली किस असाधारण मानसिक अवस्था से गुज़र रहा था /  रही थी, इसे बूझने के लिए भी एक संवेदनशील हृदय चाहिए ।

और ऐसा संवेदनशील हृदय निश्चय ही उनके पास नहीं होता जो किसी की मौत को एक तमाशा बना देते हैं और बलि का ऐसा बकरा ढूंढ़ते हैं जिसके मत्थे उस मौत की ज़िम्मेदारी का मटका फोड़ा जा सके । विगत कुछ वर्षों से 'मीडिया ट्रायल' नामक एक शब्द-युग्म बहुप्रचलित हो गया है जिसका अभिप्राय है किसी आरोपी (अथवा संभावित आरोपी) के कथित अपराध का निर्णय न्यायालय में होने की प्रतीक्षा किए बिना संचार-माध्यमों विशेषतः टी.वी. चैनलों द्वारा अपने स्तर पर आधे-अधूरे तथ्यों एवं असंबद्ध लोगों द्वारा किए गए सतही विमर्श के आधार पर कर दिया जाना । ऐसे मीडिया-ट्रायल का परिणाम यह होता है कि आरोपी चाहे निर्दोष ही क्यों न हो (तथा कालांतर में न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया जाए), जनसाधारण में उसकी छवि मलिन हो जाती है जिसके दुष्परिणाम उसे जीवन-भर भोगने पड़ते हैं । मीडिया-ट्रायल करने वाले अपने तुच्छ व्यावसायिक-स्वार्थ के निमित्त किसी मासूम का करियर एवं पारिवारिक जीवन नष्ट कर देते हैं और उनके इस दुष्कृत्य पर उंगली तक नहीं उठती ।

अब सुशांत के मामले में भी वैसा ही एक तमाशा शुरु हो गया है (जो दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है) जैसा कि निर्भया कांड के मामले में हुआ था । जिस तरह से निर्भया के मामले में उसके माता-पिता की भूमिका ऐसी लगती थी कि वे अपनी पुत्री की त्रासदी से दुखी कम और मीडिया पर सलेब्रिटी जैसी हैसियत पाकर प्रफुल्लित अधिक थे, वैसा ही सुशांत के परिजनों के मामले में भी लग रहा है । एक प्रतिभाशाली युवा संसार से चला गया, एक बिन मां का बेटा और परिवार का इकलौता पुत्र सबको छोड़कर चला गया, एक संभावनाओं से भरपूर कलाकार असमय ही दुनिया को अलविदा कह बैठा; यह गहन दुख की बात है, मीडिया पर तमाशा करने की नहीं । जिस रिया चक्रवर्ती के पीछे सुशांत के घरवाले (और राजनीतिक सत्ता से जुड़े अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत सरकारी अभिकरण) हाथ धोकर पड़े हुए हैं; क्या वह किसी की बेटी नहीं, किसी की बहन नहीं, भारतभूमि पर जन्मी एक प्रतिभाशाली युवा कन्या नहीं ? क्या उसके कोई मानवीय अधिकार नहीं, क्या उसे बिना न्यायिक प्रक्रिया के केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर खलनायिका बना दिया जाना संवेदनहीनता की अति नहीं ? जब अधिकांश लोग सुशांत की मृत्यु से लगी आग पर केवल अपनी-अपनी रोटियां सेकने की जुगत में लगे हों तो इन गंभीर प्रश्नों की सुध कौन ले

सुशांत की असाधारण लोकप्रियता के कारण उनका मामला हाई-प्रोफ़ाइल बन गया है अन्यथा विगत एक वर्ष में आत्मघात करने वाले कलाकारों की संख्या कम-से-कम दो अंकों में जाती है । लेकिन उनमें से किसी के दुखद आत्मघात पर कोई चर्चा नहीं हो रही है क्योंकि ऐसी चर्चा से किसी का स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है । चार वर्ष पूर्व (नौ अगस्त सन दो हज़ार सोलह को) अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी लेकिन एक मुख्यमंत्री स्तर के व्यक्ति द्वारा किए गए इस दुखद कृत्य की जाँच तो छोड़िए, ठीक से चर्चा तक नहीं हुई । उनके आत्महत्या-पत्र (सुइसाइड नोट) को सार्वजनिक तक नहीं किया गया जबकि यह कहा जाता है कि उन्होंने व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से दुखित होकर ऐसा कदम उठाया था एवं अपने आत्महत्या-पत्र में बहुत-से चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन किए थे । उनके आत्मघात को बड़ी सहूलियत से भुला दिया गया । यह केवल मीडिया, राजनीतिक दलों तथा संबंधित लोगों की ग़ैर-ज़िम्मेदारी का ही नमूना नहीं बल्कि हम भारतीयों की विवेकशून्यता एवं पाखंड का भी ज्वलंत उदाहरण है ।

आत्मघाती प्रवृत्ति अवसाद (डिप्रैशन) का ही उत्पाद है । छोटे-मोटे एवं अस्थायी अवसाद से तो अधिकतर लोगों का अपने जीवन में कभी-न-कभी साक्षात् हो ही जाता है किन्तु जब अवसाद का घनत्व एवं अवधि दोनों ही बढ़ने लगें तो वह निस्संदेह चिंता का विषय होता है । अवसादग्रस्त पुरुष / महिला यदि दृढ़ व्यक्तित्व का / की है तो वह अपना उपचार स्वयं ही कर सकता है / सकती है । गम्भीर अवस्था होती है अवसाद का ब्रेकिंग प्वॉइंट पर पहुँच जाना जिसके उपरांत संबंधित व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है । मैं स्वयं जीवन में कई बार गंभीर अवसाद से गुज़र चुका हूँ । प्रत्येक बार मैंने अपने आपको स्वयं ही संभाला तथा जीवन को नये सिरे से आरंभ किया । इसी विषय पर मैंने कई वर्ष पूर्व एक लेख लिखा था ‌- कहीं आप ब्रेकिंग प्वॉइंट के निकट तो नहीं जिसमें  मैंने समस्या तथा उसके समाधान, दोनों ही पर अपने विचार अभिव्यक्त्त किए थे । 

पेशे से चार्टर्ड लेखाकार होने के बावजूद मैंने जब सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी की थी तो अपने मुख्य विषयों के रूप में मनोविज्ञान एवं समाजशास्त्र को चुना था । आज आत्मघात के बारे में बात करते समय मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि अवसाद के ऐसी उन्नत अवस्था तक पहुँच जाने एवं व्यक्ति के पूरी तरह बिखर जाने को समझने के लिए मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र, दोनों ही को जानना आवश्यक है । टूटन और घुटन की मानसिक अवस्था व्यक्ति की निजी होती है जिसके मूल में यह तथ्य महत्वपूर्ण होता है कि उसके व्यक्तित्व का गठन किस प्रकार हुआ है तथा वह कितने दबाव सह सकता है लेकिन इस गठन के पीछे जो उसके बालपन एवं लड़कपन में हुए लालन-पालन एवं समाजीकरण की प्रक्रिया होती है, उसमें तो परिवार एवं समाज की ही भूमिका अहम रही होती है । स्वामी विवेकानंद अपने देशवासियों के लिए चाहते थे कि उनके स्नायु फ़ौलाद के हों अर्थात् वे मानसिक रूप से बहुत मज़बूत हों । लेकिन ऐसे नागरिकों के निर्माण के लिए आवश्यक है कि परिवार तथा समाज भी अपनी वांछित भूमिका सही ढंग से निभाएं ।

अवसाद का प्रमुख कारण होता है अपने भीतर एकाकीपन की अनुभूति - एक उदासी भरा अकेलेपन का अहसास कि मेरा कोई नहीं है । स्वर्गीय किशोर कुमार जी का अमर गीत इस स्थिति पर पूरी तरह से लागू होता है - कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों, पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना' । यहाँ पास नहीं तो दूर ही होता' लफ़्ज़ बहुत गहरे मायने रखते हैंं । केवल किसी के साथ रहने या लोगों के इर्द-गिर्द मौजूद रहने से ही अकेलापन दूर हो जाए, यह ज़रूरी नहींं । अगर कोई समझने वाला न हो तो इंसान भीड़ में भी अकेला ही होता है । और ऐसा कोई जो आपको समझ ले, केवल क़िस्मत से मिलता है । भाग्यशाली है वो जिसे समझने वाला कोई हो, फिर (जैसा कि गीत में कहा गया है) चाहे वह भौतिक रूप से दूर ही क्यों न हो ।

लेकिन जब इंसान की ज़िंदगी में ऐसा कोई अपना, ऐसा कोई समझने वाला (या वाली) न हो और हालात (जो कभी-कभी बयान भी नहीं किए जा सकते) उसे बुरी तरह से तोड़ रहे हों तो वह क्या करे ? वही करे जो मैंने कई बार किया है (और अब भी करता हूँ) - ख़ुद ही ख़ुद को संभाले । एक ग़ज़ल की पंक्तियां हैं - दर्द पैग़ाम लिए चलता है, जैसे कोई चिराग़ जलता है, कौन किसको यहाँ संभालेगा, आदमी ख़ुद-ब-ख़ुद संभलता है । इसलिए जैसे भी होइंसान ख़ुद को संभाले । आत्मघात कोई समाधान नहीं । किसी के मरने से दुनिया को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला । मैं तो ख़ुदकुशी की चाह रखने वाले हर परेशान-हाल शख़्स को कुँअर बेचैन जी के ये अशआर सुनाना चाहता हूँ : 

माना कि मुश्किलों का तेरी हल नहीं कुँअर

फिर भी तू ग़म की आग में यूँ जल नहीं कुँअर

कोई-न-कोई रोज़ ही करता है ख़ुदकुशी

क्या बात है कि झील में हलचल नहीं कुँअर

अवसादग्रस्त व्यक्ति अगर कहे कि जीने की चाहत नहीं तो मैं उत्तर में यही कहूंगा कि मर के भी राहत नहीं । इंसान अपने ग़म से ज़्यादा उन लोगों के ग़म की परवाह करता है जिनसे उसे प्यार है, लगाव है (चाहे उन्हें न हो) । आज के भ्रष्ट भारत की सच्चाई यही है कि आत्महत्या करने वाला जिन्हें अपने पीछे छोड़ जाता है, उन्हें कई बार जीते-जी मरना पड़ता है (अगर वे ऊंची पहुँच वाले या अति-सामर्थ्यवान न हों) । उनकी ज़िन्दगी को मौत से भी बदतर बना देने में न तो सरकारी अमलदारी कोई कसर उठा रखती है, न ही मीडिया (चाहे आत्महत्या करने वाला अपने सुइसाइड नोट में यह लिखकर ही क्यों न जाए कि उसकी मृत्यु के लिए कोई अन्य उत्तरदायी नहीं) । आदमख़ोर मीडिया को तो रोज़ लाशें चाहिए - मुरदों की नहीं, ज़िन्दों की । और न्याय की बात करना ही व्यर्थ है ।  किसी अपवादस्वरूप उदाहरण को छोड़ दिया जाए तो स्वतंत्र भारत में दशकों से यही सिद्ध हो रहा है कि यहाँ  न्याय समर्थों की दासी है । ऐसे में डिप्रैशन का (या की) शिकार और उसका चहेता (या चहेती) अगर आम लोग हैं तो अपने बाद जीने पर मजबूर लोगों के हक़ में बेहतर है कि ऐसा इंसान मरने की जगह जिये और अपने डिप्रैशन से लड़े । वरना मरने के बाद भी चैन या राहत मिलने की कोई उम्मीद नहीं है । काश सुशांत मरते वक़्त यह सोच पाते कि उनके जाने के बाद रिया और उनके परिजनों पर मीडिया और सरकारी महकमात के हाथों क्या बीतेगी !

अपनी बात मैं अज़ीम शायर ज़ौक़ साहब के इस शेर के साथ ख़त्म करता हूँ :

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे ?

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बुधवार, 24 मार्च 2021

फ़िल्म-निर्माण में सशक्त पटकथा एवम् कुशल निर्देशन का महत्व

मुझे साहित्य एवम् संगीत के अतिरिक्त सबसे अधिक रुचि यदि किसी वस्तु में है तो वह है भारतीय (या यूँ कहिए कि हिंदी) फ़िल्में । स्वांग, तमाशे और नौटंकी के दौर के अवसान के साथ-साथ लोकभाषा में बाइस्कोप के नाम से पदार्प करने वाली चलती-फिरती तस्वीरें यानी फ़िल्में ही भारतीय जनमानस के लिए मनोरंजन का सबसे सस्ता और कालांतर में सबसे लोकप्रिय साधन सिद्ध हुईं । मनोरंजन की दुनिया में इस माध्यम की यह हैसियत आज भी कायम है । पहले फ़िल्में मूक होती थीं । जब उनमें कलाकारों की वाणी तथा अन्य ध्वनियों का समावेश सम्भव हुआ तो इन्हें बोलती तस्वीरें अथवा टॉकी कहा गया तथा फ़िल्मों का निर्माण करने वाली कई संस्थाएं अपने नाम में टॉकीज़ शब्द लगाने लगीं । फ़िल्मों का प्रदर्शन करने वाले सिनेमाघरों में भी अपने नाम में टॉकीज़ शब्द को जोड़ने का चलन आरम्भ हो गया (अनेक सिनेमाघर तो आज भी अपने आपको टॉकीज़ ही कहते हैं) । बहरहाल टॉकी का ज़माना एक बार आया तो हमेशा के लिए आ गया और मनोरंजन की दुनिया में छा गया   

फ़िल्म-निर्माण की तकनीक और दर्शन-श्रवण सम्बन्धी गुणवत्ता निरंतर अद्यतन होती रही । श्वेत-श्याम फ़िल्मों का युग लम्बा चला लेकिन अंततः रंगीन फ़िल्मों का युग आना ही था, सो आया । संगीत, नृत्य तथा एक्शन संबंधी पक्षों में तो समय के साथ-साथ परिष्करण होता ही रहा लेकिन जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया, वह आया फ़िल्मों के पटकथा-लेखन एवम् प्रस्तुतीकरण में । जैसे-जैसे भारतीय फ़िल्मों में नाटकीयता का स्थान स्वाभाविकता लेती गईं, वैसे-वैसे लगा कि हमारी फ़िल्में अब वयस्क हो रही हैं । 

मैंने अपने विस्तृत लेख – सिनेमा - मनोरंजन का साधन, एक बहुत बड़ा उद्योगमें फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया का आद्योपांत वर्णन किया है । इसमें मैंने कहा है कि फ़िल्म की कहानी एक पंक्ति का विचार भी हो सकता है और कोई पुस्तक (उपन्यास या कथा) भी लेकिन फ़िल्म बनाने के लिए विचार का विस्तार अथवा पुस्तक की सामग्री का उचित अनुकूलन (एडेप्टेशन) करना आवश्यक होता है । इसका कारण यह है कि फ़िल्म उचित क्रम में लगाए गए दृश्यों का संकलन होती है और उसकी एक उचित लम्बाई होती है । अब पहले की भांति लंबी फ़िल्में तो कम ही बनती हैं लेकिन दो घंटे लंबी फ़िल्म तो सामान्यतः अपेक्षित होती ही है और इतनी लंबी फ़िल्म बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के रोचक दृश्यों से युक्त पटकथा तो होनी ही चाहिए । इसे पटकथा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यही वह कथा है जिसे दर्शक फ़िल्म के आरम्भ से उसके समापन तक चित्रपट पर देखता है । दो-तीन दशक पूर्व तक फ़िल्म को अपेक्षित समयावधि तक खींचने के लिए पटकथा में मूल कथा के समानांतर एक हास्य का ट्रैक डाला जाता था जिसका प्रयोजन फ़िल्म को अपेक्षित लंबाई तक बढ़ाने के साथ-साथ दर्शकों को हंसाना और फ़िल्म के गंभीर प्रवाह में उन्हें कुछ राहत प्रदान करना होता था । इस तरह यह ट्रैक फ़िल्म की गंभीरता के मध्य एक ब्रेक की भांति कार्य करता था । कभी-कभी ऐसा ट्रैक और उससे जुड़े हुए विशेषज्ञ हास्य कलाकार मूल कथा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थी लेकिन प्रायः यह मूल कथा के लिए अनावश्यक ही हुआ करता था । अब ज़माना बदल चुका है और ऐसे हास्य के ट्रैक भारतीय फ़िल्मों से ग़ायब हो चुके हैं । इसलिए फ़िल्म की पटकथा का सशक्त, प्रभावी एवम् दर्शक को बांधे रखने में समर्थ होना अब और भी अधिक आवश्यक है । 

फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है । निर्देशक ही यह परिकल्पना करता है कि फ़िल्म रूपहले परदे पर किस प्रकार मूर्त रूप लेगी अर्थात् वास्तविकता में बनने से पहले फ़िल्म निर्देशक के मस्तिष्क में बनती है । निर्देशक फ़िल्म से संबंधित सभी पक्षों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष हस्तक्षेप करता है क्योंकि फ़िल्म की सफलता अथवा असफलता के उत्तरदायित्व में सबसे अधिक भागीदारी भी उसी की होती है – फ़िल्म में काम करने वाले अत्यंत लोकप्रिय सितारों से भी अधिक । साफ़ शब्दों में कहा जाए तो जय-जय भी उसी की है और हाय-हाय भी उसी की । उसका दायित्व अधिक है, इसीलिए उसके अधिकार भी अधिक हैं । फ़िल्म-निर्माण में निर्देशक का महत्व इसी तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि फ़िल्म की नामावली में उसका नाम सबसे अंत में दिया जाता है जो इस सत्य का प्रतीक है कि फ़िल्म-निर्मा की प्रक्रिया के प्रत्येक अंग में अंतिम निर्णय उसी का है (होना चाहिए) 

लेकिन कुशल से कुशल निर्देशक भी बिना एक अच्छी पटकथा के प्रभावी फ़िल्म नहीं बना सकता । फ़िल्म की विषय-वस्तु (थीम) कोई भी विधा हो सकती है यथा स्त्री-पुरुष का प्रेम, सामाजिक एवम् पारिवारिक संबंधों के उतार-चढ़ाव, कोई हास्य-कथा, कोई सामाजिक समस्या, देशप्रेम, कोई धार्मिक आख्यान, कोई ऐतिहासिक घटना, अपराध एवम् पुलिस, यात्रा, प्रतिशोध, किसी हत्या अथवा अन्य घटना का रहस्य, राजनीति आदि लेकिन एक सुस्पष्ट दृष्टि के साथ सिरजी गई सशक्त एवम् रोचक पटकथा ही विषय-वस्तु को प्रभावी ढंग से परदे पर उतार सकती है । ऐसी अनेक फ़िल्में हैं जिनकी थीम अत्यंत प्रशंसनीय होने के उपरांत भी सशक्त पटकथा के अभाव के कारण वे सतही एवम् साधारण बनकर रह गईं जबकि ऐसी भी फ़िल्में हैं जिनकी थीम बार-बार दोहराई गई एवम् जानी-पहचानी होने पर भी अपनी सशक्त तथा रोचक पटकथा के कारण दर्शक-वर्ग को (एवम् समीक्षक वर्ग को भी) प्रभावित करने में सफल रहीं । पटकथा ऐसी होनी चाहिए जो देखने वाले की रुचि को दृश्य-दर-दृश्य बनाए रखे । उसमें कसावट होनी चाहिए अर्थात् अनावश्यक दृश्यों (एवम् नृत्यों तथा गीतों) से उसे बचाए रखना चाहिए । फ़िल्म  इस कदर ढीली और बोझिल न बन जाए कि सिनेमाघर में बैठे दर्शक को बार-बार अपनी घड़ी में वक़्त देखना पड़े  जो कुछ दिखाया जाए, वह स्वाभाविक एवम् वास्तविक भले ही न हो, उसके प्रस्तुतीकरण में स्वाभाविकता का कुछ पुट अवश्य होना चाहिए ताकि दर्शक स्वयं को परदे पर चल रही कहानी तथा पात्रों से मानसिक रूप से जोड़ सके (कनेक्ट कर सके) । पटकथा के अनुरूप ही प्रभावशाली संवाद भी होने चाहिए जो कि पात्रों के अभिनय में मूल्यवर्धन (वैल्यू-एडिशन) करें तथा दर्शकों (जो कि श्रोता भी होते हैं) के मनोमस्तिष्क पर छाप छोड़ जाएं । 

पटकथा-लेखन के उपरांत निर्देशक का कार्य आरम्भ होता है जो कि न केवल कला-निर्देशक (आर्ट-डायरेक्टर) से दृश्यों की आवश्यकता के अनुरूप साज-सज्जा करवाता है बल्कि सम्पूर्ण कथानक अथवा  दृश्यों की पृष्ठभूमि की आवश्यकतानुसार बाहरी स्थलों (आउटडोर लोकेशन) का भी समुचित चयन करता है । वही फ़िल्म के छायाकार (कैमरामैन) को फ़िल्मांकन के लिए उचित कोण सुझाता है तथा उसे बताता है कि कितने लॉंग शॉट लेने हैं और कितने क्लोज़-अप । पात्र के अनुरूप ही उचित कलाकार के चयन में भी वह भूमिका निभा सकता है यदि निर्माता इस संदर्भ में उसकी बात सुने । आजकल विशेषज्ञ कास्टिंग डायरेक्टर भी होने लगे हैं जो कि विभिन्न पात्रों के स्वरूप को भलीभांति समझकर उसमें पूरी तरह ठीक बैठ सकने वाले नये-पुराने कलाकारों को ढूंढने का तथा उन्हें फ़िल्म में संबंधित भूमिका करने हेतु मनाकर लाने का कार्य करते हैं । कलाकारों से कथा एवम् दृश्यों की आवश्यकता के अनुसार स्वाभाविक अभिनय करवाना तथा उनकी प्रतिभा का सर्वोत्तम दोहन करना भी निर्देशक का ही कार्य होता है । अच्छा निर्देशक वह होता है जिसके मानस-पटल पर फ़िल्म के भावी अंतिम रूप की कल्पना (विज़न) पूर्णरूपेण स्पष्ट हो । उसे ठीक-ठीक मालूम हो कि वह क्या बना रहा है और फ़िल्म के नाम पर दर्शकों को क्या परोसने जा रहा है । ऐसा अनेक बार हो चुका है जब अच्छी-भली फ़िल्मों की गुणवत्ता उनके निर्देशकों के भ्रम के कारण ही घट गई । निर्देशक फ़िल्म-रूपी वाहन के लिए चालक की भांति होता है । यदि चालक ही गंतव्य अथवा उस तक पहुँचाने वाले मार्ग के संदर्भ में भ्रमित हो तो वाहन अपने अभीष्ट तक कैसे पहुँचे ? जब निर्देशक अपना कार्य भलीभांति करता है तो फ़िल्म के संपादक का कार्य स्वतः ही सरल हो जाता है । इसके विपरीत निर्देशक का भ्रम और फिल्मांकन की गड़बड़ियां बेचारे संपादक के लिए सरदर्द पैदा कर देती हैं क्योंकि फ़िल्माई गई सामग्री को कथानक के अनुक्रम में सही-सही बैठाकर फ़िल्म को अंतिम रूप उसी को देना होता है । 

अत्यंत सम्मानित फ़िल्मकार स्वर्गीय यश चोपड़ा जोशीला’ (१९७३) तथा परम्परा’ (१९९३) को अपने द्वारा निर्देशित बुरी फ़िल्में मानते थी लेकिन मेरी नज़र में उनके द्वारा निर्देशित सबसे ख़राब फ़िल्म उन्हीं के बैनर तले बनी विजय’ (१९८८) थी क्योंकि वे उस फ़िल्म के दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत होने वाले रूप की ठीक से कल्पना नहीं कर पाए थे (ठीक से विज़ुअलाइज़ नहीं कर सके थे) । इसीलिए फ़िल्म की कथा ऊबड़-खाबड़ ढंग से परदे पर आई और चोटी के कलाकारों के होने के बावजूद जनता को प्रभावित नहीं कर सकी । उन्हीं के जैसे निष्णात निर्देशक राज खोसला ने भी प्रेम कहानी’ (१९७५) जैसी बनावटी पात्रों वाली और अपनी कहानी के परिवेश के साथ बिल्कुल भी न्याय न करने वाली असफल फ़िल्म बनाई थी । हाल ही में मैंने कशमकश’ (१९७३) नामक एक पुरानी फ़िल्म इंटरनेट पर देखी जो हत्या के रहस्य की एक अत्यंत रोचक सस्पेंस कथा होने पर भी बुरे निर्देशन की वजह से बेअसर हो गई । 

कभी-कभी जब फ़िल्म का निर्माता कोई और हो और निर्देशक कोई और तो निर्देशक के काम में निर्माता का अनावश्यक हस्तक्षेप भी अच्छी-भली फ़िल्म का सत्यानाश कर देता है । मधुर भंडारकर जैसे कुशल निर्देशक द्वारा दिग्दर्शित आन – मेन एट वर्क’ (२००४) सम्भवतः निर्माता फ़िरोज़ नडियाडवाला के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ही एक साधारण पुलिस बनाम अपराधी फ़िल्म बनकर रह गई थी । 

कभी-कभी कोई फ़िल्मकार अच्छा लेखक होता है लेकिन अच्छा निर्देशक नहीं । स्वर्गीय ख़्वाजा अहमद अब्बास के साथ यही बात थी वे एक महान साहित्यकार थे और इसीलिए उन्होंने अपनी ही रचित कहानियों पर फ़िल्में बनाईं और उन फ़िल्मों में कथाओं की आत्मा को ज्यों-का-त्यों रखा । लेकिन वे कुशल निर्देशक नहीं थे, इसीलिए उनकी बनाई फ़िल्मों में मनोरंजन के उस तत्व का अभाव होता था जो किसी भी फ़िल्म को दर्शकों के लिए स्वीकार्य बनाता है । मैंने उनकी बनाई हुई फ़िल्म 'बंबई रात की बाहों में' (१९६८) देखी जिसके लेखक-निर्माता-निर्देशक सब अब्बास साहब ही थे । कहानी अत्यंत प्रेरणास्पद थी लेकिन फ़िल्म ऊबाऊ और प्रभावहीन बनकर रह गई  

मैं कोई फ़िल्मकार नहीं यद्यपि बरसों पहले स्वर्गीय गुलशन नंदा द्वारा लिखित उपन्यास शगुनपढ़ने के बाद यूँ ही (ख़याली पुलाव पकाते हुए) मैंने उस पर फ़िल्म बनाने की रूपरेखा बनाई थी और विभिन्न पात्रों के लिए उचित कलाकारों के नाम भी तय किए थे । अब भी मुझे लगता है कि वकील बाबू’ (१९८२) और रक्त’ (२००४) जैसी फ़िल्में अगर मैंने निर्देशित की होतीं तो वे बेहतर बनी होतीं क्योंकि मेरी नज़र में वे अच्छी कहानियों के बावजूद निर्देशन की कमियों की वजह से ही अपना असर खो बैठीं और टिकट खिड़की पर औंधे मुँह गिरीं जबकि उनके निर्देशक भी असित सेन और महेश मांजरेकर जैसे अनुभवी और सम्मानित फ़िल्मकार थे । 

बहरहाल मैं यही कहना चाहता हूँ कि फ़िल्म की थीम के साथ न्याय करने का काम पटकथा (स्क्रीनप्ले) लिखने वाले का है और उस पटकथा के साथ न्याय करने का काम निर्देशक का । जब ये दोनों काम एक ही व्यक्ति (या व्यक्तियों) द्वारा किए जाएं तो अलग बात है अन्यथा दोनों की दृष्टि (विज़न), फ़िल्म संबंधी परिकल्पना तथा सोच में समन्वय होना चाहिए । तभी फ़िल्म के रोचक एवम् प्रभावी बन पाने की सम्भावना रहेगी । यदि दोनों ही अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग बजाएंगे तो फ़िल्म चूं-चूं का मुरब्बा ही बनेगी । प्रत्येक व्यक्ति स्वर्गीय किशोर कुमार जैसी बहुमुखी प्रतिभा का धनी नहीं होता कि बहुत-से काम अकेला ही कर ले । इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण काम करने वालों में समन्वय की महती आवश्यकता होती है । और सौ बातों की एक बात यह कि लेखक तथा निर्देशक दोनों को ही दर्शक-समुदाय की नब्ज़ पहचानना आना चाहिए ताकि वे फ़िल्म देखने वालों के दिलों को छू लेने वाली बातें फ़िल्म में डाल सकें । कालजयी कृति वही होती है जो दिलों को छू जाए, देखने-सुनने वालों को भुलाए न भूले ।   

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