शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

संत-सेवा


भारतीय संस्कृति में संतों को अत्यंत उच्च स्थान दिया गया है । संतों का संगसंतों की वाणी का आस्वादन एवं संतों की सेवा सांसारिक प्राणियों हेतु  सराहनीय एवं वांछनीय कृत्य माने गए हैं । संत उन्हें कहा जाता है जो वीतरागी हैंसांसारिक जीवन से परे हैं एवं मानव-मात्र के कल्याण का चिंतन करते हैं । ईसाई धर्म में संत की उपाधि महान कार्य करने वाले लोगों को दी जाती है । मानव-मात्र की सेवा में अपना जीवन होम कर देने वाली मदर टेरेसा को भी अब संत के समकक्ष मान लिया गया है । किन्तु भारतीय परंपरा में संत से अभिप्राय है मन से पवित्र व्यक्ति चाहे उसने संसार त्यागा हो अथवा वह सांसारिक जीवन में रहते हुए भी ईश्वर एवं मानवता के प्रति तन-मन-धन से समर्पित रहता हो । संत कबीर एक ऐसे ही संत थे जो कि सांसारिक जीवन में रहकर भी संत कहलाए क्योंकि उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व पवित्र था और उनके आत्मबल ने उन्हें विभिन्न धर्मों के पाखंडों पर प्रहार करने की शक्ति और साहस प्रदान किया था । यदि प्राचीन संतों की बात करें तो न केवल वैदिक युग के हमारे ऋषि-मुनि गृहस्थ होकर भी धर्म-पालन एवं ईश्वरोपासना करने वाले संत थे वरन मिथिला-नरेश जनक को तो एक राजा होकर भी संत माना गया क्योंकि वे मन से पवित्र थे और कर्तव्य-पालन में रत रहते हुए भी सांसारिक सुख-भोगों से पूर्णतः निर्लिप्त रहते थे । स्पष्ट है कि संत होने का अभिप्राय किसी विशेष वेश-भूषा में रहनेघर-बार छोड़कर भटकनेअविवाहित रहने एवं भूखे रहकर तप करने से नहीं है वर मन से निर्लिप्त होने से हैमोह-माया से मुक्त होकर निर्विकार भाव से अपना कर्तव्य-पालन करने एवं ईश्वर का स्मरण करते हुए उसके उत्तरोत्तर निकट जाने से है । संत वह है जिसे संसार के समस्त व्यापार छूकर निकल जाते हैं किन्तु वह उनके संपर्क में आकर भी उनसे प्रभावित नहीं होताअपने पथ से विचलित नहीं होता । वह मन से संन्यासी होता हैचाहे प्रकट रूप से वह सामान्य व्यक्ति के रूप में ही रहे ।

आइए, अब समझें कि सेवा क्या है ? सेवा से आशय है किसी की देखभाल या सुश्रूषा । समष्टिगत अर्थ में सेवा से अभिप्राय किसी संगठन अथवा समाज अथवा राष्ट्र अथवा सम्पूर्ण मानवता के प्रति एकनिष्ठ समर्पण से है । किन्तु वह सेवा सेवा नहीं है जो मेवा पाने के लिए की जाए । वही सेवा सच्ची सेवा है जो कि निष्काम भाव से की जाएजिसके करने के पीछे कुछ प्रतिदान मिलने की भावना उपस्थित न हो । कुछ पाने के लिए यदि सेवा की तो वह सेवा नहींलेन-देन से युक्त व्यवसाय हुआ । सेवा वह है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चीन में महान भारतीय चिकित्सक डॉक्टर कोटणीस ने सैनिकों की कीसेवा वह है जो विश्व की महान परिचारिका फ़्लोरेंस नाइटिंगेल ने आजीवन रोगियों की कीसेवा वह है जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारतीय समाज के दीनदुखियों की बिना किसी सामाजिक भेदभाव के की । सेवा का अर्थ अत्यंत व्यापक है । सिरदर्द से पीड़ित व्यक्ति का सिर दबा देने एवं घायल व्यक्ति की मरहम-पट्टी कर देने से लेकर संसार भर की छोटी-बड़ी सुश्रूषाएँ सेवा के अंतर्गत आती हैं । किसी की अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार की गई सहायता जो कि दृष्टिगोचर भी न होभी सेवा ही कही जाएगी ।

अब प्रश्न यह है कि संत-सेवा किसे कहें ? क्या संतों के आश्रम अथवा निवास-स्थान में उनके साथ रहते हुए उनकी नियमित रूप से की गई सुश्रूषा को संत-सेवा कहा जाए ? आज के समय में तो संतों की सही-सही पहचान करना भी कोई सरल कार्य नहीं क्योंकि भारत देश या यूं कहा जाए कि सम्पूर्ण विश्व ही पाखंडियों से भरा पड़ा है । ऐसे में सेवा करने से पहले पात्र-कुपात्र का विचार कर लेना भी आवश्यक हो गया है । सच्चे संतों को तो सेवा की आवश्यकता भी नहीं होती । वे तो स्वयं ही दूसरों की सेवा करते हैंकिसी से अपनी सेवा करवाते नहीं ।

मेरा विचार यह है कि संत-सेवा से आशय है संतों का संग एवं उनसे सद्गुणों को ग्रहण किया जाना । व्यक्ति का संग ही उसके व्यक्तित्व को सात्विक या तामसिक दिशा में अग्रसर करता है । अतः सत्संग का मानव-जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है । संतों या सत्पुरुषों के संग से उनके व्यक्तित्व की सुगंध संग करने वाले मनुष्य के व्यक्तित्व को भी सुवासित कर देती है । उनके सद्गुण उस पर भी प्रभाव डालते हैं । उनसे जुड़े वातावरण एवं उनके आभामंडल से तो पशुपक्षी तक अछूते नहीं रह पाते । ऐसे में मानव की तो बात ही क्या ? उनके साथ रहते हुए यदि उनकी कुछ सेवाटहल करने का अवसर प्राप्त हो जाए तो इसे संग करने वाले का परम सौभाग्य ही कहा जाएगा । 

मेरे निकट माता-पिता एवं गुरु की सेवा करना भी संत-सेवा ही है । सौभाग्य से मुझे अपने वयोवृद्ध संगीत शिक्षक पंडित नारदानन्द शास्त्री जी के सान्निध्य में रहकर उनसे संगीत का ज्ञान प्राप्त करने एवं उसके साथ-साथ उनकी सेवाटहल करने का अवसर मिला । वे एक प्रकार के संत ही थे जिन्होंने अपना जीवन अधिकांश समय एकाकी रहकर वानप्रस्थ करते हुए संगीत-साधना में बिताया तथा बिना किसी लालच के अपना संगीत-ज्ञान नई पीढ़ी को हस्तांतरित किया । संगीत की अनमोल निधि अपने पास होते हुए भी वे निर्धन ही रहे तथा अपनी निर्धनता पर उन्हें कभी संताप नहीं हुआ क्योंकि उनका संगीत उनके लिए ईश्वर था तथा उसकी सतत  साधना ही उनके लिए ईश्वर की आराधना थी । उनके जीवित रहते जितना भी समय मुझे उनकी छोटी-मोटी सुश्रूषा का मिलावह मेरा अहोभाग्य रहा । उनके निवास-स्थान पर उनसे संगीत का ज्ञान लेने के साथ-साथ उनके घर के छोटे-छोटे काम कर देनाउनकी आवश्यकता की वस्तुएँ ला देनाउन्हें भोजन करा देना एवं अपने आदर से उन्हें यह अनुभूत कराना कि वे एकाकी नहीं हैंउनकी परवाह करने वाले भी हैंमेरे लिए एक प्रकार की संत-सेवा ही थी । और इस संत-सेवा से मुझे मिला एक ऐसा संतोष जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता । आज वे इस संसार से विदा हो चुके हैं लेकिन उनके सान्निध्य में बीता समयउनकी सेवा में बीते पल एवं उनके सत्संग की स्मृतियाँ मेरी वह संपत्ति है जिसे कोई लूट नहीं सकताकोई मुझसे छीन नहीं सकता । यह है संत-सेवा का मूल्य जिसे भौतिक मापदण्डों से आकलित नहीं किया जा सकता ।

अपने इस अनुभव के आधार पर मैं यह निस्संकोच कह सकता हूँ कि संत-सेवा से आशय है संतों के संग से अपने व्यक्तित्व को निर्मल बनाते हुए सन्मार्ग पर चलना । वस्तुतः मानवता की सेवा में ही संत-सेवा एवं ईश्वर-सेवा दोनों समाहित हैं । जो इस संत-सेवा को पूर्ण निरासक्त भाव से बिना किसी अपेक्षा के अनवरत करता रहेगाबहुत संभव है कि वह एक दिन स्वयं ही संत बन जाए । मदर टेरेसा ने निःस्वार्थ भाव से आजीवन मानव-मात्र की सेवा की । यह उनकी संत-सेवा थी जिसने एक दिन उन्हीं को संत के स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया । महात्मा गांधी जीवन-भर दीनदुखियों में ही ईश्वर के दर्शन करते रहे और उन्हीं की सेवा करते-करते स्वयं साबरमती के संत कहलाने लगे । अतः संतों को पहचानिएसंत-सेवा कीजिए तथा सत्संग से स्वयं को बिना किसी अपेक्षा के स्वाभाविक रूप से लाभान्वित होने दीजिए । आपके जीवन में आनंद उस द्वार से प्रवेश कर जाएगा जिसके खुले होने का आपको भान भी नहीं होगा ।

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गुरुवार, 26 नवंबर 2020

मर्यादा

मर्यादा से अभिप्राय है व्यवहार की स्वीकार्य सीमा । अतः मर्यादाएँ जुड़ी होती हैं सम्बन्धों सेपद अथवा प्रस्थिति सेसामाजिक व्यवहार से एवं वाणी से । भारतीय परंपरा में मर्यादा के निर्वाह की बड़ी महिमा है । हिंदुओं के आराध्य भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर सम्मानित किया गया है । उन्होंने कुल एवं सम्बन्धों की मर्यादाओं का एवं कालांतर में अपने पद एवं कर्तव्य से जुड़ी मर्यादाओं का अनुपालन किया एवं उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखाइसीलिए वे नरश्रेष्ठ कहलाएपुरुषों में उत्तम माने गए । 

अब प्रश्न यह है कि मर्यादा की इतनी महिमा क्यों ? क्या कारण है कि मर्यादा का पालन वांछनीय एवं प्रशंसनीय है जबकि इसके विपरीत मर्यादा का उल्लंघन अवांछनीय एवं त्याज्य ? इसके लिए हमें यह बात समझनी होगी कि प्रकृति ने मनुष्यों एवं प्राणियों की ही नहीं, विभिन्न निर्जीव वस्तुओं की भी मर्यादाएँ नियत की हैं । मर्यादा का संबंध है व्यवस्था से । सम्पूर्ण सृष्टि की विभिन्न व्यवस्थाओं का आधार है उन व्यवस्थाओं के विभिन्न अंगों द्वारा अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन । ज़रा सोचिए कि यदि एक नदी अपनी मर्यादा भूलकर अपने बंध तोड़ दे तो क्या होगा, यदि समुद्र अपनी मर्यादा तोड़कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर जलप्लावन करने चल पड़े तो क्या होगा, यदि पर्वत अपनी मर्यादा छोड़कर अपने स्थान से इधर-उधर खिसक जाएँ तो क्या होगा, यदि विभिन्न ग्रह अपनी-अपनी कक्षाओं की मर्यादा लांघकर अंतरिक्ष में स्वच्छंद निकल पड़ें तो क्या होगा, यदि वन के हिंस्र पशु अपनी मर्यादा से बाहर निकलकर बस्तियों में आ जाएँ तो क्या होगा, यदि ऋतुचक्र अपनी मर्यादा भूल जाए तथा नियत समय पर ऋतु-परिवर्तन होने रुक जाएँ तो क्या होगा ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही है विनाश । यदि संसार को विनाश से बचना है और उत्तरजीवी बने रहना है तो यह अपरिहार्य है कि कोई भी वस्तु चाहे छोटी हो अथवा बड़ी अपनी मर्यादा को किसी भी स्थिति में न भूले । 

सांसारिक व्यवस्थाओं के आधार हैं समाज, समुदाय एवं संस्कृति एवं इन सभी की मूल इकाई है व्यक्ति अथवा मनुष्य । चूंकि ये सभी व्यवस्थाएँ अमूर्त हैं जबकि व्यक्ति इनका मूर्त प्रतीक है जिसकी गतिविधियों एवं व्यवहार से ये व्यवस्थाएँ अपना अस्तित्व पाती है एवं उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हैं, अतः व्यक्ति के लिए उसका समाज कतिपय मर्यादाएँ नियत करता है । आज के व्यक्तिपरक एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानने वाले युग में भी सामाजिक मर्यादाओं का मूल्य कम नहीं हुआ है । व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाले । यदि वह ऐसा नहीं करता तो इसे समाज के अहित में माना जाता है तथा समाज व्यक्ति को दंडित करता है । 

जो बात व्यक्ति पर समाज की मूल इकाई के रूप में लागू है, वही बात उस पर राष्ट्र के नागरिक के रूप में भी लागू है । न केवल व्यक्ति से राष्ट्र के लिखित एवं औपचारिक कानूनों को मानने की अपेक्षा की जाती है तथा उनके उल्लंघन पर उसे कानून द्वारा उक्त अपराध हेतु निर्धारित दंड दिया जाता है, वरन् उससे राष्ट्र का एक आदर्श नागरिक बनने की अलिखित अपेक्षा भी की जाती है । यह भी उसके व्यवहार की मर्यादा का ही अंग है । राष्ट्र के नागरिक से कोई भी ऐसा कार्य जो कि राष्ट्र के अथवा आमजन के हित में न हो, चाहे वह कानूनी रूप से अपराध न भी हो; न करना अपेक्षित होता है । 

व्यक्ति के बाद समाज की अगली वृहत्तर इकाई है परिवार । भारतीय परिवेश में परिवार को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है एवं ऐसा लाखों बार हो चुका है जब परिवार के हित के लिए अथवा कुल की मर्यादा के लिए व्यक्ति ने आत्म-बलिदान दिया हो अथवा अपने निजी सुख को परिवार पर निछावर कर दिया हो । इसका कारण यह है कि कुल की मर्यादा कुल की सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रतीक मानी गई है। भारतीय सामाजिक सरंचना सदा से इस प्रकार की रही है कि यदि परिवार के किसी सदस्य ने कुल की मर्यादा का उल्लंघन किया तो उसका परिणाम परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाला रहा । पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में परिवार अथवा कुटुंब की मर्यादाओं के अनुपालन का अधिक दायित्व नारियों पर डाला गया तथा यही कारण रहा कि वे लंबे समय तक मर्यादाओं के बंधनों में छटपटाती रहीं एवं उन्हें अपनी कामनाओं, सुखों एवं महत्वाकांक्षाओं को छोड़कर मन मारकर जीना पड़ा । पुरुषों के पास सभी अधिकार रहे जबकि नारी को परिवार की धुरी बताकर बिना अधिकार के ही कर्तव्य-पालन एवं मर्यादा-पालन के समस्त दायित्व उस पर लाद दिए गए । परिणामतः पारंपरिक भारतीय समाज में नारियों को पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक बलिदान करने पड़े और आज भी करने पड़ते हैं । 

प्रश्न यह है कि मर्यादा-पालन अच्छा है या बुरा । इसे सही माना जाए या ग़लत । इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है क्योंकि बहुत-सी बातों का औचित्य अथवा अनौचित्य सापेक्ष होता है जिसका निर्णय संदर्भों के आधार पर करना पड़ता है । जैसा कि मैंने पहले कहा कि नदी, समुद्र, पर्वत, आकाशीय पिंड, पशु-पक्षी आदि सभी से अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहना अपेक्षित है ताकि सृष्टि का व्यापार अनवरत एवं सुचारु रूप से चल सके । यदि सम्बन्धों की मर्यादाओं का खयाल न रखा जाए तो सम्बन्धों का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है । यदि पद की गरिमा एवं मर्यादा का खयाल न रखा जाए तो उससे जुड़े दायित्वों को निभाना असंभव की सीमा तक कठिन हो सकता है । यदि वाणी की मर्यादा को बनाकर न रखा जाए तो अनेक अनचाही विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है । ऐसे में मर्यादा-पालन को उचित ही समझा जाना चाहिए । 

आज मनुष्य प्रकृति द्वारा नियत नियमों एवं मर्यादाओं को विस्मृत कर बैठा है जिसके कारण पर्यावरण-क्षय एवं प्राकृतिक आपदाओं की समस्या उत्तरोत्तर भीषण होती जा रही है । मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि देकर सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में सृजित किया किन्तु मनुष्य भौतिक लालसाओं एवं अस्थाई सुखों के आकर्षण के चलते अपनी मर्यादाओं को बिसरा रहा है, नैसर्गिक कर्तव्यों की ओर से आँखें मूँदे बैठा है । वह विवश कर रहा है अन्य प्राणियों को उनकी मर्यादाओं को छोड़ने के लिए । वह विवश कर रहा है प्रकृति के विविध रूपों को अपनी मर्यादाओं की सीमा से बाहर निकलने के लिए तथा मानव-जाति का विनाश करने के लिए । वन-सम्पदा के विनाश के चलते मरुस्थल अपनी मर्यादा तोड़कर आगे फैलते जा रहे हैं जबकि उपजाऊ मैदान सिकुड़ते जा रहे हैं, कभी नदियां मार्ग छोड़कर विनाश-लीला करने लगती हैं तो कभी समुद्र सुनामी का अवांछनीय उपहार लेकर आ जाता है, पर्वतों पर बर्फ कम जम रही है तथा ग्लेशियरों का पिघलना यह संकेत दे रहा है कि वर्तमान सभ्यता पर संकट के मेघ मंडरा रहे हैं । साथ ही युवा पीढ़ी के दोषपूर्ण समाजीकरण के कारण समाज के विभिन्न अंग तुच्छ हितों के लिए अपनी मर्यादाएँ तोड़ रहे हैं तथा नई पीढ़ी को क्षणिक आनंद प्रत्येक मर्यादा से ऊपर लगने लगा है । परिणामतः सामाजिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक धरोहर का निरंतर क्षरण हो रहा है । 

निष्कर्ष यही है कि यद्यपि आज के व्यक्तिपरक युग में जबकि निजी स्वतन्त्रता एक जीवन-मूल्य बन चुकी है, मर्यादा के नाम पर किसी भी व्यक्ति पर कुछ थोपा नहीं जाना चाहिए किन्तु जो मर्यादाएँ वृहत् व्यवस्थाओं के अस्तित्व एवं विकास के लिए अपरिहार्य हैं, उनके मूल्य को समझना तथा उनका निष्ठापूर्वक अनुपालन किया जाना अत्यंत आवश्यक है । स्मरण रहे कि जब माता सीता ने लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का उल्लंघन किया तो मात्र उनके ही नहीं, रामायण के अनेक चरित्रों के जीवन में कैसे पीड़ाजनक मोड़ आए । अतः आइए, मर्यादाओं को मात्र बंधन न मानकर सांसारिक जीवन का एक अनिवार्य अंग मानें एवं उनके महत्व को समष्टिगत संदर्भों में समझें ।

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