जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत हो जाने पर भी इस मास से पूर्व मैंने कभी
भारत की भूमि से बाहर क़दम नहीं रखा था। सन २०२० में जब मेरे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ आने
वाली थी तो मेरी पुत्री ने वर्षारंभ में ही अपने माता-पिता (एवं छोटे भाई) को उस
अवसर पर कहीं विदेश ले जाने की योजना बना ली थी। किन्तु भाग्य का खेल ! कोरोना
महामारी के प्रसार के चलते कहीं आना-जाना संभव ही नहीं रहा। तथापि मेरी पुत्री की
दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण मैं एवं मेरा परिवार हरिहरेश्वर नामक एक सुरम्य स्थान पर
उस अवसर का उत्सव मना सके।
विगत मास मेरी पुत्री ने भारतीय प्रबंधन संस्थान
कोझीकोड से एम.बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। मैं तथा उसकी माता कोझीकोड जाकर
दीक्षांत समारोह में सम्मिलित भी हुए। तदोपरांत मेरी पुत्री ने सम्पूर्ण परिवार को
कहीं विदेश ले जाने का निर्णय एक बार पुनः लिया। मैं एक राजकीय संस्थान के आंतरिक
लेखा परीक्षा विभाग में नौकरी करता हूँ एवं अप्रैल का मास वार्षिक लेखों को अंतिम
रूप देने का मास होता है। अतः मई के प्रथम सप्ताह तक तो कहीं भ्रमण हेतु अवकाश
लेना संभव नहीं हो सका। मई के द्वितीय सप्ताह में मेरी पुत्री द्वारा निर्धारित
(एवं प्रबंधित) कार्यक्रम के अनुसार हम हमारे पड़ोसी देश भूटान की यात्रा पर गए। लगभग पाँच दिवस
का यह पारिवारिक पर्यटन अत्यन्त सुखद रहा। भूटान हेतु पासपोर्ट-वीज़ा आदि प्रपत्रों
की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन अंततः मेरी (एवं मेरी जीवन-संगिनी की भी)
विदेश-यात्रा हुई तो सही।
हम पश्चिम बंगाल के हवाई अड्डे बागडोगरा पहुँचे और वहाँ से सड़क-मार्ग द्वारा भारत एवं भूटान की सीमा पर स्थित कस्बे जयगाँव जहाँ हमने होटल 'व्हाइट हाउस' में रात्रि-विश्राम किया। अगले दिन संबंधित पर्यटन एजेंसी द्वारा नियुक्त गाइड हमें ठीक सीमा पर स्थित भूटान पासपोर्ट कार्यालय की औपचारिकताएं पूरी करवाने के उपरांत कार द्वारा आगे ले गया। भूटान का पहला नगर जो हमने देखा, वह है फुंशोलिंग।
फुंशोलिंग में हम पहले दिन घूमे-फिरे और वहाँ से भूटान
की राजधानी थिम्फू गए जहाँ हमारा रात्रि-विश्राम निर्धारित कार्यक्रमानुसार एक होटल
‘मंत्र होम’ में हुआ। ‘मंत्र होम’
में कार्यरत कर्मी-दल का नेतृत्व एवं समन्वय पसांग नामक एक महिला कर
रही थी जो न केवल अत्यन्त सेवाभावी सिद्ध हुई वरन वह हिन्दी तो इतनी साफ़सुथरी बोल रही
थी कि यदि उसकी मुखाकृति से उसके भूटानी होने का ज्ञान न हो जाता तो वह भारतीय ही प्रतीत
होती। वस्तुतः हमारे लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य ही था कि हमें होटल-रेस्तरां सहित अधिकांश
स्थलों पर कार्यभार महिलाओं के ही हाथ में देखने को मिला।
थिम्फू में दो दिन बिताने के उपरांत आगे के दो दिन हमने पारो नामक कस्बे में गुज़ारे। वहाँ हम ‘पेमा यांगसेल’ नामक होटल में रुके जो कि मुख्य बाज़ार के अत्यन्त निकट स्थित है। वहीं पर हम ‘टाइगर नेस्ट’ नामक पर्यटन-स्थल गए जो कि इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि मैंने तथा मेरी धर्मपत्नी ने तो जहाँ तक घोड़े जा सकते थे, वहाँ तक की यात्रा घोड़ों पर ही की जबकि हमारे दोनों बच्चे गाइड (जो कि हमारी ही आयु-वर्ग का व्यक्ति लगता था लेकिन हृष्ट-पुष्ट एवं ऐसे मार्गों पर चलने का अभ्यस्त था) के साथ पैदल ही आए। घोड़े प्रस्थान-स्थल से ‘टाइगर नेस्ट’ के मध्य का लगभग आधा मार्ग ही तय करवा सकते हैं जहाँ एक कैफ़ेटेरिया स्थित है। उससे आगे तो सभी को पैदल ही जाना होता है। सो हम भी गए। वापसी में भी हमने कैफ़ेटेरिया से तीन घोड़े किराये पर लिए ताकि जैसे हम ऊपर चढ़े थे, वैसे ही नीचे भी उतरते। हमारी बेटी भी इस बार घोड़े पर ही बैठकर नीचे तक आई। मेरा जी तो पूरे मार्ग में ही धुक-धुक करता रहा। लगा कि घोड़ा (और साथ में उस पर सवार मैं भी) अब गिरा, तब गिरा। पर ऐसा हुआ नहीं। किन्तु जब मेरी धर्मपत्नी अपने घोड़े पर लगाई गई ज़ीन के फिसल जाने से नीचे गिर गईं तो उनका मूड उखड़ गया और बाक़ी का रास्ता उन्होंने (हमारे बेटे की ही तरह) पैदल तय किया। हमने तो बस इस बात का शुक्र मनाया कि गिरने पर भी उन्हें कोई चोट नहीं आई। सम्भवतः एक बड़ा कोट जो उन्होंने पहन रखा था, उसने उनकी रक्षा की।
भूटान को थंडर ड्रैगन की भूमि कहा जाता है तथा यहाँ के विभिन्न स्थलों, स्मारकों एवं प्रतिमाओं पर ड्रैगन (मुख से आग फेंकने वाला अजगर) की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। ड्रैगन भूटान के राष्ट्रीय प्रतीक-चिह्न का भी अंग है तथा स्वभावतः भूटान के राष्ट्रीय ध्वज पर भी अंकित रहता है। मेरे परिवार ने (पारो के बाज़ार में स्थित दुकानों से) विभिन्न मित्रों एवं संबंधियों के निमित्त तो पृथक्-पृथक् स्मृति-चिह्न क्रय किये ही, अपने गृह के निमित्त भी ड्रैगन की एक प्रतिमा क्रय की।
लेकिन भूटान की जो बात मैं हमेशा याद रखूंगा, वह है वहाँ के लोगों का (सच्चा, न कि दिखावटी) देश-प्रेम और अनुशासन। कई दशक पहले मैंने बाल-पत्रिका 'चम्पक' में प्रकाशित होने वाली कॉमिक 'चीकू' के माध्यम से 'ज़ेब्रा क्रॉसिंग' के बारे में जाना था और यह सीख अपने मन में बैठाई थी कि पैदल चलते समय सड़क हमेशा ज़ेब्रा क्रॉसिंग (सड़क पर काली-सफ़ेद पट्टियों से बनाया गया निशान) से ही पार की जानी चाहिए। पारो में एक बार जब मैंने ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर क़दम रखा तो दूसरी तरफ़ से आ रही गाड़ियाँ तुरन्त रुक गईं और तभी फिर से स्टार्ट हुईं जब मैं सड़क पार कर गया। इसके ठीक विपरीत भारत में मैंने प्रायः देखा है कि न तो पैदल चलने वालों को तथा न ही वाहन-चालकों को ज़ेब्रा क्रॉसिंग का कोई ज्ञान होता है (होता है तो भी वे उसे महत्व नहीं देते)। विगत कुछ वर्षों से विशाखापट्टणम में निवास करते हुए तो मैं यह दिन-प्रतिदिन देखता हूँ कि प्रथम तो ज़ेब्रा क्रॉसिंग यदि धुंधली हो गई हो अथवा मिट गई हो तो उसे ठीक से पुनः बनाया ही नहीं जाता, द्वितीय यह कि यदि वह ठीक से दिखाई दे रही हो एवं कोई पैदल यात्री उस पर से सड़क पार कर रहा हो तो भी वाहन-चालकों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा वे उसी भांति तीव्र गति से वाहन चलाते हुए आते हैं कि वह पैदल चलने वाला अभागा यदि स्वयं सावधान न रहे तो वे उसे कुचल कर ही मानें। यह है विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश (जी हाँ, इस मामले में अब हम चीन को भी पीछे छोड़ रहे हैं) तथा उसके एक राज्य से भी छोटे एवं मात्र सात-आठ लाख की जनसंख्या वाले देश का अंतर। वहाँ जुर्माने होते हैं (जिसकी नौबत बहुत ही कम आती है) जबकि हमारे यहाँ रिश्वतख़ोरों की जेबें भरती हैं (या बेगुनाहों को पकड़कर 'टारगेट' पूरे किए जाते हैं)। वहाँ स्वच्छता है, यहाँ गंदगी (अभिजात्य वर्ग के आवासीय क्षेत्रों को अनदेखा कर दें तो)। वहाँ के नागरिक कर्तव्यपरायण हैं, यहाँ के (तथाकथित रूप से सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्तियों सहित) अधिसंख्य नागरिकों को अपने कर्तव्यों की सुध ही नहीं। हाँ, अपनी वतनपरस्ती का ढोल हम (वक़्त-बेवक़्त) बराबर बजाते रहते हैं। आप भारत-भूटान सीमा पर एक ही दृष्टि में इस अंतर को देख सकते हैं। सीमा-रेखा के उस ओर न भिक्षुक हैं (यद्यपि भगवान बुद्ध की सभी प्रतिमाओं में उनके हस्त में भिक्षापात्र बनाया जाता है), न कोई अस्वच्छ्ता, न यातायात की कोई अनुशासनहीनता जबकि सीमा-रेखा के इस ओर अपने देश में आते ही आपके पास मंगते आ जाते हैं; आप अस्वच्छता, कानफोड़ू कोलाहल एवं अनियंत्रित यातायात के मध्य में स्वयं को पाते हैं तथा तीन दिशाओं से यह अनुभूति आपके निकट चली आती है कि संभल जाइए, अब आप भारत में हैं।
और हाँ, भूटान में हमने ढेर सारी गोरैया देखीं जिनके संबंध में भारत में 'गोरैया दिवस' पर बस कविताएं ही लिखी जाती हैं, उनके दर्शन अब दुर्लभ ही हैं।
आभार मेरी पुत्री का जिसने अपने माता-पिता एवं लघुभ्राता हेतु इस मनभावन एवं अविस्मरणीय यात्रा का प्रबंध किया।