मुण्डकोपनिषद के एक श्लोक की सर्वज्ञात पंक्ति है - सत्यमेव जयते नानृतम। इसका अर्थ है कि सदा सत्य ही विजयी होता है, न कि असत्य। भारत के संविधान-निर्माताओं ने इसके एक भाग 'सत्यमेव जयते' को हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न का एक अंग बनाया तथा इसे हमारे न्यायालयों में भी न्यायासन के पश्च भाग पर (प्रायः) उल्लिखित देखा जा सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजीवन सत्य के पथ पर चलने का निर्णय लिया तथा सत्य को ही ईश्वर का रूप माना। आज से कुछ दशक पूर्व जब मुझ जैसे व्यक्ति बाल्यावस्था में थे तो हमारी (हिन्दी माध्यम की) पाठ्यपुस्तकों में सद्गुणों पर बल देने वाले पाठ पढ़ाए जाते थे। इन सद्गुणों में सत्य बोलना (एवं उसके पथ पर चलना) भी सम्मिलित होता था। मैंने उसी काल में इस बात को अपने मन में भीतर तक स्थापित कर लिया। किन्तु जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया और अपने चारों ओर उपस्थित संसार को देखता-समझता गया, मुझे धीरे-धीरे ही सही, यह वास्तविकता अनुभूत होती गई कि सत्य की विजय होती तो है परंतु सदा नहीं। मुझे यह भी सूझा कि सत्य का पथ पुष्पाच्छादित नहीं होता, कंटकाकीर्ण होता है जिस पर चलना बड़े साहस का कार्य है। असत्यवादियों एवं अन्याय के समर्थकों से घिरे रहकर सत्य का अनुसरण अत्यधिक कठिन होता है, यह बात देरसवेर सत्य का पथिक (मेरी तरह) समझ ही लेता है। चाणक्य शतकम् के एक श्लोक में उक्त है - चौराणाम् अनृतम बलम् अर्थात् चोरों का बल झूठ है। इसी बल से वे सत्य को असत्य तथा असत्य को सत्य प्रमाणित कर देते हैं तथा सच्चे व्यक्ति के मनोबल को तोड़ देते हैं। सम्भवतः इसीलिए यह चोरों का ही युग है। यह अपने आप में ही एक कटु सत्य है कि -
सत्य के सच्चे पथिक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होंने मूलतः तो गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इन पंक्तियों को आत्मसात् करके चलना आरंभ किया था - यदि आपकी पुकार सुनकर कोई साथ न आए तो अकेले ही चलो - भी अंततः टूट गए थे। पूर्व में दीर्घायु होने के आकांक्षी बापू का अपने अंतिम वर्षों में जीवन से मोहभंग हो गया था। वे देख चुके थे कि लोग उनकी पूजा तो करते थे, उनके बताए हुए पथ पर नहीं चलना चाहते थे। किसी पर स्वार्थ हावी हो गया था तो किसी पर निजी दुख से भरी भावनाएं तो किसी पर उसकी कोई विवशता। यहाँ तक कि किसी-किसी का उनके विचारों से विश्वास ही उठ गया था (चाहे उसने कहा न हो)। बापू सब देख-सुन-समझ रहे थे पर अब वे जो हो रहा था, उसे रोकने हेतु कर कुछ नहीं सकते थे। सत्य सहित उनके सभी सिद्धांत घायल होकर कराह रहे थे जिनकी पीड़ा का स्वर भी अब बधिर कानों पर ही पड़ रहा था। वे तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को नहीं मरे, भीतर से वे बहुत पहले ही मर चुके थे। मेरी दिवंगत माताजी अपने पिता (मेरे नाना) के साथ उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित हुई थीं। सम्भवतः इस तथ्य का भी कुछ प्रभाव मेरे अपने व्यक्तित्व पर पड़ा हो। पर जब हृदय के सत्य का साक्षात् संसार के सत्य से हुआ तो जो मैंने पाया उससे मैं हतप्रभ रह गया। अपने विद्यार्थी जीवन से लेकर अपने कार्यशील जीवन (करियर) तक विगत अनेक दशकों में मैंने सत्य को (लगभग) प्रत्येक चरण पर एवं प्रत्येक स्थिति में पराजित होते हुए देखा और ... और आज भी देखता हूँ। ऐसे में 'सत्यमेव जयते' की उक्ति पर मैं कैसे विश्वास करूं ?
न्याय सत्य का ही एक पक्ष है क्योंकि अन्याय होने का अर्थ ही है सत्य पर प्रहार होना। अतः सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा ही न्याय है। यदि सचमुच कभी सतयुग रहा होगा तो उसमें अन्याय अनुपस्थित ही रहा होगा। न्यायालय की दीवार पर 'सत्यमेव जयते' लिखे जाने का अभिप्राय ही यही है कि न्याय सत्य में ही समाहित है। सत्य की जय होगी तो न्याय की जय स्वतः ही हो जाएगी। सत्य की पराजय ही अन्याय की विजय है तथा आदर्श स्थिति यही है कि ऐसा न होने पाए। आज तो सतयुग नहीं है, आज तो कलयुग है। अन्याय दिन-प्रतिदिन होते हैं तथा अन्याय-पीड़ित न्याय की गुहार लगाते रहते हैं। जिसकी गुहार सही स्थान पर सुन ली जाए, उसके लिए कोई आशा रहती है (कभी-न-कभी) न्याय मिलने की और जिसकी गुहार किसी सही स्थान पर न पहुँच सके, उसके लिए घुट-घुटकर मर जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रहता। बहुत-से अन्याय-पीड़ित (इसमें पीड़िताएं भी सम्मिलित हैं) सम्भवतः इसीलिए आत्मघात कर लेते हैं क्योंकि उन्हें न्याय मिलने की (झूठी ही सही) कोई आशा नहीं रहती। न्याय प्रदान करने की अति-विलम्बित प्रक्रिया भी वस्तुतः अन्यायियों के पक्ष में ही कार्य करती है। आततायी इसीलिए निर्भय होकर अत्याचार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनका दुष्कार्य तो तुरंत पूर्ण हो जाएगा किन्तु पीड़ित (या पीड़िता) को न्याय पाने में (अत्यन्त कठिन प्रयास करने पर) वर्षों लगेंगे, हो सकता है कि सम्पूर्ण जीवन ही लग जाए और उस पर भी आवश्यक नहीं कि न्याय मिल ही जाए। अतः यह प्रक्रिया ही निर्दोष के साथ एक प्रकार का प्रच्छन्न अन्याय है जो आततायी को अनुचित बल प्रदान करता है, उसे और अधिक अन्याय एवं अत्याचार करने हेतु दुस्साहसी बनाता है। अति-विलम्ब से हुआ न्याय वस्तुतः न्याय होता भी नहीं क्योंकि दुर्बल हेतु तो देर ही अंधेर है।
आज का युग बहुमत का युग है तथा जब बहुमत स्वार्थियों का हो तो सत्य एवं न्याय की परवाह कौन करे ? स्वार्थी प्रायः एकत्र होकर असत्य एवं अन्याय का प्रसार करते रहते हैं क्योंकि उनके निहित स्वार्थ उन्हें जोड़े रखते हैं जबकि सत्य के पथिक एवं न्याय की स्थापना हेतु प्रयासरत व्यक्ति प्रायः अकेले पड़ जाते हैं। व्यवस्थाएं क्रूर एवं संवेदनहीन होती हैं जिनमें हाड़-मांस के बने व्यक्तियों के दुख-दर्द से अधिक महत्वपूर्ण निर्जीव नियम एवं तर्कहीन प्रक्रियाएं होती हैं। अतः व्यवस्थाएं प्रायः अपने घोषित उद्देश्यों के विरूद्ध ही कार्य करती हैं। हमारे देश में न्याय बिकाऊ है और इसीलिए वह सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर होता हैं। नामी वकील बड़े महंगे होते हैं जिनकी सेवाएं साधन-सम्पन्न लोग ही क्रय कर सकते हैं। इसीलिए निर्धन व्यक्ति अन्यायियों के लिए सुलभ शिकार होते हैं जो न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में मर ही सकते हैं, न्याय प्राप्त नहीं कर सकते।
ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसलिए होता है कि सृष्टि का व्यापार शक्ति-संतुलन पर आधारित होता है। किसी भी द्वंद्व में विजय उसी की होती है जिसका निर्णायक क्षण में पलड़ा भारी होता है। यही कारण है कि आदर्श भले ही 'सत्यमेव जयते' हो, यथार्थ तो 'शक्तिमेव जयते' ही है। सौ में से निन्यानवे अवसरों पर असत्य एवं अन्याय का ही पलड़ा भारी होता है, वे सत्य एवं न्याय से अधिक शक्तिशाली होते हैं; और इसीलिए जीतते हैं। अपवादस्वरूप किसी एक अवसर पर सत्य एवं न्याय का पलड़ा (अनुकूल परिस्थितियों के कारण) भारी हो जाता है तो उनकी विजय हो जाती है तथा हम उसी से अति-प्रसन्न होकर उत्सव मनाने लगते हैं। वस्तुस्थिति तो यही है कि सत्य की स्थापना तथा न्याय की प्राप्ति के निमित्त भी सामर्थ्य चाहिए। और अन्यायी प्रायः समर्थ ही होते हैं। तभी तो वे अन्याय कर पाते हैं। तथाकथित न्याय-व्यवस्था उन्हीं की पक्षधर होती है। गोस्वामी तुलसीदास तो शताब्दियों पूर्व ही कह गए हैं - समरथ को नहिं दोष गुसाईं।
आज भारत में धनबल एवं सत्ताबल के अहंकार में चूर आततायी इस सीमा तक निर्मम (एवं परपीड़क) हो चुके हैं कि वे उत्पीड़ित से यह भी अपेक्षा करते हैं कि वह अपने साथ हुए अन्याय एवं अत्याचार को मौन रहकर सह जाए तथा न्याय प्राप्ति हेतु प्रयास ही न करे। अगर वह किसी से अपने साथ हुए ज़ुल्म की फ़रियाद भी लगा दे तो इसे भी उसकी एक और ग़लती मानकर उस पर और अधिक ज़ुल्म ढाया जाता है। यानी कि जबरा मारे और रोने भी न दे। और यदि कोई संवेदनशील व्यक्ति (या संस्था) ऐसे असहाय पीड़ित (या पीड़िता) को व्यवस्था द्वारा न्याय दिलाने का प्रयास करे तो उसे भी आततायी अपने शत्रु के रूप में ही देखते हैं तथा उसे भी ठिकाने लगा देने की जुगत करने लगते हैं (प्रायः इसमें सफल भी होते हैं) ताकि फिर से कोई किसी बेबस को इंसाफ़ दिलाने की जुर्रत करने के लिए न उठ खड़ा हो। तो ऐसे में अकेले पड़ चुके आहत का हाथ कौन थामे ? बेसहारा का सहारा बनने की हिम्मत कौन करे ?
भारत में एक अरसे से लोग कानून को अपने हाथ में लेते आ रहे हैं क्योंकि वे न तो इंसाफ़ को ख़रीद सकते हैं और न ही उन्हें कानून और उसके नुमाइन्दे यह यकीन दिला पाते हैं कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा। एक शताब्दी से भी अधिक समय पूर्व प्रेमचंद ने अपनी अमर कथा 'पंच परमेश्वर' में एक पात्र के मुख से यह कालजयी संवाद कहलवाया था - 'क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?' लेकिन एक सदी गुज़र जाने के बाद भी हमारे सामने हालात यही हैं कि लोग बिगाड़ के डर (या किसी ख़ुदगर्ज़ी) से ईमान की बात नहीं कहते। जब कहने तक में गुरेज़ है तो इंसाफ़ करने के लिए क़दम कौन आगे बढ़ाएगा ? आज तो हमारे यहाँ हाल यह हो गया है कि उच्च-स्तरीय न्यायालय भी न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को ताक पे रखकर लोकरुचि (एवं सत्ता) के अनुकूल निर्णय दे रहे हैं। ऐसे में विशुद्ध सत्य के लिए स्थान ही कहाँ ? विशुद्ध न्याय को कहाँ शरण मिले ? यहाँ तक कि इंसाफ़ के लिए बरसों तलक दर-दर की ठोकरें खाने वाली और अब एक बार फिर से ख़ौफ़ में जी रही बिलक़ीस बानो के लिए हमारे विद्वानों एवं विदुषियों के पास और कुछ तो छोड़िए, हमदर्दी के दो बोल भी नहीं हैं। हमारे देश में उत्पीड़ितों से भी कहीं अधिक असहाय हैं सत्य और न्याय। कुछ लोग मज़लूमों को तसल्ली देने की कोशिश ज़रूर करते हैं लेकिन जो लुट गया हो, बरबाद हो गया हो; उसका काम खोखली तसल्लियों से नहीं चलता। तसल्ली देने के मामले में भी मैं यही सच बयां करना चाहूंगा -
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